पहले हम खुशहाल थे

‘जय जवान, जय किसान’ का नारा देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिया था. आजादी के बाद कई पंचवर्षीय योजनाओं में किसानों को काफी तवज्जुह दी गई. इन 7 दशकों में देश के अंदर काफी बदलाव आया, लेकिन इतना लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी किसानों के हालात नहीं बदले हैं.

यह बात और है कि पहले के मुकाबले खेती के कामों में भी तकनीक का सहारा ज्यादा से ज्यादा लिया जाने लगा है. यहां तक तो ठीक है, लेकिन जो सब से अहम मुद्दा है, वह उन की मेहनत के मुताबिक आमदनी है जो आज तक नहीं मिल पा रही.

पहले के समय में और अब खेतीकिसानी करने में क्या अहम फर्क आया है, इस बारे में हम ने उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से तकरीबन 200 किलोमीटर दूर गांव खैरई के बुजुर्ग किसान मुश्ताक हुसैन से बात की.

उन्होंने बताया कि आज के दौर में जिस तरह से खेती की जा रही है, पहले के दौर में ऐसा नहीं था. अब खेतों की जुताई चंद मिनटों में हो जाती है, जबकि पहले कई घंटे का समय लगता था.

पहले भी सरकार की तरफ से किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलती थी और अब भी नहीं मिलती है, लेकिन अब गाहेबगाहे अखबारों से यह जरूर सुनने को मिल जाता है कि इस बार की सरकार किसानों के लिए काफी अच्छे काम करेगी, लेकिन कुरसी मिलते ही हमें भुला दिया जाता है. न तो हमें अच्छे किस्म के बीज मिल पाते हैं और न ही खाद.

इस से अच्छा तो पहले का समय था, जब इन सब के लिए किसानों को किसी का मुंह नहीं देखना पड़ता था. जो भी काम करना होता था, हम सब मिल कर करते थे.

मुश्ताक हुसैन से जब यह पूछा गया कि पहले और अब में  क्या फर्क है, इस के जवाब में उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, बहुत फर्क है. तुम सोच भी नहीं सकते. पहले के जमाने में इतने संसाधन भले ही न रहे हों, लेकिन सभी गांव के किसानों में बड़ा लगाव होता था, अपनापन होता था. अब की तरह ट्रैक्टर नहीं थे, लेकिन सभी के घरों के बाहर अच्छी नस्ल के एक जोड़ी बैल जरूर बंधे होते थे. अब बहुत कम लोग एकदूसरे की मदद करते हैं, लेकिन पहले कई किसान मिल कर बारीबारी से सभी किसानों का खेत जुतवाते थे.

‘‘अब मशीनों का जमाना आ गया है, इसलिए हर काम जल्दी होने लगा है. पहले के वक्त में अप्रैल से मई तक गेहूं की फसल काटी जाती थी, बदले में हम उन्हें अनाज देते थे.

‘‘गांव के लोग इस में दलित, कुम्हार, नाई, लोहार, दर्जी वगैरह को अपनी फसल से कुछ हिस्सा हमेशा दिया करते थे, बदले में वे लोग सालभर हमारा काम करते थे.

‘‘इसे गांव की बोली में जेउरा कहा जाता है. इस के बाद आसपड़ोस के बच्चों को खलियान (खुशी से किलो 2 किलो अनाज देना) देते थे, लेकिन अब सबकुछ धीरेधीरे खत्म सा हो गया है.

क्या पहले ज्यादा लागत लगती थी? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि पहले हर चीज सस्ती थी. सभी किसान अपने खेत से पैदा होने वाले अनाज को अगले साल बीज के लिए रख लेते थे.

आप यकीन मानिए, उस में भी अच्छी पैदावार होती थी, लेकिन मौजूदा समय में तो हर सीजन के लिए हाईब्रिड बीज खरीदना जैसे मजबूरी हो गई है.

यह बीज महंगा तो होता ही है, लेकिन इस बात का डर भी लगा रहता है कि कहीं नकली तो नहीं है. कहीं हमारा पैसा न डूब जाए.

दूसरी बात यह है कि सभी किसान बैल, भैंस पालते थे, जिस से खेतों में देशी खाद का इस्तेमाल किया जाता था. देशी खाद से फायदा यह होता था कि खेत की मिट्टी खराब नहीं होती थी. अब तरहतरह की खादों ने एक तरफ किसानों की कमर तोड़ दी है, तो वहीं दूसरी तरफ खेतों को बंजर कर दिया है.

अपना दुख बयां करते हुए उन्होंने कहा कि अब किसानों के लिए मौसम भी बेईमान हो गया है. पहले समय पर बारिश होती थी. इस वजह से सिंचाई में परेशानी नहीं होती थी. अगर कभी वक्त पर बारिश नहीं भी होती थी तो हम लोग मिल कर तालाब से दुगला (एक बड़ी सी डलिया, जिसे 2 लोग रस्सी से पकड़ कर पानी तालाब से खेतों में डालते थे) के जरीए सिंचाई करते थे.

अब हाल यह है कि सारे तालाबों में कब्जा हो गया. जो बचे भी हैं, उन में पानी नहीं बचा. सरकार किसानों को बिजली देने का वादा करती है, लेकिन बमुश्किल 5-6 घंटे ही आती है. अगर बिजली 2-4 दिन नहीं आई तो पूरी फसल ही सूखने लगती है.

बुजुर्ग किसान मुश्ताक हुसैन ने आगे बताया कि अब मजदूरी बहुत ज्यादा हो गई है. पहले कुछ रुपए में मजदूर आसानी से मिल जाते थे, पर अब तो चिराग ले कर ढूंढ़ना पड़ता है. ऊपर से उन की भी बड़ी शर्तें होती हैं.

मजदूरों के न मिलने की एक वजह यह भी है कि उन्हें इस से आमदनी नहीं होती थी, जिस वजह से गांव के मजदूरों ने शहरों की ओर रुख कर लिया.

जब से मशीनों का दखल खेती में बढ़ा है, तब से मजदूरों के सामने रोजीरोटी के लाले पड़ने लगे हैं. मजबूरी में ही सही, इन लोगों ने इस काम से तोबा कर ली.

पिछली यादों को ताजा करते हुए उन्होंने बताया कि पहले का जमाना अब के जमाने से लाख गुना बेहतर था. अब हर चीजों में आग लग गई है. हर जगह पैसा ही पैसा लोगों को नजर आता है, इनसानियत तो है ही नहीं.

पहले के किसानों में जो अपनेपन का लगाव था, वह अब के किसानों में बहुत कम देखने को मिलता है. एक तरफ तो महंगाई बढ़ती जा रही है, लेकिन सरकार आज तक किसानों की भलाई के लिए कोई पुख्ता इंतजाम नहीं कर पाई. सालभर हमें खेती की पैदाइश से ही उम्मीद रहती है, लेकिन पिछले कुछ सालों से यह उम्मीद भी टूटती जा रही है.

सरकार न तो खाद, बीज, कीटनाशक सस्ता कर रही है और न ही किसानों की फसल की वाजिब कीमत ही दिला पा रही है. हमारे लिए तो एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ खाई. हम करें भी तो क्या करें? बड़ी मुश्किल है हमारे सामने.

अब हमारी उम्र तकरीबन 70 साल की है, लेकिन आज भी किसानी कर रहे हैं. समय के साथ इनसान का जिस्म कमजोर हो जाता है, लेकिन हमारे लिए किसी तरह की मदद सरकार से नहीं मिलती, जो हमारे जैसे किसानों के बुढ़ापे का सहारा हो.

सरकारी नौकरी वालों को एक उम्र के बाद पेंशन मिलती है, लेकिन क्या हम इस देश के लिए कुछ नहीं कर रहे जो हमें लावारिस की तरह नजरअंदाज किया जा रहा है. जिंदगी है तो जीना ही है वरना इस काम में कोई फायदा नहीं.

हरित क्रांति (श्वेत क्रांति) बनाम गुलाबी क्रांति

यदि हम आजादी के बाद कृषि इतिहास की ओर नजर घुमाएं तो इस हकीकत को मानना पड़ेगा कि नेहरू युग के अंतिम साल में खाद्यान्न को ले कर देश में संकट इसलिए बढ़ा, क्योंकि केंद्र की पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया था. इस वजह से राज्यों में दंगे शुरू हो गए थे. अमेरिकी नीति ‘फूड ऐंड पीस’ के हिस्से के तौर पर उस समय भारत में पीएल 480 अनाज का सहारा लिया गया था.

देश को खाद्यान्न संकट से उबारने के लिए जवाहरलाल नेहरू के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दे कर किसानों के साथ जवानों को भी हरित क्रांति के लिए तैयार किया.

60 के दशक का यह दौर उत्पादकता को बढ़ाने के मद्देनजर गेहूं  (बाद में धान पर भी) उत्पादन पर खास जोर दिया गया और 80 के दशक तक भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर ही नहीं हो गया, बल्कि निर्यात भी करने लगा.

इन में वैज्ञानिक डा. एमएस स्वामीनाथन के प्रयासों का भी हाथ था. इसे देश की पहली हरित क्रांति के रूप में जाना जाता है. यह (हरित क्रांति) 60 के दशक से ले कर 80 के दशक के मध्य तक पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ले कर भारत के दक्षिणी राज्यों तक फैल गई. लेकिन वक्त के साथ हरित क्रांति के व्यावसायीकरण करने की बात भी सामने आई. कृषि से जुड़े परंपरागत मूल्य एवं संस्कृति विलुप्त हुए. धरती से जल दोहन और रासायनिक जहरीले उर्वरकों के बेतहाशा इस्तेमाल की वजह से धरती और खाद्यान्न दोनों जहरीले हुए.

यदि उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण पर आधारित आर्थिक नीतियों के कारण भारत की पिछले 30 सालों में आर्थिक विकास की गति तेजी से बढ़ी है, तो साथ में इस हकीकत को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि तथाकथित आर्थिक विकास का फायदा भारत के उस अभिजात्य वर्ग को मिला, जो पहले से ही बेहतर जिंदगी जी रहा था.

गौरतलब है जो आर्थिक विकास उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को लागू करने के बाद हुआ, उस में ऐसी भी नीतियां हैं, जो कई तरह के सवाल खड़ा करती हैं. उन में कुछ ऐसे सवाल भी हैं, जो सीधे आम आदमी, पर्यावरण, पशुधन के खात्मे से ताल्लुक रखते हैं.

कृषि से ताल्लुक रखने वाली श्वेत क्रांति और हरित क्रांति को ले कर भी सवाल खड़े किए जाते रहे हैं. इस के पीछे केंद्र और राज्य सरकारों की गलत नीतियां रही हैं.

भापजा की सरकार ने साल 2014 में सत्ता संभालते ही नई हरित क्रांति की बात कही, वहीं पर मांस निर्यात को बढ़ावा देने के लिए एक बड़ी रकम बूचड़खानों को भी दी. यह भाजपा की उस नीति से मेल नहीं खाती, जो भारतीय परंपरा और संस्कृति को बढ़ावा देने वाली है.

Meat Exportयदि आंकड़ों पर जाएं तो साल 2014 में जब राजग सरकार सत्ता में आई उस ने मांस निर्यात और बूचड़खानों के लिए अपने पहले ही बजट में 15 करोड़ की सब्सिडी दी और टैक्स में छूट का विधिवत प्रावधान किया. इस से समझा जा सकता है कि भाजपा की नीतियां मांस निर्यात के मामले में जैसी कांग्रेस की थीं, वैसी ही हैं.

आंकड़ों की तह में जाएं, तो पता चलता है कि साल 2003-04 में भारत से 3.4 लाख टन गायभैंस के मांस का निर्यात हुआ, जो साल 2012-13 में बढ़ कर 18.9 लाख टन हो गया. यह बढ़ोतरी साल 2014-15 में 24 लाख टन पहुंच गई यानी 14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. वहीं साल 2019-20 में 1,030.41 मीट्रिक टन मांस का निर्यात किया गया, जिस की कीमत तकरीबन 16.32 करोड़ रुपए थी.

आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में जितना मांस का निर्यात होता है, उस में भारत अकेले ही तकरीबन 58.7 फीसदी निर्यात करता है. गौरतलब है की भारत 65 देशों को मांस का निर्यात करता है. इन में सऊदी अरब, कुवैत, मिस्र, मलयेशिया, फिलीपींस, म्यांमार, नेपाल, लाइबेरिया और वियतनाम प्रमुख हैं. विदेशों में बढ़ते मांस निर्यात की वजह से भारत में जो मांस कभी 30 रुपए प्रति किलोग्राम बिकता था, वह आज 300 रुपए प्रति किलोग्राम बिक रहा है.

मांस निर्यात से सब से ज्यादा असर दूध उत्पादन से ताल्लुक रखने वाली श्वेत क्रांति पर पड़ा है. जब 13 जनवरी, 1970 को श्वेत क्रांति की शुरुआत हुई, तब इसे आम आदमी के रोजगार, आर्थिक स्थिति में सुधार और बेहतर स्वास्थ्य से जोड़ कर देखा गया.

पिछले 40 सालों में जिस तरह से मांस निर्यात के जरीए विदेशी पैसा कमाने की होड़ लगी हुई है, उस ने श्वेत और हरित क्रांति को रोकने या खत्म करने का काम किया है.

गौरतलब है विदेशों में बढ़ते मांस के निर्यात का सीधा असर दूध उत्पादन और घटते पशुधन पर पड़ रहा है.

गौरतलब है कि पशुधन भारतीय कृषि का आधार रहा है. गैरकानूनी बूचड़खानों की वजह से पशुधन पर सीधे असर पड़ा है जिस से पशुपालन बहुत ही खर्चीला काम हो गया है.

घटते दुधारू जानवरों की वजह से पिछले 20 सालों में दूध का दाम तेजी से बढ़ा है. आम आदमी जो कोई दुधारू जानवर नहीं पाल सकता, वह महंगे दूध खरीदने की हालत में नहीं होता है.

Milkगौर करने वाली बात यह है कि बिना किसी सरकारी मदद के देश में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है. देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हुई हैं. 14 राज्यों में अपनी दुग्ध सहकारी संस्थाएं हैं. लेकिन मांस निर्यात की वजह से पशुधन के खात्मे का असर घटते दूध उत्पादन पर साफ दिखाई पड़ रहा है. इस असंगठित क्षेत्र (दूध उत्पादन) में 7 करोड़ से ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं, जिस में अशिक्षित कारोबारी ज्यादा हैं.

यदि मांस निर्यात पर सरकारी रोक न लगी या गैरकानूनी बूचड़खानों के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो संभव है कि कुछ सालों में ही इस असंगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों को किसी और क्षेत्र में कारोबार के लिए मजबूर हो कर आना पड़े.

मांस निर्यात के आईसीएआर के आंकड़े बताते हैं कि हर साल तकरीबन 9.12 लाख जो भैंसें बूचड़खानों में कत्ल कर दी जाती हैं, यदि वे भैंसें कत्लखाने में जाने से बच जाएं, तो 2,95,50,000 टन गोबर की खाद बनाई जा सकती है. इस से 39.40 हेक्टेयर कृषि भूमि को खाद मुहैया कराई जा सकती है. इस से जहां जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा, वहीं महंगी रासायनिक खादों से भी छुटकारा मिल जाएगा.

दूसरी तरफ  यदि देखा जाए तो इनसान और जानवर एकदूसरे के पूरक हैं. इनसान यदि एक जानवर को पालता है, तो वह जानवर उस के पूरे परिवार को पालता है. इतना ही नहीं, बंदर, रीछ, घोड़े, बैल, सांड़, भैंसा और गाय इनसान की जिंदगी के अहम हिस्से हैं.

आज भी लाखों लोगों की आजीविका इन जानवरों पर आधारित है. राजस्थान में एक कहावत है, कहने को तो भेड़ें पालते हैं, दरअसल भेड़ें ही इन को पालती हैं. इन के दूध, घी और ऊन आदि से हजारों परिवारों की जीविका चलती है. भेड़ों के दूध को वैज्ञानिकों ने फेफड़े के रोगियों के लिए बहुत ही फायदेमंद बताया है.

‘बांबे ह्यूमैनेटेरियन लीग’ के अनुसार, जानवरों से हर साल दूध, खाद, ऊर्जा और भार ढोने वाली सेवा द्वारा देश को अधिक आय होती है. इस के अलावा मरने के बाद इन की हड्डियों और चमड़े से जो आय होती है, वह भी करोड़ों रुपए में. यांत्रिक कत्लखानों को बंद कर दिया जाए, तो लाखों जानवरों का वध ही नहीं रुकेगा, बल्कि उस में इस्तेमाल होने वाला 70 करोड़ लिटर से अधिक पानी की बचत होगी, जो कत्लखानों की धुलाई में इस्तेमाल होता है.

ऐसे एकदो नहीं, बल्कि तमाम उदाहरण हैं, जिन से मांस निर्यात से होने वाले नुकसान का पता चलता है. आज जरूरत इस बात की है कि दुधारू जानवरों और भार ढोने वाले जानवरों को उन की उपयोगिता के मुताबिक उन का उपयोग किया जाए और उन्हें कत्लखाने भेजने की अपेक्षा उन को परंपरागत कामों में इस्तेमाल किया जाए. इस से जहां दुधारू जानवरों की संख्या बढ़ेगी, वहीं दूध और कंपोस्ट खाद की समस्या से भारत को नजात मिलेगी.

Meatयदि महज भेड़ों को ही बूचड़खानों में भेजने की जगह उन का परंपरागत इस्तेमाल (जब तक वे जीवित रहें) किया जाए, तो 600 करोड़़ रुपए का दूध मिलेगा, 450 करोड़ रुपए की खाद, 50 करोड़ रुपए की ऊन प्राप्त होगी. इसी तरह गाय के वध को रोक देने से सालभर में जो लाभ होगा, वह हैरानी में डालने वाला है.

आंकड़ों के अनुसार, एक गाय के गोबर से सालभर में तकरीबन 17,000 रुपयों की खाद प्राप्त होगी. रोजाना यांत्रिक कत्लखानों में 60,000 गाय कटती हैं जिन के गोबर मात्र से प्रतिवर्ष लगभग एक अरब रुपए की आमदनी हो सकती है. दूध, घी, मक्खन और मूत्र से होने वाले फायदे को जोड़ दिया जाए, तो अरबों रुपए की आय केवल गाय के वध को रोक देने से देश को हो सकती है.

ये आंकड़े और तथ्य यह बताते हैं कि देश की खुशहाली आम आदमी की बेहतरी के साथसाथ पर्यावरण की रक्षा के लिए गुलाबी क्रांति की नहीं, बल्कि निरापद श्वेत और हरित क्रांति की जरूरत है. इस से परंपरागत व्यवसायों को बढ़ावा मिलेगा और मांस निर्यात जैसे अहिंसा प्रधान देश में हिंसा वाले व्यवसाय से छुटकारा भी मिल सकेगा.