Vermi Compost : कमाई के हैं इस में मौके अपार

Vermi Compost : खेती में अंगरेजी खाद के साथ ही जहरीली दवाओं, रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से पैदावार तो बढ़ी, लेकिन इन का असर हवा, पानी, मिट्टी समेत पूरे माहौल पर पड़ा है. इन्हें जल्दीजल्दी और ज्यादा मात्रा में डालने से उपज का स्वाद, गुण, इनसानी सेहत व समूची खाद्य श्रंखला गड़बड़ा गई है. धरती थकहार कर जहरीली व बंजर बन गई है. अंगरेजी खाद व दवाएं अब अपना असर खोने लगी हैं, इसलिए दुनियाभर के वैज्ञानिक अब नए रास्ते निकालने में लगे हुए हैं.

अंगरेजी खाद व कैमिकल्स से तोबा कर के अब देशी कंपोस्ट खाद को तरजीह दी जा रही है. कंपोस्ट से उगाए गए और्गैनिक फल, सब्जी, दालों व अनाज आदि की मांग, जागरूकता व बाजार कीमत लगातार बढ़ रही है.

जाहिर है कि यह सिलसिला आगे और तेजी से बढ़ेगा. ऐसे में वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बना कर बेचना कमाई का चोखा धंधा है.

कंपोस्ट खाद की मांग गांव के खेतों में ही नहीं, बल्कि कसबों और शहरों की नर्सरियों व कालोनियों में भी तेजी से बढ़ रही है. दरअसल, बहुत से लोग अंगरेजी खाद के असर से बचने के लिए अपने गमलों, किचन गार्डन आदि में अब कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल करने लगे हैं. सेहत के लिए जागरूक हो रहे लोग अब घर की छतों पर भी जैविक खाद से फल, फूल व सब्जियां आदि उगाने लगे हैं.

उत्तर भारत के मेरठ, नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव व दिल्ली में भी आंगन, दीवारों व छतों पर हरियाली रखने का चलन बढ़ रहा है, लेकिन इस मामले में बैंगलुरु पूरे देश में पहले स्थान पर है. वहां के बहुत से लोग कंपोस्ट की मदद से छतों पर और्गैनिक सब्जियां उगा कर दूसरे देशों को निर्यात कर के अच्छीखासी कमाई कर रहे हैं. वे अपनी उपज की क्वालिटी सुधारने के लिए वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) का इस्तेमाल करते हैं.

वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

क्या है वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

घास, पत्ती, मिट्टी व गोबर के ढेर में कुछ केंचुए छोड़े जाते हैं. वे उसे खा कर अपना जो मल निकालते हैं, उसे वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) कहते हैं. इस में नाइट्रोजन, सल्फर व पोटाश आदि पोषक तत्त्व होने के कारण यह खाद जमीन की सेहत व खेतीबागबानी के लिए बहुत ही फायदेमंद होती है. साथ ही, इसे तैयार करने में बदबू भी नहीं आती. कचरे का निबटारा भी आसानी से हो जाता है.

कचरे से कंपोस्ट बनाने का चलन सदियों पुराना है, लेकिन पहले गंवई इलाकों में लोग कंपोस्ट खाद बनाने के लिए कूड़ेकचरे को गड्ढे में दबा कर छोड़ देते थे. बहुत से लोग अब भी यही करते हैं. इस तरह से कंपोस्ट तैयार होने में तकरीबन 2 साल का वक्त लगता है, जबकि वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) 2-3 महीने में तैयार हो जाती है. 100 वर्गफुट जगह में 1 टन वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बन जाती है, जो आधा हेक्टेयर जमीन में डालने के लिए काफी है.

इस काम की खासीयत यह है कि इसे घर के पिछवाड़े में छोटे पैमाने से ले कर बहुत बड़े पैमाने तक किया जा सकता है. वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) में बतौर कच्चे माल के तौर पर काम आने वाला कचरा खेती, बागबानी, होटलों, कालोनियों, पार्कों, केंचुए वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बनाने वालों से व गोबर डेयरी व गौशालाओं आदि से मिल जाता है. विशेषज्ञों के अनुसार आइसेनियाफेटिडा किस्म के लाल केंचुए कंपोस्ट के लिए सब से बढि़या हैं, क्योंकि ये हर मौसम को आराम से सह लेते हैं.

1-2 किलोग्राम के पैकेट पौलीथिन की पन्नी में व बड़े 5,10 व 20 किलोग्राम को बैग या बोरे में पैक करें. अपने नाम, पते, ब्रांड और वजन आदि का लेबल लगा कर सप्लाई करें. बिक्री से पहले नियमकायदों की जानकारी के लिए अपने जिले के कृषि अधिकारी से सलाह ले सकते हैं.

वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) ऐसे बनाएं

वर्तमान में कूड़ाकचरा जलाने से अच्छा है उसे वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बनाना व उस से पैसे कमाना. इस के लिए समतल जगह पर रेत, मिट्टी की 6 इंची तह लगाएं. कचरे से कांच, धातु व पत्थर आदि निकाल कर अलग कर दें. घास, पत्ती, फल, सब्जियों आदि के गीले कचरे पर गोबर की तह लगा कर केंचुए छोड़ें. उन के ऊपर फिर गोबर व हरा कचरा डाल कर ढेर को पुआल, टाट या गन्ने की सूखी पत्तियों से ढक दें, ताकि सीधी व तेज धूप से नुकसान न हो.

इस के बाद रोज हजारे या स्प्रेयर से हलका पानी डालते रहें, ताकि थोड़ी नमी बनी रहे. हफ्ते में एक बार सावधानी से ढेर को पलट कर ऊपरनीचे कर दें. एक माह बाद केंचुए बढ़ने पर कचरे की और भी तह लगा सकते हैं. गोबर व हरे कचरे की मात्रा तकरीबन आधी आधी रख सकते हैं. साथ ही नमी भी 50 फीसदी से ज्यादा न हो.

वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) खाद को उलटतेपलटते रहें और अंत में छानते वक्त सावधानी बरतें ताकि केंचुओं का नुकसान न हो. डेढ़ माह बाद पानी छिड़कना बंद कर दें. अब आप देखेंगे कि धीरेधीरे कचरा बदल कर हलकी, भुरभुरी व कत्थई रंग की वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) में बदलने लगी है.

Cluster Bean : ग्वार के उन्नत बीजों की खेती

Cluster Bean : ग्वार एक ऐसी फसल है जिस से बारानी इलाकों में भी उगा कर फायदा लिया जा सकता है. बारानी इलाके वे होते हैं जहां का इलाका शुष्क या असिंचित होता है यानी वहां की खेती बारिश पर आधारित होती है. जरूरत है केवल समय के साथ चलने की इसलिए आज के दौर में खेती के आधुनिक तौरतरीकों को अपना कर खेती करें.

ग्वार की फसल को पौष्टिक चारे के अलावा हरी खाद के लिए भी उगाया जाता है. हरियाणा के अनेक इलाकों में ग्वार की खेती ज्यादातर उस के दानों के लिए की जाती है.

ग्वार में गोंद होने की वजह से इस बारानी फसल का औद्योगिक महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है. भारत से करोड़ों रुपए का गोंद विदेशों को बेचा जाता है. ग्वार की उन्नत किस्मों में 30 से 35 फीसदी तक गोंद की मात्रा होती है.

गंवई इलाकों में ग्वार की फलियों के साथसाथ फूलों का साग बना कर खाने में इस्तेमाल किया जाता है. अब तो शहरों में भी ग्वार की फलियों को सब्जी के रूप में बहुत से लोग पसंद करते हैं.

ग्वार की फली (Cluster Bean)  का बाजार भाव भी अच्छा मिलता है, इसलिए किसानों को चाहिए कि वह ग्वार की खेती करते समय जागरूक रहें और अपने इलाके के मुताबिक उन्नत किस्मों के बीजों का इस्तेमाल करें, जिस से बेहतर पैदावार मिल सके.

ग्वार की अच्छी पैदावार के लिए रेतीली दोमट मिट्टी वाली जमीन अच्छी रहती है. हालांकि हलकी जमीन में भी इसे पैदा किया जा सकता है, परंतु कल्लर (ऊसर) जमीन इस के लिए ज्यादा ठीक नहीं है.

जमीन की तैयारी : सब से पहले 2-3 जुताई कर के खेत को तैयार करें. खेत की जमीन एकसार करने के साथसाथ खरपतवारों का भी खत्मा कर दें.

बोआई का समय : जल्दी तैयार होने वाली फसल के लिए जून के दूसरे पखवारे में बोआई करें. इस के लिए एचजी 365, एचजी 563, एचजी 2-20, एचजी 870 और एचजी 884 किस्मों को बोएं.

देर से तैयार होने वाली फसल के लिए एचजी 75, एफएस 277 की मध्य जुलाई में बोआई करें. अगेती किस्मों के लिए बीज की मात्रा 5-6 किलोग्राम प्रति एकड़ और मध्य अवधि के लिए बीज 7-8 किलोग्राम प्रति एकड़ की जरूरत होती है. बीज की किस्म और समय के मुताबिक ही बीज बोएं.

फसल बोने से पहले मिट्टी की जांच जरूर करा लें ताकि खाद व उर्वरक देने की मात्रा भी जरूरत के मुताबिक दी जा सके.

खरपतवारों की रोकथाम : बीज बोने के एक माह बाद खेत की निराईगुड़ाई करें. अगर बाद में भी जरूरत महसूस हो तो 15-20 दिन बाद दोबारा एक बार और खरपतवार निकाल दें.

गुड़ाई करने के लिए हाथ से चलने वाले कृषि यंत्र हैंडह्वील (हो) से कर देनी चाहिए. ‘पूसा’ पहिए वाला हो वीडर बहुत ही साधारण प्रकार का कम कीमत यंत्र है. इस यंत्र से खड़े हो कर निराईगुड़ाई की जाती है. इस का वजन तकरीबन 8 किलोग्राम है. इस यंत्र को आसानी से फोल्ड कर के कहीं भी लाया व ले जाया जा सकता है.

इस यंत्र को खड़े हो कर आगेपीछे धकेल कर चलाया जाता है. निराईगुड़ाई के लिए लगे ब्लेड को गहराई के अनुसार ऊपरनीचे किया जा सकता है. पकड़ने में हैंडल को भी अपने हिसाब से एडजस्ट कर सकते हैं. यह कम खर्चीला यंत्र है.

खेत में पानी : आमतौर पर इस दौरान मानसून का समय होता है और पानी की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन अगर बारिश न हो और खेत सूख रहे हों तो फलियां बनते समय हलकी सिंचाई जरूर करें.

फसल कटाई: जब फसल की पत्तियां पीली पड़ कर झड़ने लगें और फलियों का रंग भी भूरा होने लगे तो फसल की कटाई करें और कटी फसल को धूप में सूखने के लिए छोड़ दें. जब कटी फसल सूख जाए तो इस की गहाई करें और दानों को सुखा कर रखें.

अगर फसल में कीट बीमारी का हमला दिखाई दे तो कीटनाशक छिड़कें और कुछ दिनों तक पशुओं को खिलाने से परहेज करें.

चारे के लिए Cluster Bean  की खास किस्में

ग्वार (एचएफजी 156) : ग्वार ( Cluster Bean ) एक पौष्टिक चारा फसल होने के साथसाथ मिट्टी की पैदावार कूवत भी बढ़ाती है. इस को अकेले या ज्वारबाजरा के साथ भी बोया जा सकता है.

चारे के लिए किस्म (एचएफजी 156) : यह एक लंबी अनेक शाखाओं वाली फसल है. पत्तियों के किनारे कटे हुए होते हैं. यह किस्म 70 दिन में तैयार हो जाती है. इस किस्म की बोआई अप्रैल से मध्य जुलाई तक करनी चाहिए.

अगेती फसल में सिंचित हालात में अच्छी बढ़त होती है. वर्षाकालीन फसल जो जुलाई में बोई जाती है, वह किस्म पर निर्भर होती है. एचएफजी 156 की बोआई में बीज की मात्रा 16 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से लगती है.

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार, (हरियाणा) के चारा अनुभाग के जरीए कुछ उन्नत किस्मों की जानकारी

ये हैं ग्वार की कुछ खास उन्नत किस्में

एफएस 277 : यह किस्म बिना शाखाओं वाली सीधी व लंबी बढ़ने वाली है. साथ ही, देर से पकने वाली किस्म है. यह मिश्रित खेती के लिए अच्छी मानी गई है. इस की बीज की पैदावार 5.5-6.0 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 75 : शाखाओं वाली यह किस्म रोग के प्रति सहनशील और देर से पकने वाली है. इस के बीज की पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 365 : यह कम शाखाओं वाली जल्दी पकने वाली किस्म है. यह किस्म 85-100 दिनों में पक जाती है और औसतन पैदावार 6.5-7.5 क्विंटल प्रति एकड़ है. इस किस्म के बोने के बाद आगामी रबी फसल आसानी से ली जा सकती है.

एचजी 563 : Cluster Bean की इस किस्म पकने में 85-100 दिन लेती है. इस के पौधों पर फलियां पहली गांठ व दूसरी गांठ से ही शुरू हो जाती हैं. इस का दाना चमकदार और मोटा होता है. इस किस्म की पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 2-20 : ग्वार की यह किस्म पूरे भारत में साल 2010 में अनुमोदित की गई है. 90-100 दिन में पकने वाली इस किस्म की फलियां दूसरी गांठ से शुरू हो जाती हैं और इस की फली में दानों की तादाद आमतौर पर दूसरी किस्मों से ज्यादा होती है व दाना मोटा होता है. इस किस्म की औसत पैदावार 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 870 : ग्वार की इस किस्म को साल 2010 में हरियाणा के लिए अनुमोदित किया गया. पकने का समय 85-100 दिन. दाने की पैदावार 7.5-8 क्विंटल प्रति एकड़. गोंद की औसत मात्रा 31.34 फीसदी तक.

एचजी 884 : ग्वार ( Cluster Bean) की इस किस्म को पूरे भारत के लिए साल 2010 में अनुमोदित किया गया था. यह 95-110 दिन में पकती है. मोटे दाने, दाने की पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ व गोंद की औसत मात्रा 29.91 फीसदी तक है.

बाजरे (Millet) की वैज्ञानिक खेती

सूखे मौसम या कम सिंचाई वाले खेतों के लिए बाजरा बहुत ही उम्दा फसल है. यही वजह है कि बाजरे की खेती राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा व पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर की जाती है.

बाजरा मोटे अनाजों की कैटीगरी में आता है. इस की खेती गरमियों में भी कर सकते हैं. यह कई रोगों को दूर करने के साथ शरीर को भी फिट रखने में कारगर है. यही वजह है कि शहरों में लोग इस की ऊंची कीमत देने को तैयार रहते हैं.

मिट्टी : बाजरे की खेती के लिए हलकी या बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है. साथ ही पानी के निकलने का अच्छा बंदोबस्त होना चाहिए.

खेत की तैयारी : पहली बार की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या रोटावेटर से करें और उस के बाद 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर के खेत को तैयार करें.

बोआई का समय और विधि : बोआई का सही समय जुलाई से ले कर अगस्त माह तक है. ध्यान रहे कि इस की बोआई लाइन से करने पर ज्यादा फायदा होता है. लाइन से लाइन की दूरी 40 सैंटीमीटर और पौध से पौध की दूरी 10 से 15 सैंटीमीटर रखें. बीज बोने की गहराई तकरीबन 4 सैंटीमीटर तक ठीक रहती है.

बीज दर और उपचार: इस की बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 4-5 किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है. बीजों को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए. अरगट के दानों को 20 फीसदी नमक के घोल में डाल कर निकाला जा सकता है.

खरपतवार पर नियंत्रण : बाजरे की फसल में खरपतवार ज्यादा उगते हैं. बेहतर होगा कि खरपतवारों को निराईगुड़ाई कर के निकाल दें. इस से एक ओर जहां मिट्टी में हवा और नमी पहुंच जाती है, वहीं दूसरी ओर खरपतवार भी नहीं पनप पाते हैं.

खरपतवारों की कैमिकल दवाओं से रोकथाम करने के लिए एट्राजीन 0.50 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 800-1000 लिटर पानी में मिला कर बोआई के बाद व जमाव से पहले एकसमान रूप से छिड़काव कर देना चाहिए.

खाद और उर्वरक : खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल खेत की मिट्टी की जांच के आधार पर करना चाहिए. हालांकि मोटेतौर पर संकर प्रजातियों में हाईब्रिड के लिए 80-100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश व देशी प्रजातियों के लिए 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस व 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले इस्तेमाल करें. उस के बाद नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा टौप ड्रेसिंग के रूप में जब पौधे 25-30 दिन के हो जाएं तो छिटक कर छिड़काव करें.

सिंचाई : बाजरे की फसल बारिश के मौसम में उगाई जाती है. बरसात का पानी ही इस के लिए सही होता है. यदि बरसात का पानी न मिल सके तो फूल आने पर जरूरत के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए.

बाजरे (Millet)

खास रोगों का उपचार

बाजरे का अरगट : यह रोग क्लेविसेप्स माई क्रोसिफैला नामक कवक से फैलता है. यह रोग बालियों या बालियों के कुछ ही दानों पर ही दिखाई देता है. इस में दाने की जगह पर भूरे काले रंग की सींग के आकार की गांठें बन जाती हैं. इसे स्केलेरोशिया कहते हैं. प्रभावित दाने इनसानों और जानवरों के लिए नुकसानदायक होते हैं, क्योंकि उन में जहरीला पदार्थ होता है. इस रोग की वजह से फूलों में से हलके गुलाबी रंग का गाढ़ा और चिपचिपा पदार्थ निकलता है. रोग ग्रसित बालियों पर फफूंद जम जाता है.

रोकथाम : बोने से पहले 20 फीसदी नमक के घोल में बीजों को डुबो कर स्केलेरोशिया अलग किए जा सकते हैं. खड़ी फसल में इस की रोकथाम के लिए फूल आते ही घुलनशील जिरम 80 फीसदी चूर्ण 1.5 किलोग्राम या जिनेब 75 फीसदी चूर्ण 2 किलोग्राम या मैंकोजेब चूर्ण को 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 5-7 दिन के अंतराल पर छिड़कना चाहिए.

कंडुआ : यह रोग टालियोस्पोरियम पेनिसिलेरी कवक से लगता है. इस रोग में दाने आकार में बड़े, गोल अंडाकार व हरे रंग के हो जाते हैं. इन में काला चूर्ण भरा होता है. मंड़ाई करते समय ये दाने फूट जाते हैं, जिस से उन में से काला चूर्ण निकल कर सेहतमंद दानों पर चिपक जाता है.

रोकथाम : इस की रोकथाम के लिए किसी पारायुक्त कैमिकल से बीज उपचारित कर के बोने चाहिए. सावधानी के लिए एक ही खेत में हर साल बाजरे की खेती नहीं करनी चाहिए.

हरित बाली रोग : इसे डाउनी मिल्ड्यू नाम से जाना जाता है. रोगकारक स्केलेरोस्पोरा ग्रैमिनीकोला पत्तियों पर पीलीसफेद धारियां पड़ जाती हैं. इस के नीचे की तरफ रोमिल फफूंदी की बढ़वार दिखाई देती है. बाल निकलने पर बालों में दानों की जगह पर टेढ़ीमेढ़ी हरी पत्तियां बन जाती हैं और बाली गुच्छे या झाड़ू सी दिखाई देती है.

रोकथाम : शोधित बीज ही बोने चाहिए. रोग से ग्रसित पौधे को जला दें और फसल चक्र अपनाएं. शुरुआती अवस्था में जिंक मैगनिज कार्बामेट या जिनेब 0.2 फीसदी को पानी में घोल कर छिड़काव करें.

मुख्य कीट

तनामक्खी कीट : यह कीट बाजरे का दुश्मन है, जो फसल की शुरुआती अवस्था में बहुत नुकसान पहुंचाता है. जब फसल 30 दिन की होती है तब तक कीट से फसल को 80 फीसदी नुकसान हो जाता है.

इस के नियंत्रण के लिए बीज को इमिडाक्लोरोप्रिड गोचो 14 मिलीलिटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए और बोआई के समय बीज की मात्रा 10 से 12 फीसदी ज्यादा रखनी चाहिए.

जरूरी हो तो अंकुरण के 10-12 दिन बाद इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. फसल काटने के बाद खेत में गहरी जुताई करें और फसल के अवशेषों को इकट्ठा कर के जला दें.

तनाभेदक कीट : तनाभेदक कीट का प्रकोप फसल में 10 से 15 दिन से शुरू हो कर फसल के पकने तक रहता है. इस के नियंत्रण के लिए फसल काटने के बाद खेत में गहरी जुताई करें और फसल के अवशेषों को जला दें.

खेत में बोआई के समय कैमिकल खाद के साथ 10 किलोग्राम की दर से फोरेट 10 जी अथवा कार्बोफ्यूरान दवा खेत में अच्छी तरह मिला दें और बोआई 15-20 दिन बाद इमिडाक्लोरोप्रड 200 एसएल 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर या कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करें.

टिड्डा कीट : यह बाजरे की फसल को छोटी अवस्था से ले कर फसल पकने तक नुकसान पहुंचाता है. यह कीट पत्तों के किनारों को खा कर धीरेधीरे पूरी पत्तियों को खा जाता है. बाद में फसल में केवल मध्य शिराएं और पतला तना ही रह जाता है.

इस के नियंत्रण के लिए फसल में कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 से 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करें.

पक्षियों से बचाव : बाजरा पक्षियों का मुख्य भोजन है. फसल में जब दाने बनने लगते हैं तो सुबहशाम पक्षियों से बचाव करना बहुत ही जरूरी है.

नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कमाई से छाई बहार

राजस्थान का मारवाड़ इलाका लजीज खाने की वजह से दुनियाभर में अपनी खास पहचान रखता है, चाहे बीकानेर की नमकीन भुजिया हो या रसगुल्ले की बात हो या फिर जोधपुर के मिरची बड़े व कचौरी की, एक खास तसवीर उभर कर सामने आती है. वहीं दूसरी ओर इस इलाके में मसालों की खेती भी की जाती है. प्रदेश का नागौर जिला एक ऐसी ही मसाला खेती के लिए दुनियाभर में जाना जाता है और वह है कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती.

डाक्टर और वैज्ञानिक कई तरह की बीमारियों के इलाज के लिए भी कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के इस्तेमाल की सलाह देते हैं. कई औषधीय गुणों से भरपूर इस मेथी का इस्तेमाल पुराने जमाने से ही पेट दर्द दूर करने, कब्जी दूर करने और बलवर्धक औषधीय के रूप में होता आया है.

मेथी (Fenugreek) की बहुउपयोगी पत्तियां सेहत के लिए फायदेमंद होने के साथसाथ खाने को लजीज बनाने में भी खास भूमिका निभाती है. खास तरह की खुशबू और स्वाद की वजह से मेथी का इस्तेमाल सब्जियों, परांठे, खाखरे, नान और कई तरह के खानों में होता है.

नागौर की यह मशहूर मेथी (Fenugreek) अंतर्राष्ट्रीय कारोबार जगत में बेहद लजीज मसालों के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है. अब तो मेथी (Fenugreek) का इस्तेमाल लोग ब्रांड नेम के साथ करने लगे हैं. सेहत की नजर से देखें तो मेथी (Fenugreek) में प्रचुर मात्रा में विटामिन ए, कैल्शियम, आयरन व प्रोटीन मौजूद है.

किसान सेवा समिति, मेड़ता के बुजुर्ग किसान बलदेवराम जाखड़ बताते हैं कि किसी जमाने में पाकिस्तान के कसूरी इलाके में ही यह मेथी (Fenugreek) पैदा होती थी, जिस के चलते इस का नाम कसूरी पड़ा. धीरेधीरे इस की पैदावार फसल के रूप में सोना उगलने वाली नागौर की धरती पर होने लगी.

आज हाल यह है कि नागौर दुनियाभर में कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उपजाने वाला सब से बड़ा जिला बन गया है. यहां की मेथी (Fenugreek) मंडियों ने विश्व व्यापारिक मंच पर अपनी एक अलग जगह बनाई है. न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) बिकने के लिए जाती है.

नागौर के ही एक मेथी (Fenugreek) कारोबारी बनवारी लाल अग्रवाल के मुताबिक, कई मसाला कंपनियों ने कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को दुनियाभर में पहचान दिलाई है. देश की दर्जनभर मसाला कंपनियां कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को खरीद कर देशविदेश में कारोबार करती हैं. इसी वजह से इस मेथी (Fenugreek) का कारोबारीकरण हो गया है.

नागौर जिला मुख्यालय में 40 किलोमीटर की दूरी में फैले इलाके खासतौर से कुचेरा, रेण, मूंडवा, अठियासन, खारड़ा व चेनार गांवों में मेथी (Fenugreek) की सब से ज्यादा पैदावार होती है. मेथी (Fenugreek) की फसल के लिए मीठा पानी सब से अच्छा रहता है. चिकनी व काली मिट्टी इस की खेती के लिए ठीक रहती है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की फसल अक्तूबर माह में बोई जाती है. 30 दिन बाद इस की पत्तियां पहली बार तोड़ने लायक हो जाती हैं. इस के बाद फिर हर 15 दिन बाद इस की नई पत्तियां तोड़ी जाती हैं.

मेथी (Fenugreek) के एकएक पौधे की पत्तियां किसान भाई अपने हाथों से तोड़ते हैं. लोकल बोलचाल में मेथी की पत्तियां तोड़ने के काम को लूणना या सूंठना कहते हैं. पहली बार तोड़ी गई पत्तियां स्वाद व क्वालिटी के हिसाब से सब  अच्छी होती है.

वर्तमान में मेथी (Fenugreek) की पैदावार में संकर बीज का इस्तेमाल सब से ज्यादा होता है. यहां के इसे किसान काश्मीरो के नाम से जानते हैं. कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उतारने में सब से ज्यादा मेहनत होती है, क्योंकि इस के हरेक पौधे की पत्तियों को हाथ से ही तोड़ना पड़ता है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek)

कैसे करें खेती

भारत में मेथी की कई किस्में पाई जाती हैं. कुछ उन्नत हो रही किस्मों में चंपा, देशी, पूसा अलविंचीरा, राजेंद्र कांति, हिंसार सोनाली, पंत रागिनी, काश्मीरी, आईसी 74, कोयंबूटर 1 व नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) खास हैं. इस की अच्छी खेती के लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी है:

आबोहवा व जमीन : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती के लिए शीतोष्ण आबोहवा की जरूरत होती है, जिस में बीजों के जमाव के लिए हलकी सी गरमी, पौधों की बढ़वार के लिए थोड़ी ठंडक और पकने के लिए गरम मौसम मिले. वैसे, यह मेथी हर तरह की जमीन में उगाई जा सकती है, लेकिन इस की सब से अच्छी उपज के लिए बलुई या दोमट मिट्टी बेहतर रहती है.

खाद व उर्वरक : अच्छी फसल के लिए 5 से 6 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत तैयार करते समय मिला देनी चाहिए. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-40 किलो फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर देने से उपज में बढ़ोतरी होती है. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई से पहले देते हैं. बाकी नाइट्रोजन 2 बार में 15 दिन के अंतराल पर देते हैं.

बोआई : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को अगर बीज के रूप में उगाना है, तो इसे मध्य सितंबर से नवंबर माह तक बोया जाता है. लेकिन अगर इसे हरी सब्जी के लिए उगाना है तो मध्य अक्तूबर से मार्च माह तक भी बो सकते हैं. वैसे, सब से अच्छी उपज लेने के लिए नागौर इलाके में इसे ज्यादातर अक्तूबर से दिसंबर माह के बीच ही बोया जाता है.

इस की बोआई लाइनों में करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 15 से 20 सैंटीमीटर व गहराई 2 से 3 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. ज्यादा गहराई पर बीज का जमाव अच्छा नहीं रहता. बीज बोने के बाद पाटा जरूर लगाएं, ताकि बीज मिट्टी से ढक जाए. यह मेथी 8 से 10 दिनों में जम जाती है.

सिंचाई: कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के पौधे जब 7-8 पत्तियों के हो जाएं, तब पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. यह समय खेत की दशा, मिट्टी की किस्म व मौसमी बारिश वगैरह के मुताबिक घटबढ़ सकता है. हरी पत्तियों की ज्यादा कटाई के लिए सिंचाई की तादाद बढ़ा सकते हैं.

फसल की हिफाजत : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) में पत्तियों व तनों के ऊपर सफेद चूर्ण हो जाता है व पत्तियां हलकी पीली पड़ जाती हैं. बचाव के लिए 800 से 1200 ग्राम प्रति हेक्टेयर ब्लाईटाक्स 500-600 लिटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़क दें.

पत्तियां व तनों को खाने वाली गिड़ार से बचाने के लिए 2 मिलीलिटर रोगर 200 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें. छिड़काव कटाई से 5 से 7 दिन पहले करें.

कटाई : हरी सब्जि के लिए बोआई के 3-4 हफ्ते बाद कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कटाई के लिए तैयार हो जाती है. बाद में फूल आने तक हर 15 दिन में कटाई करते हैं. बीज उत्पादन के लिए 2 कटाई के बाद कटाई बंद कर देनी चाहिए.

उपज और स्टोरेज : सब्जी के लिए मेथी की औसत उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व बीज के लिए 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होती है. हरी सब्जी के लिए मेथी की पत्तियों को अच्छी तरह से सुखा कर एक साल तक स्टोर कर सकते हैं और बीज को 3 साल तक स्टोर किया जा सकता है.

गौरतलब है कि कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के बीजों का मसाले के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है.

सोर्फ मशीन (Machine) से गन्ने (sugarcane) की अच्छी पैदावार

गन्ना उगाने के मामले में भारत पहले नंबर पर है, ऐसा माना जाता है. पर इसे पूरी दुनिया में उगाया जाता है. वैसे, इसे उगाने की शुरुआत ही भारत से मानी गई है और देश में गन्ना पैदा करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है. गन्ने की फसल को आम बोलचाल की भाषा में ईख भी कहा जाता है. इस फसल को एक बार बो कर इस से 3 साल तक उपज ली जा सकती है.

तकरीबन 50 मिलियन गन्ना किसान और उन के परिवार अपने दैनिक जीवनयापन के लिए इस फसल पर ही निर्भर हैं या इस से संबंधित चीनी उद्योग से जुड़े हुए हैं. इसलिए पेड़ी गन्ने की पैदावार में बढ़ोतरी करना बेहद जरूरी है, क्योंकि भारत में इस की औसत पैदावार मुख्य गन्ना फसल की तुलना में 20-25 फीसदी कम है. हर साल गन्ने के कुछ रकबे यानी आधा रकबा पेड़ी गन्ने की फसल के रूप में लिया जाता है.

गन्ने से अधिक उपज लेने में किल्ले की अधिक मृत संख्या, जमीन में पोषक तत्त्वों की कमी होना, ट्रेश यानी गन्ने की सूखी पत्तियां जलाना वगैरह खास कारण हैं.

इन बातों को ध्यान में रखते हुए गन्ना पेड़ी प्रबंधन के लिए ‘सोर्फ’ नाम से एक खास बहुद्देशीय कृषि मशीन मौजूद है. इस के इस्तेमाल से गन्ना पेड़ी से अच्छी फसल ली जा सकती है.

मशीन (Machine)

मशीन की खूबी : यह मशीन एकसाथ 4 काम करने में सक्षम है.

  1. पोषक तत्त्व प्रबंधन : सोर्फ मशीन गन्ने की सूखी पत्तियों वाले खेत में भी कैमिकल उर्वरकों को जमीन के अंदर पेड़ी गन्ने की जड़ों तक पहुंचाने में सहायक है.
  2. ठूंठ प्रबंधन : गन्ना फसल कटने के बाद खेत में जो ठूंठ रह जाते हैं या ऊंचेनीचे होते हैं, उन असमान ठूंठों को जमीन की सतह के पास से बराबर ऊंचाई पर काटने के लिए भी इस मशीन का इस्तेमाल किया जा सकता है.
  3. मेंड़ों का प्रबंधन : गन्ने की पुरानी मेंड़ों की मिट्टी को अगलबगल से आंशिक रूप से काट कर यह मशीन उस को 2 मेंड़ों के बीच पड़ी सूखी पत्तियों पर डाल देती है, जिस से पत्तियां गल कर खाद का काम करती हैं.
  4. जड़ प्रबंधन : ‘सोर्फ’ मशीन द्वारा गन्ने की पुरानी जड़ों को बगल से काट दिया जाता है, जिस से नई जड़ें आ जाती हैं और पेड़ी गन्ने में किल्ले की संख्या में बढ़ोतरी होती है.

सोर्फ मशीन से जुड़ी अधिक जानकारी के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-राष्ट्रीय अजैविक स्ट्रैस प्रबंधन संस्थान, (समतुल्य विश्वविद्यालय), मालेगाव, बासमती 413115, पुणे (महाराष्ट्र) फोन : 02112-254057 पर जानकारी ले सकते हैं.

काला टमाटर (Black Tomato) बाजार में मचाएगा धूम

यदि कोई आप से पूछे कि क्या आप ने काले रंग का टमाटर खाया है तो यह सुन कर आप सोचेंगे कि यह कैसा भद्दा मजाक है. आप खाने की बात कर रहे हैं और हम ने तो अभी तक इस रंग का टमाटर देखा भी नहीं है. काला टमाटर खाने में लाल टमाटर की तरह जायकेदार होने के साथ ही कई तरह की बीमारियों को भी दूर करता है. इस टमाटर की खासीयत यह है कि इस को शुगर और दिल के मरीज भी बिना हिचक खा सकते हैं.

आने वाले दिनों में बाजार में काला टमाटर आम हो जाएगा, जैसे अभी तक लाल टमाटर है. काला टमाटर अभी तक देश में पैदा नहीं होता था, लेकिन कुछ लोग विदेश से इस के बीज मंगवा कर टमाटर की खेती प्रायोगिक तौर पर कर रहे हैं, जिस के नतीजे काफी अच्छे हैं. काला टमाटर खरीदारों को खूब लुभा रहा है, जिस के चलते लोग इसे कफी पसंद कर रहे हैं. अब इस के बीज भारत में भी मौजूद हैं. अंगरेजी में इसे इंडिगो रोज टोमेटो कहा जाता है.

इस टमाटर की खासीयत यह है कि यह टमाटर के फल के रूप में शुरू होता है, लेकिन धीरेधीरे यह काले रंग में बदल जाता है.

सब से पहले इंडिगो रोज रेड और बैगनी टमाटर के बीजों को आपस में मिला कर एक नया बीज तैयार किया गया, जिस से ये हाईब्रिड टमाटर पैदा हुआ. यूरोपीय मार्केट में इसे सुपरफूड कहा जाता है. इस के बीज औनलाइन भी मौजूद हैं और भारत में बागबानी के शौकीनों ने इस काले टमाटर को अपने घर की बगिया में जगह दी है.

हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में एकदो बीज विक्रेताओं के पास काले टमाटर के बीज मिल रहे हैं. इन्होंने काले टमाटर के बीज आस्टे्रलिया से मंगवाए हैं. इस की खेती करने के लिए किसानों को अलग से कोई मेहनत नहीं करनी पड़ेगी, क्योंकि इस की खेती भी लाल टमाटर की तरह ही होती है.

बीज विक्रेताओं ने बताया कि अभी तक भारत में काले टमाटर की खेती नहीं होती थी, लेकिन अब इस की खेती की जाएगी.

ऐसा पहली बार हुआ है जब कोई टमाटर स्किन के लिए अच्छा माना जा रहा है. एक वैज्ञानिक अध्ययन में पाया गया है कि यह कई बीमारियों से लड़ने में भी कारगर है.

इस टमाटर की फसल तैयार होने में लाल टमाटर से ज्यादा समय लगता है. इस की बोआई जनवरी में की जाती है. इस के लिए किसी तरह की खास मिट्टी या मौसम की जरूरत नहीं होती. जिस तरह के लाल टमाटर की खेती किसान करते हैं, ठीक वैसे ही इस की भी खेती कर सकते हैं.

इस को पकने में 4 महीने का समय लगता है, जबकि लाल टमाटर 3 महीने में ही पक कर तैयार हो जाता है. काले टमाटर की खेती में किसानों को एक महीने का समय ज्यादा लगेगा, लेकिन मुनाफा परंपरागत टमाटर से ज्यादा होगा.

लाल मूली (Red Radish) की अच्छी खेती कैसे करें

लाल मूली सब्जी बाजार की बड़ी दुकानों और बड़ेबड़े होटलों पर ज्यादा परोसी जाती है. इस का इस्तेमाल सलाद, परांठे और कच्ची सब्जी के रूप में ज्यादा किया जाता है. इस में गोलाकार और लंबे आकार की 2 किस्में होती हैं.

इस सब्जी को ज्यादातर कच्चा ही खाया जाता है. इस में तीखापन नहीं होता और यह स्वादिष्ठ होती है. इस में पोषक तत्त्वों की भरपूर मात्रा होती है. भोजन के साथ खाने से यह जल्दी पच जाती है व खून साफ करती है. छिलके के साथ इस का इस्तेमाल करना चाहिए.

सही जमीन व वातावरण : सफेद मूली की तरह ही लाल मूली भी हलकी बलुई दोमट मिट्टी में पैदा होती है. इसे हमेशा मेंड़ों पर ही लगाना चाहिए. लेकिन इस के लिए मिट्टी में भरपूर जीवांश पदार्थ मौजूद होने जरूरी हैं. इस के लिए जमीन का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए.

लाल मूली की खेती के लिए ठंडी जलवायु की जरूरत होती है, क्योंकि यह भी शरद ऋतु की फसल है. 30 से 32 डिगरी सैल्सियस तापमान इस की खेती के लिए जरूरी है. लेकिन 20 से 25 डिगरी सैल्सियस तापमान पर इस की अच्छी पैदावार होती है.

खेत की तैयारी : अच्छी फसल के लिए 4 से 5 जुताई जरूरी हैं. जड़ वाली फसल होने की वजह से इसे भुरभुरी मिट्टी की जरूरत पड़ती है. इसलिए इस की 1 से 2 जुताई मिट्टी पलटने वाले हल देशी हल से करें या फिर ट्रैक्टर ट्रिलर से करनी चाहिए. खेत को ढेलारहित और सूखी घासरहित होना जरूरी है.

ढेले न रहें, इस के लए हर जुताई के बाद पाटा चलाना जरूरी है. मिट्टी बारीक रहने से इस की जड़ें ज्यादा तेजी से बढ़ती हैं.

अच्छी किस्में : लाल मूली की 2 किस्में होती हैं. यह लंबी और गोल होती है. आमतौर पर इन्हीं किस्मों को ज्यादा उगाया जाता है. साथ ही, इन से ज्यादा उपज मिलती है.

* रैपिड रैड वाइट ट्रिटड (लंबी जड़ वाली)

* स्कारलेट ग्लोब (गोल जड़ वाली)

खाद और उर्वरक : सड़ी गोबर की खाद 8-10 टन प्रति हेक्टेयर और नाइट्रोजन 80 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम और पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले खेत में देनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी आधी मात्रा बोआई के 15 से 20 दिन बाद देनी चाहिए.

बीज की मात्रा : लाल मूली के बीज की बोआई लाइन में करने पर 8-10 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है लेकिन छिड़काव विधि से बोने पर 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है.

बोआई का समय और तरीका : बोआई का सही समय मध्य सितंबर से अक्तूबर तक है, क्योंकि अगेती फसल की ज्यादा मांग होती है.

बोआई का तरीका लाइनों में मेंड़ बना कर करें तो ज्यादा अच्छा है. 10 से 12 सैंटीमीटर की दूरी पर बीज को 2 से 3 मिलीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए ताकि बीज पूरी तरह से अंकुरित हो सकें. गहरा बीज कम अंकुरित होता है. मेंड़ से मेंड़ की दूरी 45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8 से 12 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

सिंचाई: जब बीज अंकुरित हो कर 10 से 12 दिन हो जाएं, तब पहली सिंचाई करनी चाहिए. उस के बाद दूसरी सिंचाई के 10 से 12 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए. इस तरह 8 से 10 सिंचाई काफी होती हैं. खेत में पानी कम देना चाहिए जिस से मेंड़ें डूब न पाएं.

निराईगुड़ाई: मूली की फसल में निराईगुड़ाई की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है, क्योंकि 40 दिन में इस की फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है. जंगली घास या पौधों को हाथ से उखाड़ देना चाहिए. इस तरह जरूरत पड़ने पर जंगली घास निकालने के लिए 1-2 निराईगुड़ाई की जरूरत पड़ती है.

मिट्टी चढ़ाना : मूली बोने के लिए ऊंची मेंड़ें बनाना जरूरी हैं, क्योंकि यह जड़ वाली फसल है. ऐसा करने से इस की अच्छी उपज मिलती है.

मूली उखाड़ना : तैयार मूली को खेत से निकालते रहना चाहिए. इस तरह मूली की जड़ों को साफ कर के पत्तियों सहित मूली को बाजार या सब्जी की दुकानों पर बेचने के लिए भेजते हैं ताकि जड़ व पत्तियां मुरझा न पाएं और ताजी बनी रहें.

उपज : अच्छी देखभाल होने पर 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिल जाती है. जड़ों को ज्यादा दिन तक न रखें क्योंकि ये जल्दी खराब हो जाती हैं. समयसमय पर खुदाई भी करते रहना चाहिए.

बीमारियां और कीट रोकथाम : ज्यादातर पत्तियों पर धब्बे लगने वाली बीमारी लगती है. इस की रोकथाम के लिए फफूंदीनाशक दवा बाविस्टिन से बीज उपचारित कर के बोएं और 0.2 फीसदी के घोल का छिड़काव करें.

लाल मूली में ज्यादातर ऐफिड्स और सूंड़ी का असर होता है. उन कीटों की रोकथाम के लिए रोगोर, मेलाथियान का 1 फीसदी का घोल बना कर छिड़कें.

खेतीकिसानी में कारपोरेट क्रांति (Corporate Revolution) की दस्तक की जरूरत

प्रकृति द्वारा कृषि संकट के पहलू पर ध्यान दें, तो यह कोई कम गंभीर समस्या नहीं है. खेती में मुनाफा कम होने की वजह से जमीन का ठेका (किराया) मूल्य कम हो गया है. लगातार परिवारों के बढ़ने से खेती की जमीन लगातार बंट रही है, जिस से कृषि इकाई व्यावहारिक नहीं रह गई है. 15 फीसदी से ज्यादा ग्रामीण भूमिहीन हो गए हैं.

भारत में 75 फीसदी खेत 2 हेक्टेयर से कम नाप के हैं और इन में से दोतिहाई 1 हेक्टेयर से कम नाप के हैं. इस तरह की जोतों का हिस्सा और उन का इलाका दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है.

कृषि अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, पंजाब के 1 हेक्टेयर से कम जोत वाले किसान परिवार की आमदनी राज्य सरकार के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के वेतन से भी कम है और 2 हेक्टेयर से छोटी जोत वाले किसान की आमदनी राज्य सरकार में एक बाबू के मासिक वेतन से भी कम है. कृषि संकट के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर नजर डालें तो पाते हैं कि खेती अब फायदेमंद धंधा नहीं रहा है.

कृषि उत्पादकता गिर रही है, जबकि कृषि सामग्री की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं. कर्जदारी तेजी से बढ़ रही है. इस निराशा और हताशा भरी हालत का कोई हल न दिखाई देने से आमतौर पर किसान आत्महत्या जैसा कायरतापूर्ण कदम उठा रहे हैं. जो राज्य तुलनात्मक तौर पर ज्यादा विकसित हैं, उन में 1995-2005 के बीच तकरीबन 20 हजार किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. इन में से ज्यादातर सीमांत और छोटे किसान थे, जिन के पास सुविधाएं कम थीं और उन्होंने खेती के लिए कर्ज लिया था.

सरकारी अनदेखी के चलते आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे कृषि क्षेत्र में पिछले सालों से कोई भी कैपिटल इनवेस्टमेंट कर के खतरा मोल लेने को राजी नहीं था. इसीलिए पिछले 15 सालों से कृषि विकास दर प्रमुख राज्यों में बेकार यानी निम्न स्तर पर ही रही. ऐसे हालात में अब कारपोरेट सैक्टर ने कृषि क्षेत्र में भारी बदलाव करने का बीड़ा उठाया है.

सरकार ने किसानों के साथ उद्योग जगत को भी एक नया संदेश दिया है. इस का मतलब साफ है कि किसानों को परंपरागत खेती का रास्ता छोड़ कर आर्थिक क्रांति के नए प्रबंधकों से तालमेल बैठाना होगा. कृषि के ढांचे को मजबूत कर के भारत भी विकसित देशों की कतार में खड़ा हो सकता है. शायद यही संदेश भारती या रिलायंस जैसी कंपनियां देना चाहती हैं, जो खेती के मौजूदा हालात से बखूबी वाकिफ होने के बावजूद इस क्षेत्र में निवेश करने की पहल कर रही हैं.

कंपनियों का रुख देखते हुए यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले 5 सालों में इस सैक्टर में हजारों करोड़ का भारीभरकम निवेश होगा. देश की प्रमुख कारपोरेट सैक्टर की कंपनियों की नजर अब भारतीय कृषि क्षेत्र पर लगी है.

इन कंपनियों का मकसद भी एकदम साफ है. वे मुकाबले के इस दौर में भारतीय किसानों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की कला सिखाना चाहती हैं. अपने कारोबार के साथ कंपनियां चाहती हैं कि भारतीय किसान उन के प्रोजेक्टों के माध्यम से खेती की आधुनिक तकनीक में माहिर हो जाएं और ऐसी फसलें पैदा करें, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हाथोंहाथ लिया जाए. इस के लिए एक माहौल तैयार करने की जरूरत है. लिहाजा रिलांयस और भारती जैसी कंपनियों ने पंजाब को मौडल बना कर कारपोरेट एग्रीकल्चर की पहल की है.

पिछले समय में किसानों को खेती करने के ज्यादा उपाय नहीं दिए गए थे. उन्हें पुराने तरीकों से ही खेती करने को मजबूर किया जा रहा था, लेकिन अब आने वाले दिनों में तसवीर बदलने वाली है. राज्य के किसान कारपोरेट घरानों के सहारे विश्व बाजार में अपनी साख कायम कर सकेंगे. जानकारों की राय है कि देश के संगठित क्षेत्र में आ रही रिटेल कंपनियों को उम्दा और ग्रेडिंग वाली फलसब्जियों की काफी जरूरत है. आने वाले दिनों में यह बाजार तेजी से बढ़ने वाला है.

क्रांति (Corporate Revolution)

मौजूदा दौर में लोग अच्छी किस्म का सामान ही खरीदना चाहते हैं. ऐसे में ब्रांडेड फलसब्जियों की मांग में लगातार इजाफा हो रहा है. कई कंपनियों ने रीटेल चेन की शुरुआत भी कर दी है. कंपनियां देश के चुनिंदा शहरों में बड़े स्तर पर फलसब्जी के और्गनाइज्ड रीटेल शोरूम खोलने जा रही हैं. लिहाजा कारपोरेट एग्रीकल्चर घरेलू के साथसाथ विश्व बाजार की जरूरतों को भी पूरा करने में समर्थ होगा.

पंजाब में 1 लाख हेक्टेयर जमीन में हाईवैल्यू फसलों की खेती ठेके पर कराने की मुहिम को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. राज्य में कम हो रहे पानी के स्तर से चिंतित सरकार भी माइक्रो इरीगेशन और क्लाइमेट कंट्रोल की तकनीक अपना कर स्थिति में सुधार लाने की कोशिश में है. इसीलिए कारपोरेट सैक्टर के साथ हाथ मिलाए जा रहे हैं.

विश्व में भारत के फलसब्जी का दूसरा सब से बड़ा उत्पादक देश होने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उस का निर्यात 1 फीसदी से भी कम है. देश में हर साल तकरीबन 15 करोड़ टन फलसब्जियों की पैदावार होती है, लेकिन उस में से 3 फीसदी उत्पाद सही रखरखाव न होने के कारण खराब हो जाते हैं. कारपोरेट सैक्टर की सहायता से इस बरबादी को खत्म किया जा सकेगा.

कारपोरेट कंपनियां कृषि क्षेत्र में नई जान फूंकने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहतीं. अब खेतों में ओपन कल्टीवेशन के बजाय प्रोटेक्टेड कल्टीवेशन का दौर शुरू हो चुका है.

आने वाले समय में पंजाब के खेत ग्रीन हाउस के अलावा नेट पाली हाउस और ग्लास हाउस समेत न जाने कितने हाउसों से पटे नजर आएंगे. हाउसों में नमी कंट्रोल के अलावा क्लाइमेट कंट्रोल और सिंचाई कंट्रोल कर के फसलों को उन की जरूरत के मुताबिक मौसम, खुराक, कैमिकल और पानी दिया जाएगा. इन सभी हाउसों में सेंसर लगा कर कंप्यूटराइज्ड तरीके से कंट्रोल किया जा रहा है. कंप्यूटर फसलों की जरूरत के मुताबिक गरमी, सर्दी, बरसात और लाइट का इंतजाम करेगा.

केला फसल कीड़े व बीमारियां की रोकथाम

आज कुछ किसानों के लिए खेती जहां घाटे का सौदा साबित हो रही है, वहीं देश के कई किसानों ने केले की खेती की बारीकियों, नई तकनीकों और वैज्ञानिक पहलू से सफलता हासिल की है. केले की फसल से ज्यादा पैदावार लेने और उम्दा किस्म का केला हासिल करने के लिए जरूरी है कि केले की खेती के हर तकनीकी पहलू को सही तरीके से अपनाया जाए. दुनियाभर में केला एक महत्त्वपूर्ण फसल है.

देश में तकरीबन 4.9 लाख हेक्टेयर जमीन पर केले की खेती की जाती है. इस की खेती के लिए पानी सोखने वाली जमीन ज्यादा मुफीद रहती है.

कीड़े व बीमारियां

प्रकंद छेदक कीट : इस कीट का वैज्ञानिक नाम कास्मोपोलाइट्स साडिडस है. इस का असर पौध लगाने के 1-2 महीने बाद ही शुरू हो जाता है. शुरुआत में ये कीट तने में छेद कर के तने को खाते हैं, जो बाद में राइजोम की तरफ चले जाते हैं. इस के असर से पौधों की बढ़ोतरी धीमी पड़ जाती है, वे बीमार दिखने लगते हैं और पत्तियों पर पीली धारियां उभर आती हैं. इस कीट के ज्यादा असर से पत्तियों और धारियों का आकार छोटा हो जाता है.

रोकथाम

* हमेशा स्वस्थ सकर ही चुनें.

* लगातार एक ही खेत में केले की फसल न लें.

* सकर को रोपाई से पहले 0.1 फीसदी कीनालफास के घोल में डुबोएं.

* रोपाई के समय क्लोरोपायरीफास चूर्ण प्रति गड्ढे की दर से मिट्टी में मिलाएं.

* प्रभावित और सूखी पत्तियों को काट कर जला दें.

* कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे पर इस्तेमाल से इस कीट की रोकथाम होती है.

केला फसल (banana crop)

तनाबेधक कीट : इस कीट का वैज्ञानिक नाम ओडोइपोरस लांगिकोल्लिस है. इस कीड़े के असर से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में तने पर छेद दिखाई देते हैं. उस के बाद तने से गोंद जैसा लिसलिसा पदार्थ निकलना शुरू हो जाता है. इस कीट के असर से पौधों पर फूल नहीं आते या फूलों की संख्या काफी कम रहती है. घार का आकार काफी छोटा रह जाता है और फल ठीक तरह से नहीं पनप पाते हैं.

रोकथाम

* रोग प्रभावित पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें.

* प्रकंदछेदक कीट की रोकथाम के उपाय करें.

माहू : इस कीट का वैज्ञानिक नाम पेंटालोनिया नाइग्रोनर्वोसा है. यह पौधों से रस चूस कर इस की बढ़ोतरी को प्रभावित करता है और शीर्ष गुच्छ रोग पैदा करने वाले विषाणुओं का फैलाव करता है.

रोकथाम

* प्रभावित पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें.

* प्रभावित इलाके में पेड़ी फसल न लें.

* डायमिथोएट 2 मिलीलीटर की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करें.

सिगाटोका पत्ती धब्बा : यह रोग सरकोस्पोरा म्यूजीकोला नामक फफूंद से पनपता है. इस रोग की शुरुआत में पत्ते की बाहरी सतह पर पीले धब्बे बनने शुरू हो कर बाद में लंबी काली धारियों के रूप में बदल जाते हैं और बड़ेबड़े धब्बों का रूप ले लेते हैं. इस तरह के धब्बे पत्तियों के किनारे और अगले हिस्से में ज्यादा पाए जाते हैं.

खास किस्मों में 2-3 पत्तियों को छोड़ कर बाकी पत्तियां इस रोग से सूख जाती हैं. साथ ही, फलों का आकार भी छोटा रहता है और समय से पहले ही फल पक जाते हैं. वातावरण में नमी ज्यादा होने और औसत तापमान के कम होने से रोग का असर ज्यादा होता है.

पर्ण धब्बा : यह रोग ग्लोइयोस्पोरियम म्यूजी और टोट्रायकम ग्लोइयोस्पोरियोडियम नामक विषाणुओं से होता है. इस रोग में पत्तियों के सिरे पर हलके भूरे या काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जिस से बाद में पत्तियां सूख जाती हैं और पैदावार पर उलटा असर पड़ता है.

रोकथाम

कार्बेंडाजिम 1 ग्राम या कवच 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

उकठा रोग : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम किस्म की यूबेंस नामक फफूंद से होता है. इस के लक्षण पौध लगाने के 5 से 8 महीने में दिखाई देते हैं.

पुरानी पत्तियों में पीलापन किनारे से शुरू हो कर मध्य की तरफ बढ़ता है और पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है.

पत्तियां तने के चारों ओर गोलाई में लटक जाती हैं. तने का निचला भाग लंबाई में फट जाता है. 1 से 2 महीने के भीतर पौधा मर जाता है.

रोकथाम

* कंदों को कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में डुबो कर रोपाई करें.

* रोपाई के 5 महीने बाद खेत में कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर 2 महीने में 1 बार टोआ दें.

टिप ओवर : यह रोग इर्विनया केरोटोवोरा नामक जीवाणु से होता है.

इस रोग में राइजोम में सड़न पैदा होने लगती है. इस से प्रभावित पौधा मुलायम हो जाता है और पत्तियां भी पीली पड़ने लग जाती हैं.

रोकथाम

* स्ट्रप्टोसाइक्लिन 750 पीपीएम कापरआक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

banana crop

सिगार गलन : यह रोग वर्टिसीलियम थियोब्रामी नामक फफूंद से होता है. यह बरसात में ज्यादा होता है. अधपके फलों के सिरे से सड़न शुरू हो कर धीरेधीरे आगे तक फैल जाती है.

रोकथाम

इस रोग की रोकथाम के लिए फल आने के दौरान थायोफेनेटमिथाइल या बिटरटेनाल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

शीर्ष विषाणु रोग : यह रोग विषाणु द्वारा होता है. इस रोग में पत्तियों के बीचोंबीच गहरी धारियां शुरुआती लक्षण के रूप में दिखाई देती हैं. इस से पत्तियों का आकार काफी छोटा हो जाता है. इस रोग से प्रभावित पौधों की बढ़ोतरी कम होती है और इन में फूल नहीं आते हैं. इस विषाणु का फैलाव माहू द्वारा होता है.

रोकथाम

* रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें.

* रोगवाहक कीट माहू की रोकथाम करें.

* माहू की रोकथाम के लिए डायमिथोएट 2 मिलीलिटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

केले का धारी विषाणु : यह रोग विषाणु से होता है. इस रोग में पत्तियों पर छोटेछोटे पीले धब्बे बनते हैं और पत्तियां सड़ने लगती हैं. इस रोग से केले की पैदावार में 30-40 फीसदी तक की कमी हो सकती है. यह रोग मिली बग से फैलता है.

रोकथाम

* रोगी सकर की रोपाई न करें.

* मिली बग कीट की रोकथाम करें.

banana crop

नेमाटोड : नेमाटोड से केले की पैदावार में करीब 20 फीसदी की कमी आती है. केला बुरोइंग नेमाटोड रेडोफोलस सिमिलिस, लीजन नेमाटोड, प्रैटिलेंकस काफफिर्ड, स्पाइरल नेमाटोड, हेलाकोटीलेप्चस मल्टीसिनकट्स और सिस्ट नेमाटोड, हेटेरोठोरा स्पी से प्रभावित होता है.

नेमाटोड के हमले से पौधों की बढ़वार धीमी पड़ जाती है, तना पतला रह जाता है, पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं और घार का आकार काफी छोटा रह जाता है. इन के लक्षण जड़ों और कंदों पर ज्यादा दिखाई देते हैं. इन से प्रभावित पौधे खेत में नमी होने पर हलकी तेज हवा से भी गिर जाते हैं.

रोकथाम

* प्रभावित इलाकों से रोपाई की सामग्री न लें.

* गन्ना या धान फसलचक्र अपनाएं.

* सनई, धनिया और गेंदा को अंत:फसल के रूप में उगाएं.

* नीम केक 400 ग्राम प्रति पौधा रोपाई के समय और उस के 4 महीने बाद ही इस्तेमाल करना चाहिए.

* रोपाई के समय और उस के बाद 3 महीने के अंतर पर कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे की दर से इस्तेमाल करें.

तोड़ाई : फलों की तोड़ाई किस्म, बाजार और यातायात के साधन आदि पर निर्भर करती है. केले की बौनी किस्में 12 से 15 महीने बाद और ऊंची किस्में 15 से 18 महीने बाद तोड़ने लायक हो जाती हैं.

फलों की धारियों के पूरी तरह गोल होने पर गुच्छों की तोड़ाई तेज धारदार हंसिए से करनी चाहिए. बाजारों में भेजने के लिए जब केले एकतिहाई पक जाएं, तो उन्हें काट लेना चाहिए.

पकाना : केला एक क्लाईमैक्टेरिक फल है, जिसे पौधे से तोड़ने के बाद पकाया जाता है. केले को पकाने के लिए इथिलिन गैस का इस्तेमाल किया जाता है. इथिलिन गैस फल पकाने का एक हार्मोन है, जो फलों के भीतर सांस लेने की क्रिया को बढ़ा कर उन्हें पकाने में तेजी लाता है.

केले को बंद कमरे में इकट्ठा कर 15 से 18 डिगरी तापक्रम पर इथिलिन (1000 पीपीएम) से 24 घंटे तक उपचार कर के पकाया जाता है.

पैकिंग : केले को आकार के अनुसार श्रेणी में बांट कर अलगअलग गत्ते के 5 फीसदी छेदों वाले छोटेछोटे (12-13 किलोग्राम) डब्बों में भर कर बाजार में भेजना चाहिए.

आलू (Potato) की खुदाई और रखरखाव

आलू की खुदाई उस समय करनी चाहिए जब आलू के कंदों के छिलके सख्त हो जाएं. हाथ से खुदाई करने में ज्यादा मजदूरों के साथ समय भी ज्यादा लगता है. उस की जगह बैल या ट्रैक्टर से चलने वाले डिगर से  खुदाई करें तो आलू का छिलका भी कम छिलता है, जबकि हाथ या हल से आलू कट जाते हैं. आलू के कट या छिल जाने पर भंडारण के समय उस में बीमारी ज्यादा लगती है.

खुदाई के समय खेत में ज्यादा नमी या सूखा नहीं होना चाहिए. इस के लिए खुदाई के 15 दिन पहले ही फसल में सिंचाई रोक देनी चाहिए.

आलू की खुदाई से पहले यह जरूर देख लेना चाहिए कि कहीं आलू का छिलका अभी कच्चा तो नहीं है. कुछ आलुओं को खोद कर अंगूठे से रगड़ें, अगर छिलका उतर जाए तो खुदाई कुछ दिन तक नहीं करनी चाहिए.

खुदाई के बाद कटेसड़े आलू छांट कर निकाल दें. ऐसा न करने पर कटेसड़े आलू अच्छे आलुओं को भी सड़ा देते हैं.

खुदाई के बाद कटे, छिले, फटे और बीमार आलुओं को निकाल कर बचे हुए स्वस्थ आलुओं को 1 से डेढ़ मीटर ऊंचा और 4-5 मीटर चौड़ा ढेर बना कर छाया में सुखाया जाता है. आलुओं को सुखाने से फालतू नमी सूख जाती है, जिस से आलुओं की क्वालिटी में सुधार होता है और वे सड़ने से बचते हैं.

सूरज की सीधी रोशनी पड़ने से आलू हरापन या गहरा बैंगनी रंग ले लेता है, इस तरह का आलू खाने के लिए अच्छा नहीं होता है, परंतु बीज के लिए यह ठीक होता है.

आलुओं को हवादार जगह में ढक कर रखना चाहिए. आलू की क्योरिंग में 10-15 दिन लगते हैं, जो वातावरण और आलुओं की किस्म पर निर्भर करता है. सही क्योरिंग हो जाने से आलू के घाव ठीक हो जाते हैं और छिलका सख्त हो जाता है.

आलू की ग्रेडिंग : आलू की खुदाई के बाद आलू की सही तरह से क्योरिंग करनी चाहिए ताकि आलू के छिलके पक जाएं और ढुलाई में उतरे नहीं.

अच्छी तरह क्योरिंग के बाद सड़ेगले व कटेफटे आलुओं को ढेर से बाहर निकाल कर साफ आलुओं की आकार के आधार पर ग्रेडिंग करनी चाहिए. गे्रडिंग किए हुए बीज, खाने व प्रोसेसिंग के आलुओं का भाव बाजार में अच्छा मिलता है.

ग्रेडिंग हाथ से, झन्ने से या ग्रेडर मशीन से की जाती है. आलू की ग्रेडिंग 3 हिस्सों में जैसे 80 ग्राम से बड़े (बड़ा), 40-80 ग्राम (मध्यम) और 25-40 ग्राम तक (छोटे) ढेर में की जाती है.

आलू (Potato)

मशीन से आलू की ग्रेडिंग : आलू ग्रेडिंग मशीन से बीज के लिए अलग, बाजार के लिए अलग, स्टोरेज के लिए अलग आलू की छंटाई कर सकते हैं.

हवा लगने के बाद जब आलू पर लगी मिट्टी सूख जाए तो उन की छंटाई करनी चाहिए. बड़े, मध्यम व छोटे आलुओं को बाजार भेज दिया जाता है. बीज के लिए मध्यम आकार के आलू ठीक रहते हैं. उन्हें अगले साल के बीज के लिए स्टोरेज किया जा सकता है.

‘2 हार्स पावर की मोटर से चलने वाली आलू ग्रेडिंग मशीन को ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर भी चलाया जा सकता है. आलू छंटाई मशीन की काम करने की कूवत 40 से 50 क्विंटल प्रति घंटा है. यह मशीन आलू की 4 साइजों में छंटाई करती है. पहले भाग में 20 से 35 मिलीमीटर, दूसरे भाग में 35 से 45 मिलीमीटर, तीसरे भाग में 45 से 55 मिलीमीटर और चौथे व आखिरी भाग में सब से बड़े आकार के आलू छंटते हैं.

‘इस मशीन की सब से खास बात यह है कि ग्रेडिंग करते समय आलू को किसी तरह का नुकसान नहीं होता. जैसा आलू डालोगे वैसा ही निकलेगा. आलू छंटाई के समय ही सीधे बोरे में भरा जाता है. बोरों को मशीन से लगा दिया जाता है, जिस की सुविधा मशीन में की गई है. इस मशीन के विषय में या हमारी किसी भी अन्य मशीन के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए आप मोबाइल नंबर 9813048612 पर फोन कर सकते हैं.’

आलू (Potato)

पैकिंग व रखरखाव : आलुओं को उन के आकार के अनुसार अलगअलग बोरियों में भरकर रखें. बोरों में रखते समय इस बात का ध्यान रखें कि 50 किलोग्राम आलू ही एक बोरी में भरा जाए. इस से बोरियों के रखरखाव में मजदूरों को आसानी होती है. ध्यान रखें कि उपचारित आलू का इस्तेमाल खाने के लिए न किया जाए.

बाजार की मांग के अनुसार छोटे या बड़े पैकेट में पैकिंग कर उन पर अपने ब्रांड और आलू की प्रजाति का नाम भी लिखना चाहिए. ढुलाई के समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि आलू को ऊंचे से न पटका जाए, क्योंकि पटकने से आलू ऊपर से न भी टूटे तो अंदर से फट जाते हैं.

आलू को पूरे साल उपलब्ध कराने के लिए इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना पड़ता है जो काफी खर्चीला है. कोल्ड स्टोरेज से निकला आलू महंगा होता है और इस के कारण आलू का भाव बाजार में समय के साथसाथ नई फसल की खुदाई तक बढ़ता जाता है.

मुख्य फसल को ढेर में भंडारण की घर पर सुविधा हो, तो उस का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि फसल को लंबे समय तक बेचा जा सके. मुख्य फसल की कुछ मात्रा कोल्डस्टोर में रखनी चाहिए और कुछ मात्रा ढेर के रूप में छायादार जगह पर स्टोर करनी चाहिए.

बाजार की मांग को देखते हुए थोड़ाथोड़ा कर के आलू को बाजार में बेचना चाहिए. कोल्ड स्टोर में रखे हुए आलू को बाजार भाव के अच्छे होने पर बेचना चाहिए.