बांस से निर्मित वस्तुएं देखने में खूबसूरत, मजबूत व टिकाऊ होती हैं. इस की अलगअलग क्वालिटी के अनुसार इस का रेट भी किसानों को अच्छा मिलता है. इसलिए किसानों के लिए बांस की खेती फायदेमंद साबित होती रही है. बांस को एक बार रोपने के बाद 30-40 सालों तक उस की फसल ली जा सकती है.
बांस की विभिन्न वस्तुओं में उपयोग के अनुसार उस की अलगअलग किस्में आती हैं. लाठी के लिए प्रयोग किया जाना वाला बांस ठोस एवं पतला व कम लंबाई वाला होता है, वहीं घरों के निर्माण प्रयोग में आने वाले बांस की लंबाई अन्य किस्मों की अपेक्षा अधिक होती है. इस की कंटीली प्रजाति में मजबूती अधिक पाई जाती है व खोखलापन कम होता है. बांसुरी के लिए पतले बांस की किस्में प्रयोग में लाई जाती हैं, वहीं सजावटी वस्तुओं के निर्माण में प्रयोग में होने वाला बांस पीला, हरा व खोखला होता है.
बांस की खेती देश के हर कोने में की जा सकती है. यह पठारी, दोमट, बलुई, चिकनी, ऊसर व पथरीली जमीनों पर भी आसानी से उगाया जाने वाला पौधा है.
बांस की खेती खाली पड़ी जमीनों, नाले, नहरों व नदियों के किनारे स्थित खाइयों व नमी वाले स्थानों पर आसानी से की जा सकती है.
पूरे भारत में बांस की सब से अधिक खेती व अधिक किस्में पूर्वोत्तर राज्यों में पाई जाती है. बांस की खेती सिर्फ क्षारीय मिट्टी में नहीं की जा सकती है.
बांस की उन्नत प्रजातियां
अभी तक बांस की कुल 1,250 प्रजातियां पाई गई हैं, जिस में से 145 प्रजातियों को भारत में या तो उगाया जाता है या वह अपनेआप ही उग आता है.