बागबानी महोत्सव के जरीए बिहार ने उन्नत बागबानी से कराया रूबरू

बिहार सरकार द्वारा राज्य के किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए हर एक दिन  नए प्रयोग और योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है. इस के लिए पिछले दिनों राज्य लैवल से ले कर जिला और ब्लौक लैवल पर गोष्ठियां, प्रदर्शनियां और ट्रेनिंग कार्यक्रमों का बेहद सफल आयोजन किया गया.

इसी को ध्यान में रखते हुए बिहार के कृषि महकमे के उद्यान निदेशालय द्वारा पटना के गांधी मैदान में बीते 3 जनवरी से 5 जनवरी, 2025 तक तीनदिवसीय बागबानी महोत्सव का आयोजन किया गया. इस बागबानी महोत्सव में बिहार के सभी जिलों से तकरीबन 1500 किसान 14 हजार से ज्यादा प्रविष्टियों के साथ शामिल हुए.

बागबानी महोत्सव में प्रदर्शनी में तकरीबन 60 स्टाल लगाए गए, जहां से खेतीबागबानी में रुचि रखने वाले लोगों ने अपने पसंद के फल, फूल, सब्जी के बीज/बिचड़ा, पौधा, गमला, मधु, मखाना, मशरूम आदि की खरीदारी भी की.

बागबानी महोत्सव का उद्घाटन राज्य के कृषि और स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने किया. इस मौके पर पटना के गांधी मैदान में आयोजित इस प्रदर्शनी में उन्होंने राज्‍य के भूमिहीन किसानों को ले कर बड़ी घोषणा की.

बिहार के कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि कृषि विभाग बिहार में जल्दी ही शहद के उत्पादन और प्रोत्साहन के लिए नीति बनाएगा, जिसे सरकार राज्यभर में बढ़ावा देगी खासकर भूमिहीन किसानों को शहद उत्पादन से जोड़ने की पहल को ले कर नीति बनाई जाएगी.

भूमिहीन किसान मधुमक्खीपालन कर खुद को सशक्त बनाएंगे. सूरजमुखी, सहजन, सरसों, लीची जैसे फल, फूलों के शहद का उत्पादन करने की नीति बनेगी.

कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि कृषि बिहार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जो राज्य के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों का आधार है. रंगबिरंगे फल, फूल, सब्जी और अन्य बागबानी उत्पादों से सुसज्जित बागबानी महोत्सव, 2025 किसानों के उत्साह का गवाह है.

प्रति व्‍यक्ति आय बढ़ाने में किसानों की भूमिका

कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि बिहार की अर्थव्यवस्था में बागबानी खासकर फल, फूल, सब्जी, मसाला आदि की भूमिका अहम साबित हो रही है. साल 2005 के समय राज्य में प्रति व्यक्ति आय 7,500 रुपए के करीब थी, वहीं आज इस राज्य की प्रति व्यक्ति आय 66,000 रुपए हो गई है.

उन्होंने आगे कहा कि बीते 20 वर्षों में मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य में लगभग 8 गुना से अधिक प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है, जिस में किसानों की बढ़ी आय का बड़ा योगदान रहा है. अगर हम सभी राज्य को सुखी और समृद्ध बनाना चाहते हैं, तो बागबानी के माध्यम से किसानों को समृद्ध कर उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं.

कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि महोत्सव में सिर्फ बागबानी उत्पादों का प्रदर्शन ही नहीं, बल्कि फल, फूल, सब्जी के बीज, बिचड़ा, पौधा, बागबानी उपकरण, मधु, मखाना, मशरूम, चाय आदि की बिक्री की भी व्यवस्था की गई है. बिहार में कुल 13.50 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बागबानी फसलों की खेती की जाती है, जिस से तकरीबन 286.45 लाख मीट्रिक टन फल, फूल, सब्जी आदि का उत्पादन होता है, जिसे आने वाले समय में और बढ़ाने का लक्ष्य है.

बागबानी क्षेत्र को बढ़ाने पर दिया जोर

कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि कृषि रोडमैप के लक्ष्य से आगे बढ़ कर भी सोचने की जरूरत है. सालाना लक्ष्य निर्धारित करने की दिशा में भी हम सोच सकते हैं. हमें साल 2025 में बागबानी का लक्ष्य बढ़ा कर 18 लाख हेक्टेयर एवं 2026 में इसे बढ़ा कर 20 लाख हेक्टेयर पर ले जाने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए.

बागबानी के क्षेत्र में बिहार लगातार आगे बढ़ रहा है. आज हमारे किसान पारंपरिक बागबानी फसलों के साथसाथ उच्च बाजार मूल्य वाले एक्जोटिक फल, ड्रैगन फ्रूट्स, स्ट्राबेरी आदि की खेती कर रहे हैं.

उन्होंने आगे कहा कि इन उत्पादों का उचित भंडारण हो, प्रसंस्करण यानी प्रोसैसिंग एवं मूल्य संवर्द्धन हो, बाजार की सुलभ उपलब्धता हो, इस दिशा में तीव्र गति से काम किया जा रहा है. इस कड़ी में राज्य सरकार के द्वारा कृषि विभाग के अंतर्गत कृषि मार्केटिंग निदेशालय का गठन किया गया है, जिस का उद्देश्य किसानों को उन की उपज का उचित मूल्य उपलब्ध कराना, किसानों को बाजार की व्यवस्था उपलब्ध कराना, किसानों के उत्पादों में मूल्य संवर्द्धन कराना, भंडारण की सुविधा, बेहतर पैकेजिंग आदि की व्यवस्था सुनिश्चित किया जाना है.

विभाग के सचिव संजय अग्रवाल ने बताया कि महोत्सव के आयोजन का उद्देश्य बाजारोन्मुख बागबानी उत्पादों के गुणवत्तायुक्त उत्पादन के लिए किसानों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाना है, वहीं बागबानी के क्षेत्र में नवीनतम तकनीकी उपकरण से रूबरू कराना और किसानों को उन के उत्पादों का सही मूल्य प्राप्त हो, इस के लिए निर्यात प्रोत्साहन के लिए किसानों और व्यापारियों को एक प्लेटफार्म उपलब्ध कराना है.

इस अवसर पर अभिषेक कुमार, निदेशक उद्यान, आलोक रंजन घोष, एमडी, बिहार राज्य बीज निगम, अमिताभ सिंह, आप्त सचिव, स्वास्थ्य मंत्री, संतोष कुमार उत्तम, निदेशक पीपीएम, वीरेंद्र प्रसाद यादव, विशेष सचिव, कृषि विभाग, पद्मश्री से सम्मानित किसान चाची राजकुमारी देवी, मनोज कुमार, संयुक्त सचिव समेत कई अधिकारी कार्यक्रम में मौजूद रहे.

gardening festival

मन मोह लेने वाला रहा बागबानी महोत्सव, भाग लेने वाले प्रतिभागियों की प्रविष्टियां

पटना के गांधी मैदान में लगाए गए बागबानी महोत्सव में सब्जी, फल, फूल और सजावटी पौधों को ले कर किसानों और शहरी क्षेत्र के लोगों से प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए आवेदन मांगे गए थे, जिस में उन के प्रविष्टियों की कोडिंग की गई थी. निर्णायक मंडल द्वारा निष्पक्ष रूप से प्रतियोगिता में भाग लेने वाले लोगों के साथ इंसाफ किया जा सके.

16 वर्गों में आयोजित की गई प्रतियोगिताएं

बागबानी महोत्सव में भाग लेने लिए किसानों और बागबानी प्रेमियों के लिए 16 वर्गों में प्रविष्टियां आमंत्रित की गई थीं, जिस में सब्जी, मशरूम, फल, शहद, पान, कटे फूल डंठल सहित, औषधीय एवं सुगंधित पौधा, चित्रकला प्रतियोगिता, क्विज प्रतियोगिता, फल संरक्षण (घर की बनी), शोभाकार पत्तीदार पौधा, बोनसाई, जाड़े के मौसमी फूलों के पौधे, कैक्टस एवं सकुलेंट पौधा, विभिन्न तरह के पाम, कलात्मक पुष्प सज्जा एवं नक्काशी शामिल रहा. इन वर्गों को विभिन्न शाखाओं में बांटा गया था.

इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाले प्रत्येक वर्ग से प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कार के रूप में नकद इनाम भी दिया गया. इस के अंतर्गत महोत्सव में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले प्रतिभागियों को प्रथम पुरस्कार के रूप में 5,000 रुपए, द्वितीय पुरस्कार के रूप में 4,000 रुपए व तृतीय पुरस्कार के रूप में 3,000 रुपए  प्रदान किए गए.

रंगबिरंगे फूलों और सजावटी पौधों ने मोहा मन, ली जम कर सैल्फी

बिहार सरकार द्वारा पटना के गांधी मैदान में लगाए गए बागबानी महोत्सव में चारों तरफ रंगबिरंगे फूलों की खुशबू बिखरी रही और इन पौधों ने लोगों को सैल्फी लेने को मजबूर कर दिया.

प्रदर्शनी में ये पौधे विभिन्न प्रतियोगियों द्वारा प्रतियोगिता में इनाम पाने के लिए प्रदर्शित किए गए थे. इस के तहत कैक्टस, पाम, गुलाब, गेंदा, सकुलेंट, पान, क्रोटन, गुलदाउदी, जरबेरा, एलोवेरा, विभिन्न पेड़ों के बोनसाई के हजारों की संख्या में पौधे शामिल रहे, जबकि एक विशिष्ट पुरस्कार के लिए 10,000 रुपए का नकद इनाम दिया गया.

रंगीन और विदेशी सब्जियों को देख हैरान हुए लोग

गांधी मैदान में लगाए तीनदिवसीय बागबानी महोत्सव में प्रदेश के विभिन्न जिलों के किसान फल, फूल और सब्जियों के पौधे ले कर प्रतियोगिता में शामिल होने आए थे, जिन्हें प्रदर्शन के लिए आम दर्शकों के लिए रखा गया था. इन प्रतियोगिताओं में आदमकद और जंबो साइज की सब्जियां और फलफूल देखने को मिले.

इस में 20 से 40 किलोग्राम का कद्दू, 5 से 10 किलोग्राम की फूलगोभी, डेढ़ किलोग्राम तक की गांठगोभी, जंबो साइज के सूरन, लौकी, बैगन, टमाटर, बंदगोभी, सेम, गाजर, आलू, मटर, अदरक, हलदी, ड्रैगन फ्रूट के अलावा जैविक तरीके से उगाए गए फलफूल और सब्जी को देख कर लोग हैरान हो कर फोटो और वीडियो बनाने से खुद को रोक नहीं पाए.

प्रदर्शनी में विदेशी सब्जियों में पाकचोई, जुकुनी सहित कई सब्जियां भी प्रतियोगिता के लिए रखी गई थीं, जिस का परिचय जानने के लिए लोग उत्सुक रहे.

चोरमा गांव के बाशिंदे सुरेश गिरी इस महोत्व में हरी मिर्च के पौधे ले कर आए थे. उन के एक पौधे में 60 मिर्चें लगी हुई थीं. वे बताते हैं कि उन्होंने जैविक तरीके से 2 कट्ठे में मिर्च की खेती की. एक कट्ठा में मिर्च गाने में 10,000 रुपए खर्च होते हैं और कमाई तकरीबन 60,000 रुपए होती है.

gardening festivalप्रदर्शनी के स्टालों पर खूब बिकी बागबानी से जुड़ी चीजें

बागबानी महोत्सव में बागबानी से जुड़े उपकरणों, खाद, उर्वरक, बीज, पौधे, गमले इत्यादि से जुड़े लगभग 60 स्टाल लगाए गए थे. जिस में निजी कंपनियों से ले कर सरकारी संस्थान, विश्वविद्यालय, आईसीएआर से जुड़े संस्थान और महिला स्वयं सहायता समूह से जुड़े लोग शामिल रहे.

इन स्टालों पर लोगों ने बागबानी से जुड़े ब्रांडेड कंपनियों के छोटेछोटे मैनुअल उत्पाद और उपकरण तो खरीदे ही, साथ में उन्नत किस्मों के बीज और पौधों की भी जम कर खरीदारी की.

इस महोत्सव में राष्ट्रीय बीज निगम के स्टाल पर मोटे अनाज, फल, फूल और सब्जियों के प्रमाणित बीजों की खूब बिक्री हुई, जिस में मंडुआ, सांवा, मटर, धनिया, कैलेंडुला, बैगन, मूली, लाल साग और  प्याज के बीज आदि शामिल रहे.

इसी तरह 3 रुपए प्रति पौध की दर से टमाटर, बैगन, पत्तागोभी, लाल फूलगोभी का पौधा भी खूब बिका. एक स्टाल पर बिना बीज वाला खीरा 40 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिका, जो खाने में बिलकुल भी तीखा नहीं होता. इसी तरह आम, अमरूद, चीकू और आंवला के पौधों की बिक्री भी जम कर हुई.

gardening festivalबिहारी व्यंजनों का स्वाद

बागबानी महोत्सव न केवल किसानों और बागबानी में रुचि रखने वाले लोगों के लिए खास रहा, बल्कि यह महोत्सव खानेपीने वाले लोगों को भी अपनी तरफ खींचने में कामयाब रहा.

महोत्सव में बिहार के स्थानीय पारंपरिक व्यंजनों का भी स्टाल लगाया गया था, जहां लिट्टीचोखा, मशरूम के व्यंजन, मंगोड़े इत्यादि का भी लोगों ने जम कर स्वाद लिया.

छत पर फार्मिंग बैड योजना एवं गमले पर मिल रहा अनुदान

बिहार सरकार द्वारा चुनिंदा जनपदों में छत पर खेती किए जाने को प्रोत्साहित करने के लिए छत पर बागबानी योजना के तहत सहायता अनुदान मुहैया कराया जा रहा है, जिस का उद्देश्य शहरों में रहने वाले लोगों में जैविक उत्पादों के प्रयोग को बढ़ावा देने सहित छत पर खेती के जरीए शहरी प्रदूषण में कमी लाना और सब्जियों, फलों के ऊपर लोगों की बाजार पर निर्भरता को कम करना भी है.

यह योजना उन के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रही है, जिन के पास अपनी खुद की खेती के लिए जमीन नहीं है. वे लोग अगर खेती और बागबानी में रुचि रखते हैं, तो अपने घर की छत पर शौक को अमलीजामा पहना कर अपने इस शौक को पूरा कर सकते हैं.

बागबानी महोत्सव में इस योजना के प्रचारप्रसार के लिए लाइव डैमो प्रदर्शन किया गया था, जहां इस योजना से जुड़ी सभी जानकारियों सहित योजना का लाभ लेने के इच्छुक लोगों का मौके पर ही पंजीकरण किया गया.

योजना से जुड़ी खास बातें

योजना से जुड़े उपकरण, बीज पौधे व अन्य जरूरी संसाधन मुहैया कराने वाली एक कंपनी से जुड़े विकास कुमार ने महोत्सव में उक्त योजना का डैमो प्रदर्शन लगा रखा था. इस दौरान उन्होंने बातचीत में बताया कि अभी केवल बिहार के पटना सदर, दानापुर, फुलवारी एवं खगौल और भागलपुर, गया एवं मुजफ्फरपुर जिले के शहरी क्षेत्र में इस योजना का लाभ लिया जा सकता है. जिस के पास अपना घर हो अथवा अपार्टमेंट में फ्लैट हो, जिस की छत पर 300 वर्ग फुट की जगह हो, वे फार्मिंग बैड योजना का लाभ ले सकते हैं.

उन्होंने आगे बताया कि स्वयं के मकान की स्थिति में छत पर 300 वर्ग फुट खाली स्थल, जो किसी भी हस्तक्षेप से स्वतंत्र हो और अपार्टमेंट की स्थिति में अपार्टमेंट की पंजीकृत सोसाइटी से अनापत्ति प्रमाणपत्र प्राप्त होना जरूरी है.

विकास कुमार ने बताया कि फार्मिंग बैड योजना के अंतर्गत प्रति इकाई (300 वर्ग फुट) का इकाई लागत 48574 रुपए एवं अनुदान 75 फीसदी  और शेष 12143.50 रुपए लाभार्थी द्वारा दिया जाना है. इसी तरह गमले की योजना के अंतर्गत प्रति इकाई लागत 8975 रुपए एवं अनुदान 75 फीसदी और शेष 2243.75 रुपए लाभार्थी द्वारा देय होगा.

उन्होंने यह भी बताया कि आवेदन करने के बाद फार्मिंग बैड योजना के अंतर्गत प्राप्त रसीद पर लाभार्थी को अपने अंश की राशि 12143.50 रुपए प्रति इकाई (300 वर्ग फीट) और गमले की योजना के अंतर्गत प्राप्त रसीद पर लाभुक को अपने अंश की राशि 2243.75 रुपए प्रति इकाई जमा करने के लिए बैंक खाता संख्या एवं विस्तृत विवरणी प्राप्त होगी.

संबंधित जिले के संबंधित खाता संख्या में लाभुक अंश की राशि जमा होने के बाद  ही आगे की कार्रवाई की जाएगी. इस योजना का लाभ प्राप्त करने वाले लाभार्थी द्वारा छत पर लगे बागबानी इकाई का रखरखाव स्वयं के स्तर से करना अनिवार्य होगा.

उन्होंने बताया कि फार्मिंग बैड योजना के अंतर्गत स्वयं के मकान की स्थिति में 2 इकाई और अपार्टमेंट एवं शैक्षणिक/अन्य संस्थान के लिए अधिकतम 5 इकाई का लाभ दिया जाएगा. गमले की योजना का लाभ संस्थाओं को नहीं दिया जाएगा और  गमले की योजना का लाभ किसी आवेदक द्वारा अधिकतम 5 यूनिट तक लिया जा सकेगा.

विकास कुमार ने बताया कि इस योजना की गाइडलाइन के अनुसार चयन के लिए  जिले के लक्ष्य के अंतर्गत 78.60 फीसदी सामान्य जाति, 20 फीसदी अनुसूचित जाति और 1.40 फीसदी  अनुसूचित जनजाति की भागीदारी सुनिश्चित की गई है, जिस में कुल भागीदारी में 30 फीसदी  महिलाओं को प्राथमिकता दिए जाने का प्रावधान है.

गमला योजना में शामिल हैं ये चीजें

गमला योजना के तहत 30 गमले में अलगअलग तरह के पौधे लगा कर दिए जाएंगे. इस में तुलसी, अश्वगंधा, एलोवेरा, स्टीविया, पुदीना, स्नेक प्लांट, मनी प्लांट, गुलाब, चांदनी, एरिका पाम, अपराजिता, करीपत्ता, बोगनविलिया, अमरूद, आम, नीबू, चीकू, केला, रबर आदि के पौधे रहेंगे. इन में 10 इंच के 5, 12 इंच के 5, 14 इंच के 10 और 16 इंच के 10 गमले दिए जाएंगे. इस योजना की लागत 8,974 रुपए की है, लेकिन 75 फीसदी अनुदान के बाद आवेदक को केवल 2,244 रुपए ही देने होंगे.

 12,000 रुपए में छत पर बागबानी का सपना होगा सच

फार्मिंग बैड योजना के तहत लाभार्थी के घर की छत पर कई तरह के फार्मिंग बैड और बैग लगाए जाएंगे. इन में 10 फुट लंबा और 4 फुट चौड़ा 3 फार्मिंग बैड, 2 फुट लंबा और एक फुट चौड़ा एक फार्मिंग बैग, 2 फीट लंबा और 2 फीट चौड़ा 6 बैग लगाए जाएंगे. इस में ड्रिप सिस्टम और मोटर लगा कर दिया जाएगा. ड्रिप सिस्टम में लगे स्विच को चालू करते ही पौधों की सिंचाई हो जाएगी. साथ ही, 30 किलोग्राम कोकोपिट और 50 किलोग्राम वमीं कंपोस्ट दिया जाएगा.

फार्मिंग बैड योजना के तहत लोगों को मौसमी सब्जी और फल के पौधे लगा कर इस योजना के तहत 9 माह तक प्रबंधन का काम एजेंसी ही करेगी. इस दौरान एजेंसी के लोग 18 बार निरीक्षण करने आएंगे. पौधों का विकास, उन की जरूरत के हिसाब से वे काम करेंगे.

एजेंसी पूरी करेगी जरूरतें

सरकार द्वारा इस योजना का लाभ लोगों को आसानी से मुहैया हो पाए, इस के लिए ऐसी व्यवस्था की है कि आवेदन के लिए कहीं चक्कर लगाने की जरूरत न पड़े. इस के लिए सबकुछ एजेंसी पहुंचाने का काम कर रही है. इस योजना के लिए आवेदक को निदेशालय की वैबसाइट https:// horticulture.bihar.gov.in पर जाना होगा. इस वैबसाइट पर ही औनलाइन आवेदन करना होगा. इस के बाद आवेदन किए जाने के 10 दिन के अंदर ही आप के घर की छत पर बागबानी कर दी जाएगी.

जनवरी में किए जाने वाले खेती के खास काम

जनवरी के महीने में अनेक इलाकों में कड़ाके की सर्दी होती है. ऐसे में खेतीकिसानी के काम करना थोड़ा मुश्किल भरे जरूर होते है, लेकिन खेती के लिए फायदेमंद रहते है. गेहूं फसल में अच्छे फुटाव के लिए अधिक ठंड का होना फायदेमंद है तो पाला पड़ना फसल को नुकसान देते है. ऐसे में अगर कहीं प्राकृतिक आपदा के चलते ओलावृष्टि हो जाए तो फसल को काफी नुकसान भी होता है. कुछ ऐसी जरूरी बातें हैं जिन को ध्यान में रख कर हम खेतीकिसानी के काम करे तो वह हमारे लिए फायदेमंद साबित होते है.

आइए डालते हैं एक नजर जनवरी के दौरान किए जाने वाले खेती के कामों पर :

* जनवरी में गेहूं के खेतों पर खास ध्यान देने की जरूरत होती है. इस दौरान करीब 3 हफ्ते के अंतराल पर गेहूं के खेतों की सिंचाई करते रहें.

* गेहूं के खेतों में अगर खरपतवार या अन्य फालतू पौधे पनपते नजर आएं, तो उन्हें फौरन उखाड़ दें. चौड़े पत्ते वाले खरपतवार ज्यादा हों, तो 2-4 डी सोडियम साल्ट दवा का इस्तेमाल करें. यह दवा काफी कारगर होती है.

* अगर गेहूं की बालियों में अनावृत कंडुआ रोग का असर नजर आए, तो उन पौधों को देखते ही उखाड़ कर नष्ट कर दें.

इस के अलावा अगर खेत में काली गेरुई रोग का प्रकोप दिखाई दे, तो मैंकोजेब दवा की ढाई किलोग्राम मात्रा को करीब 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* यदि चने के खेतों में फलीछेदक कीड़े का का हमला दिखाई पड़े, तो फलियां बनना शुरू होते ही इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 2 लीटर मात्रा को करीब 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* यदि चने के खेतों में फलीछेदक कीड़े का हमला दिखाई पड़े, तो फलियां बनना शुरू होते ही इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 2 लीटर मात्रा को करीब 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. छिड़काव के असर से फलियां बेहतरीन होंगी.

* मटर व मसूर के खेतों में उगे खरपतवारों को खरपतवारनाशी दवा का इस्तेमाल कर के नष्ट करें.

* चना, मटर व मसूर के खेतों में इस दौरान निराईगुड़ाई जरूर करें. इस से पौधों को खुराक ढंग से मिल सकेगी और खरपतवार भी नहीं पनपेंगे.

* चने और मटर के खेतों में फूल आने से पहले सिंचाई करें, मगर फूल बनने के दौरान सिंचाई न करें. फूल बनने के बाद फिर सिंचाई करें.

* मटर व चने की फसलों में अगर रतुआ बीमारी का प्रकोप नजर आए, तो रोकथाम के लिए जिंक मैंगनीज कार्बानेट दवा की ढाई किलोग्राम मात्रा करीब 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* नए साल का यह पहला महीना ताजे गुड़ व गन्ने के लिए खास माना जाता है. इस दौरान गन्ने की पेड़ी फसल की कटाई का काम करें. कटाई का काम फसल की हालत व हालात के मुताबिक करें.

* कटाई के दौरान निकली गन्ने की पत्तियों को हरगिज नहीं जलाएं, क्योंकि फसल अवशेष जलाना न सिर्फ गुनाह है, बल्कि पर्यावरण के लिए भी घातक है. गन्ने की सूखी पत्तियों को जमा कर के कंपोस्ट खाद बनाने में इस्तेमाल करें.

* गन्ने की सूखी पत्तियों को मवेशियों के बेड के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है, इन पत्तियों को अगली पेड़ी फसल में पलवार के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं, इस से खेत में काफी समय तक नमी बनी रहती है. ऐसा करने से खरपतवार भी कम निकलते हैं.

* जौर की फसल को बोए हुए अगर 4-5 हफ्ते हो रहे हों तो खेत की सिंचाई करें. सिंचाई के बाद हलकी निराईगुड़ाई भी करें ताकि खरपतवार न पनप सकें.

* अगर राई व सरसों की फसलों में फूल व फलियां निकल रही हों, तो खेत की सिंचाई करें. सिंचाई के बाद निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालें.

* अगर सरसों में तनासड़न बीमारी का प्रकोप दिखाई दे, तो रोकथाम के लिए बिनोमाइल दवा की आधा किलोग्राम मात्रा या थाइरम की डेढ़ किलोग्राम मात्रा करीब 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* अगर सरसों या राई की फसल पर बालदार सूंडी़ का हमला नजर आए, तो बचाव के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 1.25 लीटर मात्रा करीब 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* तोरिया के खेतों का मुआयना करें. अगर करीब 75 फीसदी फलियां गोल्डन रंग की हो चुकी हों, तो फसल की कटाई करें. कटाई के बाद फसल को अच्छी तरह सुखा कर मड़ाई करें.

* नए साल के पहले महीने यानी जनवरी में सोंधे व स्वादिष्ठ लगने वाले नए आलू का इंतजार सभी को होता है. आलू की अगेती फसल जनवरी में खुदाई लायक हो जाती है, लिहाजा यह काम निबटाएं. खुदाई के लिए आलू खोदने वाली मशीन का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. मशीन से आलू की खुदाई तेजी से होती है और आलू नष्ट भी नहीं होते.

* अगर आलू की मध्यम व पछेती फसलों पर झुलसा बीमारी के लक्षण नजर आएं, तो रोकथाम के लिए मैंकोजेब दवा का इस्तेमाल करें.

* प्याज की रोपाई का काम भी जनवरी में ही निबटा देना चाहिए. प्याज की रोपाई करने से पहले खेत में नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश जरूर डालें और रोपाई के बाद हलकी सिंचाई करें.

* जनवरी में तरबूज, खरबूजा, खीरा, ककड़ी, करेला और भिंडी आदि की बोआई के लिए ढंग से जुताई कर के खेत तैयार करें. खेत में अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खद भरपूर मात्रा में डालें.

Farming Work

* जनवरी के ठंडे महीने में पाले का खतरा बहुत ज्यादा रहता है, लिहाजा पाले से बचाव के लिए छोटे फलों वाले पौधों व सब्जियों की नर्सरियों को टाट या घासफूस के छप्परों से अच्छी तरह ढक दें.

* पाला गिरने वाली रात में बाग या खेत की सिंचाई करना न भूलें. इस से पाले का असर घट जाता है.

* जनवरी महीने के दौरान अकसर आंवले में फलीविगलन रोग लग जाता है. ऐसी हालत में बचाव के लिए ब्लाइटाक्स 58 दवा का इस्तेमाल करें.

* माल्टा, किन्नू, संतरा व नीबू आदि के पेड़ों में गमोसिस बीमारी से बचाव के लिए पेड़ों के रोगग्रस्त भागों को काट कर जला दें, पेड़ों के काटे गए हिस्सों पर रिटोमिल व अलसी के तेल का पेस्ट तैयार कर के लगाएं. यह पेस्ट तैयार करने के लिए 1 लीटर अलसी के तेल में 20 ग्राम रिडोमिल दवा अच्छी तरह मिलाएं.

* इस महीने आड़ू, नीबू, संतरा, किन्नू और माल्टा आदि पेड़ों की छंटाई का काम भी करें. इन पेड़ों में कृषि वैज्ञानिक से सलाह ले कर जरूरी खादें भी डालें.

* इसी तरह अंगूर की बेलों की काटछांट का काम भी महीने के अंत तक जरूर निबटा लें. इसी दौरान नई बेलें भी लगाई जा सकती हैं. अगर नई बेले लगाएं, तो लगाने के फौरन बाद सिंचाई जरूर करें.

* आमतौर पर आम के पेड़ों की देखभाल की याद आम के मौसम में ज्यादा आती है, मगर यह अच्छी बात नहीं है. इन पेड़ों की नियमित देखभाल करना जरूरी है. अमूमन दिसंबर में आम के पेड़ों के तनों पर अल्काथीन शीट लगाई जाती है. जनवरी में इस शीट की कायदे से सफाई करें, क्योंकि बगैर सफाई के शीट का पूरा फायदा नहीं मिलता.

* आम के पेड़ों में भुनगा व मित्र कीड़ों के बचाव के लिए मोनोक्रोटोफास 50 ईसी दवा की डेढ़ मिलीलीटर मात्रा 1 लीटर पानी में घोल कर पेड़ों में बौर आने के तुरंत बाद छिड़कें. अगर जरूरी लगे तो 2-3 हफ्ते बाद दोबारा छिड़काव करें.

* अपने महंगे मवेशियों यानी गायभैंसों वगैरह को जनवरी की कड़ाके की ठंड से बचाने के पूरे इंतजाम करें, क्योंकि थोड़ी सी लापरवाही से लाखें रुपए के मवेशी ठंड के शिकार हो सकते हैं.

* पशुओं को दिन के दौरान धूप में बांधें और रात के वक्त आग जला कर गरमी का बंदोबस्त करें. गौशाला के दरवाजे बंद रखें या टाट के मोटे परदे लगाएं. रोशनी का भी पूरा इंतजाम करें.

* जनवरी की सर्दी मुरगेमुरगियों के लिए भी खतरनाक साबित होती है, लिहाजा उन के बचाव का भी पूरा खयाल रखें. जब मुरगियां स्वस्थ होंगी तभी महंगे अंडों का उत्पादन होगा.

* जब घना कोहरा पड़ रहा हो, उस दौरान गौशाला की चौकसी बढ़ा दें, क्योंकि कोहरे का फायदा उठा कर चोरउचक्के अपना कारनामा दिखा देते हैं.

* अपने इलाके के पशुचिकित्सकों के मोबाइल नंबर डायरी में लिखने के साथसाथ अपने मोबाइल में भी दर्ज कर के रखें ताकि आड़े वक्त पर यानी पशुओं के बीमार होने पर उन से फौरन बात की जा सके.

बस्तर से निकला ‘ब्लैक गोल्ड’ : छत्तीसगढ़ को मिला खास तोहफा

देश के इतिहास में अब एक और नया अध्याय जुड़ गया है. नक्सली हिंसा के लिए कुख्यात बस्तर अब अपनी एक नई पहचान बना रहा है. छत्तीसगढ़ का यह इलाका अब “हर्बल और स्पाइस बास्केट” के रूप में दुनिया का ध्यान अपनी ओर खीँच रहा है. इस बदलाव के नायक हैं किसान वैज्ञानिक डा. राजाराम त्रिपाठी, जिन्होंने काली मिर्च की एक अद्भुत किस्म विकसित कर के पूरे देश को गौरवांवित किया है.

कोंडागांव के रहने वाले डा. राजाराम त्रिपाठी ने सालों की कड़ी मेहनत और शोध से काली मिर्च की ‘मां दंतेश्वरी काली मिर्च-16 (MDBP-16) उन्नत किस्म विकसित की है, जो कम बारिश वाले क्षेत्रों में भी औसत से 4 गुना अधिक उत्पादन देती है. इस प्रजाति को हाल ही में भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान (आईआईएसआर), कोझिकोड, केरल द्वारा मान्यता दी गई है.

इसे भारत सरकार के प्लांट वैरायटी रजिस्ट्रार द्वारा नई दिल्ली में भी पंजीकृत किया गया है. यह काली मिर्च की एकलौती उन्नत किस्म है, जिसे दक्षिणी राज्यों से अलग हट कर छत्तीसगढ़ के बस्तर में सफलतापूर्वक विकसित किया. साथ ही, इसे भारत सरकार ने नई किस्म के रूप में पंजीकरण कर मान्यता भी दे दी है. यह बस्तर और छत्तीसगढ़ के लिए एक बहुत बड़ी गौरवशाली उपलब्धि है.

सपने को सच कर दिया : 100 साल तक उत्पादन देने वाली काली मिर्च

डा. राजाराम त्रिपाठी की इस काली मिर्च को विकसित करने में 30 साल का समय लगा. यह लतावर्गीय पौधा है, जो सागौन, बरगद, पीपल, आम, महुआ और इमली जैसे पेड़ों पर चढ़ा कर उगाई जा सकती है. इन पेड़ों पर उगाई गई काली मिर्च न केवल 4 गुना अधिक उत्पादन देती है, बल्कि क्वालिटी में भी देश की दूसरी प्रजातियों से कहीं बेहतर है. इसलिए बाजार में भी इसे हाथोंहाथ लिया जा रहा है और दूसरी प्रजाति की काली मिर्च की तुलना में इस के दाम भी ज्यादा मिलते हैं.

उन्होंने आगे बताया कि इस किस्म ने सब से बेहतरीन परिणाम आस्ट्रेलियन टीक (सागौन) पर चढ़ कर दिए हैं. खास बात यह है कि यह प्रजाति कम सिंचाई और सूखे क्षेत्रों में भी बिना विशेष देखभाल के पनप सकती है.

मसालों की दुनिया में नई पहचान
कभी हिंसा और संघर्ष से प्रभावित बस्तर अब वैश्विक बाजार में मसालों का केंद्र बनने की ओर अग्रसर है. डा. राजाराम त्रिपाठी का यह भी कहना है कि आज उन की काली मिर्च की किस्म देश के 16 राज्यों और बस्तर के 20 गांवों में उगाई जा रही है. लेकिन सरकारी मान्यता मिलने के बाद इस खेती में और तेजी आने की उम्मीद है.

उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि भारत अपने मसालों के लिए सदियों तक ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था. अगर सरकार और लोग मिल कर मसालों और जड़ीबूटियों पर ध्यान दें, तो भारत फिर से वह गौरव हासिल कर सकता है.

प्रधानमंत्री से मिलेंगे डा. राजाराम त्रिपाठी

अपनी सफलता से उत्साहित डा. राजाराम त्रिपाठी जल्दी ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल कर इस विषय पर मार्गदर्शन चाहते हैं. उन का सपना है कि छत्तीसगढ़ और बस्तर की इस नई पहचान को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती मिले.

नए साल की शुरुआत में बस्तर से आई यह खबर भारत के हर किसान और कृषि वैज्ञानिक के लिए प्रेरणा है. यह सिर्फ एक काली मिर्च की कहानी नहीं, बल्कि संघर्ष, नवाचार और आत्मनिर्भरता की मिसाल है. 2025 का यह नया अध्याय भारतीय कृषि क्षेत्र को एक नई दिशा देने का वादा करता है.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming) और सरकार की अनदेखी

जब कभी दाल, तेल, सब्जी, फल, मांस व अंडे आदि की कमी महसूस होती है, तो भारीभरकम आयात कर के उन की कमी पूरी की जाती है, जबकि हमारे किसान इन चीजों की कमी को पूरा कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें फसल की उत्पादन लागत से थोड़ा फायदा मिलने की उम्मीद हो.

देश में तेजी से नए शहरों का विकास हो रहा है, साथ ही ग्रामीण जनता भी शहरों की तरफ भाग रही है. देश की आजादी के समय ग्रामीण आबादी तकरीबन 85 फीसदी थी, जो कि घट कर आज 65 फीसदी तक रह गई है.

अब भोजन की थाली में पोषण का खयाल रखा जाने लगा है. आज भोजन पेट भरने के साथ ही शारीरिक तंदुरुस्ती का भी महत्त्वपूर्ण साधन है. तंदुरुस्त शरीर पाने के लिए दूध, फल, सब्जी, तेल, मांस व अंडे की मांग में काफी इजाफा हुआ है. आएदिन इन चीजों की पूर्ति में कमी के कारण इन के दामों में तेजी देखने को मिलती है. इन की कीमत में आई तेजी को रोकने के लिए सरकार आयात का सहारा लेती है.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming)

यदि सरकार इन चीजों को बेचने की बेहतर सुविधाएं मुहैया कराए, तो देश के किसान इन का भरपूर उत्पादन करेंगे.

अगर पिछले 20 साल के आंकड़े देखें तो मक्का, फल, दूध, मांस, अंडा, मछली व तेल आदि की मांग में चौगुनी वृद्धि देखने को मिली है, जबकि गेहूं व दाल आदि की मांग में मामूली बढ़ोतरी देखी गई है.

यदि कुछ चुनिंदा फसलों को देखें तो उन में से मक्का व सोयाबीन की मांग में साल दर साल तकरीबन 12 से 15 फीसदी का इजाफा हो रहा है, क्योंकि पोल्ट्री उद्योग के साथ ही कई सौफ्ट ड्रिंकों में भी इन दोनों फसलों का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. इसी तरह पोल्ट्री उद्योग की मांग में भी 12 से 15 फीसदी का साल दर साल जबरदस्त इजाफा देखने को मिल रहा है. आज देश में पोल्ट्री उद्योग और तकरीबन 1 करोड़ 60 लाख लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है.

जब बेमौसम बारिश या सूखे के कारण फसलों के उत्पादन पर असर पड़ता है, तो उन फसलों के दामों में अप्रत्याशित तेजी देखने को मिलती है, क्योंकि आज भी देश में भंडारण के लिए अच्छे गोदामों का अभाव है.

सरकारी स्तर पर यदि ढांचागत क्षेत्र में कुछ बदलाव किए जाएं, तो सफलता मिल सकती है.

गोदाम और कोल्ड चेन का निर्माण : देश में आज भी गोदामों की बहुत कमी है. गेहूं, चावल और चीनी के सही भंडारण के लिए ही गोदामों की कमी है, तो इस स्थिति में मक्का, बाजरा और सोयाबीन के लिए गोदामों की उपलब्धता दूर की बात है.

अगर सरकार सिर्फ गोदामों की व्यवस्था ही सही कर दे तो किसान इस बढ़ती मांग को पूरा कर सकते हैं, जिस में उन को भी भारी लाभ होगा.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming)जैसा कि बताया जा चुका है कि देश में गोदामों की काफी कमी है. कमोबेश वही स्थिति कोल्ड स्टोरेज की भी है. तकरीबन 40 फीसदी सब्जियां कोल्ड स्टोरेज के अभाव में खुले में ही सड़ जाती हैं.

प्रदेश सहकारी समिति के गोदामों का इस्तेमाल सिर्फ उर्वरकों के स्टोरेज के लिए ही किया जाता है, जबकि आधे से ज्यादा गोदामों की हालत जर्जर और दयनीय है, जबकि केंद्रीय भंडारण निगम व भारतीय खाद्य निगम सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गेहूं, चावल और चीनी का भंडारण करते हैं. किसानों के माल के भंडारण की जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश में पूरी तरह राज्य भंडारण निगम के पास है, जिस की कूवत जरूरत के मुकाबले सिर्फ एकचौथाई ही है. सरकार को किसानों व उपभोक्ताओं की भलाई के लिए प्राइवेट सेक्टर की मदद करनी चाहिए ताकि इस क्षेत्र में अधिक से अधिक लोग आकर्षित हो सकें.

अब सारा दारोमदार प्राइवेट सेक्टर के हाथ में है कि वह अधिक से अधिक भंडारण में निवेश करे, मगर सवाल यह उठता है कि वह अपना निवेश क्यों करे, जब तक उसे अपना निवेश सुरक्षित और कमाऊ न लगता हो.

इसलिए जरूरत है कि सरकार कुछ खास उपाय करे जैसे कि निवेश की गई रकम पर कम से कम 5 साल का ब्याज सरकार सब्सिडी के तौर पर दे, साथ ही साथ पहले 3 साल तक गोदाम में 50 फीसदी सरकारी माल रखने की गारंटी दे, जिस से सिर्फ 2 साल के अंदर ही कम से कम 10 लाख टन के गोदाम बन कर तैयार हो जाएं. यदि सरकार गोदामों का इंतजाम पक्का कर दे तो किसानों की आर्थिक तरक्की में बहुत बदलाव परिवर्तन देखने को मिलेगा.

केला उत्पादन से आमदनी बढ़ाएं

हमारे देश में केला एक लोकप्रिय फल है. यह लाभदायक होता है और आसानी से ज्यादा पैदावार होने से किसानों में काफी लोकप्रिय है. देश में केले की सभी किस्मों में गुच्छे के निचले हिस्से के फलों का कमजोर होना सब से बड़ी समस्या है, पर इस का अभी तक कोई इलाज नहीं है. कार्बनिक, जैविक, रासायनिक खादों और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के छिड़काव के बावजूद इस समस्या से नजात नहीं मिल पाई है. दक्षिणपूर्वी देशों में गुच्छे के निचले आधे भाग को गुच्छा बनने के तुरंत बाद काट देते हैं, लेकिन भारत की जलवायु की वजह से यह संभव नहीं है.

भारत में (2013-14 के अनुसार) केले की खेती 802.6 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है. क्षेत्रफल के हिसाब से आम व नीबू के बाद केले का तीसरा स्थान है, जबकि 29724.6 हजार मीट्रिक टन (2013-14 के अनुसार) उत्पादन के साथ यह पहले स्थान पर है.

मिट्टी : केला सभी तरह की मिट्टी में उग जाता है, लेकिन व्यावसायिक रूप से खेती करने के लिए अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो, फायदेमंद रहती है. ज्यादा रेतीली मिट्टी जो देर तक पोषक तत्त्वों को रोकने में असमर्थ रहती है और ज्यादा चिकनी मिट्टी जिस में पानी की कमी से दरारें पड़ जाती हैं, केले की खेती के लिए अच्छी नहीं होती हैं.

जलवायु : केला उष्ण जलवायु का पौधा है. गरम और नमी वाली जलवायु में इस की अच्छी पैदावार होती है. केले की खेती के लिए 20 से 35 डिगरी सेल्सियस तापमान अच्छा रहता है. 500 से 2000 मिलीमीटर वर्षा वाले इलाकों में इस की खेती की जा सकती है. केले को पाला और शुष्क तेज हवाओं से नुकसान होता है.

किस्में

ड्वार्फ कैवेंडिस (एएए) : यह सब से ज्यादा उगाई जाने वाली एक व्यावसायिक प्रजाति है. पौधे लगाने के 250-260 दिनों बाद इस में फूल आने शुरू हो जाते हैं. फूल आने के 110-115 दिनों बाद घार (फलों का गुच्छा) काटने लायक हो जाती है. इस तरह पौधे लगाने के 12-13 महीने बाद घार तैयार हो जाती है. फल 15 से 20 सेंटीमीटर लंबे और 3.0-3.5 सेंटीमीटर मोटे पीले व हरे रंग के होते हैं. घार का वजन 20 से 27 किलोग्राम तक होता है, जिस में औसतन 130 फल होते हैं.

यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है, लेकिन शीर्ष गुच्छा रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रोवस्टा (एएए) : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. फल 12-13 महीने में पक कर तैयार हो जाते हैं. फल आकार में 20 से 25 सेंटीमीटर लंबे और 3-4 सेंटीमीटर मोटे होते हैं. घार का भार औसतन 25 से 30 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और सिगाटोका रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रसथली (एएबी) : इस किस्म के फल आकार में बड़े तथा पकने पर सुनहरेपीले रंग के होते हैं. घार का भार 15 से 18 किलोग्राम तक होता है. फसल 13 से 15 महीने में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म में फल फटने की समस्या आती है.

पूवन (एएबी) : यह दक्षिण और उत्तरपूर्वी राज्यों में उगाई जाने वाली एक लोकप्रिय प्रजाति है. इस के पौधों की लंबाई ज्यादा होने से उन्हें सहारे की जरूरत नहीं होती है. पौधा लगाने के 12 से 14 महीने बाद घार काटने लायक हो जाती है. घार में मध्यम लंबाई वाले फल ऊपर की तरफ लगते हैं.

फल पकने के बाद पीले और स्वाद में हलका सा खट्टापन लिए मीठे होते हैं. फलों की भंडारण कूवत अच्छी है, इसलिए फल एक जगह से दूसरी जगह आसानी से भेजे जा सकते हैं. घार का औसत वजन 20 से 24 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और स्ट्रीक विषाणु रोग से प्रभावित होती है.

नेंद्रेन (एएबी) : इस किस्म का इस्तेमाल मुख्य रूप से चिप्स और पाउडर बनाने के लिए किया जाता है. इसे सब्जी केला भी कहा जाता है. इस के फल लंबे, मोटी छाल वाले थोड़े मुड़े हुए होते हैं. फल पकने पर पीले हो जाते हैं. घार का भार 8 से 12 किलोग्राम तक होता है. हर घार में 30-35 फल होते हैं. इस की खेती केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में की जाती है.

मांथन (एएबी) : इस किस्म के पौधे ऊंचे और मजबूत होते हैं. घार का भार 18 से 20 किलोग्राम होता है. प्रति घार औसतन 60-70 फल होते हैं. यह किस्म पनामा उकटा रोग से प्रभावित होती है, लेकिन पत्ती धब्बा और सूत्रकृमि रोगों की प्रतिरोधी होती है.

गें्रड नाइन (एएए) : इस किस्म के पौधों की ऊंचाई मध्यम और उत्पादकता ज्यादा होती है. फसल की अवधि 11-12 महीने की होती है. घार का भार 25 से 30 किलोग्राम होता है. सारे फल समान लंबाई के होते हैं.

कपूराबलि (एबीबी) : इस किस्म के पौधों की बढ़ोतरी काफी अच्छी होती है. घार का भार 25 से 35 किलोग्राम होता है. प्रति घार करीब 200 फल लगते हैं. फलों में मिठास और पेक्टिन की मात्रा दूसरी किस्मों के मुकाबले ज्यादा पाई जाती है. फलों की भंडारण क्षमता काफी अच्छी होती है. यह किस्म पनामा मिल्ट रोग और तना छेदक कीट के प्रति संवेदनशील और पत्ती धब्बा रोग की प्रतिरोधी होती है. यह तमिलनाडु और केरल की एक महत्त्वपूर्ण किस्म है.

संकर किस्में

एच 1 : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. घार का भार 14 से 16 किलोग्राम होता है. फल लंबे और पकने पर सुनहरेपीले होते हैं. इस किस्म से 3 साल के फसलचक्र में 4 बार फसलें ली जा सकती हैं.

एच 2 : इस के पौधे मध्यम ऊंचाई (2.13 मीटर से 2.44 मीटर) के होते हैं. फल छोटे, गसे हुए और गहरे हरे रंग के थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठी खुशबू वाले होते हैं.

को 1 : इस के फल में खास अम्लीय महक होती है. यह किस्म ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए ज्यादा कारगर होती है.

एफएचआर 1 (गोल्ड फिंगर) : इस किस्म की घार का वजन 18 से 20 किलोग्राम होता है. यह किस्म सिगाटोका और फ्यूजेरियम बिल्ट के प्रति अवरोधी होती है.

केले की खेती मुख्य रूप से अंत: भूस्तारी से की जाती है. केले की जड़ों से 2 तरह के सकर निकलते हैं यानी तलवार सकर और जलीय सकर. व्यावसायिक नजरिए से तलवार सकर खेती के लिए सब से सही हैं. इन की पत्तियां तलवार की तरह पतली और ऊपर की तरफ उठी रहती हैं. 0.5 से 1 मीटर ऊंचे और 3-4 महीने पुराने तलवार सकर रोपाई के लिए सही होते हैं. सकर ऐसे पौधों से लेने चाहिए, जो अच्छे और पूरी तरह विकसित हों और किसी रोग से पीडि़त न हों.

वर्तमान दौर में केले की खेती शूट टोप कल्चर, इन विट्रो, ऊतक प्रवर्धन विधि से भी की जाती है. इस विधि से तैयार पौधे विषाणु रोग से बचे रहते हैं.

banana production

रोपाई का समय

रोपाई का सही समय जलवायु, प्रजाति के चयन और बाजार की मांग आदि पर निर्भर करता है. तमिलनाडु में ड्वार्फ कैवेंडिश और नेंद्रेन किस्मों को फरवरी से अप्रैल, जबकि पूवन और कपूरावली किस्मों को नवंबरदिसंबर में रोपा जाता है. महाराष्ट्र में साल में 2 बार यानी जूनजुलाई और सितंबरअक्तूबर में रोपाई की जाती है.

रोपाई की विधि : खेत को 2-3 बार कल्टीवेटर चला कर समतल कर लें. रोपाई के लिए 60×60×60 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोदें. हर गड्ढे में मिट्टी, रेत और गोबर की खाद 1:1:1 के अनुपात में भरें. सकर को गड्ढे के बीच में रोप कर उस के चारों तरफ मिट्टी को अच्छी तरह से दबाएं. पौधों की दूरी, किस्म, जमीन की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है. सामान्य रूप से केले के पौधों की दूरी किस्मों के अनुसार सारणी में दिखाई गई है.

घनी रोपाई : घनी रोपाई विधि आर्थिक नजरीए से खास है. इस विधि में खरपतवारों की बढ़ोतरी कम होती है और तेज हवाओं से नुकसान कम होता है.

बौनी या मध्यम ऊंचाई वाली किस्मों जैसे कैवेंडिश, बसराई और रोबस्टा आदि घनी रोपाई के लिए सही होती हैं. रोबस्टा और ग्रेंड नाइन को 1.2×1.2 मीटर की दूरी पर रोप कर क्रमश: 68.98 और 94.07 टन प्रति हेक्टेयर की उपज हासिल होती है.

खाद व उर्वरक : केला अधिक पोषक तत्त्व लेने वाली फसल है. खाद और उर्वरक की मात्रा मिट्टी की उर्वराशक्ति, किस्म, उर्वरक देने की विधि और जलवायु पर टिकी रहती है. सामान्य वृद्धि और विकास के लिए 100 से 250 ग्राम नाइट्रोजन, 20 से 50 ग्राम स्फुर और 200-300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा जरूरी है. नाइट्रोजन और पोटाश को 4-5 भागों में बांट कर देना चाहिए और स्फुर की पूरी मात्रा को रोपण के समय ही देनी चाहिए.

सिंचाई : केले की रोपाई से ले कर तोड़ाई के समय तक 1800 से 2200 मिलीमीटर पानी की जरूरत होती है. केले में खासकर कूंड़, थाला और टपक सिंचाई विधि से सिंचाई की जाती है. केले को गरमियों में 3-4 दिनों और सर्दियों में 8-10 दिनों के भीतर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. ड्रिप विधि से सिंचाई किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है. इस विधि से सिंचाई करने पर 40-50 फीसदी पानी की बचत के साथ ही उत्पादन भी ज्यादा हासिल होता है.

मल्च का इस्तेमाल : मल्च के इस्तेमाल से जमीन में नमी बनी रहती है. साथ ही खरपतवारों की बढ़ोतरी भी रुकती है. गुजरात कृषि विश्वविद्यालय, नवसारी में ड्रिप सिंचाई विधि से गन्ने की खोई या सूखी पत्तियों द्वारा 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मल्चिंग करने से केले के उत्पादन में 49 फीसदी तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है और इस के साथ ही 30 फीसदी पानी की बचत भी होती है. इस के अलावा पौलीथीन शीट द्वारा मल्चिंग से भी अच्छे नतीजे हासिल हुए हैं.

देखभाल

मिट्टी चढ़ाना : पौधों पर मिट्टी चढ़ाना जरूरी होता है, क्योंकि इस की जड़ें उथली होती हैं. कभीकभी कंद जमीन से बाहर आ जाते हैं, जिस की वजह से उन की बढ़ोतरी रुक जाती हैं.

बेकार सकर हटाना : केले के पौधों में पुष्प गुच्छ निकलने से पहले तक बेकार सकर्स को हटाते रहना चाहिए. जब 3/4 पौधों में फूल आ जाएं तब 1 सकर को छोड़ कर अन्य को काटते रहें.

सहारा देना : केले के फलों का गुच्छा भारी होने से पौधे नीचे झुक जाते हैं. पौधों को गिरने से बचाने के लिए बांस की बल्ली या 2 बांस आपस में बांध कर कैंची की तरह बना कर फलों के गुच्छों को सहारा दें.

गुच्छों को ढकना : गुच्छों को सूरज की सीधी रोशनी से बचाने और फलों का आकर्षक रंग हासिल करने के लिए गुच्छों को छेद वाले पौलिथीन बैगों या सूखी पत्तियों से ढकना चाहिए.

कचरे के पहाड़ों पर खेती : कमाई की तकनीक

वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.

हमारे देश में कचरे की लैंडफिलिंग कचरा निष्पादन का प्रमुख तरीका है, जो बिलकुल अवैज्ञानिक है. देश में हजारों लैंडफिल जगहें हैं, जहां हजारों टन ठोस कचरा जमा है, जिस में दिल्ली की गाजीपुर, ओखला, भलस्वा, मुंबई की मुलुंड, देवनार, नागपुर की भांडेवाड़ी, अहमदाबाद की पिराना और बैंगलुरु की मंदूर लैंडफिल साइट्स ऐसी डंपिंग साइट्स हैं, जहां कचरे के बड़ेबड़े पहाड़ बन चुके हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, देशभर में मौजूद कचरे के पहाड़ों के नीचे तकरीबन 15,000 एकड़ जमीन दबी हुई है, जिस पर तकरीबन 16 करोड़ टन कचरा जमा है. देश में बढ़ते कचरे के पहाड़ पानी, हवा एवं मिट्टी को दूषित कर पर्यावरण एवं सेहत के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं.

कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के लिए सरकार ने ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत 10 साल में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए, लेकिन आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार महज 15 फीसदी ही कचरे के पहाड़ों को साफ एवं 35 फीसदी कचरे को निष्पादित किया जा सका है.

अगर इस गति और इतने खर्च से कचरे के पहाड़ों के निष्पादन का काम होगा, तो शायद ये कचरे के पहाड़ कभी भी खत्म नहीं हो पाएंगे. अगर कचरे के पहाड़ खत्म हो भी जाते हैं, तो उन को खत्म करने में जो खर्चा आएगा, वह शायद कचरे के पहाड़ों से होने वाले नुकसान से भी ज्यादा होगा, इसलिए मौजूदा कचरे के पहाड़ों को साफ करने की व्यवस्था के साथसाथ कचरे के पहाड़ों पर खेती करने की कार्ययोजना बनाई जाए, क्योंकि देश में मौजूद ज्यादातर कचरे के पहाड़ों में 50 फीसदी से अधिक जैव कचरा है, इसलिए कचरे के पहाड़ों पर खेती संभव हो सकती है.

कचरा खेती

कचरा खेती तकनीक पर्यावरण हितैषी, आर्थिक रूप से सस्ती और सामाजिक रूप से स्वीकार्य तकनीकी है. इस तकनीक में कचरे के पहाड़ों पर खेती करते हैं, जिस में सजावटी पौधों, फूलों, औषधीय पौधों और हरी खाद की खेती के साथसाथ बड़े पेड़पौधों और ?ाडि़यों को भी उगाते हैं.

कचरा खेती में अनाज, दलहन एवं तिलहन की फसलें, फल एवं सब्जियों की खेती नहीं करते हैं, क्योंकि कचरे के पहाड़ों में जहरीला कचरा भी मौजूद होता है जैसे भारी धातुएं और जैव रासायनिक प्रक्रिया से बहुत से जहरीले कैमिकल पैदा होते हैं, जो उगाए गए पौधों में चिपक जाते हैं.

यदि इन पौधों के किसी भी भाग का इस्तेमाल पशुओं या इनसानों द्वारा किया जाता है, तो ये जहरीले तत्त्व पौधों के माध्यम से इनसानों एवं पशुओं के शरीर में जा कर गंभीर सेहत संबंधी समस्याएं पैदा कर सकते हैं.

कचरे के पहाड़ों पर खेती करने के लिए सब से पहले कचरे के पहाड़ों को सीढ़ीनुमा खेत में बदलते हैं, जिस में सीढ़ी का ढाल अंदर की ओर रखते हैं. इस से कचरे के पहाड़ से निकलने वाला जहरीला तरल पदार्थ बह कर पहाड़ के बाहर न जाए.

इस के बाद सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में न सड़ने वाला कचरा जैसे पौलीथिन, प्लास्टिक और धातु के कचरे को तकरीबन 30 सैंटीमीटर गहराई की परत से छांट कर निकाल देते हैं और बचे कचरे को महीन कर लेते हैं. इस के बाद खेत की उपजाऊ मिट्टी में जरूरत के मुताबिक गोबर या केंचुए या कंपोस्ट खाद और उर्वरकों को मिला कर सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में अच्छी तरह मिला देते हैं.

यदि नमी न हो, तो पानी का छिड़काव कर कचरे को नम कर देते हैं. इस के बाद सीढ़ीनुमा खेत में नर्सरी में तैयार पौधों का रोपण करते हैं.

ध्यान रहे कि कचरा खेती में बीजों को सीधे खेत में नहीं बोते, क्योंकि कचरे में बीजों का जमाव ठीक से नहीं हो पाता है, इसलिए पौधों को नर्सरी में तैयार कर रोपण करते हैं. लेकिन जिन पौधों या फसलों की नर्सरी तैयार करना कठिन होता है, ऐसी फसलों के बीजों की बोआई करते हैं, जैसे हरी खाद की फसलें ढैंचा, सनई आदि.

कचरे के सीढ़ीनुमा खेतों में पेड़पौधों को लगाने के लिए चिह्नित जगहों पर एक मीटर लंबाई, चौड़ाई और गहराई के गड्ढे खोद कर उन का कचरा बाहर निकाल देते हैं और फिर उन में मिट्टी और सड़ी गोबर की खाद के तैयार मिश्रण को भर कर पौधों को रोप देते हैं.

पौधों का रोपण बारिश के मौसम में करते हैं, जिस से पौधों को पानी देने की जरूरत न पड़े और पौधों की बढ़वार भी अच्छी हो सके. पौधों की अच्छी बढ़वार एवं विकास के लिए जरूरत के मुताबिक ड्रोन, स्प्रिंकलर या ड्रिप विधि से सिंचाई करते हैं. साथ ही, कीट, रोग एवं खरपतवार प्रबंधन का भी काम करते रहते हैं.

Farming on mountainsकचरा खेती के लाभ

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से कचरे के दुर्गंध वाले पहाड़ों को बिना खत्म किए हरित क्षेत्र में बदला जा सकता है.

* गरमियों के दिनों में कचरे के पहाड़ों में आग लगने की समस्या का भी समाधान हो जाएगा.

* कचरे के पहाड़ों से निकलने वाली दुर्गंध फूलों की सुगंध में परिवर्तित हो कर आसपास के वातावरण को शुद्ध करेगी.

* कचरे के पहाड़ों से उड़ने वाली धूल पर भी नियंत्रण होगा.

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से आसपास का वातावरण स्वच्छ रहेगा, तो पहाड़ों के आसपास की बस्तियों के लोगों में बीमारियों का खतरा भी कम होगा.

* कचरा खेती से कचरे के पहाड़ों के आसपास के लोगों को रोजगार और आय सृजन के अवसर भी उपलब्ध होंगे.

* लंबे समय तक कचरे के पहाड़ों पर खेती करते रहने पर कचरे के पहाड़ धीरेधीरे अपघटित हो कर समतल खेत में बदल जाएंगे, क्योंकि कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से पेड़पौधों की जड़ों के माध्यम से वर्षा एवं सिंचाई का पानी पहाड़ के अंदर तक कचरे को गीला रखेगा, जिस से कचरे का अपघटन तेज होगा और पेड़पौधों की जड़ों में उपस्थित असंख्य सूक्ष्म जीव कचरे को सड़ाने में मददगार होंगे.

* पेड़पौधों की जड़ों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के अम्ल कचरे को गलाने एवं सड़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, इसलिए कचरे के पहाड़ धीरेधीरे विघटित एवं अपघटित हो कर जमींदोज हो जाएंगे.

मौजूद कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के काम के साथसाथ स्थानीय स्तर पर ही कचरे के निष्पादन की कार्ययोजना पर काम  किया जाए, जिस से भविष्य में नए कचरे के पहाड़ वजूद में न आ सकें.

मसाला तथा औषधिय फसल मैथी (Fenugreek)

दुनिया में मसाला उत्पादन और मसाला निर्यात के हिसाब से भारत का प्रथम स्थान है, इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. मसाले हमारे खाद्य पदार्थों को स्वादिष्ठता तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही हम इस से विदेशी पैसा भी कमाते हैं.

मसाले की एक प्रमुख फसल मेथी है. इस की हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी और भरपूर मात्रा में खनिज तत्त्व पाए जाते हैं. मेथी के बीज मसाले और दवा के रूप में काफी उपयोगी है.

भारत में मेथी की खेती व्यावसायिक स्तर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब राज्यों में की जाती है. भारत मेथी का मुख्य उत्पादक और निर्यातक देश है. इस का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है.

भूमि और जलवायु

मेथी को अच्छे जल निकास एवं पर्याप्त जीवांश वाली सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परंतु दोमट मिट्टी इस के लिए उत्तम रहती है. यह ठंडे मौसम की फसल है. पाले व लवणीयता को भी यह कुछ स्तर तक सहन कर सकती है.

मेथी की प्रारंभिक वृद्धि के लिए मध्यम आर्द्र जलवायु और कम तापमान उपयुक्त है, परंतु पकने के समय गरम व शुष्क मौसम उपज के लिए लाभप्रद होता है. पुष्प व फल बनते समय अगर आकाश बादलों से घिरा हो, तो फसल पर कीड़ों व बीमारियों के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है.

उन्नत किस्में

आरएमटी 305 : यह एक बहुफलीय किस्म है. इस का औसत बीज भार और कटाई सूचकांक अधिक है. फलियां लंबी और अधिक दानों वाली होती हैं, जिस के दाने सुडौल, चमकीले पीले होते हैं. इस किस्म में छाछ्या रोग के प्रति अधिक प्रतिरोधकता है. इस किस्म के पकने की अवधि 120-130 दिन है. औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएमटी 1 : समूचे राजस्थान के लिए यह उपयुक्त किस्म है. इस के पौधे अर्ध सीधे एवं मुख्य तना नीचे की ओर गुलाबीपन लिए होता है. बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप कम होता है. पकने की अवधि 140-150 दिन है. इस की औसत उपज 14-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

हरी पत्तियों के लिए

पूसा कसूरी : यह छोटे दाने वाली मेथी होती है. इस की खेती हरी पत्तियों के लिए की जाती है. कुल 5-7 हरी पत्तियों की कटाई की जा सकती है. इस की औसत उपज 5-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी : भारी मिट्टी में खेत की 3-4 और हलकी मिट्टी में 2-3 जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए और खरपतवार को निकाल देना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक : प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय डालें. इस के अलावा 40 किलोग्राम नाइट्रोजन एवं 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में ऊपर से दें.

बीज की बोआई एवं मात्रा : इस की बोआई अक्तूबर माह के अंतिम सप्ताह से नवंबर माह के पहले सप्ताह तक की जाती है. बोआई में देरी करने से फसल के पकने की अवस्था के समय तापमान अधिक हो जाता है. इस वजह से फसल शीघ्र पक जाती है और उपज में कमी आती है. पछेती फसल में कीट व बीमारियों का प्रकोप अधिक बढ़ जाता है.

इस के लिए 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. बीजों को 30 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में 5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोएं. बीजों को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर बोने से फसल अच्छी मिलती है.

सिंचाई एवं निराईगुड़ाई : मेथी की खेती रबी में सिंचित फसल के रूप में की जाती है. सिंचाइयों की संख्या मिट्टी की संरचना और वर्षा पर निर्भर करती है. वैसे, रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज के लिए तकरीबन 8 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है. परंतु अच्छे जल धारण क्षमता वाली भूमि में 4-5 सिंचाइयां पर्याप्त हैं.

फली व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं रहे. बीज बोने के बाद हलकी सिंचाई करें. उस के बाद आवश्यकतानुसार 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें.

बोआई के 30 दिन बाद निराईगुड़ाई कर पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए व कतारों में बोई फसल में अनावश्यक पौधों को हटा कर पौधों के बीच की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें.

अगर जरूरी हो, तो 50 दिन बाद दूसरी निराईगुड़ाई करें. पौधों की वृद्धि की प्राथमिक अवस्था में निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में पूरी तरह से हवा का संचार होता है और खरपतवार रोकने में मदद मिलती है.

खरपतवार नियंत्रण

मेथी को उगने के 25 व 50 दिन बाद 2 निराईगुड़ाई कर पूरी तरह से खरपतवार से मुक्त रखा जा सकता है. इस के अलावा मेथी की बोआई के पहले 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन को 600 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें. उस के बाद मेथी की बोआई करें या फिर पेंडीमिथेलीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर  को 600 लिटर पानी में घोल कर मेथी की बोआई के बाद, मगर उगने से पहले छिड़काव कर के खरपतवारों से मुक्त किया जा सकता है.

यह ध्यान रखें कि फ्लूक्लोरेलिन के छिड़काव के बाद खेत को खुला न छोड़ें, अन्यथा इस का वाष्पीकरण हो जाता है और पेंडीमिथेलीन के छिड़काव के समय खेत में नमी होना आवश्यक है.

मैथी (Fenugreek)

प्रमुख कीट एवं उन का प्रबंधन

फसल पर नाशीकीटों का प्रकोप कम होता है, परंतु कभीकभी माहू, तेला, पत्ती भक्षक, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, माइट्स, फली छेदक एवं दीमक आदि का आक्रमण पाया गया है. सब से ज्यादा नुकसान माहू कीट से होता है.

माहू का प्रकोप मौसम में अधिक नमी व आकाश में बादल के रहने पर अधिक होता है. यह कीट पौधों के कोमल भागों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है. दाने कम व निम्न गुणवत्ता के बनते हैं.

इस की रोकथाम के लिए जैविक विधियों का अधिकाधिक प्रयोग करें. आक्रमण बढ़ता दिखने पर नीम आधारित रसायनों निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल आधारित 0.03 फीसदी का 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. कीटनाशी अवशेषों से उपज को बचाएं.

प्रमुख रोग और उन का प्रबंधन

छाछ्या : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है. रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है और पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस से काफी नुकसान होता है.

प्रबंधन : गंधक चूर्ण 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भुरकाव करें या केराथेन एलसी 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 10 से 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार माधवी बोएं.

तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘पेरेनोस्पोरा स्पी. ’ नामक कवक से होता है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले घब्बे दिखाई देते हैं और नीचे की सतह पर फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है. उग्र अवस्था में रोग से ग्रसित पत्तियां झड़ जाती हैं.

प्रबंधन : फसल में अधिक सिंचाई न करें. इस रोग के लगने की प्रारंभिक अवस्था में फसल पर मैंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार मुक्ता एचएम 346 बोएं.

जड़गलन : मेथी की फसल में जड़गलन रोग का प्रकोप भी बहुत होता है, जो बीजोपचार कर और फसलचक्र अपना कर, ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले भूमि में दे कर कम किया जा सकता है.

कटाई एवं उपज

जब पौधों की पत्तियां झड़ने लगें व पौधे पील रंग के हो जाएं, तो पौधों को उखाड़ कर या फिर दंताली से काट कर खेत में छोटीछोटी ढेरियोंं में रखें. सूखने के बाद कूट कर या थ्रैशर से दाने अलग कर लें. साफ दानों को पूरी तरह सुखाने के बाद बोरियों मे भरें. समुचित तरीके से खेती की क्रियाओं को अपनाने से 15 से 20 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार हो सकती है.

पूसा संस्थान में तैयार हो रही अनेक फसलों की उन्नत किस्में

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), नई दिल्ली में उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने संस्थान के कृषि फार्म का अवलोकन किया और वहां चल रहे अनुसंधान एवं नवीनतम कृषि तकनीकों को देखा.

संस्थान के निदेशक डा. सीएच श्रीनिवासराव ने कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही का स्वागत करते हुए संस्थान के प्रमुख अनुसंधान कार्यों और उन की उपलब्धियों पर जानकारी दी.

संयुक्त निदेशक (अनुसंधान) डा. सी. विश्वनाथन ने चल रही उन्नत अनुसंधान परियोजनाओं और नई किस्मों के विकास के बारे में कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही को विस्तार से बताया.

डा. बीएस तोमर, अध्यक्ष, शाकीय विज्ञान संभाग ने कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही को संस्थान में की जा रही पूसा लाल गोभी संकर-1, पूसा गोभी संकर-81, गोल्डन एकड़, पूसा स्नोबौल एच-1, गांठ गोभी, पूसा साग-1 और पूसा भारती जैसी उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी दी. साथ ही, उन्होंने उन्हें एक जीवंत फसल प्रदर्शनी भी दिखाई.

varieties of crops

कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने फल एवं बागबानी प्रौद्योगिकी का भी निरीक्षण किया. फल एवं बागबानी प्रौद्योगिकी संभाग के प्राध्यापक डा. आरएम शर्मा ने उन्नत नीबूवर्गीय फलों जैसे पूसा शरद और पूसा राउंड की जानकारी दी.

इस के अलावा किन्नू, संतरा, और मौसंबी के बागों का भी कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने अवलोकन किया.
उत्तर प्रदेश में चने की खेती को और अधिक विकसित किया जा सके, इस के लिए उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने चने की उन्नत खेती के लिए पूसा मानव और पूसा पार्वती जैसी नई किस्मों की भी जानकारी ली.

मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने संस्थान के अनुसंधान कार्यों को देखा और उन की सराहना की. साथ ही, वहां उपस्थिति किसानों के लिए खेती को और अधिक लाभदायक बनाने के लिए कुछ सुझाव भी दिए.

कृषि उत्पादन वृद्धि (Agricultural Production) के लिए भरतपुर में कार्यशाला

भरतपुर : देश के विभिन्न क्षेत्रों में कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए अपनाई जा रही तकनीक व कृषि क्रियाओं पर काम कर रही विभिन्न संस्थानों के अनुभवों को साझा कर समावेशी जिला विकास मौडल बनाने की दृष्टि से भरतपुर में ‘समृद्ध भारत अभियान’ संस्था की पहल पर दोदिवसीय कार्यशाला का आयोजन हुआ.

इस आयोजन में विषय विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, चिंतक व विचारकों ने भाग लिया. कार्यशाला में विभिन्न संस्थाओं के कार्यों एवं कृषि उत्पादन वृद्धि और रसायनमुक्त खेती के संबंध में आए सुझावों को नीति आयोग को भेजा जाएगा, ताकि नीति आयोग ग्रामीण विकास अथवा आकांक्षी जिला कार्यक्रम में इन सुझावों को शामिल कर सके, ताकि किसानों की आमदनी बढ़ सके.

‘समृद्ध भारत अभियान’ के निदेशक सीताराम गुप्ता ने बताया कि कार्यशाला में ‘राष्ट्रीय रबड़ बोर्ड’ के चेयरमैन डा. सांवर धनानिया, भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी नरेंद्र सिंह परमार, वेद प्रकाश, ग्वालियर के संत स्वामी ऋषभ देवानंद, कनेरी मठ (महाराष्ट्र) के कृषि विशेषज्ञ डा. रविंद्र सिंह, ‘सर्वोदय फाउंडेशन’ की अंशु गुप्ता, ‘जीवजंतु कल्याण बोर्ड’ के सदस्य जब्बर सिंह, नोएडा, उत्तर प्रदेश के सत्येंद्र सिंह, विमल पटेल, पना (भरतपुर) के कमल सिंह, इंदौर की रीना भारतीय, जालौर (राजस्थान) के ईश्वर सिंह, ग्वालियर के डा. अंकित अग्रवाल, संजीव गोयल, आगरा के मो. हबीब, इंदौर की ध्वनि रामा, कांकरोली (राजसमंद) के विनीत सनाढ्य आदि ने कृषि एवं गोपालन के क्षेत्र में किए जा रहे अनुभवों की जानकारी दी.

कार्यशाला में सभी वक्ताओं ने सुझाव दिया कि रसायनमुक्त एवं कीटनाशकमुक्त खेती करने के लिए हमें प्राचीन परंपरागत खेती अर्थात प्राकृतिक व जैविक खेती शुरू करनी होगी. साथ ही, खेती के साथ गोपालन के काम को भी प्रोत्साहित करना होगा.

कृषि उत्पादन वृद्धि (Agricultural Production)

सभी वक्ताओं ने बताया कि रसायन एवं कीटनाशक दवाओं के उपयोग के चलते कृषि उत्पाद इतने जहरीले हो गए हैं कि इन से आज कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी सामने आ रही है. सभी वक्ताओं ने एक मत से सुझाव दिया कि केंद्र सरकार को प्राकृतिक खेती अथवा जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सभी ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर प्रशिक्षण शिविर व प्रदर्शन आयोजित किए जाएं.

सभी विशेषज्ञों का कहना था कि जैविक खेती की शुरुआत में कृषि उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, किंतु मानव शरीर पर रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों के कारण पैदा होने वाली बीमारियों से जरूर नजात मिल जाएगी.

सभी वक्ताओं ने कहा कि केंद्र व राज्य सरकारों को जैविक उत्पादों के प्रमाणीकरण की जटिल प्रक्रिया को आसान बनाना होगा और प्राकृतिक अथवा जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष अनुदानित योजना लागू करनी होगी.

गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय  

खरपतवार ऐसे पौधों को कहते हैं, जो बिना बोआई के ही खेतों में उग आते हैं और बोई गई फसलों को कई तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. मुख्यत: खरपतवार फसलीय पौधों से पोषक तत्त्व, नमी, स्थान यानी जगह और रोशनी के लिए होड़ करते हैं. इस से फसल के उत्पादन में कमी होती है. इन सब के साथसाथ कुछ खरपतवार ऐसे भी होते हैं, जिन के पत्तों और जड़ों से मिट्टी में हानिकारक पदार्थ निकलते हैं. इस से पौधों की बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है, जैसे गाजरघास (पार्थेनियम) एवं धतूरा आदि न केवल फार्म उत्पाद की गुणवत्ता को घटाते हैं, बल्कि इनसान और पशुओं की सेहत के प्रति भी नुकसानदायक हैं.

गेहूं की फसल भारत की खेती का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इस के सफल उत्पादन के लिए खरपतवार नियंत्रण एक अनिवार्य प्रक्रिया है. खरपतवार न केवल फसल की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, बल्कि फसल की वृद्धि और उपज को भी बाधित करते हैं.

गेहूं की भरपूर और स्वस्थ उपज लेने के लिए सही समय पर खरपतवार का नियंत्रण करना बहुत ही जरूरी होता है. अकसर खरपतवार कई हानिकारक कीड़े और रोगों का भी घर बन जाता है. इस के साथसाथ ये फसलों के नुकसानदायक कीटों व रोगों को भी आश्रय दे कर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं.

अगर सही समय पर खरपतवारों का नियंत्रण नहीं किया जाता है, तो फसल उत्पादन में 50 से 60 फीसदी तक की कमी हो सकती है और किसानों को माली नुकसान भी उठाना पड़ता है. पर इन का नियंत्रण भी एक कठिन समस्या है.

इन खरपतवारों को नियंत्रित करने से फसल की उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार हो सकता है. इन खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग किया जा सकता है, जैसे कि यांत्रिक विधियां, सस्य क्रियाएं, भूपरिष्करण क्रियाएं, कार्बनिक खादों का प्रयोग, जैव नियंत्रण उपाय और रासायनिक विधियां.

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए विभिन्न तरीकों की विस्तृत जानकारी निम्नलिखित है :

weeds in wheat

यांत्रिक विधियां

* हाथों से खरपतवार निकालना : यह सब से पुरानी और प्रभावी विधि है, लेकिन इस में समय और मेहनत अधिक लगती है.

* खुरपी, हंसिया, कुदाल आदि से खरपतवार निकालना : इन उपकरणों का उपयोग कर के खरपतवार को निकाला जा सकता है.

* मशीन से खरपतवार निकालना : रोटरी वीडर, वीडर और हार्वेस्टर जैसी मशीनें खरपतवार निकालने में मदद करती हैं.

सस्य क्रियाएं

* फसलों का चुनाव : तेजी से वृद्धि करने वाली फसलें और जड़ें गहरी व फैलने वाली फसलें खरपतवारों को नियंत्रित करने में मदद करती हैं.

* फसल चक्र : विभिन्न फसलों को लगाने से खरपतवारों की वृद्धि रुक जाती है.

* फसल की सघनता : अधिक सघनता से खरपतवारों को वृद्धि करने का अवसर नहीं मिलता.

कार्बनिक खादों का प्रयोग

* कार्बनिक खाद सड़ने और गलने के बाद कार्बनिक अम्ल का निस्तारण करते हैं, जो खरपतवारों की वृद्धि को कम कर देता है.

* जैविक खादों का उपयोग कर के मिट्टी की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है और खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है.

जैव नियंत्रण के उपाय

* जैविक नियंत्रण एजेंट जैसे नेमाटोड, बैक्टीरिया और फंजाई खरपतवारों को नियंत्रित करने में मदद करते हैं.

weeds in wheat

रासायनिक विधियां

रासायनिक विधियों के जरीए खरपतवार नियंत्रण करना एक प्रभावी तरीका है, लेकिन इस के उपयोग से पहले कुछ सावधानियां बरतें.

शाकनाशी रसायन के प्रकार

संपर्क शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन पत्तियों पर लगाया जाता है और खरपतवार को मारता है. उदाहरण : ग्लाईफोसेट, 2,4-डी.

सिस्टैमिक शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन खरपतवार के पौधे में अवशोषित होता है और उस की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : डाइक्लोफेनाक, मैटोलाक्लोर.

पहले उगाया गया शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन मिट्टी में लगाया जाता है और खरपतवार की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : ट्राईफ्लुरेलिन.

बाद में उगाया गया शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन खरपतवार के उगने के बाद लगाया जाता है और उस की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : ग्लाइफोसेट, 2,4-डी.

शाकनाशी रसायन के उपयोग के तरीके

फसल के पहले : शाकनाशी रसायन को फसल के पहले लगाया जाता है, ताकि खरपतवार की वृद्धि को रोका जा सके.

फसल के साथ : शाकनाशी रसायन को फसल के साथ लगाया जाता है, ताकि खरपतवार की वृद्धि को रोका जा सके.

खरपतवार के ऊपर : शाकनाशी रसायन को खरपतवार के ऊपर लगाया जाता है, ताकि उस की वृद्धि को रोका जा सके.

शाकनाशी रसायन के फायदे

यह शाकनाशी रसायन खरपतवार की वृद्धि को रोकता है और फसल की उत्पादकता को बढ़ाता है.

फसल की सुरक्षा : शाकनाशी रसायन फसल को खरपतवार से बचाता है और उस की सुरक्षा करता है.

समय और मेहनत की बचत : शाकनाशी रसायन का उपयोग करने से समय और मेहनत की बचत होती है.

शाकनाशी रसायन के नुकसान

पर्यावरण पर प्रभाव : शाकनाशी रसायन पर्यावरण पर बुरा प्रभाव डाल सकता है और जीवजंतुओं को नुकसान पहुंचा सकता है.

फसल को नुकसान : शाकनाशी रसायन फसल को नुकसान पहुंचा सकता है, अगर उस का उपयोग सही तरीके से नहीं किया जाए.

मिट्टी का प्रदूषण : शाकनाशी रसायन मिट्टी का प्रदूषण कर सकता है और उस की उर्वरता को कम कर सकता है.

इन विधियों को अपना कर गेहूं की फसल में खरपतवार को नियंत्रित किया जा सकता है.

किसानों को इन विभिन्न उपायों को अपना कर अपनी फसल की गुणवत्ता और उत्पादकता को बनाए रखना चाहिए.

वर्तमान में उपलब्ध नई तकनीकें और उन्नत विधियां खरपतवार नियंत्रण को अधिक प्रभावी और स्थायी बनाने में मददगार साबित हो रही हैं, जो कृषि की चुनौतियों का सामना करने में मददगार हैं.

गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय

कंडाली : कंडाली एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं.

सरसों : सरसों एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-90 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

खूबकला : खूबकला एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 20-50 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

मटर के परिवार की खरपतवार

मटरी : मटरी एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

फूली मटर : फूली मटर एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 20-40 सैंटीमीटर तक होती है.

काली मटर : पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं. यह एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं. इन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

गंदेरी परिवार की खरपतवार

गंदेरी : गंदेरी एक बहुवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं. इस की जड़ें गहरी होती हैं और मिट्टी में पानी को सोख लेती हैं.

बांस घास : बांस घास एक बहुवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 100-200 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

weeds in wheat

खरपतवार की पहचान

खरपतवार की पहचान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि विभिन्न प्रकार के खरपतवारों की विशेषताएं और नियंत्रण की विधियां भिन्न होती हैं. गेहूं की फसल में सामान्य रूप से उगने वाले खरपतवार निम्नलिखित हैं :

मकोय : मकोय एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. मकोय गेहूं की फसल में तेजी से वृद्धि करता है और फसल की उत्पादकता को कम कर देता है.

हिरनखुरी : हिरनखुरी एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

ककमाची : ककमाची एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल सफेद रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

बथुआ : बथुआ एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं. बथुआ गेहूं की फसल में तेजी से वृद्धि करता है और फसल की उत्पादकता को कम कर देता है.

चौलाई : इस की पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

जंगली गाजर : जंगली गाजर एक द्विवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल सफेद रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.