खेती में जैव उर्वरक (Bio-Fertilizer) का महत्त्व

जल, जंगल और जमीन कैमिकल उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से संकट में हैं. इस के इस्तेमाल से एक ओर जहां हमारी खेती की लागत बढ़ती चली जा रही है, वहीं दूसरी ओर समूचा जीवजगत भी संकट का सामना कर रहा है. खेती, बागबानी की लागत घटाने और सभी जीव, निर्जीव को सुरक्षित रखने के लिए अब वक्त आ गया है कि ज्यादा से ज्यादा जैव उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाए.

जैव उर्वरक बेहद सस्ते होने के साथ ही साथ मिट्टी में पड़े कैमिकल उर्वरकों की घुलनशीलता बढ़ा कर फसलों तक पहुंचाते हुए पैदावार में बढ़ोतरी करते हैं. इस के इस्तेमाल से उर्वरकों की मात्रा घटती है, जिस से आयात किए जाने वाले उर्वरकों पर खर्च होने वाली धनराशि की बचत होती है.

क्या है जैव उर्वरक

जैव उर्वरक जीवाणु खाद होती है. 1 ग्राम जैव उर्वरक में 10 करोड़ जीवाणु या सूक्ष्म जीव रहते हैं. इस में मौजूद लाभकारी सूक्ष्म जीवाणु वायुमंडल की नाइट्रोजन को पकड़ कर फसल को मुहैया कराते हैं.

इसी तरह मिट्टी में मौजूद अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बना कर पौधों को देते हैं. इस तरह जैव उर्वरकों के इस्तेमाल से कैमिकल उर्वरकों की मात्रा कम हो जाती है, जिस से लागत भी कम हो जाती है.

क्या होगा फायदा

फसलों में जैव उर्वरकों का इस्तेमाल उसी तरह से जरूरी है, जैसे सभा में आम लोगों का शामिल होना. मिट्टी में पहुंचे उर्वरकों की फसल में प्राप्यता यानी मौजूदगी बहुत कम हो पाती है.

इस बात का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि कैमिकल उर्वरकों में सब से ज्यादा प्राप्यता यानी उर्वरकों की वह मात्रा, जो पौधों को मिलती है तकरीबन 40-50 फीसदी नाइट्रोजन की है, बाकी सभी उर्वरकों का मसलन डीएपी, पोटाश का इस से कम रहता है.

ऐसे में इन जैव उर्वरकों के इस्तेमाल से मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की तादाद बढ़ जाती है. ये सूक्ष्मजीव मिट्टी में मौजूद उर्वरकों की घुलनशीलता बढ़ा देते हैं.

मिट्टी में कैमिकल उर्वरकों के घटने और सूक्ष्मजीवों के बढ़ने से फायदेमंद कीटों की तादाद तेजी से बढ़ती है. यही नहीं, जैव उर्वरक कई तरह के हार्मोंस भी छोड़ते हैं, इस से पैदावार में सकारात्मक असर पड़ता है.

राइजोबियम कल्चर : इस का इस्तेमाल दलहनी फसलों में किया जाता है.

वैसे भी अलगअलग दलहनी फसलों के लिए अलगअलग राइजोबियम कल्चर होता है.

दरअसल, राइजोबियम कल्चर में राइजोबियम जीवाणु पाए जाते हैं. वायुमंडल में 78 फीसदी नाइट्रोजन पाया जाता है. इस नाइट्रोजन को मिट्टी में इकट्ठा करने की कूवत सिर्फ दलहनी फसलों में होती है, क्योंकि दलहनी फसलों की जड़ों में कुछ लाल रंग की गांठें होती हैं, जिस पर राइजोबियम नाम का जीवाणु पाया जाता है.

बोआई के पहले बीजोपचार कर लेने से खेत में पहले से ही मौजूद राइजोबियम जीवाणु रहता है, जिस से पैदावार में बढ़ोतरी होती है.

एजेटोबैक्टर : जो काम राइजोबियम कल्चर करता है, वही काम सभी गैरदलहनी फसलों के लिए एजेटोबैक्टर करता है.

एजोस्पाइरिलम : यह खासतौर पर गन्ना, मोटा अनाज, बाजरा के लिए बहुत ही उपयोगी है. इस का भी काम एजेटोबैक्टर सरीखा है.

पीएसबी कल्चर : इसे फास्फोरस सोल्यूब्लाइजिंग बैक्टीरिया या फास्फोरस सोल्यूब्लाइजिंग माइक्रोब्स (पीएसबी / पीएसएम) कल्चर कहते हैं.

फास्फोरस वाले उर्वरक को विकलांग उर्वरक कहते हैं. विकलांग इसलिए क्योंकि उर्वरकों में सब से धीमी घुलनशीलता फास्फोरस वाले उर्वरकों की है. पीएसबी/पीएसएम कल्चर के इस्तेमाल से फास्फोरस की घुलनशीलता बढ़ जाती है.

एजोला फर्न : यह सर्द मौसम में ठहरे हुए पानी के ऊपर रहता है. यह दूर से देखने पर हरे या लाल रंग का चटाईनुमा लगता है. इस की पत्तियां अत्यधिक छोटी और मोटी होती हैं. इन्हीं पत्तियों के नीचे के छेदों में सहजीवी साइनोबैक्टीरिया नाम का जीव पाया जाता है, जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण यानी बनाए रखने में मददगार है. यह पानी में डूबे धान के खेतों में बोआई के एक हफ्ते बाद 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उगाया जा सकता है, जो 2 किलोग्राम नाइट्रोजन रोजाना की दर से स्थिर कर सकता है.

एजोला का इस्तेमाल कंपोस्ट खाद बनाने या 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हरी खाद के रूप में जमीन में मिला कर किया जा सकता है. इस के इस्तेमाल से धान में खरपतवार कम पनपते हैं और नाइट्रोजन की बचत 40-80 किलोग्राम तक प्रति हेक्टेयर हो जाती है.

नील हरित शैवाल : इसे ब्लू ग्रीन या नील हरित शैवाल के नाम से जानते हैं. इसे धान के खेत या तालाबों में उगाया जाता है. इस से तमाम तरह की बढ़वार रोकने वाले हार्मोंस, विटामिन बी12, तमाम तरह के एमीनो एसिड निकलते हैं. नतीजतन, धान के पौधों में अच्छी बढ़वार के साथसाथ दानों की क्वालिटी भी बेहतर होती है. बीजीए के उपयोग से धान में 15-20 फीसदी तक बढ़ोतरी हो जाती है, साथ ही नाइट्रोजन की 30 किलोग्राम तक प्रति हेक्टेयर बचत हो जाती है.

प्रयोग विधि और मात्रा : एजोला फर्न, नील हरित शैवाल, एजोस्पाइरिलम का इस्तेमाल खेत की स्थिति के हिसाब से अलगअलग होता है. बेहतर होगा कि आप मिट्टी की जांच करा कर अपने निकटतम खेती के माहिरों से मिलें. उन के परामर्श के मुताबिक खेत में इन का इस्तेमाल करें, जबकि राइजोबियम कल्चर, एजेटोबैक्टर, पीएसबी कल्चर का इस्तेमाल करने की विधि व मात्रा एकसमान है.

बीजोपचार के लिए 200 ग्राम जैव उर्वरकों का आधा लिटर पानी में घोल बनाने के बाद जैव उर्वरकों के घोल को 10 किलोग्राम बीज के ढेर पर धीरेधीरे डाल कर हाथों से मिलाएं ताकि जैव उर्वरक समान रूप से बीजों पर चिपक जाएं. इस के बाद उपचारित बीज को छाया में सुखा कर बोआई कर सकते हैं.

जड़ उपचार जो कि रोपाई वाली फसलों के लिए ज्यादा सही होता है.  एक एकड़ की फसल के लिए 1-2 किलोग्राम जैव उर्वरकों का 10-15 लिटर पानी में घोल बनाने के बाद 15-20 मिनट तक जड़ों को डुबो कर रोपाई की जा सकती है.

एक एकड़ खेत में मिट्टी उपचार के लिए 2 किलोग्राम जैव उर्वरक यानी 10 पैकेट की जरूरत पड़ती है. 25 किलोग्राम खूब सड़ी हुई कंपोस्ट खाद या 25 किलोग्राम मिट्टी में 2 किलोग्राम जैव उर्वरकों को खूब अच्छी तरह से मिला कर बोआई के समय या 24 घंटे पहले समान रूप से खेत में मिला दिया जाता है.

सावधानियां

* जैव उर्वरकों का इस्तेमाल हमेशा शाम के समय ही करना चाहिए, क्योंकि सुबह या दोपहर में करने पर तेज धूप होने के कारण इन के अंदर मौजूद सूक्ष्म जीव मर सकते हैं, वहीं शाम के वक्त प्रयोग करने पर रातभर और अगले दिन सुबह तक सूक्ष्म जीवों को नए वातावरण में तालमेल बनाने में दिक्कत नहीं होती है.

* जैव उर्वरकों का कैमिकल खादों के साथ बिलकुल भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैव उर्वरकों के अंदर सूक्ष्म जीव होते हैं. इन सूक्ष्म जीवों को कैमिकल उर्वरकों के साथ नुकसान होता है.

* ऐक्सपायर डेट निकल जाने के बाद जैव उर्वरकों का इस्तेमाल बिलकुल न करें.

नील हरित शैवाल (Blue Green Algae) से खेती में फायदा

कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि गरमी के मौसम में यानी अप्रैल से जून तक किसान भाई कम खर्च कर के काई वाली खाद यानी नील हरित शैवाल का मदर कल्चर ले कर इस का सफल उत्पादन कर सकते हैं और इसे धान की फसल में डाल कर अच्छी उपज ले सकते हैं.

ऐसे करें तैयार

नील हरित शैवाल जैव उर्वरक खाद तैयार करने के लिए 5 मीटर लंबा, 1 मीटर चौड़ा और आधा फुट गहरा गड्ढा बनाना होता है. इस गड्ढे में मोटी पौलीथिन बिछानी होती है. उस के बाद चारों तरफ से उसे मिट्टी से ढक कर क्यारी बना लें. उस क्यारी में 5 इंच पानी भरते हैं, 5 किलोग्राम खेत की उपजाऊ मिट्टी डालते हैं, 500 ग्राम काई का भोजन सिंगल सुपर फास्फेट खाद डालते हैं. इस में कीड़े न पड़ें, इसलिए इस में 50 ग्राम कार्बोफ्यूरान डालते हैं और इस में सबकुछ अच्छी तरह से मिला देते हैं. इस के  बाद उसे 4 घंटे के लिए छोड़ देते हैं ताकि सबकुछ आसानी से बैठ जाए. उस के बाद नील हरित शैवाल के मदर कल्चर को उस में डाल दें.

इस सारी प्रक्रिया को पूरा करने में एक हफ्ते का समय लगता है. इस के बाद आप की खाद तैयार हो जाती है.

बरतें सावधानी

आप टैंक बनाते समय इस बात का जरूर खयाल रखें कि जहां पर टैंक बना रहे हैं, उस जगह खुली धूप आनी चाहिए. गड्ढे के आसपास किसी बच्चे या जानवर का आनाजाना न हो, क्योंकि उत्पादन टैंक में कार्बोफ्यूरान जहर पड़ा होता है.

अगर गलती से भी इसे जानवर पी लें या घर के छोटे बच्चे अपना हाथ टैंक में डाल दें, दोनों ही हालात में हानिकारक होगा. इसलिए पहले से ही इस की सावधानी बरतनी चाहिए.

बनाने का तरीका

इसे बनाने में आप को एक हफ्ते का ही समय लगेगा. एक हफ्ते बाद टैंक का पानी सूख जाएगा और उस में दूध की मलाई की तरह मोटी परत काई की तरह आ जाएगी. इस तरीके से एक टैंक से आप एक हफ्ते में तकरीबन 6 किलोग्राम नील हरित शैवाल का उत्पादन कर सकते हैं.

इस के इस्तेमाल के लिए किसान धान की रोपाई के 5 दिन बाद इसे साढ़े 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डाल दें. इस में 25 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट मिला लें या फिर किसी खेत की उपजाऊ मिट्टी को मिला कर डालें.

इस के तमाम फायदे

इस का इस्तेमाल आप के खेतों के लिए काफी मुफीद माना जाता है. पहला फायदा तो यह है कि खेत में जो नमी होती है, उसी के जरीए ये पूरे खेत में फैल जाता है. इस के फैलने से खेतों में जो मौसमी खरपतवार होते हैं, उन की बढ़वार रुक जाती है. नील हरित शैवाल जो वायुमंडल में 78 फीसदी प्राकृतिक नाइट्रोजन होता है, उस को ये जमीन में स्थिर करता है और फसल को नाइट्रोजन उपलब्ध कराता है.

इस के परिणामस्वरूप आप देखेंगे कि प्रति हेक्टेयर 75 किलोग्राम यूरिया की बचत होती है. जो भी यूरिया आप खेत में डालते हैं, उस में 25 फीसदी कम कर के खेत में डालें और इस का सकारात्मक असर देखें.

नील हरित शैवाल जैव उर्वरक खाद के इस्तेमाल से धान में जो सूखी बाली निकलने की दिक्कत होती है, उस में बाली सूखने की समस्या नहीं होती है. जो सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं, जैसे कि जिंक, बोरान, आयरन इन की उपलब्धता भी इस के जरीए बढ़ती है.

इस के इस्तेमाल से सिंचाई भी कम करनी पड़ती है. अगर 3 साल तक लगातार आप काई डालते हैं तो चौथे साल में आप को काई डालने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि ये अपनेआप पैदा होती है. यही नहीं, अगर आप ने इसे धान की फसल में इस्तेमाल किया है तो रबी की फसल में भी इस का फायदा देखने को मिलेगा.

भूजल में नाइट्रेट का बढ़ना: सेहत के लिए खतरा

देश में 400 से अधिक जिलों के भूजल में घातक रसायन मिलने से पीने के स्वच्छ व शुद्ध जल का गंभीर संकट धीरेधीरे पैदा होने लगा है. इस बात को ध्यान में रखते हुए सभी लोगों खासकर किसानों को जो अंधाधुंध फर्टिलाइजर का अपने खेतों में इस्तेमाल कर रहे हैं, उस पर अंकुश लगाना होगा.

वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध में पाया गया है कि कई जिलों के भूजल में जहां पहले से ही फ्लोराइड और सैनिक आयरन व हैवी मैटल निर्धारित मानक से काफी अधिक था, वहीं ज्यादातर जिलों में नाइट्रेट और आयरन की मात्रा बढ़ रही है.

एक तरह से यह मानवजनित अतिक्रमण है. उन राज्यों के भूजल में नाइट्रेट ज्यादा बढ़ रहा है, जहां सघन खेती में फर्टिलाइजर का अंधाधुंध तरीके से इस्तेमाल हो रहा है. हैवी मैटल और अन्य घातक रसायनों के भूजल में होने से पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है.

रिपोर्ट में देश के 18 राज्यों के 249 जिलों का भूजल खारा है, वहीं 23 राज्यों के 370 जिलों में सामान्य मानक से अधिक पाया गया है, इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब व हरियाणा के ज्यादातर जिले नाइट्रेट की बढ़ती हुई भूजल में मात्रा से प्रभावित हो रहे हैं, इसलिए सभी को कोशिश करनी चाहिए कि भूजल को सुरक्षित रखने के लिए कम से कम रसायनों का इस्तेमाल करें और जैविक खेती यानी प्राकृतिक खेती को कर के अपने भोजन को प्रदूषित होने से बचाएं, जिस से मानव जीवन आगामी वर्षों में सुरक्षित हो सके.

waterनाइट्रेट व मत्स्य उत्पादन

जलस्रोतों में बढ़ते हुए नाइट्रेट और फास्फेट स्तर के कारण पोषक तत्त्वों की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती है. नतीजतन, नीलहरित शैवाल की अत्यधिक वृद्धि हो जाती है, जो सुपोषण का एक प्रमुख कारक बन जाती है.

ये शैवाल वृद्धि जलस्रोतों में अरुचिप्रद स्थिति पैदा कर देती है, क्योंकि कुछ नीलहरित शैवाल विषैली होती है. औक्सीजन की कमी होने के कारण अवायवीय स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिस के कारण मछलियों की मौत हो जाती है.

नाइट्रेट का पशुओं पर प्रभाव

सभी रोमंथी पशुओं जैसे गाय, भैंस, बकरी इत्यादि में नाइट्रेट विषाक्तता देखी गई है. जई, बाजरा, मक्का, गेहूं, जौ, सूडान ग्रास और राई घास ऐसे पौधे हैं, जिन में नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है. ये चारे हमेशा ही जहरीले हों, ऐसा नहीं है. कुछ हालात को छोड़ कर ये पशुओं के लिए उत्तम हैं.

यदि चारे को ऐसी भूमि में उगाया जाए, जिस में कार्बनिक और नाइट्रोजन तत्त्व अधिक हों और नाइट्रोजन उर्वरक अधिक मात्रा में प्रयोग किए गए हों या जल्दी में यूरिया जैसे उर्वरक का चारों ओर छिड़काव किया गया हो, तो ऐसे हालात में इन चारों में नाइट्रेट विषाक्तता अधिक हो जाती है.

अनुसंधानों से पता चला है कि गोबर और पेशाब के गड्ढों पर उगने वाली पारा घास में नाइट्रेट विष की मात्रा 4.73 फीसदी तक हो सकती है. जिस चारे में 1.5 फीसदी से अधिक नाइट्रेट (पोटैशियम नाइट्रेट के रूप में) होता है, उस को खाने पर पशुओं में विषाक्तता हो सकती है.

नाइट्रेट विषाक्तता पशुओं में जठर आंत्र शोध पैदा करता है. चारागाह में चरते हुए पशुओं की इस कारण अचानक मौत भी देखी गई है. तेज दर्द, लार का गिरना, कभीकभी पेट फूलना और बहुमूत्रता जैसे लक्षणों के साथ रोग का एकाएक प्रकोप होता है. इस से शीघ्र ही निराशा, कमजोरी व अवसन्नता के लक्षण प्रकट हो जाते हैं. सांस का तेजी से चलना और सांस लेने में तकलीफ होना, तेज नाड़ी, लड़खड़ाना व तापमान का कम हो जाना भी इस रोग के अन्य लक्षण हैं.

भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, इज्जतनगर, बरेली के वैज्ञानिकों ने पारा घास खाने से बछड़ों में अति तेज नाइट्रेट विषाक्तता और बकरियों में चिरकारी नाइट्रेट विषाक्तता बताया है.

देश के शुष्क क्षेत्रों में अत्यधिक नाइट्रेटयुक्त जल गरमियों के दिनों में प्यासे पशु जब एकसाथ अधिक पानी पी लेते हैं, तो उन में नाइट्रेट विषाक्तता पैदा हो जाती है, जो कभीकभी उन की मौत की वजह भी बन जाती है. कई दुधारू पशुओं में नाइट्रेटयुक्त पानी पीने से दूध में कमी व गर्भपात भी देखे गए हैं.

नीलहरित शैवाल  जैव उर्वरक : बढ़ाए पैदावार

समुचित विकास के लिए पौधे में नाइट्रोजन एक जरूरी पोषक तत्त्व है. रासायनिक उर्वरकों के अलावा शैवाल और जीवाणुओं की कुछ प्रजातियां वायुमंडल में नाइट्रोजन (80 फीसदी) का स्थिरीकरण कर मिट्टी और पौधों को देती हैं और फसल की उत्पादकता में बढ़वार करती हैं. इस क्रिया को जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण कहते हैं. इन सूक्ष्म जीवाणुओं को ही जैव उर्वरक कहते हैं.

नीलहरित शैवाल एक विशेष प्रकार की काई होती है. इन की कई प्रजातियां होती हैं, जिस में आलोसाइरा, नास्टाक, एनाबीन, सिटोनिमा, टालिपोथ्रिक्स, वेस्टीवापसिस वगैरह प्रमुख हैं.

नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्रिया शैवाल की संरचना में स्थित एक विशिष्ट प्रकार की कोशिका होती है, इसे हैटेरोसिस्ट कहते हैं. यह सामान्य कोशिकाओं से संरचना करने में अलग होती है. इस का निर्माण सामान्य कोशिकाओं में ही कोशिकाभित्ति मोटी होने और कुछ आंतरिक परिवर्तनों के फलस्वरूप होता है.

नीलहरित शैवाल यानी बीजीए धान के लिए महत्त्वपूर्ण जैव उर्वरक है. इस के प्रयोग से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (25 फीसदी) रासायनिक नाइट्रोजन की बचत और धान के उत्पादन में 8-10 फीसदी की बढ़ोतरी होती है. साथ ही, जमीन की उर्वरक क्षमता में बढ़ोतरी होती?है. धान के खेत का वातावरण नीलहरित शैवाल की बढ़वार के लिए मुफीद होता है. इस की बढ़ोतरी के लिए जरूरी तापमान, समुचित रोशनी, नमी और पोषक तत्त्व की मात्रा धान के खेत में मौजूद रहती है.

नीलहरित शैवाल द्वारा स्थिर किया गया नाइट्रोजन पौधों को शैवाल की जीवित अवस्था में ही मिल जाता है या शैवाल कोशिकाओं के मृत होने के बाद जीवाणुओं द्वारा विघटन होने पर मिलता है.

उत्पादन की विधि

नीलहरित शैवाल जैव उर्वरक उत्पादन के लिए 5 मीटर लंबा, 1 मीटर चौड़ा और 8-10 इंच गहरा पक्का सीमेंट का टैंक बना लें. टैंक की लंबाई जरूरत के मुताबिक घटाई या बढ़ाई जा सकती है. टैंक ऊंची व खुली जगह पर होना चाहिए. सीमेंट के टैंक के स्थान पर कच्चा गड्ढा भी बना सकते हैं. कच्चे गड्ढ़े में तकरीबन 400-500 गेज मोटी पौलीथिन बिछा लें. खेत के स्थान पर खुली छतों पर भी 2 इंच ऊंचा गड्ढा व टैंक बना सकते हैं.

टैंक व गड्ढे में 4-5 इंच तक पानी भर लें और प्रति वर्गमीटर के हिसाब से एक किलोग्राम खेत की साफसुथरी भुरभुरी मिट्टी, 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 10 ग्राम कार्बोफ्यूरोन डाल कर अच्छी तरह मिला कर 2-3 घंटे के लिए टैंक को छोड़ दें. मिट्टी बैठ जाने पर 100 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से उच्च गुणवत्ता का शैवाल र्स्टाटर कल्चर पानी के ऊपर समान रूप से बिखेर दें. 8-10 दिन में शैवाल की मोटी परत बन जाती है. साथ ही, पानी भी सूख जाता है. यदि तेज धूप या किसी दूसरी वजह से शैवाल परत बनाने से पहले ही पानी सूख जाए तब टैंक में और पानी सावधानीपूर्वक किनारे से धीरेधीरे डालें, जिस से शैवाल की मोटी परत टूटने न पाए. 8-10 दिन बाद काई की मोटी परत बनने के बाद भी अगर गड्ढे व टैंक में पानी भरा हो तो उसे डब्बे वगैरह से सावधानीपूर्वक बाहर निकाल दें. इस के बाद टैंक व गड्ढे को धूप में सूखने के लिए छोड़ दें. सूख जाने पर शैवाल कल्चर को इकट्ठा कर पौलीथिन बैग में भर कर खेतों में प्रयोग करने के लिए रख लें.

फिर उपरोक्त विधि से उत्पादन शुरू करें और स्टार्टर कल्चर के स्थान पर उत्पादित कल्चर का प्रयोग कर सकते हैं. यह उत्पादित कल्चर उच्च गुणवत्ता का होता है. एक बार में 5 मीटर साइज के टैंक या गड्ढे से 6.5-7.5 किलोग्राम शैवाल जैव उर्वरक हासिल होता है.

नीलहरित शैवाल जैव उर्वरक के उत्पादन के लिए बलुई दोमट मिट्टी सब से अच्छी होती है. अप्रैल, मई, जून माह इस के उत्पादन के लिए सब से मुफीद होते हैं.

बरतें ये सावधानिया

* नीलहरित शैवाल जैव उर्वरक के प्रयोग में लाई जाने वाली मिट्टी साफसुथरी और भुरभुरी होनी चाहिए.

* उत्पादन में प्रयोग की जा रही मिट्टी ऊसर जमीन की नहीं होनी चाहिए.

* मिट्टी में कंकड़, पत्थर और घास को छलनी से अच्छी तरह छान लें.

* जैव उर्वरक उत्पादन के लिए प्रयोगशाला द्वारा जांच किए गए उच्च गुणवत्ता वाले स्टार्टर कल्चर का ही प्रयोग करें.

* किसान अपने यहां उत्पादित जैव उर्वरक की गुणवत्ता की जांच परिषद के वैज्ञानिकों द्वारा करा लें.

* शैवाल जैव उर्वरक की परतों को नाइट्रोजन उर्वरकों और कीटनाशक रसायनों के साथ कभी न रखें.

* शैवाल जैव उर्वरक की थैलियों को नमी से दूर रखें.

* चूंकि शैवाल जैव उर्वरक के उत्पादन में कार्बोफ्यूरान का इस्तेमाल किया जाता है इसलिए ध्यान रखें कि टैंक के पानी कोजानवर न पी जाएं, वरना उन पर कार्बोफ्यूरान का जहरीला असर हो सकता है, इसलिए टैंक व गड्ढे को जानवरों से बचा कर रखें.

* यदि उत्पादन के समय बारिश हो तो टैंक व गड्ढे को पौलीथिन शीट से ढक दें और बारिश खत्म होने पर हटा दें.

प्रयोग की विधि

धान की रोपाई के एक हफ्ते बाद स्थिर पानी में 12.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से शैवाल कल्चर बिखेर दें और शैवाल जैव उर्वरक प्रयोग करने के 4-5 दिन बाद तक खेत में पानी भरा रहने दें.

खेतों में यदि खरपतवारनाशक जैसे ब्यूटाक्लोर वगैरह रसायनों का इस्तेमाल कर रहे हों तो खरपतवारनाशक डालने के 3-4 दिन बाद जैव उर्वरक का इस्तेमाल करें वरना शैवाल की बढ़ोतरी प्रभावित होगी.

खरपतवारनाशी रसायनों का प्रयोग रोपाई के 2 दिन बाद जरूर कर लें और अन्य सभी खेती के काम और निराईगुड़ाई सामान्य तरह ही करते रहें.

खेत में नीलहरित शैवाल जैव उर्वरक का प्रयोग पहली व दूसरी टौप ड्रेसिंग के दौरान जरूर कर दें. बेसल ड्रेसिंग में रासायनिक नाइट्रोजन का प्रयोग कम मात्रा में करें. धान के पूर्व जिस खेत में हरी खाद के रूप में ढैंचा लगाया गया हो, उस खेत में उपरोक्त विधि से नीलहरित शैवाल जैव उर्वरक का प्रयोग करने से बेसल ड्रेसिंग में भी संस्तुत रासायनिक नाइट्रोजन की मात्रा में 50 फीसदी की कमी कर दें. ध्यान रखें, नीलहरित शैवाल जैव उर्वरक का प्रयोग जिस खेत में करना हो, उस की मेंड़बंदी अच्छी तरह कर लें, जिस से उर्वरक के प्रयोग के बाद पानी बाहर न निकले.

प्रयोग से लाभ

कृषक प्रक्षेत्र पर नीलहरित शैवाल जैव उर्वरक की 12.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की मात्रा 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन देती है इसलिए रासायनिक नाइट्रोजन की मात्रा 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (66 किलोग्राम यूरिया) की बचत हो सकती है. इस के प्रयोग से धान की उपज में औसतन 2-4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की बढ़ोतरी होती है. साथ ही, पर्यावरण को साफ रखने में सहायक है.

शैवाल जैव उर्वरक इस्तेमाल करने से मिट्टी की भौतिक दशा में सुधार होता है और उपजाऊ ताकत बढ़ती है. मिट्टी में नाइट्रोजन और मौजूद फास्फोरस की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

कार्बनिक तत्त्वों की बढ़ोतरी से मिट्टी की जलधारण कूवत में भी बढ़ोतरी होती है.

अम्लीय जमीन में लोहे वगैरह तत्त्वों की विषाक्ता कम करता है.

शैवाल जैव उर्वरक के प्रयोग से ऊसर जमीन में सुधार होता है.

नीलहरित शैवाल जैव उर्वरक बढ़ोतरी नियंत्रक, विटामिन बी12, अमीनो अम्ल वगैरह भी छोड़ते हैं, जिस से पौधों की अच्छी बढ़ोतरी होती है और दानों की गुणवत्ता भी बढ़ती है.

पशुओं का पौष्टिक आहार : अजोला की खेती

देश में पशुओं के लिए पौष्टिक चारे की किल्लत दिनोंदिन विकट रूप धारण करती जा रही है. ऐसे में वर्षभर हरे चारे की उपलब्धता भी संभव नहीं हो पाती है. पशुपालकों को वर्ष के अधिकांश महीनों में सूखे चारे के रूप में भूसा, बाजरा व पुआल से बना चारा ही खिलाना पड़ता है. जिस के साथ पशुपालकों को पौष्टिक चारे के रूप में पोषक आहार सरसों की खली, दड़ा, दलिया इत्यादि भी देना पड़ता है, जिस पर 15 से 30 रुपए प्रति किलोग्राम का खर्च आता है.

ऐसे में अगर पशुपालक दुधारू पशुओं का पालन कर रहा है, तो उस के पोषण का विशेष खयाल रखना पडता है. इस के लिए पोषण तत्वों से भरपूर चारे के ऊपर अत्यधिक खर्च करना पडता है. कभीकभी पोषक चारे व आहार देने के बावजूद भी दुधारू पशुओं से अपेक्षित दुग्ध उत्पादन नहीं मिल पाता है, जिस की वजह से पशुपालकों को कभीकभी नुकसान भी उठाना पड़ता है.

इस नजरिए से पोषक तत्वों से भरपूर माना जाने वाला अजोला फर्न न केवल पोषक तत्वों से भरपूर है, बल्कि इस से दुग्ध उत्पादन को बढ़ा कर उत्पादन लागत में कमी लाई जा सकती है. अजोला फर्न खिलाने से गाय के दूध में 15 फीसदी तक की वृद्धि दर्ज की गई है.

वैसे भी देश में हरे चारे का मुख्य स्रोत माने जाने वाले चारागाहों, वन क्षेत्रों व कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल तेजी से सिमट गया है, जिस की वजह से पशुओं के लिए हरे चारे का संकट भी बढ़ा है. इस की पूर्ति के लिए पशुपालक को दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए चारे दाने पर अतिरिक्त खर्च करना पड़ रहा है.

ऐसी स्थिति में अजोला सस्ता सुपाच्य व पौष्टिक आहार के रूप में एक बेहतर चारा साबित हो रहा है, जिस पर महज 2 रुपए से कम प्रति किलोग्राम की लागत आती है.

मगर इस का व्यवसायिक उत्पादन फायदे का सौदा साबित हो रहा है.

अजोला किसी भी अन्य चारे से ज्यादा पौष्टिक होता है, जिस को खिलाने से दुधारू पशुओं के दूध की गुणवत्ता पहले से बेहतर हो जाती है.

अजोला में पशुओं के पोषण के लिए प्रमुख माने जाने वाले प्रोटीन, एमीनो एसिड, विटामिन ए, विटामिन बी12, बीटा कैरोटीन, विकासवर्धक सहायक तत्व फास्फोरस,पोटैशियम व मैग्नेशियम प्रचुर मात्रा में पाई जाती है. इस में शुष्क वजन के आधार पर 25-35 फीसदी प्रोटीन, 10-15 फीसदी खनिज व 7-10 फीसदी एमीनो एसिड के साथ वायो सक्रिय पदार्थ पाए जाते हैं, जिस की वजह से पशुओं में आयरन व कैल्शियम की आपूर्ति आसानी हो पाती है. इस में कार्बोहाइड्रेड व वसा की मात्रा बहुत कम होती है, जिस की वजह से पशु इसे आसानी से पचा सकते हैं. इसलिए इसे दुधारू पशुओं के साथसाथ मुरगियों, भेड़बकरियों, सूअर व खरगोशों को भी पौष्टिक चारों के रूप में दिया जा सकता है.

दुधारू पशुओं को प्रतिदिन सूखे चारे के साथ अजोला की खुराक दैनिक आहार के रूप में प्रतिदिन डेढ़ से 2 किलोग्राम की मात्रा में दिया जा सकता है. इस में हरे चारे नेपियर घास, लोबिया इत्यादि की अपेक्षा प्रोटीन की मात्रा 20 गुना से ज्यादा पाई गई है.

एक हेक्टेयर खेत से संकर नेपियर घास 250 टन, लोबिया 35 टन, ज्वार 40 टन, रिजिका 80 टन के रूप में वार्षिक का उत्पादन मिलता है, जबकि अजोला का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 750 टन वार्षिक है.

अजोला उत्पादन की विधि

अजोला का उत्पादन भी बहुत ही आसान है. इसे किसान अपनी खाली परती जमीन, घरों की छत, धान के खेतों इत्यादि में आसानी से उगा सकते हैं.

व्यावसायिक स्तर पर उगाने के लिए किसी छायादार का स्थान का चयन करना चाहिए. उस के उपरांत 2 मीटर लंबाई व 2 मीटर की चौड़ाई के साथ 30 सैंटीमीटर गहरे गड्ढे बनाने चाहिए. जिस में से पानी रोकने के लिए पराबैगनी किरणरोधी प्लास्टिक सीट से ढकाई की जाती है. धान के खेतों में इसे सीधेतौर पर उगाया जा सकता है.

सीमेंटयुक्त गड्ढे इस के लिए ज्यादा उपयुक्त होते हैं, क्योंकि इस में पानी रिसाव नहीं होता है. अगर 2×2 मीटर का गड्ढा बना कर अजोला का उत्पादन किया जा रहा है, तो प्रति गड्ढा 10-15 किलोग्राम मिट्टी की परत फैला कर उस में 10 लिटर पानी में 2 किलोग्राम गोबर व 30 ग्राम सुपर फास्फेट से बना घोल बेडसीट पर डाला जाता है. इस के उपरांत 10-12 सैंटीमीटर तक पानी भर दिया जाता है.

अजोला बीज के लिए अजोला कल्चर का निर्माण किया जाता है, जो किसी भी प्रतिष्ठित कृषि विश्वविद्यालय के मृदा, सूक्ष्म व जीव विज्ञान विभाग या कृषि संबंधी बड़ी दुकानों से खरीद जा सकता है.

किसान प्रति गड्ढे में आधा किलोग्राम से एक किलोग्राम अजोला कल्चर डाल सकते हैं, जो बहुत तेजी से पनपता है और 10-15 दिनों के भीतर पूरे गड्ढे को भर लेता है. इस गड्ढे से प्रत्येक दिन एक से दो किलोग्राम अजोला निकाल कर पशुओं को पौष्टिक चारे के रूप में खिलाया जा सकता है. गड्ढे से निकाले गए अजोला को पशुओं को खिलाने से पहले साफ पानी से धो लेना चाहिए, जिस से उस में से गोबर की दुर्गंध को दूर किया जा सकें.

अजोला का अच्छा उत्पादन लेने के लिए प्रत्येक हफ्ते प्रत्येक गड्ढे में एक किलोग्राम गोबर के साथ 200 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट डालते रहना चाहिए, जिस से अजोला का उत्पादन अच्छा मिलता रहता है.

अधिक उत्पादन के लिए इन बातों पर दें ध्यान

अजोला की खेती के लिए यह जरूर ध्यान दें कि जहां उस का उत्पादन किया जा रहा हो, वहां का तापमान 20-28 डिगरी सैल्सियस हो, क्योंकि यह तापमान इस की वृद्धि के लिए सब से उपयुक्त माना जाता है.

चूंकि यह तेजी से बढ़ने वाला फर्न है, इसलिए प्रत्येक दिन 1-2 किलोग्राम अजोला की निकासी सुनिश्चित होनी चाहिए. कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया, जनपद बस्ती में वरिष्ठ पशु विज्ञानी डा. डीके श्रीवास्तव का कहना है कि पशुओं की चारा समस्या से निबटने के लिए अजोला एक बेहतर उपाय साबित हो रहा है. ऐसे में कोई भी किसान इस की खेती के लिए कल्चर या बीज के लिए अपने नजदीकी कृषि विश्वविद्यालयों से संपर्क कर सकता है या केंद्रीय चारा उत्पादन फार्म बेंगलुरु, कर्नाटक के जरीए संपर्क कर खरीदा जा सकता है.