Dhaincha : ढैंचा डीएच-1 आंध्रप्रदेश में बढ़ाएगा उर्वरा शक्ति 

Dhaincha : चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित किए गए उन्नत किस्मों के बीज आज देशभर में अपना परचम लहरा रहे हैं. विश्वविद्यालय के उन्नत बीजों का देश में प्रचारप्रसार करने के लिए विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी कंपनी के साथ समझौते किए जा रहे हैं. इसी कड़ी में विश्वविद्यालय ने पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत तकनीकी व्यवसायीकरण को बढ़ावा देने के लिए ढैंचा की डीएच-1 किस्म का मुरलीधर सीड्स कौर्पौरेशन कुरनूल, आंध्र प्रदेश के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं.

ढैंचा की खेती किसानों के लिए फायदेमंद 
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने बताया कि ढैंचा हरी खाद के लिए उगाया जाता है. यह एक दलहनी फसल है, जो मृदा की उर्वरता बढ़ाने में मदद करता है. ढैंचा की खेती ज्यादातर खरीफ के मौसम में की जाती है और इसे हरी खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जिस से मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती है और उर्वरता में सुधार होता है. ढैंचा (Dhaincha) मिट्टी की संरचना के सुधार में विशेष भूमिका निभाता है.

विश्वविद्यालय द्वारा किए जा रहे शोध कार्यों, उन्नत किस्मों के बीजों और नई तकनीकों को किसानों तक पहुंचाने के लिए निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ समझौते किए जा रहे हैं. इस से किसानों और ग्रामीण युवाओं को अतिरिक्त रोजगार के अवसर भी मिल रहे हैं. यह एमओयू किसानों के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोलेगा और खेती को लाभकारी बनाने में सहायक  होगा.

ढैंचा (Dhaincha) नाइट्रोजन की आपूर्ति बढ़ाने में सहायक
कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने बताया कि वैज्ञानिकों द्वारा किसानों को कृषि उपकरणों, जैविक खेती, सिंचाई तकनीक और फसल प्रबंधन के लिए नई जानकारी दी जा रही है. विश्वविद्यालय किसानों की पैदावार में बढ़ोतरी करने के साथसाथ उन की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए भी हमेशा काम करता रहा है.

उन्होंने बताया कि ढैंचा (Dhaincha) की जड़ों में राइजोबियम जीवाणु होते हैं, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन को मिट्टी में स्थिर रखते हैं जिस से मिट्टी में नाइट्रोजन की आपूर्ति होती है. ढैंचा जैविक पदार्थों में और मिट्टी की जल धारण क्षमता में बढ़ोतरी, सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की आपूर्ति और खरपतवार नियंत्रण में भी सहायक है. उन्होंने बताया कि ढैंचा भूमि की प्राकृतिक उर्वरता को बढ़ा कर रासायनिक खादों की जरूरत को भी कम देता है.

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज की उपस्थिति में विश्वविद्यालय की ओर से समझौता ज्ञापन पर विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. एसके पाहुजा ने जबकि मुरलीधर सीड्स  कौर्पौरेशन की तरफ से कंपनी के सीईओ मुरलीधर रेड्डी ने हस्ताक्षर किए. इस से पहले भी विश्वविद्यालय द्वारा इसी कंपनी के साथ बाजरे की एचएचबी-67 संशोधित 2 किस्म का उन्नत बीज किसानों तक पहुंचाने के लिए एक समझौता किया हुआ है.

इस अवसर पर कुलसचिव डा. पवन कुमार, मानव संसाधन प्रबंधन निदेशक डा. रमेश कुमार, बीज विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अध्यक्ष डा. वीरेंद्र मोर, आईपीआर सेल के प्रभारी डा. योगेश जिंदल, डा. राजेश आर्य व डा. जितेंद्र भाटिया उपस्थित रहे.

Dragon Fruit : ड्रैगन फ्रूट की खेती का कमाल , लाखों की कमाई

Dragon Fruit : उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले का 25 साल का एक लड़का अचानक सुर्खियों में आ गया क्योंकि उस के कार्यों और सफलता से प्रभावित हो कर सूबे की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने न केवल उस का उत्साह बढाया, बल्कि उसे राजभवन में भोज पर आमंत्रित भी किया.

बस्ती जिले के गौर ब्लौक कोठवा बलुआ के रहने वाले देवांश पांडेय बीते दो सालों से बड़े लेवल पर ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit) की खेती कर रहें हैं. करीब 5 बीघे यानी लगभग डेढ़ एकड़ खेत में रोपे गए पौधे उन में लगे हुए सफेद मनमोहक फूल और पौधे में लगे सुर्ख लाल फल बेहद मोहक लगते हैं. उन की ड्रैगन फ्रूट की सफल खेती को देख आसपास के जिलों के किसान भी खेती की तकनीकी और व्यवहारिक जानकारियां लेने उन के पास जाते हैं.

देवांश ने ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit) की खेती की शुरुआत को ले कर बताया कि उन के मम्मी और पापा दोनों लोग गवर्मेंट जौब में थे. इस लिए पिता जी चाहते थे कि मै भी पढ़ लिख गवर्मेंट जौब में आ जाऊं. मैंने पिता जी के इच्छानुसार कौमर्स विषय से ग्रेजुएशन किया. लेकिन कौमर्स की पढ़ाई के दौरान व्यवसाय पर बहुत ही बारीकी से जानकारी दी जाती है. इस लिए मेरे दिमाग में नौकरी की बजाय अपने गांव में पुरखों की जमीन पर ऐसी व्यावसायिक खेती करने का प्लान आया जिस में लागत, जोखिम और श्रम कम लगे और उस से इतना कमाया जा सके की एक अच्छी नौकरी से ज्यादा कमाई भी हो. साथ ही, फसल को एक बार रोपने के बाद सालों तक दुबारा रोपाई की जरूरत न पड़े फसल की केवल देखभाल और सिंचाई ही करना पड़े.

देवांश ने अपने पिता सुनील कुमार पांडेय को अपने मन की बात बताई तो पहले तो उन्होंने कहा कि नौकरी से बढ़ कर सुकून कहीं भी नहीं है. लेकिन देवांश के व्यावसायिक दिमाग के आगे उन्होंने यह सोच कर खेती करने के लिए हामी भर दी कि बिना अनुभव के एक बार खेती शुरू करने के बाद उन्हें घाटा ही होगा. इस के बाद हो सकता कि देवांश के सर से खेती करने का भूत उतर जाए.

पत्रपत्रिकाएं और यूट्यूब बना मददगार*

खेती के लिए पिता की अनुमति के अब देवांश को जरूरत थी तो ऐसे फसल के चुनाव की जो युवाओं में नौकरी के प्रति दीवानगी में कमी लाए. इस के बाद देवांश ने कई पत्रिकाएं पढ़ी और यूट्यूब पर ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit)  की खेती में सफल हुए किसानों की बातचीत सुनी, तो उन्हें जनपद के जलवायु और मार्केट को देखते हुए ड्रैगन फ्रूट की खेती करने का निर्णय लिया. क्योंकि इस में एक बार लागत लगाने के बाद फिर कई सालों तक मुनाफा ही मुनाफा मिलता है. क्योंकि दूसरी व्यावसयिक फसलों की तुलना में ड्रैगन फ्रूट्स की खेती करना बहुत ही आसान होता है.

इस का पौधा एक बार लगाने के बाद 20 साल तक फल देने का काम करता है. इस में पानी की भी आवश्यकता बहुत कम होती है और इस में कीट का प्रभाव भी नहीं होता. जिस से यह फसल सिर्फ एक बार खर्च कर ने के बाद 20 सालों तक अच्छा मुनाफा देती है और अन्य फसलों के मुकाबले ड्रैगन फ्रूट्स की खेती से 3 गुना मुनाफा होता है.

ऐसे हुई शुरुआत

जब देवांश ने ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit) की खेती शुरू की उस समय उन की उम्र महज 23 साल ही थी. लेकिन देवांश ने जब अपने पिता सुनील पांडेय को ड्रैगन फ्रूट के खेती के फायदे गिनाए तो वह बेटे के व्यापारिक दिमाग की दाद देने लगे और उन में भी उत्साह जगा की बेटे का खेती की तरफ रुझान बढ़ना वह भी व्यवसायिक फसलों में निश्चित ही फायदेमंद होगा.

उन्होंने देवांश से कहा कि जब ड्रैगन फ्रूट की खेती करना है तो बड़े एरिया में उन्नत किस्मों का चुनाव कर शुरुआता करे. इस के लिए उन्होंने हैदराबाद की चर्चित नर्सरियों का विजिट कर किस्म के चुनाव का निर्णय लिया. हैदराबाद में उन्हें जिस नर्सरी से ड्रैगन फ्रूट के पौधे खरीदने थे, वह चालीस एकड़ में फैली हुई थी जिन में विभिन्न किस्मों के लाखों पौधे तैयार थे.

देवांश के पिता सुनील कुमार पांडेय ने उन्हें बस्ती के तापमान और जलवायु की जानकारी दे कर किस्म का चुनाव करने की सलाह मांगी तो उस नर्सरी संचालक ने सब से सफल, बेहतर उत्पादन और लजीज स्वाद के लिए चर्चित किस्म सी-सियाम रेड लगाने की सलाह दी. देवांश के पिता ने डेढ़ एकड़ के लिए 2,440 पौधों का और्डर दिया और खेत की तैयारी और रोपाई के लिए बस्ती वापस आ गए.

ऐसे आई लागत में कमी

चूंकि ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit) की खेती की शुरुआत में ज्यादा पूंजी की जरुरत होती है और बाद के सालों में केवल फसल की देखभाल और सिंचाई का खर्च ही आता है और पौधों का और्डर दिया जा चुका था, तो रोपाई की तैयारी भी करनी थी. जब दोनों पितापुत्र ने खेती में काम आने वाले पिलर और उस में लगाए जाने वाले रिंग के लागत का आंकलन किया, तो उन्होंने यह फैसला लिया कि वह घर पर ही मजबूत पिलर बनाएंगे. जबकि रिंग की जगह बाइक के खराब टायरों का उपयोग करेंगे, क्योंकि यह टायर्स सालों तक खराब नहीं होते हैं.

आखिरकार खेती की तैयारी हुई और हैदराबाद से आए ड्रैगन फ्रूट के पौधों की रोपाई कर खेत की फैंसिंग भी की गई जिस में करीब कुल लागत 13 लाख रुपए आई. अब देवांश नियमित रूप से अपने ड्रैगन फ्रूट के फसल की निगरानी कर रहे थे. जैसेजैसे उन के पौधे बढ़ रहे थे वैसेवैसे देवांश का हौसला भी बढ़ता जा रहा था.

ऐसे होती है ड्रैगन फ्रूट्स की खेती

देवांश पांडेय ने बताया कि ड्रैगन फ्रूट्स का पौधा 4 से 5 फीट की दूरी पर लगाया जाता है. इस पौधे के समीप एक खंबा और सीमेंट या टायर की रिंग लगानी होती है. जिस के सहारे से यह पौधा ऊपर की तरफ बढ़ना शुरू करता है. इस पेड़ में कोई भी बीमारी नहीं आती और लगभग 16 से 18 महीने बाद यह फल देना शुरू कर देता है और हर साल इस का फल देने का एवरेज बढ़ता जाता है. उन्होंने बताया कि पौधों की नियमित अंतराल पर काटछांट भी जरूरी है. कटिंग का उपयोग नए पौधों को तैयार करने में किया जा सकता है.

पिता की मौत से नहीं मानी हार

देवांश बताते हैं कि मेरे पिता जी मेरे निर्णय पर बहुत खुश थे और वह यह बात गर्व से कहते थे कि उन का बेटा पढ़ाई के साथसाथ जिले में एकलौते युवा किसान के रूप में बड़े लेवल पर खेती कर रहा है. सब कुछ अच्छा चल रहा था. फसल की रोपाई के लगभग 6 महीने बीते होंगे की अचानक ही देवांश के पिता सुनील कुमार पांडेय की मृत्यु हो गई. अब देवांश के सामने मां और परिवार की देखभाल के साथ उन के सपने को भी सकार करना था, जो 6 महीने की फसल के रूप में उन के खेत में तेजी से बढ़ रहा था.

देवांश पांडेय ने पिता की मौत के बाद आई विपरीत परिस्थितियों से हार नहीं मानी और पिता के सपनों को हकीकत में बदलने के लिए जी जान से लगे रहे. देवांश का अब ज्यादातर समय ड्रैगन फ्रूट के खेतों में फसल की नियमित देखभाल करने में बीत रहा था. उन के ड्रैगन फ्रूट(Dragon Fruit)  की जैसेजैसे ग्रोथ हो रही थी उन्हें पिता को किया गया वादा साकार होता नजर आ रहा था.

फसल में रासायनिक की जगह जैविक उत्पादों का प्रयोग

देवांश ने बताया कि उन्होंने शुरू से ही अपने ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit) की फसल में किसी भी तरह के रासायनिक खाद, उर्वरक या पैस्टीसाइड का उपयोग नहीं किया है क्योंकि, ड्रैगन फ्रूट के गुणों को इसे कई तरह की बीमारियों की रोकथाम में सहायक माना जाता है. वह बताते हैं कि मैं नहीं चाहता था कि ड्रैगन फ्रूट के पोषक तत्वों के साथ लोग रासायनिक खाद और पैस्टीसाइड के नुकसानदायक अंश भी खाएं. इसीलिए वह ड्रैगन फ्रूट की फसल में भरपूर पोषण के लिए कंपोस्ट खाद, गोबर की सड़ी हुई खाद मुरगी खाद का ही उपयोग करते हैं.

उन्होंने बताया कि आमतौर पर फसल में कोई बीमारी नहीं आती है. हां कभीकभी फंगस का प्रभाव दिखाई देता है तो ट्राईकोडर्मा का ही उपयोग करते हैं. जिस से उन के फलों का साईज, वजन और स्वाद बाजार में मिलने वाले फलों से एकदम हट कर होता है.

पानी के प्रबंधन के लिए ड्रिप विधि का उपयोग

देवांश का कहना है कि हमारी फसल को जितने पानी की जरूरत हो उतना ही देना चाहिए. ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit) को ज्यादा पानी की जरुरत भी नहीं होती है. फिर भी पानी के उचित प्रबंधन के लिए बूंदबूंद सिंचाई यानी ड्रिप इरिगेशन का उपयोग करते हैं.

ड्रैगन फूड की दो फलत में ही निकली पूरी लागत

देवांश बताते हैं कि एक बार पौधे लगाने के बाद करीब 20 साल तक इन्हीं पौधों से उपज ली जा सकती है. फल जून माह में आते हैं जो लगभग 6 माह तक लगातार आते रहते हैं. यानी जिस पौधे में पका हुआ फल लगा होगा उस में आप को कच्चे फल, फूल और कलियां भी देखने को मिलेंगी. यह प्रक्रिया लगातार 6 महीने तक चलती है. इसलिए फसल से लगातार आय होती रहती है. उन्होंने बताया कि पहली बार उन के फसल में फल पौध रोपने के 18 माह बाद आया था. फिर दूसरी फसल इस बार ले रहे हैं जिस से उन की शुरूआती लागत लगभग 13 लाख रुपया निकल चुकी है. इस के बाद अब उन्हें करीब 18 सालों तक केवल मुनाफा ही मिलेगा.

मार्केटिंग की समस्या नहीं

देवांश बताते हैं कि वह जिले के पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जो ड्रैगन फ्रूट की खेती कर रहे हैं. इस लिए करीब 30 लाख की जनसंख्या वाले बस्ती जिले के मांग की अपेक्षा आपूर्ति कर पाना ही मुश्किल है. उन्होंने बताया कि लोग उन के खेतों में ही आ कर ताजे फल 250 से 300 रुपए प्रति किलोग्राम के दाम पर खरीद कर ले जाते हैं.

सफलता ने कराया राजभवन का सफर

देवांश ने जब ड्रैगन फ्रूट की खेती शुरू की थी तो उन की उम्र महज 23 साल थी और फसल रोपने के करीब 6 महीने के भीतर उन के पिता की मौत हो गई. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. और आज एक सफल युवा किसान के तौर पर प्रदेश भर में उन की पहचान है.

उन्होंने बताया कि हाल ही में उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल का कृषि विज्ञान केंद्र बस्ती का दौरा था. उन्होंने मुझ से मिलने की इच्छा जाहिर की. जब इस बात की जानकारी मुझे मिली तो मुझे लगा की मेरे पिता जी का सपना आज साकार हो गया. देवांश ने न केवल राज्यपाल से मुलाकात की बल्कि उन्हें ड्रैगन फ्रूट भी गिफ्ट किया. इस मौके पर राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने उन्हें सम्मानित भी किया और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उन्हें राजभवन लखनऊ में भोज पर आमंत्रित भी किया.

देवांश ने बताया कि खेती की बदौलत मुझे वह अवसर मिल गया जो शायद नौकरी में रहते हुए नहीं मिलता. क्योंकि अभी मैंने शुरुआत ही की थी. उम्र भी बेहद कम है. उन्होंने बताया कि वह राजभवन के भोज में शामिल भी हुए और उन्होंने अतिथियों के सामने खेती में मिल रहे अपने सफलता के अनुभवों को भी साझा किया और बताया की कैसे ड्रैगन फ्रूट लोगों के स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता है, जिस कारण इस की मांग लगातार बढ़ती जा रही है.

युवाओं के खेती से पलायन को ले कर चिंतित

देवांश पांडेय का कहना है कि किसानों के पास अब जमीन कम होती जा रही है. ऐसे में उन्हें ऐसे उपाय अपनाने होंगे जिस से वे कम जमीन में खेती कर लाखों रुपए की आमदनी कर सकते हैं. लेकिन अफसोस इस बात का है कि कोई भी किसान अपनी वर्तमान पीढ़ी को खेती किसानी से जोड़ना ही नहीं चाहता है. ऐसे में गांवो से ज्यादातर युवाओं का पलायन शहरो में रोजगार के लिए हो रहा है और खेती की जिम्मेदारी केवल बड़े बुजुर्गों के कंधे पर ही रह गई है.

उनका कहना है की आने वाले दिनों में हमारे अपने ही खेत पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां खेती कराएंगी और हम अपने खेत में मजदूर के रूप में काम कर खरीद कर आनाज खायेंगे. उनका कहना है की खेती से अगर अधिक मुनाफा लेना है परंपरागत खेती में संभव नहीं है. इस लिए आज के युवाओं को व्यावसयिक और उन्नत फसलों का चुनाव करना होगा जो न केवल शहरो की तरफ युवाओं के पलायन को रोकने में मददगार होगा बल्कि शहरो से ज्यादा कमाई उन्हें गावों में हो जाया करेगी,

देवांश पांडेय ने बताया कि वह ड्रैगन फ्रूट की खेती में लाभ और मांग को देखते हुए आने वाले दिनों में और रकबा बढ़ाने वाले है. जिस से उन के खेतों में स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा और मैं घर पर रहते हुए किसी नौकरीपेशा से ज्यादा कमाई कर पाऊंगा. अगर आप अधिक जानकारी चाहते हैं, तो देवांश के मोबाईल नंबर- 9506019394 पर संपर्क किया जा सकता है.

Lump Disease : पशुपालकों पर भारी, पशुओं में लंपी बीमारी

Lump Disease  : पाकिस्तान से राजस्थान के रास्ते आई लंपी स्किन बीमारी की वजह से पशुपालकों को काफी परेशान होना पड़ता है. क्योंकि वायरस से फैलने वाली इस बिमारी का कोई सटीक इलाज अभी भी नहीं खोजा जा सका है. इस वजह से कभीकभी पशुओं की मौत हो जाती है. देश में लंपी बिमारी के चलते अब तक हजारों की तादाद में पशुओं की मौत हो चुकी है. राजस्थान और गुजरात सहित देश के 10 राज्यों में पशुओं में ये बीमारी पाई गई है. इस बीमारी का असर विशेषकर भैंसों की तुलना में गायों में ज्यादा पाया गया है.

लंपी (Lump Disease) एक ऐसी बिमारी है जिस का वायरस तेजी से संक्रमण फैलाता है. यदि समय पर इस की रोकथाम के उपाय नहीं किए जाएं तो इस से पशु की मौत भी हो सकती है. हालांकि, सरकार ने इस बीमारी के लिए एक देसी वैक्सीन भी लौंच कर दी है. इस के बाद भी पशुपालकों को कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना चाहिए ताकि, इस बीमारी के संक्रमण को बढने से रोका जा सके.

लंपी बिमारी (Lump Disease) की पहचान

पशुओं में होने वाला लंपी त्वचा रोग कैप्रीपौक्स वायरस के कारण होता है, जो गायों और भैंसों को संक्रमित करता है. यह बीमारी मुख्य रूप से मक्खी, टिक्स और मच्छर के कारण फैलती है. यह बीमारी नमी वाले तापमान में ज्यादा तेजी से फैलती है. इस बीमारी से प्रभावित पशु के शरीर पर गांठे उभर आती है और इस में से पानी रिसने लगता है. इस से बैक्टीरिया को प्रवेश करने का मौका मिल जाता है. ये फफोले घाव का रूप ले लेते हैं, जिन पर मक्खियां बैठती हैं  और संक्रमण का प्रसार करती हैं. भारत में इस बीमारी के लक्षण प्रमुख रूप से गाय जैसे दुधारू पशुओं पर देखे जा रहे हैं. इस बीमारी से कई हजार गायों की मौत हो चुकी है. अभी फिलहाल इस बीमारी का प्रकोप सिर्फ गायों में देखा जा रहा है. भैंसों में अभी तक इस बीमारी के लक्षण नहीं पाए गए हैं.

गायों में होने वाली लंपी बीमारी (Lump Disease) को उस के लक्षणों को देख कर आसानी से पहचाना जा सकता है. इस बीमारी की चपेट में आने वाले पशुओं को शुरू में बुखार आता है. इस से पशु सुस्त रहने लगते हैं. इस रोग से पीड़ित पशु की आंखों और नाक से स्त्राव होता है. पशु के मुंह से लार टपकती रहती है. लंपी बीमारी से ग्रसित पशु के शरीर पर गांठ जैसे छाले हो जाते हैं जो फफोले का रूप ले लेते हैं. इस बीमारी से ग्रस्त पशुओं की अगर सही से देखभाल और बचाव न किया जाए तो पशुओं की मौत भी हो जाती है. क्योंकि रोग से ग्रसित की भूख कम हो जाती है और पशु चारा कम खाना शुरू कर देता है. इस की वजह से पशु की दूध देने की क्षमता कम हो जाती है.

लंपी स्किन रोग का इलाज

अभी तक लंपी बीमारी (Lump Disease) का कोई कारगर इलाज  नहीं खोजा जा सका है. इस के लिए हाल ही में एक वैक्सीन विकसित की गई है लेकिन उसे अभी पशुपालकों तक पहुंचाने में समय लगेगा. ऐसी दशा में अगर किसी पशु में लंपी स्किन रोग हो जाता है तो इस का इलाज  पारंपरिक आयुर्वेदिक और होमियोपैथी के जरीए किया जा सकता है. इस तरह के उपचार से संक्रमित पशुओं के ठीक होने में काफी अच्छे परिणाम देखे गए हैं.

नीम की पत्तियों को पानी में उबाल कर नीम में उबले पानी को गाय की त्वचा में लगाना. साथ ही उबाली गई पत्तियों को पीस कर त्वचा में लेप लगाना. कई मामलों में यह देखा गया है कि एलोवेरा भी लंपी वायरस के खात्मे में बढ़िया काम करता है. इसलिए पशुपालक ऐलोवेरा का लेप भी पशुओं की त्वचा में लगा सकतें हैं, जो काफी हद तक लंपी वायरस के बचाव में कारगर सिद्ध हुआ है.

लंपी से संक्रमित पशुओं के इलाज  के लिए लिए पशु आहार में आयुर्वेदिक खुराक भी जोड़ सकते हैं, जिसे बनाने के लिए 10 पान के पत्‍ते, 10 ग्राम काली मिर्च, 10 ग्राम नमक और गुड़ आदि सामानों की जरूरत होती है. इन सब को इकट्ठा करने के बाद सब से पहले 10 पान के पत्‍ते, 10 ग्राम काली मिर्च, 10 ग्राम नमक को पीस कर गाढ़ा पेस्ट बना लें और उस में गुड़ डाल कर मिश्रण बनाएं. पहले दिन में इस आयुर्वेदिक मिश्रण को हर 3 घंटे के बीच पशुओं को सीमित मात्रा में खिलाएं. दूसरे दिन से अगले 15 दिन तक 3 खुराक प्रति दिन के हिसाब से पशुओं को खिलाते रहें.

पशुओं के शरीर पर घाव और गांठों में कीड़े दिखने पर नारियल के तेल में कपूर मिला कर लगाना फायदेमंद रहता है. आप चाहें तो सीताफल की पत्तियों को पीस कर भी घाव पर लगा सकते हैं.

इस के अलावा होमियोपैथी की कुछ दवाएं काफी कारगर पाई गई हैं. पशुपालक किसी अच्छे होमियोपैथी चिकित्सक से मिल, दवाएं ले कर संक्रमित पशुओं को दें.

दूसरे पशुओं को कैसे बचाएं

लंपी स्किन रोग संक्रमण से फैलने वाला रोग है. इसलिए जो गायें इस रोग से संक्रमित हो जाए तो तुरंत ही दूसरे पशुओं में इस बिमारी के फैलाव का उपाय शुरू कर देना चाहिए. इस के लिए लंपी स्किन रोग से प्रभावित पशुओं को इस रोग से बचाने के लिए संक्रमित पशु को स्वस्थ पशु से तुरंत अलग कर देना चाहिए. जिस जगह पर संक्रमित पशुओं को रखा गया वहां और स्वस्थ्य पशुओं के बाड़े में बीमारी फैलाने वाले मक्खीमच्छर की रोकथाम के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए.

पशुओं के खाने और पीने का बरतन या पात्र साफ होना चाहिए. पशुपालक यह कोशिश करें कि  जो चारा पशुओं को खिलाया जा रहा है वह ताजा हो और संक्रमित पशु के खानेपीने की नाद स्वस्थ पशु के नाद से दूर या अलग रखें. लंपी बीमारी से संक्रमित पशुओं को एक जगह से दूसरी जगह न ले जाएं. इस से इस बीमारी के फैलने की संभावनाएं बढ़ जाती है.

लंपी वायरस से ग्रस्त पशुओं को जिस जगह पर रखा गया हो वहां पर साफसफाई, जीवाणु और विषाणुनाशक रसायन का प्रयोग करें. चूंकि लंपी बीमारी का प्रभाव अभी तक सिर्फ गायों में देखा गया है ऐसे में लंपी वायरस से बचाव हेतु वायरस का संक्रमण देखते ही नजदीकी पशु चिकित्सालय में या पशु चिकित्सक से संपर्क करें.

लंपी स्किन रोग से बचाव के लिए वैक्सीन तैयार

पशुओं को लंपी स्किन रोग से बचाव के लिए स्वदेशी वैक्सीन (लंपीप्रो वैकइंड) लौंच की गई है. यह वैक्सीन राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केंद्र, हिसार (हरियाणा) ने भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, इज्जतनगर (बरेली) के सहयोग से बनाई है. इस वैक्सीन को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के निर्देश के क्रम में बनाया गया है. जानकारों का कहना है कि यह वैक्सीन लंपी स्किन रोग पर 100 फीसदी कारगर है.

लंपी बिमारी से बचाव के लिए राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए तीन सालों के शोध से एक कारगर टीका विकसित किए जाने में सफलता मिली है. बायोटैक समूह की कंपनी द्वारा आईसीएआर के साथ मिल कर विकसित गांठदार त्वचा रोग के टीके को सीडीएससीओ का लाइसैंस भी मिल गया है.

बायोवेट का कहना है कि बायोलंपी वैक्सीन  लंपी स्किन रोग के लिए विश्व स्तर पर पहला मार्कर टीका है और इसे जल्द ही लौंच किया जाएगा. जो जल्द ही व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हो जाएगी. बायोवेट के मल्लूर संयंत्र में सालाना 50 करोड़ खुराक का उत्पादन किया जा सकता है.

सीडीएससीओ लाइसैंस पशु चिकित्सा स्वास्थ्य सेवा में भारत की आत्मनिर्भरता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जिस से आयातित टीकों पर निर्भरता खत्म हो जाती है. यह डीआईवीए मार्कर वैक्सीन रोग निगरानी और उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए पशु चिकित्सा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी बदलाव है और डेयरी उद्योग की स्थिरता में प्रमुख भूमिका निभाने के लिए तैयार है.

बायोवेट के एक अधिकारी का कहना है कि पिछले दो सालों में, भारत में लंपी स्किन रोग के चलते तकरीबन 2 लाख मवेशियों की मौत हो गई और कई अन्य ने अपनी दूध उत्पादन क्षमता खो दी. बायोलंपी वैक्सीन , जो फ्रीजड्राई रूप में उपलब्ध है, एक एकल टीकाकरण है जो 3 महीने से अधिक उम्र के मवेशियों और भैंसों को साल में 1 बार दिया जाता है.

Fake Fertilizers : नकली खाद, बीज की मार किसान हलकान

Fake Fertilizers : दिनरात मेहनत कर के खेतों में अनाज पैदा करने वाला किसान कभी सरकार की नीतियों से, कभी खादबीज की किल्लत से, तो कभी उपज का वाजिब दाम न मिलने से परेशान रहता है. बड़े पदों पर रहने वाले लोगों से ले कर आम आदमी तक यह नही सोचते कि उन के अच्छा खाने से ले कर पहनने तक में किसानों की भूमिका सब से प्रमुख होती है. अगर किसान खेतो में उत्पादित अनाज व अन्य वस्तुएं बाजार में न बेचे तो कुछ ही दिनों में बड़ेबड़े उद्योगपति और व्यवसायी से ले कर सभी की अनाज के बिना हालत देखते बनेगी, लेकिन इन सब के बावजूद लोग किसानों को ही बेवकूफ बना कर उन का शोषण करते हैं.

खेती के लिए किसानों की सब से बड़ी जरूरत अच्छे बीज और अच्छी क्वालिटी की खाद होती है. क्योंकि जितनी अच्छी वैरायटी का खाद व बीज होगा उत्पादन उतना ही अच्छा मिलेगा. लेकिन खाद और बीज के कालाबाजारी से जुडे व्यवसायी किसानों को लूटने में कोई कोरकसर नहीं छोडते हैं. कभी नकली बीज को अच्छी वैरायटी का साबित कर के ऊंचे दामों पर बेच देते हैं, तो कभी नकली खाद (Fake Fertilizers) व कीटनाशक. इस के बाद जब किसान इन का प्रयोग करता है तो अपेक्षा से कम उत्पादन मिलने पर वह निराश हो जाता है, जिस से उन की माली हालत दिन ब दिन खराब होती जाती है. इस वजह से कभीकभी किसान आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर मजबूर हो जाते हैं.

इन दिनों नकली खाद (Fake Fertilizers) , उर्वरक, कीटनाशक और बीजों को ले कर पूरे देश में चर्चा है क्योंकि पिछले कुछ महीनों में राजस्थान के कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा नें राज्य के कई जिलों में खुद ही छापेमारी कर ब्रांडेड कंपनियों के नाम से बनाए जा रहे नकली खाद और उर्वरक कारखानों का भंडाफोड़ किया. श्रीगंगानगर, राजस्थान में नकली खाद बनाने के गोरखधंधे पर कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा ने सख्त कार्रवाई की है. श्रीगंगानगर में उन्होंने खुद छापा मार कर नकली खाद फैक्ट्रियों का भंडाफोड़ किया था. इस दौरान एक फैक्ट्री वाले ने रेड से बचने के लिए अपने नाम को कट्टे से ढक दिया, लेकिन मंत्री के नेतृत्व में आई टीम ने उन की पोल खोल दी.

इस अभियान में उन्होंने 14 नकली खाद (Fake Fertilizers) कंपनियों को सीज किया, जबकि 10 कंपनियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई. इस मामले की जांच कर ने पर पता चला है कि ये नकली खाद कंपनियां देश के 16 राज्यों तक माल सप्लाई कर रही थीं. यह कोई छोटा धंधा नहीं, बल्कि एक बड़ा और संगठित रैकेट था. इस के बाद उन्होंने पुरे राजस्थान राज्य में कृषि विभाग नकली खादबीज की फैक्ट्रियों के धरपकड़ का अभियान चलाया.

जहां ज्यादातर छापों में वह खुद शामिल रहे और जांच के दौरान कई जिलों में चल रही नकली खाद उर्वरक (Fake Fertilizers) के कारखानों का भंडाफोड़ किया और उन के खिलाफ उन्होंने एफआईआर दर्ज कर दोषियों को जेल भिजवाया और यह साफ कह दिया कि जो भी दोषी होगा, चाहे वह अफसर हो या कारोबारी, किसी को बख्शा नहीं जाएगा. कार्रवाई लगातार जारी है और जल्द ही और बड़े खुलासे हो सकते हैं.

कैसे बनती थी नकली खाद

राजस्थान के कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा स्थानीय कृषि अधिकारी और किशनगढ़ थाने के प्रभारी भीखाराम काला को ले कर अचानक किशनगढ़ के समीप सिलोरा पंचायत समिति के छोटा उदयपुर कला गांव में नकली खाद (Fake Fertilizers) फैक्ट्री पर जा पहुंचे. वहां फैक्ट्री में मार्बल के बुरादे यानी स्लरी और मिट्टी को मशीनों से बारीक किया जा रहा था. इस के बाद मार्बल बुरादे को महीन मिट्टी में मिलाया जा रहा था. उसे उच्च ताप पर गरम किया जा रहा था. बाद में उस में अलगअलग रंग मिला कर अलगअलग खाद तैयार की जा रही थी.

Fake Fertilizers

मसलन काला रंग मिला कर डीएपी तैयार किया जाता था, सफेद रंग मिला कर एसएसपी, भूरे रंग से पोटाश तैयार किया जा रहा था. राजस्थान कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा ने बताया कि नकली खाद (Fake Fertilizers) बनाने की ऐसी तीन दर्जन से भी अधिक फैक्ट्रियां सालों से पूरे राजस्थान में संचालित है. पुलिस का ध्यान इस ओर नहीं गया है. इस पूरे प्रकरण की निष्पक्षता से जांच होगी.

लाइसैंस कहीं का और धंधा कहीं ओर

इस नकली खाद (Fake Fertilizers) के कारोबार के खुलासे में यह भी निकल कर आया की राजस्थान और आसपास के इलाकों में चल रही नकली 34 खाद कंपनियों में से ज्यादातर ने दिल्ली और तमिलनाडु से लाइसैंस ले रखा था ताकि, शक न हो और आसानी से नकली खाद तैयार की जा सके.

कई राज्यों तक फैला हुआ है गोरखधंधे का जाल

राजस्थान कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा नें बताया कि पकड़ी गई फैक्ट्रियों में अलगअलग ब्रांड के कट्टे पाए गए, जिन में नकली खाद (Fake Fertilizers) को भर कर ब्रांड नाम से बेचा जाता था. प्रदेश के जिस क्षेत्र में जिस ब्रांड की डिमांड अधिक होती, वहां उस ब्रांड का ठप्पा लगा कर नकली खाद यहां से भेजा जाता था. उन्होंने कहा कि यह जांच का विषय है कि नकली खाद किन क्षेत्रों में भेजा जा रहा था. बड़ेबड़े प्लांट सालों से यहां पर लगे हुए हैं. अब पूरे मामले की गहराई से जांच होगी.

उन्होंने आगे फैक्ट्री में काम कर रहे मजदूरों से भी बातचीत की. इन में ज्यादातर मजदूर बिहार और उत्तर प्रदेश के पाए गए. उन्होंने जायजा लेने के बाद जब अधिकारियों से पूछा कि डीएपी का क्या रेट है तो कृषि अधिकारियों ने बताया कि 1600 से 1800 रुपए में नकली डीएपी बाजार में बेचा जा रहा है.

उत्तर प्रदेश में भी खाद उर्वरक और बीजों को ले कर बड़ी कार्यवाही

उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही नें खाद की कालाबाजारी, तय मूल्य से ज्यादा बेचने सहित नकली खादबीज का धंधा करने वालों की धरपकड़ के लिए खुद ही सीतापुर जिले में छापा मारा. जहां उन्होंने कई फर्मों में कमियां पाए जाने पर तुरंत कार्यवाही की. कृषि मंत्री ने बताया कि जैन इंटरप्राइजेज, सीतापुर स्टौक में गड़बड़ी, गलत रजिस्टरिंग, रिटेलर्स को कम मात्रा में यूरिया उपलब्ध कराना और अन्य उत्पादों की टैगिंग पाई गई. दुकान को तुरंत सील कर कार्रवाई हुई. श्रीबालाजी एग्रो ट्रेडर्स में गड़बड़ी मिलने पर दुकान को सील किया गया.

इस के साथ ही, अन्य दुकानों में एएनवी एग्रो एंड कैमिकल्स, न्यू अय्यूब खाद भंडार, न्यू अंसारी खाद भंडार और तराई बीज भंडार शामिल हैं. इन दुकानों को निरीक्षण के दौरान मौके से भागने और अभिलेख न दिखाने पर सील किया गया. कृषि मंत्री ने बताया कि लखनऊ में कमियों पर सीधी कार्रवाई की गई है. लखनऊ की खाद स्टोरेज फर्म में किसानों को निर्धारित दर 266.50 रुपए प्रति बैग से अधिक दर पर यूरिया बेचने की पुष्टि हुई है. पाल खाद भंडार, कल्याणपुर बिक्री रजिस्टर में किसानों के बारे में दी गई जानकारी अधूरी मिली है. दुकान को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है. इस दौरान उन्होंने जिला कृषि अधिकारी मंजीत कुमार को रद्द कर दिया. इस संबंध में कृषि मंत्री ने खुद सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी साझा की.

Fake Fertilizers

इस मामले के बाद कृषि मंत्री ने कहा कि खादों की बिक्री केवल पीओएस मशीन के माध्यम से हो और बिक्री किसानों की फसल की जरूरतों के अनुसार ही की जाए. औद्योगिक इकाइयों द्वारा सब्सिडी वाले नीम कोटेड यूरिया का दुरुपयोग न हो, इस के लिए सघन निरीक्षण अभियान चलाया जाएगा. सभी जिलाधिकारियों, पुलिस अधीक्षकों और कृषि अधिकारियों को निर्देशित किया गया है कि उर्वरकों के वितरण और बिक्री की नियमित समीक्षा कर सख्त निगरानी रखें. उन्होंने कहा किसी भी तरह की गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कठोर कार्रवाई की जाएगी.

कृषि मंत्री के इस कार्यवाही के तुरंत बाद मंत्री के निर्देश से संयुक्त निदेशक उर्वरक डा. आशुतोष मिश्र सक्रिय दिखे. उन्होंने सभी जिलों के जिला कृषि अधिकारीयों को निर्देशित किया की खाद उर्वरक के सभी प्रतिष्ठानों की जांच की जाए. इस के बाद प्रदेश के सभी जिलों में अधिकारियों नें ताबड़तोड़ छापे मारे. इस दौरान जांच टीमों को कई तरह की गड़बड़ियां मिली.

संतकबीर नगर जिले में जांच के दौरान उर्वरक की 26 दुकानों की जांच की गई और 10 नमूने लिए गए. वहीं एक दुकान का लाइसैंस रद्द कर 4 दुकानदारों को नोटिस जारी किया गया. रामपुर जिले में गड़बड़ी मिलने पर खाद की 7 दुकानों के लाइसैंस रद्द किए गए. बहराइच जिले में खाद की 58 दुकानों पर छापे के दौरान एक का लाइसैंस रद्द किया गया. रायबरेली में 11 खाद दुकानदारों को नोटिस जारी कर चार के लाइसैंस रद्द किए गए. इस तरह से प्रदेश के कई जिलों में नकली खाद (Fake Fertilizers) और बीज के कार्यवाही की गई.

नकली खादबीज से किसान परेशान

देश की 70 फीसदी जनसंख्या खेती पर आधारित है और उन की गाढ़ी कमाई और मेहनत नकली खाद और बीज के चलते बेकार चली जाती है. अब किसान देशभर में विभाग के कर्मचारियों और अधिकारियों से मिल कर उन से असली और नकली के फर्क की जानकारी प्राप्त कर रहे हैं, कहीं ऐसा न हो असली खादबीज की जगह वह अपने खेतों में नकली खादबीज का प्रयोग कर डालें और बाद में उन्हें पछताना पड़े.

किसानों ने बताया कि नकली बीजों, खाद उर्वरक और कीटनाशकों के कारण पूरी फसल खराब हो जाती है. किसानों का कहना है कि नकली बीज से केवल हमें आर्थिक और मानसिक नुकसान झेलना पड़ता है, लेकिन नकली खाद उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग किए जाने पर यह मिट्टी और पर्यावरण पर सीधा बुरा प्रभाव डालते हैं, जिस से किसानों की सेहत पर भी बुरा असर पड़ता है.

देश में अधिकतर किसान छोटे और मझोले जोत के हैं. इसलिए वह खेती में काम आने वाली चीजों को इस भरोसे से उधार ले कर खरीदते हैं कि जब फसल तैयार होगी तो उसे बेच कर उधार चुकता कर देंगे. लेकिन जब नकली उत्पादों के चलते जब फसल नहीं होती, तो उन पर भारी कर्ज और मानसिक तनाव आ जाता है. किसानों ने यह भी बताया कि नकली रसायनों से मिट्टी की गुणवत्ता खराब हो रही है, जिस से अगली फसलों पर भी असर पड़ता है. यह संकट न सिर्फ आम किसानों को प्रभावित कर रहा है, बल्कि तकनीक की समझ रखने वाले उन्नत किसानों को भी नुकसान पहुंचा रहा है.

ऐसे करें असली व नकली में फर्क

उत्तर प्रदेश के संयुक्त निदेशक उर्वरक डा. आशुतोष मिश्र ने नकली खादबीज से बचने के लिए कहा कि किसान सरकारी गोदामों से खरीददारी कर सकते हैं, जो उन्हें प्राइवेट दुकानों की अपेक्षा सस्ते दर पर या सब्सिडी पर उपलब्ध कराया जा रहा है. इस के अलावा किसान जहां से भी खादबीज खरीदें उस की रसीद अवश्य प्राप्त करें. इस से खादबीज में किसी भी प्रकार की शिकायत होने पर खादबीज बेचने वाले दुकानदारों की शिकायत आसानी से की जा सकती है.

Fake Fertilizers

डा. आशुतोष मिश्र ने डीएपी के असलीनकली होने के सवाल पर बताया डीएपी के कुछ दानों को हाथ में ले कर तंबाकू की तरह उस में चूना मिला कर मलने पर यदि उस में से तेज गंध निकले जिसे सूंघना मुश्किल हो जाए तो समझें कि ये डीएपी असली है. डीएपी को पहचानने की एक और सरल विधि है, यदि हम डीएपी के कुछ दाने धीमी आंच पर तवे पर गरम करें और यदि ये दाने फूल जाते हैं, तो समझ लें यही असली डीएपी है. डीएपी की असली पहचान यह है कि इस के कठोर दाने भूरे काले और बादामी रंग के होते हैं और नाखून से आसानी से नहीं टूटते हैं.

यूरिया के मामले में उन्होंने बताया कि यूरिया की असली पहचान है इस के सफेद चमकदार और लगभग समान आकार के कड़े दाने. इस का पानी में पूरी तरह घुल जाना और इस के घोल को छूने पर ठंडा सा महसूस होना ही इस की असली पहचान है. यूरिया को तवे पर गरम करने से इस के दाने पिघल जाते हैं. यदि हम आंच तेज कर दें और इस का कोई अवशेष न बचे तो समझ लें यही असली यूरिया है.

डा. आशुतोष मिश्र ने आगे बताया कि सुपर फास्फेट की असली पहचान है इस के सख्त दाने और इस का भूरा काला बादामी रंग. इस के कुछ दानों को गरम करें यदि ये नहीं फूलते हैं, तो समझ लें यही असली सुपर फास्फेट है ध्यान रखें कि गरम करने पर डीएपी व अन्य कौम्प्लैक्स के दाने फूल जाते हैं, जबकि सुपर फास्फेट के नहीं इस प्रकार इस की मिलावट की पहचान आसानी से की जा सकती है.

उन्होंने आगे पोटाश के असली नकली होने के सवाल पर बताया कि पोटाश की असली पहचान है इस का सफेद कड़ाका इसे नमक और लाल मिर्च जैसा मिश्रण. पोटाश के कुछ दानों को नम करें यदि ये आपस में नही चिपकते हैं, तो समझ लें कि ये असली पोटाश है. पोटाश के पानी में घुलने पर इस का लाल भाग पानी में ऊपर तैरता रहता है.

नकली बीज के मसले पर उन का कहना है कि नकली बीज ऐसे बीज होते हैं, जो देखने में असली और प्रमाणित बीज जैसे ही लगते हैं, लेकिन वास्तव में उन की गुणवत्ता बहुत खराब होती है. इन में अंकुरण दर कम होती है, पौधों की बढ़वार कमजोर होती है और उत्पादन भी अपेक्षित मात्रा में नहीं मिलता. ये बीज भारतीय बीज अधिनियम 1966 के अनुसार, निर्धारित मानकों पर खरे नहीं उतरते. कुछ मामलों में नकली बीज पुराने या खराब भंडारण वाले भी होते हैं, जिन की अंकुरण क्षमता तकरीबन खत्म हो चुकी होती है. उन्होंने बताया की नकली बीज का सब से बड़ा असर किसानों की आय पर पड़ता है उपज कम हो जाती है. इस से किसानों को बाजार में अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता और उन की सालभर की कमाई पर बुरा असर पड़ता है.

यहां करें शिकायत

उन्होंने कहा कि किसानों को खाद उर्वरक या बीज के नकली होने का जरा भी शक हो तो कृषि महकमें के अधिकारीयों को सूचित करें. जिस से समय रहते आवश्यक कदम उठाया जा सके. उन्होंने बताया कि कृषि विभाग के अलावा जिला अधिकारी को भी सूचित किया जा सकता है.

Fake Fertilizers

खादबीज पर क्या बोले जिम्मेदार

देश के कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नकली खाद बीजों के कारोबार पर चिंता जातते हुए कहा कि किसान की सब से बड़ी पीड़ा है घटिया बीज और नकली कीटनाशकों से होने वाला नुकसान. जो कोई भी अमानक बीज या कीटनाशक बनाएगा या बेचेगा, उस पर सख्त कार्रवाई की जाएगी. इस दिशा में हम कड़ा कानून बनाएंगे, ऐसे लोगों को हम छोड़ेंगे नहीं.

उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने मीडिया से कहा कि किसानों को यूरिया, डीएपी और एनपीके उर्वरकों की बिक्री निर्धारित खुदरा मूल्य पर ही कराई जाएगी. किसी भी दशा में किसानों को ऊंची कीमत पर उर्वरक बेचने या अन्य उत्पादों की अनिवार्य टैगिंग करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

उन्होंने कहा कि किसानों को उर्वरकों की हर एक बिक्री पर रसीद उपलब्ध कराई जाएगी और अगर कोई थोक या फुटकर विक्रेता नियमों का उल्लंघन करता है तो उस के खिलाफ आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 और उर्वरक नियंत्रण आदेश, 1985 के तहत सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी.

राजस्थान के कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा ने कहा कि अमानक बीज, खाद व कीटनाशक बनाना और बेचना किसानों की आय को दोगुनी करने के उद्देश्य को असफल करने की गहरी साजिश का हिस्सा है. इस में शामिल हर चेहरे को बेनकाब करना जरूरी है ताकि, किसानों को गुणवत्तापूर्ण बीज, खाद व कीटनाशक मिल सके.

उन्होंने आगे कहा कि नकली खादबीज के कारोबार करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी. किसान का बेटा हूं. यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि अमानक खादबीज बेचकर किसानों को ठगा जाए. ऐसा करने वालों को स्पष्ट चेतावनी है कि इस काले कारोबार को तुरंत बंद कर दें या नतीजे भुगतने को तैयार रहें.

देश भर में नकली कृषि उत्पादों के तेजी से फैलते नेटवर्क को ले कर राष्ट्रीय किसान प्रोग्रेसिव एसोसिएशन (आरकेपीए) ने गहरी चिंता जताई है. एसोसिएशन का कहना है कि यह संकट अब सिर्फ किसानों की आय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह खाद्य सुरक्षा, पर्यावरणीय स्थिरता और देश की आंतरिक सुरक्षा तक को प्रभावित कर सकता है. इसे “अभूतपूर्व और खतरनाक रूप से व्यवस्थित” बताते हुए एसोसिएशन तुरंत और कठोर कार्रवाई की मांग की है.

आरकेपीए ने बताया कि नकली उर्वरक, कीटनाशक, बीज और कृषि उपकरणों का एक बड़ा और संगठित नेटवर्क देश में सक्रिय है. यह गिरोह नियामक कमजोरियों, ढीले कानूनों और सीजनल डिमांड का फायदा उठा कर किसानों को नकली उत्पाद बेच रहा है.

Livestock : पशुधन उत्पादकता बढ़ाने हेतु जागरूकता कार्यक्रम

Livestock : मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के अंतर्गत पशुपालन और डेयरी विभाग ने पिछले दिनों पशुधन (Livestock) उत्पादकता बढ़ाने हेतु वर्चुअल जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया. इस कार्यक्रम में देशभर के 2000 कौमन सर्विस सैंटर से 1 लाख से अधिक पशुपालक किसान जुड़े. इन में छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, केरल, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह, लक्षद्वीप, दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे राज्य और केंद्रशासित प्रदेश शामिल रहे.

इस बैठक की अध्यक्षता नई दिल्ली से केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी एवं पंचायती राज राज्य मंत्री प्रो. एसपी सिंह बघेल ने की. इस अवसर पर विभाग की अतिरिक्त सचिव वर्षा जोशी, राम शंकर सिन्हा और अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी उपस्थित रहे.

मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी राज्य मंत्री प्रो. बघेल ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में पशुपालक किसानों के अमूल्य योगदान की सराहना की. उन्होंने बताया कि पिछले 10 सालों में देश में दूध उत्पादन की सालाना वृद्धि दर 5.7 फीसदी रही है, जबकि दुनियाभर में यह केवल 2 फीसदी सालाना है.

इस उपलब्धि का श्रेय उन्होंने देश के पशुपालक किसानों को दिया. उन्होंने विभागीय पहलों जैसे टीकाकरण कार्यक्रम और सैक्स सौर्टेड सीमेन के उपयोग की भी प्रशंसा की, जिन से देश में पशुधन उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिली है. उन्होंने आगे किसानों से बातचीत की और पशु चिकित्सा सेवाओं की उपलब्धता के बारे में जानकारी ली, जिस में इलाज संबंधी मदद के लिए टोलफ्री नंबर 1962 का उपयोग शामिल है. उन्होंने पशुपालक किसानों से पशु बीमा को अपनाने की आवश्यकता पर जोर दिया और पशुओं का समयसमय पर टीकाकरण कराने का महत्त्व भी बताया.

इस कार्यक्रम का उद्देश्य किसानों में पशुपालन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं  जैसे नस्ल सुधार, जूनोटिक रोग नियंत्रण, जैव सुरक्षा और विभागीय योजनाओं के द्वारा उद्यमिता विकास पर जागरूकता फैलाना था. इस में कई विषयों पर जागरूकता वीडियो और विशेषज्ञ सत्र प्रस्तुत किए गए, जिस से पशुधन उत्पादकता बढ़ाने के उपायों पर विस्तार से चर्चा हुई. यह सत्र ज्ञान आदानप्रदान, नीति जागरूकता और उद्यमिता को प्रोत्साहन देने का मंच भी बना, जिस ने ग्रामीण विकास और आर्थिक वृद्धि में पशुपालकों की प्रमुख भूमिका को और मजबूती दी.

New Technologies : नई तकनीकों से किसान बढ़ाएं अपनी आमदनी

New Technologies : कृषि विज्ञान केंद्र, राजसमन्द में 32वीं वैज्ञानिक सलाहकार समिति की बैठक पिछले दिनों आयोजित हुई. इस बैठक की अध्यक्षता डा. अजीत कुमार कर्नाटक, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर ने की. इस बैठक की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने बताया कि किसान कृषि के साथ प्रसंस्करण की नवीन तकनीकों को अपना कर अपनी आमदनी बढ़ाएं और फल एवं सब्जी की उपयोगिता और उत्पादन के बारें में विस्तार से जानकारी दी.

डा. आरएल सोनी, निदेशक, प्रसार शिक्षा निदेशालय, उदयपुर ने बताया कि किसान तकनीकी ज्ञान को अपना कर उन्नत बागबानी और सब्जी उत्पादन द्वारा अधिकतम उपज प्राप्त कर आत्मनिर्भर बने.

डा. जेपी मिश्र निदेशक अटारी जोधपुर, जोनद्वितीय ने सभी विभागों के अधिकारियों से आह्वाहन किया कि दूरदराज में बैठे हुए किसानों को पूरापूरा तकनीकी लाभ मिले, उस के लिए  सभी विभाग मिल बैठ कर कार्य योजना तैयार करें और कृषि विज्ञान केंद्र को अवगत कराएं ताकि, उस के अनुसार किसानों के लिए प्रशिक्षण आयोजित कराएं जा सकें.

इस कार्यक्रम की शुरुआत में डा. पीसी रेगर, वरिष्ठ वैज्ञानिक और अध्यक्ष कृषि विज्ञान केंद्र, राजसमंद ने सभी का स्वागत किया और साल 2024-25 के सालाना प्रगति प्रतिवेदन और साल 2025-26 की कार्य योजना प्रस्तुत की.

इस बैठक में भूपेंद्र सिंह राठौड, संयुक्त निदेशक कृषि विस्तार राजसमंद ने अधिक उत्पादन देने वाली और कम अवधी वाली किस्मों के प्रदर्शन लगाने के बारें में बताया. संतोष दूरीया सहायक उपनिदेशक आत्मा परियोजना कृषि विभाग, राजसमंद ने जैविक खेती के बारे में बताया.

डा. जगदीश चौधरी, शस्य वैज्ञानिक ने समन्वित कृषि प्रणाली को बढ़ावा देने के बारे में और गणपत लौहार कृषि अधिकारी ने प्राकृतिक खेती के बारे में बताया. सेवा मंदिर प्रतिनिधि ने प्रशिक्षण कार्यक्रमों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के बारे में बताया. डा. जगदीश जीनगर उपनिदेशक पशुपालन विभाग ने एनएलएम योजना के अंर्तगत पशुपालन इकाई स्थापित करने के बारे में जानकारी दी. शिवागं नेहरा कृषि अधिकारी, उद्यान विभाग ने खाद्य प्रसंस्करण और  मुल्य संवर्धन के बारे में जानकारी दी.

इस बैठक मे गैरसरकारी संगठन के पदाधिकारीयों और प्रगतिशील किसानों और महिला किसानों  भाग लिया और वार्षिक कार्ययोजना पर चर्चा की. इस बैठक के बाद कुलपति महोदय और अन्य अतिथियों द्वारा कार्यालय परिसर में पौधारोपण किया गया. सभी विभागीय अधिकारीयों के साथ बैठक में 10 प्रगतिशील महिलाओं और किसानों ने भाग लिया.

Crop diversification : फसल विविधीकरण से अधिक उत्पादन

Crop diversification: महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के अनुसंधान निदेशालय द्वारा फसल विविधीकरण (Crop diversification) परियोजना के तहत आयोजित 2 दिवसीय अधिकारियों का प्रशिक्षण हुआ. इस कार्यक्रम में 30 सहायक कृषि अधिकारियों व कृषि पर्यवेक्षकों ने भाग लिया.

इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य कृषि अधिकारियों को क्षेत्र की कृषि व्यवस्था को बदलने के लिए नवीन रणनीतियों से सशक्त बनाना था ताकि, फसल विविधीकरण में प्रमुख चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा की जा सके, जो शुष्क दक्षिण राजस्थान में सतत कृषि और ग्रामीण रोजगार की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा रहा है.

इस परियोजना के प्रभारी डा. हरि सिंह ने कहा कि यह कार्यक्रम कृषि अधिकारियों और हितधारकों के लिए डिजाइन किया गया है, जो पारंपरिक एकफसली खेती से इंटरक्रौपिंग   प्रणालियों की ओर बदलाव पर आधारित है, जो मिट्टी की सेहत में सुधार, जलवायु परिवर्तनशीलता से जोखिम कम करने और किसानों की आय बढ़ाने में मदद कर सकता है.

राजस्थान के दक्षिणी जिलों जैसे उदयपुर, चित्तौड़गढ़ और बांसवाड़ा में जल की कमी और अनियमित मानसून जैसी समस्याओं का सामना करते हुए, फसल विविधीकरण दालों, तिलहन और बागबानी फसलों को मक्का और गेहूं जैसे मुख्य फसलों के साथ शामिल करना, उत्पादकता और रोजगार सृजन के लिए एक क्रांतिकारी बदलाव साबित हो रहा है.

अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने विविधीकृत फसलों के लिए खरपतवार प्रबंधन में उन्नत अभ्यास पर चर्चा की, जिस में उपज हानि को कम करने पर जोर दिया गया. डा. अरविंद वर्मा ने बताया कि फसल विविधीकरण में मोनोकल्चर के बजाए रोटेशन या इंटरक्रौपिंग सिस्टम में विभिन्न फसलों को उगाना शामिल है. यह खरपतवार जीवन चक्र को रोक कर और रासायनिक खरपतवारनाशियों पर निर्भरता कम कर के सतत खरपतवार प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

डा. पोखर रावल, प्रोफैसर के द्वारा विविधीकृत फसल प्रणालियों के तहत उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्नत कृषि अभ्यास पर जानकारी दी गई. उन्होंने फसलों में लगने वाले रोगों और उन के निदान पर गहन जानकारी दी. साथ ही, फसलों की देखभाल और उत्पादन बढ़ाने की आधुनिक विधियों की भी जानकारी दी.

इस कार्यक्रम में डा. बैरवा ने बागबानी और कृषि फसलों की लागत और लाभ का तुलनात्मक विश्लेषण कर के बताया. उन्होंने कहा कि बागबानी फसलों जैसे सब्जियां, फल और मसालों में निवेश थोड़ा अधिक होता है, लेकिन इन से मिलने वाला लाभ सामान्य फसलों की तुलना में बहुत अधिक होता है.

इस कार्यक्रम के दौरान विशेषज्ञों ने यही कहा कि फसल विविधीकरण से किसानों को न केवल अधिक लाभ होगा, बल्कि स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे और कृषि प्रणाली लंबे समय तक स्थायी बनी रहेगी.

पार्थेनियम : आईएआरआई ने मनाया जागरूकता सप्ताह

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर–आईएआरआई), नई दिल्ली ने 20 अगस्त, 2025 को पार्थेनियम जागरूकता सप्ताह मनाया. इस अवसर पर संस्थान ने कृषि, जैव विविधता, मानव एवं पशु स्वास्थ्य और पर्यावरण को पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस  से होने वाले नुकसान से बचाने की अपनी जिम्मेदारी दोहराई.

इस कार्यक्रम में संयुक्त निदेशक (अनुसंधान) डा. सी विश्वनाथन और संयुक्त निदेशक (विस्तार) डा. आरएन पडारिया उपस्थित रहे. डा. एसएस राठौर, अध्यक्ष, सस्य विज्ञान संभाग, ने इस अभियान के राष्ट्रीय महत्त्व के बारे में बताया, जो हर साल पूरे देश में पार्थेनियम के खिलाफ जागरूकता और कार्रवाई हेतु मनाया जाता है.

डा. टीके दास, प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रख्यात खरपतवार वैज्ञानिक, ने विस्तार से पार्थेनियम से होने वाले नुकसानों के बारे में बताया और इस के व्यावहारिक, एकीकृत नियंत्रण कर ने के उपाय भी बताए. उन्होंने कहा कि पार्थेनियम एक खतरनाक जैवआक्रांता है, जो यदि नियंत्रित न किया जाए तो भारतीय कृषि और पारिस्थितिक तंत्र को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है. उन्होंने नारा देते हुए कहा—“एक व्यक्ति, एक दिन, 5 पार्थेनियम पौधे उखाड़ें – मिल कर पार्थेनियम मुक्त भारत बनाएं.”

डा. सी विश्वनाथन ने कहा कि पार्थेनियम जैसे आक्रामक खरपतवार कृषि प्रगति के सालों के प्रयासों को बाधित कर देते हैं, जिस से उत्पादकता और जैव विविधता दोनों पर बेहद खराब प्रभाव पड़ता है. उन्होंने युवा शोधार्थियों और छात्रों से निवेदन किया कि वे इस समस्या से निपटने के लिए नवीन और पर्यावरण अनुकूल तकनीकें विकसित करें. डा. आरएन पडारिया ने किसानों और समुदाय की भागीदारी पर बल दिया. उन्होंने कहा कि पार्थेनियम प्रबंधन केवल जागरूकता से नहीं, बल्कि सामुदायिक स्तर पर उन्मूलन अभियानों के माध्यम से ही सफल होगा.

पार्थेनियमक्यों महत्वपूर्ण है पार्थेनियम जागरूकता सप्ताह

आईसीएआर के निर्देशन में हर साल अगस्त माह में मनाया जाने वाला यह अभियान किसानों, छात्रों, पंचायतों और समुदायों को पार्थेनियम के प्रसार के खिलाफ संगठित करता है. इस में पर्यावरण-अनुकूल उपायों पर जोर दिया जाता है, जैसे जाइगोग्राम्मा बिकोलोराटा बीटल द्वारा जैविक नियंत्रण, कंपोस्टिंग, प्रतिस्पर्धी फसलों की बोआई और सुरक्षित खरपतवारनाशी का प्रयोग.

पार्थेनियम के नुकसान

– मानव स्वास्थ्य : पराग और पार्थेनिन नामक जहरीले पदार्थ के कारण एलर्जी, दमा, एक्जिमा, त्वचा पर चकत्ते और सांस संबंधी रोग पैदा होते हैं.

– पशु स्वास्थ्य : चारे को प्रदूषित करता है, दूध की मात्रा घटाता है और पाचन तंत्र को प्रभावित करता है.

– फसल उत्पादकता : पोषक तत्त्वों और नमी की प्रतिस्पर्धा से फसलों की उपज 40 से 50 फीसदी तक घटा देता है.

– जैव विविधता : देशी वनस्पतियों को प्रतिस्थापित कर देता है, अन्य पौधों की वृद्धि को रोकता है और चरागाह भूमि की गुणवत्ता खराब करता है.

पार्थेनियमविशेषज्ञों ने पार्थेनियम प्रबंधन के लिए एकीकृत रणनीतियों की सिफारिश की है जैसे फूल आने से पहले यांत्रिक उखाड़ना, कंपोस्टिंग, प्रतिस्पर्धी फसलों की बोआई, जैविक नियंत्रण और जरूरत पड़ने पर खरपतवारनाशी का प्रयोग. उन्होंने जोर दिया कि व्यक्तिगत और सामुदायिक भागीदारी ही इस खरपतवार को स्थायी रूप से नियंत्रित कर सकती है.

आईएआरआई में इस जागरूकता सप्ताह का आयोजन न केवल हितधारकों को संवेदनशील बनाने में सफल रहा, बल्कि देश के हर एक किसानों को भी यह संदेश गया कि वैज्ञानिक, किसान, छात्र और नागरिक मिल कर सामूहिक प्रयासों से पार्थेनियम मुक्त भारत का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं.

Tulsi : तुलसी की वैज्ञानिक विधि से खेती कर कमाएं लाभ

Tulsi : तुलसी की भारत में बड़े पैमाने पर खेती होती है. उत्तर प्रदेश में बरेली, बदायूं, मुरादाबाद और सीतापुर जिलों में इस की खेती की जाती है. इस का प्रयोग परफ्यूम व कौस्मेटिक इंडस्ट्रीज में अधिक होता है. इस में मुख्य घटक मिथाइल चेविकोल होता है जिसे बाद में एनेथोल में बदल दिया जाता है. सौंफ व सोया के तेल से एनेथोल निकालने पर एनेथोल की कीमत ज्यादा हो जाती है. तुलसी (Tulsi) एक अल्पअवधि की फसल है, जो आमतौर पर 3-4 महीने में तैयार हो जाती है. इसे औषधीय फसल के रूप में उगाया जाता है और इस के कई उपयोग हैं. तुलसी की खेती भारत में बड़े स्तर पर की जाती है, खासकर औषधीय और सुगंधित तेल के लिए तुलसी (Tulsi) का उपयोग आयुर्वेदिक दवाओं, सौंदर्य प्रसाधनों और अनेक उत्पादों में किया जाता है.

मृदा जलवायु : इस की खेती कम उपजाऊ जमीन जिस में पानी की निकासी का अच्छा प्रबंध हो, में अच्छी होती है. बलुई दोमट मिट्टी इस के लिए सही रहती है. इस के लिए उष्णकटिबंधीय एवं उपोष्णकटिबंधीय दोनों तरह की जलवायु उपयुक्त होती है.

खेत  की तैयारी : जमीन की तैयारी ठीक तरह से कर लेनी चाहिए. खेत जून के दूसरे सप्ताह तक तैयार हो जाना चाहिए.

बोआई/रोपाई : इस की खेती बीज द्वारा होती है लेकिन खेत में बीज की बोआई सीधे नहीं करनी चाहिए. पहले इस की नर्सरी तैयार करनी चाहिए बाद में उस की रोपाई करनी चाहिए.

पौध तैयार करना : खेत की 15-20 सैंटीमीटर गहरी खुदाई कर के खरपतवार आदि निकाल कर तैयार कर लेना चाहिए.  फिर 15 टन प्रति हेक्टेयर  की दर से गोबर की सड़ी खाद अच्छी तरह मिला देनी चाहिए. 1 मीटर x 1 मीटर आकार की जमीन सतह से उभरी हुई क्यारियां बना कर 20 किलोग्राम फास्फोरस और इतना ही पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए. 750 ग्राम से ले कर 1 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर खेत के लिए काफी होता है. बीज की बोआई 1:10 के अनुपात में रेत या बालू मिला कर 8-10 सैंटीमीटर की दूरी पर पंक्तियों में करनी चाहिए. बीज की गहराई अधिक नहीं होनी चाहिए. जमाव के 15-20 दिन बाद 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से नाइट्रोजन डालना उपयोगी होता है. 5-6 सप्ताह में पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाती है.

रोपाई : सूखे मौसम में रोपाई हमेशा दोपहर के बाद करनी चाहिए. रोपाई के बाद खेत की सिंचाई तुरंत कर देनी चाहिए. बादल या हलकी बारिश वाले दिन इस की रोपाई के लिए बहुत सही होते हैं. इस की रोपाई लाइन से लाइन 60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे 30 सैंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए.

सिंचाई : अगर वर्षा के दिनों में वर्षा होती रही तो सितंबर तक इस के लिए सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है, उस के बाद सिंचाई की आवश्यकता हो सकती है.

Tulsi

खरपतवार नियंत्रण : इस की पहली निराईगुड़ाई रोपाई के एक महीने बाद करनी चाहिए. दूसरी निराईगुड़ाई पहली निराई के 3-4 सप्ताह बाद करनी चाहिए. बड़े क्षेत्र में गुड़ाई ट्रैक्टर से की जा सकती है.

उर्वरक : इस के लिए 15 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद जमीन में डालना चाहिए. इस के अलावा 75-80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-40 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश की जरूरत होती है. रोपाई से पहले एक तिहाई नाइट्रोजन और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत में डालकर जमीन में मिला देनी चाहिए. नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा 2 बार में खड़ी फसल में डालना चाहिए.

कटाई : जब पौधे में पूरी तरह से फूल आ जाएं और नीचे के पत्ते पीले पड़ने लगे तो इस की कटाई कर लेनी चाहिए. रोपाई के 10-12 सप्ताह के बाद यह कटाई के लिए तैयार हो जाती है.

आसवन : तुलसी (Tulsi) का तेल पौधे के भाप आसवन से प्राप्त होता है. इस का आसवन, जल और वाष्प आसवन दोनों विधि से किया जा सकता है. लेकिन वाष्प आसवन सब से ज्यादा उपयुक्त होता है. तुलसी को कटाई के बाद 4-5 घंटे खेत में छोड़ देना चाहिए. इस से आसवन में सुविधा होती है.

पैदावार : इस के फसल की औसत पैदावार 20-25 टन प्रति हेक्टेयर और तेल की पैदावार 80-100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक होता है.

धान फसल को कीट व रोगों से बचाकर, लें अधिक उपज

धान फसल : इस समय खरीफ फसलों पर बहुत ही ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. विशेष कर धान की फसल पर. धान की फसल में खैरा रोग लगने की संभावना इस समय ज्यादा रहती है. खैरा रोग जिंक की कमी के कारण होता है. इस रोग में पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, जिस पर बाद में कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं. इस के प्रबंधन के लिए 2 किलोग्राम जिंक सल्फेट, 8 किलोग्राम यूरिया को 400 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.

इसी तरह बदलते मौसम में जीवाणु झुलसा रोग की संभावना भी बढ़ने लगती है, इस रोग में पत्तियां नोक या किनारे से एकदम सूखने लगती है. सूखे हुए किनारे अनियमित और टेढ़ेमेढ़े हो जाते हैं. इस के नियंत्रण हेतु 6 ग्राम स्ट्रैप्टोमाइसिन सल्फेट 90 फीसदी और टेट्रासाइक्लिन हाइड्रोक्लोराइड 10 फीसदी को 200 ग्राम कौपर औक्सीक्लोराइड 50 फीसदी डब्ल्यूपी के साथ 200-300 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ की दर से मौसम साफ रहने पर छिड़काव करें. ध्यान रहे यह बीमारी लगने पर फसल में यूरिया का प्रयोग न करें. कभीकभी झोका यानी झुलसा बीमारी भी धान की फसल को क्षति पहुंचाती है, इस रोग में पत्तियों पर आंख के आकार की आकृति के धब्बे बनते हैं, जो मध्य में राख के रंग के और किनारे गहरे कत्थई रंग के होते हैं. पत्तियों के अतिरिक्त बालियों, डंठलों पुष्प शाखाओं और गाठों पर भी काले भूरे धब्बे बनते हैं.

इस के प्रबंधन के लिए कार्बेंडाजिम 50 फीसदी डब्ल्यूपी 200 ग्राम को 200-300 लिटर पानी (पौधे की अवस्थानुसार) में घोल कर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें. जहां पानी की कमी हो वहां दीमक कीट द्वारा नुकसान किया जा सकता है. यह एक सामाजिक कीट है जो कालोनी बना कर रहते हैं. एक कालोनी में 90 फीसदी  श्रमिक, 2-3 फीसदी सैनिक, एक रानी और एक राजा होते हैं. श्रमिक पीलापन लिए हुए सफेद रंग के पंखहीन होते हैं, जो उग रहे बीज, पौधों की जड़ों को खाकर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं.

धान फसल

इस के प्रबंधन के लिए एक एकड़ में क्लोरपाइरीफौस 20 ईसी 1 लिटर को सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करें. तना छेदक कीट की भी निगरानी करते रहना चाहिए, इस कीट की मादा पत्तियों पर समूह में अंडे देती हैं. अंडो से सूड़ियां निकल कर तनों में घुसकर मुख्य गोभ को नुकसान पहुंचाती है, जिस के कारण बढ़वार की स्थिति में मृतगोभ और बालियां आने पर सफेद बाली दिखाई पड़ती है.

इस के प्रबंधन के लिए 25 फैरोमोन ट्रैप प्रति एकड़ में 30-30 मीटर की दूरी पर लगाएं. प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें. रोपाई के 30 दिन बाद (ट्राइकोकार्ड ) ट्राईकोग्रामा जैपोनिकम 50 हजार प्रति एकड़ प्रति सप्ताह की दर से 2-6 सप्ताह तक धान की फसल में छोड़ें. यह एक प्रकार का छोटा कीट है ,जिस के अंडे प्रयोगशाला में तैयार किए जाते हैं, जिसे कार्ड पर चिपका दिया जाता है. इसे पौधों की पत्तियों पर जगहजगह स्टेपलर से लगा देते है, जिस से कीट निकल कर तना छेदक के अंडों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन सभी उपायों के अलावा धान की अधिक उपज लेने के लिए समयसमय पर खेत की निगरानी करते रहें और कीट व बीमारियों की पहचान कर उन का प्रबंधन करें.