Awards : उन्नत खेती करने वालों को मिला ‘फार्म एन फूड अवार्ड’

Awards : उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले के बांसी में 25 जून 2024 को किसान सम्मान समारोह का आयोजन किया गया, जिस में उन्नत खेती करने वाले किसानों को ‘फार्म एन फूड अवार्ड’ से सम्मानित किया गया.

इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जिला परियोजना निदेशक प्रदीप पांडेय व विशिष्ठ अतिथि उप कृषि निदेशक डा. राजीव कुमार थे.

समारोह के मुख्य अतिथि प्रदीप पांडेय ने कहा कि जिले में किसानों के प्रति ऐसा कार्यक्रम सुखद अनुभूति पैदा कर रहा है. आने वाले समय में इस तरह के आयोजन समयसमय पर होते रहने चाहिए. इन से किसानों में नया जोश और नई क्रांति का संचार होगा.

विशिष्ठ अतिथि डा. राजीव कुमार ने कहा कि किसान देश की सवा अरब आबादी के पेट भरने का जिम्मा अपने कंधे पर ले कर चल रहे हैं. ऐसे में उन का सम्मान करना बहुत जरूरी है. उन्होंने कृषि से संबंधित अनेक जानकारियां भी किसानों को दीं.

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कार्यक्रम में कृषि वैज्ञानिक डा. एसके तोमर, डा. एके पांडेय, एसके मिश्रा और कार्यक्रम संयोजक मंगेश दुबे के अलावा पूर्व विधायक ईश्वर चंद्र शुक्ला, श्रीधर मिश्र, मृत्युंजय मिश्र व सचिंद्र शुक्ला आदि भी मौजूद थे.

दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन समूह की नामीगिरामी कृषि पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ एक लंबे अरसे से किसानों के हितों के लिए काम कर रही है. इस पत्रिका के जरीए देश के मशूहर कृषि वैज्ञानिक किसानों को खेती की नई से नई जानकारियां मुहैया कराते रहते हैं.

अपने जानकारी भरे लेखों के जरीए कृषि वैज्ञानिक किसानों की कदमकदम पर मदद करते हैं. इस के अलावा वे किसानों के तमाम सवालों के जवाब भी ‘फार्म एन फूड’ के जरीए देते हैं. पत्रिका द्वारा किसानों को दिए जाने वाले अवार्ड काफी मशहूर हो रहे हैं.

Onion : गरमी का कवच है प्याज

Onion : प्याज काटते वक्त अकसर आंखों में आंसू आ जाते हैं, मगर आंखें भर देने वाला प्याज गुणों से भी भरपूर होता है. इस में पाए जाने वाले औषधीय तत्त्व सेहत के लिहाज से लाजवाब होते हैं. गरमी के जालिम मौसम में कच्चे प्याज का असर किसी अमृत से कम नहीं होता.

प्याज को सही मानों में गरमी का कवच कहा जा सकता है. यह हमारे शरीर को गरमी के मौसम में ठंडक पहुंचाता है. इस की असरदार तासीर गरमी की तमाम तकलीफों को दूर करने की कूवत रखती है, खासतौर पर मईजून की भयंकर लू के खिलाफ प्याज का कवच बेहद कारगर साबित होता है. खाने में रोजाना कच्चा प्याज शामिल करने से लू लगने का खतरा जड़ से गायब हो जाता है.

वैसे तो तमाम लोग सलाद में कच्चा प्याज शौक से खाते हैं, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें कच्चा प्याज खाने से परहेज होता है. दरअसल, ऐसे लोग चाह कर भी कच्चा प्याज नहीं खा पाते. कच्चा प्याज खाने से ऐसे लोगों का जी कच्चाकच्चा सा होने लगता है.

ऐसे नाजुक मिजाज लोग कच्चे प्याज की महक को झेल नहीं पाते. इस में दिक्कत वाली कोई बात नहीं है. ऐसे लोगों के लिए प्याज का लाभ उठाने का दूसरा रास्ता हाजिर है. साबुत प्याज को छिलके सहित थोड़ा सा बेक कर लें. इस के बाद उसे छील कर सलाद के रूप में खाएं. बेक किए गए प्याज का स्वाद काफी अच्छा लगता है.

वैसे प्याज की गंध से हैरानपरेशान होने वाले लोग ज्यादा नहीं होते, लिहाजा यह मसला बहुत कम सामने आता है. आमतौर पर तो खूबियों से भरपूर प्याज को लोग बहुत ही शौक से खाते हैं. एक गोपाल मामा थे. उन का लंच और डिनर देख कर लोग दंग रह जाते थे, क्योंकि दोनों वक्त वे 5-5 प्याज 2-2 टुकड़ों में कर के अपनी प्लेट में रखते थे और दालचावल सब्जीरोटी के साथ सारा प्याज जायका लेले कर चट कर जाते थे. यकीनन गोपाल मामा की सेहत बहुत अच्छी थी और कभी किसी ने उन्हें बीमार पड़ते नहीं देखा.

हकीकत तो यह है कि बगैर प्याज के लजीज नमकीन पकवानों की कल्पना भी नहीं की जाती. मटनचिकन व फिश से जुड़े तमाम पकवानों में भरपूर मात्रा में प्याज का इस्तेमाल किया जाता है. उम्दा किस्म की सभी सब्जियों में प्याज डाला जाता है.

हर तरह के सलाद में जरूरी तौर पर प्याज शामिल रहता है. इसी तरह भीगे मौसम में बनने वाले पकौड़ों में भी प्याज अव्वल नंबर पर पसंद किया जाता है. जब प्याज 100 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है, तब भी प्याज के कायल उस के बगैर रह नहीं पाते और किसी नशेड़ची की तरह अपनी गाढ़ी कमाई महंगे प्याज पर लुटाते हैं.

झुग्गीझोंपड़ी में रहने वाले लोग भी और चाहे कुछ न खाएं पर मोटीमोटी रोटियों के साथ प्याज खाने से नहीं चूकते. भले ही उन्हें कच्चे प्याज के औषधीय गुणों की जानकारी नहीं होती, पर वे उसे जानेअनजाने में खाते छक कर हैं. अलबत्ता जब प्याज बहुत महंगा हो जाता है, तब उन्हें उसे न खा पाने का बहुत ही ज्यादा मलाल रहता है.

औषधीय गुण

लहसुन की तरह ही प्याज में औषधीय गुण बेहिसाब होते हैं. पुराने जमाने में प्याज का इस्तेमाल प्लेग और कालरा जैसी खतरनाक बीमारियों के इलाज में किया जाता था. यह इलाज खासा कारगर साबित होता था. इतिहास के मुताबिक रोमन सम्राट नेरो सर्दी के मौसम में ठंड से बचाव के लिए प्याज का सेवन करते थे. प्याज की अहमियत से जुड़े ऐसे और भी वाकए इतिहास में दर्ज हैं.

गांवों में आज भी प्याज का तरहतरह से इस्तेमाल किया जाता है. गांव के लोग आमतौर पर डाक्टरी इलाज कम पसंद करते हैं, लिहाजा प्याज जैसी चीजें उन्हें काफी रास आती हैं. खांसी व सर्दीजुकाम जैसी तकलीफों में प्याज को काफी कारगर माना जाता है. वैद्य लोग लू व अस्थमा जैसी तकलीफों के इलाज में भी प्याज का बाकायदा इस्तेमाल करते हैं. गांवों में प्याज को लू के खिलाफ बेहद कारगर माना जाता है. लू से बचने के लिए गांव के लोग अपनी जेब में साबुत प्याज ले कर घर से बाहर निकलते हैं. अगर लू लग जाती है, तो प्याज और पोदीने का अर्क बतौर दवा बेहद कारगर साबित होता है.

वैज्ञानिकों के मुताबिक कच्चा प्याज खाना ज्यादा फायदेमंद होता है. भले ही इस का जायका कुछ तीखा होता है, पर इस का असर कमाल का होता है. कच्चे प्याज में आर्गेनिक सल्फर कंपाउंड और एक किस्म का तेल होता है. ये चीजें सेहत के लिहाज से फायदेमंद होती हैं. ये खूबियां पके प्याज में खत्म हो जाती हैं.

न्यूट्रीशनिस्ट कविता देवगन के मुताबिक आंत की सेहत के लिए प्रोबायोटिक जरूरी है. मगर प्रोबायोटिक को पचाने के लिए प्रीबायोटिक की जरूरत होती है और प्रीबायोटिक का काम करते हैं प्याज, लहसुन, राई और जौ. इसीलिए प्याज की अहमियत और बढ़ जाती है. प्याज में क्रोमियम भी होता है, जो ब्लडशुगर को नियमित करता है और डायबिटीज से हिफाजत करता है. इस में पाया जाने वाला बायोटिन त्वचा, बाल, लीवर व नर्वस सिस्टम के लिए जरूरी होता है. बायोटिन आंखों के लिए भी जरूरी है. लिहाजा ज्यादा से ज्यादा कच्चा प्याज खाना चाहिए. अगर कच्चा प्याज खाना हो, तो उसे काटने के बाद फौरन खा लेना चाहिए, क्योंकि कुछ देर रखा रहने से उस का असर कम हो जाता है.

Sweet Potato : शकरकंद की खेती

Sweet Potato  : शकरकंद में स्टार्च की भरपूर मात्रा होती है, इसलिए इस का प्रयोग शरीर में ऊर्जा बढ़ाने के लिए किया जाता है. इसे भूख मिटाने के लिए सब से उपयोगी माना जाता है. शकरकंद की खेती वैसे तो पूरे भारत में की जाती है, लेकिन ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र में इस की खेती सब से अधिक होती है. शकरकंद की खेती में भारत दुनिया में छठे स्थान पर आता है.

इस की खेती के लिए 21 से 26 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान सब से सही माना जाता है. यह शीतोष्ण व समशीतोष्ण जलवायु में उगाई जाने वाली फसल है. इसे 75 से 150 सेंटीमीटर बारिश की हर साल जरूरत पड़ती है.

भूमि का चयन : शकरकंद की खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है, क्योंकि ऐसी मिट्टी में कंदों की बढ़वार अच्छी तरह से हो पाती है. शकरकंद की खेती के लिए जमीन से पानी के निकलने का अच्छा इंतजाम होना चाहिए.

इस की बोआई से पहले  खेत की 1 बार मिट्टी पलटने वाले हल या रोटावेटर से जुताई करनी चाहिए. उस के बाद 2 जुताई कल्टीवेटर से कर के खेत को छोटीछोटी समतल क्यारियों में बांट लेना चाहिए. उस के बाद मिट्टी को भुरभुरी बना कर उस में प्रति हेक्टेयर 150 से 200 क्विंटल गोबर की खाद मिला लेना फसल उत्पादन के लिए अच्छा होता है.

प्रजातियों का चयन : शकरकंद की प्रमुख प्रजातियों में पूसा लाल, पूसा सुनहरी, पूसा सफेद, सफेद सुनहरी लाल, श्री मद्र एस 10101, नरेंद्र शकरकंद 9, एच 41, केवी 4, सीओआईपी 1, राजेश शकरकंद 92, एच 42 (1) खास हैं.

शकरकंद की रोपाई : इस की रोपाई से पहले मई या जून महीने में इस की लताओं से नर्सरी तैयार की जाती है. अगस्त से सितंबर तक तैयार लताओं की कटिंग कर के मेंड़ों या समतल जगह पर रोपाई की जाती है. इस की कटिंग की रोपाई के लिए लाइन से लाइन की दूरी 60 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंटीमीटर रखी जाती है. जमीन में इस की कटिंग को 6-8 सेंटीमीटर की गहराई पर रोपा जाता है.

रोपाई के समय यह ध्यान देना चाहिए कि बेल की कटिंग 60-90 सेंटीमीटर से कम न हो. काटी गई बेल को मिट्टी में दबा दिया जाता है. 1 हेक्टेयर खेत के लिए शकरकंद की 6-7 क्विंटल बेल या 59000 टुकड़ों की जरूरत पड़ती है.

खाद की मात्रा : शकरकंद की खेती के लिए 1 हेक्टेयर खेत में 150 से 200 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद व 50-60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50-60 किलोग्राम फास्फोरस और 100-120 किलोग्राम पोटाश की जरूरत पड़ती है. नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा आखिरी जुताई के समय व शेष आधी मात्रा बोआई के 30 दिनों बाद देते हैं. इस के कंदों की बढ़त के लिए जैविक खाद ज्यादा अच्छी होती है.

सिंचाई : शकरकंद की बेलों की कटिंग की रोपाई के 4-5 दिनों बाद पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. इस के बाद बारिश की मात्रा को देखते हुए 10-15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए. शकरकंद के खेत की तब तक निराईगुड़ाई जरूरी है, जब तक कि इस की फसल खेत को ढक न ले.

कीट व बीमारियों की रोकथाम : कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक डा. प्रेमशंकर के अनुसार शकरकंद की फसल में सब से ज्यादा प्रकोप पत्ती खाने वाली सूंड़ी का होता है. यह कीट बरसात में फसल को नुकसान पहुंचाता है. ये शकरकंद की पत्तियों को खा कर छलनी कर देते हैं, जिस से पत्तियां भोजन नहीं बना पाती हैं और फसल की बढ़त रुक जाती है. इस कीट की रोकथाम के लिए नीम के काढ़े का 250 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए. इस के अलावा पीविल नाम का कीट इस के कंदों में घुस कर कंदों बेकार कर देता है. इस की रोकथाम के लिए सब से अच्छा उपाय बोआई के समय कंदशोधन होता है.

शकरकंद की फसल में 2 रोगों का हमला ज्यादातर देखा गया है, जिस में पहला तनासड़न है, जोकि फ्यूजेरियम आक्सीसपोरम नामक फफूंदी के कारण होता है. इस रोग की वजह से फसल के तने में सड़न आ जाने से फसल बेकार हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए रोग न लगने वाली फसल का चुनाव करना सही होता है. शकरकंद की फसल में दूसरा रोग कलीसड़न का है, जिस में कंदों की सतह पर धुंधले काले रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिस की वजह से पौधे मर जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए 250 मिलीलीटर नीम के काढ़े का प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए.

खुदाई व भंडारण : शकरकंद की खुदाई उस की रोपाई के समय पर निर्भर करती है. जुलाई महीने में रोपी गई फसल की खुदाई नवंबर महीने में की जा सकती है. जब पत्तियां पीली पड़ कर सूखने लगें, तो फावड़े या कुदाल से फसल की खुदाई कर के उस पर लगी मिट्टी को साफ करें. फिर किसी छायादार व हवादार जगह पर स्टोर करें.

Diesel Engine :बगैर पानी के चलने वाला एयर कूल्ड डीजल इंजन

Diesel Engine : ‘काबरखा जब कृषि सुखानी.’ यह कहावत किसी ने सही ही कही है कि ऐसी बरसात का क्या फायदा जब खेती ही सूख चुकी हो. पहले खेती बरसात पर ही आधारित थी. उस समय न तो इतने साधन थे, न बिजलीपानी की आज जैसी व्यवस्था थी.

आज हमारे पास सिंचाई के तमाम साधन हैं. बिजली न भी हो तो डीजल इंजन में पंपिग सेट को जोड़ कर खेतों की सिंचाई कर सकते हैं. आज बाजार में अनेक कंपनियां डीजल इंजन बना रही हैं. ‘किसान के हो जाएं वारेन्यारे जेट पंप के सहारे’, यह स्लोगन है जेट कंपनी का. यह डीजल इंजन अनेक खासीयतों से भरा है.

खासीयतें

* यह इंजन बगैर पानी का होने के कारण जल्दी खराब नहीं होता, क्योंकि कई बार किसान इंजन से दूर होता है या इंजन चला कर घर आ जाता है, उस समय अगर ट्यूबवैल पानी छोड़ देता है या पट्टा टूट जाता है तो अन्य पानी वाला इंजन गरम हो कर खराब हो जाता है, मगर यह इंजन एयरकूल्ड होने के कारण खराब नहीं होता.

* जेट एयर कूल्ड इंजन पानी वाले इंजन के मुकाबले 4 गुना ज्यादा चलता है, क्योंकि अन्य पानी वाले इंजन की पानी वाली नाली अकसर निकल जाती है या पट्टा टूट जाता है, जिस से इंजन खराब होता है. लेकिन जेट एयर कूल्ड इंजन लगातार चलता रहता है. इस में इस तरह की खराबी नहीं आती.

* कई बार किसान को अपने खेत में काफी दूरी से पाइप डाल कर पानी लाना पड़ता है. इस हालत में इंजन बारबार खराब होने का डर रहता है. ऐसे में एयर कूल्ड इंजन लगाना ज्यादा अच्छा रहता है, क्योंकि यह जल्दी खराब नहीं होता है.

* यह इंजन वजन में काफी हलका है, जिस से इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता है.

* एयर कूल्ड इंजन लगातार समान तापमान पर चलता है, जिस से डीजल की खपत कम होती है.

* इस इंजन के साथ पंखा जोड़ कर पंपसेट बनाया जा सकता है. इस से किसान नहर व ड्रेनों से अपनी ऊंचीनीची जमीन में आसानी से पानी डाल सकते हैं.

* इस इंजन को किसान गरमियों में जनरेटर की तरह भी इस्तेमाल कर के अनेक फायदे ले सकते हैं. बरसात के मौसम में भी इस का कई तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं.

* इस इंजन से गंडासे को भी आसानी से चलाया जा सकता है और पशुओं के लिए चारा तैयार कर सकते हैं.

* इस डीजल इंजन से दूसरे उपकरण जैसे आटा चक्की, चारा काटने की मशीन आदि को भी चलाया जा सकता है.

* इस की मरम्मत के लिए स्पेयर पार्ट भी आसानी से मिल जाते हैं.

एयरकूल्ड डीजल इंजन के बारे और अधिक जानकारी के लिए किसान जेट पेटवाड़ एग्रीकल्चर कंपनी के मोबाइल नंबरों 09416041107, 9992231011 व किसान एग्रीकल्चर इंपलीटमेंट के मोबइल नंबरों 09416046507, 094667450 पर संपर्क कर सकते हैं.

Green Manure : ढैंचे की खेती से बढ़ाएं मिट्टी की उर्वरता

Green Manure : भारतीय किसानों द्वारा अपने खेतों में बोई गई फसलों से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए अंधाधुंध रासायनिक खादों व उर्वरकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिस की वजह से मिट्टी में जीवाश्म की मात्रा में दिनोंदिन कमी होती जा रही है और मिट्टी ऊसर होने की कगार पर पहुंचती जा रही है. ऐसी हालत से बचने व फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को ऐसे उर्वरकों का इस्तेमाल करना होगा, जिन से मिट्टी में मौजूद लाभदायक जीवाणुओं को कोई हानि न पहुंचे.

खेत में जीवाश्म की मात्रा को बढ़ाने और उर्वरा शक्ति के विकास में जैविक व हरी खादों का इस्तेमाल काफी फायदेमंद होता है. हरी खाद के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली ढैंचे की फसल न केवल खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है, बल्कि फसल उत्पादन को बढ़ा कर लागत में भी कमी लाती है. ढैंचा एक ऐसी फसल है, जिसे खेत में बोआई के 55-60 दिनों बाद हल से पलट कर मिट्टी में दबा दिया जाता है. ढैंचे की बोआई उसी खेत में की जाती है, जिस में हरी खाद का इस्तेमाल करना हो. इस के नाजुक पौधों को बोआई के 55-60 दिनों बाद जुताई कर के खेत में मिला कर पानी भर दिया जाता है. ढैंचे की फसल थोड़ी नमी पाने के बाद ही सड़ना शुरू हो जाती है.

ढैंचे की हरी खाद से मिट्टी को भरपूर मात्रा में नाइट्रोजन मिलता है, जिस से खेत में पोषक तत्त्वों का संरक्षण होता है और मिट्टी में नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के साथ ही क्षारीय व लवणीय मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है. ढैंचे से अन्य हरी खादों के मुकाबले नाइट्रोजन की ज्यादा मात्रा मिलती है.

ढैंचे की उन्नत किस्में : ढैंचे में खनिज पदार्थों की मौजूदगी, नाइट्रोजन की अच्छी मात्रा व बोई गई फसलों पर अच्छे असर को देखते हुए इस की कुछ किस्में अनुकूल मानी गई हैं, जिन में सस्बेनीया, एजिप्टिका, यस रोसट्रेटा व एस एक्वेलेटा खास हैं.

हरी खाद के लिए अनुकूल मिट्टी : वैसे तो हरी खाद के लिए ढैंचे की बोआई किसी भी तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन जलमग्न, क्षारीय, लवणीय व सामान्य मिट्टियों में ढैंचे की फसल लगाने से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद मिलती है.

बोआई का समय व बीज की मात्रा : ढैंचे की बोआई से पहले खेत की 1 बार जुताई कर लेनी चाहिए. इस के बाद प्रति हेक्टेयर 35-50 किलोग्राम बीज का इस्तेमाल करना चाहिए. ढैंचे की बोआई अप्रैल के अंतिम हफ्ते से ले कर जून के अंतिम हफ्ते तक की जाती है. बोआई के 10 से 15 दिनों के बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. जब फसल 20 दिनों की हो जाए, तो 25 किलोग्राम यूरिया का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. इस से फसल में नाइट्रोजन की मात्रा बनने में मदद मिलती है.

फसल की पलटाई : जब ढैंचे  की फसल की लंबाई 2 से ढाई फुट की हो जाए तो इसे हल द्वारा खेत में पलट देना चाहिए. इस के बाद ढैंचे की फसल सड़नी शरू हो जाती है, जिस से मिट्टी की उर्वरा कूवत बढ़ने के साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्त्वों व सूक्ष्म जीवाणुओं की तादाद भी बढ़ती है. इस से मिट्टी की संरचना में सुधार होता है और बोई गई फसल की जड़ों का फैलाव बेहतर होता है. हरी खाद मिट्टी की जलधारण कूवत को बढ़ा कर नमी को लंबे समय तक बनाए रखने में मददगार होती है. हरी खाद को दबाने के बाद बोई गई धान की फसल में कुछ प्रजातियों के खरपतवार न के बराबर होते हैं. इस प्रकार खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रयोग किए जाने वाले खरपतवारनाशी के कुप्रभाव से मिट्टी को बचाने में मदद मिलती है.

इस प्रकार बेहद कम लागत और मेहनत से हम अपनी मिट्टी की उर्वरा ताकत को बढ़ाने के लिए ढैंचे की फसल को हरी खाद के रूप में इस्तेमाल कर के रासायनिक उर्वरकों पर होने वाले खर्च में कमी ला सकते हैं और मिट्टी को रासायनिक उर्वरकों के प्रभाव से बचा सकते हैं.

Apple: किन्नौर के बागबान ने उगाया जमीन के नीचे सेब

उम्दा सेब (Apple) की बात की जाए तो देश और विदेश में शिमला और किन्नौर के नाम सब से आगे रहते हैं. किन्नौर का सेब देशविदेश में सब से ज्यादा पसंद किया जाता है. किन्नौर में कड़ाके की ठंड में पैदा होने वाले सेब (Apple) की सब से ज्यादा मांग रहती है. किन्नौर के बागबानों की खास फसल सेब (Apple) ही है और यह उन की साल भर की मेहनत रहती है. साल भर का खर्चा भी सेब (Apple) की फसल बेचने से ही उठाया जाता है. किन्नौर की अर्थव्यवस्था सेब पर काफी हद तक टिकी हुई है.

अभी तक तो पेड़ों से ही सेब की पैदावार हासिल की जाती रही है, पर अब किन्नौर के बागबान ग्राउंड एप्पल की पैदावार भी करने लगे हैं. यहां के बागबान अब ग्राउंड एप्पल को फसल के रूप में उगाने को आगे आए हैं. किन्नौर के सेब का जिक्र आते ही किसी के भी मुंह में पानी आना लाजिम है. अब किन्नौर के बागबान जमीन के नीचे यानी भूमिगत सेब पैदा कर के देश की मंडियों में तहलका मचाने वाले हैं.

किन्नौर के जागरूक बागबान सत्यजीत ने ग्राउंड एप्पल उगा कर जिले के बागबानों के लिए आय का एक नया जरीया ढूंढ़ निकाला है. सत्यजीत नेपाल से लाए गए इस बीज का किन्नौर में सफल प्रयोग कर चुके हैं व अब इस की कमर्शियल खेती करने लगे हैं. जिले के अन्य जागरूक किसान भी उन से ग्राउंड एप्पल का बीज ले जा कर खेतों में उगाने लगे हैं. अमेरिका से नेपाल होते हुए ग्रांउड एप्पल किन्नौर पहुंचा है.

इस सेब की फसल का लोग किस रूप में और कितना दोहन कर पाते हैं, यह भविष्य बताएगा, पर इतना जरूर है कि बागबान अपने खेतों में ग्राउंड एप्पल की खेती करने को आगे जरूर आए हैं.

पेशे से एडवोकेट सत्यजीत नेगी लंबे समय से बागबानी से भी जुड़े हैं और बागबानी क्षेत्र में तरहतरह से प्रयोग कर चुके हैं. ग्राउंड एप्पल को किन्नौर के बागबानों के बीच सब से पहले लाने का काम भी उन्होंने ही किया है. एक नेपाली से उन्होंने ग्राउंड एप्पल का बीज हासिल किया और इस की खेती करने में सफलता हासिल की.

सत्यजीत नेगी ने सब से पहले इस का परीक्षण मार्च, 2014 में किन्नौर जिला मुख्यालय रिकांगपिओ पेवारी और पूवर्नी गांव में अपने खेतों में किया. 7 महीने बाद इस के अच्छे नतीजे सामने आए. इस से प्रोत्साहित हो कर सत्यजीत ने पिछले साल करीब 10 किलोग्राम बीज तैयार करने के साथ 1 क्विंटल ग्राउंड एप्पल भी तैयार किए हैं.

किन्नौर के बागबानों के लिए ग्राउंड एप्पल नई उम्मीद की किरण ले कर आया है और यह नकदी फसल के रूप में पैदा किया जा सकता है. ग्राउंड एप्पल की फसल उगाने का सब से बड़ा फायदा यही है कि इसे पक्षी और बंदरों से ज्यादा नुकसान नहीं होगा. इसे जमीन के नीचे आलू की तरह लगाने से पक्षियों से नुकसान का खतरा नहीं रहता है और यह जानवरों की नजरों से भी बचा रहता है.

सत्यजीत नेगी ने ग्राउंड एप्पल का बीज प्रदेश की बागबान मंत्री विद्या स्टोक्स को भेट किया है, ताकि देश के अन्य क्षेत्रों में ग्राउंड एप्पल की पैदावार की संभावनाओं को तलाशा जा सके. इस में कोई शक नहीं है कि ग्राउंड एप्पल की पैदावार बढ़ने से प्रदेश के अन्य इलाकों के बागबानों को भी ग्राउंड एप्पल की पैदावार के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. जमीन के नीचे होने की वजह से ग्राउंड एप्पल पर ओलावृष्टि की ज्यादा मार नहीं पड़ेगी. इस के अलावा फसल को मौसम की मार भी ज्यादा नहीं पड़ेगी.

ग्राउंड एप्पल से कई प्रोडक्ट होते हैं तैयार : ग्राउंड एप्पल को वैसे कच्चा खाया जा सकता है, क्योंकि इस का स्वाद अन्य सेबों की तरह मीठा ही है. इस के अलावा ग्राउंड एप्पल से जूस, जैम, जैली व चटनी आदि बनाए जा सकते हैं. ग्राउंड एप्पल को बाजार में नकदी फसल के रूप में भी बेच सकते हैं. इस के बीजों को भी बागबानों को बेचा जा सकता है.

पशुधन स्वास्थ (Livestock Health) और उन के विकास के लिए संगोष्ठी

हिसार: लाला लाजपत राय पशुचिकित्सा एवं पशुविज्ञान विश्वविद्यालय में कुलपति, डा. राजा शेखर वुंडरू, आईएएस, अतिरिक्त मुख्य सचिव, हरियाणा सरकार के दिशानिर्देशानुसार लुवास के 15वें स्थापना दिवस के उपलक्ष में एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया.

लुवास की स्थापना वर्ष 2010 में शेर-ए-पंजाब, लाला लाजपत राय की स्मृति में की गई थी, जिस का उद्देश्य पशुधन, मुर्गी और पालतू पशुओं की महत्वपूर्ण बीमारियों के निदान, रोकथाम और नियंत्रण पर गहन शोध के माध्यम से पशुओं की पीड़ा को कम करना एवं पशुधन के विकास के लिए निरंतर प्रयासरत रहना हैं.

यह दिन लुवास के लिए हर साल बहुत खास होता है क्योंकि आज के दिन लुवास विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी और यह लुवास में शिक्षण, अनुसंधान और विस्तार में उत्कृष्टता की यात्रा की याद दिलाता है. इस अवसर पर पशु चिकित्सा महाविद्यालय हिसार के वर्ष 1969 के पास आउट बैच के पूर्व छात्रों ने भी अपने परिवार के साथ लुवास परिसर में पुनर्मिलन समारोह मनाया. इस कार्यक्रम का आयोजन पशु चिकित्सा महाविद्यालय के अधिष्ठाता द्वारा संस्थागत नवाचार परिषद, मानव संसाधन प्रबंधन निदेशालय के सहयोग से किया गया था.

पशुधन स्वास्थ संगोष्ठी (Livestock Health)
पशुधन स्वास्थ (Livestock Health seminar)

डा. नरेश जिंदल, ने कार्यक्रम अध्यक्ष के रूप में समारोह की अध्यक्षता की और डा. राजेश खुराना, निदेशक, मानव संसाधन प्रबंधन और अध्यक्ष, संस्थागत नवाचार परिषद, लुवास ने सह-अध्यक्ष के रूप में भाग लिया. इस अवसर पर उपस्थित पशु चिकित्सा महाविद्यालय के वर्ष 1969 पासआउट बैच के पूर्व छात्रों ने लुवास स्थापना समारोह की सराहना करते हुए लुवास द्वारा पशु चिकित्सा, पशु विज्ञान शिक्षा तथा अनुसंधान के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए किये जा रहे कार्यो की तारीफ़ करी. पूर्व छात्रों ने अपने विचार साझा किए तथा छात्रों और विभाग के  सदस्यों को पशुधन एवं डेयरी उद्योग की वर्तमान जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अनुसंधान करने की सलाह दी, जिस से नवाचारों को बढ़ावा मिले.

स्थापना दिवस के अवसर पर कुलसचिव डा. एस. एस. ढाका ने लुवास में चल रही विभिन्न शैक्षिक, अनुसंधान एवं विस्तार कार्यक्रमों के बारे में अवगत कराया तथा लुवास की उपलब्धियों और विश्वविद्यालय के विभागीय सदस्यों और विद्यार्थियों द्वारा की जा रही विभिन्न गतिविधियों के साथ-साथ भविष्य के प्रयासों के बारे में भी विचार विमर्श किया.

कार्यक्रम के अंत लुवास के अनुसंधान निदेशक डा. नरेश जिंदल ने पशुपालकों के लाभ के लिए विश्वविद्यालय द्वारा किए जा रहे अनुसंधान पहलुओं पर भी विस्तार से चर्चा करी.

शोध कार्य रीव्यू मीटिंग ( Research Work Review Meeting) का आयोजन

अविकानगर: केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान ( Central Sheep and Wool Research Institute), अविकानगर में संस्थान की अनुसंधान सलाहकार समिति (Research Advisory Committee )  द्वारा विभिन्न शोध कार्यों की दिशा एवं परिणाम का विस्तार से आकलन किया जा रहा है.

संस्थान के निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर द्वारा सभी एक्सपर्ट्स को संस्थान के विभिन्न सैक्टर्स भेड़बकरी एवं खरगोश पर पशुओं की उत्पादन क्षमता एवं किसानों को दी जा रही नस्लों के बारे में विस्तार से बताया गया.

संस्थान के निदेशक ने अविकानगर संस्थान द्वारा किए गए शोध, अविकानगर द्वारा किसानों को जागरूकता के लिए स्वास्थ्य शिविर, रात्रि चौपाल एवं उन्नत नस्ल के पशुओं का प्रदर्शन के लिए वितरण को संस्थान के क्षेत्र केंद्र के साथ विस्तार से प्रेजेंटेशन आरएसी टीम को दिया गया.

समिति द्वारा संस्थान की गतिविधियों का मूल्यांकन कर वर्तमान एवं भविष्य के हिसाब से आवश्यक सुझाव दिया गया.

अविकानगर संस्थान के विभिन्न विभागों और क्षेत्रीय केंद्र के विभागाध्यक्ष, प्रभारी आदि द्वारा पिछले सालों में अपने विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध और प्रसारप्रचार के कार्यों का प्रेजेंटेशन आरएसी समिति को दिया जा रहा है.

आरएसी समिति के अध्यक्ष डा. विष्णु शर्मा संस्थान के काम को ले कर बेहद खुश नजर आए. संस्थान को भविष्य के हिसाब से भी शोध के नए क्षेत्र पर काम करने के सुझाव और पहलुओं पर निदेशक डा. अरुण कुमार और संस्थान की टीम के साथ विस्तृत चर्चा की. अविकानगर के मीडिया प्रभारी डा. अमर सिंह मीना ने जानकारी दी.

फसल को सर्दी से बचाने वाले उर्वरक

उचित खाद व उर्वरकों के प्रयोग से हम न्यूनतम तापमान, पाला, बदली, ओस जैसी सर्दियों की प्राकृतिक समस्याओं से मुकाबला कर के कम लागत में ज्यादा उत्पादन पा सकते हैं. आइए जानते हैं, किनकिन उर्वरकों का इस्तेमाल कर के पोधों  को सर्दियों से बचाया जा सकता है:

सल्फर का प्रयोग: सर्दियों में पौधो को गरम करने की बात हो, तो पहला नंबर आता है सल्फर का. यह दो तरह का है. पहला, पाउडर के रूप में, जो कि पानी में घुलनशील होता है. दूसरा दानेदार, जो कि ज्यादातर बेसल ड्रैसिंग के रूप में प्रयोग किया जाता है.

किसी भी फसल में जब पत्तियां आ गई हों, तो सर्दियों से बचाव के लिए 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

अगर दानेदार सल्फर का प्रयोग करना हो, तो मिट्टी जांच की सिफारिश के अनुसार प्रयोग करना चाहिए. यदि मिट्टी जांच की सिफारिश नहीं है, तो मोटेतौर पर 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दानेदार सल्फर देना पर्याप्त होता है.

तिहरा यानी ट्रिपल फायदा दिलाता है सल्फर: ‘सल्फर एक काम अनेक’ वाली कहावत चरितार्थ होती है. सर्दियों को देखते हुए एक तो पौधों को इस से गरमी मिलती है, वहीं दूसरी ओर यह फंफूदीनाशक का काम करता है, जिस से यह आलू और दूसरी सब्जियों में झुलसा रोग से रोकथाम करता है. तीसरी अहम बात यह है कि सल्फर एक द्वितीयक पोषक तत्व है, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के बाद सर्वाधिक जिस तत्व की जरूरत होती है, वह है सल्फर. इस की कमी से पौधों की नई पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, तने पतले और कमजोर हो जाते हैं.

सल्फर की कमी से दलहनी फसलों में दाने ढंग से नहीं बनते, जबकि तिलहनी फसलों में तेल की मात्रा घट जाती है. इसलिए सर्दियों में सल्फर का प्रयोग करना लाभकारी है.

सल्फर की अधिकता वाले अन्य उर्वरक: कुछ अन्य ऐसे उर्वरक हैं, जिन्हें प्रयोग कर के खेत में सल्फर की मात्रा दी जा सकती है. ऐसे उर्वरकों में मुख्य रूप से अमोनियम सल्फेट नाइट्रेट.

क्षारीय, लवणीय मिट्टी के लिए पोटाश से बेहतर सल्फेट औफ पोटाश, जिप्सम, सिंगल सुपर फास्फेट, पोटैशियम सल्फेट, कौपर सल्फेट, फेरस सल्फेट, जिंक सल्फेट आदि.

बता दें कि इन उर्वरकों का प्रयोग बोआई के पूर्व, बोआई के समय और कई बार खड़ी फसल में प्रयोग करना बेहतर होता है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रयोग की जाने वाली मात्रा मिट्टी जांच की सिफारिश के मुताबिक ही करनी चाहिए.

सर्दी में घर के पौधों में डालें ये खास तरह की खाद, खराब नहीं होगी बागबानी

बागबानी के लिए सर्दी का मौसम सब से ज्यादा मुश्किल भरा होता है. इस मौसम में पौधों की बढ़वार धीमी हो जाती है, इसलिए उन्हें अधिक पोषण की जरूरत होती है.

ऐसे में पौधों को सही खाद देना बहुत ही महत्वपूर्ण है. पौधों को सर्दियों में मजबूत और स्वस्थ बनाए रखने के लिए कुछ खास तरह की खादें दी जाती हैं. ये खादें घर पर भी बनाई जा सकती है.

इस के लिए आप चाय का पत्ती, अंडे के छिलके, सब्जी और फलों के छिलके आदि को कंपोस्ट कर सकते हैं. कंपोस्ट बनाने के लिए आप एक गड्ढा खोद सकते हैं या किसी बरतन में भी. पौधों को खाद देने से पहले मिट्टी को अच्छी तरह से ढीला कर लें. फिर खाद को मिट्टी में मिला दें. खाद को पौधे की जड़ों के पास न डालें. खाद देने के बाद मिट्टी को अच्छी तरह से पानी दें. पौधों को खाद देने का सब से अच्छा समय सुबह या शाम का होता है. जब मौसम ठंडा हो, तब खाद देनी चाहिए.

डीएपी खाद प्राकृतिक खाद है, जो पौधों को पोटैशियम, नाइट्रोजन और फास्फोरस देती है. यह खाद पौधों की बढ़वार में बहुत अच्छी है. डीएपी खाद पौधों को सर्दियों में देने से वे स्वस्थ और मजबूत होते हैं.

कंपोस्ट खाद एक कार्बनिक खाद है, जो पौधों को सभी पोषक तत्व देती है. यह खाद पौधों के आसपास की मिट्टी भी उपजाऊ बनाती है. कंपोस्ट खाद सर्दियों में पौधों को मजबूत और स्वस्थ बनाती है.

गोबर खाद एक प्राकृतिक खाद है, जो पौधों को सबकुछ देती है. यह खाद पौधों के आसपास की मिट्टी भी उपजाऊ बनाती है. गोबर खाद सर्दियों में पौधों को स्वस्थ और मजबूत बनाती है.

मस्टर्ड केक खाद एक प्राकृतिक खाद है, जो पौधों को पोटैशियम, नाइट्रोजन और फास्फोरस देती है. पौधों की प्रतिरक्षा प्रणाली भी इस खाद से मजबूत होती है. सर्दियों में मस्टर्ड केक खाद देने से पौधे ठंड से बचते हैं और अच्छी तरह से विकसित होते हैं.

सर्दियों के समय पौधों में डालने के लिए वर्मी कंपोस्ट खाद बहुत अच्छी खाद है. आप इस खाद को सभी प्रकार के पौधों में इस्तेमाल कर सकते हैं. हालांकि, फूलों, फलों और सब्जियों वाले पौधों के लिए यह खाद अधिक फायदेमंद है.

वर्मी कंपोस्ट, मिट्टीरहित माध्यम जैसे कोकोपिट आदि में उगाए जाने वाले पौधों के लिए भी अच्छी मानी जाती है. यह पौधों को अतिरिक्त पोषक तत्व देती है. इस के अलावा वर्मी कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल करने से मिट्टी की संरचना में भी सुधार होता है.

वर्मी कंपोस्ट खाद का उपयोग नए पौधों को लगाने के दौरान पौटिंग मिक्स बनाने के लिए किया जाता है. वर्मी कंपोस्ट खाद का प्रयोग पौधों की बढ़वार अवस्था में भी किया जाता है. पौधे की बढ़वार अवस्था के दौरान हर 2-3 महीने में एक गमले में एक मुट्ठी वर्मी कंपोस्ट खाद डाली जा सकती है.

सर्दियों में पौधों की बढ़वार के लिए एप्सम साल्ट एक सब से अच्छा उर्वरक है. इस का इस्तेमाल तकरीबन सभी प्रकार के पौधों में कर सकते हैं. यह उर्वरक पौधों को झाड़ीदार यानी घना बनाने में मदद करता है, अधिक फूल पैदा करता है, पत्तियों में क्लोरोफिल उत्पादन बढ़ाता है और पौधों को मैग्नीशियम और सल्फर पोषक तत्व प्रदान करता है.

यदि सर्दी के दौरान पौधों में पत्तियों, फलों और फूलों का उत्पादन कम हो रहा हो, तो एप्सम साल्ट को पौधों में डाल सकते हैं. एप्सम साल्ट का प्रयोग पौटिंग मिक्स बनाने के दौरान और पौधे की बढ़वार अवस्था में किया जा सकता है. पौधे की बढ़वार अवस्था के दौरान महीने में 1-2 बार 1 लिटर पानी में 1 चम्मच एप्सम साल्ट मिला कर पौधों की जड़ों में डाल दें या इस पानी का दिन के समय पौधों पर छिड़काव (स्प्रे) करें.

अगर सर्दी में होम गार्डन में लगे सब्जियों और फूलों वाले पौधे नहीं बढ़ रहे हैं या फिर उन में फूल और फल नहीं आ रहे हैं, तो इस के लिए किसान मस्टर्ड केक उर्वरक का उपयोग पौधों में कर सकते हैं. यह उर्वरक पौधों की ग्रोथ को बढ़ाता है और साथ ही साथ पौधों को कीड़ों और बीमारी से भी बचाता है.

पौधों में इस फर्टिलाइजर का इस्तेमाल घोल बना कर किया जाता है. सौल्यूशन बनाने के लिए मिट्टी के बरतन में थोड़ी मात्रा में मस्टर्ड केक ले कर उस में 1 लिटर पानी डालें और फिर उसे कुछ दिनों के लिए ढक कर रख दें. इस के बाद इस घोल को कपडे की मदद से अच्छे से छान लें. छानने के बाद तकरीबन 50 मिलीलिटर मस्टर्ड घोल को 1 लिटर पानी में मिलाएं और फिर उसे पौधों में डालें.

सर्दी के मौसम में पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए लकड़ी की राख, एक बैस्ट खाद का काम करती है. इस में पोटैशियम, कैल्शियम, फास्फोरस, मैंगनीज और जस्ता जैसे उपयोगी पोषक तत्व पाए जाते हैं. लकड़ी की राख का गार्डन में अनेक उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयोग किया जाता है: जैसे यह मिट्टी के पीएच स्तर को बढ़ा देती है, स्लग और घोंघे जैसे कीटों को गार्डन से दूर रखती है और पौधों को जरूरी पोषक तत्व प्रदान कर के पौधों की ग्रोथ को बढाती है.

होम गार्डन में लकड़ी की राख का उपयोग करने का सब से अच्छा तरीका यह है कि इसे पौधों की मिट्टी के ऊपर फैला (टौप ड्रैसिंग) दिया जाए. सभी पौधों पर लकड़ी की राख का उपयोग न करें, केवल वे पौधे, जिन्हें पोटैशियम पोषक तत्व की जरूरत हो या मिट्टी के पीएच लैवल को बढ़ाना हो, तभी इस का प्रयोग थोड़ी मात्रा में करें.

केला खाने के बाद जो छिलका बचता है, उस का उपयोग जैविक खाद बनाने में किया जा सकता है. सर्दी के मौसम में यह खाद पौधों के लिए बहुत ही फायदेमंद होती है. इस में पोटैशियम, मैग्नीशियम और फास्फोरस पोषक तत्व की भरपूर मात्रा पाई जाती है. केले के छिलकों को फर्टिलाइजर के रूप में इस्तेमाल करने के लिए सब से पहले एक बरतन लें और उस में 3-4 छिलकों को डाल कर पानी भर दें. कुछ (4-5) दिनों के बाद केले के छिलकों को पानी में से निकाल कर अलग कर दें और पानी को पौधों में फर्टिलाइजर के रूप में इस्तेमाल करें.