जलकुंभी (Water Hyacinth) से करें जल का उपचार

“जलकुंभी एक जलीय पौधा है, जिस का उपयोग अपशिष्ट जल और भारी धातुओं को हटाने के लिए किया जा सकता है.” जी हां, जलकुंभी फ्री फ्लोटिंग यानी स्वतंत्र रूप से तैरने वाला जलीय पौधा है, जिस का उपयोग अपशिष्ट जल के उपचार और भारी धातुओं को हटाने के लिए किया जा सकता है.

यह तेजी से बढ़ने वाला पौधा है, जो पानी से भारी धातुओं को अपनी जड़ों से ग्रहण कर सकता है. भारी धातुएं जलकुंभी पौधों की पत्तियों और तनों में आसानी से जमा हो जाती हैं.

जलकुंभी से जल का उपचार करने के लिए अपशिष्ट जल को पहले एक टैंक या तालाब में पंप किया जाता है, जहां जलकुंभी बढ़ रही होती है. ऐसी जगहों में जलकुंभी पानी से भारी धातुओं को सोख लेगी. पानी से जब जलकुंभी भारी धातुओं को सोख लेती है, तब कुछ समय के बाद जलकुंभी को काटा जा सकता है और पौधे से भारी धातुओं को हटाया जा सकता है.

भारी धातुओं को हटाने में जलकुंभी की दक्षता कई कारकों पर निर्भर करती है, जिस में भारी धातु का प्रकार, पानी में भारी धातु की घुलनशीलता और जलकुंभी की वृद्धि दर शामिल है. सामान्य तौर पर जलकुंभी सीसा, जस्ता, तांबा और कैडमियम सहित विभिन्न प्रकार की भारी धातुओं को हटाने में प्रभावी हो सकती है.

जलकुंभी अपशिष्ट जल के उपचार और भारी धातुओं को हटाने के लिए कम लागत वाली और टिकाऊ विधि है. यह एक तकनीक है, जिस का उपयोग दुनिया के कई हिस्सों में पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिए किया जा सकता है.

धातुओं को हटाने और पानी के उपचार का तरीका

सब से पहले प्रदूषित या अपशिष्ट जल एकत्र करें, फिर तालाब में जलकुंभी उगाएं. इस के उपरांत अपशिष्ट या प्रदूषित जल को टैंक या तालाब में पंप करें, जहां जलकुंभी बढ़ रही हो. जिस जगह प्रदूषित पानी को जलकुभी के साथ इकट्ठा किया गया है, वहां जलकुंभी को कुछ समय के लिए पानी से भारी धातुओं को अवशोषित करने दें. जब लगे कि पानी से जलकुंभी ने भारी धातुओं को सोख लिया है, तो जलकुंभी की कटाई करें.
जब भारी धातुओं को यह सोख चुकी होती है, तब जलकुंभी से भारी धातुओं को हटा दें. इस जलकुंभी से उपचारित किए गए पानी का उपयोग सिंचाई, औद्योगिक प्रक्रियाओं या अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है.

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जलकुंभी अपशिष्ट जल उपचार का पूरी तरह समाधान नहीं है. यह सुनिश्चित करने के लिए कि पानी मानव उपयोग के लिए सुरक्षित है, जलकुंभी उपचार को अन्य तरीकों जैसे निस्पंदन और क्लोरीनीकरण के साथ जोड़ना महत्वपूर्ण है.

– डा. ज्योत्सना मिश्रा, महात्मा गांधी उद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, दुर्ग,

कैंप कार्यालयः कृषक सभागार, इं.गां.कृ.वि.वि. परिसर, लाभांडी, रायपुर (छ.ग.) 492012)

स्पिरुलिना की व्यावसायिक खेती

हमारे देश के ज्यादातर किसान पारंपरिक खेती पर निर्भर हैं, जिस से उन्हें अपेक्षा के अनुरूप फायदा नहीं मिल पाता है. पारंपरिक खेती पर निर्भर रहने वाले किसानों के लिए मौसम की अनिश्चितता भी बड़ी समस्या है. खादबीज की समय से उपलब्धता न हो पाना भी किसानों के लिए खेती में नुकसान की एक बड़ी वजह बन जाता है. पारंपरिक फसलों का मूल्य भी व्यावसायिक की अपेक्षा बहुत कम होता है, जिस से किसान निराशा का शिकार हो कर खेती से धीरेधीरे दूर होते जा रहे हैं. ऐसे में किसानों को पारंपरिक फसलों के साथ ही कुछ ऐसी फसलों की खेती की तरफ कदम बढ़ाना होगा, जिस का बाजार मूल्य और मांग दोनों अच्छे हों.

ऐसी ही एक व्यावसायिक फसल की खेती कर किसान अच्छीखासी आमदनी हासिल कर सकते हैं, जिसे स्पिरुलिना के नाम से जाना जाता है. यह एक तरह का जीवाणु है, जिसे साइनोबैक्टीरियम के नाम से भी जाना जाता है.

आमतौर पर इसे हम ‘शैवाल’ भी कह सकते हैं. यह एक प्रकार की जलीय वनस्पति है, जो  झीलों,  झरनों और खारे पानी में आसानी से पैदा होती है. प्राकृतिक रूप से यह समुद्र में पाई जाती है. इस का रंग हरा व नीला होता है.

व्यावसायिक लेवल पर इस की खेती प्लास्टिक या सीमेंट के टैंक बना कर भी की जा सकती है. यह पोषण के सब से महत्त्वपूर्ण तत्त्वों में शामिल किया जा सकता है, क्योंकि इस में ऐसे कई महत्त्वपूर्ण तत्त्व मौजूद होते हैं, जो हमें बीमारियों से बचाते हैं. साथ ही, इस में कई तरह के विटामिंस, खनिज और पोषक तत्त्व के साथसाथ प्रोटीन की भरपूर मात्रा पाई जाती है. यह पोटैशियम, कैल्शियम सेलेनियम और जिंक का भी महत्त्वपूर्ण स्रोत है. कई देशों में इसे ‘सुपर फूड’ के नाम से भी जाना जाता है.

सेहत के लिए फायदेमंद : स्पिरुलिना की खेती किसानों के लिए इसलिए ज्यादा फायदेमंद मानी जा सकती है, क्योंकि यह सेहत और पोषण के लिए सब से मुफीद माना जाता है. इस का खाने में उपयोग करने से रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है, साथ ही, शरीर में कोलेस्ट्रौल की मात्रा को संतुलित रखता है. इस का उपयोग दिल के लिए भी अच्छा होता है.

अगर स्पिरुलिना का सेवन नियमित रूप से किया जाए तो यह सांस संबंधी बीमारी और एलर्जी से भी बचाता है. इस का उपयोग कैंसर की संभावनाओं को भी कम करता है. यह पाचन तंत्र और दिमागको भी मजूबत बनाता है.

स्पिरुलिना का खाने में उपयोग शरीर में खून की कमी को दूर करता है. यह मांसपेशियों को मजबूती देने के साथ शरीर में शुगर की मात्रा को भी नियंत्रित करता है. इसीलिए ढेर सारे गुणों को समेटे स्पिरुलिना की मांग न केवल देश में, बल्कि विदेशों में भी खूब है. इस नजरिए से कोई भी किसान अगर इस की खेती करता है, तो उसे मार्केटिंग के लिए परेशान नहीं होना पड़ता है.

स्पिरुलिना को खाने के लिए पाउडर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इस में आयरन,  ओमेगा 6 , ओमेगा 3 फैटी एसिड, प्रोटीन, विटामिन बी 1, विटामिन बी 2, विटामिन बी 3, कौपर,  मैंगनीज, पोटैशियम और मैगनीशियम जैसे महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्वों की प्रचुर मात्रा उपलब्ध होती है.

खेती के लिए अनुकूल दशा : स्पिरुलिना की व्यावसायिक खेती के लिए गरम मौसम का होना जरूरी है. भारत में ठंड के मौसम में इस की खेती नहीं की जा सकती.

अगर किसान चाहते हैं कि स्पिरुलिना की फसल में ज्यादा प्रोटीन की मात्रा हासिल करें, तो उस के लिए सामान्य धूप होना जरूरी है यानी तापमान 30 से 35 डिगरी सैल्सियस के बीच हो.

आजकल तापमान का पता लगाने के लिए कई तरह के मोबाइल ऐप उपलब्ध हैं, जिन्हें हम अपने मोबाइल फोन में आसानी से इंस्टौल कर जानकारी ले सकते हैं. कम तापमान की दशा में स्पिरुलिना की क्वालिटी और उत्पादन दोनों प्रभावित हो सकते हैं.

Sprilunaखेती के लिए पानी का टैंक या तालाब तैयार करना : स्पिरुलिना शैवाल की खेती को खुले तालाबों में करना न केवल कठिन होता है, बल्कि इस से क्वालिटी और उत्पादन दोनों ही प्रभावित होते हैं. इस के लिए किसान कंकरीट या प्लास्टिक की पन्नियों से टैंक तैयार कर सकते हैं.

शुरुआती दौर में कम लागत से स्पिरुलिना शैवाल की खेती शुरू करने के लिए पौलीथिन का गड्ढा भी तैयार किया जा सकता है. कंकरीट या पौलीथिन से तैयार किए गए गड्ढे का उत्तम आकार लंबाईचौड़ाई 10×20 फुट का हो सकता है और गहराई 2-3 फुट तक हो सकती है. गड्ढों को प्रदूषण के प्रभाव से बचाने के लिए पौली पैक में भी बनाया जा सकता है.

खेती शुरू करना : कंकरीट या पौलीथिन से तैयार गड्ढे यानी टैंक में 20 से 30 सैंटीमीटर की ऊंचाई तक पानी भर दिया जाता है. गड्ढे में पानी भरते समय यह ध्यान रखें कि उस में भरा जाने वाला पानी गंदा न हो. चूंकि गरम तापमान में इस की खेती की जाती है. ऐसे में गड्ढा खुले होने के चलते पानी का वाष्पीकरण भी होता रहता है, जिस से गड्ढे में पानी की मात्रा कम हो सकती है, इसलिए गड्ढे में 20 से 30 सैंटीमीटर की ऊंचाई तक पानी की भराई करते रहना चाहिए.

पानी के गड्ढे में स्पिरुलिना के बीज व कल्चर डालने के पहले पानी में पीएच मान की संतुलित मात्रा का निर्धारण किया जाता है.

पीएच का मतलब होता है पानी में हाइड्रोजन की क्षमता या पोटैंशियल हाइड्रोजन. इस से पानी की गुणवत्ता का निर्धारण भी किया जाता है. पानी में स्पिरुलिना बीज डालने के पहले पानी में पीएच की आदर्श मात्रा 9 से 11 के बीच होना जरूरी है. इस की जांच के लिए बाजार में मामूली कीमत पर पीएच पेपर मुहैया होता है. इस के जरीए पानी में पीएच की मात्रा का निर्धारण किया जा सकता है.

इस के अलावा गड्ढे में उपलब्ध पानी की मात्रा के अनुसार प्रति लिटर पानी में 8 ग्राम सोडियम बाई कार्बोनेट यानी खाने वाले सोडे़ का घोल मिलाते हैं. पानी में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों का घोल या कल्चर भी मिलाया जाता है. इस में एक किलोग्राम स्पिरुलिना के बीज के साथ 8 ग्राम सोडियम बाई कार्बोनेट, 5 ग्राम सोडियम, 0.2 ग्राम यूरिया, 0.5 ग्राम पोटैशियम सल्फेट, 0.16 मैगनीशियम सल्फेट, 0.052 मिलीलिटर फास्फोरिक एसिड और 0.05 मिलीलिटर फेरस सल्फेट पानी से भरे टैंक में मिलाए जाते हैं. इस पानी को डंडे की मदद से रोज हिलाया जाना चाहिए. इसे तैयार करने में एक हफ्ते का समय लगता है.

किसान उक्त रसायनों के घोल की मात्रा के निर्धारण में आने वाली परेशानियों से बचने के लिए औनलाइन भी संतुलित मात्रा का पैकेट खरीद सकते हैं. जब गड्ढे में स्पिरुलिना की खेती योग्य पानी तैयार हो जाए, तो इस में स्पिरुलिना कल्चर और 10 लिटर पानी के हिसाब से 30 ग्राम शुष्क स्पिरुलिना का बीज डाला जाता है.

स्पिरुलिना की  खेती के लिए व्यावसायिक लेवल पर इस के बीज को किसानों को खुद ही अलग गड्ढे में तैयार करते रहना चाहिए. इस से बीज के ऊपर आने वाली लागत को कम किया जा सकता है.

पानी को क्रियाशील बनाना : जिस गड्ढे में स्पिरुलिना की खेती की जाती है, उस का क्रियाशील होना जरूरी है, इसलिए पानी को क्रियाशील बनाए रखने के लिए उस में बिजली या सोलर से चलने वाले आटोमैटिक पैडल या डंडे द्वारा पानी को फेंटते रहना चाहिए. इस से स्पिरुलिना जीवाणु कल्चर के साथ क्रियाशील हो कर अच्छा उत्पादन देता है. पानी के फेंटने के चलते स्पिरुलिना की फसल को पर्याप्त मात्रा में धूप भी मिलती  है.

फसल को सुखाना : स्पिरुलिना के गीले कल्चर को प्रतिदिन साफ कपडे़ से छान लिया जाता है. इस के बाद इस में उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए इसे किसी छायादार बंद कमरे में फैला कर सुखाया जाता है. सूखा होने पर स्पिरुलिना कई महीनों तक चल जाएगी और इस में पोषक तत्त्व भी संरक्षित किया जा सकता है. इस की तैयार फसल को नैचुरल तरीके से सुखाने के लिए मशीनें भी उपलब्ध हैं. इस का उपयोग कर फसल को सुखाया जा सकता है.

जब स्पिरुलिना पर्याप्त मात्रा में सूख जाती है, तो इसे पीस कर चूर्ण या कैप्सूल के लिए तैयार कर लिया जाता है. इस तरह स्पिरुलिना के तैयार उत्पाद को वायुरोधी पैकिंग में पैक कर 3 से 4 साल तक पौष्टिक गुणों के साथ महफूज रखा जा सकता है.

Sprilunaलागत, उत्पादन व लाभ : स्पिरुलिना की खेती के लिए अगर कंकरीट का गड्ढा तैयार किया जाता है, तो 10×20 फुट आकार के गड्ढे पर तकरीबन 20,000 से 30,000 रुपए की लागत आती है. इस के अलावा प्लांट के लिए मशीनरी, कैमिकल वगैरह पर 20 गड्ढों कीलागत समेत एक बार में लगभग 7 से 8 लाख रुपए की लागत आती है.

एक बार पूंजी लगाने के बाद प्रत्येक गड्ढों से औसतन 2 किलोग्राम गीली कल्चर हर दिन पैदा होता है. इस तरह एक किलोग्राम गीले स्पिरुलिना के लगभग 100 ग्राम शुष्क पाउडर मिल जाता है. इस के आधार पर औसतन 20 टैंक स्पिरुलिना फार्मिंग से प्रतिदिन 4-5 किलोग्राम सूखा स्पिरुलिना पाउडर मिलता है.

इस तरह से एक महीने में स्पिरुलिना का उत्पादन 100 से 130 किलोग्राम तक हासिल होता है. इस तरह से अगर सूखे स्पिरुलिना की बिक्री थोक दर पर लगभग 600 रुपए प्रति किलोग्राम होती है, तो आसानी से एक किसान हर माह तकरीबन 40-45 हजार रुपए  की आमदनी हासिल कर सकता है.

भेड़ बकरी पालन में जागरूक बन करें विकास

अविकानगर: केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान अविकानगर में जगन्नाथ यूनिवर्सिटी चाकसू जयपुर के 70 एग्रीकल्चर स्नातक के स्टूडैंट्स का एक दिवसीय शैक्षणिक भ्रमण कार्यक्रम अपनी फैकल्टी डा. जितेंद्र कुमार शर्मा, डा. रामावोतर शर्मा, इंजीनियर एंजेलो डेनिश के साथ आयोजित किया गया.

निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर के अनुसार कृषि व पशुपालन में भविष्य में स्टूडैंट्स को ज्यादा से ज्यादा जागरूक कर ही इस में उद्यमिता का विकास किया जा सकता है, इसलिए स्टूडैंट्स ने भ्रमण के दौरान संस्थान के दुंबा भेड़, अविशान भेड़, बकरी एवं खरगोशपालन इकाई के विजिट के साथ टैक्नोलौजी पार्क, मैडिसिनल गार्डन, हौर्टिकल्चर, चारा एवं पशुओं के लिए आवश्यक चारा वृक्ष व अन्य पोषण प्रबंधन के बारे में जान कर वहां पर उपस्थित संस्थान के कर्मचारियों के साथ संस्थान मे चल रहे शोध कार्य को जाना.

एटिक सैंटर के तकनीकी कर्मचारी मोहन सिंह द्वारा स्टूडैंट्स को संस्थान का एक दिवसीय भ्रमण के तहत विभिन्न जगह जैसे वूल प्लांट, सैक्टर्स, प्रदर्शनी हाल, फिजिलौजी आदि का भी भ्रमण कराया गया

 मधुमक्खीपालन को बनाएं स्वरोजगार, मिल रही सरकारी मदद

हिसार: हरियाणा के भूमिहीन, बेरोजगार और अशिक्षित यानी अपढ़ ग्रामीण पुरुष व महिला किसानों को अब मधुमक्खीपालन के प्रति रुचि पैदा करने व छोटी मधुमक्खीपालन इकाई की स्थापना कर इसे स्वरोजगार के रूप में अपनाने में आर्थिक व तकनीकी मदद मिलेगी. इस के लिए चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय और इंडियन औयल कारपोरेशन लिमिटेड के बीच एमओयू हुआ है.
कुलपति प्रो. बीआर कंबोज की उपस्थिति में विश्वविद्यालय की ओर से अनुसंधान निदेशक डा. जीतराम शर्मा और इंडियन औयल कारपोरेशन लिमिटेड की तरफ से उत्तरी क्षेत्रीय पाइपलाइन के कार्यकारी निदेशक एसके कनौजिया ने इस एमओयू पर हस्ताक्षर किए. इस दौरान इंडियन औयल कारपोरेशन लिमिटेड की तरफ से उत्तरी क्षेत्रीय पाइपलाइन से डिप्टी जनरल मैनेजर नीरज सिंह व मैनेजर अनुराग जायसवाल भी मौजूद रहे.

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने कहा कि हरियाणा शहद उत्पादन में अग्रणी राज्यों में से एक है. मधुमक्खीपालन क्षेत्रों में हरियाणा राज्य पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है. प्रदेश के भूमिहीन, बेरोजगार, अशिक्षित व कम जोत वाले किसान मधुमक्खीपालन को रोजगार के रूप में अपना कर अपनी माली हालत को मजबूत कर सकते हैं.

उन्होंने आगे कहा कि योजना का मुख्य उद्देश्य किसानों खासतौर पर महिलाओं में मधुमक्खीपालन को लोकप्रिय बना कर स्वरोजगार को स्थापित करना है. इस से प्रशिक्षण प्राप्त प्रतिभागी न केवल खुद रोजगार प्राप्त कर सकेंगे, अपितु दूसरों को भी रोजगार प्रदान करने में सक्षम होंगे.

उन्होंने यह भी बताया कि मधुमक्खीपालन अपनाने से किसानों व खासतौर पर महिलाओं के लिए आजीविका के साधन बढ़ेंगे, साथ ही स्वास्थ्य को भी लाभ मिलेगा.

इंडियन औयल कारपोरेशन लिमिटेड के उत्तरी क्षेत्रीय पाइपलाइन के कार्यकारी निदेशक एसके कनौजिया ने बताया कि हरियाणा में मधुमक्खीपालन में रोजगार के बेहतरीन अवसर हैं. हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय किसानों से सीधेतौर से जुड़ कर उन के उत्थान में अग्रणी भूमिका निभा रहा है.

उन्होंने यह भी कहा कि खासतौर पर महिला किसान मधुमक्खीपालन को अपना कर संतुलित आहार व पोषक तत्व सहित अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं. उन्होंने एमओयू पर खुशी जाहिर की, साथ ही सामाजिक दायित्व के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मिले सहयोग हेतु विश्वविद्यालय के कुलपति डा. बीआर कंबोज का आभार जताया.

कीट विज्ञान विभाग की अध्यक्ष एवं परियोजना अधिकारी डा. सुनीता यादव ने बताया कि हरियाणा के विभिन्न जिलों में वैज्ञानिक मधुमक्खीपालन और इस में विविधीकरण को अपनाने से स्थायी आर्थिक व पोषण सुरक्षा विषय पर आधारित मधुक्रांति योजना के तहत शुरुआती चरण में हरियाणा के 4 जिलों का चयन किया गया है, जिन में करनाल, कुरुक्षेत्र, झज्जर व सोनीपत शामिल हैं.

उन्होंने बताया कि चारों जिलों से कुल 120 बेरोजगार युवा, महिला प्रशिक्षुओं को मधुमक्खीपालन संबंधित प्रशिक्षण देने व उन्हें छोटी मधुमक्खीपालन इकाई की स्थापना कर इन्हें स्वरोजगार के रूप में अपनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा. प्रशिक्षुओं को मधुमक्खीपालन इकाई की स्थापना के लिए निःशुल्क किट व आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध कराई जाएगी.

कृषि विज्ञान केंद्रों की देखरेख व उन की मदद से प्रशिक्षकों को उन के उत्पादों की मार्केटिंग करने में भी मदद की जाएगी. साथ ही, उन्हें मधुमक्खीपालन इकाइयों का भी भ्रमण करवाया जाएगा. उन्होंने बताया कि कुल 1,300 गरीब महिलाओं व बच्चों को निःशुल्क शहद वितरित किया जाएगा और शहद के गुणों व औषधीय लाभों को बता कर उन में जागरूकता पैदा की जाएगी.

गैरपरंपरागत नकदी फसलों की खेती

राजस्थान भारत का सब से बड़ा राज्य है और पिछड़े हुए राज्यों की कैटीगरी में आता है. यह राज्य भारत की उत्तरीपश्चिमी सीमा पर बसा है. यहां की पारिस्थितिकी और वातावरणीय हालात बहुत ही प्रतिकूल हैं और यहां पर कम और अनियमित बारिश, ज्यादा तापमान, चलायमान रेतीले टीबे, धूल भरी आंधियां वगैरह जैसे हालात आमतौर पर बने रहते हैं. यहां के ज्यादातर लोग खेती पर निर्भर रहते हैं और परंपरागत फसलों जैसे बाजरा, तिल वगैरह की खेती करते हैं.

ज्यादा गंभीर हालत और बारिश की अनियमितता के चलते इस इलाके के किसान हमेशा आशंकित और डरेसहमे रहते हैं. यहां अकाल जैसी आपदा का अंदेशा बना रहता है. कुछ गैरपरंपरागत फसलों जैसे सोनामुखी, जोजोबा, तुंबा वगैरह की खेती द्वारा इस इलाके के किसान न केवल बारिश की अनियमितता से होने वाले नुकसान से बच सकते हैं, वरना उन्हें इस से एक अच्छी आमदनी भी मिल सकती है. इन सभी के अलावा इन गैरपरंपरागत फसलों की खेती से परती जमीन में हरियाली भी लाई जा सकती है.

जोजोबा

JoJoba

 

जोजोबा या होहोबा के नाम से पुकारे जाने वाली इस मध्यम आकार की और सदा हरी रहने वाली  झाड़ी का वानस्पतिक नाम साइमोन्डीया चाइनेनसिस है और यह साइमोनडिएसी कुल का सदस्य है. यह द्विलिंगी प्रकृति की  झाड़ी मरू इलाके के विकटतम हालात में भी अच्छी तरह पनप सकती है. इस के नर व मादा पौधे में भेद महज पुष्पन के दौरान ही किया जा सकता है.

यह पादप मुख्य रूप से मैक्सिको व कैलिफोर्निया के सोनारन रेगिस्तान भूभाग का है और शुष्क अनुसंधान संस्थान, काजरी द्वारा भारत में लाया गया है. जोजोबा मुख्य रूप से इस के वसीय तेल के व्यापारिक महत्त्व के चलते उगाया जाता है.

खेती : इसे सब से पहले साल 1965 में सैंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट, काजरी द्वारा इजरायल से ला कर उगाया गया था. इस के पौधे रोपने के लिए बीजों का उपयोग किया जाता है.

बीजों को पौली बैग में लगा कर उगाया जाता है, परंतु कभीकभी सीधे ही रोपनी यानी नर्सरी में बीजारोपण भी किया जाता है. प्रयोगों द्वारा सीधे बीज रोपण से बहुत ही कम अंकुरण होने की पुष्टि के बाद इस की खेती के लिए पौली बैग में ही बीज रोपण किया जाता है.

बीजारोपण के लिए बीजों को ताजा पानी में 24 घंटे तक डुबो कर रखा जाता है और उस के बाद क्ले, मिट्टी व फार्मयार्ड मैन्योर यानी एफवाईएम के 1:1:1 के अनुपात के मिश्रण से भरी पौली बैग में बीजारोपण कर दिया जाता है.

बीजारोपण आमतौर पर अक्तूबर माह में किया जाता है और शुरू में दिन में 2 बार हलकी सिंचाई भी की जाती है. रोपणी में पौधे 8-9 माह में तैयार हो जाते हैं.

इस तरह रोपणी में तैयार पौधों को मानसून के दौरान 45×45×45 आकार के गड्ढों में 5 किलोग्राम फार्मयार्ड मैन्योर व कुछ कीटनाशी डाल कर रोप दिया जाता है. बडे़ पैमाने पर इस की खेती के लिए 4×3 का फासला रखा जाता है.

इस की खेती में नर व मादा पौधों का अनुपात 1:4 रखने के लिए ज्यादा पौधों नर या मादा को हटा लेते हैं.

शुरुआत में खरपतवारों को उखाड़ कर या नष्ट कर के इस की बढ़वार दर को बढ़ाया जा सकता है. जोजोबा में फल उत्पादन अप्रैलमई माह में शुरू हो जाता है. शुरूशुरू में फलोत्पादन बहुत कम होता है, पर यह धीरेधीरे बढ़ता जाता है और 10वें साल में औसत प्रति पौधे से 1 किलोग्राम बीजोत्पादन फलों से हासिल किया जा सकता है.

उपयोग : जोजोबा का मुख्य उपयोगी पदार्थ इस से मिलने वाला तेल है, जिस का इस्तेमाल कौस्मैटिक उद्योग के अलावा फार्मास्यूटिकल, स्नेहतक तेल व खाने वाले तेल के रूप में किया जाता है.

इस के अलावा विद्युत रोधी, आग प्रतिरोधी पदार्थ के साथ ही ट्रांसफार्मर में तेल के रूप में इस्तेमाल होता है. इस के तेल का उच्च क्विथनांक और गलनांक होता है और इस का श्रेय बिंदु भी 315 डिगरी सैंटीग्रेड है.

सोनामुखी

Sonamukhi

इस पौधे का वानस्पतिक नाम कैसिया अंगुस्टीफोलिया है. इसे अरब के फिजिशियनों द्वारा भारत में प्रवर्तित किया गया और इस के बाद इसे भारतीय, ब्रिटिश व दुनिया के दूसरे फार्मोकोपियास में शामिल किया गया.

यह हर तरह की जमीन में उग सकता है. इस में सेनोसाइड ए और बी ग्लाइकोसाइड नामक कैमिकल पदार्थ पाए जाते हैं. यह एक छोटी बहुवार्षिक शाकीय पादप है, जिसे पूरी फसल या मिश्रित फसल के रूप में परंपरागत फसलों के साथ उगाया जाता है.

खेती : इसे आमतौर पर बीजों द्वारा उगाया जाता है. बीजों की बोआई ड्रिलिंग द्वारा छिड़काव विधि से की जाती है, पर 30 डिगरी सैंटीग्रेड की दूरी पर बोआई करना सही रहता है. बारिश पर आधारित खेती की परिस्थितियों में आमतौर पर 27 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर और सिंचित इलाके में 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मुफीद रहते हैं.

बीजों की बोआई से पहले बीजों की सतह को अच्छी तरह रगड़ लेना चाहिए. बीजों को बोने के बाद अंकुरित बीजों में एक से दो बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए. पुष्प वृंत की मोटाई, पौधे के निचले हिस्से की मोटाई के बराबर होने पर उसे काट लेते हैं. इस से पौधे में ज्यादा शाखाएं निकलती हैं और बढ़वार की दर भी बढ़ जाती है.

खेती में हलकी सिंचाई करना जरूरी है. ज्यादा बारिश भी नुकसानदायक होती है. सोनामुखी फसल की 2 माह बाद कटाई की जा सकती है, पर पत्तियों की कटाई 3 माह बाद करना उपयुक्त रहता है.

सोनामुखी की पत्तियां व्यापारिक महत्त्व की होती हैं और उन्हें उचित तरीके से सुखाना व भंडारित करना चाहिए. सोनामुखी की पत्तियां और फलियों की जैविक क्षमता 5 सालों तक बरकरार रखी जा सकती है.

भारत में पैदा होने वाला सोनामुखी विदेशों में भेजा जाता है. सोनामुखी की फसल 2-3 साल तक खेत में खड़ी रह सकती है. इस की जडें़ बहुत गहरी जाती हैं और पादप तेज गरमी में भी खड़ा रह सकता है.

लैग्युमिनस कुल का पादप होने के चलते यह नाइट्रोजन स्थिरीकरण में मददगार होता है और इस का स्वाद बहुत कड़वा होने के चलते इसे जानवर भी नहीं खाते हैं. सोनामुखी की फसल से 1-1.4 टन पत्तियां व 1.5 क्विंटल फली प्रति हेक्टेयर हासिल हो सकती है. सोनामुखी की खेती के लिए फरवरी से मार्च माह व जुलाई से अक्तूबर माह तक का समय यानी साल में 2 बार सही रहता है.

तुंबा

इसे वैज्ञानिक भाषा में सिटुलस कोलोसिंथिस कहते हैं. यह एक रेंगने वाला शाकीय पादप है, जो कुकुरबिटेसी कुल का सदस्य है. यह मूलत: अफ्रीका प्रायद्वीप का पादप है और तकरीबन पूरे भारत में पाया जाता है. यह मतीरे कुल का एक अहम सदस्य है और मरु इलाके के विकट हालात में भी अच्छी बढ़वार करने के अलावा माली रूप से भी उपयोगी है. इसी वजह से इसे मरु इलाके के रेगिस्तानी भूभाग के लिए उपयुक्त माना गया है.

तुंबा का पौधा बहुत तेजी से बढ़ता है और इस में 30 दिनों में ही पुष्पन शुरू हो जाता है और बोआई के 60 दिन बाद फलों का उत्पादन भी शुरू हो जाता है.

यह पौधा मिट्टी को बांधे रखने व रेतीले टीबों के स्थिरीकरण में मददगार है. इस के फलों में एक उपयोगी पदार्थ ग्लूकोसाइड कोलोसिंथिस होता है, जबकि बीजों में 20 फीसदी तेल व 11 फीसदी प्रोटीन होता है.

खेती : इस की बडे़ पैमाने पर खेती के लिए बीजों को 5 फीसदी सोडियम क्लोराइड घोल में डुबो देते हैं और उस में से कुछ देर बाद ऊपर तैरने वाले बीजों को जमा कर के गड्ढों में 20 सैंटीमीटर गहराई पर डाल कर 30-35 तापमान में बोआई करते हैं. 10-12 दिन बाद ही बीजों में अंकुरण शुरू हो जाता है.

बीजों की बोआई के लिए मानसून का समय उपयुक्त रहता है और देरी से बीजों की बोआई अगस्त माह के मध्य तक भी की जा सकती है. बीजों की बोआई ड्रिलिंग द्वारा खांचों में बोआई विधि से की जा सकती है या 120×120 सैंटीमीटर के गहरे गड्ढों में भी की जा सकती है. गड्ढों में बोआई के पहले 2 टन फार्मयार्ड मैन्योर और 5 किलोग्राम कीटनाशक प्रति हेक्टेयर मिट्टी में मिलाना फायदेमंद रहता है.

खेती के लिए 2 बार खरपतवार उन्मूलन 20 दिन व 45 दिन बाद करना अच्छा रहता है. इस पर किसी खास कीट या रोग का हमला नहीं होता है, लेकिन कायिक अवस्था में पत्तियों पर कीटों का हमला देखा गया है और इसे कार्बारिल 0.2 फीसदी स्प्रे द्वारा काबू कर सकते हैं.

इस  के हरे फलों को जानवरों को खिलाया जाता है, जबकि पूरी तरह से पके हुए विकसित पीले फूलों को इकट्ठा कर के सुखाया जाता है और इन के बीज निकाले जाते हैं. अनुकूल हालात में 120 से 150 क्विंटल फल प्रति हेक्टेयर हासिल किए जा सकते हैं.

उपयोग : इस के फलों का औषधीय महत्त्व है. हमारे देशी चिकित्सा शास्त्र में इसे औषधि के रूप में काफी इस्तेमाल किया जाता है.

आमतौर पर इसे जुलाव के रूप में इस्तेमाल में लिया जाता है. इस के बीजों में 20 फीसदी प्रोटीन पाया जाता है. इस के तेल का उपयोग साबुन उद्योग के अलावा मोमबत्ती बनाने वगैरह में होता है.

राजस्थान में यह साबुन उद्योग के लिए कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल होता है. इस के बीजों को साधारण नमक के साथ मिला कर रखने से इस का खारापन खत्म किया जा सकता है. सूखे बीज बाजरे के साथ मिश्रित कर पीसे जाते हैं और इस तरह का बना आटा गरीबों द्वारा अकाल में खाया जाता है.

इस तरह से इन गैरपरंपरागत नकदी फसलों की खेती कर के कम बारिश में भी उत्पाद हासिल किए जा सकते हैं. इन की खेती द्वारा इलाके में हरियाली के साथसाथ माली उन्नति भी हासिल की जा सकती है.

कृषि आय कैसे बढे ?

आय बढ़ाने के लिए 3 स्तरों पर काम करना होगा. पहला, लागत कम करना. दूसरा, उत्पादन बढ़ाना और तीसरा, जो उत्पादन किया है, उस का अधिक से अधिक मूल्य प्राप्त करना.

सभी किसान जानते हैं कि किसी भी फसल के उत्पादन के लिए बहुत सी चीजों की जरूरत होती है, जिन्हें हम इस तरह बांट सकते हैं, जैसे बाजार से खरीदी जाने वाली कई चीजें जैसे बीज, खाद व उर्वरक व पौध संरक्षण, स्वयं के संसाधन (ट्रैक्टर, मशीनरी, जैविक खाद, कृषि यंत्र आदि), लगने वाली इनसानी मेहनत और ऊर्जा (सिंचाई, खेत की तैयारी, फसल काल में निंदाईखुदाई, फसल में दवा का छिड़काव, फसल की कटाईगहाई) आदि.

कृषि उत्पादन में इन चीजों का इस्तेमाल किया जाना बेहद जरूरी है, परंतु सही समय पर, सही मात्रा में सही तरीके से इन चीजों का उपयोग कर के या इन का दुरुपयोग रोक कर फसल उत्पादन की लागत को कम किया जा सकता है. अनियंत्रित लागत किसान की फसल उत्पादन लागत को बढ़ाने के साथ ही मुनाफे को कम करती है. बहुत सी लागत को कुछ तरीके से कम किया जा सकता है.

1. बीज की लागत कम करने के लिए निम्न उपाय अपनाएं:
(अ) उन्नत किस्म का बीज प्रयोग करें.
(ब) स्वयं का बीज उत्पादन करें या समूह के माध्यम से बीज उत्पादन करें.
(स) बीज की सिफारिश की गई मात्रा का ही उपयोग करें. अधिक बीज दर से उत्पादन कम होता है.
(द) घर का बीज उपयोग करने पर बोआई से पहले अंकुरण परीक्षण अवश्य करें.

Seeds2. रासायनिक उर्वरकों की पूरी मात्रा कभी फसल को नहीं मिलती है. उर्वरक उपयोग दक्षता को बढ़ाने के लिए निम्न उपाय अपनाएं:
(अ) अपनी भूमि का मिट्टी परीक्षण करवाएं.
(ब) मिट्टी परीक्षण की सिफारिश के आधार पर ही उर्वरकों का उपयोग करें.
(स) जैविक खाद एवं जीवाणु खाद का उपयोग अवश्य करें.
(द) खड़ी फसल में दिए जाने वाला यूरिया सल्फर या नीम लेपित हो या स्वयं नीम खली से लेपित यूरिया तैयार कर फसल को देवें.
(य) दूसरों को देख कर उर्वरकों का प्रयोग नहीं करें.
(र) संतुलित पोषण के लिए मिट्टी परीक्षण के आधार पर सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग करें.

3. सिंचाई की दक्षता बढ़ाने के लिए निम्न उपाय अपनाएं:
(अ) क्यारियां छोटी बनाएं.
(ब) स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई करें और पानी बचाएं.
(स) कृषि फसलों में भी ड्रिप सिंचाई विधि का सफल प्रयोग कर पानी की बचत करने के साथ उत्पादन भी बढ़ाया जा रहा है.
(द) सब्जी फसलों एवं दूरी पर लगाई गई फसलों में मल्च का उपयोग भी प्रभावी है.

4. पौध संरक्षण रसायनों का संतुलित उपयोग इस प्रकार करें:
(अ) पूरी जानकारी के बिना किसी भी रसायन का उपयोग न करें.
(ब) पौध संरक्षण रसायनों के साथ चिपकाने एवं फैलाने वाले पदार्थों का उपयोग दवा को प्रभावी बनता है.
(स) अत्यधिक जहरीली (लाल एवं पीले त्रिकोण वाली) दवाओं का प्रयोग खाद्य फसलों में न करें.
(द) सभी फसलों में आईपीएम विधि से कीट नियंत्रण करें. फैरोमौन ट्रैप, लाइट ट्रैप, घर पर बने जैविक कीटनाशकों का प्रयोग कर लागत को कम कर सकते हैं.