University : सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय को मिला A ग्रेड

University : सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, मेरठ को राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (NAAC) द्वारा ‘हाल ही मे प्रथम चक्र मे A’ ग्रेड प्रदान किया गया है. यह सम्मान विश्वविद्यालय (University) की उत्कृष्ट शैक्षणिक, अनुसंधान व प्रसार सेवाओं में लगातार उत्कृष्टता और गुणवत्ता सुधार की प्रतिबद्धता का प्रमाण है. इस ए ग्रेड मूल्यांकन के बाद यह विश्वविद्यालय देश के सर्वोच्च रैंकिंग प्राप्त विश्वविद्यालयों की श्रेणी मे आ चुका है.

इस खास मौके पर उत्तर प्रदेश की राज्यपाल व विश्वविद्यालय की कुलाधिपति आनंदीबेन पटेल द्वारा विश्वविद्यालय के कुलपति डा. केके सिंह व उन की टीम को 18 जून, 2025 को राजभवन में आमंत्रित कर प्रशस्ति पत्र प्रदान करते हुए सम्मानित किया गया. इस अवसर पर राज्यपाल ने विश्वविद्यालय द्वारा उच्च शिक्षा, अनुसंधान व किसान सेवा के क्षेत्रों में किए गए कार्यों की प्रशंसा भी की.

उन्होंने कहा कि इस कृषि विश्वविद्यालय ने नवाचार, डिजिटलीकरण, महिला सशक्तिकरण, स्टार्टअप्स को प्रोत्साहन व किसान हितैषी अनुसंधान कार्यों को भविष्य की दिशा के रूप में अपनाने हेतु अच्छा काम किया है. उन्होंने यह भी कहा कि विश्वविद्यालय को अब राष्ट्रीय रैंकिंग प्रणाली (NIRF) एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर की मान्यताओं जैसे क्यू एस वर्ड व एशिया रैंकिगं की ओर आगे बढ़ना चाहिए.

इस अवसर पर कुलपति डा. केके सिंह ने राज्यपाल महोदया को विश्वविद्यालय की शैक्षणिक, शोध एवं विस्तार संबंधी हालिया उपलब्धियों और भावी योजनाओं से अवगत कराया. उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि विश्वविद्यालय आने वाले समय में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और शोध के क्षेत्र में नए मानक स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहेगा.

यह उपलब्धि विश्वविद्यालय के समस्त शिक्षकों, अधिकारियों, कर्मचारियों, छात्रों और पूर्व छात्रों के सामूहिक प्रयासों का परिणाम है, जो उत्तर प्रदेश में कृषि शिक्षा के क्षेत्र में एक नया आयाम स्थापित करेगा.

खरीफ में कैसे लें मक्का (Maize) फसल से अच्छी पैदावार

 

Maize : मक्का की खेती रबी, खरीफ व जायद तीनों मौसम में की जाती है. खरीफ मौसम में मक्का (Maize) की बोआई मानसून की शुरुआत के साथ मई के अंत से जून के महीने तक की जाती है. बसंत ऋतु की फसलें फरवरी के अंत से मार्च के अंत तक बोई जाती हैं. बेबी कौर्न मक्का की बोआई दिसंबर और जनवरी को छोड़ कर पूरे साल की जा सकती है. स्वीट कौर्न की बोआई के लिए खरीफ और रबी सीजन सब से अच्छा है. मक्का से पापकौर्न, कौर्नफ्लेक्स, स्टार्च, एल्कोहल, सतुआ, भूजा, रोटी, भात, दर्रा, घुघनी, आदि अनेक व्यंजन बनाए जाते हैं. इस के डंठल और तना पशुओं को चारे के रूप में खिलाने में उपयोग किया जाता है.

कब करें बोआई

खरीफ मक्का की खेती के लिए बरसात के मौसम की शुरुआत में की जाती है. खरीफ मक्का की 70 फीसदी से अधिक खेती बारिश आधारित स्थिति में उगाई जाती है.

भूमि की तैयारी- मक्का की खेती के लिए जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि सही रहती है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताई कल्टीवेटर या रोटावेटर द्वारा करनी चाहिए.

बोआई का समय – देर से पकने वाली प्रजाति की बोआई मई मध्य से मध्य जून तक पलेवा कर करनी चाहिए. जिस से बारिश होने से पहले खेत में पौधे भलीभांति जम जाएं. जल्दी पकने वाली मक्का की बोआई जून के अंत तक कर ली जानी चाहिए.

बीज की मात्रा और बोआई की विधि – देशी छोटे दाने वाली प्रजाति 16-18 किलोग्राम और संकर प्रजाति के लिए 20-22 किलोग्राम व संकुल के लिए 18-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है.

अगैती किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 20 सैंटीमीटर, मध्यम व देर से पकने वाली प्रजातियों में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 25 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज की 3.5 सैंटीमीटर गहराई रखनी चाहिए. मक्का की बोआई  मेंड़ों पर करें. विरलीकरण द्वारा पौधों की उचित दूरी का भी ध्यान रखें.

खास प्रजातियां – संकर प्रजाति: गंगा-2, गंगा-11, प्रकाश, जे.एच.3459, पूसा अगैती संकर मक्का-2, पूसा अगैती संकर मक्का-3 आदि. इन की उपज क्षमता 40-45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

संकुल प्रजाति: नवज्योति, नवीन, तरुण, श्वेता, आजाद उत्तम, गौरव, कंचन, सूर्या, शक्ति-11 आदि. इन की उपज क्षमता 35-40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

उर्वरकों का प्रयोग : खेत की मिट्टी जांच के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए. देर से पकने वाली संकर व संकुल प्रजातियों के लिए 120:60:60 जल्दी पकने वाली प्रजातियों के लिए 100:60:40 और देशी प्रजातियों के लिए 80:40:40 किलोग्राम नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग करना चाहिए. गोबर की खाद प्रयोग करने पर 25 फीसदी नाइट्रोजन की मात्रा कम कर देना चाहिए. बोआई के समय एक चौथाई नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा कूंड़ों में बीज के नीचे डालना चाहिए. नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा को तीन बार में बराबरबराबर मात्रा में टौपड्रेसिंग के रुप में दें.

पहली टौपड्रेसिंग बोआई के 25-30 दिन बाद (निराई के तुरंत बाद) दूसरी नर मंजरी से आधा पराग गिरने के बाद, तीसरी संकर मक्का में बोआई के 50-60 दिन के बाद और संकुल में 40-45 दिन बाद की जाती है.

जल प्रबंधन : पौधों को शुरुआती दौर और सिल्किंग (मोचा) से दाना पड़ने की अवस्था में पर्याप्त नमी आवश्यक है. सिल्किंग के समय पानी न मिलने पर दाने कम बनते हैं.

विशेषज्ञ ध्यान देने योग्य बातें – फसल में दाने बनते समय चिड़ियों और जानवरों से बचाव बहुत जरूरी है.

कटाई व मड़ाई – खरीफ मक्का की कटाई सितंबरअक्टूबर के महीने में की जाती है. कच्चे भुट्टे भी उपयोग में लाए जाते हैं, जिन का बाजार भाव भी अच्छा मिलता है. फसल पकने पर भुट्टों को ढकने वाली पत्तियां जब 75 फीसदी सूख जाए व पीली पड़ने लगे तब कटाई कर लेनी चाहिए. इस प्रकार की तकनीकी अपना कर मक्का की अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

(लेखक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक, निदेशक प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी भाटपार रानी देवरिया, उ.प्र.)

Leafy Vegetable : पोई की खेती : पत्तेदार पौष्टिक सब्जी

Leafy Vegetable: पोई एक प्रकार का साग है, जो मालाबार स्पिनच के नाम से भी जाना जाता है. पोई को साग, सब्जी या अचार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. पोई में आयरन, कैल्शियम और विटामिन सी जैसे पोषक तत्व होते हैं, जो सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं. इस की वैज्ञानिक खेती के लिए कम तापमान पर सितंबर से जनवरी के बीच रोपाई करना सब से अच्छा होता है.

खेत की मिट्टी और तैयारी – पोई की खेती के लिए दोमट या बलुई मिट्टी अच्छी होती है. जिस का पीएच मान 6.0 से 6.8 तक हो. जैविक और अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी आदर्श मानी जाती है. पोई की रोपाई, खेतों में करने से पहले खेत की अच्छी तरह से जुताई करें और मिट्टी में सड़े गोबर की खाद, नाडेप या वर्मी कंपोस्ट मिलाएं.

खास प्रजातियां – पोई की दो मुख्य स्थानीय प्रजातियां होती हैं लाल पोई और हरी पोई.

लाल पोई – इसे लाल पोई या लाल पालक के नाम से भी जाना जाता है. इस के तने और पत्तियां लाल रंग की होती हैं और यह हरी पोई की तुलना में थोड़ी अधिक कठोर होती है.

हरी पोई – हरी पोई को हरी पालक के नाम से भी जाना जाता है. इस के तने और पत्तियां हरे रंग की होती हैं और यह लाल पोई की तुलना में थोड़ी अधिक नरम होती है. दोनों तरह की पोई पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं.

उन्नतशील प्रजातियां

काशी पोई –2 : यह एक उच्च उपज देने वाली झाड़ीनुमा जीनोटाइप है, जो 63.5 टन प्रति हेक्टेयर की उपज प्रदान करती है. इस की पहली तुड़ाई, रोपाई के 38-40 दिन बाद शुरू होती है और 20-30 दिनों के अंतराल पर 140-150 दिनों तक जारी रहती है.

काशी पोई-3: यह भी एक उच्च उपज देने वाली किस्म है, जो 61.3 टन प्रति हेक्टेयर की उपज प्रदान करती है. इस की पहली तुड़ाई, रोपाई के 40 दिन बाद शुरू होती है और 20-25 दिनों के अंतराल पर 240-250 दिनों तक जारी रहती है. काशी पोई-3 की बोआई, रोपाई से तकरीबन 40 दिन पहले प्लग ट्रे में करनी चाहिए.

बोआई का समय

पोई की बोआई सितंबर से जनवरी माह के बीच करनी चाहिए.

बीज की मात्रा व बोआई

पोई को बीज या कटिंग से उगाया जा सकता है. प्रति हेक्टेयर के लिए 6-8 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. पोई के बीजों को पानी में भिगोकर रखने से अंकुरण में तेजी आती है, यदि कटिंग से उगाते हैं, तो 40 से 50 हजार कटिंग की जरूरत होती है. इस के पौधों को लगाने के लिए, पौधे से पौधे की दूरी कम से कम 15-20 सैंटीमीटर और पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-40 सैंटीमीटर होनी चाहिए.

अगर बीज से बोआई करनी है, तो बीज को 1-2 सैंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए. इस से पौधे को पर्याप्त धूप और हवा मिलेगी और उन की अच्छी तरह से बढ़वार होगी. छोटे पौधों को अधिक जगह चाहिए ताकि, वे अच्छी तरह से बढ़ सकें. अधिक दूरी से पौधे एकदूसरे को छाया नहीं करेंगे और उन्हें पर्याप्त सूर्य प्रकाश मिलेगा. पंक्ति से पंक्ति की दूरी पौधे की वृद्धि के लिए पर्याप्त जगह सुनिश्चित करती है. इस से निराईगुड़ाई और खाद देना भी आसान हो जाता है.

खाद व उर्वरक का प्रयोग

पोई (मालाबार स्पिनच) की खेती में, मिट्टी को स्वस्थ रखने और फसल को पोषक तत्व देने के लिए उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है. आमतौर पर, जैविक खाद, जैसे गोबर की खाद, और रासायनिक उर्वरक (जैसे यूरिया, डीएपी, और पोटाश) का उपयोग किया जाता है.

उर्वरकों के प्रकार और उपयोग:

जैविक खाद

पोई की खेती के लिए 25-30 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत की तैयारी के समय मिलाई जाती है. यह मिट्टी को उपजाऊ बनाता है और पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करता है.

रासायनिक उर्वरक

नाइट्रोजन : यूरिया का उपयोग किया जा सकता है. बोआई के पहले 50 ग्राम यूरिया प्रति गड्ढे में और फिर मई से जुलाई में 80 ग्राम यूरिया प्रति पौधा डाला जा सकता है.

फास्फोरस :  डीएपी (डाई अमोनियम फास्फेट) का उपयोग किया जा सकता है. बोआई के पहले 100 ग्राम डीएपी प्रति गड्ढे में डाला जा सकता है.

पोटाश: म्यूरेट औफ पोटाश का उपयोग किया जा सकता है. बोआई के पहले 80 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश प्रति गड्ढे में डाला जा सकता है.

बीज उपचार : बीज उपचार के लिए राइजोबियम कल्चर का उपयोग किया जा सकता है, जिस से पौधों को नाइट्रोजन प्राप्त करने में मदद मिलती है.

उर्वरक देने का तरीका :

मिट्टी की तैयारी के समय खाद को खेत में मिलाया जाता है. उर्वरक को बीजों के पास या पौधों के पास डाला जाता है, ताकि पौधे को पोषक तत्त्व आसानी से मिल सकें . आवश्यकतानुसार, टौपड्रेसिंग के रूप में उर्वरक को बाद में भी दिया जा सकता है.

सिंचाई : पोई की फसल को 15 दिनों में एक बार पानी देना चाहिए, लेकिन गर्मियों में यह अंतराल 5 से 10 दिन का हो सकता है.

कीटप्रबंधन : जरूरत पड़ने पर जैविक कीटनाशकों का उपयोग करें. नीम औयल का प्रयोग लाभकारी है.

फसल चक्र :

पोई की खेती को अन्य फसलों के साथ फसल चक्र में शामिल करने से मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है.

गमलें में पोई उगाने का तरीका

गमलें या बगीचे में पोई उगाने के लिए गोबर की खाद मिला कर मिट्टी को गमले में भर दें. इस के पौधे की रोपाई के लिए मिट्टी में नमी रहनी चाहिए. पोई को गमले में उगाना आसान है. इस के लिए, गमले में दोमट या बलुई मिट्टी का प्रयोग करें, जिस में गोबर की खाद या कंपोस्ट मिलाया गया हो. सितंबर से जनवरी के बीच रोपाई करें, और नियमित रूप से पानी दें.

गमले को ऐसी जगह रखें जहां उसे धूप मिल सके, लेकिन सीधे धूप से बचाएं.

कटाई : पोई को 2-3 महीने में काटा जा सकता है. पत्तों को धीरेधीरे काट लें और तने को छोड़ दें. उपज 500-600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

लेखक- सेवानिवृत्त प्रोफैसर/वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष हैं. वर्तमान में निदेशक/अध्यक्ष, प्रोफैसर रवि सुमन कृषि एवं ग्रामीण विकास (प्रसार्ड)ट्रस्ट मल्हनी भाटपार रानी देवरिया, उत्तर प्रदेश में कार्यरत.

Millets : मिलेट्स की खेती 

Millets : भारत में सांवा कोदो, कुटकी, रागी, मक्का, बाजरा, ज्वार आदि फसलें पुराने समय से ही उगाई जाती रही हैं. आजकल इसे मोटे अनाज, श्री अन्न या मिलेटस् भी कहते है. मोटा अनाज बहुत पोषक और गुणवत्ता के साथ जलवायु के लिए अनुकूल है और कम पानी में पैदा होने वाली प्रमुख फसलें हैं. 20वीं सदी तक अधिकतर क्षेत्रों में इस की खेती अरहर के साथ मिश्रित रुप से की जाती रही है.

हरित क्रांति के दौर में धीरेधीरे मोटे अनाज की खेती के तरफ से लोगों का रूझान कम होने लगा. ग्रामीण क्षेत्रों में एक कहावत प्रसिद्ध है पूस का रिन्हा, माघ में खाए. अर्थात लाई पूस माह (15 जनवरी) में बनती थी, जो माघ माह (फरवरी )तक खाई जाती थी. ग्रामीण क्षेत्रों में कहावतें प्रसिद्ध हैं – कहावत है जैसा खाओ अन्न, वैसे रहेगा मन. मडुवा मीन, चीना संग दही. कोदो भात दुध संग लही. सब अंनन में मडुवा राजा, जब जब सेको तब तब ताजा. सब अनन में सांवा जेठ, से बसे धाने के हेठ.

मोटे अनाज में सभी तरह के पोषक तत्व मिलते है, इस के खाने से स्वास्थ्य ठीक रहता है, क्योंकि इस में ज्यादा उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती, कीटनाशकों का प्रयोग भी नाममात्र का होता था. जब से धान गेहूं का दौर चला, उर्वरक, पेस्टीसाइड का अंधाधुंध प्रयोग होने लगा. जिस कारण तरह तरह की बीमारियां भी मानव और पशुओं में होने लगी. जमीन से केंचुआ और मेंढकों की संख्या कम हो गई, पंक्षियों में चिल ,कौवै, गौरैयां और गिद्धों की संख्या में कमी आई है. अब हमें श्री अन्न की खेती पर ध्यान देना होगा. इस की खेती विशेष कर खरीफ मौसम में की जाती है.

जमीन की तैयारी और बोआई : मोटे अनाज की खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली दोमट भूमि सही रहती है. भूमि को अच्छी तरह से जोत कर समतल बनाना चाहिए. स्वस्थ और उच्च गुणवत्ता वाले बीजों का चयन करना चाहिए. बीजों को बोआई से पहले उपचारित करना चाहिए ताकि, रोगों और कीटों से बचाव हो सके.

फसल प्रबंधन : उचित मात्रा में खाद और उर्वरकों का उपयोग, समयसमय पर निराईगुड़ाई, और सिंचाई महत्वपूर्ण हैं. श्री अन्न की फसलें ज्यादातर कम पानी में भी अच्छी होती हैं, लेकिन सूखे के समय सिंचाई की आवश्यकता होती है. यह पर्यावरण के अनुकूल फसलें हैं जिन्हें कम पानी और कम उर्वरकों में भी उगाया जा सकता है. मोटे अनाज की खेती में उत्पादन लागत कम लगती है और यह किसानों के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभकारी फसलें हैं.

हालांकि, आजकल मोटे अनाज की काफी मांग है फिर भी किसानों को उन की उपज के लिए उचित बाजार उपलब्ध नहीं हैं और उन्हें अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता. जिस से अनेक किसान चाह कर भी इस की खेती बड़े पैमाने पर नहीं कर रहे हैं.

प्रसंस्करण सुविधाओं की कमी : इन अनाजों के प्रसंस्करण के लिए आधुनिक सुविधाओं की कमी है. इस के लिए प्रसंस्करण यंत्रों की जरूरत है. जो किसानों की पहुंच में नहीं हैं. भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारें मोटे अनाज की खेती को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न योजनाएं और सब्सिडी प्रदान कर रही हैं. किसानों को आधुनिक कृषि तकनीकों के बारे में प्रशिक्षण दिया जा रहा है और विपणन सुविधाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है. फिर भी अभी अनेकों किसानों तक इन सब की पहुंच नहीं है.

पशुओं के लिए लाभकारी : मोटे अनाज का सेवन इंसानों के अलावा पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी बेहद लाभकारी है क्योंकि इस में उच्च मात्रा में फाइबर, प्रोटीन और विटामिन होते हैं. आमतौर पर किसानों का रुझान मुख्य रूप से अपनी दैनिक जरूरतों और पशु चारे के लिए ही मोटे अनाज को उगाने की ओर होता है. इस के विपरीत, अगर सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर श्री अन्न की खरीद सुनिश्चित करें तो इस का रकबा बढ़ सकता है.

बनाए जा रहे हैं विभिन्न व्यंजन : मोटे अनाज से रोटी, चावल, खीर, पूड़ी, बिस्किट, मिठाई, कौर्न फलेक्स, दलिया, नमकीन, टिक्की, मटरी, केक आदि विभिन्न व्यंजन बनाएं जा रहे हैं जो स्वादिष्ट होने के साथसाथ सेहत के लिए भी लाभदायक है. जो लोग मोटे अनाज की प्रोसैसिंग कर रहे हैं, वह अतिरिक्त कमाई भी कर रहे हैं.

Animal Problems : पशुओं की कुछ आम परेशानियां खास इलाज

Animal Problems  : समयसमय पर पशुओं को कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो जाती हैं, जिन को ले कर पशुपालक हर वक्त पशु विशेषज्ञ तक नहीं पहुंच पाते. इसलिए वे पुराने घरेलू तरीकों से इलाज करते हैं. इन से कभी पशुओं को फायदा होता है, कभी नहीं भी होता.

पशुओं की इन्हीं आम समस्याओं को ले कर कई कंपनियां पशुओं के लिए गुणकारी उत्पाद बनाती रहती है, जिन्हें इस्तेमाल कर के पशुपालक अपने पशुओं की अच्छी देखभाल कर सकते हैं.

पशुओं को अकसर होने वाली तकलीफों के इलाज के लिए मेनकाइंड फार्म कंपनी ने अपने कुछ उत्पाद पेश किए हैं. जिन के बारे में पशुपालकों को जानना चाहिए.

पेट व चमड़ी में होने वाले कीड़ों के लिए

* क्या आप का पशु अधिक दानाचारा खाने के बाद भी कम दूध देता है?

* क्या पशु के गोबर में बुलबुले दिखते हैं?

* क्या गोबर पतला, चिकना व बदबूदार है?

* क्या पशु की खाल सूखी, खुरदरी व चमक रहित हो गई है?

इन सभी परेशानियों का कारण है पेट, आंत व त्वचा पर पाए जाने वाले कीड़े. इन के इलाज के लिए अपने पशु को फेंडीकाइंड प्लस दें, जो गोली के रूप में आती है. बड़े पशु को 1 गोली व छोटे पशु को आधी गोली देनी होती है.

फेंडीकाइंड प्लस के फायदे :

यह दवा सभी तरह के कीड़ों से छुटकारा दिलाती है. यह गाभिन पशुओं के लिए भी सुरक्षित है. कंपनी कहती है कि हर 3 से 4 महीने पर फेंडीकाइंड खिलाओ और पेट व चमड़ी के कीड़ों से नजात पाओ.

दुधारू पशुओं के लिए

दुधारू पशुओं में कैल्शियम और फास्फोरस की कमी एक आम समस्या होती है. यही कैल्शियम और फास्फोरस अन्य पोषक तत्त्वों व पानी के साथ मिल कर पशुओं में दूध बनाते हैं. दूध की जितनी ज्यादा मात्रा पशु के शरीर से निकलेगी, उतना ज्यादा कैल्शियम और फास्फोरस शरीर से बाहर निकलेगा. अच्छा खानपान होने के बावजूद पशु के शरीर में कैल्शियम और फास्फोरस की कमी हो जाती है, इसलिए दुधारू पशुओं को कैल्शियम सप्लीमेंट समयसमय पर देते रहना चाहिए.

Animal Problems

कैल्सिमस्ट डी एस के फायदे

* यह दुधारू पशुओं में दूध उत्पादन के कारण होने वाली कैल्शियम और फास्फोरस की कमी को पूरा करता है.

* यह हड्डियों को मजबूत बनाने में सहायक है.

* इस में मौजूद विटामिन डी 3 पशु के शरीर में कैल्शियम और फास्फोरस की मात्रा को बढ़ाता है.

* इस में मौजूद विटामिन बी 12 दूध बढ़ाने में सहायक है और पशु को ताकत देता है.

इस्तेमाल : बड़े पशुओं को 100 मिलीलीटर और छोटे पशुओं को 20-50 मिलीलीटर रोजाना देने से उन का विकास अच्छा होता है.

ज्यादा दूध देने वाले मवेशियों के लिए यह उत्तम कैल्शियम सप्लीमेंट है.

पशु बांझपन

पशुओं में दूध उत्पादन में कमी और बांझपन की समस्या की वजह असंतुलित आहार और दानेचारे में विटामिनों और मिनरल की कमी है. टोटाविट स्ट्रांग मिश्रण इस समस्या का एक आधुनिक और प्रभावशाली हल है.

टोटाविट स्ट्रांग के फायदे

* टोटाविट स्ट्रांग 12 चिलेटेड मिनरलों, 5 विटामिनों व ऐसे अनेक जरूरी तत्त्वों की पूर्ति करता है, जो दूध में फैट की मात्रा में बढ़ोतरी करते हैं.

* टोटाविट स्टांग देने से पशु सही समय पर हीट में आता है और इस से प्रजनन कूवत बढ़ती है.

* टोटाविट स्टांग से पशु की पाचन कूवत और बच्चा पैदा करने की ताकत बढ़ती है.

* यह पशु की रोग प्रतिरोधक कूवत भी बढ़ाता है.

* यह केले के स्वाद में उपलब्ध है.

Pulses Processing : मशीनों से दाल की प्रोसेसिंग बढ़ाएं रोजगार

Pulses Processing : किसान दाल दलने वाली मशीन लगा कर अपना रोजगार भी शुरू कर सकते हैं. वे इस काम की शुरुआत अपने घर में छोटी दाल मिल मशीन लगा कर भी सकते हैं. कई कृषि संस्थानों ने घरेलू छोटी दाल दलने की मशीनें भी बनाई हैं, जो कम पूंजी में ही मिल जाती हैं और मुनाफा पूरा देती हैं.

पूसा संशोधित दाल मिल : इस मशीन से मटर, सोयाबीन, चना, अरहर, उड़द, मूंग वगैरह से दाल तैयार की जाती है. यह मशीन छोटे उद्यमियों के लिए ठीक है. जिस के लिए ज्यादा जगह की भी जरूरत नहीं है.

इस मशीन में 2 हार्सपावर की मोटर लगी होती है, जो बिजली से चलती है. यह मशीन 1 घंटे में तकरीबन 40 से 50 किलोग्राम तक दाल तैयार कर देती है.

यह मशीन कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा नई दिल्ली के कृषि अभियांत्रिकी द्वारा बनाई गई है. अधिक जानकारी के लिए आप वहां संपर्क कर सकते हैं.

Pulses Processing

दाल मिल : दाल मिल के नाम से यह मिनी मशीन कृषि अभियांत्रिकी संस्थान भोपाल द्वारा बनाई गई है. इस मशीन की कार्य कूवत 100 किलोग्राम प्रति घंटा है. मशीन की कीमत तकरीबन 30 हजार रुपए है. मशीन के बारे में अधिक जानकारी के लिए केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान नबी बाग बैरसिया रोड, भोपाल से संपर्क कर सकते हैं.

कोई भी व्यक्ति इस काम को पार्ट टाइम जौब के रूप में भी कर सकता है. किसान दाल को अपनी खुद की पैकिंग में बेच सकते हैं. इस तरह से अपना खुद का रोजगार शुरू कर सकते हैं. आज के समय में यह बहुत ही फायदे का सौदा है. शुरू में दुकानों या खरीदारों से मिलना पड़ेगा, बाद में धीरेधीरे पहचान बनने पर खुद माल उठने लगता है.

अच्छा मुनाफा लेने के लिए फसल के समय ही साबुत दालें खरीदें. उस समय वे कम दामों पर मिलेंगी. फिर धीरेधीरे मांग के हिसाब से उन्हें दल कर बेचते रहें.

Col. Harishchandra Singh : सैनिक से प्रगतिशील किसान तक का सफर

Col. Harishchandra Singh : अंबेडकर नगर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले “कर्नल हरिश्चंद्र सिंह” ने पूर्व प्रधान मंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री के नारे “जय जवान – जय किसान” को हकीकत में बदल कर देश में एक अलग मिसाल कायम की है. खेती के प्रति उन के लगाव और कार्य से प्रभावित हो कर 28 फरवरी, 2021 के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने “मन की बात” कार्यक्रम में कर्नल हरिश्चन्द्र सिंह का उदाहरण पेश किया और बाद में उन्हें दो अवसरों पर आमंत्रित भी किया.

कर्नल हरिश्चंद्र सिंह भारत सरकार द्वारा प्रकाशित “कौफी टेबल बुक” में स्थान पाने वाले उत्तर प्रदेश के पहले किसान है. कर्नल हरिश्चन्द्र सिंह को बचपन से ही खेती में लगाव था और एक सैनिक के साथसाथ सफल किसान के रूप में जिस तरह से वह अपनी मेहनत के बल पर उभरे हैं, वह देश के लिए एक मिसाल है.

पिछले साल नवंबर 2024 में उन्हें “दिल्ली प्रेस” द्वारा लखनऊ में आयोजित राज्य स्तरीय “फार्म एन फूड कृषि अवार्ड” से भी सम्मानित किया गया, जहां उन से “फार्म एन फूड” के प्रतिनिधि ने विस्तार से बातें की और यह जानने की कोशिश भी की कि उन्होंने एक सैनिक से ले कर एक सफल किसान तक का सफर कैसे तय किया ?

Col. Harishchandra Singh

आप अपने बचपन की कुछ बातें और सेना में नौकरी के साथसाथ खेती से कैसे जुड़ाव हुआ और कैसे आप देश के लिए एक मिसाल बन गए, इस बारे में कुछ बताइए ?

मैं अयोध्या क्षेत्र के एक छोटे से गांव “चक्रसेन पुर” का मूल निवासी हूं. लेकिन अब लखनऊ में रह रहा हूं. मेरे पिता अध्यापक होने के साथसाथ एक बहुत अच्छे किसान और बागवान भी थे. स्कूल के दिनों में स्कूल जाने से पहले और आने के बाद, हमें खेती में कुछ न कुछ काम करना पड़ता था. घर में कुछ पशु भी थे उन की भी देखभाल करनी पड़ती थी. इस दौरान देश में हरित क्रांति की भी शुरूआत हो चुकी थी. हमारे सरकारी मिडिल स्कूल में एक बड़ा कृषि फार्म, ट्यूबेल और खेती के लिए दो जोड़ी बैल थे. उस समय प्रतिदिन कृषि के दो पीरियड होते थे, जिस में कृषि अध्यापक क्लास के बच्चों से प्रायोगिक खेती भी करवाते थे. यहीं से कृषि एवं बागबानी में मुझे रूचि पैदा हुई.

फिर ग्रेजुएशन के बाद मेरा भारतीय सेना में सैन्य अधिकारी के पद पर चयन हो गया. फिर खेतीबारी बहुत पीछे छूट सी गई, लेकिन सैन्य सेवा के दौरान भी इस से संबंधित कुछ मौके मिले, जिस से खेती के प्रति मेरा जोश और जुनून बना रहा. फिर मैं 54 साल की उम्र में जनवरी 2016 को कर्नल के पद से रिटायर हुआ .चूंकि खेती करने की कहीं न कहीं मन में कसक थी. इसलिए लखनऊ के पास बाराबंकी में मैंने खेती की जमीन खरीदी. यहां पर मैंने सुपरफूड कहे जाने वाले “चिया सीड” और “ड्रैगन फ्रूट” की खेती जैविक तरीके से करने की शुरूआत की.

आप कब से खेती कर रहे हैं और खेती में कोई खास तकनीक भी अपनाते हैं, किन फसलों को उगाते हैं?

Col. Harishchandra Singh

देश की बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए मैंने साल 2016 में जैविक तरीके से खेती करने का निर्णय लिया. शुरू में सुपर फूड कहे जाने वाली फसलों, फलों जैसे कि चिया सीड, किनुआ, रामदाना, काला गेहूं, काला चावल, काला आलू, ड्रैगन फ्रूट (कमलम), एप्पलबेर, नीबू, सेब, हल्दी एवं जिमीकंद आदि को लगाया. अब मैं ज्यादातर ड्रैगन फ्रूट (कमलम), चिया सीड, परवल, काले बैगनी आलू, अंदर से लाल आलू, जिमीकंद, नीबू, कुछ चुनिंदा किस्म के गेहूं/ चावल, अरहर, तिल, सरसों और पिपरमेंट (मेन्था) आदि की खेती कर रहा हूं. अपनी खेती में मैं लागत में कटौती और नवाचार पर ज्यादा ध्यान देता हूं.

आप ने खेती में कुछ अलग तरह की फसलों को ही क्यों चुना ?

Col. Harishchandra Singh

मैं बचपन से ही देखता आ रहा हूं कि पारंपरिक फसलों से किसानों को कोई खास आय नहीं होती, जिस से उन के जीवन स्तर का सुधर पाना मुश्किल है. कृषि के प्रति रूचि और खेती को लाभदायक कैसे बनाया जाए, इसी सोच से मैंने कुछ अलग हट कर फसलों का चुनाव किया और अपनी खेती में अनाजों, फलों एवं सब्जियों, तीनों को सम्मिलित किया.

आप ने बताया कि आप ने पारंपरिक खेती से हट कर फसलों का चुनाव किया, तो क्या यह सब आसान था या आप ने कहीं से कोई मदद भी ली ?

आप ने सही कहा ,शुरूआत में मैं इस तरह की खेती से पूरी तरह अंजान था, लेकिन नए काम का जोखिम उठाना मेरी आदत में है. खेती शुरू करने से पहले मैं कृषि एवं उद्यान विभाग, कृषि विज्ञान केंद्रों,  कृषि विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों, अधिकारियों एवं कर्मचारियों और प्रगतिशील किसानों से मिला, जिस से मुझे काफी जानकारी हासिल हुई. साथ ही, सरकारी योजनाओं को जाना और सिंचाई की समस्या को दूर करने के लिए कृषि विभाग द्वारा चलाई जा रही पीएम कुसुम योजना के अंतर्गत मैंने अपने खेतों पर ‘सोलर पंप’ लगवाया. उद्यान विभाग द्वारा ‘पर ड्राप मोर क्राप’ परियोजना के अंतर्गत टपक एवं फव्वारा सिंचाई की सुविधा भी ली, इन सब से मुझे बहुत फायदा हुआ. खेती में समस्या आने पर मैंने कृषि विशेषज्ञों से भी मदद ली, जहां से मुझे बहुत कुछ नया सीखने को मिला. शुरुआत में कुछ दिक्कतें जरूर आई परंतु अब मैं सफलता पूर्वक खेती कर रहा हूं.

आप ने पारंपरिक खेती से हट कर कुछ अलग खेती की, आप को क्या लगता है कि अन्य किसानों को भी आप से कुछ लाभ मिला ?

“मन की बात” कार्यक्रम के बाद देश के बहुत सारे किसान मुझ से जुड़ गए और प्रेरित हो कर चिया सीड और ड्रैगन फ्रूट की खेती करने लगे, जिस से देश में इन फसलों के आयात पर निर्भरता कम हुई है. ऐसा नहीं है कि मैंने ही कुछ अलग हट कर काम किया, मेरे जैसे न जाने कितने किसान हैं जो खेती में प्रतिदिन कुछ न कुछ बहुत अच्छा नवाचार कर रहे हैं. हम एक दूसरे के नवाचार और अनुभव से बहुत कुछ सीखते हैं. शुरूआती दौर में लोगों में प्रश्न और जिज्ञासा होती हैं, लेकिन अब काफी लोग अपनी सोच और कृषि मौडल को बदल रहे हैं, जिस से किसान लाभान्वित हो रहे हैं. लोगों में नए प्रयोगों एवं उत्पादों के बारे में जान ने की काफी जिज्ञासा रहती है. जागरूक और प्रगतिशील किसानों की आपस में चर्चा होने से जानकारी का आदानप्रदान होता है, जिस से लोगों को कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती है. सरकार भी इस क्षेत्र में काफी प्रयास कर रही है.

Col. Harishchandra Singh

हमारे लाभदायक खेती के मौडल को देखने और जानने के लिए काफी किसान, कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ, कृषि शोधार्थी छात्र, सेवानिवृत्त कर्मी एवं आईटी सेक्टर के युवा भी आते हैं. कुछ नई बातें बताकर और नई जानकारी ले कर व दे कर जाते हैं और उन्हें अपनी खेती में अपनाते भी हैं. हम किसान लोग एक दूसरे के संपर्क में रहते हैं ताकि, नएनए प्रयोगों को अपना सकें. निश्चित ही कृषि क्षेत्र में नवाचार “आत्मनिर्भर भारत” की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रेडियो कार्यक्रम मन की बातमें आपका जिक्र हुआ, इससे आप पर और आप के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा ?

प्रधानमंत्री जी द्वारा ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मेरी खेती का जिक्र किया जाएगा, इस बात का मुझे जरा सा भी आभास नहीं था और न ही इस बारे में कभी सोचा था. मैं घर से बाहर था लेकिन मेरी पत्नी व बहू इस कार्यक्रम को सुन रहे थे. जानकारी होते ही हम लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा, हम लोग बहुत ही आश्चर्य चकित हुए. इस से मैं इतना उत्साहित हुआ कि अब खेती में बेहद क्रियाशील हो गया हूं. अब बहुत से लोग मुझे अच्छे किसान के रूप में जानने लगे हैं. मेरा मानसम्मान बढ़ा है और बहुत कम समय में देश के प्रगतिशील किसानों में मेरी गिनती होने लगी है. अब मैं अपने को काफी ऊर्जावान महसूस कर रहा हूं और अपनी खेती का दायरा काफी बढ़ा चुका हूं.

Sweets : संतरा बरफी – स्वाद रहेगा याद

Sweets : खानपान के कारोबार में नएनए प्रयोग हो रहे हैं, जिन से खाने वालों को नएनए स्वाद मिल रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि खाने की चीजों को लंबे समय तक खराब होने से कैसे बचाया जा सके. इस के लिए मिठाइयों में दूध या दूध से बनी चीजों का इस्तेमाल कम से कम किया जा रहा है.

खोए के मुकाबले मेवों से बनने वाली मिठाइयां लंबे समय तक चलती हैं. मेवे महंगे होने के कारण उन से तैयार होने वाली मिठाइयां भी महंगी हो जाती हैं. मेवों से तैयार होने वाली मिठाइयों की कीमत 8 सौ रुपए प्रति किलोग्राम के करीब होती है. खोए से तैयार होने वाली मिठाइयां भी 6 सौ रुपए प्रति किलोग्राम तक पहुंच रही हैं.

ऐसे में संतरा बरफी को इस तरह से तैयार किया गया है कि यह 5 सौ रुपए प्रति किलोग्राम से कम में ही खाने को मिल जाती है. यह सेहत के लिए भी खोए की मिठाइयों से बेहतर होती है.

लखनऊ के छप्पन भोग मिठाई शौप के मालिक विनोद गुप्ता कहते हैं, ‘हमारे देश में तमाम तरह के फलों की पैदावार होती है. इन फलों में सेहत और स्वाद का खजाना छिपा होता है. इन फलों का स्वाद लोग हमेशा लेना चाहते हैं. ऐसे में हम ने कुछ मिठाइयों को फलों के स्वाद वाली बनाने की शुरुआत की है. संतरा बरफी उन में से एक है. पहले यह बेसन से तैयार होती थी. उसे संतरे का रंग और स्वाद दिया जाता था. पर वह खाने में बहुत अच्छी नहीं लगती थी. ऐसे में संतरा बरफी को नए तरीके से पेठे की तरह से तैयार किया जाने लगा है. यह बेसन से तैयार बरफी से अलग होती है. इसे पेठे की तरह तैयार कर के इस में संतरे के पल्प से तैयार रस मिलाया जाता है. इस वजह से इस में संतरे के स्वाद और ताजगी का एहसास होता है.’

कैसे बनती है संतरा बरफी

सामग्री : डेढ़ किलोग्राम सफेद कद्दू, 1 किलोग्राम चीनी, 10 ग्राम चूना और 2 बड़े चम्मच गुलाबजल, 250 ग्राम संतरा पल्प, दूध और चांदी का बरक.

विधि : कद्दू का छिलका व बीज अलग कर लें. इस के 2 इंच के टुकड़े काट लें. इन टुकड़ों को चूने के पानी में डाल दें. 8 से 10 घंटे बाद इन को कई बार साफ पानी से धोएं और उबलते पानी में डाल कर हलका सा नरम कर लें. कद्दू के टुकड़ों को घिस कर लच्छे तैयार कर लें. चीनी में पानी मिला कर चाशनी तैयार करें. थोड़ा सा दूध डाल कर चाशनी का मैल अलग कर लें. चाशनी में कद्दू के टुकड़ों से तैयार लच्छे डाल कर 15 मिनट धीमी आंच पर पकाएं. अगले दिन लच्छे निकाल कर चाशनी गाढ़ी करें. फिर उस में लच्छे डाल कर फिर से पकाएं. इसे रात भर रखा रहने दें. तीसरे दिन इस में संतरा पल्प डाल कर इस तरह से पकाएं कि चाशनी नीचे से जले नहीं, पर लच्छे पूरी तरह से सूख जाएं.

अब इन को किसी बड़ी प्लेट में रख कर बरफी की तरह से छोटेछोटे टुकड़े काट लें. अलगअलग टुकड़े को कागज की छोटीछोटी कटोरियों में रखें. सजावट के लिए चांदी के बरक का इस्तेमाल करें. इस से बरफी की ताजगी लंबे समय तक बनी रहेगी. संतरा बरफी में संतरे के स्वाद को पूरे साल लिया जा सकता है.

Organic Farming : जैविक खेती से करें उम्दा उत्पादन

Organic Farming : फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए अंगरेजी खाद व कीड़ेमार दवाओं का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है. इन्हें इस्तेमाल करना आसान है,लेकिन महंगी होने व जरूरत से ज्यादा, बारबार डालने से किसानों की जेब कटती है, नकली निकलने पर ये बेअसर रहती हैं. इस के अलावा जानकारी की कमी से भी किसान इन्हें जल्दीजल्दी  व ज्यादा डालते हैं.

देखादेखी व बगैर सोचेसमझे अंगरेजी खाद व कीड़ेमार दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल से हवा, पानी व मिट्टी की हालत दिनोंदिन खराब हो रही है. इन का जहरीला असर फसल में आने से नित नई बीमारियां बढ़ रही हैं. इस कारण से भी जानवर व इनसान ज्यादा बीमार पड़ रहे हैं. लिहाजा इस बारे में सोचना व इस समस्या को सुलझाना बहुत जरूरी है.

रसायनों के बढ़ते जहरीले असर से समूची आबोहवा को बचाने के लिए दुनिया भर में जैविक खेती जैसे कारगर तरीके अपनाए जा रहे हैं. हालांकि बहुत से किसान अंगरेजी खाद व कीड़ेमार दवाओं का इस्तेमाल जरूरी मानते हैं, जबकि इन के बगैर खेती करना मुश्किल नहीं है.

सरकारी कोशिशें

पहाड़ी इलाकों में आज भी अंगरेजी खाद व कीड़ेमार दवाओं का इस्तेमाल बहुत कम होता है. गौरतलब है कि बीते साल 2015 में सिक्किम सरकार ने अंगरेजी खाद व कीटनाशकों पर रोक लगा कर एक आरगेनिक मिशन चलाया था, जो पूरी तरह से सफल रहा. नतीजतन जैविक खेती में सिक्किम आज पूरे देश में एक उदाहरण है. इस के अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व उत्तराखंड राज्य भी जैविक खेती में आगे हैं.

Organic Farming

सरकार पूरे देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने पर खास जोर दे रही है, लेकिन किसानों के अपनाए बिना यह काम मुमकिन नहीं है. केंद्र सरकार के किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी साल 2015 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010-11 में सिर्फ 4 लाख 42 हजार हेक्टेयर रकबा जैविक खेती के तहत था.

साल 2011-12 में बढ़ कर यह 5 लाख 55 हजार हेक्टेयर हो गया था, लेकिन साल 2012-13 में घट कर 5 लाख 4 हजार हेक्टेयर व साल 2013-14 में फिर से बढ़ कर 7 लाख 23 हजार हेक्टेयर हो गया था. यह देश में मौजूद खेती के कुल रकबे का सिर्फ 0.6 फीसदी है, जो कि काफी कम है. लिहाजा इसे बढ़ाना होगा.

बीते  सालों से केंद्र सरकार ने जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए अलग से एक नेशनल प्रोजेक्ट चला रखा है. जैविक खेती के प्रचारप्रसार, जागरूता व ट्रेनिंग वगैरह को बढ़ावा देने के लिए साल 2004 से गाजियाबाद में जैविक खेती पर एक नेशनल  सेंटर चल रहा है. बेंगलूरू, भुवनेश्वर, पंचकुला, इंफाल, जबलपुर व नागपुर में उस के 6 रीजनल सेंटर हैं.

इन में जैविक खेती को बढ़ाने, जैव तकनीक निकालने, उन्हें किसानों तक पहुंचाने, जैव उर्वरकों की जांचपरख करने जैसे काम होते हैं, लेकिन असलियत यह है कि ज्यादातर काम सिर्फ कागजों पर दौड़ते हैं. ज्यादातर किसानों को जैविक खेती की स्कीमों की जानकारी नहीं है.

खेती व बागबानी महकमों के निकम्मे मुलाजिम भी किसानों को जैविक खेती की जानकारी नहीं देते. लिहाजा इतने सारे सरकारी तामझाम का कोई फायदा नजर नहीं आता.

ज्यादातर किसानों में शिक्षा व रुचि की कमी है. खासकर छोटी जोत वाले, गरीब किसानों को जैविक खेती का असल मतलब, मकसद, तौरतरीकों व इस से होने वाले फायदों की जानकारी ही नहीं है. ऊपर से बाजार में जैव उर्वरक व जैव कीटनाशियों के नाम पर कबाड़ भी खूब धड़ल्ले बिक रहा है. इस से नुकसान किसानों का व फायदा उसे बनाने व बेचने वालों का होता है.

क्या है जैविक खेती

जैविक कचरे की मदद से जमीन की उपजाऊ ताकत व उपज बढ़ाना जैविक खेती का मकसद है. इस में एक तय समय में सब से पहले किसी खेत को रासायनिक असर से छुटकारा दिला कर उस के कुदरती रूप में बदला जाता है. इस के बाद जैविक काम उपज के कई हिस्सों में पूरे किए जाते हैं. कुल मिला कर जैविक खेती में रसायनों का इस्तेमाल किए बगैर सारा जोर खेती के कुदरती तौरतरीकों पर ही दिया जाता है.

खेत की तैयारी, बीज शोधन, बोआई, जमाव बढ़ाने, कीड़े मारने, खरपतवार के सफाए में रसायनों व अंगरेजी खादों का इस्तेमाल कम से कम व आखिरी दौर में बिलकुल नहीं किया जाता. हरी खाद, गोबर की खाद व कंपोस्ट खाद को डाल कर ऐसा फसलचक्र अपनाया जाता है, जिस में जमीन को उपजाऊ बनाने वाली दलहनी फसलें भी शामिल रहती हैं.

रासायनिक उर्वरकों की जगह इफको व कृभको जैसे कारखानों में बने जैव उर्वकर डालें. अपने देश में अब इन की कमी नहीं है. करीब 5 लाख 50 हजार छोटेबड़े निर्माता हैं, जो जैव उर्वरकों का उत्पादन कर रहे हैं.

जैविक खेती में फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटपतंगों की रोकथाम भी सुरक्षित तरीकों से की जाती है. उदाहरण के तौर पर लाइट व फैरोमेन ट्रैप, नजदीकी मुख्य फसल से कीड़े खींचने वाली ट्रैप क्राप, ट्राइकोडर्मा कार्ड, ट्राइकोगामा, ब्यूवेरिया बेसियाना फफूंद वगैरह कारगर बायोएजेंट्स के इस्तेमाल व कीड़े खाने वाले पक्षी और परजीवियों वगैरह को बचा, बढ़ा कर फसलों की हिफाजत की जाती है और उपज को सुरक्षित रखा जाता है.

इस के अलावा खेत में खरपतवारों का सफाया भी रासायनिक दवाओं से न कर के मशीनों व औजारों के जरीए निराईगुड़ाई वगैरह से ही किया जाता है. रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल किए बिना खेती करने से प्रति हेक्टेयर उपज की लागत व मेहनत थोड़ी बढ़ सकती है, लेकिन उपज बेचते वक्त उन की भरपाई हो जाती है.

आरगैनिक फूड्स से कमाई

आम जनता की औसत आमदनी बढ़ने से खानपान व रहनसहन के तौरतरीके बदले हैं. सेहत के लिए जागरूकता बढ़ी है. अब लोग आरगेनिक फूड प्रोडक्ट्स को पसंद करते हैं.

Organic Farming

इस वजह से शहरी बाजारों, बड़ेबड़े मौल्स, होटलों व डिपार्टमेंटल स्टोरों वगैरह में अलग से बिकने वाले आरगैनिक फल, सब्जी, मसाले, दालें व अनाज आदि की मांग तेजी से बढ़ रही है.

इसी वजह से खेती व डेरी वगैरह के आरगैनिक उत्पादों की कीमत बाजार में आम उपज के मुकाबले ज्यादा मिलती है. लिहाजा किसानों को बाजार के बदलते रुख को पहचान कर समय के अनुसार खेती के तरीकों में बदलाव करना चाहिए. किसान जैविक खेती के जरीए पैदा उम्दा उपज बेच कर अपनी आमदनी में आसानी से इजाफा कर सकते हैं.

प्रचारप्रसार व ट्रेनिंग जरूरी

केंद्र व राज्यों की सरकारों को देश के सभी इलाकों में जैविक खेती के बारे में प्रचारप्रसार कराना चाहिए. ताकि इस में किसानों की दिलचस्पी जागे, जागरूकता व हिस्सेदारी बढ़े. खासकर गांव के इलाकों में काम कर रहे गैर सरकारी संगठनों व सहकारी संस्थाओं वगैरह की मदद इस काम में ली जा सकती है.

इस के अलावा जैविक उत्पादों का आसान प्रमाणीकरण और उन की बिक्री का सही इंतजाम किया जाना भी बहुत जरूरी है. हालांकि पिछले दिनों भारतीय कृषि कौशल विकास परिषद, एएससीआई संस्था का गठन किया गया है, लेकिन उस के नतीजे भी सब को साफ दिखाई देने चाहिए. किसानों को जैविक खेती करने की तकनीक समझाने के लिए यह जरूरी है कि उन्हें आसानी से ट्रेनिंग, पैसा व छूट आदि दूसरी सुविधाएं दी जाएं.

हुनर बढ़ाने के मकसद से चल रही प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना में खेती से जुड़े 15 कामों की ट्रेनिंग में जैविक खेती भी शामिल है. किसान कौशल विकास के नजदीकी सेंटर पर जा कर जैविक खेती का हुनर सीख सकते हैं.

क्या करें किसान

दरअसल, 60 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति के बाद से पैदावार तो बेशक बढ़ी, लेकिन रासायनिक उर्वरकों व जहरीले कीटनाशकों के कुप्रभाव आज भी खतरा साबित हो रहे हैं. किसानों के कुदरती दोस्त केंचुए आदि बहुत से जीव खेतों से खत्म हो रहे हैं, जिस से मिट्टी का भुरभुरापन खत्म होता जा रहा है.

जमीन की ऊपरी परत कड़ी व खारी हो जाने से पैदावार घटी है. फल, सब्जी व मसालों के स्वाद व अनाज के गुण भी अब पहले जैसे नहीं रह गए हैं. खेती के माहिरों का कहना है कि गरमी में गहरी जुताई जरूर करें, ताकि कीड़े, उन के अंडे व खरपतवार आदि खुदबखुद खत्म हो जाएं और कीटनाशकों की जरूरत ही न पड़े.

वैज्ञानिकों व होशियार किसानों ने पौधों से तैयार कीड़ेमार व घासफूस नाशक अर्क, जैवकीटनाशी और बदबूदार कीटनाशक वगैरह खोजे हैं. मटका खाद, गोमूत्र, नीम पत्ती, निंबौली, मट्ठा, लहसुन व करंज की खली जैसे सभी कारगर नुस्खों को इकट्ठा कर के परखने के बाद सरकार को ऐसी जानकारी छपवा कर कृषि विज्ञान केंद्रों वगैरह के जरीए किसानों तक पहुंचानी चाहिए, ताकि किसान उन्हें खुद बना कर इस्तेमाल कर सकें.

अपने इलाके की आबोहवा के अनुसार रोग व कीट प्रतिरोधी किस्में चुनें. फसल की बिजाई हमेशा सही समय से करें. खेती में सुधार व बदलाव करना बेहद जरूरी है. खेत साफ रखें. रोगी व कीड़ों के असर वाले पौधे तुरंत हटा कर नष्ट कर दें. जानवरों के मलमूत्र व सड़ेगले कार्बनिक पदार्थों के लिहाज से मुरगी, मछली व पशु पालना जैविक खेती में मददगार साबित होता है.

जैविक खेती के फायदे

जमीन को उपजाऊ बनाए रखने के लिए जरूरी है कि रसायनों का इस्तेमाल कम से कम या बिल्कुल भी न हो. उन की जगह किसान नाडेप खाद, चीनी मिलों से हासिल सड़ी हुई प्रेसमड, नीम, सरसों, नारियल व मूंगफली की खली या वर्मी कंपोस्ट खाद डाल कर जैविक खेती करें, ताकि खेतों की मिट्टी में पानी को ज्यादा वक्त तक बनाए रखने की कूवत भी बनी रहे. साथ ही साथ इस से जल, जंगल व जमीन सुरक्षित रह सकेंगे. उपज की क्वालिटी अच्छी होगी, जिस से किसानों की कमाई बढ़ेगी.

जैविक खेती करने वाले किसान यदि अपने उत्पादों का रजिस्ट्रेशन कृषि एवं प्रसंस्कृत उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण, एपीडा, नई दिल्ली में करा लें तो उन्हें खुद अपनी उपज को अच्छी कीमत पर बड़े व अमीर देशों को सीधे भेजने का मौका मिल सकता है. अब वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश में जैविक खेती व आरगैनिक फूड्स का बोलबाला होगा और किसानों को उन की उपज की वाजिब कीमत मिलेगी. बशर्ते किसान जैविक खेती करने की पहल करें. जैविक खेती के बारे में सलाहमशविरा या ज्यादा जानकारी इस पते पर ली जा सकती है.

निदेशक, राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र, सेक्टर 19, हापुड़ रोड, कमला नेहरू नगर, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश.

फोन नंबर : 0120-2764906, 2764212.

जैविक खेती को बढ़ावा

केंद्र सरकार के किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी साल 2015 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक चलाए जा रहे 8 मिशनों में राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन, एनएमएसए सब से अहम है. इस के तहत जैविक खेती को खास बढ़ावा देने के लिए नीचे लिखे कामों के लिए राज्य सरकारों के जरीए पैसे से मदद की जाती है. लिहाजा जरूरत आगे आ कर इन से भरपूर फायदा उठाने की है.

सब्जीमंडी या खेती के कचरे से कंपोस्ट बनाने, नई तकनीक से तरल जैव उर्वरक या जैव कीटनाशी बनाने की यूनिट लगाने, तैयार जैव उर्वरक या जैव कीटनाशी की जांच करने वाली लैब लगाने, मौजूदा लैब्स को मजबूत करने, खेतों में जैविक सामान बढ़ाने, सामूहिक रूप से जैविक खेती करने, आनलाइन भागीदारी गारंटी सिस्टम चलाने, जैविक गांव अपनाने, ट्रेनिंग देने, प्रदर्शन करने, जैविक पैकेजों के विकास पर खोजबीन करने और जैविक खेती के लिए  रिसर्च व ट्रेनिंग संस्थान चलाने के लिए पैसे से मदद मुहैया कराई जाती है.

प्रमाणीकरण

जैविक खेती में उत्पादों का प्रमाणीकरण कराना सब से अहम कड़ी है. सारी मेहनत का दारोमदार इसी पर टिका रहता है. सर्टीफिकेशन ही असल पहचान है, जिस से पता चलता है कि कौन सा उत्पाद वाकई आरगैनिक है. लिहाजा जैविक खेती करने वाले किसानों को इस के मानकों व नियमों वगैरह की जानकारी होना जरूरी है. भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे राष्ट्रीय जैविक उत्पाद कार्यक्रम एनपीओपी के तहत वाणिज्य विभाग द्वारा आरगैनिक इंडिया के नाम से बनाई नियमावली में सारे मानक व नियम आदि दिए गए हैं.

यह नियमावली और जैविक उत्पादों का प्रमाणीकरण करने वाली 24 संस्थाओं की सूची राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र, एनसीओएफ, गाजियाबाद की वैबसाइट से डाउनलोड की जा सकती है. इस के अतिरिक्त पिछले दिनों सरकार ने भागीदारी गारंटी योजना पीजीएस चालू की है. इस के तहत जैविक उत्पादों का प्रमाणीकरण पीजीएस ग्रीन व पीजीएस आरगैनिक के रूप में किया जाता है. इस नई स्कीम की जानकारी भी राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र की साइट से ली जा सकती है.

Turmeric : हलदी की खेती

Turmeric: हलदी न केवल मसाले की तरह खाने में इस्तेमाल की जाती है, बल्कि इसे सौंदर्य प्रसाधनों व औषधियों में भी इस्तेमाल किया जाता है. हलदी (Turmeric) को एक अच्छा एंटीबायोटिक माना गया है, जो शरीर में रोगों से लड़ने की कूवत को बढ़ाने में मदद करता है. हलदी (Turmeric) में सब से ज्यादा स्टार्च पाया जाता है. इस में 13.01 फीसदी पानी, 6.03 फीसदी प्रोटीन, 5.01 फीसदी वसा, 69.04 फीसदी कार्बोहइड्रेड, 2.06 फीसदी रेशा और 3.05 फीसदी खनिज लवण की मात्रा पाई जाती है.

भारत हलदी (Turmeric) का सब से बड़ा उत्पादक देश है. भारत से दूसरे देशों को हलदी (Turmeric) भेजी जाती है. नकदी फसल मानी जाने वाली हलदी (Turmeric) की खेती कर के किसान कम लागत और कम मेहनत में ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं. इस की खेती के लिए नम व शुष्क जलवायु की जरूरत होती है. हलदी (Turmeric) की फसल अकसर छायादार फसलों के साथ बोई जाती है. इस से हलदी (Turmeric) के पीलेपन में बढ़ोतरी होती है और फसल का उत्पादन ज्यादा होता है.

हलदी (Turmeric) की खेती के लिए सब से सही मिट्टी जीवाश्म युक्त रेतीली व दोमट मटियार मानी गई है. जहां पानी की निकासी का इंतजाम हो, वहां हलदी (Turmeric) की खेती करना सही होता है. अगर पानी की निकासी का ठीक इंतजाम न हो, तो हलदी (Turmeric) की खेती मेंड़ बना कर की जाती है.

हलदी (Turmeric) की खास प्रजातियां : वरिष्ठ उद्यान विशेषज्ञ डा. दिनेश कुमार यादव का कहना है कि देश के अलगअलग क्षेत्रों के लिए हलदी (Turmeric) की कई प्रजातियां सही मानी गई हैं. हलदी (Turmeric) की कुछ खास प्रजातियां सभी जगहों पर लगाई जा सकती हैं. ऐसी ही कुछ प्रजातियां हैं नरेंद्र हलदी 1, नरेंद्र हलदी 2, नरेंद्र हलदी 3, रश्मि व राजेंद्र सोनिया. खास इलाकों के लिए सीओ 1 प्रजाति उम्दा मानी गई है. यह प्रजाति 285 दिनों में पक कर तैयार होती है और इस से लगभग 6 टन प्रति हेक्टेयर की उपज मिलती है. इस के अलावा सुगंधा सुवर्णा, सुरोमा, सुगना, कृष्णा, रेखानूरी व पीसीटी 8 सिलांग वगैरह भी अच्छी किस्में मानी गई?हैं.

खेत की तैयारी व रोपाई : हलदी (Turmeric) की फसल लेने के लिए सब से पहले मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिए. उस के बाद 1 जुताई कल्टीवेटर से कर के पाटा लगा देना चाहिए और फिर 5-7 मीटर लंबी व 2-3 मीटर चौड़ी क्यारियां बना कर खेत को बांट लेना चाहिए.

क्यारियां बनाते समय यह जरूर ध्यान रखें कि उन से पानी निकलने का सही इंतजाम हो. हलदी (Turmeric) की बोआई के लिए सब से सही समय मई महीने से ले कर जुलाई महीने तक का माना गया है. 1 हेक्टेयर ख्ेत के लिए 12 से 14 क्विंटल हलदी (Turmeric) के कंदों की जरूरत पड़ती है. तैयार की गई क्यारियों में लाइन से लाइन की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर व कंदों की आपसी दूरी 25 सेंटीमीटर व कंदों की गहराई 4-5 सेंटीमीटर रख कर रोपाई की जाती है.

खाद व उर्वरक की मात्रा : हलदी (Turmeric) की बोआई के समय ही 100 से 120 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देनी चाहिए. इस के साथ ही 50 किलोग्राम नीम की खली व 120 किलोग्राम अरंडी की खली का मिश्रण बना कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. बोआई के समय ही 100 से 120 किलोग्राम नाइट्रोजन की आधी मात्रा व 60 से 80 किलोग्राम फास्फोरस व 80 से 100 किलोग्राम पोटाश मिट्टी में मिलाने से फसल उत्पादन अच्छा मिलता है. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा बोआई के 60 दिनों बाद डालनी चाहिए.

सिंचाई व खरपतवार नियंत्रण : हलदी (Turmeric) की फसल को ज्यादा नमी की जरूरत पड़ती है. बोआई से बारिश शुरू होने तक 4 से 5 बार फसल की सिंचाई करना जरूरी होता है. बारिश का मौसम शुरू होने के बाद 20 से 25 दिनों के अंतर पर फसल की सिंचाई करते रहना चाहिए.

नवंबर में हलदी (Turmeric) के कंद का विकास और मोटाई शुरू हो जाती है, इस दौरान फसल के अगलबगल मिट्टी चढ़ा कर सिंचाई करनी चाहिए, क्योंकि खेतों में पानी भरने से फसल के कंदों को नुकसान पहुंचता है. सिंचाई के साथसाथ खरपतवार नियंत्रण किया जाना भी बहुत जरूरी हो जाता है, क्योंकि नमी बने रहने से खरपतवार उग आते हैं. इसीलिए पूरी फसल के दौरान कम से कम 3 बार निराईगुड़ाई का काम किया जाना चाहिए. फसल रोपने के 3 महीने बाद पहली निराईगुड़ाई व 30-30 दिनों के अंतराल पर दूसरी व तीसरी निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

कीटों व बीमारियों की रोकथाम : कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया बस्ती में कीट नियंत्रण के विशेषज्ञ डा. प्रेमशंकर का कहना है कि हलदी (Turmeric) में वैसे तो कीट अधिक नुकसान नहीं पहुंचाते हैं फिर भी कुछ कीटों का प्रकोप देखा गया है.

तनाबेधक कीट पौधे के कल्लों का रस चूस लेते हैं जिस से पौधे सूखने लगते हैं. इसी तरह थ्रिप्स नाम के कीट पत्तियों का रस चूस कर पौधों को सुखा देते हैं. इन कीटों की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में मिला कर या कार्बोसल्फाम की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में मिला कर फसल पर छिड़काव करना चाहिए. 1 हेक्टेयर फसल के लिए 1 लीटर कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाता है.

हलदी  (Turmeric) में खासतौर पर पर्णचित्ती रोग का प्रकोप देखा गया है, जो टैफरीना मैक्यूलेस नामक फफूंद के कारण होता है. इस रोग के प्रकोप से फसल की पत्तियों के ऊपरी सिरों पर लाल व भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और पत्तियां सूखने लगती हैं. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब 63 फीसदी डब्ल्यूपी या कार्बेंडाजिम 12 फीसदी डब्ल्यूपी की 750 ग्राम की मात्रा का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए.

खुदाई व भंडारण : हलदी (Turmeric) की अगेती फसल की खुदाई बोआई के 7 महीने बाद व पछेती फसल की खुदाई 9 महीने बाद की जाती है. मई व जून में बोई गई फसल फरवरी में खोदे जाने लायक हो जाती है. इस समय हलदी (Turmeric) की फसल में घनकंद यानी गांठें अच्छी तरह से बड़ी हो जाती हैं और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. खुदाई से पहले ही पौधों को काट लेना चाहिए. उस के बाद हलकी सिंचाई कर के कुदाल से इस की खुदाई करनी चाहिए.

1 हेक्टेयर रकबे में बोई गई फसल से 150 से 200 क्विंटल कच्ची हलदी (Turmeric) की उपज मिलती है, जबकि असिंचित इलाकों में यह उपज 80 से 120 क्विंटल होती है. हलदी को सुखाने के बाद यह मात्रा कुल उपज की महज 15 से 25 फीसदी ही बचती है. हलदी (Turmeric) सुखाने से पहले उसे किसी बडे़ बर्तन में रख कर उबाला जाता है. उबालते समय जब हलदी की गांठें नम पड़ने लगें, तो हलदी (Turmeric) को आंच से उतार कर कड़ी धूप में सुखा लेना चाहिए. इस के बाद किसी हवादार जगह पर बोरों में भर कर इस का भंडारण करना चाहिए.