आम (Mango) के रोग और उपचार

आम का नाम सुनते ही मुंह में पानी आ जाता है और दिल को सुकून मिलता है. हमारे दिमाग में एक ऐसे फल की तसवीर उभरती है जिसे सोच कर ही खुशी से झूमने लगता है. आम ऐसी फसल है जिसे हर कोई खाना पसंद करता है.

भारत में आम फलों का राजा है. इस की पैदावार तकरीबन पूरे भारत में होती है, लेकिन खासतौर से उत्तर प्रदेश आम के लिए जाना जाता है. यहां पर मलीहाबाद के आमों की मिठास विदेशों में भी लोगों को अपना मुरीद बना चुकी है.

पाकिस्तान, बंगलादेश, अमेरिका, फिलीपींस, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ्रीका, जांबिया, माले, ब्राजील, पेरू, केन्या, जमायका, थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका वगैरह देशों में भी आम उगाया जाता है.

भारत में आम के बाग सब से ज्यादा उत्तर प्रदेश में हैं, लेकिन इस की सब से ज्यादा पैदावार आंध्र प्रदेश में होती है. आम की बागबानी के लिए गरम आबोहवा बेहतर है.

आम के लिए 24 से 26 डिगरी सैल्सियस तापमान वाला इलाका सब से अच्छा माना गया है. यह नम व सूखी दोनों तरह की जलवायु में उगता है. लेकिन जिन इलाकों में जून से सितंबर माह तक अच्छी बारिश होती है और बाकी महीने सूखे रहते हैं, वहां आम की पैदावार ज्यादा होती है.

आम के पेड़ों को रोगों से बचाना बहुत जरूरी है. समयसमय पर आम में लगने वाली खास बीमारियों पर नजर रख कर ही रोगों से बचाया जा सकता है.

काली फफूंद रोग

आम के पुराने और घने गहरे बगीचों में आम के फूलों और मुलायम पत्तियों से रस चूसने वाले कीट जैसे भुनगा, फुदका, मधुआ और कढ़ी कीट का प्रकोप चैत्र माह से ही शुरू हो जाता है. ये कीट छोटीछोटी नई मुलायम पत्तियों और फूलों से रस चूसते रहते हैं. इस वजह से आम की पत्तियों और फूलों के ऊपर एक चिपचिपाहट सी बनने लगती है और फल झड़ने लगते हैं.

यह रोग भुनगा कीट की वजह से होता है. फफूंद के जरीए भी यह रोग तेजी से फैलती है. कुछ समय बाद आम के बगीचों में पेड़ों की पत्तियों पर काले रंग की एक परत बन जाती है, जो सीधा पत्तियों से भोजन बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है.

उपचार

काली फफूंदी के नियंत्रण के लिए नीम की पत्तियों को उबालें. इस के बाद 10-12 लिटर उबले हुए पानी को 100 लिटर पानी में मिला कर पेड़ों पर 2-3 बार अच्छी तरह से स्प्रेयर पंप की मदद से छिड़काव करना चाहिए.

आम का भुनगा, फुदका और कढ़ी कीट पर 300 से 400 मिलीलिटर नीम के तेल को 100 लिटर पानी में घोल कर फूल खिलने से पहले या फिर मटर के दाने के बराबर फल बनने के बाद 2-3 छिड़काव करने से इन कीटों पर काबू पाया जा सकता है.

इस के अलावा ब्यूबेरिया बेसियाना की 200 ग्राम मात्रा को 100 लिटर पानी में घोल कर 2-3 बार छिड़काव करने या 15-20 दिन पुरानी सड़ी हुई छाछ या मट्ठा 10 लिटर व 8 से 10 दिन पुराने 10 लिटर गौमूत्र को 100 लिटर पानी में मिला कर पूरे पौधे पर 2-3 छिड़काव करने से कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

चूर्णिल आसिता रोग

आम का यह रोग फफूंद की वजह से फैलता है. इस रोग का हमला होने आम की पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसे धब्बे बन जाते हैं. कभीकभी फूलों की टहनियों और छोटेछोटे फलों पर भी ये धब्बे हवा के रुख के साथ फैल जाते हैं. इस वजह से फल पकने से पहले ही पेड़ से पत्ते गिर जाते हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए 100 लिटर पानी में मिलाएं 10 दिन पुरानी सड़ी हुई छाछ या मट्ठा 10 लिटर या 10 लिटर गौमूत्र 10-12 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करने से रोग इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

सूखा रोग

आम के पेड़ों में लगने वाला सूखा रोग यानी तनाछेदक कीट हरियाली का दुश्मन है. इस रोग के प्रकोप से आम का हराभरा पेड़ कुछ ही महीनों में सूख कर ढांचे में तबदील हो जाता है.

तनाछेदक कीट पौधे के तने में छेद कर आसानी से अंदर घुस जाता है. पेड़ के तने को सावधानी से देखने पर किसानों को कीड़ों के होने की प्रारंभिक दशा में छाल पर चूर्ण जैसा पदार्थ देखने को मिलता है. तना गीला हो जाता है. कीट के बड़े हो जाने पर तने में सुराख साफसाफ दिखाई देने लगता है.

उपचार न होने की दशा में कीट तने को खोखला कर देते हैं. इस से पेड़ सूखने लगता है. इस में पत्तियां ऊपर से सूखना शुरू होती हैं, जो नीचे की ओर बढ़ती जाती हैं.

ऐसे करें रोकथाम

तनाबेधक या तनाछेदक कीट साल में सिर्फ 2 महीने मई व जून माह में बाहर रहता है. नियंत्रण के लिए क्विनालफास व साइपरमैथलीन दवा का स्प्रे करें.

रोकथाम के लिए बाद में तने को छील कर सुराख में साइकिल की तीली डाल कर बड़े कीटों को मारा जा सकता है.

अंडे बच्चों को नष्ट करने के लिए मोनोक्रोटोफास के घोल को रुई में भिगो कर सुराख में डाल दें व ऊपर से गाय के गोबर में मिट्टी मिला कर लेप लगा दें.

देशी उपचार में 2 किलोग्राम तंबाकू व ढाई सौ ग्राम फ्यूरोडान प्रति पेड़ की जड़ में डालने से भी रोकथाम हो सकती है.

बौर का रोग

आम के बौरों, फलों या पत्तियों पर सफेद चूर्ण की तरह का पदार्थ दिखाई देता है. ऐसा लगता है कि पेड़ों पर राख छिड़क दी गई है. प्रकोप होने से उन की बढ़वार रुक जाती है और फूल गिरने लगते हैं.

बौर के समय फुहार और ठंडी रातें इस रोग के बढ़ने में मददगार होती हैं. कवक से नए फल बिलकुल ढक जाते हैं और धीरेधीरे उस की बाहरी सतह पर दरारें पड़ने लगती हैं. दरार वाला वह भाग कड़ा हो जाता है. नए फल मटर के दाने के बराबर होने के पहले ही गिर जाते हैं.

नई पत्तियों की पिछली सतह पर यह रोग काफी फैलता है और स्लेटी रंग के धब्बे बनने लगते हैं, जिस पर सफेद चूर्ण दिखाई पड़ता है और रोगग्रस्त पत्तियां टेढ़ी हो जाती हैं. ऐसी पत्तियां पूरे साल पौधों पर लगी रहती हैं और अगले साल भी रोगों को फैलाने में सहायक होती हैं.

उपचार से करें बचाव

इस रोग से बचाव के लिए फूल के मौसम में कुल 3 छिड़काव करने चाहिए. पहला छिड़काव 0.2 फीसदी विलयशील गंधक (वेटेबल सल्फर) (सल्फेट या दूसरा विलयशील गंधक फफूंदनाशक 2 ग्राम प्रति लिटर), दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राइडीमार्फ या 0.04 फीसदी फ्लूजिजाल (1 मिलीलिटर कैलिक्सीन या 0.4 मिलीलिटर पंच प्रति लिटर) और तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डाइनोकैप या बावस्टीन (1 मिलीलिटर 5 प्रति केराथेन या 1 ग्राम ट्राइडीमेफान प्रति लिटर) से करना चाहिए.

पहला छिड़काव बौर निकलने के दौरान करना चाहिए. दूसरा और तीसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए.

आम (Mango)

पत्तियों पर एंथ्रेक्नोज रोग

तुड़ाई के बाद आम का यह सब से खास रोग है. यह एक फफूंद कोलेटोट्राइकम ग्लोयोस्पोराइडिस से होती है. इस का प्रकोप हर आम उगाने वाली जगहों पर होता है. फलों पर इन के लक्षण शुरू में छोटेछोटे भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखाई देते  हैं, जो बाद में बढ़ कर पूरे फल को ढक लेते हैं. ये धब्बे 3-4 दिन में ही पूरे फल को ढक लेते हैं और पूरा फल काला हो कर सड़ जाता है.

रोकथाम

कार्बंडाजिम या टापसिन-एम (0.1 फीसदी यानी 1 ग्राम प्रति लिटर) का 3 छिड़काव तुड़ाई से पहले करें फिर 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए. छिड़काव इस तरह करना चाहिए कि अंतिम छिड़काव तुड़ाई से 15 दिन पहले हो जाए.

फलों को 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 15 मिनट तक डुबो कर रखने से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है.

शाखा रोग

इस रोग से शाखाएं और टहनियां सूखने लगती हैं. उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि शाखा आग से झुलस गई है. रोग की शुरुआत में शाखाओं के अगले भाग की छाल काली पड़ जाती है, जो धीरेधीरे बढ़ती है और फिर पूरी शाखा ही सूख जाती है. साथ ही, गोंद का रिसाव भी होने लगता है.

रोकथाम

रोगग्रस्त शाखाओं की कटाई रोग से ग्रसित हिस्से के करीब 7.5-10 सैंटीमीटर नीचे से करनी चाहिए. इस के बाद 3 ग्राम फफूंदनाशक दवा प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए और कटे हुए भाग पर इसी फफूंदनाशक दवा का लेप लगाना चाहिए. छोटे पेड़ों में भी रोगग्रस्त शाखाओं की छंटाई के बाद कौपर औक्सीक्लोराइड का लेप लगाना फायदेमंद है.

रेड रस्ट रोग

पत्तियों पर गोलाकार, मटमैले रंग के मखमली धब्बे दिखाई देते हैं, जिन का आकार बाद में बड़ा और रंग बादामी हो जाता है.

धब्बे की सतह भी उभरी हुई होती है. इस के ऊपर काई के बीजाणु बनते हैं जो बाद में तांबे के रंग के हो जाते हैं. आखिर में बीजाणुओं के झड़ने की वजह से पत्तियों पर गोलाकार सफेद निशान रह जाते हैं.

इस रोग के कारण पत्तियां और टहनियां छोटी रह जाती हैं और बाद में सूखने लगती हैं.

दिसंबरजनवरी माह में रोग से ग्रसित पत्तियां अधिक झड़ती हैं और पौधे दूर से ही मुरझाए हुए से दिखाई देते हैं.

रोकथाम

इस रोग की रोकथाम के लिए 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लिटर का 2-3 ग्राम प्रति लिटर) का छिड़काव करना असरदार पाया गया है.

ये सारे रोग आम के फलों में तुड़ाई से पहले लगते हैं, लेकिन इन सारे रोगों से निबटने के बाद भी आम के उत्पादकों को तुड़ाई के बाद भी कई तरह के रोगों से अपने फलों को बचाने की चुनौती रहती है. अगर जरा सी लापरवाही की गई तो सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है.

आम (Mango)

तुड़ाई के बाद रोग

फलों में तुड़ाई के बाद भी उत्पादन का तकरीबन 25-40 फीसदी कई वजहों से खराब हो जाता है. यह नुकसान गलत समय पर फलों की तुड़ाई, गलत तुड़ाई के तरीके और गलत ढंग से भंडारण करने की वजह से होता है. लेकिन जो नुकसान होता है, वह मुख्य रूप से फलों की तुड़ाई के बाद लगने वाले रोग हैं.

आम की तुड़ाई के बाद होने वाले रोगों में मुख्य फफूंद है. तुड़ाई के बाद फलों में संक्रमण, आम की ढुलाई, भंडारण और लाने और ले जाने के दौरान होता है.

आम में बीमारियों का प्रकोप 2 तरह से होता है. एक तो फलों के लगते समय ही उन को संक्रमित कर देते हैं, दूसरे तुड़ाई के बाद फलों के रखरखाव के दौरान होता है.

आम की तुड़ाई के बाद भी बहुत सी बीमारियां लगती हैं, लेकिन इन में एंथ्रेक्नोज, ढेपी विगलन और काला सड़न बीमारी से अधिक नुकसान का डर रहता है.

गहरे भूरे रंग का डंठल

तुड़ाई के बाद आम की यह खास बीमारी है. यह लेसियोडिपलोडिया थियोब्रोमी नामक फफूंद से होती है. इस में तकरीबन 15-20 फीसदी तक का नुकसान होता है. यह बीमारी आम की चौसा किस्म में अधिक पाई जाती है. फलों में यह बीमारी ढेपी की तरह से शुरू होती है तभी इसे ढेपी विगलन रोग कहते हैं.

शुरू में जहां पर डंठल लगा होता है, वह भाग गहरे भूरे रंग का हो जाता है और धीरेधीरे बढ़ कर यह पूरे फल को ढक लेता है. 3-4 दिन बाद पूरा फल सड़ कर काले रंग का हो जाता है.

रोकथाम

फल को 1 से 2 सैंटीमीटर के डंठल सहित तोड़ना चाहिए. इस के बाद फल को मिट्टी के संपर्क में नहीं आने देना चाहिए.

तुड़ाई से पहले 2 छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर कार्बंडाजिम या टापसिन एम (0.1 फीसदी यानी 1 ग्राम प्रति लिटर) का करना चाहिए. फलों को 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 5 मिनट डुबो कर रखने से इस रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है.

काला सड़न रोग

यह रोग एस्परजीलस नाइजर नामक फफूंद से होता है. यह रोग फलों में चोट या कटे स्थान से शुरू होता है.

शुरू में इस के लक्षण पीले रंग के गोल धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं. 3-4 दिन में धब्बे आकार में बढ़ जाते हैं और इन के ऊपर काले रंग के फफूंद के जीवाणु दिखाई देने लगते हैं.

रोकथाम

फलों को सावधानी से तोड़ना चाहिए, ताकि फलों पर खरोंच न लगे या फल न कटे.

फलों को 0.5 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 5 मिनट तक डुबो कर रखने से इस रोग पर काबू किया जा सकता है.

अगर आप को आम की अच्छी उपज लेनी है तो शुरू से ही पौधों की देखभाल करें. आम के पौधों को जितना फल लगने के बाद देखभाल की जरूरत होती है, उस से कहीं ज्यादा फल आने के पहले होती है.

आमतौर पर किसान यहीं गलती करते हैं. इस वजह से उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है. बौर आने के पहले रोगों से आम को बचाएं, साथ ही, बौर आने के बाद भी कई तरह के छिड़काव से रोगों से बचाना अहम हो जाता है. जब फल बड़े हो कर तुड़ाई के लिए तैयार हो जाएं तब भी उन्हें सड़नेगलने से बचाना उतना ही जरूरी है, जितना शुरुआत में बचाया गया था.

ये उपाय अपनाएं उम्दा दूध (Milk) पाएं

भारत का दूध (Milk) उत्पादन दुनिया में कुल दूध उत्पादन का 18.43 फीसदी है. दूध (Milk) में प्रोटीन, वसा व लैक्टोज पाया जाता है जो सेहत के लिए अच्छा होता है. लेकिन इसे खराब होने से बचाए रखना बहुत ही मुश्किल काम है.

ज्यादा दूध (Milk) उत्पादन के लिए अच्छी नस्ल के पशुओं को पाला जाता है, पर स्वच्छ दूध उत्पादन के बिना ज्यादा दूध देने वाले पशुओं को रखना भी बेकार है.

स्वच्छ दूध (Milk) हासिल करने के लिए अच्छी नस्ल के पशुओं को रखने के साथसाथ उन को बीमारियों से बचाने और टीकाकरण कराने की जरूरत होती है, जिस से सभी पोषक तत्त्वों वाला दूध (Milk) मिल सके.

अकसर देखा जाता है कि कच्चा दूध (Milk) जल्दी खराब होता है. खराब दूध (Milk) अनेक तरह की बीमारियां पैदा कर सकता है, इसलिए दूध के उत्पादन, भंडारण व परिवहन में खास सावधानी बरतने की जरूरत होती है.

कच्चे दूध (Milk)  में हवा, दूध दुहने वाले गंदे उपकरणों, खराब चारा, पानी, मिट्टी व घास से पैदा होने वाले कीटाणुओं से खराबी आ सकती है. इस वजह से कम अच्छी क्वालिटी के दूध (Milk) बाहरी देशों को नहीं बेच पाते हैं जबकि पश्चिमी देशों में इस की मांग बढ़ रही है.

वैसे, दूध (Milk) में जीवाणुओं की तादाद 50,000 प्रति इक्रोलिटर या उस से कम होने पर दूध (Milk) को अच्छी क्वालिटी का माना जाता है. दूध इन वजहों से खराब हो सकता है:

* थनों में इंफैक्शन का होना.

* पशुओं का बीमार होना.

* पशुओं में दूध (Milk)  के उत्पादन से संबंधित कोई कमी होना.

* हार्मोंस की समस्या.

* पशुओं की साफसफाई न होना.

* दूध (Milk) दुहने का गलत तरीका.

* दूध (Milk) दुहने का बरतन और उसे धोने का गलत तरीका होना.

* दूध (Milk) जमा करने वाले बरतन का गंदा होना.

* चारे व पानी का खराब होना.

* दूध (Milk) दुहने वाला बीमार हो या साफसफाई न रखता हो.

* थनों का साफ न होना.

दूध (Milk)

स्वच्छ दूध (Milk) उत्पादन के लिए ये सावधानियां बरतना जरूरी हैं:

* पशुओं का बाड़ा या पशुशाला और पशुओं के दुहने की जगह साफ हो. वहां मक्खियां, कीड़े, धूल न हो.

* बीड़ीसिगरेट पीना सख्त मना हो. शेड पक्के फर्श वाले हों. टूटफूट नहीं होनी चाहिए. गोबर व मूत्र निकासी के लिए सही इंतजाम होना चाहिए. पशुओं को दुहने से पहले शेड को साफ और सूखा रखना चाहिए. शेड में साइलेज और गीली फसल नहीं रखनी चाहिए. इस से दूध (Milk) में बदबू आ सकती है.

* पशु को दुहने से पहले उस के थन और आसपास की गंदगी को अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिए.

* शेड में शांत माहौल होना चाहिए. सुबह और शाम गायभैंस के दुहने का तय समय होना चाहिए.

* दूध (Milk) दुहने वाला सेहतमंद व साफसुथरा होना चाहिए. दुहने वाले को अपने हाथ में दस्ताने पहनने की सलाह दी जानी चाहिए. दस्ताने न होने पर हाथों को अच्छी तरह जीवाणुनाशक घोल से साफ करना चाहिए. उस के नाखून व बाल बड़े नहीं होने चाहिए.

* दूध (Milk) रखने वाले बरतन एल्युमिनियम, जस्ते या लोहे के बने होने चाहिए. दुधारू पशुओं के थनों को दूध दुहने से पहले व बाद में पोटैशियम परमैगनेट या सोडियम हाइपोक्लोराइड की एक चुटकी को कुनकुने पानी में डाल कर धोया जाना चाहिए और अच्छी तरह सुखाया जाना चाहिए.

* दूध (Milk) दूहने से पहले और बाद में दूध की केन को साफ कर लेना चाहिए. इन बरतनों को साफ करने के लिए मिट्टी या राख का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

* दूध (Milk) दुहने से पहले थन से दूध (Milk) की 2-4 बूंदों को बाहर गिरा देना चाहिए क्योंकि इस में बैक्टीरिया की तादाद ज्यादा होती है, जिस से पूरे दूध (Milk) में इंफैक्शन हो सकता है.

* दूध (Milk) दुहते समय हाथ की विधि का इस्तेमाल करना चाहिए. अंगूठा मोड़ कर दूध दुहने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. इस से थन को नुकसान हो सकता है और उन में सूजन आ सकती है.

* एक पशु का दूध (Milk) 5-8 मिनट में दुह लेना चाहिए, क्योंकि दूध का स्राव औक्सीटोसिन नामक हार्मोन के असर पर निर्भर करता है. अगर दूध थन में छोड़ दिया जाता है तो यह इंफैक्शन की वजह बन सकता है.

* दूध दुहने के 2 घंटे के भीतर दूध (Milk) को घर के रेफ्रिजरेटर, वाटर कूलर या बल्क मिल्क कूलर का इस्तेमाल कर के 5 डिगरी सैल्सियस या इस से नीचे के तापमान में रखना चाहिए.

* दूध (Milk) के परिवहन के समय कोल्ड चेन में गिरावट को रोकने के लिए तय तापमान बनाए रखा जाना चाहिए.

* स्वास्थ्य केंद्रों पर पशुओं की नियमित जांच करा कर उन्हें बीमारी से मुक्त रखना चाहिए, वरना पशु के इस दूध (Milk) से इनसान भी इंफैक्शन का शिकार हो सकता है.

* पानी को साफ करने के लिए हाइपोक्लोराइड 50 पीपीएम की दर से इस्तेमाल किया जाना चाहिए. फर्श और दीवारों की सतह पर जमे दूध व गंदगी को साफ करते रहना चाहिए.

* दूध दुहते समय पशुओं को न तो डराएं और न ही उसे गुस्सा दिलाएं.

* दूध दुहते समय ग्वालों को दूध (Milk) या पानी न लगाने दें. सूखे हाथों से दूध दुहना चाहिए.

* एक ही आदमी दूध निकाले. उसे बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.

* दूध (Milk) की मात्रा बढ़ाने या ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए इस में गैरकानूनी रूप से बैन की गई चीजों को मिलाना व इस की क्वालिटी के साथ छेड़छाड़ करना ही मिलावट कहलाता है. यह मिलावटी दूध सब के लिए नुकसानदायक होता है. पानी, नमक, चीनी, गेहूं, स्टार्च, वाशिंग सोड़ा, यूरिया, हाइड्रोजन पेराक्साइड वगैरह का इस्तेमाल दूध की मात्रा बढ़ाने व उसे खराब होने से बचाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो गलत है.

दूध (Milk) की मिलावट का कुछ सामान्य तरीकों से पता किया जा सकता है. जैसे दूध (Milk) का खोया बना कर, दूध में हाथ डाल कर, जमीन पर गिरा कर, छान कर व चख कर. इस के अलावा वैज्ञानिक तरीके से भी दूध की मिलावट की जांच की जा सकती है.

महिला किसानों (Women Farmers) के साथ भेदभाव (Discrimination) क्यों

भारत कृषि प्रधान देश है. यहां तकरीबन 65 फीसदी आबादी कृषि कार्यों में लगी है. देश के सभी राज्यों में किसानों की स्थिति काफी दयनीय है, जबकि किसान खेतों में रातदिन काम करते हैं. फिर चाहे सर्दियों की ठिठुरन भरी रात हो या मईजून की तपती धूप, हर मौसम में किसान कड़ी मेहनत करते हैं. देश के ज्यादातर हिस्सों में पुरुष किसानों के साथ ही महिलाएं भी बढ़चढ़ कर खेती के कामों में अपना योगदान दे रही हैं.

एक तरफ जहां पुरुष किसानों को खेतों में काम करने के बदले ज्यादा मजदूरी मिलती है, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं को उन से काफी कम रुपयों में काम करना पड़ता है.

आज भी देश की महिला मजदूरों को अपनी मेहनत की वाजिब मजदूरी नहीं मिल पाती. आज 21वीं सदी में भी पुरुष और महिला में इतना बड़ा भेद है. इस के लिए हमारी पुरुषवादी सोच जिम्मेदार है. हम इस के आगे सोच नहीं पा रहे हैं.

आप देश के किसी कोने में खेतों में जा कर देखेंगे तो चाहे झुलसा देने वाली गरमी हो या फिर बदन को कंपकंपा देने वाली ठंड, हर मौसम में अपनी सेहत की परवाह किए बिना घंटों खेतों में काम करती औरतें मिल जाएंगी. देश की मौजूदा स्थिति यह है कि घरों के बाहर काम करने वाली तकरीबन 80 फीसदी महिलाएं खेतीबारी से जुड़े कामों में लगी हैं, इन सब के बावजूद जब भी किसानों की बात आती है, तो हम सब के जेहन में जो तसवीर उभरती है, वह पुरुष किसानों की होती है.

ऐसा नहीं है कि देश के कुछ राज्यों में ही यह स्थिति हो, सभी जगह ऐसा ही है. आप सब से ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश को देख लें, वहां भी महिला किसानों की यही दुर्दशा है.

इस के अलावा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, असम व ओडिशा आदि राज्यों में कमोबेश एकजैसे हालात हैं. उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में सर्दियों के मौसम में महिलाएं गन्ने के खेतों में गन्ने की कटाई करने के लिए हंसिया या चापड़ हाथों में लिए देखी जा सकती हैं.

इस के अलावा धान की रोपाई, खेतों से खरपतवार निकालना, फसलों की कटाई और मड़ाई तक सभी काम महिलाएं आसानी से कर लेती हैं. देश के चुनिंदा इलाकों में हल से खेतों की जुताई करते हुए भी महिलाएं दिख जाएंगी. इतना सब होने के बाद भी उन के हक की वाजिब कीमत कोई देने को तैयार नहीं है.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं का श्रम पुरुषों की तुलना में दोगुना है. इस के बावजूद महिलाओं को किसान का दर्जा देने में आज तक आनाकानी हो रही है, जबकि यह महिलाओं के हक की बात है.

मेहनत की बात करें तो महिलाएं घर के कामों के साथसाथ खेतों की भी जिम्मेदारी संभालती हैं. इतना ही नहीं, वे अपने दुधमुंहे बच्चे को खेतों में ले जा कर काम करती हैं, साथ ही अपने बच्चों का भी खयाल रखती हैं.

महिला किसानों का यह श्रम यहीं खत्म नहीं होता है, वे पशुपालन का काम भी करती हैं. कृषि प्रधान देश होते हुए भी यहां किसानों की हालत दयनीय है और यदि बात महिला किसानों की करें तो उन की हालत पुरुष किसानों से भी बदतर है.

देश में 60 से 80 फीसदी महिलाएं खेती के काम में लगी रहती हैं. अगर जमीन के मालिकाना हक की बात करें तो सिर्फ 13 फीसदी महिलाओं के पास ही हक है.

महिलाओं को जब मर्दों के समान काम करने के बावजूद बराबर का मेहनताना नहीं मिल पाता, तो इस हालत में उन को मालिकाना हक देने की बात दूर की कौड़ी है. जब तक समाज में महिलाओं को ले कर लोगों का नजरिया नहीं बदलेगा, तब तक उन्हें उन का हक नहीं मिल पाएगा.

अगर समाज को प्रगतिशील बनाना है तो महिलाओं को प्रोत्साहित करना होगा. इस के लिए हमें सोच बदलनी पड़ेगी. जब सोच बदलेगी तो समानता आ ही जाएगी.

बढ़ेगा दलहन एवं तिलहन (Pulses and Oilseeds) का उत्पादन

मऊ : भाकृअनुप-राष्ट्रीय बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, कुश्मौर, मऊ में 27 से 31 जनवरी, 2025 तक चलने वाले पांचदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में भोजपुर, बिहार से 30 किसान भाग लेने आए. ‘दलहन एवं तिलहन फसलों में बीज की गुणवत्ता का महत्व’ विषय पर आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्घाटन समारोह 27 जनवरी, 2025 को हुआ.

निदेशक, डा. संजय कुमार ने कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन अभिकरण, भोजपुर, बिहार से आए किसानों का स्वागत किया. उन्होंने किसानों से उन की कृषि से जुड़ी समस्याएं एवं चिंताएं जानने का प्रयास किया.

उन्होंने किसानों को आश्वासन दिया कि प्रशिक्षण कार्यक्रम में संस्थान के वैज्ञानिक किसानों की हर प्रकार की समस्याओं का समाधान करेंगे और व्यक्तिगत रूप से किसानों को उन के खेत, उस में लगने वाले बीज, बीज की प्रजाति समेत सभी प्रकार की जानकारी देंगे, ताकि वे अपने खेती के विषय में सक्षम और सही निर्णय ले सकें. कार्यक्रम का संचालन संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. अंजनी कुमार सिंह की अध्यक्षता में हो रहा है.

कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में प्रतिभागी किसानों ने अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए बताया कि भोजपुर, बिहार में दलहन एवं तिलहन के साथ धान, गेहूं, खेसारी और सब्जी की खेती की जाती है.

प्रधान वैज्ञानिक डा. अंजनी कुमार सिंह ने किसानों को फसलों की नई प्रजाति लगाने के लिए और गुणवत्ता बीज उत्पादन में अपना योगदान देने के लिए प्रेरित किया. प्रशिक्षण कार्यक्रम का समन्वयन डा. अंजनी कुमार सिंह, डा. आलोक कुमार, डा. पवित्रा वी. एवं डा. विनेश बनोथ कर रहे हैं.

नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कमाई से छाई बहार

राजस्थान का मारवाड़ इलाका लजीज खाने की वजह से दुनियाभर में अपनी खास पहचान रखता है, चाहे बीकानेर की नमकीन भुजिया हो या रसगुल्ले की बात हो या फिर जोधपुर के मिरची बड़े व कचौरी की, एक खास तसवीर उभर कर सामने आती है. वहीं दूसरी ओर इस इलाके में मसालों की खेती भी की जाती है. प्रदेश का नागौर जिला एक ऐसी ही मसाला खेती के लिए दुनियाभर में जाना जाता है और वह है कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती.

डाक्टर और वैज्ञानिक कई तरह की बीमारियों के इलाज के लिए भी कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के इस्तेमाल की सलाह देते हैं. कई औषधीय गुणों से भरपूर इस मेथी का इस्तेमाल पुराने जमाने से ही पेट दर्द दूर करने, कब्जी दूर करने और बलवर्धक औषधीय के रूप में होता आया है.

मेथी (Fenugreek) की बहुउपयोगी पत्तियां सेहत के लिए फायदेमंद होने के साथसाथ खाने को लजीज बनाने में भी खास भूमिका निभाती है. खास तरह की खुशबू और स्वाद की वजह से मेथी का इस्तेमाल सब्जियों, परांठे, खाखरे, नान और कई तरह के खानों में होता है.

नागौर की यह मशहूर मेथी (Fenugreek) अंतर्राष्ट्रीय कारोबार जगत में बेहद लजीज मसालों के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है. अब तो मेथी (Fenugreek) का इस्तेमाल लोग ब्रांड नेम के साथ करने लगे हैं. सेहत की नजर से देखें तो मेथी (Fenugreek) में प्रचुर मात्रा में विटामिन ए, कैल्शियम, आयरन व प्रोटीन मौजूद है.

किसान सेवा समिति, मेड़ता के बुजुर्ग किसान बलदेवराम जाखड़ बताते हैं कि किसी जमाने में पाकिस्तान के कसूरी इलाके में ही यह मेथी (Fenugreek) पैदा होती थी, जिस के चलते इस का नाम कसूरी पड़ा. धीरेधीरे इस की पैदावार फसल के रूप में सोना उगलने वाली नागौर की धरती पर होने लगी.

आज हाल यह है कि नागौर दुनियाभर में कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उपजाने वाला सब से बड़ा जिला बन गया है. यहां की मेथी (Fenugreek) मंडियों ने विश्व व्यापारिक मंच पर अपनी एक अलग जगह बनाई है. न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) बिकने के लिए जाती है.

नागौर के ही एक मेथी (Fenugreek) कारोबारी बनवारी लाल अग्रवाल के मुताबिक, कई मसाला कंपनियों ने कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को दुनियाभर में पहचान दिलाई है. देश की दर्जनभर मसाला कंपनियां कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को खरीद कर देशविदेश में कारोबार करती हैं. इसी वजह से इस मेथी (Fenugreek) का कारोबारीकरण हो गया है.

नागौर जिला मुख्यालय में 40 किलोमीटर की दूरी में फैले इलाके खासतौर से कुचेरा, रेण, मूंडवा, अठियासन, खारड़ा व चेनार गांवों में मेथी (Fenugreek) की सब से ज्यादा पैदावार होती है. मेथी (Fenugreek) की फसल के लिए मीठा पानी सब से अच्छा रहता है. चिकनी व काली मिट्टी इस की खेती के लिए ठीक रहती है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की फसल अक्तूबर माह में बोई जाती है. 30 दिन बाद इस की पत्तियां पहली बार तोड़ने लायक हो जाती हैं. इस के बाद फिर हर 15 दिन बाद इस की नई पत्तियां तोड़ी जाती हैं.

मेथी (Fenugreek) के एकएक पौधे की पत्तियां किसान भाई अपने हाथों से तोड़ते हैं. लोकल बोलचाल में मेथी की पत्तियां तोड़ने के काम को लूणना या सूंठना कहते हैं. पहली बार तोड़ी गई पत्तियां स्वाद व क्वालिटी के हिसाब से सब  अच्छी होती है.

वर्तमान में मेथी (Fenugreek) की पैदावार में संकर बीज का इस्तेमाल सब से ज्यादा होता है. यहां के इसे किसान काश्मीरो के नाम से जानते हैं. कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उतारने में सब से ज्यादा मेहनत होती है, क्योंकि इस के हरेक पौधे की पत्तियों को हाथ से ही तोड़ना पड़ता है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek)

कैसे करें खेती

भारत में मेथी की कई किस्में पाई जाती हैं. कुछ उन्नत हो रही किस्मों में चंपा, देशी, पूसा अलविंचीरा, राजेंद्र कांति, हिंसार सोनाली, पंत रागिनी, काश्मीरी, आईसी 74, कोयंबूटर 1 व नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) खास हैं. इस की अच्छी खेती के लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी है:

आबोहवा व जमीन : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती के लिए शीतोष्ण आबोहवा की जरूरत होती है, जिस में बीजों के जमाव के लिए हलकी सी गरमी, पौधों की बढ़वार के लिए थोड़ी ठंडक और पकने के लिए गरम मौसम मिले. वैसे, यह मेथी हर तरह की जमीन में उगाई जा सकती है, लेकिन इस की सब से अच्छी उपज के लिए बलुई या दोमट मिट्टी बेहतर रहती है.

खाद व उर्वरक : अच्छी फसल के लिए 5 से 6 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत तैयार करते समय मिला देनी चाहिए. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-40 किलो फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर देने से उपज में बढ़ोतरी होती है. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई से पहले देते हैं. बाकी नाइट्रोजन 2 बार में 15 दिन के अंतराल पर देते हैं.

बोआई : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को अगर बीज के रूप में उगाना है, तो इसे मध्य सितंबर से नवंबर माह तक बोया जाता है. लेकिन अगर इसे हरी सब्जी के लिए उगाना है तो मध्य अक्तूबर से मार्च माह तक भी बो सकते हैं. वैसे, सब से अच्छी उपज लेने के लिए नागौर इलाके में इसे ज्यादातर अक्तूबर से दिसंबर माह के बीच ही बोया जाता है.

इस की बोआई लाइनों में करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 15 से 20 सैंटीमीटर व गहराई 2 से 3 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. ज्यादा गहराई पर बीज का जमाव अच्छा नहीं रहता. बीज बोने के बाद पाटा जरूर लगाएं, ताकि बीज मिट्टी से ढक जाए. यह मेथी 8 से 10 दिनों में जम जाती है.

सिंचाई: कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के पौधे जब 7-8 पत्तियों के हो जाएं, तब पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. यह समय खेत की दशा, मिट्टी की किस्म व मौसमी बारिश वगैरह के मुताबिक घटबढ़ सकता है. हरी पत्तियों की ज्यादा कटाई के लिए सिंचाई की तादाद बढ़ा सकते हैं.

फसल की हिफाजत : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) में पत्तियों व तनों के ऊपर सफेद चूर्ण हो जाता है व पत्तियां हलकी पीली पड़ जाती हैं. बचाव के लिए 800 से 1200 ग्राम प्रति हेक्टेयर ब्लाईटाक्स 500-600 लिटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़क दें.

पत्तियां व तनों को खाने वाली गिड़ार से बचाने के लिए 2 मिलीलिटर रोगर 200 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें. छिड़काव कटाई से 5 से 7 दिन पहले करें.

कटाई : हरी सब्जि के लिए बोआई के 3-4 हफ्ते बाद कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कटाई के लिए तैयार हो जाती है. बाद में फूल आने तक हर 15 दिन में कटाई करते हैं. बीज उत्पादन के लिए 2 कटाई के बाद कटाई बंद कर देनी चाहिए.

उपज और स्टोरेज : सब्जी के लिए मेथी की औसत उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व बीज के लिए 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होती है. हरी सब्जी के लिए मेथी की पत्तियों को अच्छी तरह से सुखा कर एक साल तक स्टोर कर सकते हैं और बीज को 3 साल तक स्टोर किया जा सकता है.

गौरतलब है कि कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के बीजों का मसाले के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है.

सोर्फ मशीन (Machine) से गन्ने (sugarcane) की अच्छी पैदावार

गन्ना उगाने के मामले में भारत पहले नंबर पर है, ऐसा माना जाता है. पर इसे पूरी दुनिया में उगाया जाता है. वैसे, इसे उगाने की शुरुआत ही भारत से मानी गई है और देश में गन्ना पैदा करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है. गन्ने की फसल को आम बोलचाल की भाषा में ईख भी कहा जाता है. इस फसल को एक बार बो कर इस से 3 साल तक उपज ली जा सकती है.

तकरीबन 50 मिलियन गन्ना किसान और उन के परिवार अपने दैनिक जीवनयापन के लिए इस फसल पर ही निर्भर हैं या इस से संबंधित चीनी उद्योग से जुड़े हुए हैं. इसलिए पेड़ी गन्ने की पैदावार में बढ़ोतरी करना बेहद जरूरी है, क्योंकि भारत में इस की औसत पैदावार मुख्य गन्ना फसल की तुलना में 20-25 फीसदी कम है. हर साल गन्ने के कुछ रकबे यानी आधा रकबा पेड़ी गन्ने की फसल के रूप में लिया जाता है.

गन्ने से अधिक उपज लेने में किल्ले की अधिक मृत संख्या, जमीन में पोषक तत्त्वों की कमी होना, ट्रेश यानी गन्ने की सूखी पत्तियां जलाना वगैरह खास कारण हैं.

इन बातों को ध्यान में रखते हुए गन्ना पेड़ी प्रबंधन के लिए ‘सोर्फ’ नाम से एक खास बहुद्देशीय कृषि मशीन मौजूद है. इस के इस्तेमाल से गन्ना पेड़ी से अच्छी फसल ली जा सकती है.

मशीन (Machine)

मशीन की खूबी : यह मशीन एकसाथ 4 काम करने में सक्षम है.

  1. पोषक तत्त्व प्रबंधन : सोर्फ मशीन गन्ने की सूखी पत्तियों वाले खेत में भी कैमिकल उर्वरकों को जमीन के अंदर पेड़ी गन्ने की जड़ों तक पहुंचाने में सहायक है.
  2. ठूंठ प्रबंधन : गन्ना फसल कटने के बाद खेत में जो ठूंठ रह जाते हैं या ऊंचेनीचे होते हैं, उन असमान ठूंठों को जमीन की सतह के पास से बराबर ऊंचाई पर काटने के लिए भी इस मशीन का इस्तेमाल किया जा सकता है.
  3. मेंड़ों का प्रबंधन : गन्ने की पुरानी मेंड़ों की मिट्टी को अगलबगल से आंशिक रूप से काट कर यह मशीन उस को 2 मेंड़ों के बीच पड़ी सूखी पत्तियों पर डाल देती है, जिस से पत्तियां गल कर खाद का काम करती हैं.
  4. जड़ प्रबंधन : ‘सोर्फ’ मशीन द्वारा गन्ने की पुरानी जड़ों को बगल से काट दिया जाता है, जिस से नई जड़ें आ जाती हैं और पेड़ी गन्ने में किल्ले की संख्या में बढ़ोतरी होती है.

सोर्फ मशीन से जुड़ी अधिक जानकारी के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-राष्ट्रीय अजैविक स्ट्रैस प्रबंधन संस्थान, (समतुल्य विश्वविद्यालय), मालेगाव, बासमती 413115, पुणे (महाराष्ट्र) फोन : 02112-254057 पर जानकारी ले सकते हैं.

खाजा : स्वाद से भरपूर, देशी मिठाई

हमारे देश में मिठाइयों की भरमार है. मिठाई अलगअलग तरह के प्रयोग और नाम से तैयार की जाती है. उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर भारत के कई राज्यों में बनने वाली मिठाई खाजा भी है. खाजा यानी वह मिठाई, जिसे देखते ही खाने का मन करे.

इसे बनाने में प्रमुख रूप से मैदा, घी और चीनी का प्रयोग होता है. कई शहरों में खाजा बनाते समय ही चेरी, मेवा, खोया और इलायची को भी मिला दिया जाता है.

उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाकों में इस को खजला नाम से भी जाना जाता है. बुलंदशहर, औरैया, इटावा, आगरा और राजस्थान के तमाम इलाकों में इस को खजला के नाम से ही जाना जाता है.

खजला बड़ी पूरी के आकार का बनता है. इस में मेवा, चेरी भर कर स्वादिष्ठ बना दिया जाता है. गोलगोल खाजा बनने के अलावा चपटे आकार का खाजा भी बनता है. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ इलाके में इस को केवल आटा, घी और चीनी के प्रयोग से तैयार किया जाता है.

गांव के कई इलाकों में खाजा का इस्तेमाल इसलिए भी ज्यादा होता है क्योंकि इस मिठाई को 15-20 दिन तक आराम से खा सकते हैं. ऐसे में इसे शादीविवाह में देने और खानेपीने के रूप में ज्यादा पसंद किया जाता है.

मेले में लगने वाली दुकानों में यह सब से ज्यादा दिखाई देता है. कीमत के हिसाब से देखें तो यह सस्ती मिठाई है. 150 से 250 रुपए किलोग्राम तक के भाव में यह आसानी से मिल जाती है.

खाजा खाने में बेहद कुरकुरा होता है. इस को कुरकुरा बनाने के लिए आटे में गूंदते समय घी का इस्तेमाल ज्यादा किया जाता है. इस को सजाने के लिए खोया, चेरी और मेवा का इस्तेमाल किया जाता है.

गोरखपुर की रहने वाली रंजना वर्मा कहती हैं कि खाजा केवल मिठाई नहीं है, बल्कि यह हमारे देशी चलन का हिस्सा है. आज के समय में शादीविवाह में पुरानी मिठाइयों का चलन वापस लौटता नजर आ रहा है. ऐसे में एक बार फिर से देशी मिठाइयां ट्रेंड में आ गई हैं. शादीविवाह में यह मिठाई उपहार के रूप में भी दी जाती है.

यही वजह है कि पुरानी देशी मिठाइयां बाजार में फिर से जगह बनाती जा रही हैं. मेलों में लोग देशी मिठाई का स्वाद लेना चाहते हैं. इन की दुकानें भी रोजगार का जरीया बन गई हैं. मेवा और खोया की जगह अनाज से बनी मिठाइयां सब से ज्यादा मशहूर हो रही हैं.

खाजा बनाने के लिए सामग्री

एक कप मैदा. मैदा में मिलाने के लिए 2 चम्मच घी. पेस्ट के लिए 2 चम्मच घी और मैदा अलग से लें. चाशनी बनाने के लिए आधा कप चीनी, आधा कप से कम पानी और इलायची पाउडर लें. खाजा को सजाने के लिए आधा कप सूखे और पिसे हुए मेवे का मिश्रण. मावा आधा कटोरी और चेरी आधा कप तैयार करें. खाजा को तलने के लिए घी या तेल इस्तेमाल करें.

ऐसे तैयार करें खाजा

मैदे में घी को हलका गरम कर के मोयन बना लें. पानी के सहारे मुलायममुलायम आटा गूंद लें. तकरीबन 20 मिनट तक आटा ढक कर रख दें. पानी और चीनी को मिला कर चाशनी तैयार करने के लिए पहले इस को गरम करें. इस में इलायची पाउडर भी मिला दें. चीनी गाढ़ी हो कर चाशनी में तबदील हो जाए तो इस को अलग रख दें.

अब आटे की पतली पूरी बेल कर इस में घी और मैदे का पेस्ट लगाएं. दूसरी पूरी बेल कर इस के ऊपर रखें. इस तरह से कई पूरियां पेस्ट लगा कर ऊपर रखें. इस को रोल करें और एक बार फिर से बेल कर कड़ाही में घी और तेल डाल कर तलें. पूरी तरह से यह पूरी गोलगोल हो कर तैयार होगी. इस को निकाल कर पहले से बनी चाशनी में डाल दें. जब चाशनी में ठंडी हो जाए तो सूखे मेवे, चेरी और मावा डाल कर इस को सजा दें. जब आप खा कर देखेंगे तो ऐसा लगेगा जैसे कह रहा हो मुझे खाजा.

दुधारू पशुओं (Milch Animals) को दें हरा चारा

पशुओं से अगर ज्यादा दूध लेना है तो यह जरूरी है कि वे सेहतमंद रहें. अगर पशुपालक दुधारू पशुओं को हरा चारा दें और सही प्रबंध करें तो वे अपने पशुओं को ठीक से रख सकते हैं.

दुधारू पशुओं की देखभाल करना बहुत ही जरूरी है, क्योंकि इन से ज्यादा दूध लेने से ज्यादा पैसा मिलता है. मानव शरीर के लिए पशुजनित प्रोटीन भी जरूरी है, जो शाकाहारी इनसान को केवल दूध से ही मिल सकता है.

दुधारू पशुओं से ज्यादा दूध लेने के लिए ज्यादा पोषक तत्त्वों की जरूरत पड़ती है. ये पोषक तत्त्व हैं चिकनाई, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन, खनिज पदार्थ, लवण और पानी. इस के लिए दुधारू पशुओं को संतुलित आहार देना चाहिए, जो उन के स्वास्थ्य से संबंधित सभी तरह की जरूरतों को पूरा कर सके और उन्हें सेहतमंद रखने के लिए उसे पोषक तत्त्व ठीक अनुपात और सही मात्रा में मुहैया करा सके.

संतुलित आहार है जरूरी

दूध का उत्पादन 2 बातों पर ज्यादा निर्भर करता है:

* पशु के दूध देने की कूवत.

* पशु का रखरखाव, देखभाल और आहार.

आहार की मात्रा पशु द्वारा दिए गए दूध की मात्रा और उस में चिकनाई और प्रतिशत पर निर्भर है. दूध अयन में बनता है. दुधारू पशु को ऐसे पोषक तत्त्व और ज्यादा खिलाने चाहिए, जो दूध में निकले हुए तत्त्वों की कमी को पूरा कर सकें. साथ ही, उन तत्त्वों को भी पूरा करें, जो इस क्रिया के पूरा होने में खत्म हुए हों.

दुधारू पशुओं (Milch Animals)

ऊर्जा भी है जरूरी

दुधारू पशुओं के शरीर से दूध के साथ कार्बोहाइड्रेट और चिकनाई बाहर निकलती है. इस नुकसान को पूरा करने के लिए पशु को 5 फीसदी चिकनाई और अच्छे कार्बोहाइड्रेट वाले हरे चारे जैसे ज्वार, मक्का, लोबिया, ग्वार, बरसीम, जई वगैरह खिलाने चाहिए. इन्हें खिलाने से दूध में निकले जरूरी तत्त्वों की कमी पूरी हो जाती है.

प्रोटीन भी जरूर दें

दूध बनने में कार्बोहाइड्रेट अहम भूमिका निभाता है और उसे शरीर से बाहर निकलने में प्रोटीन का नुकसान होता है. इस कमी को पूरा करने के लिए हम आमतौर पर पशु को एक किलोग्राम टाइप 1 दाना या पैलेट खिलाते हैं, लेकिन यदि हमारे पास फलीदार हरा चारा हो तो 12 किलोग्राम हरे चारे से उस की यह जरूरत पूरी की जा सकती है. हरे फलीदार चारे को हमेशा सूखे भूसे के साथ मिला कर देना चाहिए वरना पेट में गैस बन सकती है.

खनिज लवणों की जरूरत

दूध में कैल्शियम और फास्फोरस की मात्रा शरीर से काफी निकलती है. इन की भरपाई के लिए फलीदार हरा चारा जैसे लूसर्न, बरसीम, ग्वार, लोबिया वगैरह में कैल्शियम और गेहूं के चोकर में फास्फोरस काफी मात्रा में होने के चलते दुधारू पशुओं को आहार में खिलाना चाहिए.

वहीं दूसरी ओर दूध में तमाम तरह के विटामिन पाए जाते हैं. इन का दूध के बनने और शरीर से बाहर निकलने में बहुत अधिक महत्त्व हैं. खासतौर से चिकनाई में घुलनशील विटामिन ए और विटामिन डी, जो शरीर में नहीं बनते, उन्हें चारे द्वारा पशुओं को खिलाने चाहिए.

पशुओं को हरा चारा खिलाने से विटामिन ए मिलता है, वहीं धूप में पशु को खड़ा कर के अथवा चारागाहों में चराने से चमड़ी पर सूरज की किरणों के प्रभाव से विटामिन डी मिलता है. खिलाए जाने वाले दानों से काफी मात्रा में पशु को विटामिन ई मिल जाता है. बी श्रेणी के विटामिन और विटामिन सी पशु के शरीर के अंदर भोजन प्रणाली में जीवाणुओं द्वारा हरे चारे पर प्रतिक्रिया हो कर खुद ही बन जाते हैं और इस तरह उन की जरूरत पूरी हो जाती है.

हरे चारे की उपयोगिता

दुधारू पशुओं (Milch Animals)* हरा चारा स्वादिष्ठ, रुचिकर, पौष्टिक और जल्दी पचने वाला होता है.

* हरे चारे से पशुओं को सभी पोषक तत्त्व मिल जाते हैं, खासकर विटामिन ए, प्रोटीन, पानी और खनिज पदार्थ. दुधारू पशुओं को इन की जरूरत बहुत ज्यादा होती है.

* पशुओं को हरा चारा खिलाने से दाने की बचत होती है.

* हरे चारे द्वारा पालनेपोसने में खर्च की कमी से उत्पादन की लागत भी कम हो जाती है.

* किसान एक साल में इन हरे चारों की कई फसलें ले सकता है. इस से उसे सालभर में प्रति हेक्टेयर अच्छी आमदनी हो जाती है.

* अधिक रेशेदार होने की वजह से ये चारे राशन की मात्रा बढ़ाते हैं, जो भोजन प्रणाली के तनाव के लिए जरूरी है. इस तरह तनाव पा कर ही भोजन प्रणाली अपना पूरा काम करने में समर्थ होती है.

* ये चारे भोजन प्रणाली के अंदर अधिक पानी सोख कर के मृदुरेचक प्रभाव पैदा करते हैं.

* ये चारे ज्यादा सस्ते और शक्तिदायक होते हैं.

* जुगाली करने वाले पशुओं में इन का और भी ज्यादा महत्त्व है. रूमेन (प्रथम अमाशय) में मौजूद जीवाणुओं के लिए ये चारे अनुकूल अवस्थाएं प्रदान करते हैं:

* चारे के रेशे या न पचने वाले तंतुओं को तोड़ कर ये जीवाणु उन से उड़नशील चिकने अम्ल पैदा करते हैं जो कि शरीर के लिए ताकत देते हैं.

* ये जीवाणु इन चारे से कुछ जरूरी अमीनो एसिड और विटामिन भी तैयार करते हैं.

* ये चारे भोजन प्रणाली की दीवारों में संकुचन और विमोचन क्रियाओं के पूरा होने में भी जरूरी भूमिका निभाते हैं.

* ये चारे पाचक रसों की क्रिया के लिए अधिक बड़ी सतह बनाते हैं, जिस से उन का असर भोजन पर अच्छी तरह हो सके.

* पशुओं को उन की शुष्क पदार्थ की पूरी जरूरत का दोतिहाई हिस्सा इन्हीं चारों से दिया जाता है.

साफ पानी का हो इंतजाम

दुधारू पशुओं को भरपूर मात्रा में हर समय साफ ताजा रंगहीन, गंधहीन, कीटाणुरहित पानी देना चाहिए. पशु के शरीर में तकरीबन 70 फीसदी भाग और उस के दूध में तकरीबन 87 फीसदी भाग में पानी होता है.

बता दें, शरीर में पानी की 10 फीसदी कमी होने पर पशुओं में बेचैनी होने, कांपने अथवा कमजोरी आने के लक्षण पैदा हो जाते हैं और 20 फीसदी कमी होने पर पशु मर जाता है. हरे चारे में तकरीबन 70-80 फीसदी भाग पानी या नमी का होता है, जो पशु के पोषण में बहुत उपयोगी होता है.

नीलगाय (Nilgai) से फसलों की हिफाजत (Protection)

नीलगाय (Nilgai) से फसलों को बचाने के लिए कई तरीके हैं, लेकिन ज्यादातर उपाय खर्चीले हैं व गरीब किसानों की पहुँच से बाहर होते हैं.  कुछ ऐसे उपाय हैं जिन्हें आजमा कर आप अपनी फसलों का नीलगाय (Nilgai) व जंगली जानवरों से बचाव कर सकते हैं.

सबसे ज्यादा नुकसान किसानों को नीलगाय (Nilgai) से होता है. नीलगाय (Nilgai) झुंड में रहती हैं. इन की तादाद कभीकभी 25-30 तक रहती है. ऐसे में ये जिस किसी खेत में घुसती हैं, उस का एक बार में सफाया कर देती हैं.

नीलगाय (Nilgai) से फसलों को बचाने के लिए कई तरीके हैं, लेकिन ज्यादातर उपाय खर्चीले हैं. गरीब किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे खेतों की तारबंदी करवा लें.

कृषि वैज्ञानिकों ने कई रिसर्च के जरीए इस बात को साबित कर दिया है कि नीलगाय (Nilgai) के गोबर के घोल की गंध उन्हें खेतों में आने से रोकती है.

नीलगाय (Nilgai) फसलों को तो खाती हैं ही, बल्कि इन के पैरों से भी खेत में काफी नुकसान होता है. सरसों और आलू के पौधे यदि एक बार टूट गए तो दोबारा जड़ें जमाना मुश्किल हो जाता है इसलिए फसलों की हिफाजत के लिए नीचे दिए गए उपाय अपनाना जरूरी हैं:

* नीलगाय (Nilgai) को खेतों की ओर आने से रोकने के लिए 4 लिटर मट्ठा में आधा किलो छिला हुआ लहसुन पीस कर मिला दें और इस में 500 ग्राम बालू डालें. इस घोल का 5-5 दिन बाद छिड़काव करें. इस की गंध से तकरीबन 20 दिन तक नीलगाय (Nilgai) खेतों में नहीं आएंगी. इसे 15 लिटर पानी के साथ भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

* 20 लिटर गोमूत्र, 5 किलोग्राम नीम की पत्तियां, 2 किलोग्राम धतूरा, 2 किलोग्राम मदार की जड़, फलफूल, 500 ग्राम तंबाकू की पत्तियां, 250 ग्राम लहसुन, 150 ग्राम लाल मिर्च पाउडर को डब्बे में भर कर धूप में 40 दिन तक के लिए रख दें. उस में हवा नहीं जानी चाहिए. इस के बाद 1 लिटर इस दवा को 80 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करने से महीनेभर तक नीलगाय (Nilgai) फसलों को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं. इस से नीलगाय (Nilgai) से हिफाजत के साथ ही आप की फसलों की कीटपतंगों से भी हिफाजत हो जाएगी.

* किसान अपने खेतों के चारों तरफ कंटीली तार के साथ ही बांस की फट्टियां लगा सकते हैं. आजकल बाजार में जानवरों से बचाव के लिए चमकीली बैंड की पट्टियां भी मिल रही हैं. इन से भी घेराबंदी की जा सकती है.

* खेत की मेंड़ों को ऊंचा बनाना चाहिए और इन मेंड़ों के किनारे करौंदा, जैट्रोफा, तुलसी, खस, जिरेनियम, मैंथा, लैमन ग्रास, सिट्रोनेला, पामारोजा के पौधे लगाए जा सकते हैं. इन पौधों की खासीयत यह होती है कि ये काफी घने होते हैं और कुछ पौधे कंटीले भी होते हैं. यह तरीका भी आप की फसल को महफूज रख सकता है.

* कुछ किसान अपने खेत में आदमी के आकार का पुतला बना कर खड़ा कर देते हैं. इस से जानवरों को यह डर रहता है कि कोई आदमी खेत पर है. इस से भी नीलगाय खेतों में नहीं आती हैं.

* नीलगाय के गोबर का घोल बना कर मेंड़ से 1 मीटर अंदर फसलों पर छिड़कने से कुछ समय के लिए फसलों की हिफाजत की जा सकती है.

* किसानों को चाहिए कि वे फसलों पर 1 लिटर पानी में 1 ढक्कन फिनाइल के घोल का छिड़काव करें. इस से नीलगाय फिनाइल की बदबू से खेतों के आसपास आने की हिम्मत नहीं करेंगी.

* गधे की लीद, पौल्ट्री का कचरा, गोमूत्र, सड़ी सब्जियों की पत्तियों का घोल बना कर फसलों पर छिड़कने से नीलगाय खेतों के पास नहीं आती हैं.

* कुछ किसान अपने खेतों में रात के वक्त मिट्टी के तेल की डिबरी जला देते हैं, जिस से नीलगाय खेतों में नहीं आती हैं.

ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिन्हें आजमा कर आप अपनी फसलों का नीलगाय व जंगली जानवरों से बचाव कर सकते हैं.

लखनऊ की गुलाब रेवड़ी (Gulab Rewari)

लखनऊ की गुलाब रेवड़ी देश भर में अपने स्वाद और खुशबू के लिए मशहूर है. इस गुलाब रेवड़ी का रंग तो गुलाबी नहीं होता, लेकिन इस की खुशबू में गुलाब महकता है.

कई बार तो खुशबू के लिए रेवड़ी के पैकेट में सूखे गुलाब की पत्तियों या फिर गुलाब के खाने वाले इत्र का इस्तेमाल किया जाता है.

गुलाब रेवड़ी के साथ अब दूसरे स्वाद और खुशबू वाली रेवडि़यां भी आ रही हैं. इन का आकार भी बदल गया है. रेवड़ी बनाने के कारोबार से ले कर बेचने तक का अलगअलग कारोबार कर के लोग कमाई कर रहे हैं.

फेरी में बिकने वाली लखनऊ की गुलाब रेवड़ी अब बड़ीबड़ी मिठाई की दुकानों की शान बन गई हैं. जाड़ों में यह काफी बिकती है. गुड़, शक्कर और तिल से बनने वाली रेवड़ी सेहत के लिए काफी उपयोगी है. यह शरीर में जाड़ों में होने वाली तेल की कमी को पूरा करती है. इस से शरीर को ऊर्जा मिलती है. यही वजह है कि जाड़ों में गुड़ और तिल से बनने वाली रेवड़ी सभी को पसंद आती है. रेवड़ी पहले छोटे कारोबारियों द्वारा बनाई और बेची जाती थी, लेकिन अब यह दुनिया भर के बाजारों में छा गई है.

रेवड़ी अब कारपोरेट स्वीट बन गई है. दीवाली, नया साल और होली के मौके पर इस को उपहार में दिया जाने लगा है. रेवड़ी की खासीयत इस का कुरकुरापन है. लखनऊ के अलावा रेवड़ी का यह कारोबार उत्तर प्रदेश के मेरठ, हरियाणा के रोहतक और राजस्थान के जयपुर और अलवर जैसे शहरों में भी बड़े पैमाने पर होने लगा है. अपने खास स्वाद के कारण जयपुर और मेरठ की रेवडि़यां भी खूब पसंद की जा रही हैं.

बनाएं घर पर रेवड़ी

गजक बनाने वाली सामग्री ही रेवड़ी बनाने में भी लगती है. रेवड़ी में भी तिल, गुड़, चीनी का इस्तेमाल होता है. गुड़ और चीनी को एकसाथ मिलाने से रेवड़ी में दोनों का स्वाद मिलता है. इस का दूसरा लाभ यह होता है कि रेवड़ी का रंग पूरी तरह से साफ हो जाता है. केवल गुड़ से तैयार रेवड़ी का रंग अच्छा नहीं दिखता है. चीनी और गुड़ की चाशनी को मिला कर खूंटी में गरमगरम लटका कर खींचा जाता है. जब इस में से सफेद तार निकलने लगे, तो गरमगरम मनचाहे आकार में इसे काट कर छोटीछोटी रेवड़ी तैयार की जाती हैं. चाशनी ठंडी होने पर यह नहीं बन पाती है. इसे मशीन से दबा कर ऊपर से तिल चिपका दिए जाते हैं. इसे बनाने में सब से ज्यादा सावधानी चाशनी तैयार कने में बरतनी पड़ती है.