फायदेमंद हैं रंगीन सब्जियां (Colorful Vegetables)

हाल ही में देखा गया है कि पिछले एक दशक में देश में फलों व सब्जियां की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है, जो कि कृषि क्षेत्र में आई प्रगति को तो दर्शाता ही है, साथ ही यह खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के लिहाज से भी एक बड़ी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है.

पिछले 10 सालों में समूचे देश में फलों और सब्जियों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता क्रमश: 7 और 12 किलोग्राम बढ़ी है. प्रति व्यक्ति उपलब्धता बढ़ने का श्रेय मुख्य रूप से तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब और जम्मूकश्मीर को मिलना चाहिए, जिन के योगदान से ही आज देश प्रति व्यक्ति हर साल 227 किलोग्राम फल व सब्जियों का उत्पादन कर रहा है, जो प्रति व्यक्ति 146 किलोग्राम की अनुशंसित खपत से कहीं ज्यादा है.

दरअसल, आज का भारत परंपरागत खेती से आगे बढ़ कर नवाचार और तकनीकी उपायों को अपनाने में सफल हो रहा है. किसानों द्वारा ड्रिप सिंचाई उच्च उपज वाली फसलों को प्राथमिकता देना और स्मार्ट खेती जैसे वीडियो को अपनाना इस के मुख्य कारण हैं.

इस के अलावा प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, कृषि अवसरंचना कोष और किसान उत्पादक संगठन जैसी पहलों ने किसानों को बेहतर संसाधन तो दिए ही हैं, साथ ही, उन की बाजारों तक पहुंच भी सुनिश्चित की है.

लोगों में स्वास्थ्य एवं पोषण को ले कर बढ़ती जागरूकता ने भी फलों एवं सब्जियों की मांग को प्रोत्साहित किया है. लोगों के आहार पैटर्न में यह जो बदलाव दिखाई दे रहा है, वह कोरोना महामारी के दौर से ही दिखना शुरू हो गया था.

हालांकि, आसमान में होती मौसम की स्थितियों में होने वाले नुकसानों पर भी भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी रिपोर्ट में प्रकाश डाला है कि आजकल बाजार में हरी सब्जियों के साथसाथ बैंगनी रंग की सब्जियों का चलन काफी बढ़ गया है. लोग इन सब्जियों को स्वास्थ्य के लिए काफी महत्त्वपूर्ण मानते हुए अधिक खरीद रहे हैं, साथ ही, किसानों को उस की कीमत भी अच्छी मिल रही है.

कई सब्जियों और फलों की प्रजातियां ऐसे विज्ञान द्वारा विकसित कर दी गई हैं, जिन का कलर बैंगनी हो गया है. चाहे टमाटर हो या पत्तागोभी, मूली, शलजम, गाजर, आलू, फूलगोभी, ब्रोकोली, केला, अंगूर आदि फल और सब्जियां हैं, जिन की लगातार बाजार में मांग बढ़ रही है.

रंगीन सब्जियां (Colorful Vegetables)

रंगीन सब्जियों की पोषण सुरक्षा में भूमिका

रंगीन सब्जियां पोषण सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, क्योंकि ये आवश्यक विटामिन, खनिज और एंटीऔक्सिडैंट से भरपूर होती हैं. इन में मौजूद प्राकृतिक पिगमेंट जैसे कैरोटीनौइड, एंथोसायनिन और फ्लेवोनौइड़स न केवल सब्जियों को आकर्षक रंग प्रदान करते हैं, बल्कि ये शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली यानी इम्यून सिस्टम को भी मजबूत बनाते हैं.

गाजर, पालक, टमाटर और बैंगन जैसी सब्जियां कुपोषण से बचाने में मददगार हैं, क्योंकि ये विटामिन ए, सी, ई और के, के साथसाथ आयरन, कैल्शियम और पोटैशियम की कमी को भी पूरा करती हैं.

इन सब्जियों में मौजूद फाइबर पाचन तंत्र को स्वस्थ बनाए रखता है, जबकि बीटाकैरोटीन आंखों और त्वचा के स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है. इस के अलावा हृदय और हड्डियों को मजबूत करने में भी इन का महत्त्वपूर्ण योगदान है. कम कैलोरी और उच्च पोषण मूल्य के कारण रंगीन सब्जियां संतुलित आहार और टिकाऊ पोषण सुरक्षा का एक अनिवार्य हिस्सा हैं.

बैंगनी कलर लोगों को करता है आकर्षित

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार, अनाज के उत्पादन में तापमान में 3 डिगरी सैल्सियस से एक डिगरी भी ज्यादा होने पर गेहूं की पैदावार में 3 से 4 फीसदी की कमी आ सकती है, जो बेहद चिंताजनक है. लेकिन इस से भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि 30 से 35 फीसदी फसल कटाई भंडारण, परिवहन और पैकेजिंग के गलत तौरतरीकों के चलते खराब हो जाती है.

देश के 7 फीसदी कोल्ड स्टोरेज केवल 4 राज्यों गुजरात, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब में है. भारत फिलहाल फल व सब्जियों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर है. लेकिन बढ़ती आबादी और भविष्य की जरूरतों के मद्देनजर अब आत्मनिर्भरता के साथ आगे बढ़ने का समय है. फलसब्जियों की उपलब्धता बढ़ाना सकारात्मक संकेत है, लेकिन खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अभी लंबा सफर तय करना बाकी है.

आखिर क्यों होता है इन का रंग बैंगनी

सब्जियों का बैंगनी रंग मुख्य रूप से उन के अंदर मौजूद एंथोसायनिन नामक पिगमेंट के कारण होता है, जो एक प्रकार का फ्लेवोनौइड है. यह पिगमेंट सब्जी के परिपक्वता स्तर और उस के अंदर की अम्लीयता पर निर्भर करता है. जैसेजैसे सब्जी अपने विकास के अंतिम चरण में पहुंचती है, एंथोसायनिन पूरी तरह से विकसित हो जाता है, जिस से उस का रंग गहरा बैंगनी हो जाता है.

इस के अलावा बाहरी कारण जैसे प्रकाश, तापमान और पर्यावरणीय दबाव भी इस रंग को और गहरा बनाने में भूमिका निभाते हैं. बैंगनी रंग का विकास अकसर सब्जी के पकने और पोषक तत्त्वों के पूरे विकास का संकेत देता है. यह रंग न केवल सौंदर्य बढ़ाता है, बल्कि यह एंटीऔक्सिडैंट गुणों से भरपूर होता है, जो सब्जी को पोषण और स्वास्थ्य के नजरिए से और भी उपयोगी बनाता है.

रंगीन सब्जियों की खूबियां

रंगीन सब्जियां जैसे गाजर, टमाटर, पालक, ब्रोकोली, शिमला मिर्च, चुकंदर, बैंगन और अन्य अपने विशिष्ट रंगों के कारण विशेष पोषक तत्त्वों से भरपूर होती हैं. इन रंगों के पीछे मौजूद पिगमेंट्स जैसे कैरोटीनौइड, फ्लेवोनौइड्स और एंथोसायनिंस स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं.

लाल सब्जियां : टमाटर और चुकंदर जैसे खाद्य पदार्थ लाइकोपीन और एंथोसायनिन से भरपूर होते हैं, जो हृदय स्वास्थ्य को बढ़ावा देने और कैंसर के खतरे को कम करने में सहायक हैं.

हरी सब्जियां : पालक, ब्रोकोली और पत्तेदार सब्जियां आयरन, कैल्शियम और फाइबर का सब से बेहतर स्रोत हैं. ये हड्डियों को मजबूत करती हैं और पाचन तंत्र को स्वस्थ बनाए रखती हैं.

पीली और नारंगी सब्जियां : गाजर और कद्दू जैसे खाद्य पदार्थ विटामिन ए और बीटाकैरोटीन प्रदान करते हैं, जो आंखों की रोशनी और प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करते हैं.

बैंगनी और नीली सब्जियां : बैंगन और अन्य गहरे रंग की सब्जियां एंटीऔक्सिडैंट से भरपूर होती हैं, जो कोशिकाओं को क्षति से बचाने में मदद करती हैं.

फरवरी महीने में खेती के खास काम (Farming Tasks)

फरवरी का महीना खेतीबारी के लिए बहुत अहम है, क्योंकि यह मौसम फसल और पशुओं के लिए नाजुक होता है, इसलिए किसानों को कुछ एहतियात बरतने चाहिए:

* समय पर बोई गेहूं की फसल में इन दिनों फूल आने लगते हैं. इस दौरान फसल को सिंचाई की बहुत जरूरत होती है. झुलसा, गेरुई, करनाल बंट जैसी बीमारी का हमला फसल पर दिखाई दे, तो मैंकोजेब दवा के 2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

* गन्ने की बोआई 15 फरवरी के बाद कर सकते हैं. बोआई के लिए अपने इलाके की आबोहवा के मुताबिक गन्ने की किस्मों का चुनाव करें. बोआई में 3 आंख वाले सेहतमंद बीजों का इस्तेमाल करें. बोआई 75 सैंटीमीटर की दूरी पर कूंड़ों में करें. बीज को फफूंदनाशक दवा से उपचारित कर के ही बोएं.

* सूरजमुखी की बोआई 15 फरवरी के बाद कर सकते हैं. उन्नत बीजों की बोआई लाइन में 4-5 सैंटीमीटर की गहराई पर करें. बीज को कार्बंडाजिम से उपचारित कर के बोएं.

* मैंथा की बोआई करें. बोआई के लिए उन्नतशील किस्में जैसे हाईब्रिड एमएसएस का चुनाव करें. 1 हेक्टेयर खेत के लिए 400-500 किलोग्राम मैंथा जड़ों की जरूरत पड़ती है. बोआई के दौरान 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 75 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* आलू की फसल पर पछेता झुलसा बीमारी दिखाई दे, तो इंडोफिल दवा के 0.2 फीसदी वाले घोल का अच्छी तरह छिड़काव करें. फसल को कोहरे और पाले से बचाने का भी इंतजाम  करें.

* चना, मटर और मसूर की फसल में फलीछेदक कीट की रोकथाम के लिए कीटनाशी का इस्तेमाल करें. चने की फसल की सिंचाई करें. मटर की चूर्ण फफूंदी बीमारी की रोकथाम के लिए कैराथेन दवा का इस्तेमाल करें.

* टमाटर की गरमियों की फसल की रोपाई करें. रोपाई 60×45 सैंटीमीटर की दूरी पर करें. रोपाई से पहले खेत को अच्छी तरह तैयार कर लें.

* प्याज की रोपाई अभी तक नहीं की गई है, तो फौरन रोपाई करें. पिछले महीने रोपी गई फसल की निराईगुड़ाई करें. जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

* इस महीने धूप में चटकपन आ जाता है. धूप देख कर किसान पशुओं की देखरेख में लापरवाही बरतने लगते हैं. ऐसा न करें, पशुओं का ठंड से पूरा बचाव करें. जरा सी लापरवाही नुकसानदायक हो सकती है.

* अपने ऐसे पशु, जो जल्द ही ब्याने वाले हों, को दूसरे पशुओं से अलग कर दें और उन पर लगातार निगरानी रखें. गाभिन पशु का कमरा आदामदायक और कीटाणुरहित हो. इस में तूड़ी का सूखा डाल कर रखें.

* अगर बरसीम सही मात्रा में उपलब्ध हो, तो दाना मिश्रण में 5-7 फीसदी खल को कम कर के अनाज की मात्रा बढ़ा दें.

मटर की जैविक खेती, जानिए किस्में, देखभाल और पैदावार

मटर की जैविक खेती में फसलों के उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों जैसे गोबर की सड़ी खाद, जैव उर्वरक का प्रयोग  आदि फसल के पोषण व रसायनरहित कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण के लिए किया जाता है. मटर की जैविक खेती में किसान कम लागत में अच्छी गुणवत्ता वाली सब्जी मटर का अधिक उत्पादन कर सकते हैं.

मटर की रासायनिक खेती में न चाहते हुए भी उत्पादकों को 8 से 10 छिड़काव कीटनाशकों के करने पड़ते हैं, जिस से मटर के फल जहरीले हो जाते हैं, जो इनसानी सेहत के लिए नुकसानदायक हैं. अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल से भूमि बंजर हो रही है और पर्यावरण दूषित हो रहा है, इसलिए मटर की जैविक खेती आज की जरूरत है.

जलवायु

मटर की जैविक खेती के लिए नम और ठंडी जलवायु अधिक अच्छी रहती है, इसलिए हमारे देश में ज्यादातर मटर की फसल रबी के मौसम में लगाई जाती है, जहां पर 4 महीने ठंडा मौसम रहता है, साथ ही, ठंड धीरेधीरे गरमी की ओर बढ़ती है, इसलिए मटर की जैविक खेती के लिए यह मौसम सब से बेहतर होता है. साथ ही, उन सभी स्थानों पर जहां सालाना बारिश 60 से 80 सैंटीमीटर तक होती है, वहां मटर की फसल आसानी से उगाई जा सकती है.

मटर फसल की बढ़वार में अधिक बारिश का होना काफी नुकसानदायक होता है. बीज के अंकुरण के लिए औसत तापमान 22 डिगरी सैल्सियस व अच्छी फसल के लिए 12-20 डिगरी सैल्सियस तापमान सब से अच्छा होता है.

भूमि का चयन

मटर की खेती ज्यादातर उन सभी तरह की मिट्टियों में आसानी से की जा सकती है, जिन में अच्छी मात्रा में नमी उपलब्ध हो, परंतु फलीदार फसल के लिए अधिक अम्लीय एवं अधिक क्षारीय भूमि अच्छी नहीं होती. लेकिन जैविक पदार्थों से भरपूर बलुई दोमट या दोमट मिट्टी, मटर की खेती के लिए सब से अच्छी होती है.

भूमि का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना अच्छा होता है. ऐसी मिट्टी, जिस में पानी का ठहराव न होता हो और पानी सोखने की क्षमता अधिक हो, वहां उत्पादन सब से अच्छा होता है.

खेत की तैयारी

मटर की जैविक खेती के लिए खेत को 2 से 3 बार गहरी जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए, ताकि पौधों की बढ़वार अच्छी हो सके. गोबर की खाद 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिला दें.

गोबर की खाद के बदले केंचुआ खाद भी 100 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से मिला सकते हैं. बीजों के अच्छे जमाव के लिए खेत में उचित नमी होनी चाहिए. ट्राइकोडर्मा पाउडर से मिट्टी को बोआई से पहले मिला कर उपचारित कर लेना चाहिए. बोआई से पहले उपचारित खाद को खेत में फैला दें. ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से फफूंद या कवकजनित रोगों की रोकथाम बेहतर तरीके से हो जाती है.

उन्नत किस्में

मटर की जैविक खेती के लिए उन्नत और अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए, ताकि मटर की जैविक फसल से अधिकतम उपज प्राप्त हो सके. साथ ही, यदि संभव हो, तो जैविक प्रमाणित बीज का बोआई के लिए उपयोग करें.

मटर की कुछ प्रचलित किस्में अर्केल, बोनविले, जवाहर मटर-1, जवाहर मटर-2, लिंकन, वीएल-3, पालम प्रिया, सोलन निरोग, जीसी-477, पंजाब-89, पंत मटर-155 व विवेक मटर-8 व 9 आदि हैं.

बोआई का उचित समय

मैदानी क्षेत्रों में अंगरेजी किस्म के लिए मध्य सितंबर से मध्य अक्तूबर व मध्यम देर से पकने वाली किस्म के लिए 15 अक्तूबर से 15 नवंबर तक बोआई की जा सकती है.

लेकिन बोआई के समय अधिक तापमान होने के कारण पौधे कम बढ़ते हैं और मटर में तना छेदक व उकठा रोग के होने की संभावना बढ़ जाती है.

मटर की बोआई अक्तूबर के पहले सप्ताह से ले कर नवंबर माह के अंत तक की जा सकती है. समय से पहले और समय के बाद बोआई करने से उत्पादकता एवं गुणवत्ता दोनों पर बुरा असर पड़ सकता है.

बीज का उपचार मटर की जैविक खेती के लिए स्वस्थ व रोगमुक्त प्रमाणित बीज का चयन करना चाहिए और खेत में बोआई से पहले राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें (3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज). ऐसा करने से उपज में 10-15 फीसदी तक की बढ़ोतरी होती है.

बीज दर व अंतराल

मटर की जैविक खेती में जल्दी पकने वाली किस्मों के लिए 100 से 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और मध्य व देर से पकने वाली किस्मों के लिए 70 से 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा उपयुक्त है.

अगेती किस्मों की कतार से कतार की दूरी 30 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सैंटीमीटर और देर से पकने वाली किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 30-40 सैंटीमीटर और कतार में पौधे से पौधे की दूरी 5 से 8 सैंटीमीटर रहती है.

उपचारित बीज की बोआई सीड ड्रिल अथवा देशी हल द्वारा कतारों में की जाती है. बीज की बोआई 5-8 सैंटीमीटर की गहराई पर करें.

खाद प्रबंधन

मटर की अच्छी उपज लेने के लिए 2 टन वर्मी कंपोस्ट या 5 टन गोबर की खाद का इस्तेमाल करना चाहिए. यह खाद अच्छी प्रकार से हल चलाते समय भूमि में मिला देनी चाहिए. वर्मी कंपोस्ट को आखिरी बोआई के समय उपयोग करना चाहिए, जिस से मटर की जैविक फसल में पोषक तत्त्वों की पूर्ति संभव हो.

वर्मी कंपोस्ट 1:10 भाग पानी के साथ मिला कर कम से कम फसल बोनी के 30 दिन एवं 45 दिन के बाद स्प्रे करें.

सिंचाई व जल प्रबंधन

मटर की बिजाई से पहले एक सिंचाई और उस के बाद 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. मटर की फसल के लिए पानी की आवश्यकता भूमि व बारिश पर निर्भर करती है, इसलिए आमतौर पर मटर की फसल के लिए 2 से 3 सिंचाइयां बहुत जरूरी होती हैं.

पहली सिंचाई बीज बोने से पहले, दूसरी सिंचाई फल आने पर और तीसरी सिंचाई जब फलियां तैयार हो रही हों. जमीन में अधिक नमी मटर की फसल के लिए नुकसानदायक होती है, जिस से जड़ सड़न रोग, पौधों का पीला पड़ना और फसल के दूसरे तत्त्वों को उपयोग में लाने में बाधा होती है.

खरपतवार नियंत्रण

मटर की जैविक खेती में 1 से 2 निराईगुड़ाई की जरूरत होती है, जो कि फसल की किस्म पर निर्भर करती है. पहली निराई व गुड़ाई जब पौधों में 3-4 पत्ते हों या बिजाई से 3 से 4 सप्ताह बाद करनी चाहिए. दूसरी, फूल आने से पहले करें. खेत की मेंड़ों पर पाए जाने वाले सालाना घास वाले और चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों की रोकथाम उन को नष्ट करने के बाद कर सकते हैं.

Organic farming of peas

कीट एवं रोग नियंत्रण

एंथ्रेक्नोज

इस रोग में पत्तियों के ऊपर पीलेकाले रंग के सिकुड़े हुए धब्बे बन जाते हैं और धीरेधीरे पूरी पत्ती को ढक लेते हैं. यह बीमारी बीज के माध्यम से एक मौसम से दूसरे मौसम में फैलती है.

रोकथाम

बोने से पहले बीज को बीजामृत या गौमूत्र से उपचारित करें और रोगरोधी किस्म लगाएं.

फली छेदक

खेत में फेरोमोन ट्रैप लगाएं. टी आकार की खूंटियां (20-25 प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाएं) टांगें. रस्सों की अंतर्वर्ती फसल लगाने से भी काफी फायदा होता है.

माहू

माहू कीट का प्रकोप जनवरी महीने में शुरू होता है. यह कीट पत्तियों व टहनियों से रस चूसता है.

रोकथाम

इस रोग से बचाव के लिए पीला ट्रैप लगाएं. नीम तेल को अच्छी तरह पानी के साथ मिलाने के बाद 1500 पीपीएम का 2.5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के साथ मिला कर स्प्रे करें.

पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीड़ा पौधे की पत्तियों में सफेद धागे की तरह बारीक सुरंग बनाता है. अधिक प्रकोप होने से पत्तियां सूख जाती हैं. इस कीट के उपचार के लिए नीम गोल्ड 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में मिला कर या नीम की निंबोली का सत (अर्क) 4 फीसदी का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें.

जैविक प्रमाणीकरण

जैविक प्रमाणीकरण, जैविक उत्पाद की गुणवत्ता एवं सत्यता को प्रमाणित करने के लिए तीसरे पक्ष द्वारा कराया गया एक मूल्यांकन है. जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग को ध्यान में रखते हुए सभी देशों ने जैविक खेती करने के कुछ मापदंड तैयार किए हैं.

भारत में एपीडा यानी कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादन निर्यात एवं विकास प्राधिकरण जैविक उत्पादों के मापदंड तय करती है. जैविक प्रमाणपत्र भूमि पर जैविक तरीके से की गई खेती की सत्यता को निर्धारित करते हुए उस भूमि के लिए निर्गत किया जाता है.

फलियों की तुड़ाई

मटर की जैविक फसल से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए फलियों को समय पर तोड़ना बहुत आवश्यक है, अन्यथा इन की क्वालिटी पर असर पड़ता है.

फलियां तब तोड़ें, जब वे पूरी तरह दानों से भर जाएं. इस के बाद फलियों का हरा रंग घटने लगता है. आमतौर पर फलियों की तुड़ाई सुबह या शाम के समय 7 से 10 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए.

मटर फसल की कुल 4-5 बार तुड़ाई होती है. दाल के लिए उगाई गई फसल की कटाई पूरी तरह पकने के बाद ही करनी चाहिए. दिन में तेज धूप पड़ने पर मटर की क्वालिटी पर असर पड़ता है.

पैदावार

मटर की जैविक फसल की पैदावार 70 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

भंडारण

हरी मटर की फलियों की ग्रेडिंग व पैकिंग बहुत ध्यान से करनी चाहिए. अकसर मटर को बोरियों, बांस की टोकरियों आदि में पैक किया जाता है और मंडियों में पहुंचाया जाता है. मटर की फलियों पर अधिक नमी नहीं होनी चाहिए, वरना इस पर फफूंद जैसे रोग लग सकते हैं.

आदर्श मछुआरा गांव (Model Fisherman Village) का विकास 

मत्स्यपालन विभाग, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (पीएमएमएसवाई) अन्य बातों के साथसाथ एकीकृत आधुनिक तटीय मत्स्यन गांवों (इंटीग्रेटेड मौडर्न कोस्टल फिशिंग विल्लेजस) के विकास के लिए तटीय राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को सहायता प्रदान करती है.

हर एक एकीकृत तटीय मत्स्यन गांव के विकास के लिए अनुमानित  इकाई लागत केंद्र और संबंधित राज्य सरकार के बीच 60:40 के आधार पर बांटी जाती है और केंद्र शासित प्रदेशों के मामले में भारत सरकार 100 फीसदी इकाई लागत प्रदान करती है.

पीएमएमएसवाई के अंतर्गत कुल 11 एकीकृत आधुनिक तटीय गांवों के विकास के लिए 7,756.46 लाख रुपए के निवेश के प्रस्तावों को मंजूरी दी गई है, जिन में  केरल में 6,106.61 लाख रुपए की लागत से नौ तटीय गांव,  लक्षद्वीप में 899.85 लाख रुपए की लागत से एक तटीय गांव और पश्चिम बंगाल में 750 लाख रुपए की लागत से एक तटीय गांव शामिल हैं.

चूंकि यह योजना केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों के बीच लागत को आपस में बांट के आधार पर पीएमएमएसवाई की गैरलाभार्थी उन्मुख गतिविधियों के रूप में चलाई जाती है, इसलिए इस योजना के अंतर्गत लाभार्थियों को कोई प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता प्रदान नहीं दी जाती है.

इस के अलावा,पीएमएमएसवाई के अंतर्गत, मत्स्यपालन विभाग, मत्स्यपालन,  पशुपालन और डेयरी मंत्रालय ने तटीय राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के परामर्श से क्लाईमेट रेसीलिएंट कोस्टल फिशरमन विल्लेजस  के रूप में विकास के लिए तटरेखा के करीब स्थित कुल 100 तटीय मछुआरा गांवों की पहचान की है, ताकि उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत मछुआरा गांव बनाया जा सके.

इस कार्यक्रम के लिए राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड (एनएफडीबी), हैदराबाद को एक नोडल एजेंसी बनाया गया है और वर्तमान वित्त वर्ष में पीएमएमएसवाई के अंतर्गत पहचान किए गए 100 तटीय गांवों के विकास के लिए एनएफडीबी के प्रस्ताव को 200 करोड़ रुपए की कुल लागत से मंजूरी दी गई है.

इस के साथ ही, पहचान किए गए तटीय मछुआरा गांवों में  विकसित की गई आवश्यकता आधारित मात्स्यिकी सुविधाओं में फिश ड्राईंग यार्ड, प्रोसैसिंग सेंटर, फिश मार्केट, फिशिंग जेट्टी, आइस प्लांट, कोल्ड स्टोरेज और आपातकालीन बचाव सुविधाएं जैसी सामान्य सुविधाएं शामिल हैं.

यह कार्यक्रम सी वीड कल्टीवेशन, आर्टिफिश्यल रीफ्स, सी रेंचिंग, हरित ईंधन (ग्रीन फ्युल) को बढ़ावा देने, मछुआरों और फिशिंग वेसेल्स के लिए सेफ्टी और सुरक्षा उपायों और ओरनामेंटल फिशरीस जैसी वैकल्पिक आजीविका गतिविधियों को अपनाने जैसी पहलों के माध्यम से क्लाइमेट रेसीलिएंट फिशरीस को भी बढ़ावा देता है.

इस कार्यक्रम में बीमा, आजीविका और पोषण सहायता, किसान क्रेडिट कार्ड और पहचान किए गए तटीय गांवों में रहने वाले पात्र मछुआरों तक केसीसी कवरेज जैसी अन्य गतिविधियों की भी परिकल्पना की गई है.

पीएमएमएसवाई के अंतर्गत क्लाईमेट रेसीलिएंट कोस्टल फिशरमन विल्लेजस यानी आदर्श मछुआरा गांवे के रूप में तटीय राज्यों में से गुजरात में 8, महाराष्ट्र में 15, दमन व दीव में 1, पुदुच्चेरी में 2, ओडिशा में 18, आंध्रप्रदेश में 15, लक्षद्वीप में 2, तमिलनाडु में 16, कर्नाटक में 5, केरल में 6, अंडमाननिकोबार में 5, पश्चिम बंगाल में 5 और गोवा में 2 गांवो की पहचान की गई है.

मछुआरों के लिए कल्याणकारी योजनओं (Welfare Schemes) का शुभारंभ

मत्स्यपालन विभाग, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय द्वारा भारत में मात्स्यिकी क्षेत्र के स्थायी और जिम्मेदार विकास और मछुआरों के कल्याण के माध्यम से नीली क्रांति (ब्लू रेवोल्यूशन) लाने के लिए सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में 20,050 करोड़ रुपए के निवेश से एक प्रमुख योजना ‘प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना’ (पीएमएमएसवाई) का कार्यान्वयन  किया जा रहा है.

इस योजना में मछुआरों और मत्स्य किसानों के लिए कई कल्याणकारी गतिविधियों की परिकल्पना की गई है, जिस में विभाग ने पीएमएमएसवाई योजना के तहत वेस्सल कम्युनिकेशन एंड सपोर्ट सिस्टम के नैशनल रोलआउट प्लान को मंजूरी दी है, जिस में 364 करोड़ रुपए के कुल खर्च के साथ सभी तटीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों  में 1,00,000 फिशिंग वेसल्स पर ट्रांसपोंडर की स्थापना शामिल है.

नाव मालिकों को ट्रांसपोंडर के लिए मुफ्त में सहायता प्रदान की जाती है, जिस में टू वे कम्यूनिकेशन की सुविधा उपलब्ध है और संपूर्ण एक्सक्लूसिव इकोनोमिक जोन को कवर करते हुए किसी भी आपात स्थिति के दौरान छोटे टेक्स्ट मैसेज भेजे जा सकते हैं. यह मछुआरों को समुद्री सीमा के पास आने या उसे पार करने पर अलर्ट भी करता है.

इस के अलावा अन्य गतिविधियों जैसे समुद्री राज्यों/संघ  राज्य क्षेत्रों में इंटीग्रेटेड कोस्टल फिशिंग, गांवों का विकास, जिस का उद्देश्य स्थायी मत्स्य प्रथाओं के माध्यम से पर्यावरणीय नुकसान को कम करते हुए तटीय मछुआरों को आर्थिक और सामाजिक लाभ प्रदान  करना है.

18 से 70 साल की आयु समूह में आकस्मिक मृत्यु या स्थायी पूर्ण शारीरिक अक्षमता  पर 5 लाख रुपए, आकस्मिक स्थायी आंशिक शारीरिक अक्षमता पर 2.50 लाख रुपए और दुर्घटनावश अस्पताल में भरती होने पर 25,000 रुपए का बीमा लाभ प्रदान करना, 18 से 60 साल की आयु समूह के लिए मछली पकड़ने पर प्रतिबंध/मंद अवधि के दौरान मत्स्य संसाधनों के संरक्षण के लिए सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े सक्रिय पारंपरिक मछुआरों के परिवारों के लिए आजीविका और पोषण संबंधी सहायता देना, जिस में  मछली पकड़ने पर प्रतिबंध/मंद अवधि के  दौरान  3 महीनों के लिए प्रति मछुआरे  को 3,000 रुपए की सहायता प्रदान की जाती है, जिस में लाभार्थी का योगदान 1,500 रुपए  होता है और इस के लिए सामान्य राज्य के लिए अनुपात 50:50, उत्तरपूर्वी राज्यों और हिमालयी राज्यों  के  लिए  80:20, जबकि केंद्र शासित प्रदेशों के लिए सौ फीसदी है.

वर्तमान में चल रही पीएमएमएसवाई के तहत मछुआरों और मत्स्य किसानों को माली रूप से सशक्त बनाने और उन की बारगैनिंग पावर बढ़ाने के लिए मत्स्य किसान उत्पादक संगठनों/फिश फार्मर प्रोड्यूसर और्गेनाइजेशन (एफएफपीओ) की स्थापना के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करने का प्रावधान है, जो मछुआरों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में मदद करता है.

मत्स्यपालन विभाग ने अब तक 544.85 करोड़ रुपए की कुल परियोजना लागतपर कुल 2,195 एफएफपीओ की स्थापना के लिए मंजूरी दी है, जिस में 2,000 मत्स्य सहकारिताओं को एफएफपीओ का रूप देने और 195 नए एफएफपीओ गठित करना शामिल है.

इस के अलावा, मछुआरों और मत्स्यपालकों द्वारा संस्थागत ऋण तक पहुंच को सुविधाजनक बनाने के लिए साल 2018-19 से किसान क्रेडिट कार्ड की  सुविधा को मात्स्यिकी क्षेत्र तक विस्तारित किया गया है और आज तक मछुआरों और मत्स्यपालकों को 4,50,799 केसीसी कार्ड दिए गए हैं.

राष्ट्रीय गोकुल मिशन (Rashtriya Gokul Mission)

‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’ योजना दूध उत्पादन और बोवाइन पशुओं की उत्पादकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. इस योजना के कार्यान्वयन और पशुपालन एवं डेयरी विभाग द्वारा किए गए अन्य उपायों से देश में दूध उत्पादन साल 2014-15 में 146.31 मिलियन टन से बढ़ कर साल 2023-24 में 239.30 मिलियन टन हो गया है.

पिछले 10 सालों के दौरान 63.55 फीसदी की वृद्धि हुई है. देश में बोवाइन पशुओं की कुल उत्पादकता साल 2014-15 में प्रति पशु प्रति वर्ष 1,640 किलोग्राम से बढ़ कर साल 2023-24 में प्रति पशु प्रति वर्ष 2,072 किलोग्राम हो गई है. यह 26.34 फीसदी की वृद्धि है, जो विश्व में किसी भी देश द्वारा बोवाइन पशुओं की उत्पादकता में हुई सब से अधिक बढ़ोतरी है.

देशी और नौनडिस्क्रिप्ट गोपशुओं की उत्पादकता वर्ष 2014-15 में प्रति पशु प्रति वर्ष 927 किलोग्राम से बढ़ कर साल 2023-24 में प्रति पशु प्रति वर्ष 1,292 किलोग्राम हो गई है, जो 39.37 फीसदी  की वृद्धि है.

भैंसों की उत्पादकता साल 2014-15 में प्रति पशु प्रति वर्ष 1,880 किलोग्राम से बढ़ कर साल 2023-24 में प्रति पशु प्रति वर्ष 2,161 किलोग्राम हो गई है, जो 14.94 फीसदी  की वृद्धि है.

राष्ट्रीय गोकुल मिशन के अंतर्गत दूध उत्पादन और बोवाइन पशुओं की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए कई सफलतापूर्वक योजनाओं का कार्यान्वयन किया जा रहा है.

राष्ट्रव्यापी कृत्रिम गर्भाधान कार्यक्रम: राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत पशुपालन और डेयरी विभाग दूध उत्पादन और देशी नस्लों सहित बोवाइन पशुओं की उत्पादकता को बढ़ावा देने के लिए कृत्रिम गर्भाधान कवरेज का विस्तार कर रहा है. अब तक 8.32 करोड़ पशुओं को कवर किया गया है, 12.20 करोड़ कृत्रिम गर्भाधान किए गए हैं, जिस से 5.19 करोड़ किसान लाभान्वित हुए हैं.

संतति परीक्षण और नस्ल चयन: इस कार्यक्रम का उद्देश्य देशी नस्लों के सांडों सहित उच्च आनुवंशिक गुणवत्ता वाले सांडों का उत्पादन करना है. संतति परीक्षण को गोपशु की गिर, साहीवाल नस्लों और भैंसों की मुर्राह, मेहसाणा की नस्लों के लिए चलाया जा रहा है.

नस्ल चयन कार्यक्रम के अंतर्गत गोपशु की राठी, थारपारकर, हरियाणा, कांकरेज की नस्ल और भैंस की जाफराबादी, नीली रवि, पंढारपुरी और बन्नी नस्लों को शामिल किया गया है. अब तक 3,988 उच्च आनुवंशिक गुणवत्ता वाले सांडों का उत्पादन किया गया है और उन्हें वीर्य उत्पादन के लिए शामिल किया गया है.

इनविट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) तकनीक का कार्यान्वयन : देशी नस्लों के उत्कृष्ट पशुओं का प्रसार करने के लिए विभाग ने 22 आईवीएफ प्रयोगशालाएं स्थापित की हैं. आईवीएफ तकनीक की आनुवंशिक उन्‍नयन में महत्‍वपूर्ण भूमिका है और यह कार्य एक ही पीढ़ी में संभव है. इस के अतिरिक्‍त किसानों को उचित दरों पर तकनीक उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने आईवीएफ मीडिया शुरू किया है.

सेक्ससौर्टेड वीर्य उत्पादन : विभाग ने गुजरात, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में स्थित 5 सरकारी वीर्य स्टेशनों पर सैक्स सौर्टेड वीर्य उत्पादन सुविधाएं स्थापित की हैं. 3 निजी वीर्य स्टेशन भी सैक्ससौर्टेड वीर्य खुराक का उत्पादन कर रहे हैं. अब तक उच्च आनुवंशिक गुणवत्ता वाले सांडों से 1.15 करोड़ सैक्ससौर्टेड वीर्य खुराकों का उत्पादन किया गया है और उसे कृत्रिम गर्भाधान के लिए उपलब्ध कराया गया है.

जीनोमिक चयन : गोपशु और भैंसों के आनुवंशिक सुधार में तेजी लाने के लिए विभाग ने देश में जीनोमिक चयन शुरू करने के लिए विशेष रूप से तैयार की गई एकीकृत जीनोमिक चिप विकसित की है – देशी गोपशुओं के लिए गौ चिप और भैंसों के लिए महिष चिप.

ग्रामीण भारत में बहुद्देश्यीय कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियन (मैत्री): इस योजना के तहत मैत्री को किसानों के द्वार पर गुणवत्तापूर्ण कृत्रिम गर्भाधान सेवाएं प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित और सुसज्जित किया जाता है. पिछले 3 सालों के दौरान राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत 38,736 मैत्री को प्रशिक्षित और सुसज्जित किया गया है.

सैक्ससौर्टेड वीर्य का उपयोग कर के त्वरित नस्ल सुधार कार्यक्रम : इस कार्यक्रम का उद्देश्य 90 फीसदी सटीकता के साथ बछियों का उत्पादन करना है, जिस से नस्ल सुधार और किसानों की आय में वृद्धि हो. किसानों को सुनिश्चित गर्भधारण के लिए सैक्ससौर्टेड वीर्य की लागत के 50 फीसदी तक सहायता मिलती है.

इस कार्यक्रम से अब तक 341,998 किसान लाभान्वित हो चुके हैं. सरकार ने किसानों को उचित दरों पर सैक्ससौर्टेड वीर्य उपलब्ध कराने के लिए देशी रूप से विकसित सैक्ससौर्टेड वीर्य तकनीक शुरू की है.

इनविट्रो फर्टिलाइजेश तकनीक का उपयोग कर त्वरित नस्ल सुधार कार्यक्रम : इस तकनीक का उपयोग बोवाइन पशुओं के तीव्र आनुवंशिक उन्नयन के लिए किया जाता है और आईवीएफ तकनीक अपनाने में रुचि रखने वाले किसानों को प्रत्येक सुनिश्चित गर्भावस्था पर 5,000 रुपए की प्रोत्साहन राशि उपलब्ध कराई जाती है.

देशी बोवाइन नस्लों के विकास और संरक्षण के लिए साल 2014-15 और साल 2024-25 (दिसंबर, 2024 तक) के बीच कार्यान्वयन एजेंसियों को 4,442.87 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता जारी की गई और इस के मुकाबले साल 2004-05 और साल 2013-14 के बीच गोपशु और भैंस विकास के लिए 983.43 करोड़ रुपए की राशि जारी की गई. इस योजना का लाभ दूध उत्पादन और बोवाइन पशुओं की उत्पादकता में वृद्धि के रूप में डेयरी से जुड़े किसानों को मिल रहा है.

फूलों की खेती (Flower Farming) आमदनी बढ़ाए

यदि किसी काम को करने की लगन और मेहनत का जज्बा हो तो व्यक्ति अच्छीखासी आमदनी हासिल कर सकता है. यह सिद्ध कर के दिखाया है नरसिंहपुर जिले के गाडरवारा के किसान उमाशंकर कुशवाहा ने.

फूलों की खेती कर के उमाशंकर ने पूरी गाडरवारा तहसील में अपना नाम रोशन किया है. उमाशंकर ने परंपरागत खेती से हट कर अपनी आमदनी के जरीए बढ़ाए हैं. वे अपने खेतों में फूलों की खेती कर के कई किस्म के फूल उगाते हैं. फूलों के साथसाथ मालाएं और गुलदस्ते बना कर बेचते हैं. साथ ही शादीब्याह, जन्मदिन जैसे मौकों पर फूलों से पंडालों की सजावट भी कुशलता के साथ करते हैं.

गाडरवारा में शक्कर नदी के पार कौड़या रोड पर उमाशंकर का फार्महाउस है, जिस में उन के चारों भाइयों के परिवार रहते हैं. वे लोग सब्जीभाजी की खेती के अलावा फूलों की खेती बड़े पैमाने पर करते हैं. उमाशंकर कुशवाहा बताते हैं कि उन के मामाजी भी सोहागपुर पिपरिया में फूलों की खेती करते थे. उन्हें देख कर ही उमाशंकर के मन में भी फूलों की खेती करने की चाहत हुई.

मुख्य रूप से गेंदा, नवरंगा और गैलार्डिया के फूलों की खेती करने वाले उमाशंकर का कहना है कि वे साल में 2 बार फूलों के बीज डाल कर फूलों की खेती करते हैं. वे जूनजुलाई में खेतों को अच्छी तरह से तैयार कर के गेंदे की पौध लगाते हैं.

देशी किस्म का गेंदा 90 से 100 दिनों में फूल देने लगता है, जबकि हाईब्रिड किस्म के गेंदे 50 से 60 दिनों में ही फूल देने लगते हैं. सितंबर से फरवरी तक गेंदे में अच्छी मात्रा में फूल निकलते हैं.

गरमी के मौसम में होने वाले फूलों नवरंगा और मांगरेट की बौनी किस्में अक्तूबर में बोई जाती हैं. फूलों के पौधों को रासायनिक खाद व उर्वरक के अलावा समयसमय पर कोराजन जैसे कीटनाशकों का इस्तेमाल भी करना पड़ता है.

नवरंगा की बोआई : नवरंगा फूल जिसे गैलार्डिया के नाम से भी जाना जाता है, को गरमी के फूलों का राजा कहा जाता है.

इसे बोने के लिए अक्तूबर में खेत की 2 बार जुताई के कर मिट्टी को भुरभुरी व समतल बना कर तकरीबन 3×1 मीटर की क्यारियां तैयार कर लेते हैं. क्यारियों में गोबर की सड़ी खाद डाल कर यूरिया, पोटाश और फास्फोरस भी डाला जाता है.

क्यारियों में अच्छी किस्म के फूल के बीज प्रति एकड़ 800 ग्राम से 1 किलोग्राम की मात्रा में 5 सेंटीमीटर गहरा बो देते हैं. बीज बोने के बाद ऊपर से सूखी घास डाल कर हलकी सिंचाई करते हैं.

क्यारियों में बीज बोने के 3 से 4 हफ्ते बाद खेत में लगाने के लिए पौध तैयार हो जाती है.

पौधों को शाम के समय लगाना अच्छा रहता है. हफ्ते में 2 से 3 दिन सिंचाई की जाती है. बीज बोने के 110 दिनों से 120 दिन में नवरंगा के फूल खिलने लगते हैं. इस में एक ही पौधे में बहुत सारे फूल लगते हैं.

कीटों की रोकथाम के लिए डायमेथियोट 30 ईसी दवा का छिड़काव समयसमय पर करते रहते हैं. फूलों की तोड़ाई का काम सुबह किया जाता है. फूलों पर पानी सींच कर उन्हें बांस की टोकरियों में पैक कर के बाहर भेजा जाता है. तोड़े गए फूलों को गीले कपड़े से ढक कर रखा जाता है. इन फूलों से आकर्षक गुलदस्ते और मालाएं बनाते हैं.

फूलों की खेती (Flower Farming)

5 लाख तक सालाना आमदनी : मौजूदा समय में उमाशंकर 1 एकड़ खेत में गेंदा, गुलाब, सेवंती वगैरह फूलों की खेती कर रहे हैं. फूल स्थानीय बाजारों में 30 से 50 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचने के साथ ही आर्डर पर बाहर भी भेजे जाते हैं. उन के परिवार के सदस्य फूलों की माला तैयार करते हैं, जो 5 रुपए से ले कर 20 रुपए में बिकती हैं.

आम दिनों में रोजाना तकरीबन 500 रुपए तक फूलों की बिक्री से आमदनी होती है, जो खास मौकों पर बढ़ कर 2 हजार रुपए तक हो जाती है. कई बार मांग ज्यादा होने पर वे गुलाब के फूल 100 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से नागपुर से मंगा कर 150 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेच कर भी अतिरिक्त आमदनी कर लेते हैं.

1 एकड़ में की जा रही फूलों की खेती में साल भर में तकरीबन 1 लाख रुपए की लागत आती है और उस से उमाशंकर के परिवार को तकरीबन 5 लाख रुपए की आमदनी हो जाती है.

शादीब्याह में होती है अच्छी आमदनी : शादीब्याह के दौरान उमाशंकर फूलों से मंडप सजाने का काम भी करते हैं. विवाह मंडप के साथ जयमाला स्टेज सजाने का काम कर के वे रोजाना 5 से 20 हजार रुपए तक कमा लेते हैं. वे गांव के युवकों को भी रोजगार देते हैं.

कई बार तो शादी के सीजन में 4-5 जगहों पर मंडप सजाने का काम मिल जाता है. गांव के 2-3 युवकों को उन्होंने मंडप सजाने के काम में माहिर बना दिया है. काम ज्यादा होने पर वे गांव के इन युवकों की मदद ले कर उन्हें भी आमदनी कराते हैं.

इसी तरह जन्मदिन पार्टी, शादी की सालगिरह जैसे कार्यक्रमों के साथसाथ उन्हें सुहागरात की सेज सजाने का काम भी मिलता है. राजनीतिक या सार्वजनिक समारोहों में भी उन्हें फूलों की मालाएं और गुलदस्ते सप्लाई करने का आर्डर मिलता रहता है.

30 वर्षीय उमाशंकर कुशवाहा ने अपनी सूझबूझ से खेती को फायदे वाला काम साबित किया है. उमाशंकर से फूलों की खेती के में उन के मोबाइल नंबर 982694273 पर बात कर के जानकारी हासिल की जा सकती है.

रोजगार का जरीया बना मोमोज (Momos)

भारत के शहरों में मोमोज (Momos) बेचने के इतने ठेले हो गए हैं, जितने शायद ही किसी और देश में हों. भारत के नार्थईस्ट प्रदेशों में बिकने वाली यह डिश अब उत्तर भारत के हर छोटेबड़े शहरों में बिकने लगी है. ऐसे में मोमोज को बेचना एक अच्छा कारोबार हो गया है.

खास बात यह है कि इस को बनाना बेहद आसान है. ऐसे में कहीं भी भीड़भाड़ वाली जगह पर इस का बिजनैस किया जा सकता है.

मोमोज (Momos) एक लाजवाब रैसिपी है, जो स्टीम कर के बनाई जाती है और लाल मिर्च टमाटर की चटनी के साथ सर्व की जाती है. जिन लोगों को तीखा खाना पसंद है, वह इस को अपने ब्रेकफास्ट में शामिल कर सकते हैं. मोमोज (Momos) को बिना तेल डाले स्टीम से पकाया जाता है.

मोमोज (Momos) एक नेपाली, तिब्बती, भूटानी और भारतीय रैसिपी है, जिसे अब भारत में सब से ज्यादा पसंद और चाव के साथ खाया जाता है.

मोमोज (Momos) बनाने के लिए सब्जियों का इस्तेमाल अपनी पसंद के मुताबिक कर सकते हैं. मोमोज (Momos) बनाने के लिए आटे में हलका नमक होना चाहिए, क्योंकि मिक्सचर के अलावा चटनी में भी नमक डालते हैं और अगर आटे में नमक ज्यादा हो जाएगा तो मोमोज (Momos) खाने में अच्छा नहीं लगेगा. इसलिए मोमोज (Momos) बनाने के लिए आटे और मिक्सचर में नमक का प्रयोग अपने स्वाद के अनुसार ही करें.

मोमोज (Momos) बनाने के लिए सब्जियों को बारीक काटना है, ताकि यह मोमोज (Momos) में आसानी से भर जाए और स्टीम करते वक्त फटे नहीं. साथ ही, हलके हाथों से मोमोज (Momos) में चीजें भर कर हलके पानी लगे हाथों से बंद करना चाहिए.

मोमोज (Momos)  की एक प्लेट में 4 से 6 मोमोज होते हैं. इस की कीमत 20 रुपए से 120 रुपए प्रति प्लेट तक हो सकती है. मोमोज (Momos) को तैयार करने में सीजनल सब्जी का प्रयोग किया जाता है. जो सस्ती मिलती हैं. ऐसे में इस की लागत कम और बेचने वाले का मुनाफा बढ़ जाता है.

लौकी (Bottle Gourd) की खेती और फसल की सुरक्षा

लौकी बेल वाली फसल है और किसान इस की खेती कर के अच्छाखासा मुनाफा कमाते हैं. साथ ही यह सेहत के लिए भी काफी फायदेमंद मानी जाती है. यह कम समय में तैयार होने वाली फसल है.

खेत की तैयारी : लौकी की फसल वैसे तो हर तरह की जमीन में हो जाती है, लेकिन सही जल निकास वाली जीवांश से भरपूर दोमट मिट्टी इस की खेती के लिए फायदेमंद है. इस के लिए जमीन का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए.

खेत की तैयारी के लिए सब  पहले हरी खाद डालनी चाहिए. इस के लिए 1 एकड़ जमीन में 2 किलोग्राम सतई, 4 किलोग्राम मूंग या दलहन, 1 किलोग्राम तिलहन और 2 किलोग्राम ढेंचा बीज ले कर बोआई करें. जैसे ही यह फसल 45 दिन की हो जाए, तभी हैरो से जुताई कर 1000 लिटर बायोगैस स्लरी या संजीवक खाद डालें और एक हफ्ते बाद मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर इसे खुला छोड़ दें.

इस के एक हफ्ते बाद 3 से 4 बार देशी हल से जुताई कर खेत में पाटा लगा कर समतल कर लें. उस के बाद 10-10 फुट पर 1 फुट गहरी और 2 फुट चौड़ी नालियां बना कर 3-3 फुट के अंतर पर थावले (थाले) बना कर हर थावले में 1 किलोग्राम वर्मी कंपोस्ट खाद या गोबर की सड़ी खाद और 200 ग्राम राख मिला कर थाला ढक दें. उस के बाद नालियों में सिंचाई के 5-6 दिन बाद लौकी के बीजों को बोएं. बोआई के दौरान हरेक थाले में 4 से 6 बीज बोएं.

खेती के लिए सही

समय : लौकी की खेती के लिए गरम और आर्द्र वातावरण काफी अच्छा रहता है, जबकि ज्यादा बारिश और बादलों से भरा आसमान इस की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. बिना पाले वाली जलवायु में लौकी की पैदावार काफी अच्छी होती है. इसलिए लौकी की खेती के लिए उत्तरमध्य भारत में फरवरी से जून का समय काफी मुफीद रहता है.

लौकी की अच्छी किस्में

पूसा समर लौंग : यह किस्म गरमियों और बरसात दोनों ही मौसम में अच्छी उपज देती है. इस की बेल में फल ज्यादा लगते हैं और 40 से 50 सैंटीमीटर तक लंबे होते हैं. इस की उपज 70 से 75 क्विंटल प्रति एकड़ तक हो जाती है.

पंजाब लौंग : यह किस्म काफी उपयोगी और अच्छी उपज देती है. इस के फल लंबे, हरे और कोमल होते हैं. बरसात में इसे लगाना ज्यादा अच्छा रहता है. इस की उपज 80 से 85 क्विंटल प्रति एकड़ होती है.

पंजाब कोमल : लौकी की यह अगेती मध्यम आकार की लंबे फल वाली अंगूरी रंग की किस्म है. इस के फल काफी समय तक ताजा रहते हैं और इस की उपज 150 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है.

पूसा नवीन : यह वसंत के मौसम की सब से अच्छी किस्म है. इस के फल दूसरी किस्मों की तुलना में जल्दी तैयार होते हैं. इस के फल छोटे, लंबे, बेलनाकार और मध्यम मोटाई के हरे रंग के होते हैं. फल का वजन 800 ग्राम के आसपास होता है.

कोयंबटूर: दक्षिण भारत की यह सब से अच्छी किस्म है. क्षारीय मिट्टी में यह अच्छी उपज देती है. इस की उपज 70 क्विंटल प्रति एकड़ है.

आजाद नूतन : यह प्रजाति काफी लोकप्रिय है, क्योंकि यह बीज की बोआई के 60 दिन बाद फल देना शुरू कर देती है. इस के फल 1 किलोग्राम वजनी होते हैं और उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति एकड़ मिलती है.

सिंचाई और निराईगुड़ाई : लौकी की खेती के लिए सिंचाई काफी खास है. इस में पानी पूरे खेत में न दे कर केवल थाले में ही दें, ताकि फंगस कम नुकसान पहुंचा सकें.

वैसे तो गरमी के मौसम में 4 से 5 दिन में सिंचाई करनी चाहिए. सिंचाई के एक दिन बाद 200 ग्राम राख में 5 ग्राम हींग खेत में डालने से पौधे की बेल स्वस्थ रहती है और फल भी समय से पहले नहीं टूटते.

लौकी की फसल गरमी और बरसात की होने से इस में खरपतवार ज्यादा उगते हैं. समयसमय पर इन्हें खेत से निकालना चाहिए. साथ ही, समय पर जरूरत के मुताबिक निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए.

कुदरती खाद का इस्तेमाल : लौकी की फसल में बीज बोने के 3 हफ्ते बाद जब पौध में 3-4 पत्ते निकलने लगते हैं, तब 2000 लिटर बायोगैस स्लरी या संजीवक खाद या फिर 10 किलोग्राम गोबर से बनी खाद प्रति एकड़ के हिसाब से इस्तेमाल करनी चाहिए. जब पौधों में फूल निकलने लगें तब दूसरी बार 1000 लिटर बायोगैस स्लरी या 1000 लिटर संजीवक खाद या फिर 20 किलोग्राम गोबर की खाद प्रति एकड़ की दर से डालें.

तीसरी बार इस खाद को पहली बार लौकी की तुड़ाई के बाद देने से अच्छी उपज हासिल होती है.

लौकी की खेती में कुदरती कीटरक्षक का समय पर छिड़काव करने से फसल पूरी तरह रोगमुक्त रहती है और अच्छी उपज हासिल होती है. लौकी की फसल पर लगने वाले कुछ खास रोगों का कुदरती निदान इस तरह करते हैं.

रैड बीटल : यह एक हानिकारक कीट है जो लौकी के पौधे की शुरुआती बढ़ोतरी के दौरान लगता है और पत्तियों को खाता है. इस वजह से पौधों की सही तरीके से बढ़वार नहीं हो पाती है. रैड बीटल की यह सूंड़ी काफी खतरनाक होती है. यह जमीन के भीतर पौधों की जड़ों को काट कर उन्हें नुकसान पहुंचाती है.

रोकथाम : रैड बीटल से लौकी की फसल को बचाने के लिए पतंजलि निंबादि कीटरक्षक काफी असरकारक है. 5 लिटर कीटरक्षक को 40 लिटर पानी में मिला कर हफ्ते में 2 बार छिड़काव करें. छिड़काव के बाद नीम की लकड़ी की राख छिड़कने से अच्छी पैदावार हासिल होती है.

फ्रूट फ्लाई : यह मक्खी लौकी की फसल में घुस कर अंडे देती है. इन अंडों से सूंड़ी निकलती है, जो फलों को नुकसान पहुंचाती है. इस से किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है.

रोकथाम : फ्रूट फ्लाई से फसल को बचाव के लिए जब लौकी की फसल पर फूल निकलने शुरू होते हैं, उस समय पतंजलि बायो रिसर्च इंस्टीट्यूट के ‘अभिमन्यु’ 100 मिलीलिटर को 3 लिटर खट्टी छाछ में 150 ग्राम कौपर सल्फेट पाउडर के साथ 40 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. यह छिड़काव हर हफ्ते करना जरूरी है.

पाउडरी मिल्ड्यू : यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक कवक के चलते होता है. इस फंगस की वजह से लौकी की बेल और पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल जैसा फैल जाता है, जो बाद में कत्थई रंग में तबदील हो जाता है. इस में पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं.

रोकथाम : इस रोग से बचाव के लिए 5 लिटर खट्टी छाछ में 2 लिटर गोमूत्र और 30 लिटर पानी मिला कर 4 दिन के अंतर पर छिड़काव करें. इस रोग से होने वाले नुकसान से फसल बच जाती है.

लौकी का एंथ्रेक्नोज : लौकी की फसल में एंथ्रेक्नोज रोग क्लेटोटाइकम नामक फंगस के कवक के कारण होता है. इस रोग की वजह से पत्तियों पर लालकाले धब्बे बन जाते हैं. इस की वजह से पौधा सेहतमंद नहीं रह पाता है.

रोकथाम : 5 लिटर गोमूत्र में 2 किलोग्राम अमरूद या आड़ू के पत्ते उबाल कर ठंडा कर छानें, उस में 30 लिटर पानी मिला कर 3-3 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.

लौकी की तोड़ाई: लौकी के फलों की तोड़ाई कोमल अवस्था में ही करनी चाहिए. कठोर फलों से सब्जी अच्छी नहीं बनती और बाजार में इस की कीमत भी सही नहीं मिलती.

बीजरहित नीबू (Seedless Lemon) की खेती

गरमियों में नींबू की शिकंजी की मांग खूब रहती है. नींबू एक ऐसा फल है, जो काफी खट्टा होता है, लेकिन आप की सेहत के लिए फायदेमंद भी होता है. अभी तक आप बाजार से जो नीबू खरीदते हैं, उन में बीज जरूर रहते होंगे. आज हम आप को ऐसे नींबू के बारे में बताने जा रहे हैं, जो बीजरहित होता है.

सुन कर आप को ताज्जुब जरूर हुआ होगा, लेकिन यह बात वाकई सच है. बीजरहित नींबू को फारसी में ‘ताहिती नीबू’ के नाम से भी जाना जाता है. इस का वानस्पतिक नाम साइट्रस लैटिफोलिया है, जो कि रुटेसी परिवार से संबंध रखता है.

बीजरहित नीबू संकर मूल का होता है. इस जाति के पौधे मध्यम आकार के होते हैं, जिन में कांटे नाममात्र के ही रहते हैं. यह पौधा काफी फैला हुआ होता है. इस की शाखाएं झालरदार होती हैं, जिस वजह से यह एकदम घना दिखता है.

‘ताहिती नीबू’ के पौधे ज्यादा बड़े नहीं होते हैं. इन के फूल हलके बैगनी रंग के साथ सफेद रंग लिए होते हैं. फल अंडाकार या आयताकार होते हैं, जो 1.5 से 2.5 इंच चौड़े और 2 से 3 इंच लंबे होते हैं. आमतौर पर इस किस्म के फलों में बहुत कम बीज होता है या बिलकुल भी नहीं रहता है, इसीलिए इसे बीजरहित नीबू का नाम दिया गया है.

आमतौर पर इस किस्म के नीबू को तभी तोड़ कर बेचा जाता है, जब हरा रहता है. लेकिन जब फल पूरी तरह से पक जाते हैं, तब वह पीलापन लिए हुए हरा या फिर बिलकुल पीले रंग के हो जाते हैं. इस के फल का गूदा रसदार होने के साथ ही साथ मनभावन खुशबू लिए रहते हैं. फलों की खुशबू मसालेदार और इस का जायका तीखा होता है. यही वजह है कि इस किस्म का नीबू लोगों को काफी पसंद आता है.

बीजरहित नीबू की सब से बड़ी खूबी यह है कि किसानों को इस की खेती से दूसरे किस्म के नीबू की खेती से ज्यादा लाभ होता है, क्योंकि दूसरे नीबू की तुलना में कई तरह के फायदे हैं, जैसे बड़ा आकार, कम बीज या बीजरहित, प्रतिकूल वातावरण में रहने की कूवत, झाडि़यों पर कांटों का न होना और लंबे समय तक फलों को स्टोर करना. कुल मिला कर ये सारी खूबियां बीजरहित नीबू के पौधों को खेती करने के लिए किसानों को अपनी तरफ लुभाती है.

बीजरहित नींबू को पहली बार दक्षिणी इराक और ईरान में कारोबार करने के लए उगाया गया था. इराक और ईरान से इस का सफर शुरू हो कर कई मुल्कों में अपना सिक्का जमा चुका है. इस की पैदावार मैक्सिको में काफी होती है, जहां से अमेरिकन बाजार, यूरोपीय बाजार और एशियाई बाजारों में बीजरहित नीबू भेजा जाता है. मैक्सिको इस का प्राथमिक उत्पादक और निर्यातक देश बना हुआ है.

सेहत के लिहाज से अहम

यह रूसी का इलाज करने के लिए काफी अच्छी तरह से जाना जाता है, जो विटामिन सी की कमी के चलते अकसर लोगों में हो जाती है. इस के अलावा रूखी त्वचा का सफाया कर के चमकदार बनाता है और इसे संक्रमण से बचाता है. इस के अंदर मौजूद अम्ल त्वचा की मृत कोशिकाओं को साफ करते हैं. रूसी, चकत्ते और घावों का इलाज करते हैं.

इस की एक अनूठी सुगंध है जो खाना पचाने में सहायक होती है. घुलनशील फाइबर होने की वजह से यह खाना पचाने में मददगार है. इस से शुगर कंट्रोल करने में मदद मिलती है. यह दिल के मरीजों के लिए भी मुफीद रहता है.

जलवायु की जानकारी

इस की फसल के लिए गहरी और उचित जलनिकास वाली बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है. बीजरहित नीबू की खेती तीनों ही मौसम में आसानी से की जा सकती है. खेती के लिए अधिकतम तापमान 25-30 डिगरी सैल्सियस होना बेहतर रहता है.

अगर मौसम का तापमान 13 डिगरी सैल्सियस से नीचे या 38 डिगरी सैल्सियस से ऊपर है, तब पौधों की बढ़वार रुक जाती है, जिस से उत्पादन पर नकारात्मक असर पड़ता है.

बीजरहित नीबू को ऐसे रोपें

पेड़ों को 16 इंच यानी तकरीबन 40.5 सैंटीमीटर गहरे कटे हुए खाइयों के चौराहे पर या पिसा चूना पत्थर और मिट्टी के ढेर पर लगाया जाता है. पेड़ लगाते समय नमी वाली जगहों से बचें. बाढ़ या पानी जहां जमा होता है, उस जगह से बचें, क्योंकि पेड़ जड़सड़न बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं.

पेड़ों के बीच का अंतराल 20 फुट यानी 6 मीटर की अलगअलग पंक्तियों में 10 या 15 यानी तकरीबन फुट 3 से 4.5 मीटर के करीब हो सकती है, जिस से प्रति एकड़ में 150-200 पेड़ आसानी से लगाए जा सकें. पेड़ों के बीच ज्यादा दूरी भी ठीक नहीं रहती, क्योंकि इस से उत्पादन पर असर पड़ता है.

कटाईछंटाई का हो प्रबंधन

जब पेड़ ज्यादा बड़े हो जाते हैं तो उन्हें मशीन या आरी की मदद से बड़ी शाखाओं को काटना जरूरी हो जाता है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो पौधे ज्यादा बड़े हो जाते हैं. इस वजह से उन में लगने वाले रोगों की देखभाल करने में किसानों को परेशानी उठानी पड़ती है. इस के लिए किसानों को चाहिए कि वह 2-3 साल के अंतराल पर कटाई और छंटाई करें. पेड़ों को 20 फुट यानी 6 मीटर की दूरी पर लगाने से अधिक पैदावार मिल सकती है.

समयसमय पर करें सिंचाई

रोपते समय नए पेड़ों में पानी देना चाहिए और पहले हफ्ते में हर दूसरेतीसरे दिन और फिर पहले कुछ महीनों बाद सप्ताह में 1 या 2 बार सिंचाई करनी चाहिए.

शुरुआत में सिंचाई का खास ध्यान रखना चाहिए, वरना पौधों की बढ़वार रुक जाती है. नए लगाए गए पेड़ों में पहले 3 साल तक हफ्ते में 2 बार अच्छी तरह से सिंचाई करनी चाहिए. बागों में जमीन के ऊपर छिड़काव कर के सिंचाई की जाती है. इस विधि से सिंचाई करने में ज्यादा खर्च नहीं आता और बाग में नमी भी बनी रहती है.

उर्वरक का इस्तेमाल

पहले साल के दौरान हर 2 से 3 महीनों के अंतराल पर में नए पेड़ों में उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए. 114 ग्राम उर्वरक के साथ शुरुआत कर के प्रति पौधा 455 ग्राम तक बढ़ाना चाहिए. इस के बाद पौधों के बढ़ते आकार के अनुपात में हर साल वर्ष 3 या 4 बार उर्वरक के इस्तेमाल करने में बढ़ोतरी सही होती है, लेकिन हर साल प्रति पौधा उर्वरक 5.4 किलोगाम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

उर्वरक मिश्रण में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा 6-10 फीसदी और मैग्नीशियम 4-6 फीसदी रहने से युवा पेड़ों में अच्छे नतीजे मिलते हैं. जिन पेड़ों में फल लगे हों, उन के लए पोटाश को 9-15 फीसदी तक बढ़ाया जाना चाहिए और फास्फोरस को 2-4 फीसदी तक कम किया जाना चाहिए.

घासपात से ढकना

यह प्रक्रिया मिट्टी की नमी को बरकरार रखने में मदद करती है. पेड़ के नीचे जंगली घास की समस्याओं को कम करने देता है और सतह के पास मिट्टी में सुधार में मदद करता है. छाल या लकड़ी के टुकड़े की 2-6 इंच यानी 5-15 सैंटीमीटर परत के साथ पेड़ों की सतह को ढका जा सकता है. इस आवरण को पेड़ के तने से 8-12 इंच यानी 20-30 सैंटीमीटर दूर प्रयोग करना चाहिए, वरना पेड़ का तना सड़ सकता है.

फलों का उत्पादन

इस के पेड़ में फूल फरवरी से अप्रैल माह तक बहुत गरम इलाकों में, कभीकभी सालभर में 5 से 10 फूलों के समूहों में खिलते हैं और फल उत्पादन 90-120 दिन की अवधि के भीतर होते हैं.

फल लगते समय गिबेलिलिक एसिड (10 पीपीएम) के छिड़काव से फलों के आकार अच्छे होते हैं और गूदेदार भी रहते हैं. नए पौधे, जो पहले साल के होते हैं, उन में रोपण के बाद पहले साल 3.6-4.5 किलोग्राम और दूसरे साल 4.5-9.1 किलोग्राम का फल उत्पादन कर सकते हैं.

अच्छी तरह से देखभाल किया गया पेड़ सालाना 9.1-13.6 किलोग्राम तक फल 3 साल में दे सकता है, जो कि 4 साल में 27.2-40.8 किलोग्राम, 5 साल में 49-81.6 किलोग्राम और 6 साल में 90.6-113.4 किलोग्राम दे सकता है.

नीबू के कीट और रोग

नीबू फसल में भी कई तरह के रोग लगते हैं, जिन की देखभाल जरूरी है, वरना फसल खराब हो सकती है और उत्पादन में कमी आ जाती है.

बीजरहित नीबू (Seedless Lemon)

बीजरहित नीबू में निम्न प्रकार के रोग लगते हैं:

डायफोरिना साइट्री

यह पत्तियों और युवा तने पर हमला करता है और पेड़ को गंभीर रूप से कमजोर कर देता है. यह जीवाणु रोग को फैलाता है, जिसे पीला तना रोग के नाम से जाना जाता है. नीबू के पेड़ों के लिए घातक है.

फाइलोकनिस्टिस साइट्रला

इस कीड़े के बच्चे आमतौर पर पत्ती की ऊपरी सतह पर हमला करते हैं. इस वजह से संक्रमित पत्तियां खराब होने लगती हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है. उत्पादन भी कम होता है.

घुन का हमला

आमतौर पर साइट्रस लाल घुन पत्ती की ऊपरी सतह पर हमला करता है, नतीजतन, वहां पर भूरा, परिगलित क्षेत्र बन जाते हैं. अधिक हमला होने पर पत्ते गिरना शुरू हो जाते हैं. जंग घुन और चौड़ा घुन पत्तियों, फल और तने पर हमला कर सकते हैं. इन कीड़ों से फल का छिलका भूरे रंग का हो जाता है. अधिक प्रकोप की दशा में पत्ते पर सल्फर के छिड़काव से कीड़ों को नियंत्रण किया जा सकता है.

लाल शैवाल कीट से बचें

यह कीड़ा छाल विभाजन और शाखाओं के मरने का कारण बनता है. यह सेफालेउरास विरेसेंस के कारण होता है. मध्य गरमी से बाद की गरमियों तक 1-2 तांबा आधारित कैमिकल का छिड़काव द्वारा शैवाल का नियंत्रण किया जा सकता है.

कोलेटट्रिचम एकुटाटम

इस बीमारी की उपस्थिति सब से ज्यादा बरसात के मौसम में प्रचलित है. इस रोग के शुरुआती लक्षणों में भूरे रंग से, फूलों की पंखुड़ी पर पानी के लथपथ घाव शामिल हैं. उस के बाद पंखुडि़यां नारंगी रंग में बदल जाती हैं और सूख जाती हैं.

प्रमुख कीट रोग

नीबू का तेला : नीबू जाति के पौधों को नीबू का तेला रस चूस कर मार्चअप्रैल माह और बारिश के मौसम के बाद नुकसान पहुंचाता है.

लीफ माइनर: पत्तियों की दोनों सतहों पर चांदी की तरह चमकीली और टेढ़ीमेढ़ी सुरंग बनाती है.

सफेदमक्खी: मार्च से सितंबर माह तक सक्रिय रहने वाला यह कीट भी पत्तियों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है.

रोकथाम : नीबू का तेला व लीफ माइनर के नियंत्रण के लिए अप्रैल माह में 750 मिलीलिटर मैटासिस्टाक्स 25 ईसी या 625 मिलीलिटर रोगोर 30 ईसी या 500 मिलीलिटर मोनोक्रोटोफास 36 एसएल को 500 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ की दर से छिड़कें.

नीबू की तुड़ाई

फल पकने पर एकएक फल को हाथ से तोड़ा जाता है, लेकिन एक टमटम भी इस्तेमाल किया जा सकता है. सालाना तकरीबन 8-12 बार फल की तुड़ाई होती है. इस का सटीक समय जुलाई से सितंबर माह तक है. 70 फीसदी फसलें मई में तैयार होती हैं. तकरीबन 40 फीसदी फसलों का इस्तेमाल केवल रस के गाढ़ा बनाने के लिए किया जाता है. अपरिपक्व फल रस का उत्पादन नहीं करता है, इसलिए इसे उस समय नहीं तोड़ा जाना चाहिए. बेहतर परिणाम के लिए तभी तोड़ें जब फल एकदम पक जाएं.

फलों की पैदावार

पौधों में सालभर फूल और फल लगते हैं, पर गरमियों के अंत की ओर एक विशिष्ट फलने का उच्चतम स्तर दिखाई देता है. 41 किलोग्राम फलों की पैदावार 2 मीटर लंबे पेड़ों से हासिल की गई है, जबकि साइट्रस जंभूरी पर कलम बांधने से बराबर आकार के पेड़ों में 21 किलोग्राम की पैदावार होती है.

फल का भंडारण

फलों में किसी उपचार की जरूरत नहीं होती है. ताजा फल 6 से 8 हफ्ते के लिए अच्छी स्थिति में रहते हैं. इसलिए इस के रखरखाव में ज्यादा खर्च नहीं आता, लेकिन इस से ज्यादा दिनों तक स्टोर करने के लिए कोल्डस्टोरेज की जरूरत पड़ती है.