प्राकृतिक खेती : कम लागत सुरक्षित उपज

प्राकृतिक खेती का मतलब बिना कैमिकल के प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए खेती करना है. मतलब, किसान जो भी फसल उगाए, उस में फर्टिलाइजर कीटनाशकों का इस्तेमाल न करे. इस में रासायनिक खाद के स्थान पर वह खुद जानवरों के सड़े गोबर से तैयार की हुई खाद का इस्तेमाल अपने खेतों में करे. यह खाद गाय और भैंस के गोबर या गोमूत्र, चने का बेसन, गुड़, मिट्टी व पानी से बनाए. इस से फसल में रोग नहीं लगता और पैदावार भी आसानी से बढ़ती है.

प्राकृतिक खेती में मिट्टी की सतह पर ही रोगाणुओं और केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के अपघटन को प्रोत्साहित किया जाता है. इस से धीरेधीरे मिट्टी में पोषक तत्त्वों की वृद्धि होती है.

रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करने से उत्पादन बढ़ता जरूर है, लेकिन एक समय के बाद जमीन धीरेधीरे बंजर होने लगती है और उत्पादकता घट जाती है, जिस को रोकने की जरूरत है.

सिक्किम पहला और्गैनिक राज्य

आज भारत के केवल कुछ राज्यों में ही प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिस में भारत का सिक्किम सब से पहला और्गैनिक राज्य होने का दर्जा प्राप्त किया है.

कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और केरल ने भी इस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं, लेकिन बाकी राज्य इस मामले में अभी भी काफी पिछड़े हुए हैं.

प्राकृतिक खेती की तरफ बढ़ता रुझान

हिमाचल प्रदेश में 3 साल पहले शुरू की गई प्राकृतिक खेती के सफल परिणाम नजर आने लगे हैं. रसायनों के प्रयोग को हतोत्साहित कर किसान की खेती की लागत और आय बढ़ाने के लिए शुरू की गई ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना’ को किसान समुदाय बड़ी तेजी से अपने खेतबगीचों में अपना रहा है.

इस योजना के शुरुआती साल में ही किसानों को यह विधि रास आ गई और तकरीबन 500 किसानों को जोड़ने के तय लक्ष्य से कहीं अधिक 2,669 किसानों ने इस विधि को अपनाया.

‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना’ को लागू करने वाली राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई के आंकड़ों के अनुसार, साल 2019-20 में भी 50,000 किसानों को योजना के अधीन लाने के लक्ष्य को पार करते हुए 54,914 किसान इस योजना से जुड़े.

सेब की बागबानी में बीमारियों के प्रकोप पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि प्राकृतिक खेती से सेब पर बीमारियों का प्रकोप अन्य तकनीकों की तुलना में कम रहा.

एक रिपोर्ट के अनुसार, आज देश की आबादी साल 1971 में 66 करोड़ से बढ़ कर 139 करोड़ के पार हो गई है, लेकिन अनाज का उत्पादन 1 किलोग्राम प्रति व्यक्ति से बढ़ कर 1.74 किलोग्राम तक ही हो पाया है.

ऐसी खेती को बढ़ावा देने के पीछे सरकार का मकसद है कि किसानों को फसल को उगाने के लिए किसी तरह का कर्ज न लेना पड़े. नैचुरल फार्मिंग से किसान कर्जमुक्त होगा और आत्मनिर्भर भारत का सपना भी सच होगा. साथ ही, देश की लोकल से ग्लोबल की अवधारणा साकार होने में मदद मिलेगी. किसानों के जीवनस्तर में सुधार होगा और सरकार की किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य आसानी से पूरा हो सकेगा.

प्राकृतिक व जैविक के बीच अंतर

जैविक खेती में जैविक उर्वरक और खाद जैसे कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट, गाय के गोबर की खाद आदि का उपयोग किया जाता है.

जैविक खेती के लिए अभी भी बुनियादी कृषि पद्धतियों, जैसे जुताई, गुड़ाई, खाद का मिश्रण, निराई आदि की जरूरत होती है. बड़े पैमाने पर खाद की जरूरत के चलते जैविक खेती अभी भी महंगी है और इस पर आसपास के वातावरण का प्रभाव पड़ता है, जबकि प्राकृतिक खेती एक अत्यंत कम लागत वाली कृषि पद्धति है, जो स्थानीय जैव विविधता के साथ पूरी तरह से अनुकूलित हो जाती है.

उत्तर प्रदेश में मसालों की खेती

अधिकतर सभी राज्य एक या 2 मसाले उगाते हैं. लेकिन मुख्य मसाला उत्पादक  राज्य आंध्र प्रदेश, केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु, ओडि़शा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश महत्त्वपूर्ण मसाला उत्पादक क्षेत्र है. यहां पर धनिया, अदरक, मेथी, हलदी प्रमुखता से उगाई जाती है.

पिछले कुछ सालों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मसालों की पैदावार और क्षेत्रफल में काफी बढ़ोतरी हुई है, जो कि क्रमश: 3.6 और 5.6 फीसदी है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मेरठ, आगरा, बरेली और मुरादाबाद मंडलों में हलदी, सूखी मिर्च, धनिया, अदरक, लहसुन, मेथी और सौंफ की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है.

इन सभी मसालों की इस क्षेत्र में काफी मांग होते हुए भी इन की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बहुत कम है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में वैसे तो मसाला फसलों को उगाने के लिए भौगोलिक संसाधन भरपूर हैं, पर उत्पादकता में गिरे हुए स्तर को सुधारने में ये बाधाएं सामने आती हैं :

* भौगोलिक अनुकूलता के अनुरूप उन्नतशील प्रजातियों की कमी.

* परिष्कृत उत्पादन तकनीकों का न होना.

* मसाला उत्पादन के लिए बड़े पैमाने पर प्रचारप्रसार न होना.

* मसाला उत्पादन के लिए सामाजिक कुरीतियों का होना.

भविष्य व विस्तार

उत्तर प्रदेश में मसाले की खेती की संभावनाएं हैं, क्योंकि यहां पर इस के उत्पादन के अनुकूल सभी कारक मौजूद हैं, जिस से इस का भविष्य उज्ज्वल है, जिन में मुख्य कारक निम्न हैं :

अच्छे किस्म केबीज उत्पादन

उत्तर प्रदेश की अनुकूलता के लिए मसाले वाली फसलों की अच्छी किस्मों का विकास किया जा चुका है, जिस से अधिक उत्पादन व अच्छी गुणवत्ता के बीज तैयार कर मसालों की औद्योगिक रूप से फसल पैदा की जा सकती है.

विशेष पैकिंग द्वारा

अधिकतर मसाले जल्दी खराब होने वाले होते हैं और उन की गुणवत्ता के लिए विशेष पैकिंग की आवश्यकता होती है. पैकिंग द्वारा हम अच्छा मूल्य प्राप्त कर सकते हैं. पैकिंग की आधुनिक तकनीक से मसाले और मसाले उत्पाद लंबे समय तक रखे जा सकते हैं, जिस से इन के क्षेत्रफल व विपणन को बढ़ाने की प्रबल संभावनाएं हैं.

जैविक खाद द्वारा मसालों की फसल तैयार करना

जैव पदार्थों द्वारा मसाला पैदा करने का भविष्य अत्यंत सुखद है. जहां एक ओर रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक पदार्थों, खरपतवारनाशकों का प्रयोग अंधाधुंध हो रहा है, वहीं दूसरी ओर जैव पदार्थों द्वारा फसल तैयार करने की मांग दिनप्रतिदिन बढ़ रही है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जैविक खाद द्वारा तैयार मसालों की 20 से 50 फीसदी कीमत अधिक मिल रही है.

मसालों के उद्योगों में कच्चे माल के रूप में प्रयोग

मसाला द्वारा उत्पाद उद्योगों में कच्चे माल के रूप में उपयोग किए जाते हैं जैसे वनिला का उपयोग- केक, आइसक्रीम बनाने में, अदरक का प्रयोग दवाओं में, हलदी का प्रयोग रंग करने में, मिर्च का प्रयोग मसाले के रूप में और ओलियोरेजिंग हलदी का उपयोग सौंदर्य प्रसाधन में किया जाता है, जिन की बहुत आवश्यकता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन का क्षेत्रफल बढ़ाने की प्रबल संभावनाएं हैं.

अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ती मांग

मसाला फसलों का क्षेत्रफल बढ़ा है, पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मसालों की मांग दिनप्रतिदिन बढ़ने से क्षेत्रफल एवं उत्पादन में वृद्धि करना आवश्यक हो गया है. उत्पादकता पर ध्यान देना होगा, जिस से अंतर्राष्ट्रीय मांग की पूर्ति की जा सके.

खाद्य पदार्थ की उद्योग में मांग

खाद्य उद्योग में बनावटी रंग पर प्रतिबंध लगने और स्वास्थ्य के प्रति सचेत होने से हलदी की मांग दिनप्रतिदिन बढ़ रही है, जिस से इस के उत्पादन को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है.

आयुर्वेदिक दवाओं में बढ़ती मांग

जिस तरह से हम जैविक खेती की ओर बढ़ रहे हैं, ठीक उसी प्रकार हम एलोपैथिक दवाओं से परहेज करने लगे हैं. अब औषधियों का प्रयोग करने लगे हैं, जो हलदी व अन्य मसालों वाली फसलों से तैयार होती है.

उद्योग के लिए पूरक कारक मसाले

पश्चिमी उत्तर की जलवायु मसालों की खेती के लिए बहुत उपयुक्त है. यही कारण है कि यहां पर मसालों की खेती बहुतायत से की जाती है. यहां पर बागों की अधिकता होने के कारण उन में मसालों की खेती अतिरिक्त रूप से की जाती है, जिस में धनिया, अदरक, हलदी और मिर्च मुख्य रूप से उगाए जाते हैं.

मृदा

जलवायु की तरह यहां की भूमि मसाला फसलों की खेती के लिए सही है, जिन में सभी फसलें आसानी से उगाई जाती हैं.

मजदूर

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मजदूर आसानी से मिल जाते हैं, जो मसालों को उगाने के लिए पूरक कारक का काम करते हैं, जैसे बोआई, कटाई, बीज की सफाई, परागण में मजदूरों की जरूरत होती है.

भारत में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के दूसरे देश में भी ऐसे पौधों से स्वास्थ्य लाभ उठा रहे हैं. घरेलू औषधि उपचार के लिए मसाले बनाए गए हैं. अगर मसालों को उपयुक्त मौसम में एकत्र किया जाए, उन्हें सही ढंग से रखा जाए और प्रयोग किया जाए, तो आज भी उन का अच्छा असर देखा जा सकता है.

पोषण वाटिका: कुपोषण दूर करने का उपाय

घर में लगी पोषण वाटिका या गृह वाटिका या फिर रसोईघर बाग पौष्टिक आाहार पाने का एक आसान साधन है, जिस में विविध प्रकार के मौसमी फल तथा विविध प्रकार की सब्जियों व फलों को एक सुनियोजित फसलचक्र और प्रबंधन विधि के द्वारा उगाया जाता है.

आमतौर पर पोषण वाटिका घर के आसपास बनाई गई एक ऐसी जगह होती है, जहां पारिवारिक श्रम से विविध प्रकार के मौसमी फल तथा विभिन्न सब्जियां उगाई जाती हैं, जिस से परिवार की वार्षिक पोषण आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके.

पोषण वाटिका का आकार

अलगअलग हालात, जैसे कि जगह, परिवार में सदस्यों की संख्या, रुचि व समय की उपलब्धता पर निर्भर करता है. लगातार फसलचक्र, सघन बागबानी और अंत:फसल खेती को अपनाते हुए एक औसत परिवार, जिस में कुल 5 सदस्य हों, के लिए औसतन 200 वर्गमीटर जमीन काफी है.

पोषण वाटिका के लिए उचित स्थान

* घर के निकट.

* सूरज की रोशनी अच्छी तरह से मिले.

* दोमट मिट्टी सही.

* पर्याप्त सिंचाई के लिए जल की उपलब्धता.

पोषण वाटिका की बनावट

आदर्श गृह वाटिका के लिए 200 वर्गमीटर क्षेत्र में बहुवर्षीय पौधों को वाटिका के उस तरफ लगाना चाहिए, जिस से उन पौधों की अन्य दूसरे पौधों पर छाया न पड़ सके. इस के साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ये पौधे एकवर्षीय सब्जियों के फसलचक्र और उन के पोषक तत्त्वों की मात्रा में बाधा न डालें.

जमीन की तैयारी व क्यारी बनाना

* फावड़ा या कस्सी से मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरा कर 4 से 5 फुट चौड़ी क्यारी बना लें. क्यारी पूरबपश्चिम दिशा में रखें.

* दोनों क्यारियों के बीच 1 फुट की दूरी रखें.

* प्रत्येक क्यारी में गोबर या केचुआं खाद डाल कर मिला लें.

* अतिरिक्त जल निकासी हेतु चारों तरफ से 1 फुट चौड़ी और 1 फुट गहरी नाली बना लें.

सब्जियों का चयन

सब्जियों का चयन करते समय फसलचक्र अपनाना चाहिए. सब्जियों की किस्मों का चुनाव करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वे उन्नत, स्वस्थ्य और प्रतिरोधी हों. किस्में अगर देशी हों तो हमें अगले मौसम में बीज खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी. मौसम के अनुसार सब्जियों को निम्न प्रकार बांटा जा सकता है :

खरीफ : लौकी, तोरई, कद्दू, टिंडा, खीरा, करेला, भिंडी, टमाटर, बैगन, मिर्च, पालक, धनिया आदि.

रबी : गोभी, ब्रोकली, पत्तागोभी, टमाटर, बैगन, मिर्च, पालक, मूली, मेथी, सोया, चौलाई, धनिया, सेम, मटर, राजमा, चुकंदर, गाजर, लहसुन, शलजम, प्याज आदि.

जायद : लौकी, तोरई, कद्दू, खीरा, ककड़ी, करेला, टिंडा, भिंड़ी, टमाटर, बैगन, मिर्च, पालक, धनिया, चौलाई आदि. सब्जियों के साथ आम, अमरूद, सहजन, किन्नू, संतरा, पपीता, करौंदा, अनार, नीबू, आंवला, चीकू, ड्रैगनफ्रूट आदि फलदार पौधे लगाए जा सकते हैं.

भूमि की तैयारी

* जिस स्थान पर पोषण वाटिका लगानी हो, वहां की मृदा में जल व वायु का प्रवाह अच्छा होना चाहिए.

* मृदा जितनी भुरभुरी, कार्बनिक खाद व जीवाश्म तत्त्वों से भरपूर होगी, पैदावार भी उतनी ही अच्छी मिलेगी.

* गमले तैयार करते समय भी कस्सी या खुरपी से मृदा अच्छी तरह भुरभुरी कर ले गोबर की खाद मिला कर गमले तैयार कर लेने चाहिए.

* जिन लोगों के पास घर पर खुला स्थान नहीं है, वे अपनी छत पर सब्जियां उगा सकते हैं.

* आजकल बाजार में अलगअलग आकार के प्लास्टिक बैग, गमले, ट्रे उपलब्ध हैं जो इस काम में प्रयोग किए जा सकते हैं. सीमेंट व प्लास्टिक के गमले, कबाड़ में अनुपयोगी चीजें जैसे बालटी, प्लास्टिक के कट्टे, ट्रे, मटकियां, बोतल आदि का भी उपयोग कर सकते हैं. इन में बराबर मात्रा में मिट्टी व कंपोस्ट का मिश्रण भर कर सब्जियों का रोपण व बिजाई कर सकते हैं.

वाटिका में पौधों की सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण एवं खाद और उर्वरक प्रबंधन

* आमतौर सब्जियों की बोआई 2 तरीकों से की जा सकती है, पौधशाला तैयार कर के (टमाटर, बैगन, मिर्च, प्याज, गोभीवर्गीय सब्जियां, सलाद) व सीधी बोआई से (खीरावर्गीय सब्जियां, मूली, मटर, भिंडी, सेम, पालक, इत्यादि).

* कीट एवं रोग प्रबंध पोषण वाटिका से अस्वस्थ पौधों को तुरंत निकाल कर नष्ट कर दें. फसलचक्र अपनाना लाभदायक होता है. बोआई के लिए प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करें. स्वस्थ पौधशाला तैयार करें.

* गार्डन को साफ रखें. खरपतवार निकालते रहें. जब भी पोषण वाटिका या गृह वाटिका में खरपतवार दिखें, तो हाथ से निकाल देना चाहिए. प्लास्टिक पलवार लगाने से भी खरपतवार की रोकथाम होती है और मृदा में नमी बराबर रहती है तथा अतिआवश्यक होने पर पौध संरक्षण रसायनों के स्थान पर जैविक कीटनाशकों जैसे जीवामृत का ही प्रयोग करें.

* खाद व उर्वरक का अच्छी पौदावार प्राप्त करने में अधिक महत्व है. इस के लिए आवश्यक है कि मृदा में कार्बनिक खाद का प्रयोग हो. यह खाद मृदा की दशा सुधारती है व पौधों को आवश्यक पोषक तत्त्वों की पूर्ति भी करती है. इस के लिए गृहवाटिका के एक कोने में कंपोस्ट खाद का भी निर्माण भी किया जा सकता है.

* खाद में पोषक तत्त्वों की वृद्धि के लिए, संभव हो तो, केंचुओं द्वारा तैयार वर्मीकंपोस्ट इकाई की स्थापना कर वर्मीकंपोस्ट का उपयोग कर सकते हैं.

सब्जियों कर तुड़ाई

तुड़ाई की अवस्था फसल के स्वभाव पर निर्भर करती है. उदाहरण के लिए लौकी, करेला, टिंडा, भिंडी, तोरई आदि को कच्ची अवस्था पर तरबूज, खरबूजा, टमाटर आदि को पकने पर तोड़ा जाता है

पोषण वाटिका के मुख्य लाभ

पोषण वाटिका से परिवार, पड़ोसियों व रिश्तेदारों को तरोताजा हवा, प्रोटीन, खनिज और विटामिन से युक्त फल, फूल व सब्जियां प्राप्त होती हैं. इस के साथ ही परिवार के हर सदस्य द्वारा बगिया में काम करने से शारीरिक व्यायाम भी होता है. इस से परिवार के सदस्य स्वस्थ्य व प्रसन्न रहते हैं.

स्वयं की मेहनत एवं पसीने से उपजी हरीभरी तरोताजा सब्जियों को देख कर सभी का तन मन प्रफुल्लित होगा. इस के अलावा सब्जियां खरीदने के लिए बाजार में जाने का बहुमूल्य समय भी बच जाता है.

वास्तव में स्वयं की देखरेख व मेहनत से पैदा की गई सब्जियों का स्वाद और मजा कुछ और ही होता है. इस प्रकार पोषण वाटिका स्थापित करना परिवार के स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए बुद्धिमत्तापूर्ण कदम साबित होगा.

औषधीय व सुगंधित पौधों की जैविक खेती

पौधों की जैविक विधि से खेती हमारी परंपरागत खेती रही है. आज भी ज्यादातर औषधियां जंगलों से उन के प्राकृतिक उत्पादन क्षेत्र से ही लाई जा रही हैं. इस का मुख्य कारण तो उन का आसानी से उपलब्ध होना है, पर इस से भी बड़ा कारण जंगल के प्राकृतिक वातावरण में उगने के चलते इन पौधों की अच्छी क्वालिटी का होना है.

वर्तमान में आयुर्वेदिक हर्बल दवाओं का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है, जिस से इन का जंगलों से दोहन और भी बढ़ रहा है और मांग को पूरा करने के लिए कई औषधीय व सुगंधीय पौधों की खेती भी की जा रही है. चूंकि औषधियां रोगों को ठीक करने के लिए व सुगंधीय फसलों में से सुगंधित पदार्थ निकालने में काम आते हैं, इसलिए उत्पादन ज्यादा करने के बजाय अच्छी क्वालिटी के लिए उत्पादन करना जरूरी व बाजार की मांग के मुताबिक है. अच्छी क्वालिटी हासिल करने के लिए जैविक या प्राकृतिक तरीके से उत्पादन ही एकमात्र तरीका है,

क्योंकि :

* प्राकृतिक या जैविक तरीके से उत्पादन करने पर औषधीय पौधों में क्रियाशील तत्व व सुगंधित पौधों में तेल की मात्रा में बढ़ोतरी होती है, जबकि रासायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी आदि के इस्तेमाल से उन की क्वालिटी घटती जाती है.

* रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से पौधे और उनके उत्पाद की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है जो रोग को ठीक करने के बजाय उसे और ज्यादा बढ़ा सकते हैं, इसलिए सिर्फ प्राकृतिक तरीकों से रोग, कीट नियंत्रण करना चाहिए.

* इस के अलावा कई दूसरी तरह की हानियां, जो रासायनिक खेती से जुड़ी हैं, वे सभी इन फसलों की खेती में भी होती हैं. जैसे लागत का बढ़ना, भूमि की उर्वरता का कम होना, कीटनाशकों में प्रतिरोधकता पैदा होना और गांवखेत में प्रदूषण का बढ़ना आदि. लिहाजा, उचित यही है कि औषधीय और सुगंधीय पौधों की जैविक खेती की जाए. जैविक खेती जरूरी भी और मजबूरी भी पर्यावरण व भूमि को बचाने के लिए और उपभोक्ता की सेहत के लिए जैविक खेती बेहद जरूरी है.

औषधीय व सुगंधीय पौधों की जैविक खेती के सुझाव:

* औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती सदैव जंगल जैसे वातावरण बना कर ही की जाए यानी खेत में कुछ पेड़, कुछ झाडि़यां, कुछ लताएं व कुछ शाकीय फसलें हों. इस में मृदा की उर्वरता, सूरज की रोशनी, मृदा में नमी में जो संतुलन होगा, उस से इन की क्वालिटी बढ़ेगी. दूसरे, कई फसलों के होने से बाजार में मांग व पूर्ति में संतुलन हो सकेगा, जिस से किसान को हानि होने की संभावना भी कम होगी.

* वर्मी कंपोस्ट या केंचुआ खाद का इस्तेमाल जरूर किया जाना चाहिए, जिस में ज्यादा मात्रा निराईगुड़ाई के समय दी जानी चाहिए. इस से न केवल अच्छा उत्पादन हासिल होगा, इस के साथ ही क्वालिटी भी बहुत अच्छी होगी, किंतु वर्मी कंपोस्ट खुद के खेत अथवा ग्राम स्तर पर बना कर नमीयुक्त अवस्था में छायादार स्थान पर भंडारण कर 15-20 दिन में इस्तेमाल कर लेना चाहिए. प्लास्टिक के बोरों में पैक सूखा या 15 दिन से ज्यादा पुराने वर्मी कंपोस्ट के गुण बहुत कम हो जाते हैं.

* रोग व कीट नियंत्रण के लिए नीम+गोमूत्र का छिड़काव 15-20 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए. * भूमि के रोग व कीटों को नष्ट करने के लिए नीम की खली या पिसी हुई निंबोली 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में 2 साल में एक बार जरूर देनी चाहिए.

* अग्निहोत्र, अमृत पानी, पंचगव्य आदि का प्रयोग मृदा में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ाने व जलवायुजनित कीट व रोग से बचाव करने के लिए किया जा सकता है.

* कुछ औषधीय फसलों की खेती सामान्य फसल चक्र या सहफसली खेती के रूप में भी की जा सकती है. जैसे सब्जियों की खेती के अंतराशस्य के रूप में सुगंधित घासों/मसालों की खेती से कई रोग व कीट कम लगते हैं.

* औषधीय पौधों में क्वालिटी सब से अहम है, इसलिए सही समय पर कटाईतुड़ाई और छाया में सुखा कर भंडारण/विक्रय करना चाहिए.

* थोड़े बीज या पौध को बाजार से ला कर उस का खुद के खेत में जैविक तरीके से उत्पादन करना चाहिए. इस से हासिल बीज को ही पूरे खेत में लगाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए.

* बीज से बाजार तक की पूरी जानकारी होने पर ही औषधीय पौधों की खेती बड़े पैमाने पर करनी चाहिए.

* अनाज वाली फसलों की मांग हमेशा रहेगी और औषधीय व सुगंधित फसलों की मांग व बाजार भाव से तेजी से ऊपरनीचे होते रहते हैं, इसलिए किसान अनाज वाली फसलों को न हटाएं, बल्कि औषधीय व सुगंधीय फसलों को फसल चक्र अंतराशस्य के रूप में स्थान दें. इस से बाजार के अनुसार तालमेल बिठाने में आसानी रहेगी.

जैविक खेती है कुदरत का एक मुफ्त उपहार

जैविक खेती के लिए इस्तेमाल की जाने वाली खाद खेती के अवशेष व पशु अपशिष्ट से बनती है, जिस में लागत के नाम पर सिर्फ मेहनत ही होती है. इन के इस्तेमाल से भूमि उपजाऊ और जल की बचत होती है. इसी प्रकार जैविक कीट नियंत्रण नीम व गोमूत्र से बनाए जाते हैं, जिन का कोई गलत असर नहीं होता है. जैविक उत्पाद, स्वादिष्ठ, अच्छी गंध व रूप वाले और ज्यादा समय तक भंडारण करने के लायक होते हैं और इन का बाजार भाव भी अधिक मिलता है.

अकसर किसान बीघा नाप को ही आधार मान कर खेती की सभी गणनाएं (नापतोल) आदि क्रियाएं करते हैं, इसलिए एक बीघा में जितनी खाद्य व जैविक कीट नियंत्रक की जरूरत होती है, उसी के हिसाब से गणना की जाए तो समझने में आसानी रहेगी.

एक गाय : सालभर में एक गाय तकरीबन 3-3.5 टन गोबर देती है. अगर सिर्फ गोबर से ही खाद बने, तो तकरीबन 2 टन खाद तो बनेगी ही, जो कि एक बीघा जमीन में अगर फसलें या सब्जियों की फसल भी लगाई जाए तो भी काफी रहता है. इसी तरह एक गाय तकरीबन 1,000 लिटर मूत्र पैदा करती है, जिस में से आधा तो खाद या सिंचाई के साथ दे देने के बाद भी 500 लिटर गोमूत्र व नीम की पत्ती से इतना कीट नियंत्रक बन सकता है कि एक बीघा जमीन में सालभर में हर 15 दिन बाद तकरीबन 20 छिड़काव किए जा सकते हैं.

एक नीम : नीम की पत्तियां तो गोमूत्र आधारित कीटनाशक व भूमि में हरी खाद के रूप में काम आ ही जाती हैं. साथ ही, एक नीम से हर साल कम से कम 50-60 किलोग्राम निंबोली मिलती है, जिस का तकरीबन 10-15 लिटर नीम तेल निकालने के बाद 40 किलोग्राम खल को जमीन में मिलाने से पोषक तत्त्व तो मिलते ही हैं, साथ ही साथ जमीन से पैदा होने वाली फसलों के कीड़े व रोग भी कम हो जाते हैं. जैविक खेती को आसान बनाने के लिए प्रति बीघा जमीन के हिसाब से एक गाय का पालन और एक नीम लगाएं, तो बाहर से शायद कुछ भी लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. साथ ही नीम की छाया और गाय का शुद्ध दूध मिलेगा.

पेड़ों का सहारा जरूरी है जैविक खेती में : औषधीय पौधों की खेती के लिए जंगल जैसा वातावरण बनाने के लिए खेत में पेड़ों को उचित संख्या का उचित प्रणाली का होना बहुत जरूरी हो जाता है. ये पेड़ औषधीय उपयोग के लिए भी हो सकते हैं. पेड़ों को फसलों के साथ लगाने का तरीका नया नहीं है और शस्य वानिकी या एग्रोफोरैस्ट्री के नाम से जाना जाता है.

इस में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :

* कुछ थोड़े से प्रयास से किसान खुद की पौधशाला में पौधे तैयार कर सकते हैं. खेत के पास पौधशाला में तैयार किए गए पौधे ज्यादा सेहतमंद, विकसित जड़ वाले और अच्छे से पनपते हैं.

* पेड़ की प्रजाति ऐसी होनी चाहिए, जिस से सालभर थोड़ीथोड़ी पत्तियां झड़ती रहें, जो भूमि पर गिर कर मल्च का काम करें (भूमि को ढक कर रखें) और बाद में खाद के रूप में पोषण दें.

* बड़े पेड़ों को खेत की बाड़ पर वायु अवरोधक के रूप में व छोटे वृक्षों या फलदार पौधों जैसे आंवला, बेल, किन्नू व बेर आदि को फसल की कतारों के बीच कम से कम 8 से 10 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए, ताकि फसलों से होड़ न हो. कुछ कांटेदार झाडि़यों जैसे कांटा-करंज (औषधीय पौधा) आदि को खेत की सुरक्षा के लिए बाढ़ के रूप में भी लगाया जा सकता है.

* खेत की मेंड़ या गौशाला या चौपाल में कम से कम 2 से 3 पेड़ नीम, बकायन, करंज, सहजन आदि जरूर लगाएं, जो औषधीय पौधे होने के साथसाथ रोग के नियंत्रण में भी सहयोगी होते हैं.

* पेड़ों की नियमित रूप से काटछांट करते रहना चाहिए, ताकि वे सीधे तने वाले बने रहें और खेती के काम में बाधक न बनते हों.

* सुबह की धूप सभी पौधों के लिए लाभकारी होती है, इसलिए पेड़ों को हमेशा ऐसी दिशा में लगाना चाहिए, ताकि फसल को सुबह सूरज की रोशनी जरूर मिलती रहे.

* सुरक्षा के लिए चारों ओर उन की छाया के बराबर थाला बना देना चाहिए, जिस में नियमित रूप से खाद व पानी देते रहना चाहिए. इस से फसल और पेड़ों में किसी भी तरह की होड़ नहीं होगी और दोनों का विकास अच्छा होगा. थालों में घासफूस की मल्च बिछाने से पानी का नुकसान कम होता है.

* दीमक से बचाव के लिए पौधे लगाने से पहले गड्ढा भरते समय सड़ी हुई गोबर की खाद में आंक, नीम के पत्तों व निंबोली का चूरा मिला कर भरना चाहिए और हर साल खाद के साथ ही नीम व आंक के पत्ते मिलाने चाहिए.