सितंबर माह में खेती से जुड़े काम

समय पर खेतीबारी से जुड़े सभी जरूरी काम निबटा लेने चाहिए. अगर ऐसा नहीं किया जाता है, तो उत्पादन घटने के साथ ही नुकसान होने की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है. ऐसे में सितंबर माह में खेती, बागबानी, पशुपालन, मत्स्यपालन, भंडारण और प्रोसैसिंग से जुड़े इन कामों को निबटाएं.

जिन किसानों ने धान की खेती की है, वे फसल में नाइट्रोजन की दूसरी व अंतिम टौप ड्रैसिंग बाली बनने की प्रारंभिक अवस्था यानी रोपाई के 50-55 दिन बाद कर दें. वहीं अधिक उपज वाली धान की प्रजातियों में प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन यानी 65 किलोग्राम यूरिया और सुगंधित प्रजातियों में प्रति हेक्टेयर 15 किलोग्राम नाइट्रोजन यानी 33 किलोग्राम यूरिया का प्रयोग करें.

धान में बालियां फूटने और फूल निकलने के दौरान यह सुनिश्चित करें कि खेत में पर्याप्त नमी हो.

धान की फसल को भूरा फुदका से बचाने के लिए खेत से पानी निकाल दें. इस कीट का प्रकोप पाए जाने पर नीम औयल 1.5 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें.

किसान धान की अगेती किस्मों की कटाई के पहले ही उस के उचित भंडारण की व्यवस्था कर लें. इस के लिए यह सुनिश्चित करें कि मड़ाई के बाद धान के दानों को अच्छी तरह सुखा कर ही भंडारण किया जाए, इसलिए दानों को 10 प्रतिशत नमी तक सुखा लेते हैं.

धान का भंडारण जहां किया जाना है, उस कमरे और जूट के बोरों को विसंक्रमित कर देना चाहिए.

धान के भंडारण में कीड़ों से बचाव के लिए स्टौक को तरपोलीन या प्लास्टिक की चादरें ढकने से भी राहत मिलती है.

सरसों की अगेती किस्मों जो खरीफ और रबी के मध्य में बोई जाती हैं, इस की बोआई 15 से 30 सितंबर के बीच अवश्य कर दें. साथ ही, बीजजनित रोगों से बचाव व सुरक्षा के लिए प्रमाणित बीज ही बोएं.

बीजशोधन के लिए थीरम व कार वैक्सिन का मिश्रण 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के अनुसार उपचारित करें. मैंकोजेब की बावस्टीन का 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से भी उपचारित किया जा सकता है.

सरसों की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए बोआई से पहले 2.2 लिटर प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरोलिन का 600-800 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

यदि बोआई से पहले खरपतवार नियंत्रण नहीं किया गया है, तो 3.3 लिटर पेंडीमिथेलीन (30 ईसी ) को 600-800 लिटर पानी में घोल कर बोआई के 1-2 दिन बाद छिड़काव करें.

सरसों की अगेती किस्मों पूसा सरसों-25, पूसा सरसों-26, पूसा सरसों-27, पूसा सरसों- 28, पूसा अगर्णी, पूसा तारक व पूसा महक की बोआई की जा सकती है.

रबी के सीजन में गेहूं की खेती करने वाले किसान आलू की अगेती किस्मों की बोआई सितंबर महीने में कर के ज्यादा फायदा ले सकते हैं. इन किस्मों में कुफरी बादशाह, कुफरी सूर्या, कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी अलंकार, कुफरी पुखराज, कुफरी ख्याती, कुफरी अशोका, कुफरी जवाहर शामिल हैं. इन के पकने की अवधि 80 से 100 दिन है.

आलू के इस किस्म की खेती करने वाले किसान इस माह पछेती गेहूं की खेती कर सकते हैं. आलू की बोआई 25 सितंबर से शुरू की जा सकती है.

मटर की अगेती किस्मों की खेती कर किसान अतिरिक्त लाभ ले सकते हैं, क्योंकि ये किस्में 50 से ले कर 60 दिनों में तैयार हो जाती हैं. इसलिए इस के बाद दूसरी फसल आसानी से ली जा सकती है.

अगर किसान मटर की अगेती खेती करना चाहते हैं, तो इस की बोआई 15 सितंबर से 15 अक्तूबर के बीच कर सकते हैं. किसान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गई मटर की आजाद मटर-3, काशी नंदिनी, काशी मुक्ति, काशी उदय और काशी अगेती की बोआई कर सकते हैं.

टमाटर, विशेषकर संकर प्रजातियों व गांठगोभी के बीज की बोआई नर्सरी में करें. इस के अलावा सब्जियों की खेती करने वाले किसान फूलगोभी की पूसा सुक्ति, पूसा पौषिजा प्रजातियों की नर्सरी डालने के साथ ही मध्यवर्गीय फूलगोभी जैसे इंप्रूव्ड जापानी, पूसा दीपाली, पूसा कार्तिक की रोपाई के लिए पूरा महीना ही मुफीद है. वहीं पत्तागोभी की किस्मों में  गोल्डन एकर, पूसा कैबेज हाइब्रिड-1 की नर्सरी डाली जा सकती है.

पत्तागोभी की अगेती किस्में जैसे-पूसा हाइब्रिड-2, गोल्डन एकर की बोआई 15 सितंबर तक माध्यम व पछेती किस्में जैसे पूसा ड्रमहेड, संकर क्विस्टो की बोआई 15 सितंबर के बाद शुरू की जा सकती है.

शिमला मिर्च की रोपाई पौध के 30 दिन के होने पर 50-60-40 सैंटीमीटर की दूरी पर करें. मूली की एशियाई किस्मों जैसे जापानी ह्वाइट, पूसा चेतकी, हिसार मूली नं. 1, कल्याणपुर-1 की बोआई इसी माह में शुरू की जा सकती है.

मेथी की अगेती फसल लेने के लिए मध्य सितंबर से बोआई शुरू की जा सकती है. इस के लिए प्रति हेक्टेयर 25-30 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होगी.

अगर बरसात कम या समाप्त हो गई हो तो हरी पत्ती के लिए धनिया की प्रजाति पंत हरीतिमा, आजाद धनिया-1 की इस माह बोआई कर सकते हैं.

पालक की उन्नत किस्म पूसा भारती की बोआई इस माह की जा सकती है.

गाजर की पूसा वृष्टि किस्म की बोआई इसी माह में शुरू करें. इस के अलावा जिन सब्जियों की खेती की जा सकती है, उस में शलगम, सौंफ के बीज, सलाद, ब्रोकली को भी शामिल किया जा सकता है.

सितंबर माह में तैयार बैगन, मिर्च, खीरा व भिंडी की फसल लेने वाले किसान फसल की जरूरत के मुताबिक निराईगुड़ाई व सिंचाई करें और तैयार फलों को तोड़ कर बाजार भेजें.

जिन किसानों ने मक्के की फसल ले रखी है, वह अधिक बरसात होने पर अतिरिक्त जलनिकासी की पुख्ता व्यवस्था करें. फसल में नरमंजरी निकलने की अवस्था में और दाने की दूधियावस्था सिंचाई की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. यदि पिछले दिनों में बरसात न हुई हो या नमी की कमी हो तो सिंचाई अवश्य करें.

ज्वार की खेती करने वाले किसान अच्छी उपज हासिल करने के लिए बरसात नहीं होने या नमी की कमी होने पर बाली निकलने के समय व दाना भरते समय सिंचाई जरूर करें. वहीं बाजरा की उन्नत और संकर प्रजातियों में 87-108 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया की टौप ड्रैसिंग बोआई के 25-30 दिन बाद करें.

जिन किसानों ने मूंग और उड़द की खेती की है, वे बरसात न होने पर कलियां बनते समय पर्याप्त नमी बनाए रखने के लिए सिंचाई करें.

अगर मूंग और उड़द की फसल में फली छेदक कीट की सूंडि़यों का प्रकोप है, तो उस की रोकथाम के लिए निबौली का 5 प्रतिशत 1.25 लिटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

सोयाबीन की फसल लेने वाले किसान सितंबर माह में बरसात न होने पर फूल व फली बनते समय सिंचाई जरूर करें.

सूरजमुखी की खेती करने वाले किसान यह ध्यान दें कि सूरजमुखी के फूल में नर भाग पहले पकने के कारण परपरागण का काम मधुमक्खियों द्वारा होता है, इसलिए खेत या मेंड़ों पर बक्सों में मधुमक्खीपालन किया जाए. अधिक बीज बनने से उपज में बढ़वार होगी और अतिरिक्त आय भी होगी.

फलों की बागबानी से जुड़े किसान सितंबर में वयस्क आम के पौधों में उर्वरक की 500 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फास्फोरस, 500 ग्राम पोटाश को प्रति पौधे की दर से डालें.

आम में एंथ्रेक्नोज रोग से बचाव के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण की 3 ग्राम मात्रा एक लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

आंवले में फल सड़न रोग की रोकथाम के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें. वहीं नीबूवर्गीय फलों में यदि डाईबे, स्केब व सूटी मोल्ड बीमारी का प्रकोप पाए जाने पर कौपर औक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लिटर पानी) की दर से छिड़काव करें.

केले और पपीते की खेती करने वाले किसान पौधों की रोपाई का काम इस महीने जरूर पूरा कर लें. जिन लोगों ने केले के पौधों को पहले ही रोप दिया है, वे केले में प्रति पौधा 55 ग्राम यूरिया पौधे से 50 सैंटीमीटर दूर घेरे में प्रयोग कर हलकी गुड़ाई कर के जमीन में मिला दें. वहीं इस माह के शुरू में अमरूद की बरसाती फसल को तोड़ कर बाजार भेजें.

स्ट्राबेरी के पौधों की रोपाई 10 सितंबर से शुरू की जा सकती है. अगर उस समय तापमान अधिक हो, तो 20 सितंबर के बाद रोपाई शुरू करें.

रोपण करते समय यह ध्यान रहे कि पौधे स्वस्थ यानी कीट व रोगों से रहित होने चाहिए. इस की उन्नतशील किस्में चांडलर, फैस्टिवल, विंटर डौन, फ्लोरिना, कैमा रोजा, ओसो ग्रांड, ओफरा, स्वीट चार्ली, गुरिल्ला, टियोगा, सीस्कैप, डाना, टोरे, सेल्वा, बेलवी, फर्न, पजारो हैं.

फूलों की खेती में रुचि रखने वाले किसान रजनीगंधा के स्पाइक की कटाईछंटाई का काम इस माह पूरा करें.

जो लोग ग्लैडियोलस की खेती करना चाहते हैं, वे रोपाई की तैयारी पूरी कर लें. इस के लिए प्रति वर्गमीटर 10 किग्रा गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद को 200 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 200 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश के साथ मिला कर रोपाई के 15 दिन पहले अच्छी तरह मिला दें.

गेंदे की शरद ऋतु वाली किस्मों की रोपाई इसी माह में शुरू कर दें. इस की नर्सरी डालने का उचित समय 10-15 सितंबर है.

इस के अलावा किसान इसी माह मशरूम उत्पादन से जुड़ी तैयारियां शुरू कर दें. उस में काम आने वाले उपकरण, कंपोस्ट आदि के लिए आवश्यक सामग्री जुटाना समय से काम शुरू किए जाने में मददगार होगा.

Animalअगर आप पशुपालक हैं, तो पशुओं को जानलेवा खुरपका व मुंहपका रोग से बचाव के लिए उन का टीकाकरण कराएं. अगर आप का पशु इस रोग से ग्रसित हो गया है, तो पशुओं के घाव को पोटैशियम परमैग्नेट से धोएं और बीमार पशु को तत्काल स्वस्थ पशुओं से दूर रखें. उन का दानापानी भी अलग दें. साथ ही, बीमार पशु को बांध कर रखें और उन्हें घूमनेफिरने न दें.

यह सुनिश्चित करें कि पशु को सूखे स्थान पर ही बांधा जाए. उसे  कीचड़, गीली मिट्टी व गंदगी से दूर रखें. जहां पशु की लार गिरती है, वहां पर कपड़े धोने का सोडा व चूने का छिड़काव करें. पशुओं के नवजात बच्चों को खीस यानी पैदा होने के बाद उस की मां का गाढ़ा दूध जरूर पिलाएं.

जो लोग मुरगीपालन के व्यवसाय से जुड़े हैं, वे सुनिश्चित करें कि दाने में सीप का चूरा अवश्य मिलाया जा रहा हो. इस से मुरगियों में कैल्शियम की मात्रा बढ़ती है. इस के अलावा मुरगियों के पेट के कीड़ों को मारने के लिए दवा दें. पोल्ट्री फार्म में कम से कम 14-16 घंटे रोशनी बनी रहे. पोल्ट्री फार्म के बिछावन, जिसे डीप लिटर कहते हैं, को नियमित रूप से उलटतेपलटते रहें.

जो लोग मछलीपालन के व्यवसाय से जुड़े हैं, वे तालाब में पानी की पर्याप्त मात्रा बनाए रखने के लिए उस की गहराई कम से कम 1 मीटर तक जरूर रखें. गोबर की खाद व अकार्बनिक खादों का तालाबों में प्राकृतिक भोजन की उर्वरता बढ़ाने के लिए प्रयोग करें. साथ ही, तालाब में प्राकृतिक भोजन की जांच करें और जरूरत के मुताबिक पूरक आहार संचित मछलियों को प्रतिदिन देते रहें. इस के अलावा मछलीपालक समयसमय पर जाल डाल कर तालाब में पल रही मछलियों की बढ़वार की जांच करते रहें.

(कीटनाशकों के नाम कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती के वैज्ञानिक फसल सुरक्षा डा. प्रेम शंकर द्वारा सुझाए गए हैं. साथ ही, पशुपालन से जुड़ी जानकारी पशुपालन विशेषज्ञ डा. डीके श्रीवास्तव द्वारा सुझाई गई है.)

आदर्श पोषण वाटिका से स्वच्छ और संतुलित आहार

उस वाटिका को ‘पोषण वाटिका’ या ‘रसोईघर बाग’ या ‘गृहवाटिका’ कहा जाता है जो घर के अगलबगल में या घर के आंगन में ऐसी खुली जगह, जहां पारिवारिक श्रम से परिवार के इस्तेमाल के लिए विभिन्न मौसम में मौसमी फल और विभिन्न प्रकार की सब्जियां उगाई जाती हैं.

पोषण वाटिका का मुख्य मकसद ही रसोईघर का पानी व कूड़ाकरकट को पारिवारिक श्रम से उपयोग कर, घर की फल व सागसब्जियों की दैनिक जरूरतों की पूरा करने या आंशिक रूप से भरपाई करने की कोशिश करना व दैनिक आहार में उपयोग होने वाली सब्जी व फल शुद्ध, ताजा और जैविक उत्पाद रोजाना हासिल करना होता है.

आजकल बाजार में बिकने वाली ज्यादातर चमकदार फल और सागसब्जियों को रासायनिक उर्वरक का प्रयोग कर उगाया जाता है. इन फसल सुरक्षा पर तरहतरह के रसायनों का इस्तेमाल खरपतवार पर नियंत्रण, कीड़े और बीमारी को रोकने के लिए किया जाता है, परंतु इन रासायनिक दवाओं का कुछ अंश फल और सागसब्जी में बाद तक भी बना रहता है.

इस के चलते इन्हें इस्तेमाल करने वालों में बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जा रही है और आम आदमी तरहतरह की बीमारियों से ग्रसित होता जा रहा है.

इस के अलावा फल और सागसब्जियों के स्वाद में भी काफी अंतर देखने को मिल जाता है, इसलिए हमें अपने घर के आंगन या आसपास की खाली खुली जगह में छोटीछोटी क्यारियां बना कर जैविक खादों का इस्तेमाल कर के रसायनरहित फल और सागसब्जियों का उत्पादन करना चाहिए.

जगह का चुनाव

इस के लिए जगह चुनने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती, क्योंकि ज्यादातर यह जगह घर के पीछे या आसपास ही होती है. घर से मिले होने के कारण थोड़ा कम समय मिलने पर भी काम करने में सुविधा रहती है.

गृहवाटिका के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए, जहां पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके, जैसे नलकूप या कुएं का पानी, स्नान का पानी, रसोईघर का पानी आदि पोषण वाटिका तक पहुंच सके.

जगह खुली हो, जिस में सूरज की रोशनी मिल सके. ऐसी जगह, जो जानवरों से सुरक्षित हो और उस जगह की मिट्टी उपजाऊ हो, ऐसी जगह का चुनाव पोषण वाटिका के लिए करना चाहिए.

पोषण वाटिका का आकार

जहां तक पोषण वाटिका के आकार का संबंध है, वह जमीन की उपलब्धता, परिवार के सदस्यों की तादाद और समय की उपलब्धता पर निर्भर होता है.

लगातार फसल चक्र अपनाने, सघन बागबानी और अंत:फसल खेती को अपनाते हुए एक औसत परिवार, जिस में एक औरत, एक मर्द व 3 बच्चे यानी कुल 5 सदस्य हैं, ऐसे परिवार के लिए औसतन 25×10 वर्गमीटर जमीन काफी है. इसी से ज्यादा पैदावार ले कर पूरे साल अपने परिवार के लिए फल व सब्जियां हासिल की जा सकती हैं.

लेआउट करें तैयार

एक आदर्श पोषण वाटिका के लिए उत्तरी भारत खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध तकरीबन 250 वर्गमीटर क्षेत्र में बहुवर्षीय पौधों को वाटिका के किसी एक तरफ  लगाना चाहिए, जिस से कि इन पौधों की दूसरे पौधों पर छाया न पड़ सके और साथ ही, एकवर्षीय सब्जियों के फसल चक्र व उन के पोषक तत्त्वों की मात्रा में बाधा न डाल सके. पूरे क्षेत्र को 8-10 वर्गमीटर की 15 क्यारियों में बांट लें.

* वाटिका के चारों तरफ बाड़ का इस्तेमाल करना चाहिए, जिस में 3 तरफ  गरमी और बरसात के समय कद्दूवर्गीय पौधों को चढ़ाना चाहिए और बची हुई चौथी तरफ सेम लगानी चाहिए.

* फसल चक्र, सघन फसल पद्धति और अंत:सस्य फसलों के उगाने के सिद्धांत को अपनाना चाहिए.

* 2 क्यारियों के बीच की मेंड़ों पर जड़ों वाली सब्जियों को उगाना चाहिए.

* रास्ते के एक तरफ  टमाटर व दूसरी तरफ चौलाई या दूसरी पत्ती वाली सब्जी उगानी चाहिए.

* वाटिका के 2 कोनों पर खाद के गड्ढे होने चाहिए, जिन में से एक तरफ वर्मी कंपोस्ट यूनिट व दूसरी ओर कंपोस्ट खाद का गड्ढा हो, जिस में घर का कूड़ाकरकट और फसल अवशेष डाल कर खाद तैयार कर सकें.

* इन गड्ढ़ों के ऊपर छाया के लिए सेम आदि की बेल चढ़ा कर छाया बनाए रखें. इस से पोषक तत्त्वों का नुकसान भी कम होगा व गड्ढा भी छिपा रहेगा.

पोषण वाटिका के फायदे

* जैविक उत्पाद (रसायनरहित) होने के कारण फल और सब्जियों में पर्याप्त मात्रा में पौषक तत्व मौजूद रहते हैं.

* बाजार में फल और सब्जियों की कीमत ज्यादा होती है, जिसे न खरीदने से लगाई गई पूंजी में कमी होती है.

* परिवार के लिए ताजा फलसब्जियां मिलती रहती हैं.

* उपलब्ध सब्जियां बाजार के बजाय अच्छे गुणों वाली होती हैं.

* गृहवाटिका लगा कर औरतें परिवार की माली हालत को मजबूत बना सकती हैं.

* पोषण वाटिका से मिलने वाले मौसमी फल व सब्जियों को परिरक्षित कर सालभर तक उपयोग किया जा सकता है.

* यह मनोरंजन व कसरत का भी एक अच्छा साधन है.

* बच्चों के लिए ट्रेनिंग का यह एक अच्छा साधन भी है.

* मनोवैज्ञानिक नजरिए से खुद के द्वारा उगाई गई फलसब्जियां, बाजार के मुकाबले ज्यादा स्वादिष्ठ लगती हैं.

Home Gardenफसल की व्यवस्था

पोषण वाटिका में बोआई करने से पहले योजना बना लेनी चाहिए, ताकि पूरे साल फल व सब्जियां मिलती रहें. इस में निम्न बातों का उल्लेख होना चाहिए :

* क्यारियों की स्थिति.

* उगाई जाने वाली फसल का नाम और प्रजाति.

* बोआई का समय.

* अंत:फसल का नाम और प्रजाति.

* बोनसाई तकनीक का इस्तेमाल.

* इन के अलावा दूसरी सब्जियों को भी जरूरत के मुताबिक उगा सकते हैं.

* मेंड़ों पर मूली, गाजर, शलजम, चुकंदर, बाकला, धनिया, पोदीना, प्याज, हरा साग जैसी सब्जियां लगानी चाहिए.

* बेल वाली सब्जियां जैसे लौकी, तोरई, छप्पनकद्दू, परवल, करेला, सीताफल आदि को बाड़ के रूप में किनारों पर ही लगानी चाहिए.

* वाटिका में फल वाले पौधों जैसे पपीता, अनार, नीबू, करौंदा, केला, अंगूर, अमरूद आदि के पौधों को सघन विधि से इस तरह किनारे की तरफ  लगाएं, जिस से कि सब्जियों पर छाया या पोषक तत्त्वों के लिए होड़ न हो.

* इस फसल चक्र में कुछ यूरोपियन सब्जियां भी रखी गई हैं, जो अधिक पोषणयुक्त और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखती हैं.

* पोषण वाटिका को और ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए उस में कुछ सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं.

पोषण वाटिका में फसल चक्र अपनाने से ज्यादा फलसब्जियां

प्लाट नं. : सब्जियों व फल का नाम

प्लाट नं. 1 : आलू, लोबिया, अगेती फूलगोभी

प्लाट नं. 2 : पछेती फूलगोभी, लोबिया, लोबिया (वर्षा)

प्लाट नं. 3 : पत्तागोभी, ग्वार फ्रैंच बीन

प्लाट नं. 4 : मटर, भिंडी, टिंडा

प्लाट नं. 5 : फूलगोभी, गोठगोभी (मध्यवर्ती) मूली, प्याज

प्लाट नं. 6 : बैगन के साथ पालक, अंत: फसल के रूप में खीरा

प्लाट नं. 7 : गाजर, भिंडी, खीरा

प्लाट नं. 8 : मटर, टमाटर, अरवी

प्लाट नं. 9 : ब्रोकली, चौलाई, मूंगफली

प्लाट नं. 10 : स्प्राउट ब्रसेल्स बैंगन (लंबे वाले

प्लाट नं. 11 : लीक खीरा, प्याज

प्लाट नं. 12 : लहसुन, मिर्च, शिमला मिर्च

प्लाट नं. 13 : चाइनीज कैवेजलैट्रस-प्याज (खरीफ)

प्लाट नं. 14 : अश्वगंधा (सालभर) (शक्तिवर्धक व दर्द निवारक) अंत: फसल लहसुन

प्लाट नं. 15 : पौधशाला के लिए (सालभर)

धान में कंडुआ रोग से बचने पर दें ध्यान

प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने बताया कि पौधे से बाली निकलने के समय धान पर कंडुआ रोग का असर बढ़ने लगता है. इस रोग के कारण धान के उत्पादन पर बुरा असर पड़ने की संभावना बनी रहती है.

धान की बालियों पर होने वाले रोग को आम बोलचाल की भाषा में लेढ़ा रोग, बाली का पीला रोग से किसान जानते हैं. वैसे, अंगरेजी में इस रोग को फाल्स स्मट और हिंदी में मिथ्या कंडुआ रोग के नाम से जाना जाता है.

यह रोग अक्तूबर माह के मध्य से नवंबर माह तक धान की अधिक उपज देने वाली प्रजातियों में आता है. परंतु मौसम में बदलाव के कारण पूर्वांचल के कई जनपदों में अभी से यह रोग बालियों में देखा जा रहा है. जब वातावरण में काफी नमी होती है, तब इस रोग का प्रकोप अधिक होता है. धान की बालियों के निकलने पर इस रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं. रोग ग्रसित धान का चावल खाने पर स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. प्रभावित दानों के अंदर रोगजनक फफूंद अंडाशय को एक बड़े कटु रूप में बदल देता है, बाद में जैतूनी हरे रंग के हो जाते है.

इस रोग के प्रकोप से दाने कम बनते हैं और उपज में 10 से 25 प्रतिशत की कमी आ जाती है. मिथ्या कंडुआ रोग से बचने के लिए नियमित खेत की निगरानी करते रहें. यूरिया की मात्रा आवश्यकता से अधिक न डालें.

इस के बाद भी खेत में रोग के लक्षण दिखाई देने पर तुरंत कार्बंडाजिम 50 डब्लूपी 200 ग्राम अथवा प्रोपिकोनाजोल-25 डब्ल्यूपी 200 ग्राम को 200 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करने से रोग से नजात मिलेगी. बहुत ज्यादा रोग फैल गया हो, तो रसायन का छिड़काव न करें. कोई फायदा नहीं होगा. रोग वाले बीज को अगली बार प्रयोग न करे.

गेहूं की 5 खास किस्में

गेहूं की खेती में अगर उन्नत किस्मों का चयन किया जाए, तो किसान ज्यादा उत्पादन के साथसाथ ज्यादा मुनाफा भी कमा सकते हैं. किसान इन किस्मों का चयन समय और उत्पादन को ध्यान में रखते हुए कर सकते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईसीएआर-भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान यानी आईआईडब्ल्यूबीआर, करनाल की मानें, तो गेहूं की ये 5 किस्में सब से नई हैं और इन से उत्पादन भी बंपर होता है.

करण नरेंद्र

यह गेहूं की नई किस्मों में से एक है. इसे डीबीडब्ल्यू-222 भी कहते हैं. गेहूं की यह किस्म बाजार में साल 2019 में आई थी और 25 अक्तूबर से 25 नवंबर के बीच इस की बोवनी कर सकते हैं. इस की रोटी की गुणवत्ता अच्छी मानी जाती है.

दूसरी किस्मों के लिए जहां 5 से 6 बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है, पर इस में 4 सिंचाई की ही जरूरत पड़ती है. यह किस्म 143 दिनों में काटने लायक हो जाती है और प्रति हेक्टेयर 65.1 से 82.1 क्विंटल तक पैदावार होती है.

करन वंदना

इस किस्म की सब से खास बात यह होती है कि इस में पीला रतुआ और ब्लास्ट जैसी बीमारियां लगने की संभावना बहुत कम होती है. इस किस्म को डीबीडब्ल्यू-187 भी कहा जाता है.

गेहूं की यह किस्म गंगातटीय इलाकों के लिए अच्छी मानी जाती है. फसल तकरीबन 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 75 क्विंटल गेहूं पैदा होता है.

पूसा यशस्वी

गेहूं की इस किस्म की खेती कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के लिए सब से सही मानी जाती है. यह फफूंदी और गलन रोग प्रतिरोधक होती है. इस की बोआई का सही समय 5 नवंबर से 25 नवंबर तक ही माना जाता है. इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 57.5 से 79.60 क्विंटल तक पैदावार होती है.

करण श्रिया

गेहूं की यह किस्म जून, 2021 में आई थी. इस की खेती के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, ?ारखंड, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य ठीक माने जा रहे हैं.

तकरीबन 127 दिनों में पकने वाली किस्म को मात्र एक सिंचाई की जरूरत पड़ती है. प्रति हेक्टेयर अधिकतम पैदावार 55 क्विंटल है.

डीडीडब्ल्यू-47

गेहूं की इस किस्म में प्रोटीन की मात्रा सब से ज्यादा तकरीबन 12.69 फीसदी होती है. इस के पौधे कई तरह के रोगों से लड़ने में सक्षम होते हैं. कीट और रोगों से खुद की सुरक्षा करने में यह किस्म सक्षम है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन तकरीबन 74 क्विंटल है.

कृषि से जुड़ी काम की बातें

धान की नर्सरी

* धान की नर्सरी डालने के लिए खेत की तैयारी करें. साथ ही, उन्नतशील किस्मों में नरेंद्र धान-359, नरेंद्र धान-2026, नरेंद्र धान-2064, नरेंद्र धान-2065, नरेंद्र धान-3112, सरजू-52, सीता आदि हैं और संकर किस्मों में एराइज-6444, प्रो. एग्रो-6201, पीएचबी-71, पायनियर-27 पी 31, 27 पी 37, 28 पी 67, आरआरएक्स-113, कावेरी-468, केआरएच-2, यूएस-312, आरएच-312, आरएच-1531 आदि हैं और सुगंधित धान की किस्म-टाइप-3, पूसा बासमती-1, मालवीय सुगंध-105, मालवीय सुगंध-3-4, नरेंद्र सुगंध एवं सीएलआर-10 आदि में से किसी एक किस्म के बीजों एवं खाद की व्यवस्था कर नर्सरी डालें.

* धान के बीजों की नर्सरी डालने के 15 दिन पूर्व खेत में हलकी सिंचाई करें, ताकि खेत में निकलने वाले खरपतवार खेत तैयार करते समय नष्ट हो जाएं.

अरहर

* अरहर की बोआई के लिए खेत को तैयार करें. बीज किसी प्रमाणित संस्था या कृषि विज्ञान केंद्र से ही खरीदें. किसानों को सलाह है कि वे बीजों को बोने से पहले अरहर के लिए उपयुक्त राईजोबियम और फास्फोरस में घुलनशील बैक्टीरिया से अवश्य उपचार कर लें.

अरहर की उन्नत किस्में

* पूसा-2001, पूसा-991, पूसा-992, पारस, मानक, यूपीएएस यानी उपास 120.

* खरीफ मक्का की बोआई के लिए खेतों की तैयारी करें, साथ ही उन्नतशील संस्तुति संकुल एवं संकर प्रजातियां-प्रकाश, वाई-1402, बायो-9681, प्रो.-316, डी-9144, दिकाल्ब-7074, पीएचबी-8144, दक्कन 115, एमएमएच-133 आदि में से किसी एक प्रजाति की बोआई के लिए खाद एवं बीज की व्यवस्था करें.

* मक्के की संकुल प्रजाति की बोआई के लिए 20-25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर और संकर प्रजाति के लिए 18-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई करें.

फसल सुरक्षा

* मूंग की फसल में फली बेधक कीट का प्रकोप दिखाई देने की संभावना है. अत: इस की रोकथाम के लिए इमामेक्टिन बेंजोएट 5 फीसदी एसजी 220 ग्राम प्रति हेक्टेयर या डाईमेथोएट 30 फीसदी ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600-700 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव आसमान साफ होने पर करें.

* सब्जियों की फसलों में फल छेदक/पत्ती छेदक कीट की रोकथाम के लिए नीम औयल 1.5-2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 3-4 छिड़काव 8-10 दिन के अंतराल पर करें. सब्जियों की खड़ी फसलों में निराईगुड़ाई करें और सिंचाई का काम 8-10 दिन के अंतराल पर शाम के समय करें.

* फल मक्खी कीट की संख्या जानने और उस के नियंत्रण के लिए कार्बारिल 0.2 फीसदी+प्रोटीन हाईड्रोलाइसेट या सीरा 0.1 फीसदी अथवा मिथाइल यूजीनाल 0.1 फीसदी+मैलाथियान 0.1 फीसदी के घोल को डब्बे में डाल कर ट्रैप लगाएं.

Animalपशुपालन में बरतें सावधानी

* पशुओं को दिन के समय छायादार जगह पर बांध कर रखें. पशुशाला में बोरे का परदा डाल कर रखें और उस पर पानी का छिड़काव कर ठंडा रखें.

* पशुओं को पीने के लिए पर्याप्त मात्रा में ताजा और शुद्ध पानी उपलब्ध कराएं. तेज धूप से काम कर के आए पशुओं को तुरंत पानी न पिलाएं. आधा घंटा सुस्ताने के बाद पानी दें. पशुओं को सुबह और शाम नहलाएं.

* पेट में कीड़ों से बचाव के लिए पशुओं को कृमिनाशक दवा दें. खुरपकामुंहपका रोग की रोकथाम के लिए एफएमडी वैक्सीन से और लंगडि़या बुखार की रोकथाम के लिए बीक्यू वैक्सीन से पशुओं का टीकाकरण अवश्य कराएं. पशुओं में गलघोंटू और फड़ सूजन की रोकथाम के लिए टीकाकरण कराएं. शाम के समय पशुओं के पास नीम की पत्तियों का धुआं करें, ताकि मच्छर व मक्खी भाग जाएं.

Farmingमुरगीपालन

* मुरगियों को भोजन में पूरक आहार दें. विटामिन व ऊर्जा खाद्य सामग्री इस में मिलाएं और साथ ही साथ कैल्शियम सामग्री भी मुरगियों को आहार में दें.

* पेट में कीड़ों की रोकथाम के लिए दवा दें. मुरगियों को गरमी से बचाव के लिए मुरगीघर में परदे, पंखे और वैंटिलेशन की व्यवस्था करें.

* मुरगियों को गरमी से बचाने के लिए मुरगीघर में लगे हुए जूट के परदों पर पानी के छींटे मारें, जिस से ठंडक बनी रहे.

श्रीविधि तकनीक से धान की खेती

यह धान की खेती की ऐसी तकनीक है, जिस में बीज, पानी, खाद और मानव श्रम का समुचित तरीके से इंतजाम करना शामिल है, जिस का मकसद प्रति इकाई क्षेत्रफल में ज्यादा से ज्यादा उत्पादकता बढ़ाना है.

जमीन का चुनाव

इस विधि में खासतौर से जमीन, पानी और दूसरे पोषक तत्त्वों के बेहतर इंतजाम से पौधे की जड़ों के ज्यादा से ज्यादा विकास पर जोर दिया जाता है. इस के लिए जमीन में अंत:कर्षण क्रियाएं समयसमय पर जरूर करनी चाहिए, ताकि जमीन में नमी बनी रहे, जो सूक्ष्म जीवाणुओं की सक्रियता बढ़ाने में मददगार होती है.

धान की खेती सभी तरह की जमीन में की जा सकती है, फिर भी इस के लिए दोमट चिकनी मिट्टी, पानी सोखने की ज्यादा कूवत वाली और ज्यादा जैविक तत्त्वों से भरपूर वाली जमीन अच्छी मानी जाती है, जिस की जल धारण की कूवत ज्यादा हो.

नर्सरी की तैयारी

परंपरागत विधि से धान की खेती एक एकड़ क्षेत्रफल में करने के लिए 12-16 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है, पर श्री विधि में एक एकड़ धान की खेती के लिए सिर्फ 2 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. इस के लिए 400 वर्गफुट की जगह पर नर्सरी तैयार की जाती है.

नर्सरी बनाने के समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए. इस विधि से 10-14 दिन में पौध का रोपण किया जाता है. नर्सरी की क्यारी बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि क्यारी खेत के बीच या कोने में बनाई जाए, जहां पौध रोपण करना है. लंबाई हालात के मुताबिक व बैड की ऊंचाई आधार तल से 6 इंच होनी चाहिए.

पहली परत : 1 इंच गोबर की सड़ी खाद.

दूसरी परत : 1-1.5 इंच बारीक मिट्टी.

तीसरी परत : 1 इंच सड़ी गोबर की खाद.

चौथी परत : 2-5 इंच बारीक मिट्टी.

मल्चिंग : 3-4 दिन तक.

नर्सरी में रासायनिक खाद के बजाय गोबर की सड़ी खाद का इस्तेमाल करना चाहिए. इस से मिट्टी मुलायम रहने से पौध को बिना नुकसान पहुंचाए खेत तक ले जाया जाता है.

नर्सरी में बीज की बोआई

शोधित बीज को हाथ से लाइन बना कर 1-1 कर के लाइन से बोया जाता है और उस पर एक हलकी परत सड़ी गोबर की खाद डाली जाती है और आखिर में नर्सरी बैड को पुआल से ढक दिया जाता है. बीज जमने के बाद पुआल को हटा दिया जाता है.

पुआल हटाने के बाद सुबहशाम रोजाना हलकी सिंचाई जरूर करें. सिंचाई करते समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि बीज मिट्टी से बाहर न निकले.

Paddy Farming

खेत की तैयारी

इस विधि में दूसरी फसलों की तरह खेत की तैयारी की जाती है. खेत की जुताई करने के बाद पाटा लगा देते हैं. इस के बाद मार्कर यंत्र से खेत में लाइन बनाते हैं या फिर रस्सी की मदद से खेत में 25×25 सैंटीमीटर या 30×30 सैंटीमीटर पर लाइन खींच लेते हैं. जहां कटान होता है, वहीं पर प्रति हिल एक पौध की रोपाई की जाती है. इस विधि में परंपरागत विधि की तुलना में प्रति पौधा ज्यादा कड़े निकलते हैं.

पौध रोपण और सावधानियां

क्यारी में बीज बोने के बाद तकरीबन 10-14 दिन की पौध को सावधानी से निकाल कर 1-1 कर के मुख्य खेत में आधे घंटे के अंदर सावधानी से रोपना चाहिए और खेत में 2 सैंटीमीटर से अधिक पानी नहीं भरा होना चाहिए.

पौध की तैयारी

पौधे से पौधे की दूरी 25×25 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और एक हिल पर एक ही पौध रोपना चाहिए. अगर जमीन की उर्वराशक्ति अधिक हो तो पौधे से पौधे की दूरी 30×30 सैंटीमीटर बढ़ा सकते हैं.

खरपतवार नियंत्रण और जड़ों का विकास

अच्छे पौधे विकसित हों, इस के लिए खेत में नमी बनाए रखें. बहुत ज्यादा पानी न भरें और जमीन में रंद्रावकाश अच्छा रखने के लिए खेत में कोनोवीडर से निराईगुड़ाई करें. जरूरत के हिसाब से ही पानी दें, जिस से पानी की बचत होगी.

सिंचाई

इस विधि में जरूरत के हिसाब से एक तय समय के बाद सिंचाई करते हैं, जिस से खेत में नमी बनाए रखने के साथसाथ जमीन में वायु का संचार अच्छा रहे. खेत में 1-2 सैंटीमीटर से ज्यादा पानी नहीं देना चाहिए. पानी की कमी को ध्यान में रख कर इस तकनीक की अहमियत और ज्यादा बढ़ गई है.

गोबर की खाद या कंपोस्ट का इस्तेमाल

इस विधि में धान की ज्यादा उपज लेने के लिए कार्बनिक खादों जैसे गोबर की खाद या कंपोस्ट का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए. कार्बनिक खाद मुहैया न होने पर जमीन की उर्वराशक्ति की जांच के आधार पर नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का इस्तेमाल कर सकते हैं.

गन्ने से गुड़ बनाएं आमदनी बढ़ाएं

आज के समय में गन्ने की फसल किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए वरदान साबित हो रही है, लेकिन गन्ना पैदा करने वाले किसानों को अपनी गन्ना फसल को खांड़सारी व शुगर मिलों में ले जा कर बेचना काफी मेहनत भरा काम लगता है.

शुगर मिलों में लंबी लाइनों में अपने ट्रैक्टरट्रौली को खड़ा करना पड़ता है. 2-3 दिन के इंतजार के बाद गन्ना फसल की तुलाई होती है और फसल के मूल्य का भुगतान भी महीनों बाद मिल पाता है.

ऐसे में गन्ना किसान अगर अपने खेत पर गुड़भट्ठी लगा कर गुड़ बनाएं तो उन की मेहनत व समय की बचत के साथ ही लोकल लोगों को रोजगार मिलेगा. अपनी भट्ठी में बने गुड़ को लोकल हाट, बाजारों में ले जा कर उन्हें अच्छी कीमत मिल सकती है. बड़े गुड़ कारोबारी भी किसानों के गुड़ को खरीद कर साप्ताहिक भुगतान कर देते हैं.

ganna

गुड़ बनाने के लिए जमीन में गड्ढा खोद कर भट्ठी तैयार की जाती  है. ईंटों की जुड़ाई से चिमनी बनाई जाती है. ज्यादातर किसान आयताकार भट्ठी बनाते हैं. गन्ना पिराई के लिए क्रेशर लगाया जाता है, जो बिजली के अलावा ट्रैक्टर से भी चलाया जा सकता है.

गन्ना क्रेशर के पास ही गन्ने के रस को स्टोर करने के लिए सीमेंट या लोहे की धातु से बने टैंक का इस्तेमाल किया जाता है.

गन्ना के रस को गरम करने के लिए आयताकार या चौकोर आकार की बड़ीबड़ी कड़ाहियों का इस्तेमाल किया जाता है.

भट्ठी के निचले भाग में आग जला कर भट्ठी को गरम किया जाता है. शुरू में कुछ ईंधन की व्यवस्था करनी होती है. बाद में क्रेशर से रस निकालने के बाद गन्ने के जो अवशेष बचते हैं, उन्हें मैदान में फैला कर व सुखा कर ईंधन में इस्तेमाल किया जाता है.

Jaggeryगन्ने के रस को बड़ीबड़ी कड़ाहियों में भर कर भट्ठी पर गरम किया जाता है. जैसेजैसे रस उबलता है, उस में झाग आते हैं. ये झाग रस में मिला हुआ मैल या कूड़ा होता है. इसे एक करछी या छलनी की मदद से अलग कर दिया जाता है. भट्टी का ताप बढ़ते ही रस उबलने लगता है और गुड़ जमने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.

जैसे ही गुड़ जमना शुरू होता है, उसे चट्टू की सहायता से खरोंच कर अलगअलग नाप वाले सांचों में भर दिया जाता है. सांचों में तेल की चिकनाई लगा दी जाती है. सांचों में भरे गुड़ को ठंडा होने के बाद बाहर निकाला जाता है.

जबलपुर जिले के खजरी दोनी गांव के किसान अभिषेक चंदेल बताते हैं कि वे अपनी गन्ना फसल शुगर मिलों को देने के बजाय अपने खेत पर गुड़भट्ठी बना कर देशी गुड़ बनाने का काम करते हैं. उन की गुड़भट्ठी में गांव के 8-10 नौजवानों को कामधंधा भी मिल जाता है और गुड़ बना कर बाजार में बेचने से शुगर मिलों से ज्यादा दाम भी किसानों को मिल जाते हैं. एक एकड़ के गन्ने से 45 से 50 क्विंटल गुड़ आसानी से बन जाता है. 5, 10, और 20 किलोग्राम की पैकिंग में परियां बना कर देशी गुड़ को रखा जाता है. हाट और बड़े बाजार के अलावा बड़ी तादाद में आसपास के गांव वाले देशी गुड़ उन की भट्ठी से भी खरीद कर ले जाते हैं.

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के करताज गांव के किसान राकेश दुबे बताते हैं कि उन्होंने 4 एकड़ जमीन में जैविक खेती के जरीए गन्ने की पैदावार ली. उन के द्वारा बीते 2 साल में गन्ने का उत्पादन 900 क्विंटल प्रति एकड़ तक पहुंच गया और जैविक तरीके से कैमिकलरहित गुड़ बनाने का काम शुरू किया.

‘कुशल मंगल’ नाम से रजिस्टर्ड जैविक गुड़ का दाम बाजार में 50 से 70 रुपए प्रति किलोग्राम है. गन्ने की खेती से राकेश दुबे डेढ़ से 2 लाख रुपए प्रति एकड़ तक की आमदनी हासिल कर रहे हैं.

राकेश दुबे के मुताबिक, एक एकड़ में जैविक गुड़ 30 से 35 क्विंटल तक निकलता है, जबकि कैमिकल गुड़ 50 से 60 क्विंटल तक निकलता है. जैविक गुड़ की मार्केटिंग खुद करनी पड़ती है. भाव सही मिलने से मुनाफा ज्यादा होता है. जैविक गन्ने की लागत भी कम आती है. अभी सब से ज्यादा इन का गुड़ चंडीगढ़ जाता है. महाराष्ट्र, जयपुर, गुजरात, राजस्थान, हैदराबाद में भी इस की अच्छीखासी मांग है.

जैविक गुड़ विदेश में भी

गन्ने की खेती का 20 साल का अनुभव साझा करते हुए राकेश दुबे ने कहा, ‘‘किसानों को बाजार में गन्ने का न तो सही भाव मिलता है और न ही समय पर पैसा मिलता है. इसलिए हमारे जिले के ज्यादातर किसान गन्ने का उत्पाद बना कर ही बेचते हैं.

‘‘मैं ने यह काम बड़े पैमाने पर जैविक तरीके से शुरू किया. एक क्विंटल गन्ने से 13 किलोग्राम जैविक गुड़ बनता है.’’

नरसिंहपुर जिले में बनने वाले इस जैविक गुड़ का ‘कुशल मंगल’ नाम से रजिस्ट्रेशन हो चुका है. राकेश दुबे ने इस के लिए एक फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी बनाई है, जिस में 22 किसान हैं. अब ये किसान भी जैविक गन्ने के उत्पादन के साथ ही जैविक गुड़ बनाने की शुरुआत कर चुके हैं.

जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय में पिछले साल लगे कृषि मेले में इन के गुड़ की काफी मांग थी. कस्टम एजेंट की मदद से भी राकेश दुबे के गुड़ की मांग विदेशों में बढ़ी है. ये गुड़ औनलाइन अमेजन पर भी उपलब्ध है. कार्गो सर्विस, पोस्टल सर्विस, कोरियर ट्रांसपोर्ट के द्वारा दुबई और श्रीलंका जैसों देशों में भी ये गुड़ भेजा जाता है.

स्वास्थ्यवर्धक रहता है गुड़

जहां शक्कर या चीनी सिर्फ सुक्रोज से बनती है, वहीं गुड़ मुख्य रूप से सुक्रोज, मिनरल्स, आयरन और कुछ फाइबर से बनता है. इसलिए गुड़ दोनों से ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है. चीनी और गुड़ के बीच का अंतर शरीर पर साफ दिखता है.

चीनी सुक्रोज का सरलतम रूप है, जो खून में तुरंत घुल जाता है. इस वजह से तुरंत ऊर्जा मिलती है. इसलिए मधुमेहग्रस्त लोगों को इस से दूर रहने के लिए कहा जाता है.

दूसरी तरफ गुड़ सुक्रोज की लंबी शृंखला से बना है, जिस के कारण हजम भी देर से होता है और ऊर्जा भी धीरेधीरे निकलती है. यह ऊर्जा बहुत देर तक रहती है और नुकसान भी नहीं होता है. गुड़ को लोहे के पात्र में प्रोसैस किया जाता है, इसलिए यह आयरन का स्रोत होता है.

डाक्टर बीएल चौहान के मुताबिक, गुड़ माइग्रेन को ठीक करने में मदद करता है और रजोस्राव के दौरान होने वाली ऐंठन में आराम दिलाता है. बच्चे को जन्म देने के बाद नई मां को गुड़ का काढ़ा इसीलिए दिया जाता है क्योंकि शिशु के जन्म के 40 दिन के बीच खून के थक्के को निकालने में मदद करता है.

गुड़ में जो सेलेनियम रहता है, वह ऐंटीऔक्सिडैंट का काम करता है जबकि पोटैशियम और सोडियम शरीर की कोशिकाओं में अम्लीय संतुलन को बनाए रखता है और ब्लड प्रैशर को संतुलत करता है.

वैसे, गुड़ में संतुलित मात्रा में कैल्शियम, फास्फोरस और जिंक रहता है जो खून को साफ करता है, वात रोग से बचाता है और पित्त विकार को ठीक करता है. गुड़ पीलया को ठीक करने में भी मदद करता है.

गन्ने से गुड़ बनाने की उन्नत तकनीक की जानकारी के लिए राकेश दुबे के मोबाइल नंबर 9425448313 और अभिषेक चंदेल के मोबाइल नंबर 9303375525 पर जानकारी ली जा सकती है.

धान की खेती से जुड़े सवाल जवाब व सुझाव

स्वस्थ एवं रोग व कीट से मुक्त धान की नर्सरी ही अधिक व गुणवत्तापूर्ण धान के उत्पादन का आधार होता है. नर्सरी स्वस्थ होनी चाहिए. खेतों की मेंड़ों को रोपाई से पहले साफसुथरा कर लेना चाहिए, जिस से कीट नहीं पनपते हैं.

सवाल : धान की रोपाई कब तक कर लेना उचित होता है?

जवाब : धान की रोपाई जुलाई माह के मध्य तक अवश्य कर लें. उस के बाद उपज में कमी निरंतर होने लगती है. यह कमी 30 से 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर में प्रतिदिन होती है.

सवाल : धान की कितने दिन की नर्सरी लगाना ज्यादा अच्छा रहता है?

जवाब : धान की 21 से 25 दिन की नर्सरी रोपाई के लिए सब से उपयुक्त होती है.

सवाल : धान की रोपाई की उचित दूरी क्या होनी चाहिए?

जवाब : साधारण उर्वरा भूमि में पंक्तियों एवं पौधों की दूरी 20 × 10 सैंटीमीटर उर्वरा भूमि में 20× 15 सैंटीमीटर रखें. पौधों की रोपाई 3 से 4 सैंटीमीटर से अधिक गहराई पर नहीं करनी चाहिए, अन्यथा कल्ले कम निकलते हैं और उपज में कमी होती है. एक स्थान पर 2 से 3 पौधे लगाएं. अगर वर्षा देर से हो रही है या फिर रोपाई में देरी होने के कारण एक स्थान पर 3 से 4 पौधे लगाना उचित होगा.

ध्यान रहे कि समय से रोपाई पर प्रति वर्गमीटर क्षेत्रफल में 50 हिल अवश्य होना चाहिए. ऊसर और देर से रोपाई की स्थिति में 65 से 70 हिल प्रति वर्गमीटर क्षेत्रफल में होना चाहिए.

Paddy Farmingरोपाई के बाद जो पौधे मर जाएं, उन के स्थान पर दूसरे पौधों को तुरंत लगा दें. अच्छी उपज के लिए प्रति वर्गमीटर क्षेत्रफल में 250 से 350 बालियों की संख्या होनी चाहिए.

सवाल : धान की नर्सरी बड़ी होने पर किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

जवाब : धान की नर्सरी बड़ी हो जाने पर और देर से रोपाई की स्थिति में पौधों की चोटी चार अंगुल ऊपर से काट कर रोपाई करनी चाहिए, जिस से नर्सरी में दिए हुए कीटों के अंडे नष्ट हो जाएंगे और एक स्थान पर 3-4 पौधे लगाने चाहिए.

– प्रो. रवि प्रकाश मौर्य, (सेवानिवृत्त वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष), निदेशक प्रसार्ड ट्रस्ट, मल्हनी, भाटपार रानी, देवरिया-274702 (उ.प्र.)

रोपें बांस, कमाएं पैसा

बांस से निर्मित वस्तुएं देखने में खूबसूरत, मजबूत व टिकाऊ होती हैं. इस की अलगअलग क्वालिटी के अनुसार इस का रेट भी किसानों को अच्छा मिलता है. इसलिए किसानों के लिए बांस की खेती फायदेमंद साबित होती रही है. बांस को एक बार रोपने के बाद 30-40 सालों तक उस की फसल ली जा सकती है.

बांस की विभिन्न वस्तुओं में उपयोग के अनुसार उस की अलगअलग किस्में आती हैं. लाठी के लिए प्रयोग किया जाना वाला बांस ठोस एवं पतला व कम लंबाई वाला होता है, वहीं घरों के निर्माण प्रयोग में आने वाले बांस की लंबाई अन्य किस्मों की अपेक्षा अधिक होती है. इस की कंटीली प्रजाति में मजबूती अधिक पाई जाती है व खोखलापन कम होता है. बांसुरी के लिए पतले बांस की किस्में प्रयोग में लाई जाती हैं, वहीं सजावटी वस्तुओं के निर्माण में प्रयोग में होने वाला बांस पीला, हरा व खोखला होता है.

बांस की खेती देश के हर कोने में की जा सकती है. यह पठारी, दोमट, बलुई, चिकनी, ऊसर व पथरीली जमीनों पर भी आसानी से उगाया जाने वाला पौधा है.

बांस की खेती खाली पड़ी जमीनों, नाले, नहरों व नदियों के किनारे स्थित खाइयों व नमी वाले स्थानों पर आसानी से की जा सकती है.

पूरे भारत में बांस की सब से अधिक खेती व अधिक किस्में पूर्वोत्तर राज्यों में पाई जाती है. बांस की खेती सिर्फ क्षारीय मिट्टी में नहीं की जा सकती है.

बांस की उन्नत प्रजातियां

अभी तक बांस की कुल 1,250 प्रजातियां पाई गई हैं, जिस में से 145 प्रजातियों को भारत में या तो उगाया जाता है या वह अपनेआप ही उग आता है.

भारत में उगाई जाने वाली बांस की कुछ उन्नत प्रजातियां निम्न है :

बैब्यूसा वलगैरिस

इस प्रजाति के बांस पीली, हरी व धारीधार होती है, जो देखने में बहुत खूबसूरत लगते हैं. इस वजह से इस की मांग सजावटी वस्तुओं के निर्माण के लिए ज्यादा होती है.

बैंब्यूसा टुल्ला

इस बांस की प्रजाति अपेक्षाकृत लंबी होती है.

बैंब्यूसा स्पायनोसा

इस किस्म में कांटे पाए जाते हैं. यह मजबूत होती है. इस की खेती उत्तरपश्चिम भारत में ज्यादा होती है.

डेंड्रोकलामस सख्त

इस प्रजाति के बांस मजबूत होते हैं व लंबाई में अधिक होते हैं.

बंबूसा नूतन

इस किस्म के बांस का उपयोग कई कामों में किया जाता है, इसलिए इस की मांग ज्यादा होती है.

मेलोकन्ना बंबूसोइड्स

इस बांस की किस्म की खेती पश्चिम बंगाल में अधिक होती है.

बैब्यूसा अरंडनेसी

यह सब से लंबी किस्म होती है. इस की ऊंचाई 30-40 फुट होती है, जो 30-100 के झुंड में एकसाथ उगती है.

बांस की रोपाई की तैयारी

बांस की रोपाई जुलाई से सितंबर माह तक की जा सकती है. यह नर्सरी तैयार कर राइजोम या उस की गांठों के द्वारा रोपा जाता है. बांस की रोपाई के लिए 30 सैंटीमीटर के लंबाई, चौड़ाई व गहराई का गड्ढा खोद कर 5×6 का अंतराल रखा जाता है.

बांस की नर्सरी तैयार करने के लिए उस के बीज को 24 घंटे तक पानी में भिगोए जाते हैं. इस दौरान एक बार पानी बदलना जरूरी होता है.

बांस के बीज : बांस की फसल रोपे जाने के 20-40 सालों के बीच सिर्फ एक बार पौधों में फूल आने से प्राप्त होते हैं. इस के बीज चावल की तरह होते हैं.

बांस के एक किलोग्राम बीज में लगभग 4,000 बीज होते हैं. बांस के पुंज में एकसाथ फूल आता है और सभी बांस फूल आने के बाद सूख जाते हैं.

अगर बांस की रोपाई उस की गांठों से करनी है, तो काटे गए बांसों की जड़ों को खोद कर उसे जुलाई से सितंबर माह तक रोप देना चाहिए और प्रत्येक दो माह के अंतराल पर इस की सिंचाई करते रहना चाहिए. इस के अलावा इस की जड़ों में सड़ी हुई गोबर की खाद व पत्तियों का प्रयोग करने से कल्ले अधिक फूटते हैं व फसल की बढ़वार अधिक होती है.

फसल की रोपाई के बाद पांचवे वर्ष से बांस की फसल मिलनी शुरू हो जाती है. इस के प्रत्येक पुंज में 5 से 10 वर्ष के बीच में किस्मों के अनुसार 15-100 कल्ले प्राप्त होते हैं. 15-20 वर्ष के बाद कल्लों की संख्या बढ़ जाती है और 30 वर्ष के बाद कल्लों की संख्या घटनी शुरू हो जाती है.

बांस की कटाई

बांस के पौधे अन्य फसलों की तरह नहीं होते हैं. इस की पुंजों से जो भूमिगत तना निकलता है, वह बड़ी तेजी से बढ़ता है और किसीकिसी किस्म की बढ़वार एक दिन में एक मीटर तक की होती है.

बांस 2 माह में अपना पूरा विकास कर लेता है. बांस के अच्छे बढ़वार के लिए वर्षा ऋतु में इस के पुंजों की बगल में मिट्टी चढ़ा कर जड़ों को ढक देना चाहिए.

बांस की कटाई उस के होने वाले उपयोग पर निर्भर करता है. अगर बांस की टोकरी बनानी है, तो वह 3-4 वर्ष पुरानी फसल हो. अगर मजबूती के लिए बांस की आवश्यकता है, तो 6 वर्ष की फसल ज्यादा उपयुक्त होती है.

बांस की कटाई का उपयुक्त समय अक्तूबर के दूसरे सप्ताह से दिसंबर माह तक का होता है. गरमी के मौसम में बांस की कटाई नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इस से जड़ें सूख सकती हैं और कल्ले फूटने की कम संभावनाएं होती हैं.

बांस की खूबियां

बांस को अगर पर्यावरण मित्र कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति न होगा, क्योंकि इस के एक हेक्टेयर खेत से 17 टन कार्बन अवषोषित किया जाता है. यह सर्वाधिक औक्सीजन छोड़ने वाला पौधा है. इसलिए यह वातावरण में शुद्ध वायु छोड़ने का एक प्रमुख घटक भी है.

बांस की एक खूबी यह भी है कि अगर इस की तुलना एक पेड़ से की जाए तो वह पेड़ 18 मीटर की लंबाई में बढ़ने के लिए 30-60 वर्ष का समय लेता है, जबकि बांस मात्र 30-60 दिनों के भीतर में 18 मीटर लंबाई में बढ़ जाता है.

बांस की खेती के अनगिनत लाभ

किसान राममूर्ति मिश्रा का कहना है कि बांस की खेती में न्यूनतम लागत व कम देखभाल की जरूरत होती है. इसे एक बार रोपने के बाद कई सालों तक फसल ली जा सकती है.

बांस प्रत्यक्ष रूप से किसान को लाभ तो देता ही है, साथ ही यह अप्रत्यक्ष रूप से भी कइयों को लाभ देने का माध्यम साबित हो रहा है.

Bamboo Products
Bamboo Products

 

देश में लाखों परिवार बांस आधारित उद्योग से अपना जीवनयापन कर रहे हैं. बांस से बनी हुई चीजें देशी पर्यटकों द्वारा महंगे दामों पर खरीदी जाती हैं. इस से महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधन, हेयर क्लिप, ग्रीटिंग कार्ड, चम्मच, तीरधनुष, खेती के उपकरण, कुरसीमेज, मछली पकड़ने का कांटा, चारपाई, डलिया जैसी हजारों वस्तुओं का निर्माण किया जाता है, इसलिए बांस को हरा सोना भी कहा जा सकता है.

गन्ने के साथ राजमा की खेती

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना मुख्य फसल के रूप में उगाया जाता है. नकदी फसल होने और तमाम चीनी मिलें होने की वजह से किसानों के बीच गन्ना बहुत ही लोकप्रिय फसल है. इस की खेती ज्यादातर एकल फसल के रूप में की जाती है. किसान गन्ने की फसल को नौलख या पेड़ी के रूप में 2-3 साल तक लेते रहते हैं. अनेक किसान गन्ने के साथ अन्य फसल भी लेते हैं जिसे हम सहफसली खेती के रूप में जानते हैं. ऐसा करने से गन्ने की खेती में मुनाफा भी बढ़ जाता है.

गन्ना और राजमा की सहफसली खेती

खेत का चुनाव व तैयारी : गन्ना और राजमा की खेती के लिए समतल जीवांशयुक्त बलुई दोमट मिट्टी का चुनाव करना चाहिए. गोबर की खाद को खेत में डाल कर 4-5 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए.

बीज का चुनाव व बोआई : पंत अनुपमा, अर्का कोमल, करिश्मा, सेमिक्स, कंटेंडर वगैरह राजमा की उन्नत प्रजातियां हैं. राजमा के बीजों को कार्बंडाजिम की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. गन्ने के बीजोपचार के लिए कार्बंडाजिम की 200 ग्राम मात्रा को 100 लिटर पानी में घोल कर टुकड़ों को उस में 25-30 मिनट तक डुबोएं.

गन्ना और राजमा की सहफसली खेती में राजमा के 80 किलोग्राम और गन्ने के 60 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए. बोआई 25 अक्तूबर से 15 नवंबर के मध्य कर लेनी चाहिए. गन्ने की 2 लाइनों के बीच राजमा की 2 लाइनों की मेंड़ों पर बोआई करें.

 

निराईगुड़ाई व सिंचाई : दोनों फसलों की बोआई सर्दी के मौसम में होने की वजह से खरपतवारों की समस्या कम रहती है, फिर भी खरपतवार निकालने के लिए फसल में 2-3 बार निराईगुड़ाई करें. पूरे फसलोत्पादन के दौरान जमीन को नम बनाए रखें, ताकि फसल को पाले से सुरक्षित रखा जा सके.

खाद व उर्वरक : खेत में 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद मिलानी चाहिए. इस के अलावा 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 80 किलोग्राम पोटाश और 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट उर्वरकों का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

फसल सुरक्षा : बोआई से पहले बीजोपचार जरूर करें. आमतौर पर फलियां बनते समय फली भेदक, पर्ण सुरंगक व कुछ चूषक कीटों का हमला हो जाता है. कभीकभी मोजैक रोग का संक्रमण भी हो जाता है.

उन्नत तकनीक से खेती करने पर राजमा की फलियों की औसत उपज 50-60 क्विंटल प्रति एकड़ तक हासिल हो जाती है और तकरीबन 40,000 रुपए प्रति एकड़ अतिरिक्त आमदनी हो जाती है. इस के साथ ही गन्ने की उत्पादकता में भी इजाफा होता है.

खास वजह यह भी है कि खेत में डाली गई खाद व उर्वरकों का अधिकतम इस्तेमाल भी है. खरपतवार प्रबंधन का लाभ दोनों फसलों द्वारा हासिल किया जाता है और सहफसल में अपनाए गए कीट व रोग प्रबंधन का लाभ मुख्य फसल को भी मिल जाता है.

कीटों व रोगों की रोकथाम

* नीम का तेल 1.5 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. इस के इस्तेमाल से फसल की सुरक्षा भी हो जाती है और इनसानों की सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ता है.

* नीम का तेल न होने पर 2 लिटर क्विनालफास 25 ईसी या 1.25 लिटर मोनोक्रोटोफास 36 एसएल या 2 किलोग्राम कार्बारिल 50 डब्लूपी को 600-700 लिटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से 12-14 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.