आम (Mango) के रोग और उपचार

आम का नाम सुनते ही मुंह में पानी आ जाता है और दिल को सुकून मिलता है. हमारे दिमाग में एक ऐसे फल की तसवीर उभरती है जिसे सोच कर ही खुशी से झूमने लगता है. आम ऐसी फसल है जिसे हर कोई खाना पसंद करता है.

भारत में आम फलों का राजा है. इस की पैदावार तकरीबन पूरे भारत में होती है, लेकिन खासतौर से उत्तर प्रदेश आम के लिए जाना जाता है. यहां पर मलीहाबाद के आमों की मिठास विदेशों में भी लोगों को अपना मुरीद बना चुकी है.

पाकिस्तान, बंगलादेश, अमेरिका, फिलीपींस, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ्रीका, जांबिया, माले, ब्राजील, पेरू, केन्या, जमायका, थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका वगैरह देशों में भी आम उगाया जाता है.

भारत में आम के बाग सब से ज्यादा उत्तर प्रदेश में हैं, लेकिन इस की सब से ज्यादा पैदावार आंध्र प्रदेश में होती है. आम की बागबानी के लिए गरम आबोहवा बेहतर है.

आम के लिए 24 से 26 डिगरी सैल्सियस तापमान वाला इलाका सब से अच्छा माना गया है. यह नम व सूखी दोनों तरह की जलवायु में उगता है. लेकिन जिन इलाकों में जून से सितंबर माह तक अच्छी बारिश होती है और बाकी महीने सूखे रहते हैं, वहां आम की पैदावार ज्यादा होती है.

आम के पेड़ों को रोगों से बचाना बहुत जरूरी है. समयसमय पर आम में लगने वाली खास बीमारियों पर नजर रख कर ही रोगों से बचाया जा सकता है.

काली फफूंद रोग

आम के पुराने और घने गहरे बगीचों में आम के फूलों और मुलायम पत्तियों से रस चूसने वाले कीट जैसे भुनगा, फुदका, मधुआ और कढ़ी कीट का प्रकोप चैत्र माह से ही शुरू हो जाता है. ये कीट छोटीछोटी नई मुलायम पत्तियों और फूलों से रस चूसते रहते हैं. इस वजह से आम की पत्तियों और फूलों के ऊपर एक चिपचिपाहट सी बनने लगती है और फल झड़ने लगते हैं.

यह रोग भुनगा कीट की वजह से होता है. फफूंद के जरीए भी यह रोग तेजी से फैलती है. कुछ समय बाद आम के बगीचों में पेड़ों की पत्तियों पर काले रंग की एक परत बन जाती है, जो सीधा पत्तियों से भोजन बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है.

उपचार

काली फफूंदी के नियंत्रण के लिए नीम की पत्तियों को उबालें. इस के बाद 10-12 लिटर उबले हुए पानी को 100 लिटर पानी में मिला कर पेड़ों पर 2-3 बार अच्छी तरह से स्प्रेयर पंप की मदद से छिड़काव करना चाहिए.

आम का भुनगा, फुदका और कढ़ी कीट पर 300 से 400 मिलीलिटर नीम के तेल को 100 लिटर पानी में घोल कर फूल खिलने से पहले या फिर मटर के दाने के बराबर फल बनने के बाद 2-3 छिड़काव करने से इन कीटों पर काबू पाया जा सकता है.

इस के अलावा ब्यूबेरिया बेसियाना की 200 ग्राम मात्रा को 100 लिटर पानी में घोल कर 2-3 बार छिड़काव करने या 15-20 दिन पुरानी सड़ी हुई छाछ या मट्ठा 10 लिटर व 8 से 10 दिन पुराने 10 लिटर गौमूत्र को 100 लिटर पानी में मिला कर पूरे पौधे पर 2-3 छिड़काव करने से कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

चूर्णिल आसिता रोग

आम का यह रोग फफूंद की वजह से फैलता है. इस रोग का हमला होने आम की पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसे धब्बे बन जाते हैं. कभीकभी फूलों की टहनियों और छोटेछोटे फलों पर भी ये धब्बे हवा के रुख के साथ फैल जाते हैं. इस वजह से फल पकने से पहले ही पेड़ से पत्ते गिर जाते हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए 100 लिटर पानी में मिलाएं 10 दिन पुरानी सड़ी हुई छाछ या मट्ठा 10 लिटर या 10 लिटर गौमूत्र 10-12 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करने से रोग इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

सूखा रोग

आम के पेड़ों में लगने वाला सूखा रोग यानी तनाछेदक कीट हरियाली का दुश्मन है. इस रोग के प्रकोप से आम का हराभरा पेड़ कुछ ही महीनों में सूख कर ढांचे में तबदील हो जाता है.

तनाछेदक कीट पौधे के तने में छेद कर आसानी से अंदर घुस जाता है. पेड़ के तने को सावधानी से देखने पर किसानों को कीड़ों के होने की प्रारंभिक दशा में छाल पर चूर्ण जैसा पदार्थ देखने को मिलता है. तना गीला हो जाता है. कीट के बड़े हो जाने पर तने में सुराख साफसाफ दिखाई देने लगता है.

उपचार न होने की दशा में कीट तने को खोखला कर देते हैं. इस से पेड़ सूखने लगता है. इस में पत्तियां ऊपर से सूखना शुरू होती हैं, जो नीचे की ओर बढ़ती जाती हैं.

ऐसे करें रोकथाम

तनाबेधक या तनाछेदक कीट साल में सिर्फ 2 महीने मई व जून माह में बाहर रहता है. नियंत्रण के लिए क्विनालफास व साइपरमैथलीन दवा का स्प्रे करें.

रोकथाम के लिए बाद में तने को छील कर सुराख में साइकिल की तीली डाल कर बड़े कीटों को मारा जा सकता है.

अंडे बच्चों को नष्ट करने के लिए मोनोक्रोटोफास के घोल को रुई में भिगो कर सुराख में डाल दें व ऊपर से गाय के गोबर में मिट्टी मिला कर लेप लगा दें.

देशी उपचार में 2 किलोग्राम तंबाकू व ढाई सौ ग्राम फ्यूरोडान प्रति पेड़ की जड़ में डालने से भी रोकथाम हो सकती है.

बौर का रोग

आम के बौरों, फलों या पत्तियों पर सफेद चूर्ण की तरह का पदार्थ दिखाई देता है. ऐसा लगता है कि पेड़ों पर राख छिड़क दी गई है. प्रकोप होने से उन की बढ़वार रुक जाती है और फूल गिरने लगते हैं.

बौर के समय फुहार और ठंडी रातें इस रोग के बढ़ने में मददगार होती हैं. कवक से नए फल बिलकुल ढक जाते हैं और धीरेधीरे उस की बाहरी सतह पर दरारें पड़ने लगती हैं. दरार वाला वह भाग कड़ा हो जाता है. नए फल मटर के दाने के बराबर होने के पहले ही गिर जाते हैं.

नई पत्तियों की पिछली सतह पर यह रोग काफी फैलता है और स्लेटी रंग के धब्बे बनने लगते हैं, जिस पर सफेद चूर्ण दिखाई पड़ता है और रोगग्रस्त पत्तियां टेढ़ी हो जाती हैं. ऐसी पत्तियां पूरे साल पौधों पर लगी रहती हैं और अगले साल भी रोगों को फैलाने में सहायक होती हैं.

उपचार से करें बचाव

इस रोग से बचाव के लिए फूल के मौसम में कुल 3 छिड़काव करने चाहिए. पहला छिड़काव 0.2 फीसदी विलयशील गंधक (वेटेबल सल्फर) (सल्फेट या दूसरा विलयशील गंधक फफूंदनाशक 2 ग्राम प्रति लिटर), दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राइडीमार्फ या 0.04 फीसदी फ्लूजिजाल (1 मिलीलिटर कैलिक्सीन या 0.4 मिलीलिटर पंच प्रति लिटर) और तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डाइनोकैप या बावस्टीन (1 मिलीलिटर 5 प्रति केराथेन या 1 ग्राम ट्राइडीमेफान प्रति लिटर) से करना चाहिए.

पहला छिड़काव बौर निकलने के दौरान करना चाहिए. दूसरा और तीसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए.

आम (Mango)

पत्तियों पर एंथ्रेक्नोज रोग

तुड़ाई के बाद आम का यह सब से खास रोग है. यह एक फफूंद कोलेटोट्राइकम ग्लोयोस्पोराइडिस से होती है. इस का प्रकोप हर आम उगाने वाली जगहों पर होता है. फलों पर इन के लक्षण शुरू में छोटेछोटे भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखाई देते  हैं, जो बाद में बढ़ कर पूरे फल को ढक लेते हैं. ये धब्बे 3-4 दिन में ही पूरे फल को ढक लेते हैं और पूरा फल काला हो कर सड़ जाता है.

रोकथाम

कार्बंडाजिम या टापसिन-एम (0.1 फीसदी यानी 1 ग्राम प्रति लिटर) का 3 छिड़काव तुड़ाई से पहले करें फिर 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए. छिड़काव इस तरह करना चाहिए कि अंतिम छिड़काव तुड़ाई से 15 दिन पहले हो जाए.

फलों को 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 15 मिनट तक डुबो कर रखने से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है.

शाखा रोग

इस रोग से शाखाएं और टहनियां सूखने लगती हैं. उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि शाखा आग से झुलस गई है. रोग की शुरुआत में शाखाओं के अगले भाग की छाल काली पड़ जाती है, जो धीरेधीरे बढ़ती है और फिर पूरी शाखा ही सूख जाती है. साथ ही, गोंद का रिसाव भी होने लगता है.

रोकथाम

रोगग्रस्त शाखाओं की कटाई रोग से ग्रसित हिस्से के करीब 7.5-10 सैंटीमीटर नीचे से करनी चाहिए. इस के बाद 3 ग्राम फफूंदनाशक दवा प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए और कटे हुए भाग पर इसी फफूंदनाशक दवा का लेप लगाना चाहिए. छोटे पेड़ों में भी रोगग्रस्त शाखाओं की छंटाई के बाद कौपर औक्सीक्लोराइड का लेप लगाना फायदेमंद है.

रेड रस्ट रोग

पत्तियों पर गोलाकार, मटमैले रंग के मखमली धब्बे दिखाई देते हैं, जिन का आकार बाद में बड़ा और रंग बादामी हो जाता है.

धब्बे की सतह भी उभरी हुई होती है. इस के ऊपर काई के बीजाणु बनते हैं जो बाद में तांबे के रंग के हो जाते हैं. आखिर में बीजाणुओं के झड़ने की वजह से पत्तियों पर गोलाकार सफेद निशान रह जाते हैं.

इस रोग के कारण पत्तियां और टहनियां छोटी रह जाती हैं और बाद में सूखने लगती हैं.

दिसंबरजनवरी माह में रोग से ग्रसित पत्तियां अधिक झड़ती हैं और पौधे दूर से ही मुरझाए हुए से दिखाई देते हैं.

रोकथाम

इस रोग की रोकथाम के लिए 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लिटर का 2-3 ग्राम प्रति लिटर) का छिड़काव करना असरदार पाया गया है.

ये सारे रोग आम के फलों में तुड़ाई से पहले लगते हैं, लेकिन इन सारे रोगों से निबटने के बाद भी आम के उत्पादकों को तुड़ाई के बाद भी कई तरह के रोगों से अपने फलों को बचाने की चुनौती रहती है. अगर जरा सी लापरवाही की गई तो सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है.

आम (Mango)

तुड़ाई के बाद रोग

फलों में तुड़ाई के बाद भी उत्पादन का तकरीबन 25-40 फीसदी कई वजहों से खराब हो जाता है. यह नुकसान गलत समय पर फलों की तुड़ाई, गलत तुड़ाई के तरीके और गलत ढंग से भंडारण करने की वजह से होता है. लेकिन जो नुकसान होता है, वह मुख्य रूप से फलों की तुड़ाई के बाद लगने वाले रोग हैं.

आम की तुड़ाई के बाद होने वाले रोगों में मुख्य फफूंद है. तुड़ाई के बाद फलों में संक्रमण, आम की ढुलाई, भंडारण और लाने और ले जाने के दौरान होता है.

आम में बीमारियों का प्रकोप 2 तरह से होता है. एक तो फलों के लगते समय ही उन को संक्रमित कर देते हैं, दूसरे तुड़ाई के बाद फलों के रखरखाव के दौरान होता है.

आम की तुड़ाई के बाद भी बहुत सी बीमारियां लगती हैं, लेकिन इन में एंथ्रेक्नोज, ढेपी विगलन और काला सड़न बीमारी से अधिक नुकसान का डर रहता है.

गहरे भूरे रंग का डंठल

तुड़ाई के बाद आम की यह खास बीमारी है. यह लेसियोडिपलोडिया थियोब्रोमी नामक फफूंद से होती है. इस में तकरीबन 15-20 फीसदी तक का नुकसान होता है. यह बीमारी आम की चौसा किस्म में अधिक पाई जाती है. फलों में यह बीमारी ढेपी की तरह से शुरू होती है तभी इसे ढेपी विगलन रोग कहते हैं.

शुरू में जहां पर डंठल लगा होता है, वह भाग गहरे भूरे रंग का हो जाता है और धीरेधीरे बढ़ कर यह पूरे फल को ढक लेता है. 3-4 दिन बाद पूरा फल सड़ कर काले रंग का हो जाता है.

रोकथाम

फल को 1 से 2 सैंटीमीटर के डंठल सहित तोड़ना चाहिए. इस के बाद फल को मिट्टी के संपर्क में नहीं आने देना चाहिए.

तुड़ाई से पहले 2 छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर कार्बंडाजिम या टापसिन एम (0.1 फीसदी यानी 1 ग्राम प्रति लिटर) का करना चाहिए. फलों को 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 5 मिनट डुबो कर रखने से इस रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है.

काला सड़न रोग

यह रोग एस्परजीलस नाइजर नामक फफूंद से होता है. यह रोग फलों में चोट या कटे स्थान से शुरू होता है.

शुरू में इस के लक्षण पीले रंग के गोल धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं. 3-4 दिन में धब्बे आकार में बढ़ जाते हैं और इन के ऊपर काले रंग के फफूंद के जीवाणु दिखाई देने लगते हैं.

रोकथाम

फलों को सावधानी से तोड़ना चाहिए, ताकि फलों पर खरोंच न लगे या फल न कटे.

फलों को 0.5 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 5 मिनट तक डुबो कर रखने से इस रोग पर काबू किया जा सकता है.

अगर आप को आम की अच्छी उपज लेनी है तो शुरू से ही पौधों की देखभाल करें. आम के पौधों को जितना फल लगने के बाद देखभाल की जरूरत होती है, उस से कहीं ज्यादा फल आने के पहले होती है.

आमतौर पर किसान यहीं गलती करते हैं. इस वजह से उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है. बौर आने के पहले रोगों से आम को बचाएं, साथ ही, बौर आने के बाद भी कई तरह के छिड़काव से रोगों से बचाना अहम हो जाता है. जब फल बड़े हो कर तुड़ाई के लिए तैयार हो जाएं तब भी उन्हें सड़नेगलने से बचाना उतना ही जरूरी है, जितना शुरुआत में बचाया गया था.

आम की बौनी, रंगीन और व्यावसायिक किस्में

आम ही एक ऐसा फल है जिसकी बागवानी दुनियां के लगभग सभी देशों में की जाती है. और भारत अकेला एक ऐसा देश है जो दुनियां का करीब 45 फीसदी आम अकेले पैदा करता है.

 


 

देश में उगाये जाने वाले फलों में आम ही एक ऐसा फल है जो अपने अलग-अलग स्वाद, सुगंध और रंगों के लिए जाना जाता है. आम में पाया जाने वाला पोषक गुण भी इसे विशेष बनाता है. इसी लिए इसे फलों के राजा का दर्जा भी प्राप्त है. आम ही एक ऐसा फल है जिसकी बागवानी दुनियां के लगभग सभी देशों में की जाती है. भारत अकेला एक ऐसा देश है जो दुनियां का करीब 45 फीसदी आम अकेले पैदा करता है. देश में आम की कुछ ऐसी ऊन्नत और ख़ास किस्में भी हैं जो अपने रंग, रूप और विशिष्ठ स्वाद के लिए पूरे दुनियां में ख़ास पहचान रखता है. इसी लिए इन किस्मों की मांग दुनियां के कई देशों में है. 

 

अगर किसान अपनी आमदनी बढ़ाना चाहते हैं तो उनके लिए आम की बागवानी एक सफल जरिया बन सकती है. बीते सालों में देश में आम की कुछ ऐसी उन्नत किस्में विकसित किये जाने में सफलता पाई गई है जो परंपरागत किस्मों की अपेक्षा उंचाई में बहुत कम होने के साथ ही कम जगह भी घेरती है. इसके अलावा इनका विशेष रंग, रूप, स्वाद और पोषक गुण भी इन्हें ख़ास बनाता है. इसके चलते इन किस्मों का बाजार रेट भी बहुत अच्छा मिलता है. इनमें से कुछ किस्में तो ऐसी है जो किलो के रेट से न बिक कर पीस के रेट से बिकती हैं. 

 

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वैसे तो देश में करीब आम की 1000 किस्में ऐसी है जिनका व्यावसयिक तौर पर उत्पादन किया जा सकता है. लेकिन इसमें से बहुत कम ऐसी किस्में हैं जिनका उत्पादन व्यावसायिक निर्यात के नजरिये से किया जाता है. अगर देखा जाए तो देश में उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्णाटक, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल,  तमिलनाडु, हरियाणा, पंजाब मध्य प्रदेश और केरल आम का सबसे ज्यादा उत्पादन करते है. 

 

देश में आम की उत्पादकता बढ़ाने के लिए बीते सालों में सघन बागवानी के तहत कम उंचाई वाली बौनी और कम फैलाव वाली किस्मों की बागवानी को बढ़ावा दिया जा रहा है. आम की पारम्परिक किस्मों की रोपाई  जहाँ पौध से पौध और लाइन से लाइन की दूरी जहाँ 10 मीटर से 12 मीटर तक रखी जाती रही है वहीँ नवीन किस्मों को लाइन से लाइन और पौध से पौध की दूरी 2.5 मीटर से लेकर 3 मीटर, 4 मीटर और 5 मीटर पर भी रोपाई की जाने लगी है. कम दूरी पर की जाने वाली बागवानी को ही सघन बागवानी के श्रेणी में रखा जाता है. इस विधि से कम जगह में किसान आम के अधिक पौधों की रोपाई कर सकते हैं. इससे उन्हें कम जगह में अधिक उत्पादन प्राप्त हो जाता है.

आम की शंकर, बौनी और रंगीन किस्में

आम की बौनी और कम फैलाव वाली इन किस्मों की खेती से किसानो को कई तरह के लाभ मिल जाते हैं. इन किस्मों के बीच किसान दूसरी तरह की फसलों की खेती सहफसली के रूप में कर सकते हैं. आम की बौनी किस्मों से पौध रोपण के तीसरे साल से ही व्यावसायिक उत्पादन लिया जा सकता है. इनमें कीट बीमारियों के रोकथाम के लिए आसानी से उपायों को अपना सकते हैं. पेड़ की लम्बाई अधिक न होने से सभी फलों की बैगिंग कर सकते हैं साथ ही फलों की तुड़ाई आसानी से की जा सकती है. इसके अलावा पेड़ों की प्रूनिंग भी आसानी से की जा सकती है. यह नियमित फलन वाली किस्मों में गिनी जाती है यानी इन किस्मों में दूसरी किस्मों की तरह एक साल के अंतराल पर फल आने की समस्या भी नहीं पाई जाती है.

पूसा अरुणिमा
यह किस्म आम्रपाली व सेंसेशन किस्मों के क्रास से तैयार की गयी है। इसमें हर साल फल आता है और वृक्ष मध्यम ओजस्वी होते हैं. पूसा अरुणिमा के पौधों को सघन बागवानी के तहत 3×3  मीटर दूरी पर लगाना चाहिए. इसके फल बड़े आकार (250 ग्राम) तक के लालिमा लिए अत्यन्त आकर्षक होते हैं. यह देर से पकने वाली प्रजाति है. इसके फल अगस्त के पहले सप्ताह में तैयार हो जाते हैं. फलों में टी.एस. एस, यानी कार्बोहाइड्रेट, कार्बनिक अम्ल, प्रोटीन, वसा और खनिज की मात्रा का निर्धारण करने वाला मापक जो मध्यम मिठास लिए (19.5 प्रतिशत कुल घुलनशील ठोस पदार्थ) होती है. पकने के बाद फलों को सामान्य कमरे के तापमान पर 10-12 दिनों तक आसानी से रखा जा सकता है. यह किस्म भाकृअनुप–भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में विकसित की गयी हैं. यह रोपण के चार वर्ष बाद इसके पेड़ से व्यावसायिक फलोत्पादन किया जाना उचित होता ह. इसका फल देर से पकता है. इसमें छिलका लाल और आकर्षक होता है. यह विटामिन सी बीटा-कैरोटीन से भरपूर होता है. यह किस्म साल 2002 में रिलीज़ हुई थी.

पूसा सूर्या

कलर्ड और नियमित फलन वाली किस्मों मेंपूसा सूर्या का अहम स्थान. इसके इसके पौधे दूसरी रंगीन किस्मों की तरह बौने होते हैं. इसलिए यह 3 मीटर x 3 मीटर से लेकर 6 मीटर x 6 मीटर रोपण के लिए उपयुक्त होता है. इसमें आम्रपाली और उत्तरी भारत के अन्य वाणिज्यिक खेती की तुलना में आम की गुम्मा बिमारी की संभावना कम होती है. इसके फल जुलाई के तीसरे सप्ताह से पकने शुरू हो जाते हैं. इस किस्म के फल आकार में बड़े से मध्यम 270 ग्राम तक और देखने में आकर्षक खुबानी के पीले छिलके के रंग की तरह होते हैं. इसमें कुल टीएसएस यानी और मध्यम कुल घुलनशील ठोस पदार्थ (18.5%) होता है. इसमें विटामिन सी (42.6 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम गुदे में और बीटा कैरोटीन सामग्री में भरपूर होता है. पकने के बाद कमरे के तापमान पर इसे 8 से 10 दिन तक संरक्षित किया जा सकता है. फल जुलाई के मध्य से पकने शुरू हो जाते हैं. इस प्रकार की किस्मों की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बहुत मांग है. इसे साल 2002 में रिलीज़ रिलीज किया गया था.

पूसा प्रतिभा

हाइब्रिड किस्मों में पूसा प्रतिभा अपने तरह की एक अनोखी किस्म है जो आम्रपाली और  सेंसेशन के क्रास से विकसित की गई है. यह किस्म नियमित रूप से आकर्षक फलों के आकार, चमकदार लाल छिलके और नारंगी गूदे में होती है फलत देती है. इसके सुनहरे पीले रंग और लाल छिलके का रंग खरीदारों को बहुत आकर्षित करते हैं है. इसमें आयताकार, समान आकार के फल होते हैं. यह घरेलू के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में सबसे ज्यादा पसंद की जानी वाली किस्म है. पूसा श्रेष्ठ के फल जुलाई के पहले सप्ताह में पकने आरंभ हो जाते हैं और पके फलों को 6-7 दिनों तक आसानी से रखा जा सकता है. 

अगर लाभ की बात करें तो उत्तर भारत में उगाए जाने वाले आम के व्यावसायिक किस्मों यानी दशहरी से इस किस्म द्वारा दोगुना लाभ कमाया जा सकता है. यह 3 मीटर x 3 मीटर से लेकर 6 मीटर x 6 मीटर रोपण के लिए उपयुक्त होता है.. इसलिए, यह प्रति यूनिट क्षेत्र में उच्च उत्पादकता देने वाली प्रजाति मानी जाती है. अगर उत्पादन देखा जाए तो इसके प्रति पौधे के आधार पर, यह दशहरी की तुलना में लगभग 3 गुना अधिक उत्पादन देने वाला होता है, यह 2012 में रिलीज़ हुई थी .

पूसा श्रेष्ठ

यह किस्म भी आम्रपाली और  सेंसेशन के क्रास से विकसित की गई है. जिसमें नियमित  फलन के साथ इसके फल आकर्षक लम्बे आकार के, लाल छिलका और नारंगी गूदा लिए होते हैं. इसके लम्बे आकार के कारण, यह पैकेजिंग के लिए काफी उपयुक्त है. यह घरेलू के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए सभी आवश्यकताओं को पूरा करता है. इसमें पकने के बाद कमरे के तापमान पर 7 से 8 दिनों का शैल्फ-जीवन होता है, जो उत्तर भारत में उगाए जाने वाले वाणिज्यिक आम की किस्मों अर्थात् दशहरी से लगभग दोगुना समय है. 

अगर इसे 6 मीटर x 6 मीटर में रोपा जाए तो लगभग 278 पौधों को प्रति हेक्टेयर के दर से रोपा जा सकता है. प्रति पौधे के आधार पर अगर देखा जाये तो यह दशहरी की तुलना में अधिक पैदावार देने वाला होता है. इसमें लाल रंग के छिलके के साथ टी एस एस लेवल यानी मध्यम चीनी एसिड मिश्रण और फलों के आकार में सभी एकरूपता जैसे सभी वांछनीय गुण हैं. यह 2012 में रिलीज़ हुई थी .

पूसा पीतांबर

यह एक अद्वितीय संकर (आम्रपाली X लाल सुंदरी) है, जो असरदार आकर्षक फलदार आकृति में नियमितता रखती है. अपने आयताकार आकार के कारण, यह समान पैकेजिंग के लिए काफी उपयुक्त है. पकने पर पीले फलों का रंग खरीदारों को बहुत लुभाता है. यह घरेलू के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए सभी आवश्यकताओं को पूरा करता है. इसमें पकने के बाद कमरे के तापमान पर 5 से 6 दिनों की शैल्फ-जीवन है . पौधे अर्ध-जोरदार हैं और इस संकर के लगभग 278 पौधों को दशहरी (10 मीटर x 10 मीटर) के 100 पौधों के मुकाबले एक हेक्टेयर (6 मीटर x 6 मीटर) में समायोजित किया जा सकता है. इसलिए, यह प्रति यूनिट क्षेत्र में उच्च उत्पादकता देता है . प्रति पौधों के आधार पर, यह दशहरी की तुलना में लगभग 2.0 गुना अधिक है, जिसमें ऑन और ऑफ वर्ष शामिल है. इसमें अच्छी चीनी: एसिड मिश्रण होती है और फलों के आकार में सभी एकरूपता से इस हाइब्रिड को बहुत महत्वपूर्ण बनाता है. यह 2012 में रिलीज़ हुई थी .

पूसा लालिमा

आम की पूसा लालिमा किस्म देखने में बहुत ही खुबसुरत होती है और फलों के पकने के बाद यह खूबसूरती कई गुना बढ़ जाती है. इस किस्म के छिलके इतने पतले होते है की बहुत लोग इसको बिना छिले ही खा जाते हैं. पूसा लालिमा किस्म को दशहरी व सेंसेशन किस्मों के क्रास यानी संकरण से विकसित किया गया है. अगर के उंचाई की बात की जाए तो इसके वृक्ष मध्यम आकार के होते हैं इसी लिए सघन बागवानी के लिहाज से इसे मुफीद माना जाता है. पूसा लालिमा नियमित फलन और शीघ्र पकने वाली प्रजातियों में गिनी जाती है. इसके फल लाल रंग के व मध्यम आकार के बहुत ही मनमोहक और आकर्षक होते हैं, जिनमें गूदा 70.1 प्रतिशत होता है. इस किस्म के आम के फल जून के पहले पखवाड़े में पकने प्रारंभ हो जाते हैं.

इसमें पकने के बाद कमरे के तापमान पर 5 से 6 दिनों की शेल्फ लाइफ होती है. इसे 3 मीटर x 3 मीटर से लेकर 6 मीटर x 6 मीटर की दूरी पर रोपा जा सकता है. अगर उत्पादकता की बात करें तो यह प्रति पौधों के आधार पर, यह दशहरी की तुलना में लगभग 4.0 गुना अधिक उत्पादन देता है. यह किस्म भी  2012 में रिलीज़ हुई थी.

अम्बिका और अरूणिका

केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान द्वारा विकसित आम की संकर किस्में अम्बिका और अरूणिका अपने सुंदर फलों के कारण सबका मन मोह लेती है. हर साल फल आने की ख़ासियत इन्हें एक साल छोड़कर फलने वाली आम की किस्मों से अधिक महत्वपूर्ण बनाती हैं. अम्बिका को साल 2000 और अरूणिका को 2005 रिलीज किया गया था. देखने में तो ये किस्में खूबसूरत तो होती हैं ही खाने में लजीज होने के साथ पौष्टिकता से भरपूर भी होती हैं. 

अरूणिका की मिठास और विटामिन ए के अतिरिक्त कैंसर रोधी तत्व जैसे मंगीफेरिन और ल्यूपेओल से भरपूर हैं, अरूणिका के फल टिकाऊ हैं और ऊपर से खराब हो जाने के बाद भी उनके अन्दर के स्वाद पर कोई खराब असर नहीं पड़ता है. अरुणिका और अम्बिका किस्मों को भारत के विभिन्न जलवायू में लगाने के बाद यह पाया गया कि इनको अधिकतर स्थानों पर सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है. हर साल फल देने के कारण पौधों का आकार छोटा है और अरूणिका का आकार तो आम्रपाली जैसी बौनी किस्म से 40 प्रतिशत कम है. इसके फल मध्यम आकार (190-210 ग्राम) के तथा आकर्षक लाल रंग के होते हैं तथा फल मीठे (24.6 प्रतिशत कुल घुलनशील ठोस पदार्थ) व गृदा नारंगी पीले रंग का होता है.

आमतौर पर घर में छोटे से स्थान में भी शौक़ीन आम की बौनी किस्में लगाने के लिए इच्छुक हैं उनके लिए यह सबसे अच्छी किस्म है. अरूणिका के पौधे आम्रपाली से भी छोटे आकार के होते हैं इसी वजह से इस किस्म में लोगों की रूचि बढ़ गयी.इसका नियमित फलन भी इसे ख़ास बनाता है. अरुणिका को आम्रपाली के साथ वनराज के संयोग से इजाद किया गया. इसमें मां की भूमिका आम्रपाली नें और पिता की भूमिका गुजरात की प्रसिद्ध किस्म वनराज नें निभाई है.

जबकि अम्बिका के खासियत की अगर बात करें तो इसके फल मध्यम आकार (190-210 ग्राम) के तथा आकर्षक लाल रंग के होते हैं तथा फल मीठे (24.6 प्रतिशत कुल घुलनशील ठोस पदार्थ) व गूदा नारंगी पीले रंग का होता है. इसको आम्रपाली और जर्नादन पसंद के संकरण से इजाद किया गया. जर्नादन पसन्द दक्षिण भारतीय किस्म है.

आम्रपाली को मातृ किस्म के रूप में प्रयोग करने के कारण अम्बिका और अरूणिका दानों में ही नियमित फलन के जीन्स आ गए. इन किस्मों को खूबसूरती पिता से और स्वाद व अन्य गुण माता से मिले. आम्रपाली में विटामिन ए अधिक मात्रा में है इसलिए अरूणिका में आम्रपाली से भी ज्यादा विटामिन ए मौजूद है. अम्बिका और अरूणिका दोनों ही किस्मों ने पूरे देश भर में विभिन्न प्रदर्शनियों में सबका मन मोह लिया. 

आम्रपाली 

सघन बागवानी के लिए सबसे ज्यादा मुफीद आम्रपाली किस्म दशहरी और नीलम किस्मों के क्रास यानी संकरण  से विकसित की गई है. इसके बाग़ से हर साल फलत मिलती है.  इसके पेड़ लम्बाई और फैलाव में बहुत बड़े नहीं होते हैं. इसका फल देरी से पकता है इस लिए किसान इसका रोपण सबसे ज्यादा करते हैं. कम जगह घेरने के कारण इसे शहरों में किचन गार्डन में भी रोपित करते हैं. इसके फल जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के अंतिम सप्ताह में पकते हैं. इस किस्म के फल गूदेदार और रेशारहित होते हैं. अगर इसके पौधों को 2.5 x 2.5 मीटर की दूरी पर लगाकर एक हैक्टर क्षेत्रफल में 1600 पौधे उगाए जा सकते हैं.

मल्लिका

यह किस्म नीलम और दशहरी किस्मों के संकरण यानी क्रास से तैयार की गयी है. मल्लिका भी नियमित फल देने वाली उन्नत किस्मों में गिनी जाती है. इसकी रोपाई सघन बागवानी के नियमों को ध्यान में रख की जा जा सकती है. 

इसके फलों का आकार और वजन दोनों अपेक्षाकृत दूसरी किस्मो की अपेक्षा बड़ा होता है. जिसमें कुछ फलों का वजन 700 ग्राम से अधिक हो जाता है. पहले फल तोड़ने पर पकने के बाद भी फलों में खटास रहती है लेकिन जब उन्हें सही अवस्था में तोड़ा जाए तो मिठास और खटास का अद्भुत संतुलन मिलता है. पेड़ पर इसके फल मध्य जुलाई में पकने शुरू होते हैं.विशेष स्वाद के अतिरिक्त फल का गूदा दृढ़ होता है इसलिए स्वाद और बेहतरीन हो जाता है. फल नारंगी पीले रंग का होता है, जिसमें आकर्षक गहरे नारंगी रंग का गूदा और एक बहुत पतली गुठली होती है. फल में भरपूर गूदा होने के कारण ग्राहक को पैसे की अच्छी कीमत मिल जाती है. यह किस्म दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित है. विगत वर्षों में इसके फलों का निर्यात अमेरिका तथा खाड़ी देशों को किया गया है.

अर्का अरुण

आम की यह नियमित फल देने वाली बौनी किस्म है. इसको बैंगनपल्ली व अल्फांसो किस्मों के संकरण यानी क्रास से तैयार किया गया है. अर्का अरुण के फल मीठे (20 प्रतिशत कुल घुलनशील ठोस पदार्थ) व लालिमा लिए होते हैं. फलों का गूदा पीले रंग का व रेशा रहित होता है. इसके फल का औसतन वजन 500 ग्राम होता है. इसमें टीएसएस लगभग 20° ब्रिक्स होता है. इसमें नि‍यमित फलन होता है, इसकी प्रकृति बौनी है, यह बैकयार्ड रोपण के लिए तथा 5 x 5 मीटर रोपण के लिए उपयुक्त है, यह एक मध्य-मौसमी किस्म है.

अर्का पुनीत

यह किस्म अल्फांसो व बैंगनपल्ली किस्मों के संकरण यानी क्रास से तैयार की गयी है. अर्का पुनीत नियमित फलन देने वाली प्रजाति है. इसके फल गोलाकार होते हैं और पकने के समय पर लाल मुख भाग के साथ यह पीला रंग का हो जाता है। इसका गूदा ठोस, नारंगी रंग का होता है तथा रेशा एवं छिलका ऊतक-रहित है. इसमें लगभग 21°ब्रिक्स का टीएसएस होता है. इसमें गूदा-प्राप्ति 65-70% होती है. इसकी टिकाऊ गुणवत्ता अच्छी है.

अर्का अनमोल

अर्का अनमोल किस्म को अल्फ़ान्सो और जनार्दन पसंद के क्रास से से विकसित किया गया  है. यह भी  नि‍यमित फलन वाली किस्म है और सघन रोपण के लिए उपयुक्त होती है. यह एक पछेती मौसम वाली किस्म है, इसकी फसल-तुड़ाई जून माह के दूसरे सप्ताह के दौरान शुरू की जाती है. इसके फल लम्बे बनावट के मध्यम आकार के होते हैं. इसके फल का वजन लगभग 300-330 ग्राम होता है. इसका डंठल लम्बाई लिएहोता है. पकने की स्थिति में इसके फल का रंग हल्का हरा हो जाता है और पूर्ण रूप से पकने पर इसका रंग सुनहला पीला हो जाता है. इसका छिलका पतला और मुलायम होता है. इसका गूदा नारंगी रंग का ठोस और रेशा एवं स्पंजी टिशु रहित होता है. इसमें बेहतर शक्कर-अम्लीयता का मिश्रण होता है. इसमें लगभग 19 प्रतिशत ब्रिक्स का टीएसएस होता है. इसमें लगभग 70-75% गूदा होताहै और इसका टिकाऊपन गुणवत्ता बहुत अच्छा है.

अर्का नीलकिरण

आम की इस किस्म को अल्फोंसो व नीलम किस्म से क्रास कर विकसित किया गया है. इसके फल देर में पकते हैं. इस लिए बाज़ार रेट अच्छा मिलता है. इसके फलों की तुड़ाई जून माह के अंतिम सप्‍ताह से शुरू की जाती है. इसके फलों की आकार अंडाकार होता है और फल मध्यम आकार के होते है. फल का औसत वजन लगभग 270-280 ग्राम होता है. इसका डंठल लंबवत होता है. पकने की अवस्था पर इसके फल का रंग सुनहला पीला-भूरा हो जाता है. इसका छिलका मुलायम, मध्यम पतला तथा गूदा गहरे पीले रंगा का और ठोस होता है. यह रेशा एवं स्पंजी टिशु से मुक्त है. 

अर्का सुप्रभात 

इस किस्म को अभी हाल ही में रिलीज किया गया है जो अर्का आम्रपाली (दशहरी x नीलम) और अर्का अनमोल (अल्फांसो x जनार्दन पसंद) के डबल क्रॉस हाइब्रिड तरीके से विकसित किया गया है. बागवान ग्राफ्ट लगाने के चौथे साल से आप एक पेड़ से लगभग 40 किलोग्राम आम की फसल ले सकते हैं. इस किस्म के एक आम का वजन लगभग 250 ग्राम होता है और आम का आकार अल्फांसो जैसा होता है. इस किस्म का गूदा नारंगी और सख्त होता है, स्पंजी नहीं जैसा कि कुछ आमों में देखा जाता है. इसे सामान्य तापमान पर 10 दिनों तक भंडारित किया जा सकता है. यह किस्म प्रसंस्करण के साथ-साथ फल के रूप में उपयोग के लिए उपयुक्त.

इसे अगर सघन बागवानी के तहत 5×5 मीटर की दूरी पर  लगाया जाता है तो प्रति एकड़ 160 ग्राफ्ट लगाए जा सकते हैं. अर्का सुप्रभात आम में 70% तक गूदा होता है. जबकि 100 ग्राम गूदे में 8.35 मिलीग्राम कैरोटीनॉयड और 9.91 मिलीग्राम फ्लेवोनोइड होता है. 

सिन्धु

इस किस्म को रत्ना व अल्फांसो किस्मों के संकरण यानी क्रास से तैयार किया गया है. यह नियमित फलन देने वाली प्रजाति है. सिन्धु के फलों में गुठली बहुत पतली व छोटी होती है. इसके फल आकर्षक, मध्यम आकार के व रेशारहित होते हैं.

रत्ना

इस किस्म को नीलम व अल्फांसो के संकरण से तैयार किया गया है. यह नियमित फलन देने वाली प्रजाति है. इसके फल आकर्षक. स्पंजी व रेशारहित होते हैं. उपरोक्त आम की नवीन संकर किस्में नियमित फलन देने वाली तथा मध्यम सघन बागवानी के लिये उपयुक्त पाई गयी हैं. संकर आम के पौधे तीन वर्ष बाद फल देना शुरू कर देते हैं और तीसरे वर्ष में 5-6 फल मिल जाते हैं. इन प्रजातियों से 6-7 वर्ष बाद व्यावसायिक उत्पादन मिलना शुरू हो जाता है. दस वर्ष बाद 300 से 400 फल प्रतिवृक्ष मिलने शुरू हो जाते हैं.

सेंसेशन

‘सेंसेशन’ आम देर से पकने वाली आम की किस्म है. जिसकी खोज दक्षिण फ्लोरिडा में हुई थी लेकिन अब इसे दुनियां के कई देशों में  व्यावसायिक पैमाने पर उगाया जाने लगा है.  आम की यह प्रजाति बौनी और रंगीन किस्मों में सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली किस्मों में से एक है. जिसके फलों आकार अंडाकार  होता है

इस आम के विशिष्ट विशेषता यह है की इसके छिलके  का रंग हल्जोके गुलाबी और लाल रंग का होता है जो पकने पर गहरे बेर जैसा लाल दिखता है. इसके गूगूदे का रंग हल्का पीला होता है. जिसमें बहुत महीन रेशे होते हैं और स्वाद हल्की सुगंध के साथ हल्का मीठा होता है. यह जुलाई के अंत से सितंबर तक पकती है, इसी लिए इसे यह देर से पकने वाली किस्मों में शामिल किया गया.

टॉमी एटकिन्स 

आम की यह कम मीठी होने के चलते डायबिटीज के की समस्आया से जूझ रहे लोगों में काफी लोक प्रिय है. टॉमी एटकिन्स एक अमरीकी प्रजाति है जिसे फ्लोरिडा में खोजा गया था. जिसे भारत में आसानी से उगाया जा रहा है. इसके फलों के रंग और वजन की बात करें तो यह सुर्ख लाल रंग का देखने में सेब की तरह होता है जो वजन में भी दूसरी रंगीन किस्मों की अपेक्षा अधिक होता है. इसके फल 100 रुपया प्रति पीस के हिसाब से बिकते हैं. इसके वृक्ष बौनी किस्मों में आते हैं इस लिए इसे सघन बागवानी के तहत रोपा जा सकता है. आम की इस किस्म को तुड़ाई के बाद लगभग दस दिनों तक सामान्य तापमान परभंडारित किया जा सकता है.

टॉमी एटकिंस आम विटामिन सी और विटामिन ए का एक बड़ा स्रोत होने के साथ-साथ फाइबर का भी अच्छा स्रोत हैं. इनमें फोलेट, विटामिन बी6 और पोटेशियम, कैल्शियम और आयरन जैसे खनिज भी होते हैं. अधिकांश आमों की तरह, टॉमी एटकिंस आम में एंजाइम होते हैं जो पाचन के लिए फायदेमंद होते हैं.

आम की अन्य व्यावसायिक किस्में

गवरजीत

अलग तरह के मिठास और सुगंध के लिए पूरी दुनियां में विख्यात उत्तर  प्रदेश  के पूर्वी जिलों  में  उगाया जाने वाला गवरजीत आम जो भी एक बार खाता है वह इसका मुरीद ही हो जाता है.  आम की यह प्रजाति सबसे पहले बाज़ार में पक कर आ जाती है. यानी यह आम की अर्ली प्रजाति का है. इसकी आवक दशहरी के पहले शुरू होती है. जब तक डाल की दशहरी आती है तब तक यह खत्म हो जाता हैयह आम देखने में देशी आम के साइज की होती है लेकिन इसका रेट दशहरी से 3 गुना ज्यादा होता है. पूर्वांचल के बस्ती जिले से प्रसारित  हुआ यह आम आज पूरे पूर्मेंवांचल में अपनी महक बिखेर रहा है. 

गवरजीत आम की एक खासियत यह भी है की  इसे कार्बाइड से नहीं पकाया जाता है. ठेले पर आम पत्तों के साथ नजर आता है जिससे उसकी अलग पहचान होती है. अपने स्वाद और क्वालिटी के चलते गवरजीत आम की दूसरी किस्मों से महंगा भी होता है.

पूर्वांचल के गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती और संतकबीरनगर जिलों के लाखों लोगों को आम के सीजन में इसका इंतजार रहता है.

जरदालू 

आम  की यह बिहार की एक प्रसिद्ध किस्म है ऐसा माना जाता है कि इसकी उत्पति बिहार के भागलपुर जिले में हुई है. भागलपुर एवं इसके आस-पास के क्षेत्रों में इसकी बागवानी बड़े पैमाने पर की जाती है. फल की उच्च गुणवत्ता के कारण यह किस्म भी पड़ोसी राज्यों में भी लोकप्रिय एवं विख्यात है.

इसके वृक्ष बड़े एवं वृक्षों के छत्रक का फैलाव सामान्य थोड़ा अधिक होता है. यह एक अगेती किस्म है. वृक्षों में मंजर जनवरी के अंतिम सप्ताह में निकलना शुरू होता है एवं 20-25 फरवरी तक निकलते रहते हैं. जून के प्रथम सप्ताह में फल पकने लगते हैं। इसके फल काफी बड़े एवं स्वादिष्ट होते है.  फल मध्यम आकार से थोड़े बड़े, लम्बाकार (साधारणतया 10.6 सें.मी. लम्बे एवं 6.6 सें.मी. चौड़े या मोटे) होते हैं. ओसतन एक फल 205-210 ग्राम वजन का होता है. फल का ऊपरी भाग चौड़ा तथा नीचला भाग पतला एवं गोलाकार होता है. फल की सतह चिकना तथा बराबर होता है. छिलका थोड़ा मोटा होता है. फलों का रंग पकने पर पीला-नांरगी होता है तथा गूदे में मनमोहक सुगंध होती है. फल में गूदा की मात्रा लगभग 67 प्रतिशत होती है. गूदा मुलायम, रेशारहित, लालीमा लिए पीला होता है. कुल घुलनशील तत्वों की मात्रा 21 प्रतिशत तथा अम्ल की मात्रा 0.23 प्रतिशत होती है. गुठली पतली होती है.  गूदा हल्के लाल रंग का और मीठा होता है। गूदा में रेशा नहीं होता है.

फलन काफी अधिक होती है। एक वृक्ष से औसतन 1500-2000 फल मिलते हैं जो वजन में 2.5 से 3.0 क्विंटल तक हो सकते हैं. एक हेक्टेयर के बगीचे से 20-25 टन की उपज मिलती है. फलों की भण्डारण क्षमता अन्य किस्मों की तुलना में थोड़ी बेहतर होती है. पके फल कमरे के तापक्रम पर 3-4 दिनों तक भंडारित किए जा सकते हैं. इस किस्म में भी द्विवर्षीय फलन की समस्या है.

अल्फांसो

यह महाराष्ट्र राज्य की प्रमुख व्यावसायिक किस्म और देश की सबसे पसंदीदा किस्मों में से एक है. इस किस्म को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है. बादामी, गुंडू, खादर, अप्पस, हप्पस और कागदी हप्पस। इस किस्म का फल मध्यम आकार का, अंडाकार तिरछा और नारंगी पीले रंग का होता है. फल की गुणवत्ता उत्तम है तथा रख-रखाव भी अच्छा होता है। इसे डिब्बाबंदी के उद्देश्य से अच्छा पाया गया है. इसे मुख्य रूप से दूसरे देशों में ताजे फल के रूप में निर्यात किया जाता है। यह मध्य ऋतु की किस्म है.इसके फलों का औसत वजन लगभग 250 तक होता है. 

बंगनापल्ली

यह दक्षिण भारत की जल्दी पकने वाली एक मुख्य किस्म है. यह आंध्र प्रदेश की मुख्य व्यवसायिक प्रजातियों में से एक है. इसके फल मध्यम से बड़े आकार के होते हैं जिनका औसत वजन 350 से लेकर 400 ग्रा. के बीच होता है. फलों का गूदा सख्त, रेशा विहीन, पीले रंग का एवं बहुत मीठा होता है. फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती है.

बाम्बे ग्रीन 

यह उत्तर भारत की जल्दी पकने वाली एक मुख्य व्यावसायिक किस्म है. इसके फल मध्यम आकार के होते हैं जिनका औसत भार लगभग 250 ग्रा. होता है. फलों का स्वाद रुचिकर, गूदा मुलायम एवं मीठा होता है.

चौसा 

यह देर से पकने वाली किस्म जो जुलाई के अंत में तैयार होती है. यह मुख्यतः उत्तर भारतीय राज्यों में लोकप्रिय है. इसके फलों का वजन 300-350 ग्रा के बीच होता है. गूदा आकर्षक पीले रंग का, मुलायम एवं मीठा होता है. 

दशहरी 

यह उत्तर भारत एवं विशेषकर उत्तर प्रदेश राज्य की मुख्य व्यवसायिक प्रजाति है. इसके फल जून में पकते हैं. फलों का आकार मध्यम एवं वजन 250-350 ग्रा. के बीच होता है. फलों का गूदा सख्त, रेशाविहीन मीठा एवं उत्कृष्ट स्वाद का होता है. बीज छोटा एवं पतला होता है. इसकी भण्डारण क्षमता अच्छी होती है. अनियमित फलन इसकी व्यवसायिक खेती में मुख्य समस्या है.

फजली

यह प्रजाति बिहार एवं पश्चिम बंगाल में बहुत लोकप्रिय है. यह एक देर से पकने वाली प्रजाति है. फल बड़े आकार के होते हैं. फलों का गूदा मुलायम से लेकर दृढ होता है. गूदा रेशा विहीन एवं उत्कृष्ट स्वाद वाला होता है इसकी भंडारण क्षमता अच्छी होती है.

गुलाब खास 

यह बिहार की प्रजाति है. यह मध्य में तैयार होने वाली और अधिक फल देने वाली किस्म है. फलों का आकार छोटा से लेकर मध्यम होता है जिनमें उत्कृष्ट सुगंध होती है. फल आकर्षक एवं गुलाबी धब्बों से युक्त होते है.

हिमसागर 

यह नियमित फलन देने वाली किस्म पश्चिम बंगाल राज्य में बहुत लोकप्रिय है. फलों का आकार मध्यम एवं गुणवत्ता बहुत अच्छी होती है. गूदा ठोस, पीले रंग का, रेशा विहीन एवं सुभावने स्वाद वाला होता है. इसकी भण्डारण क्षमता अच्छी होती है.

केसर

यह गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र की परंपरागत किस्म है. इसके फल मध्यम आकार के, गूदा रेशा विहीन एवं मीठा होता है. इसके फलों में मिठास और अम्ल अनुपात उच्च कोटि का होता है. पकने पर फलों का रंग आकर्षक पीला एवं लालिमा युक्त होता है. यह प्रोसेसिंग हेतु उपयुक्त किस्म है.

किशन भोग 

यह पश्चिम बंगाल की माय मौसम में पकने वाली एक मुख्य प्रजाति है. फलों का आकार मध्यम से लेकर बड़ा एवं गुणवत्ता अच्छी होती है. गूदा दृढ़, रेशा युक्त एवं स्वाद युक्त होता है. फलों में हल्की तारपीन जैसी सुगंध पाई जाती है.

लंगड़ा 

यह उत्तर भारत की एक प्रमुख व्यवसायिक किस्म है. यह मध्यम देर से पकने वाली प्रजात्ति है. इसके फलों का औसत भार 250-300 ग्रा. होता है. गूदा ठोस, पीले रंग का एवं बहुत कम रेशे वाला होता है. इसके फलों में तारपीन के तेल जैसी हल्की सुगंध इसका एक विशिष्ट लक्षण है. अनियमित फलन इसकी व्यवसायिक खेती में मुख्य समस्या है. 

मजकुराद 

यह गोवा राज्य की लोकप्रिय प्रजाति है. इसके फल मध्यम ऋतु में पकते हैं. फलों का आकार मध्यम एवं छिलके का रंग आकर्षक पीला होता है. गूदा ठोस, पीले रंग का एवं रेशा विहीन होता है. इसकी भंडारण क्षमता अच्छी होती है.

नीलम 

यह दक्षिण भारत की नियमित फल देने वाली, अधिक उत्पादक एवं देर से पकने वाली प्रजाति है. फलों का आकार मध्यम एवं स्वाद अच्छा होता है. गूदा मुलायम्, पीले रंग का एवं रेशा विहीन होता है.

पायरी 

यह किस्म महाराष्ट्र एंव गोवा के तटीय क्षेत्रों में ज्यादा पाई जाती है. यह जल्दी पकने वाली, नियमित एंव अधिक फल देने वाली किस्म है. फलों का आकार मध्यम एवं अच्छा होता है. इसमें शर्करा अम्ल का अनुपात अच्छा होता है. गूदा मुलायम एवं रेशा विहीन होता है परंतु भण्डारण क्षमता अच्छी नहीं होती है.

तोतापुरी

यह दक्षिण भारत में प्रसंस्करण के लिए व्यापक रूप से उगाई जाने वाली प्रजाति है. यह नियमित फल देने वाली और अधिक उत्पादक किस्म है. फलों का आकार मध्यम से बड़ा होता है एवं शिरानाल (साइनस) स्पष्ट रूप से उभरा हुआ होता है. फलों की गुणवत्ता मध्यम एवं स्वाद थोड़ा अलग हटकर होता है. गूदा आकर्षक पीले रंग का एवं रेशा विहीन होता है. इस फल के गूदे से गर्मियों में मैंगो शेक बनाया जाता है.

किसान ऊपर बताई गई सभी किस्मों को नकदी फसल के रूप में अपने बागों में रोप सकते हैं. आम के पौधों के रोपण के लिए किसानो को अप्रैल से मई महीने में गड्ढे तैयार कर लेने चाहिए और पौधों की रोपाई तैयार गड्ढों में मानसून की एक दो बारिश के बाद ही करनी चाहिए. किसान अगर उपरोक्त उन्नत किस्मो को बागवानी के लिए चुनते हैं तो यह ज्यादा मुनाफा देने वाली होती है. 

आम की फसल सुरक्षा

आम भारत का राष्ट्रीय फल है और प्रमुख फसल भी. भारत में साल 2021-22 में 2,313 हजार हेक्टेयर में 22,353 हजार टन का उत्पादन हुआ. भारत में आम उगाने वाले क्षेत्रों में सर्वाधिक क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश में है, किंतु सर्वाधिक उत्पादन आंध्र प्रदेश में होता है.

आम से अच्छी पैदावार लेने के लिए फसल की सुरक्षा भी जरूरी है. कई बार आम की फसल में अनेक कीट व रोग लग जाते हैं, जिन से फसल उत्पादन पर बूरा असर पड़ता है. जरूरी है कि समय रहते कीट व रोगों को पहचान लें और उन की रोकथाम करें.

आम के प्रमुख कीट

कड़ी कीट या गुजिया

इस के अर्भक भूरे रंग के होते हैं. दिसंबरजनवरी में शिशु निकलते हैं, जो पेड़ों के ऊपर धीरेधीरे रेंग कर चढ़ते हैं.

शिशु कीट और प्रौढ़ मादा कोमल शाखाओं व वृंतों से बौर वाली टहनियों पर भारी मात्रा में जमा हो जाते हैं और उन का रस चूसते हैं. परिणामस्वरूप फूल सूख कर झड़ कर गिर जाते हैं और उन के फलों की संख्या कम हो जाती है. उन के डंठल इतने कमजोर हो जाते हैं कि हवा के हलके झोंकों में ही वे जमीन पर गिर जाते हैं तथा उन के द्वारा उत्सर्जित चिपचिपे पदार्थ का विसर्जन करते हैं, जिस पर काली फफूंद उग जाती है. अधिक प्रकोप में फल गिर जाते हैं.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए मईजून माह में बाग की गहरी खुताई करनी चाहिए, ताकि अंडे ऊपर आ कर तेज धूप से नष्ट हो जाएं.

* दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक थालों की गुड़ाई करा कर बेवेरिया बैसियाना या फेनवैलेरेट 10 प्रतिशत ईसी 0.5 मिलीलिटर पानी में मिला कर मिट्टी में मिला देते हैं. क्लोरपाइरिफास चूर्ण 1.5 प्रतिशत से 250 ग्राम प्रति थाले के हिसाब से मिट्टी में मिला देना चाहिए.

* दिसंबर के अंतिम सप्ताह तक वृक्ष के मुख्य तने पर लगभग 1/2 मीटर की ऊंचाई पर 25-30 सैंटीमीटर 300-400 गेज की पौलीथिन शीट को पतली सुतली से बांध कर दोनों सिरों को चिकनी मिट्टी या ग्रीस से लेप देना चाहिए.

* पेड़ों की मुलायम पत्तियों, टहनियों और पुष्पक्रम पर चिपकी हुई चूर्णी बग को एल्फासाइपर मेथ्रिन 10 प्रतिशत 0.25 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी या मेटासिस्टौक्स के 0-025 प्रतिशत या रोगर के 0-04 प्रतिशत या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 0.5 मिलीलिटर प्रति लिटर घोल के छिड़काव द्वारा नष्ट किया जा सकता है.

भुनगा अथवा लस्सी कीट

इस कीट के व्यस्क व शिशु (भुनके) कोमल शाखाओं, पत्तियों एवं पुष्पक्रमों से रस चूसते हैं. निरंतर रस चूसे जाने के कारण प्रभावित हिस्से सूखने लगते हैं. ये फलों के मुलायम वृंत से भी रस चूसते हैं, जिस से फल गिर जाते हैं.

इस के द्वारा उत्सर्जित मधु लैस पदार्थ पर काली फफूंदी (सूटीमेल्ड) उग जाती है, जिस से पत्तियों की प्रकाश संश्लेष्ण की क्रिया अवरुद्ध हो जाती है.

इस कीट की मादा बौर वाली शाखाओं व फूलों में बड़ी संख्या में अंडे देती है, जिस से तंतुओं को भारी क्षति पहुंचती हैं. ये नमी वाले और छायादार स्थान पसंद करते हैं. घने बागों में ज्यादा प्रकोप होता है और जिन में पानी ज्यादा भरा होता है. यदि इन के प्रकोप के समय बादल रहते हैं और पुरवाई हवा चलती है, तो इस कीट का प्रकोप अधिक होता है. कीट का प्रकोप बौर निकलते ही जनवरी फरवरी माह में प्रारंभ हो जाता है.

रोकथाम

* बाग ज्यादा घना नहीं लगाना चाहिए. बाग को साफ रखना चाहिए और उस में पानी नहीं रुकने देना चाहिए.

* पुराने घने पेड़ों की बौर आने से पहले कटाई व छंटाई कर दें.

* इस कीट नियंत्रण हेतु कीटनाशकी इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 0.5 मिलीलिटर प्रति लिटर या डाइमेथोएट 30 ईसी दर 1-6 से 2-0 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में या बाईफेन्थ्रीन 0.005 प्रतिशत या थायामेथोजाम 0.008 प्रतिशत की दर 2-0 मिलीलिटर की दर से करना चाहिए. यदि आवश्यकता हो तो फल बड़े होने पर अल्फासाइवमेथ्रिन का छिड़काव करें.

तना बेधक (बैटोसेरा रुफोमैक्यूलाटा)

इस कीट की इल्लियां पेड़ों व तनों व शाखाओं में छाल के नीचे वाली लकड़ी में सुरंग बना कर उस को अंदर ही अंदर खाती हैं.

इस कीट के डिंभक तने में कई वर्ष तक बने रहते हैं और इस बीच पेड़ों के तनों व शाखाओं में लंबी सुरंगें बना लेते हैं. ये सुरंगें कीट के मल, पेड़ की छाल व लकड़ी के छोटेछोटे टुकड़ों से भरी रहती हैं.

इस के प्रकोप से पेड़ की शाखाएं व तने कमजोर हो जाते हैं और आसानी से टूट जाते हैं. प्रौढ़ कीट पेड़ की पत्तियों, छाल व कभीकभी फल को भी खाते हैं.

रोकथाम

* प्रौढ़ कीट अधिकांशत: प्रकाश की तरफ आकर्षित होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकाश ट्रैप में फंसा कर नष्ट किया जा सकता है.

* कीट ग्रसित शाखाओं को काट कर जलाने के काम में लाया जा सकता है.

* कीट द्वारा तनों व शाखाओं में बनाए गए छिद्रों में मिट्टी का तेल या पैट्रोल या एक गोली फास्टाक्सिल या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 0.5 मिलीलिटर प्रति लिटर या डीवीपी का घोल तने में किए गए छिद्र में डाल कर छेद को गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहिए.

फल भेदक मक्खी

ये पीले भूरे रंग की मक्खी होती हैं. मादा मक्खी अपने कडे़ अंडनिक्षेप से पकने वालों फलों की छाल के नीचे सिंगार के आकार के जूनजुलाई के महीने में सफेद अंडे देती हैं.

एक मक्खी 150 से 200 तक अंडे देती हैं. अंडे 2-3 के बाद फूटने पर इन से छोटेछोटे मैगट (सूंड़ी) निकलते हैं जो आम के गूदे को खाते हैं, जिस के परिणामस्वरूप फल सड़ कर गिर जाते हैं. वहां ये भूरे रंग के प्यूपा में परिवर्तित हो जाते हैं.

सर्दियों में प्यूपा शीतनिष्क्त्रयता तक निष्क्त्रय अवस्था में रहते हैं. यहां वे प्रौढ़ मक्खी बन कर अन्य फलों को ग्रसित करते हैं. इस कीट का प्रकोप पतली त्वचा व देर से पकने वाले फलों पर अधिक होता है.

रोकथाम

* आम के बाग में साफसफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए.

* पेड़ के आसपास पड़े ग्रसित फलों को जला देना चाहिए या एकत्रित कर के जमीन में एक मीटर की गहराई में दबा देना चाहिए.

* सर्दियों में बाग को मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर मिट्टी को पलट देना चाहिए. इस से कीट की प्यूपा अवस्था नष्ट हो जाती है.

* प्रौढ़ मक्खी को चारा प्रलोभन (कार्बोरिल 4 ग्राम प्रति लिटर पानी में व 0-1 प्रतिशत प्रोटीन हाइर्ड्रोजाइलेट अथवा शीरे के घोल का छिड़काव) से आकर्षित कर के नष्ट कर देते हैं.

* प्रौढ़ नर मक्खी को मिथाइल यूजिनोल 0-1 प्रतिशत मैलाथियान 0-1 प्रतिशत व एल्कोहल से बने ट्रैप को बागों में पेड़ पर लटकाएं, जिस से नर मक्खी ट्रैप में आक्रर्षित हो कर मर जाती हैं.

शाखा बेधक कीट

इस कीट की इल्लियां मुलायम पत्तियों की मध्य शिरा के अंदर छेद कर के घुस जाती हैं. उस के बाद मध्य शिरा से निकल कर मुलायम टहनियों के अग्रभाग से यह कीट अधिक हानि पहुंचाता है तथा इस का प्रकोप मार्चअप्रैल तथा अगस्त से अक्तूबर माह तक अधिक रहती है.

जब ये इल्लियां पूर्ण विकसित हो जाती हैं तो टहनियों से बाहर आ कर पेड़ों की छाल के नीचे, विकृत बौर या जमीन मे दरारों के अंदर प्यूपा अवस्था में परिवर्तित हो जाती हैं. क्षतिग्रस्त टहनियों की पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं. पेड़ों पर बौर कम आता है और फल बहुत कम बनते हैं. इस प्रकार यह आम का बहुत हानिकारक कीट है.

रोकथाम

* नीम उत्पादित कीट विष जैसे 5 प्रतिशत एनएसकेई का प्रयोग करें.

* प्रमुख कीटनाशियों को प्रभावित प्ररोह व नई शाखाओं 15 दिन के अंतराल पर 3-4 बार छिड़काव 700 लिटर पानी में घोल कर करें.

* क्लोरपाइरिफास के 0-2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें.

* अधिक प्रकोप होने पर पेड़ों पर अगस्त से 2-3 बार लैंसर गोल्ड 0.75 ग्राम या एसिफेट 75 प्रतिशत डब्लूपी का छिड़काव करना चाहिए.

गुठली बेधक घुन

इस कीट के प्रौढ़ व ग्रब दोनों फलों को क्षति पहुंचाते हैं. ग्रब गूदे से होते हुए गुठली तक चले जाते हैं. पहले ये गुठली की बाह्य भित्ति को खाते हैं और बाद में अंदर घुस कर बीजपत्रों को नष्ट करते हैं. बाद में प्रौढ़ कीट पके हुए फलों से बाहर निकल आते हैं. इस कारण गुठली में सड़न पैदा हो जाती है. बीजपत्र काले हो जाते हैं और इस प्रकार की गुठली जमती नहीं हैं.

जुलाईअगस्त के बाद प्रौढ़ घुन पेड़ों की छाल के नीचे सुघुप्तावस्था में चले जाते हैं जो अगले साल फल आने के मौसम में दोबारा सक्रिय हो जाते हैं. इस प्रकार इस कीट की एक पीढ़ी ही पाई जाती है.

रोकथाम

* क्षतिग्रस्त फलों को पकने से पूर्व ही तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* बाग में पेड़ों पर अगर ढीली छाल हो तो उसे नष्ट कर देना चाहिए.

* बाग मे पूर्ण सफाई रखनी चाहिए.

आम के प्रमुख रोगों का प्रबंधन

चूर्णिल आसिता

उष्ण, नम वातावरण और ठंडी रातों में इस रोग की उग्रता बढ़ जाती है. मंजरियों और नई पत्तियों पर सफेद या घूसर चूर्णिल वृद्धि दिखलाई पड़ती है.

रोग का संक्रमण मंजरियों की शिखा से प्रारंभ हो कर नीचे की ओर पुष्प अक्ष, नई पत्तियों और पतली शाखाओं पर फैल जाता है. इस से प्रभावित भागों की वृद्धि रुक जाती है. पुष्प और पत्तियां गिर जाती हैं. यदि संक्रमण के पूर्व फल लग गए हों तो वे अपरिपक्व अवस्था में ही गिर जाते हैं.

प्रबंधन

* रोकथाम के लिए 0.05 से 0.1 प्रतिशत कैराथेन/ 0.1 प्रतिशत बाविस्टिन/0.1 प्रतिशत बेनोमिल/कैलेक्जीन 0.1 प्रतिशत का छिड़काव करना उपयोगी है.

* घुलनशील गंधक (0.2 प्रतिशत) नामक कवकनाशक दवाओं का घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

श्याम वर्ण या एंथ्रेकनोज

पेड़ों की कोमल टहनियों, फलों और फूलों पर इस रोग को देखा जा सकता है. पत्तियों पर भूरे या काले, गोल या अनियमिताकार धब्बे पाए जाते हैं. परिणामस्वरूप पत्तियों की वृद्धि रुक जाती है और ये सिकुड़ जाती हैं. कभीकभी रोगग्रस्त ऊतक सूख कर गिर जाते हैं, जिस से पत्तियों में छिद्र दिखाई पड़ते हैं.

उग्र संक्रमण में रोगी पत्तियां गिर जाती हैं. कच्चे फलों पर काले धब्बे बनते हैं. धब्बे दाग के नीचे का गूदा सख्त हो कर फट जाता है और फल अंत में गिर जाते हैं. यह रोग मंजरी, अंगमारी तथा फल सड़न के रूप में भी प्रकट होता है.

प्रबंधन

* रोगी टहनियों की छंटाई कर उन्हें गिरी हुई पत्तियों के साथ जला देना चाहिए.

* रोकथाम के लिए रोगी पेड़ों पर 0.2 प्रतिशत ब्लाइटाक्स-50, फाइटलोन या बोर्डो मिश्रण (0.8 प्रतिशत) नामक दवाओं के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

* भंडारण से पूर्व फल को 0.05 प्रतिशत करबेन्डाजीन के घोल में डुबा कर भंडारित करें.

काली फफूंदी या सूटी मोल्ड

यह आम पर आक्रमण करने वाले कीटों से संबंधित हैं. ये कीट पेड़ की पत्तियों एवं हरी टहनियों पर मीठा स्राव छोड़ता है. इस स्राव पर कज्जली फफूंद बड़ी तेजी से वृद्धि करता है तथा कवक काले रंग के असंख्य बीजाणु बनाता है.

इस काली वृद्धि के कारण पत्तियां, मंजर और टहनियां काली एवं भद्दी दिखती हैं. पौधा/पेड़ भोजन बनाने में असमर्थ हो जाता है. पत्तियां कमजोर हो कर गिर जाती हैं.

प्रबंधन

* स्केल कीट गुजिया तथा भुनका कीटों की रोकथाम उचित कीटनाशक से करने पर उन से विसर्जित मधुद्रव्य के अभाव में फफूंद भी पनप पाती है.

* इलोसाल (900 ग्राम प्रति 450 लिटर पानी) का 10-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव अत्यंत लाभदायी है.

* इस के अतिरिक्त वेटासुल (विलनशील गंधक), मेटासिड (मेथाइल पैराथियान), गोंद (0.2 प्रतिशत -0.1 प्रतिशत – 0.3 प्रतिशत) छिड़काव लाभदायक होगा.

पर्ण अंगमारी

यह रोग आम की पूरी पत्तियों पर अकसर देखा गया है. पत्तियों पर गोल, हलके भूरे धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं. ये धब्बे अंडाकार या अनिश्चित आकार के तथा गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं. इन की परिधि चौड़ी, कुछ उठी हुई और गहरे बैगनी रंग की होती है. पुराने धब्बों का रंग राख के समान हो जाता है.

प्रबंधन

* निवेश द्रव्य को कम करने हेतु रोगी पत्तियों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए. श्याम वर्ण रोग की रोकथाम हेतु प्रयुक्त कवकनाशी इस रोग में भी लाभकारी होते हैं.

* बेनोमिल (0.2 प्रतिशत) या कौपर औक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का छिड़का करना उपयोगी होगा.

शीर्ष मरण

इसे उलटा सूखा रोग या शीर्ष मरण रोग कहते हैं, जिस का रोग कारक बाट्रीयोडिप्लोडिया थियोब्रोमी नामक फफूंद है. यह रोग वर्षभर कभी भी देखा जा सकता है किंतु स्पष्ट रूप से इसे अक्तूबर और नवंबर माह में देखा जा सकता है.

इस में सर्वप्रथम पत्तियों पर अनियमित आकार के गहरे धब्बे बनते हैं, जिस की वजह से पत्तियां पीली हो कर गिर जाती हैं तथा टहनी नंगी हो कर ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है. इस रोग के कारण कभी पीले रंग का गाढ़ा स्राव भी निकलते देखा गया है.

प्रबंधन

* टहनी जहां तक सूख गई है उस के 10 सैंटीमीटर नीचे से पेड़ के स्वस्थ भाग के साथ काट कर अलग करने के पश्चात कौपर औक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करते हैं.

* वर्ष में 2 बार बोर्डो पेस्ट मुख्य तने पर लगाएं.

* ऐसे बाग जहां पर प्रकोप अधिक व बारबार होता हो वहां नेप्थलीन एसिटिक एसिड (एनएएन) (200 पीपीएम 900 मिलीलिटर दवा प्रति 200 लिटर पानी) का छिड़काव अक्तूबरनवंबर में करना चाहिए.

बैक्टीरियल कैंकर

यह रोग जल सिक्त काला धब्बा पत्तियों, पर्णवृत और फलों पर देखे जाते हैं. फलों में फटने के लक्षण भी दिखाई देते हैं. पहले संक्रमित सतह पर जलसिक्त धब्बे बनते हैं जो बाद में उभरे से कैंकर बन जाते हैं.

छोटेछोटे जलसिक्त अनियमित कोणिक उभरे हुए 1-4 मिलीमीटर के धब्बे पत्तियों पर बनते हैं, जो अनियमिताकार में हो कर गहरे भूरे कैंकर में परिवर्तित हो जाते हैं. रोग की तीव्रता बढ़ने पर पत्तियां पीली पड़ती हैं और पेड़ से गिर जाती हैं.

प्रबंधन

* बाग की बराबर निगरानी और साफसफाई रखना, संक्रमित फलों, पत्तियों और टहनियों को जला कर नष्ट कर देना चाहिए.

* अधिक प्रकोप होने पर स्ट्रोप्टोमाइक्लीन (300 पीपीएम) और साथ में कौपर औक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का छिड़काव करें.

गुच्छा रोग या कुरचना

इस रोग में पेड़ों की शाखाओं एवं पुष्पक्रमों की बनावट विकृत हो जाती है. नई शाखाएं व पुष्पक्रम गुच्छों के रूप में परिणत हो जाते हैं. शाखा गुच्छा रोग अधिकतर नर्सरी के छोटे पौधों में पाया जाता है, परंतु बड़े पेड़ों पर भी रोग देखा जा सकता है.

पुष्पक्रम गुच्छा रोग में सारे पुष्प गुच्छों का रूप धारण कर लेते हैं. बाद में कभीकभी इन गुच्छों में से छोटीछोटी पत्तियां ठीक तरह से निकल आती हैं. इन गुच्छों में फल नहीं आते हैं. यह व्याधि कई कारणों के सम्मिलित प्रभाव से उत्पन्न होती है. इस दिशा में शोध कार्य जारी है.

प्रबंधन

* रोकथाम के लिए निम्न उपाय करने चाहिए? पौध तैयार हमेशा स्वस्थ पौधों से ही करनी चाहिए. विकृत भागों को काट कर नष्ट कर देना चाहिए. अक्तूबर के महीने में 2 ग्राम अल्फा नेफ्थलीन एसिटिक एसिड प्रति 10 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करने से उपज बढ़ाई जा सकती है.

* सर्वप्रथम निकलने वाले पुष्प गुच्छों को हाथ से तोड़ देना चाहिए. यह काम मंजरियों के या 2 सैंटीमीटर लंबी होने से पूर्व ही करना चाहिए. ऐसा करने से प्ररोह के ऊपर अनेक कक्षस्थ कलिकाएं बढ़ने लगती हैं और वे 2 सप्ताह में मंजरी का रूप ले लेती हैं. ऐसी मंजरियों में फल लगने लगते हैं. समय से पूर्व निकलने वाले फूल को तोड़ कर हटाते रहना चाहिए.

काला सिरा या ऊतक क्षय

यह रोग विषैली गैस के कारण होता है. इसे कोयली या सिरा विगलन रोग से भी जाना जाता है. ईंट के भट्ठों के पास के पेड़ों में अधिकांश फल रोग से प्रभावित होते हैं.

फल के अग्र (कोणीय) सिरे पर काला धब्बा बनता है जो पूरे सिरे को ढक लेता है. बाद में चपटा हो जाता है. ग्रसित त्वचा सख्त एवं कुछ दबी होती है तथा अंदर का ऊतक मीठा हो जाता है.