रेन गन से सिंचाई

हमारे यहां खेतीकिसानी करना कोई आसान काम नहीं है. इस के लिए दिनरात खेतों में मेहनत करनी पड़ती है. कैसा भी मौसम हो, किसान के कामों में रुकावट नहीं आ सकती, क्योंकि हर मौसम में खेतों में खाद, पानी, कीटनाशक और खरपतवारों की निराईगुड़ाई करनी पड़ती है.

सर्दियों में कड़ाके की ठंड में दिन हो या रात, किसान सिंचाई के लिए खेतों में जाते हैं. कभीकभी तो किसानों की सर्दी लगने से मौत भी हो जाती है,क्योंकि सिंचाई करने के लिए उन्हें खेतों में घुसना पड़ता है और वे ठंड की चपेट में आ जाते हैं.

रेन गन तरीके से सिंचाई करने में कम पानी लगता है और किसानों की मेहनत कम लगती है. साथ ही, उन की आमदनी में भी इजाफा होता है.

नई तकनीक के जमाने में किसानों की राह आसान करते हुए माहिरों ने रेन गन ईजाद की है. इस से किसानों को यह फायदा होगा कि वे खेतों में घुसे बिना बाहर से ही रेन गन के जरीए सिंचाई कर देंगे, जबकि अभी तक उन को अपनी जान जोखिम में डाल कर सिंचाई करनी पड़ती थी.

एक फायदा और होगा कि खेतों में बहुत ज्यादा पानी भरने की जरूरत नहीं होगी, बल्कि कम पानी में ही खेतों की सिंचाई हो जाएगी.

नई तकनीक से किसानों को खेतों में सिंचाई करना पहले के मुकाबले में अब आसान हो गया है. उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले में फसलों की सिंचाई के लिए किसानों ने रेन गन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.

सरकार किसानों की माली हालत देखते हुए इस में सब्सिडी भी दे रही है. जिले के कई किसानों को इस का फायदा दिया जा चुका है. संबंधित महकमे का टारगेट ज्यादा से ज्यादा किसानों तक इस तकनीक को पहुंचाना है, ताकि सुविधा के साथ ही पानी की भी बचत की जा सके.

देश के किसानों की समस्या यह है कि उन्हें जो भी स्कीम सरकार की तरफ से मिलती है, उस का ज्यादातर फायदा बड़े किसान ही उठाते हैं. छोटे किसानों को सरकार को दिखाने के लिए नाममात्र का फायदा दिया जाता है.

किसानों को रेन गन प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत दी जा रही है. इस स्कीम में किसानों को 3 इंच मोटे 20 फुट के 25 पाइप, 5 फुट का स्टैंड और रेन गन दी जाती है. इस की लागत 46,880 रुपए है.

किसानों को सब्सिडी में महज 11 हजार रुपए ही दिए जा रहे हैं. किसानों को यह फायदा डीबीटी योजना के तहत मिलता है.

rain gun irrigation

कृषि माहिरों का कहना है कि रेन गन से 25-30 मीटर तक सिंचाई की जा सकती है. यह चारों तरफ सिंचाई करती है. यदि किसान सिर्फ एक तरफ ही सिंचाई करना चाहें तो एक तरफ ही रेन गन लगाई जा सकती है.

उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में पानी का जमीनी लैवल काफी नीचे जा चुका है और कलक्ट्रेट ने ऐसे इलाकों में सबमर्सिबल बोर करवाने में रोक लगा रखी है.

इस फैसले से किसानों को नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन इस नए तरीके से उन के नुकसान की भरपाई की जा सकती है.

मक्का और गन्ने के लिए ज्यादा फायदेमंद : रेन गन मक्का और गन्ने की फसल के लिए काफी अच्छी है. इस का इस्तेमाल शुरुआती दौर में बागबानी में भी किया जा सकता है, खासकर पौधे जब छोटे हों.

5 फुट के पाइप को बीच में लगा कर चारों ओर बारिश कराई जा सकती है. इस तरीके से तकरीबन 1 एकड़ क्षेत्रफल में फायदा होगा.

मक्का और गन्ने की फसल के लिए रेन गन काफी कारगर साबित हो रही है. वजह यह है कि मक्का हो या गन्ना, इस के पौधे काफी बड़े और ऊंचे होते हैं. इस वजह से खेतों के अंदर जा कर सिंचाई करने में काफी परेशानी होती है. लेकिन इस के इस्तेमाल से बाहर से ही बड़े क्षेत्रफल में पानी की बारिश की जा सकती है.

सर्दियों के मौसम में आलू की फसल में हलकी सिंचाई की जरूरत पड़ती है. अभी तक किसानों की मुश्किल यह थी कि सिंचाई के नाम पर खेतों में खूब पानी भर दिया जाता था. इस से पानी की खपत भी ज्यादा होती थी और किसानों का खर्च भी ज्यादा होता था. आलू के खेतों में रेन गन से बारिश कराई जा सकती है और जो नमी बचती है, उसी में जुताई भी की जा सकती है. इस से पानी की तकरीबन 60 फीसदी बचत होती है और किसानों का खर्च भी कम होता है.

कुछ फसलें खेत में ज्यादा पानी भरने से खराब हो जाती हैं और पौधे कभीकभी सड़ भी जाते हैं, लेकिन रेन गन जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल की जा सकती है. इस में कम पानी की जरूरत होती है और फसल भी खराब नहीं होती.

इस नई तकनीक से किसानों को काफी फायदा हो सकता है. इसे एक किसान खरीद कर दूसरे किसान को किराए पर भी दे कर अपनी लागत निकाल सकता है. साथ ही, दूसरे किसान भी कम किराया अदा कर ज्यादा फायदा कमा सकते हैं.

मूंग की खेती (Moong Cultivation) जायद में भी

मूंग से कई तरह के मजेदार पकवान अकसर सभी घरों में बनते हैं. इन में मूंग का हलवा सब से खास है. मूंग की दाल से दही बड़ा, लड्डू, खिचड़ी, नमकीन, कचौड़ी, पकौड़े, सलाद, चाट, खीर, सूप और सैंडविच वगैरह बनाए जाते हैं. मूंग सेहत के लिए काफी फायदेमंद है, क्योंकि खाने के बाद यह जल्दी हजम हो जाती है. मूंग की खेती किसानों के लिए काफी लाभदायक है.

मूंग की खेती खासकर भारत में की जाती है. मूंग को अकसर छिलके या बिना छिलके के साथ अंकुरित या उबाल कर खाया जाता है. मूंग का इस्तेमाल सलाद, सूप, सब्जी और दूसरे स्वादिष्ठ पकवान बनाने के लिए किया जाता है.

मूंग से मिले स्टार्च को निकाल कर इस से जैली और नूडल्स बनाए जाते हैं. इन तमाम खूबियों की वजह से मूंग सभी को काफी पसंद आती है.

दलहनी फसलों में मूंग दूसरी दालों से ज्यादा उपयोगी है. यदि पेट में दर्द या दस्त हो रहे हों तो डाक्टर मरीज को मूंग की खिचड़ी खाने की सलाह देता है. इस में प्रोटीन भरपूर पाया जाता है, जोकि सेहत के लिए काफी खास है.

मूंग में 25 फीसदी प्रोटीन, 60 फीसदी कार्बोहाइड्रेट, 13 फीसदी वसा और कुछ मात्रा में विटामिन ‘सी’ पाया जाता है. मूंग की खासीयत यह है कि इस में वसा काफी कम है, लेकिन विटामिन ‘बी’ कौंप्लैक्स, कैल्शियम और पोटैशियम भरपूर होता है.

वातावरण और जमीन

मूंग की खेती खरीफ और जायद दोनों ही मौसमों में आसानी से की जा सकती है. इस की फसल को पकते समय शुष्क जलवायु की जरूरत पड़ती है.

मूंग की खेती के लिए अच्छी जलनिकासी की व्यवस्था होना काफी जरूरी है, साथ ही दोमट और बलुई दोमट जमीन इस की पैदावार के लिए काफी अच्छी मानी जाती है, जिस का पीएच मान 7-8 हो.

जिन खेतों में दीमक का अंदेशा हो, उन की सुरक्षा के लिए एल्ड्रिन 5 फीसदी चूर्ण 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से आखिरी जुताई से पहले खेत में बिखेर दें और उस के बाद जुताई कर उसे मिट्टी में मिला दें. मूंग की फसल में सिंचाई की जरूरत कम पड़ती है, लेकिन जायद की फसल में ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

खेत की पहली जुताई हैरो या मिट्टी पलटने वाले रिजर हल से करनी चाहिए. इस के बाद 2 से 3 जुताई कल्टीवेटर से कर के खेत की मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरा बना लें. जब आखिरी जुताई करनी हो तब लेवलर लगाना काफी जरूरी होता है, ताकि खेत में नमी ज्यादा समय तक बरकरार रह सके.

पहले किसान परंपरागत तरीके से खेतों की जुताई करते थे, लेकिन अब आधुनिक तकनीक आने से ट्रैक्टर, पावर टिलर और रोटावेटर जैसे यंत्रों से खेतों की तैयारी काफी जल्द हो जाती है.

बीज की मात्रा और बीजोपचार : खरीफ के मौसम में मूंग का बीज जायद की फसल के मुकाबले काफी कम लगता है. इस मौसम में 6 से 8 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत पड़ती है जबकि जायद की फसल में बीज की मात्रा 10-12 किलोग्राम प्रति एकड़ होनी चाहिए. 1 ग्राम कार्बंडाजिम, 2 से 3 ग्राम थायरम, फफूंदनाशक दवा से प्रति किलोग्राम बीज में मिला कर बोआई करने से बीज और जमीन की बीमारियों से फसल की सुरक्षा होती है. इस के बाद बीज को रायजोबियम कल्चर से उपचारित करें,

5 ग्राम रायजोबियम कल्चर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें और बीज को छाया में सुखा कर जल्दी बोआई करनी चाहिए. इस के उपचार से राइजोबियम की गांठें ज्यादा बनती हैं और अच्छी फसल होती है.

बोने का समय और तरीका

खरीफ और जायद दोनों फसलों में अलगअलग बोआई की जाती है. खरीफ के मौसम में जुलाई के आखिरी हफ्ते से अगस्त के तीसरे हफ्ते तक बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 30 से 35 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और जायद में 10 मार्च से 10 अप्रैल तक बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 25 से 30 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज की बोआई कूंड़ में 4 से 5 सैंटीमीटर की गहराई में करनी चाहिए, ताकि गरमी में जमाव अच्छा हो सके. जायद में या गरमी की फसल में बोआई के बाद लेवलर से खेत बराबर करना काफी जरूरी है, जिस से कि खेत की नमी न रहे.

खाद डालने का तरीका

किसानों की मुख्य समस्या यह है कि वह बिना मिट्टी जांच के अपने खेतों में ज्यादा पैदावार के लिए काफी ज्यादा उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से उन की लागत बढ़ जाती है और खेतों की पैदावार आने वाले साल में घटने लगती है.

अनुमान के मुताबिक, 10 से 15 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर में इस्तेमाल करना चाहिए.

यदि किसान फसल की पैदावार ज्यादा लेना चाहते हैं तो इन्हें बोआई के समय कूंड़ों में बीज से 2 से 3 सैंटीमीटर नीचे देना चाहिए, जिस से अच्छी पैदावार हो.

मूंग की खेती (Moong Cultivation)

मूंग की प्रजातियां

मूंग में खासतौर पर 2 तरह की उन्नतशील प्रजातियां पाई जाती हैं. खरीफ की फसल में बोआई के लिए टाइप 44, पंत मूंग 1, पंत मूंग 2, पंत मूंग 3, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय ज्योति, मालवीय जनचेतना, मालवीय जनप्रिया, सम्राट, मालवीय जाग्रति, मेहा, आशा और मालवीय जनकल्याणी ये सभी किस्में खरीफ की फसल के लिए हैं.

इसी तरह जायद की फसल के लिए पंत मूंग 2, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय जाग्रति, सम्राट मूंग, जनप्रिया, मेहा, मालवीय ज्योति प्रजातियां काफी लाभकारी हैं.

कुछ प्रजातियां ऐसी हैं जो खरीफ और जायद दोनों में बोई जाती हैं और उन की पैदावार भी अच्छी होती है, जैसे कि पंत मूंग 2, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय ज्योति, सम्राट, मेहा, मालवीय जाग्रति.

किसानों को इस बात का खासा ध्यान रखना चाहिए कि मूंग की खेती करते समय वह अपने राज्यों के हिसाब से मूंग की प्रजाति का चुनाव करें, जिस से ज्यादा उत्पादन हो सके.

सिंचाई : खरीफ की फसल में सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन जब फूल आ जाएं और सूखने लगें, ऐसी हालत में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है. खरीफ की फसल में बारिश कम होने पर फलियां बनते समय सिंचाई की जरूरत पड़ती है और जायद की फसल में पहली सिंचाई बोआई के 30 से 35 दिन बाद और बाद में हर 10 से 15 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए, जिस से अच्छी पैदावार मिल सके.

निराईगुड़ाई : पहली सिंचाई के 30 से 35 दिन बाद निराईगुड़ाई करनी चाहिए. इस से खरपतवार नष्ट होने के साथसाथ हवा भी बहती है, जिस से फसल की बढ़ोतरी तेजी से होती है.

खरपतवार की रोकथाम के लिए किसान पेंडीमेथिलीन 30 ईसी की 3.3 लिटर या एलाकोलोर 50 ईसी 3 लिटर को 600 से 700 लिटर पानी में घोल कर बोआई 2 से 3 दिन के भीतर जमाव से पहले प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. ऐसा करने से खेतों में खरपतवार का जमाव नहीं होता.

पौध का रखरखाव : हर फसल में कोई न कोई बीमारी जरूर लगती है, चाहे खरीफ की फसल हो या फिर रबी और जायद की. कीटों के प्रकोप से बचने के लिए किसान समयसमय पर कई तरह की कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिस से फसल की सुरक्षा की जा सके.

मूंग में पीला चित्रवर्ण मोजैक रोग लगता है. इस के विषाणु सफेद मक्खी के जरीए फैलते हैं. इस की रोकथाम के लिए समय पर बोआई करना काफी जरूरी है, दूसरा मोजेक अवरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल बोआई में करना चाहिए. तीसरा, मोजेक रोग वाले पौधे को सावधानी से उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

मूंग की फसल में थ्रिप्स हरे फुदके वाला कीट और फलीछेदक कीट लगता है. इन से बचने के लिए किसानों को क्विनालफास 25 ईसी 1.25 लिटर मात्रा 600 से 800 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए, जिस से कीटों का असर न हो और फसल बरबाद न हो.

फसल की शुरुआती अवस्था में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहू, जैसिड, थ्रिप्स आदि का हमला होता है. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी 400 से 500 मिलीलिटर क्विनालफास 25 ईसी 600 मिलीलिटर प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी, 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें. यदि दोबारा जरूरत पड़े तो 15 दिन बाद फिर छिड़काव करें.

जब पौधों में फूल लगने लगते हैं तो फलीछेदक, नीली तितली का ज्यादा असर होता है. क्विनालफास 25 ईसी का 600 मिलीलिटर या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी का 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से इन की रोकथाम हो सकती है.

कई क्षेत्रों में कंबल कीड़े का ज्यादा असर होता है. इस की रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण 2 फीसदी, 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

फसल की कटाईमड़ाई : जब फसल की फलियां पक कर सही तरीके से सूख जाएं, तब खेतों से फसल की कटाई करनी चाहिए. मूंग की फलियां पकने पर काली पड़ने लगती हैं. यदि थोड़ीबहुत नमी रहे तो फसल को खेतों में एकदो दिन के लिए छोड़ दें, ताकि सही तरह से सूख जाए. कटाई करने के बाद खलिहान में अच्छी तरह सुखा कर ही मड़ाई करें. इस के बाद ओसाई कर के बीज और भूसा अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज : यदि मूंग की फसल आधुनिक तकनीक से की जाए और सही वक्त पर फसल की सिंचाई और कीटनाशक दवा का छिड़काव किया जाए तो पैदावार ज्यादा होती है.

चूंकि मूंग की फसल साल में 2 मौसम में की जाती है, तो दोनों की पैदावार में भी थोड़ाबहुत फर्क रहता है. खरीफ की फसल में 4-5 क्विंटल प्रति एकड़ तक पैदावार होती है और जायद की फसल में तकरीबन 4 क्विंटल प्रति एकड़ तक की पैदावार हो जाती है.

भंडारण : किसी भी फसल का भंडारण करने से पहले कुछ सावधानियां बरतनी जरूरी हैं, तभी ज्यादा समय तक बीज सुरक्षित रहेगा, वरना उस में कीड़े पड़ जाते हैं. बीज भंडारण से पहले सही तरीके से सुखा लेना चाहिए. बीज में 8 से 10 फीसदी से ज्यादा नमी नहीं रहनी चाहिए.

मूंग के भंडारण में सूखी नीम की पत्ती का इस्तेमाल करने से कीड़ों से बचाव किया जा सकता है. कुछ किसान कीड़ों से अनाज बचाने के लिए सल्फास का इस्तेमाल करते हैं जो काफी नुकसानदायक है.

सल्फास काफी जहरीला होता है, इस के इस्तेमाल से सेहत पर बुरा असर पड़ता है. इसलिए किसानों को चाहिए कि वह अनाज की सुरक्षा के लिए परंपरागत तरीके अपनाएं, इस में सब से ज्यादा लाभदायक नीम की पत्तियां होती हैं, जिन से सालभर बीज सुरक्षित रहता है और सेहत के लिए किसी तरह का नुकसान भी नहीं होता.

मुनाफे के लिए अपनाएं ये तरीके

सब्जी पैदावार में भारत दुनिया का अव्वल देश है. यहां पर 12 महीने ही तरहतरह की सब्जियां उगाई जाती हैं. सब्जियां देश के तकरीबन सभी राज्यों में उगाई जाती हैं.

सब्जियों की ज्यादा पैदावार से हमें अपने भोजन में पोषक तत्त्व आसानी से मिल हो जाते हैं. एक तरफ ज्यादा पैदावार से जहां आम लोग भी आसानी से सब्जियां खरीद लेते हैं, वहीं ज्यादा पैदावार से कीमत भी काफी कम रहती है. किसान अब नई तकनीक अपना कर सब्जियों की खेती कर के अच्छा मुनाफा कमा लेते हैं.

ज्यादातर भारतीय किसान की दिक्कत यह है कि वे अभी तक परंपरागत तौरतरीकों से ही खेती कर रहे हैं. इसलिए उन्हें मेहनत के बराबर फायदा नहीं मिल पाता, लेकिन यदि किसान वैज्ञानिक तरीके से खेती करें तो उन्हें पहले से ज्यादा मुनाफा मिल सकता है, लेकिन इस के लिए किसानों को लीक से हट कर काम करना होगा. ऐसा करने से सब्जियों की पैदावार तो बढ़ेगी ही, साथ ही उन की फसल की कीमत भी कम हो जाएगी.

हम आप को ऐसा तरीका बता रहे हैं, जिसे अपना कर आप कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं.

यदि किसान जागरूक है तो वह सब्जियों की खेती से ज्यादा फायदा उठा सकते हैं. इस के लिए किसान जनवरी में राजमा, शिमला मिर्च, मूली, पालक, बैगन और कद्दू की खेती कर सकते हैं.

सब्जियों की बोआई के लिए खेत की अच्छी तरह जुताई करें, फिर गीली भुरभुरी मिट्टी की मेंड़ बना कर उस में 4 से 5 इंच की दूरी पर बीज डाल दें. उस के बाद मेंड़ को प्लास्टिक से ढक दें.

इतना करने के बाद कुछ ही दिन में जैसे ही बीज अंकुरित हों, पौधे की जगह पर प्लास्टिक में छेद कर के पौधे को बाहर निकाल दें. पौधे निकालने में किसानों को काफी सावधानी से काम लेना होगा वरना अंकुर टूटने से पौधे खराब हो जाएंगे.

इस तरीके से खेती करने में किसानों को ज्यादा मुनाफा होगा, क्योंकि इस में न तो ज्यादा पानी की जरूरत होती है और न ही ज्यादा लागत आती है.

परंपरागत खेती में जहां कीड़े लगने का खतरा रहता है, वहीं इस तरीके से खेती करने में कीड़े भी नहीं लगते और ज्यादा सिंचाई की भी जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि प्लास्टिक से ढके होने के चलते नमी बरकरार रहती है.

पानी में उर्वरक मिला कर मेंड़ों में डाल दिया जाए तो वह हर पौधे की जड़ में पहुंच जाता है. पौधे के ऊपर पानी टपका कर भी सिंचाई हो जाती है. प्लास्टिक से ढकने के कारण नीचे नमी भी रहती है.

यह नई तरकीब किसानों के लिए काफी कारगर साबित हो रही है. इस के जरीए मेंड़ों पर न तो घास पैदा होती है और न ही कीटपतंग फसल को बरबाद करते हैं.

इस के अलावा प्लास्टिक बिछाने से एक फायदा यह भी होता है कि घास प्लास्टिक के नीचे ही रहती है और पेड़ों तक नहीं पहुंच पाती. पौधों को बीमारी व कीटों से बचाने के लिए आर्गेनिक दवा का छिड़काव काफी आसानी से किया जा सकता है और दवा भी काफी कम मात्रा में लगती है.

यदि किसानों को खेती से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा लेना हो तो वे समयसमय पर नईनई तकनीक अपना कर अपनी पैदावार बढ़ा सकते हैं.

पुदीना (Mint) उगा कर फायदा पाएं ज्यादा

पुदीना मेंथा लेमीएसी कुल का पौधा है. इस की 4 प्रजातियां हैं: जापानी, विलायती, स्पीयर और बारगामांट. यह दुनियाभर के तमाम देशों में उगाया जाता है.

सब से पहले इसे मिस्र में उगाया गया था. भारत में इसे पश्चिमी हिमालय, कश्मीर, पंजाब, कुमाऊं, गढ़वाल में उगाया जाता है. इस की 2 प्रजातियां ज्यादा उगाई जाती हैं, पहली जापानी और दूसरी विलायती.

यहां पर पुदीने की कारोबारी खेती 3 दशकों से की जा रही है. इन प्रजातियों में जापानी पुदीना सब से ज्यादा उगाया जाता है. इसे ब्राजील, जापान, चीन, फरमोसा और भारत के अलावा अब पूर्वी एशिया, विश्व के दूसरे देशों में भी उगाया जाता है.

जापानी पुदीने में 65-75 फीसदी मेंथाल पाया जाता है. इसे विदेशों में भेजा जाता है. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश का जापानी पुदीने के उत्पादन में पहला स्थान है, जबकि दूसरा स्थान राजस्थान का है.

पुदीना से सुगंधित तेल और इस में पाए जाने वाले दूसरे अवयवों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है. इस के अलावा सौंदर्य प्रसाधनों, तमाम तरह की खाने की चीजों, मेंथाल बनाने, टौफी बनाने, पान मसालों को सुगंधित करने, सर्दीजुकाम, खांसी, कमरदर्द के मलहम बनाने, अच्छी क्वालिटी की शराब को सुगंधित करने, गरमी के मौसम में पेय पदार्थ बनाने के लिए दुनियाभर में इस्तेमाल किया जाता है.

जलवायु : इसे अलगअलग तरह की जलवायु में भी उगाया जा सकता है. लेकिन पिपरमैंट की खेती के लिए ठंडी जलवायु अच्छी मानी जाती है.

भारत के तराई वाले इलाकों में इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है. ऐसे इलाकों में खासतौर पर पहाड़ी क्षेत्र में जहां सर्द में पाला और बर्फ पड़ती हो, इस के सफल उत्पादन में रुकावट माने गए हैं. जहां न्यूनतम तापमान 5 डिगरी सैंटीग्रेड और अधिकतम तापमान 40 डिगरी सैंटीग्रेड तक जाता है, वहां पर भी इस की खेती की जा सकती है.

उत्तर प्रदेश में लखनऊ, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, बाराबंकी, सीतापुर, जिले, नैनीताल, देहरादून (उत्तराखंड) में इस की खेती की जाती है. इस के अलावा हरियाणा, पंजाब, बिहार व मध्य प्रदेश की जलवायु भी पुदीना उगाने के लिए काफी अच्छी मानी गई है.

जमीन : इसे अलगअलग तरह की जमीनों में उगाया जा सकता है, लेकिन सही जलनिकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6-7 के बीच हो, अच्छी मानी गई है. ज्यादा अम्लीय या क्षारीय मिट्टी इस के लिए अच्छी मानी गई है. जमीन में जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा में होने चाहिए. अधिक देर तक नमी बनाए रखने वाली जमीन जो कभीकभी सूख भी जाए, इस के लिए अच्छी मानी गई है.

खेत की तैयारी : पुदीने की भरपूर उपज लेने के लिए खेत की तैयारी की खास अहमियत है. इसलिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. उस के बाद 2-3 जुताइयां आरपार करें. हर जुताई के बाद पाटा लगाएं. अगर जमीन में दीमक की संभावना हो तो 25 किलोग्राम लिंडेन डस्ट खेत की तैयारी के समय जरूर डालें.

खाद और उर्वरक : पुदीना की ज्यादा उपज लेने के लिए मिट्टी की जांच कराना काफी जरूरी है. मिट्टी की जांच के आधार पर ही खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर किसी वजह से मिट्टी की जांच न हो सके तो उस हालत में प्रति हेक्टेयर निम्न मात्रा में खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए:

* गोबर की खाद 15-20 टन

* नाइट्रोजन 120-150 किलोग्राम

* फास्फोरस 50-60 किलोग्राम

* पोटाश 50-60 किलोग्राम.

गोबर की खाद को खेत की तैयारी से पहले ही खेत में डाल कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें. नाइट्रोजन की एकतिहाई मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को बोने से पहले खेत में मिला देना चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा को खड़ी फसल में 2-3 बार टौप ड्रैसिंग के रूप में डाल कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. पहला बुरकाव रोपाई के बाद देना चाहिए.

अगर पत्तियां पीली पड़ जाएं तो उस स्थिति में 0.25 फीसदी  जिंक सल्फेट का घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. पहले छिड़काव के एक हफ्ते बाद दूसरा छिड़काव करना चाहिए.

रोपने का तरीका

सीधे रोपाई : यह विधि उन परिस्थितियों में ज्यादा उपयोगी पाई गई है, जहां रबी मौसम में खेत में कोई फसल न उगाई गई हो या पुदीना की फसल पहली बार उगाई जा रही हो.

इस विधि में सर्कस को सीधे तैयार खेत में 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर रोप दिया जाता है. अगर रोपाई जनवरीफरवरी माह में की जा रही है और उस खेत से 3 कटाइयां लेनी हों तो पंक्तियों की दूरी का ध्यान रखना बहुत जरूरी है. इस स्थिति में पंक्तियों की आपसी दूरी 75 सैंटीमीटर रखनी चाहिए, परंतु अगर रोपाई अप्रैलमई माह में करनी हो तो उस स्थिति में दूरी कम रखी जाती है. पौधे से पौधे की दूरी 4-5 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. रोपाई हल के पीछे बने कूंड़ों में की जानी चाहिए. सर्कस रोपते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे 5 सैंटीमीटर से ज्यादा गहराई पर न जाएं.

तैयार पौध की रोपाई: इस विधि में 500 किलोग्राम पौधे की जड़ (भूस्तारियों) की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. इन जड़ों के 9-10 सैंटीमीटर लंबे टुकड़ों को बोना चाहिए. रोपने से पहले इन्हें टेफासान फफूंदीनाशक घोल में 5-10 मिनट तक डुबो लेना चाहिए, ऐसा करने से कल्ले ज्यादा निकलते हैं और फसल भी अच्छी होती है.

साल के आखिर में आधा हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए गए पौधे 10 हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए जा सकते हैं.

उत्तरी भारत में इस की रोपाई जनवरीफरवरी माह में की जाती है. पौधों को नाली में 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर रोप दिया जाता है. इन्हें एकदूसरे पर चढ़ा हुआ या उन के सिरों को सटा कर मिट्टी से ढक दिया जाता है. अच्छा तो यह होगा कि देशी हल से कूंड़ बना कर रोपाई की जाए.

सिंचाई का इंतजाम

जांच से पता चलता है कि पुदीना की उपज और तेल की क्वालिटी पर सिंचाई का बहुत लाभदायक प्रभाव पड़ता है. पुदीना की सिंचाई सही समय और सही मात्रा में करनी चाहिए.

पहली सिंचाई रोपाई के तुरंत बाद करनी चाहिए, क्योंकि पौधों की बढ़वार गरमियों में होती है. इसलिए 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए.

कटाई के तुरंत बाद भी सिंचाई करते रहना चाहिए, अन्यथा अंकुरित होने में दिक्कत पड़ सकती है. कटाई के एक सप्ताह पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए.

पुदीना में अधिक समय तक फालतू पानी के ठहराव को सहन करने की जरा भी कूवत नहीं होती है. इसलिए खेत में फालतू पानी को निकालने की सही व्यवस्था की जानी चाहिए.

फसल की सुरक्षा

पुदीना की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो पौधों की बढ़वार को प्रभावित करते हैं और उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर डालते हैं. जांच से पता चला है कि रोपाई के 30-75 दिन और पहली कटाई से 15-45 दिन बाद खरपतवार हटाना बहुत ही जरूरी है. इसलिए खरपतवारों से फसल को छुटकारे के लिए फसल में 3 बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

पहली निराई रोपाई के एक महीने बाद, दूसरी 2 महीने बाद और तीसरी कटाई के 15 दिन बाद करनी चाहिए.

खरपतवारों के नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशकों का उपयोग भी किया जा सकता है. 3 किलोग्राम पेंडीमेथिलीन का 300 लिटर पानी में घोल बना कर रोपाई के तुरंत बाद छिड़काव करना चाहिए. ऐसा करने से फसल को 40-50 दिन तक खरपतवार नहीं उगेंगे. 7-8 टन प्रति हेक्टेयर धान की पुआल या गन्ने की सूखी पत्तियां भी पुदीने की पंक्तियों के बीच रोपाई के 30-35 दिन बाद पलवार के रूप में बिछाने से मोंथा नामक खरपतवार की रोकथाम हो जाती है.

कीट पर करें नियंत्रण

दीमक : यह कीट पुदीना की फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है. इस कीट का हमला पौधों की जड़ों पर होता है. इस के चलते पौधे के ऊपरी भागों में पोषक तत्त्वों की पूर्ति नहीं हो पाती है. इस के चलते पौधे मुरझा जाते हैं और बढ़वार भी रुक जाती है. इस वजह से उपज पर उलटा असर पड़ता है.

इस की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करने चाहिए:

* खेत की तैयारी के समय 25 किलोग्राम लिंडेन डस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

* खेत में सही समय पर सिंचाई करें.

* खेत में खरपतवारों को न पनपने दें.

* इन जड़ों यानी भूस्तारियों को रोपने से पहले क्लोरीपाइरीफास 20 ईसी के घोल से उपचारित करें.

सफेद मक्खी: यह मक्खी 1-2 मिलीमीटर लंबी और दूधिया रंग की होती है. इस के शिशु और प्रौढ़ दोनों ही पुदीने की पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं. नतीजतन, पौधों की बढ़वार रुक जाती है. पौधे में प्रकाश संश्लेषण क्रिया बंद हो जाती है.

इस कीट की रोकथाम के लिए फास्फेमिडान के 200 मिलीलिटर को 700 लिटर पानी में मिला कर पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती लपेटक कीट : इस की सूंड़ी हरे रंग की होती है, जिस के ऊपर लाल व पीले रंग की बिंदियां पाई जाती हैं. सूरज की रोशनी तेज होने पर इस की सूंडि़या क्रियाशील हो जाती हैं, जो शुरू में पत्तियों की ऊपरी कोशिकाओं को खाती हैं. एक सूंड़ी 2-3 पत्तियों पर 10-12 दिन तक रहती है. इस के प्रकोप से पुदीना के शाक और तेल उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है.

इस कीट की रोकथाम के लिए इकालक्स 300-400 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर 625 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

माहू : यह कीट पौधे के कोमल हिस्सों का रस चूसता है. इस के शिशु और प्रौढ़ दोनों ही ज्यादा तादाद में बड़ी जल्दी पनपते हैं. इस वजह से पौधे की बढ़वार पर प्रतिकूल असर पड़ता है. यह कीट विषाणु रोग फैलाने में मददगार होता है.

इस कीट की रोकथाम के लिए मैटासिस्टाक्स 25 ईसी का 1 फीसदी घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

रोएंदार सूंड़ी : यह सूंड़ी पीले भूरे रंग की रोएंदार 2.5 से 3.0 सैंटीमीटर लंबी होती है. इस का प्रकोप अप्रैलमई में शुरू हो जाता है, जो कभीकभी अगस्त तक चलता रहता है. इस की सूंड़ी पत्तियों के हरे ऊतकों को खा कर कागज की तरह जालीदार बना देती है. इस से पौधे की कूवत कम हो जाती है और फसल की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

इस कीट की रोकथाम के लिए 1.25 लिटर थायोडान 50 ईसी या मेलाथियान 50 ईसी को 1000 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

सेमी लूपर : इस कीट की सूंड़ी 3-4 मिलीमीटर लंबी और हरे रंग की होती है. इस के शरीर के किनारों पर दोनों ओर लंबाई में सफेद रेखा होती है. इस कीट का प्रकोप पुदीना की दूसरी फसल लेने पर होता है.

इस कीट को खत्म करने के लिए मेलाथियान 300 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 625 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

रोग पर नियंत्रण

भूस्तारी यानी जड़ विगलन : यह रोग मैक्रोफोनिया फैसिवोलामी और पिथियम प्रजातियों की फफूंदियों की वजह से होता है. शुरू में यह रोग खेत के कुछ भाग में शुरू हो कर सारे खेत की फसल को खराब कर देता है.

प्रकोप की शुरुआती अवस्था में जड़ों पर भूरे मृत चिह्न दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और आखिर में सड़ने लगते हैं. पत्तियां पीली पड़ कर बेकार हो जाती हैं.

रोकथाम के उपाय

* इन जड़ों को रोपने से पहले किसी फफूंदीनाशक दवा से उपचारित करना चाहिए.

* जल भराव से बचाव के लिए भूस्तारियों की रोपाई मेंड़ों पर करनी चाहिए.

रतुआ : यह रोग पक्सिनिया मेंथाल नामक फफूंदी की वजह से होता है. आमतौर पर इस रोग के लक्षण वसंत ऋतु में दिखाई देते हैं. रोगी पौधों के तने फूलना, सेंढ़ना, पत्तियों का मुरझाना वगैरह चिह्न प्रकट होने लगते हैं. पत्तियों का रंग हलका हो जाता है और तने कटफट जाते हैं.

पौधों की पत्तियों पर जीवाणुओं का प्रकोप हो जाता है, जिस के चलते पत्तियों पर सुनहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, जो बाद में भूरे रंग की हो जाती हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए कैराथन 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1125 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती धब्बा : यह रोग केराइनास्पोरा कैसीकोला नामक फफूंदी के प्रकोप से होता है. रोगी पौधों की पत्तियों की ऊपरी सतह भूरे रंग की हो जाती है. अत्यधिक प्रकोप की अवस्था में पत्तियां गिर जाती हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड या डायथेन एम. 45 के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

चूर्णिल आसिता : यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसियेरस नामक फफूंदी की वजह से होता है. पौधे पर सफेद चूर्ण जैसा दिखाई देता है. इस वजह से पौधे के भोजन बनने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

जड़ व तना विगलन : यह रोग थिलेविया वैसिकौला नामक फफूंदी के चलते होता है. इस के प्रकोप से पुदीना की जड़ों के ऊपर काले बैंगनी रंग के धब्बे हो जाते हैं, जो बाद में सड़ने शुरू हो जाते हैं. धीरेधीरे धब्बे जड़ों से बढ़ कर तनों की ओर बढ़ने लगते हैं. नतीजा पौधे पोषक तत्त्व न मिलने के चलते विकसित होने से पहले सूखने लगते हैं. बाद में पौधा बीमारी के चलते खराब हो जाता है. यह रोग सितंबर से दिसंबर माह तक फैलता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए ये उपाय करने चाहिए:

* रोपने के पहले भूस्तारियां यानी जड़ों के 0.3 फीसदी मैंकोजेब के घोल में आधा घंटा तक डुबो कर रखें.

* मैंकोजेब 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से घोल बना कर खेत में रोपाई से पहले छिड़काव करें.

कटाई : पुदीना की कटाई हमेशा सही समय पर ही करनी चाहिए अन्यथा इस की उपज और क्वालिटी दोनों पर प्रतिकूल असर पड़ता है. इस की पहली कटाई 100-120 दिन बाद की जानी चाहिए. दूसरी कटाई पहली कटाई के 60-70 दिन बाद करनी चाहिए. हर साल इस की कटाई की तादाद जलवायु के मुताबिक 2-3 बार की जा सकती है.

जब पौधा खूब फूला हो और फूल आने शुरू हो जाएं तो इस समय तेल की मात्रा सर्वोत्तम होती है. उसी समय कटाई करना अच्छा माना गया है.

यदि इस अवस्था से पहले कटाई कर ली जाएगी तो तेल में मेंथाल की कम मात्रा मिलेगी. यदि कटाई देर से की जाएगी तो पत्तियों के सूखने से तेल की मात्रा घट जाएगी.

उत्तर भारत में पुदीना 1, 2 या 3 बार फूलता है, इसलिए 2 कटाई मईजून और अगस्तसितंबर के महीनों में की जानी चाहिए.  तीसरी कटाई दूसरी कटाई के 65-70 दिन बाद करनी चाहिए, परंतु हर हाल में नवंबर के आखिर तक जरूर कटाई कर लेनी चाहिए.

कटाई करते समय मौसम साफ होना चाहिए और धूप निकली होनी चाहिए. कटाई हंसिया से जमीन की सतह से 4-5 सैंटीमीटर की ऊंचाई पर करनी चाहिए, ताकि पौधों का फुटाव जल्दी और सुगमता से हो सके.

काटी गई फसल का ढेर नहीं लगाना चाहिए, बल्कि जब पत्तियों में नमी कम हो जाए, तब उन्हें इकट्ठा कर तेल निकालने के लिए मशीन पर ले जाना चाहिए. यदि किसी वजह से तेल निकालने में देरी हो तो फसल को छाया में फैला कर रखना चाहिए.

सौंफ (Fennel) की उन्नत खेती

मसालों में सौंफ एक खास फसल है. इस के पत्ते, तने, फूल और बीज सुगंधित होते हैं.

सौंफ का इस्तेमाल मसाले के तौर पर कई खाद्य पदार्थों जैसे सूप, चटनी, पेस्ट्री, ब्रेडरोल, अचार वगैरह में स्वाद, खुशबू और दवा के रूप में भी किया जाता है. देश में सौंफ की खेती खासकर राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में की जाती है. राजस्थान में इस की खेती मुख्य रूप से सिरोही, नागौर, जोधपुर, टोंक, पाली, दौसा और जालौर जिलों में की जाती है.

वातावरण : सूखा और ठंडा मौसम इस की अच्छी बढ़वार व उपज के लिए बेहतर रहता है. यह जाड़े के मौसम में बोई जाने वाली फसल है. सौंफ की अच्छी बढ़वार के लिए 15-20 डिगरी सेल्सियस तापमान सही रहता है. तापमान बढ़ने से इस के पौधों में समय से पहले फूल आने और दाने अधपके रहने से पैदावार पर बुरा असर पड़ता है.

सौंफ की फसल में खासतौर पर फूल आने के दौरान ज्यादा नमी और बादल छाए रहने से कीड़ों व रोगों का हमला बढ़ जाता है. फूल आते समय पाला पड़ना इस की फसल के लिए हानिकारक है.

जमीन: जिस मिट्टी में भरपूर मात्रा में जैविक पदार्थ मौजूद हों, उस में सौंफ की खेती की जा सकती है. इस की अच्छी पैदावार के लिए उर्वरक और अच्छे जल निकास वाली बलुईदोमट जमीन ज्यादा सही रहती है. इस की खेती के लिए मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 8.0 के बीच होना चाहिए.

खेत की तैयारी: सौंफ की खेती के लिए खेत तैयार करने के लिए सब  पहले मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करें. बाद की 2-3 जुताई देशी हल या हैरो से करने के बाद पाटा चला कर मिट्टी भुरभुरी व खेत को समतल कर लें. खरपतवार व कंकड़पत्थर को खेत से बाहर कर दें. समतल खेत में सुविधानुसार क्यारियां बना लें.

उन्नत किस्में

जीएफ 11: यह प्रजाति सिंचित खेती के लिए बेहतरीन है. इस में सभी छत्रक तकरीबन साथ आते हैं और यह पछेती गरमी को सहने वाली किस्म है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.8 फीसदी होती है. यह 200-230 (पौधा रोपाई विधि) दिनों में पक जाती है.

इस की औसत उपज कूवत 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

एएफ 1 : यह किस्म जल्दी बोआई और रबी के मौसम के लिए अच्छी है. इस प्रजाति के पौधे सीधे और छत्रक बड़ा होता है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.6 फीसदी होती है. इस किस्म की औसत उपज कूवत 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह किस्म अल्टरनेरिया और रेमुलेरिया ब्लाइट के प्रतिरोधक है.

आरएफ 101 : यह प्रजाति दोमट और काली कपास वाली जमीन के लिए बेहतरीन है. यह 150 से 160 दिनों में पक जाती है. इस के पौधे सीधे व मध्यम ऊंचाई वाले होते हैं. इस की औसत उपज कूवत 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.2 फीसदी होती है. इस किस्म में रोगों की प्रतिरोधक कूवत ज्यादा और कीड़े भी कम लगते हैं.

आरएफ 143 : इस किस्म के पौधे सीधे व ऊंचाई में 116-118 सेंटीमीटर होते हैं, जिन पर 7-8 शाखाएं निकलती हैं. छत्रक (अंबल) घना होता है और प्रति पौधा अंबलों की संख्या 23-62 होती है. एक अंबल में 283 तक बीज होते हैं. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.87 फीसदी होती है. इस की फसल 140-150 दिनों में पक जाती है. इस की औसत उपज कूवत 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएफ 125 : यह शीघ्र पकने वाली किस्म है. इस के पौधे कम ऊंचाई वाले होते हैं. इस का छत्रक घना, लंबा, सुडौल व आकर्षक दानोंयुक्त होता है. इस किस्म में अल्टरनेरिया झुलसा के प्रति प्रतिरोधकता ज्यादा होती है और तेलिया कीट भी कम लगते हैं. यह प्रजाति 110 से 130 दिनों में पक जाती है. इस की औसत उपज कूवत 17 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. वाष्पशील तेल की मात्रा 1.9 फीसदी होती है.

आरएफ 205 : यह प्रजाति राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार के लिए बेहतरीन है. इस के पौधे सीधे व मध्यम लंबाई वाले होते हैं. इस की फसल 140 से 150 दिनों में पक जाती है. इस की औसत उपज कूवत 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह किस्म रेमूलेरिया ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधक होती है और इस में तेला और दूसरे कीटों का प्रकोप भी कम होता है. इस के बीज लंबे, सुंदर और सुडौल होते हैं, जिन में वाष्पशील तेल की मात्रा 2.48 फीसदी होती है.

सौंफ (Fennel)

बीज दर और बीजोपचार : बीज से सौंफ की बोआई करने पर 8-10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है. नर्सरी में सौंफ की पौध तैयार करने के लिए 1 हेक्टेयर खेत के लिए 2.5 से 4 किलोग्राम बीज ही काफी होता है. सौंफ को रोगों से बचाने के लिए ट्राइकोडर्मा मित्र फफूंद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

बोआई का समय: लंबी अवधि की फसल होने की वजह से सौंफ की रबी की शुरुआत में ही बोआई करना फायदेमंद रहता है. अच्छी पैदावार लेने के लिए समय पर बोआई करनी चाहिए. पौधशाला में पौध तैयार कर के सौंफ की रोपाई की जा सकती है. अक्तूबर का पहला हफ्ता सौंफ की बोआई के लिए सही रहता है. नर्सरी विधि से बोने पर सौंफ की नर्सरी में बोआई जुलाईअगस्त में की जाती है और 45 से 60 दिनों बाद पौधों की रोपाई कर दी जाती है.

बोआई की विधि

बीज से सीधी बोआई : बीज से बोआई करने पर क्यारियों में बीजों को छिटक कर या 45 सेंटीमीटर दूर लाइनों में बोते हैं. कतार विधि में हुक की सहायता से 45 सेंटीमीटर की दूरी पर लाइनें खींच कर 2 सेंटीमीटर गहराई पर उपचारित बीजों की बोआई 15-20 सेंटीमीटर की दूरी पर करते हैं, जिन का अंकुरण 7 से 11 दिनों के बाद शुरू हो जाता है. पहली निराईगुड़ाई के समय लाइनों से फालतू पौधों को निकाल कर पौधों के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए.

नर्सरी

रोपाई विधि: इस विधि से बोआई करने के लिए पहले नर्सरी में पौध तैयार की जाती है. जूनजुलाई में 1 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 100 वर्गमीटर जमीन में 3×2 मीटर आकार की क्यारियां बना कर नर्सरी तैयार कर लेनी चाहिए. क्यारियों में 15-20 टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद या कंपोस्ट मिला देनी चाहिए. इस के अलावा 2 किलोग्राम डीएपी व 500 ग्राम यूरिया मिला देना चाहिए. 20 सेंटीमीटर दूरी पर लाइनें बना कर बीजों की बोआई करनी चाहिए. समयसमय पर जरूरत के मुताबिक पानी देना चाहिए. 40-50 दिनों में पौध तैयार हो जाती है. पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : खेत की मिट्टी की जांच कर के खाद और उर्वरक सही मात्रा में देने चाहिए. सौंफ की अच्छी पैदावार के लिए 10-15 टन अच्छी सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से सौंफ बोने या रोपने के 3-4 हफ्ते पहले खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए. इस के अलावा सामान्य उर्वरता वाली जमीन में 90 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए.

नाइट्रोजन की 30 किलोग्राम और फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत की अंतिम जुताई के साथ देनी चाहिए. नाइट्रोजन की शेष मात्रा को 2 भागों में बांट कर 30 किलोग्राम बोआई के 45 दिनों बाद और शेष 30 किलोग्राम फूल आते समय सिंचाई के साथ देनी चाहिए.

सिंचाई: सौंफ लंबे समय की फसल होने से इस में सिंचाई की जरूरत अन्य बीजीय मसाला फसलों की तुलना में ज्यादा होती है. बोआई के एकदम बाद इस की सिंचाई करनी चाहिए ताकि जिस में बीज जम जाएं. सिंचाई करते समय ध्यान रखना चाहिए कि पानी का बहाव तेज न हो वरना बीज बह कर किनारों पर इकट्ठा हो जाएंगे. दूसरी सिंचाई बोआई के 7-8 दिनों बाद करनी चाहिए, ताकि बीजों का अंकुरण पूरा हो जाए. इस के बाद सर्दियों में 15-20 दिनों के बीच सिंचाई करनी चाहिए. फूल आने के बाद और दाना बनते समय फसल को पानी की कमी नहीं होनी चाहिए.

निराईगुड़ाई और खरपतवार प्रबंधन : फसल की सही बढ़वार और ज्यादा पैदावार के लिए सौंफ के पौधे जब 8-10 सेंटीमीटर के हो जाएं तब गुड़ाई कर के जहां पौधे ज्यादा हों वहां से कमजोर पौधों को निकाल कर पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर कर दें.

फूल आते समय पौधे के तने के पास मिट्टी चढ़ा दें, ताकि तेज हवाओं से पौधे न गिरें. सौंफ की खेती की शुरुआती बढ़वार कम और पौधे के बीच ज्यादा दूरी होने के कारण शुरुआती अवस्था में खरपतवारों की दिक्कत ज्यादा रहती है.

सौंफ (Fennel)

रोग व कीड़ों की रोकथाम

तना और जड़ गलन : तने का नीचे से मुलायम होना और जड़ों का गलना इस रोग का खास लक्षण है. पौधे में काले रंग के स्क्लेरोशिया दिखाई देते हैं. इस रोग से पौधे की बढ़वार वाली पत्तियां पीली पड़ कर मुरझा जाती हैं और जड़ गलने से पूरा पौधा सूख जाता है. इस की रोकथाम के लिए फसलचक्र अपनाएं और बीजों को ट्राइकोडर्मा मित्र फफूंद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से बीजोपचार करें और बोआई से पहले जमीन में ट्राइकोडर्मा मित्र फफूंद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से बीजोपचार करें. बोआई से पहले जमीन में ट्राइकोडर्मा की ढाई किलोग्राम मात्रा 100 किलोग्राम गोबर की खाद में 15 दिन नमीयुक्त रखने के बाद जमीन में मिलाएं.

छाछया (पाउडरी मिल्ड्यू) : यह एक फफूंदजनित रोग है, जिस की शुरुआत पत्तियों व टहनियों पर सफेद चूर्ण के रूप में होती है, जो बाद में पूरे पौधे पर फैल जाता है.

इस रोग की रोकथाम के वास्ते लक्षण दिखाई देते ही गंधक चूर्ण 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का बुरकाव करें या घुलनशील गंधक की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर इसे 15 दिन बाद दोहराएं.

झुलसा (ब्लाइट) : इस रोग की शुरुआत बोआई के 60 से 70 दिनों बाद नीचे पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के रूप में होती है. धीरेधीरे ये धब्बे पूरे पौधे पर फैल जाते हैं और फूलकलियां सब पीली पड़ कर सूख जाने से पैदावार में गिरावट आती है.

इस रोग की रोकथाम के लिए रोग के लक्षण दिखाई देते ही कापर आक्सीक्लोराइड के 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के मुताबिक 15 दिनों बाद इसे दोहराएं. सौंफ की ज्यादा सिंचाई न करें. वैसे ड्रिप विधि द्वारा सिंचाई करने से रोग कम होता है.

गोंदिया : यह रोग पुष्प छत्रकों पर चिपचिपे गोंद के रूप में दिखाई देता है, जिस से पुष्प छत्रक सिकुड़ कर सूखने लगते हैं और फसल की पैदावार में भारी नुकसान होता है. इस की रोकथाम के लिए रोगमुक्त बीज इस्तेमाल करें, दीर्घकालीन फसलचक्र अपनाएं. पोषक तत्त्व प्रबंधन और संतुलित सिंचाई का इस्तेमाल कर के इसे कम किया जा सकता है.

मोयला : इस कीड़े के आक्रमण से काफी नुकसान होता है. यह हरेपीले रंग का सूक्ष्म कोमल शरीर वाला कीड़ा है. इसे चेपा, माहू, कालिया मच्छर हानि पहुंचाता है. इस का असर फसल में फूल आने के समय शुरू होता है और दाना पकते समय तक रहता है.

शुरू में इन कीड़ों का प्रकोप गुच्छों में कुछ पौधों पर ही होता है, जो पूरी फसल में फैल जाता है. रोकथाम के लिए खेत में 12 पीले चिपचिपे ट्रेप प्रति हेक्टेयर लगाएं. नीम बीज सत (एनएसकेई) 5 फीसदी या नीम तेल 2 फीसदी या डाइमिथियोट 20 ईसी 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के घोल या वर्टिसीलियम लेकैनी (जैव कीटनाशी) का छिड़काव कर के भी इसे रोका जा सकता है.

पाले से बचाव : पाला पड़ने से सौंफ काफी प्रभावित होती है. फूल आने के दौरान पाले से सौंफ को भारी नुकसान हो सकता है. जब पाला पड़ने की आशंका हो उस दौरान सिंचाई करनी चाहिए. आधी रात के बाद खेत में घुआं कर के फसल को पाले से बचाया जा सकता है. पौधों में फूल आने के बाद गंधक अम्ल 0.1 फीसदी का घोल बना कर छिड़काव कर के पौधों को पाले से बचाया जा सकता है.

कटाई : सौंफ के सभी छत्रक एकसाथ नहीं पकते, इसलिए जब पूरा दाना विकसित हो जाए और हरापन लिए हो, तब उन छत्रकों की तोड़ाई कर के उन्हें छायादार और हवादार स्थान पर सुखाना चाहिए. इस तरह 7 दिनों के बीच 4 बार छत्रकों की तोड़ाई करें.

इन्हें सुखाते समय बारबार पलटते रहें, वरना इन में फफूंद लगने की आशंका रहती है. अच्छे किस्म की चबाने के काम आने वाली लखनवी सौंफ पैदा करने के लिए जब दाने पूरी तरह विकसित दानों की तुलना में आधे हों और नाखून से कट जाएं तब छत्रकों की कटाई कर के साफ जगह पर छाया में फैला कर सुखाने चाहिए. बोआई के लिए बीज हासिल करने के लिए मुख्य छत्रकों के दाने जब पूरी तरह पक कर पीले पड़ने लगें तभी उन्हें काटना चाहिए.

उपज : सौंफ की उन्नत विधियों से खेती करने पर पूरी तरह विकसित और हरे दाने वाली सौंफ की 20 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज हासिल की जा सकती है. साधारणतया 7 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर महीन किस्म की सौंफ की पैदावार ली जा सकती है.

नीम से करें कीटनाशक (Insecticide) तैयार

भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां की बढ़ती जनसंख्या का असर आने वाले समय में खाद्यान्न पर पड़ेगा. देश में अनाज का उत्पादन तो बढ़ा है, लेकिन यह जनसंख्या के मुकाबले काफी कम है. यदि यही हाल रहा तो देश को फिर से खाद्यान्नों का आयात करना पड़ेगा.

इसलिए सरकार को इस दिशा में सावधानीपूर्वक कदम उठाने होंगे. किसानों की सब से बड़ी दिक्कत है कि वे अपनी फसलों को कीड़ेमकोड़ों से कैसे बचाएं. उन के पास संसाधनों की भारी कमी है. कोल्ड स्टोरेज में उपज रखना महंगा पड़ता है, साथ ही वहां तक उपज ले जाने में भी काफी भाड़ा लग जाता है.

आज अनाज को सुरक्षित रखने के लिए जिन कीटनाशकों या रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है, वे सेहत के लिए नुकसानदेय हैं, इन जहरीले कीटनाशकों से बचने के लिए किसान परंपरागत कीटनाशकों का इस्तमाल कर सकते हैं, इन के इस्तेमाल से अनाज को कीड़ेमकोड़ों व फफूंद और घुन से भी सुरक्षित रखा जा सकता है. पहले लोग कीटनाशक के तौर पर नीम का इस्तेमाल करते थे, जिस का सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ता था.

नीम का इस्तेमाल

* जब आप अनाज को इकट्ठा कर के रख रहे  तो उस दौरान अनाज में सूखी नीम की पत्तियां मिला दें, इस से घुन और अन्य कीड़ेमकोड़े नहीं लगते हैं और अनाज सुरक्षित रहता है.

* आप जिस जगह अनाज रख रहे हों, वहां अनाज रखने से पहले तकरीबन 3-4 इंच नीम की सूखी पत्तियों की परत बिछा देनी चाहिए. इस के बाद आप तकरीबन 2 फुट तक अनाज भरें, फिर नीम की पत्तियों की तह लगाते जाएं.

* कुछ किसान अनाज को जूट की बोरियों में भी भर कर रखते हैं, जिस बोरे में अनाज भरना हो, नीम की पत्तियां डाल कर उबाले गए पानी में रातभर भिगो दें, फिर बोरे को छांव में सुखा लें, उस के बाद उस में अनाज भरें. आप का अनाज एकदम सुरक्षित रहेगा.

* दालों के भंडारण के लिए 1 किलोग्राम दाल में 1 ग्राम नीम का तेल ऐसे मिलाएं जिस से वह पूरी तरह फैल जाए, जब दालों को पकाने के लिए निकालना हो, तब उसे अच्छी तरह धो कर इस्तेमाल करें, समय के साथ नीम के तेल की महक धीरेधीरे कम होने लगती है. जब दलहन को बोआई के लिए तैयार करना हो तो उस स्थिति में 1 किलोग्राम दाल बीज में 2 ग्राम नीम के तेल की जरूरत पड़ती है. इस विधि से दाल के बीज खराब नहीं होते.

* नीम की पकी निबौली को 12 से 18 घंटे पानी में भिगोएं, उस के बाद भीगी निबौली को लकड़ी के डंडे से चलाएं, जिस से निबौली के बीज का छिलका व गूदा अलग हो जाए, गूदा निकाल कर छाया में सुखाएं और सूखे गूदे को बारीक पीस कर पाउडर बना कर पतले सूती कपड़े में पोटली बना कर शाम को पानी में भिगो दें. सुबह पोटली को दबा कर उस निकाल लें और रस में 1 फीसदी साबुन मिला दें, अब आप तैयार निबौली कीटनाशक का खेत में छिड़काव कर सकते हैं.

* 1 हेक्टेयर क्षेत्र में छिड़काव के लिए 5 फीसदी घोल तैयार करने के लिए 25 किलोग्राम निबौली 500 लीटर पानी और 5 किलोग्राम साबुन की जरूरत होती है.

नीम की पत्तियों से कीटनाशक बनाने में किसानों को ज्यादा फायदा होता है, क्योंकि अन्य रासायनिक कीटनाशक बाजार में इस से महंगे मिलते हैं, जो स्वास्थ्य के अलावा मिट्टी के लिए भी हानिकारक हैं. नीम की पत्तियां हर जगह आसानी से मिल जाती हैं और इस पर किसी तरह का खर्च भी नहीं आता. किसानों के साथ ही अन्य लोग भी इस विधि से अपने अनाज को कीड़ेमकोड़ों, फफूंद और घुन से बचा सकते हैं.

मछलीपालन (Fish Farming) पानी में पनपता रोजगार

आज देशभर में मछली की काफी मांग है और दिनोंदिन इस में इजाफा हो रहा है. आंकड़ों के मुताबिक मछलीपालन कारोबार तकरीबन 15 फीसदी की तेजी से बढ़ रहा है, जो लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी पैदा कर रहा है. दुनियाभर में भारत मछली उत्पादन में दूसरे स्थान पर है.

मछलीपालन में तालाबों का प्रबंधन सब से ज्यादा खास होता है. मछलीपालन के लिए तालाबों की तैयारी बरसात से पहले कर लेनी चाहिए. मछलीपालन के लिए तालाबों के प्रबंधन को 3 भागों में बांटा जाता है:

पानी इकट्ठा करने से पहले का प्रबंधन, इकट्ठा करते समय का प्रबंधन और इकट्ठा करने के बाद का प्रबंधन.

पानी इकट्ठा करने से पहले तालाब का प्रबंधन : मछली के बीज संचयन से पहले तालाब का प्रबंधन यानी तालाब तैयार करना होता है. तालाब की तैयारी करते समय पहले तालाब में जो खरपतवार उगे हैं उन्हें हटा दें. इस के लिए आप मजदूरों की भी मदद ले सकते हैं या खरपतवारों को तालाब में जाल बिछा कर निकाल सकते हैं.

तालाब में मांसाहारी मछलियां अधिकतर पालतू मछलियों को खा जाती हैं, इसलिए उन की रोकथाम करनी चाहिए. इस के लिए आप जाल का इस्तेमाल कर सकते हैं या 2500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से महुआ की खली का इस्तेमाल कर उन पर काबू पा सकते हैं. इस के अलावा ब्लीचिंग पाउडर का 300 से 350 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन ध्यान रहे कि यदि आप ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो उस में क्लोरीन की मात्रा 30 फीसदी होनी चाहिए और सूर्यास्त के बाद ही उस का इस्तेमाल करना चाहिए.

इस से तालाब के कीड़ेमकोड़ों पर काबू पाया जा सकता है. इस के लिए आप 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से तालाब में चूना डालें. ऐसा करने से सभी कीड़ेमकोड़े मर जाते हैं.

यह सब करने के बाद फर्टिलाइजर का प्रबंधन करना चाहिए. इस के लिए सब से पहले सवा सौ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से चूने का इस्तेमाल करें. इस के बाद 250 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सरसों की खली, 5000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर, 250 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सिंगल सुपर फास्फेट और सवा सौ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया और 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से पोटाश का इस्तेमाल कर के तालाब के पानी को 1 हफ्ते के लिए ऐसे ही छोड़ देना चाहिए.

1 हफ्ते बाद तालाब में खाली जाल चलाएं. खाली जाल चलाने के बाद 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से पोटेशियम परमैगनेट का छिड़काव करें. इस के बाद दूसरे चरण की तैयारी करें.

इकट्ठा करने के समय का प्रबंधन : इस के तहत मछली की प्रजाति, मछली की संख्या, मछली का वजन, मछली की लंबाई और किस समय मछली के बीज डालें, ये बातें बहुत खास हैं, जिन का बहुत ध्यान रखना होगा.

मछली की प्रजाति : मछलियों की 6 प्रजातियां हैं- कतला, रेहू, मिगल, ग्रास कौर्प, सिल्वर कौर्प और कामन कौर्प.

मछली की ये सभी प्रजातियां पानी की अलगअलग सतहों में रहती हैं. नीचे रहने वाली मछलियां मिगल और कामन कौर्प हैं, जबकि ऊपर रहने वाली मछलयां कतला और सिल्वर कौर्प हैं. बीच में रहने वाली रेहू मछली को इकट्ठा करना चाहिए. 10 फीसदी ग्रास कौर्प का संचय पूरे तालाब में करना चाहिए.

इस तरह से तालाब की तीनों सतहें पूरी तरह बराबर हो जाती हैं और किसान को ज्यादा उत्पादन मिलता है.

मछली का आकार और वजन : इकट्ठा करने के दौरान मछली के बीज का आकार कम से कम 6 से 8 सेंटीमीटर होना चाहिए और उस का वजन 50 ग्राम होना चाहिए. इस साल का जो बीज है, उस को अगले साल तक ईयर लिंक बना कर बीज बैंक में रखें और फिर उस का इस्तेमाल करें.

बीज डालने का समय : अगर आप 2 क्रौप की प्लानिंग करते हैं तो उस के लिए बीज डालने का सही समय फरवरी से जून और जुलाई से नवंबर तक का होता है. अगर आप की प्लानिंग 1 क्रौप की है, तो उस के लिए जून से अप्रैल तक का समय सही रहता है.

बीज डालने से पहले इस बात का खयाल रखें कि यदि आप बीज बाहर से ला रहे हैं, तो उस का अंकुरण सही होना चाहिए. अगर आप बाहर से बीज लाते हैं, तो जितना पानी बीज वाले पौलीथिन बैग में है उस में उतना ही तालाब का पानी भी मिलाएं. अब 10 मिनट तक उस का अंकुरण करें उस के बाद तालाब में बीज उलट दें.

मछलीपालन (Fish Farming)

बीज डालने के बाद का प्रबंधन : बीज के बाद आप उस की देखभाल किस तरह करते हैं उसी पर आप का उत्पादन निर्भर करता है, इस के लिए आप को तमाम बातों पर खास ध्यान देना होगा.

ऊपरी आहार प्रबंधन और उर्वरक प्रबंधन : वैज्ञानिक तरीके से मछलीपालन करने में ऊपरी आहार का खास रोल है. आहार के रूप में आप चावल की भूसी और सरसों की खली को बराबर मात्रा में मिला कर उस का इस्तेमाल कर सकते हैं या फिर मार्केट में मिलने वाले फीड का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. महीने में हम अगर मछलियों को 5 फीसदी की दर से खाना खिलाते हैं तो 25 किलोग्राम दाना रोजाना खर्च होगा.

इसी तरह 2 महीने में अगर 4 फीसदी की दर से खिलाएंगे, तो 30 से 35 किलोग्राम दाने की जरूरत पड़ेगी. इसी तरह 3 महीने में 4 फीसदी की दर से तकरीबन 55 किलोग्राम, 4 महीने में 90 किलोग्राम और 5 महीने में 108 किलोग्राम दाना रोजाना चाहिए. इस तरह 1 क्रौप में हमें कम से कम 9 से 10 टन आहार की जरूरत होती है.

मछली जल्दी बढ़े इस के लिए हमें प्रोबायोटिक्स का इस्तेमाल करना होगा. 5 से 10 ग्राम फीड में प्रोबायोटिक्स डालें.

उर्वरक प्रबंधन : बीज डालने के बाद महीने में 2 बार उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर किसी महीने पहली तारीख को आप ने गोबर का इस्तेमाल 1000 से 1500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर किया है, तो फिर 15 तारीख को 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सिंगल सुपर फास्फेट और डीएपी का इस्तेमाल करें.

उर्वरक के इस्तेमाल से 2 दिन पहले कम से कम 10 से 15 किलोग्राम कैल्शियम कार्बोनेट जो एग्रीकल्चर लाइमस्टोन है, का इस्तेमाल करें.

उर्वरक डालने से 2 दिन पहले खेत में चूने का इस्तेमाल करना चाहिए. उस के बाद हर 15 दिन में एक बार जैविक खाद और उस के 15 दिन बाद रासायनिक खाद देनी चाहिए. जिस महीने में तालाब का पानी ज्यादा हरा हो जाए, उस महीने रासायनिक खाद का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए.

मछलीपालन से जुड़ी ज्यादा जानकारी के लिए लेखक के मोबाइल नंबर 9792218242 पर बात कर सकते हैं.

मछलीपालन के फायदे

मछलीपालन के कई फायदे हैं, जो आर्थिक मदद से ले कर हर तरह की मदद करते हैं. मछली को छोटे तालाब या पोखर में पाला जा सकता है. यदि आप के पास बड़ा तालाब नहीं है, तो वैज्ञानिक तरीके से भी छोटे आकार की सीमेंट की गोलाकार हौद बना कर उन में मछलीपालन किया जा सकता है.

यदि आप ने सही जानकारी हासिल कर ली है तो मछलीपालन के काम में आप को आसानी होगी. नस्ल के हिसाब से मछलियों का 4 से 7 महीने के अंदर 1 किलोग्राम से ले कर 5 किलोग्राम तक वजन बढ़ जाता है. मछली के मांस में अच्छी मात्रा में प्रोटीन होता है. इस व्यवसाय के लिए बैंक लोन भी आसानी से मिल जाता है. आज मछलीपालन के मामले में आंध्र प्रदेश पहले स्थान पर है, उस के बाद पश्चिम बंगाल और फिर गुजरात व केरल का नंबर आता है.

किसानों के लिए समस्या छुट्टा जानवर (Stray Animals)

मवेशी कभी किसानों की आय का एक जरीया होते थे. जब भी किसान को अपनी जरूरत के लिए पैसा चाहिए होता था, तो वह पशुओं को बेच कर अपना काम चला लेता था. किसान तब गाय और बछड़े में कोई अंतर नहीं समझता था.

बैल और भैंसा खेत में काम करने के लिए होते थे. जरूरत न होने पर बैल को बेचा भी जाता था, लेकिन आज खेत की जुताई से ले कर बाकी कामों के लिए मशीनों का ही इस्तेमाल होने लगा है.

ऐसे में खेत से बैल का काम गायब होता जा रहा है. अब बैल और बछड़े किसानों के लिए बेकार हो गए हैं, इसलिए अब ये छुट्टा जानवरों की तरह किसानों की फसलों को चौपट कर रहे हैं. यही नहीं, जब किसान इन्हें अपने खेत में जाने से रोकते हैं, तो ये हिंसक हो कर गांव के लोगों पर हमला करने लगते हैं. शहरों के भी ऐसे ही हालात हैं. गाय यहां सड़कों पर घूमती मिल जाती है. सड़क दुर्घटना का यह सब से बड़ा कारण बनती जा रही है.

पहले तो ये छुट्टा जानवर खेतों में खड़ी फसल को ही नुकसान पहुंचाते थे, लेकिन अब लोगों को भी घायल करने लगे हैं. यही नहीं, फसलों को जानवरों से बचाने के लिए किसान अब खेतों के चारों तरफ तार की बाड़ लगाने लगे हैं. किसानों को रात में अब खेतों में सोना पड़ रहा है, जिस से उन्हें कई तरह की दुर्घटनाओं का शिकार होना पड़ रहा है.

शहर के जानवर पहुंच रहे हैं गांव : कई इलाकों में तो नीलगाय खेतों को नुकसान पहुंचाती थी. इस वजह से किसान फसलों की बोआई नहीं कर पा रहे थे. कुछ किसानों ने तो मटर, आलू और सरसों जैसी फसलों की बोआई ही बंद कर दी थी, लेकिन अब किसानों के सामने नीलगाय से ज्यादा परेशानी इन छुट्टा जानवरों से है.

गाय के नाम पर गौरक्षक पूरे देश में तांडव मचा चुके हैं. ऐसे में यह कारोबार बंद हो चुका है. लिहाजा, लोग अब अपने जानवरों को छुट्टा छोड़ देते हैं. पहले हर गांव में पशुओं के चारागाह के नाम पर काफी सरकारी जमीन खाली पड़ी होती थी, लेकिन अब यह जमीन खत्म हो गई है. गांव के किनारे बने जंगल भी खत्म हो गए हैं, इसलिए जानवर चरने के लिए अब खेतों में जाने लगे हैं.

यह समस्या पूरे देश की है खासकर उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब इस से ज्यादा प्रभावित हैं. ये ऐसे प्रदेश हैं, जहां खेती के लिए जानवरों का इस्तेमाल होता था.

नाम की गौरक्षा : जानवरों की खरीदबिक्री की यह दिक्कत गौरक्षा से शुरू हुई. गौरक्षा के नाम पर हिंदुत्व वोट बैंक को भावनात्मक तरीके से जोड़ा गया. गाय के साथ लोग जुड़ते गए, लेकिन यह भूल गए कि देश में गाय और उस की नस्ल के जानवरों को रखने के लिए कोई इंतजाम नहीं हैं. पहले तहसील स्तर पर जानवरों को रखने के लिए कैदखाने बनाए जाते थे, जिस का भी जानवर छुट्टा पाया जाता था, उसे वहां बंद कर दिया जाता था.

जब उस का मालिक उसे लेने जाता था, तो उसे जानवर को रखने पर आने वाला खर्च देना पड़ता था. अब ऐसे कैदखाने बंद हो गए हैं. शहरों में भी छुट्टा जानवरों को पकड़ने और रखने के इंतजाम होते थे. अब ऐसे प्रयोग बंद हो गए हैं.

सड़कों पर भी ऐसे जानवरों को घूमते, टहलते और आराम फरमाते देखा जा सकता है. सरकार बारबार कह रही है कि ऐसे जानवरों को रखने के लिए सरकारी इंतजाम किए जा रहे हैं, पर इन का असर कहीं नहीं दिख रहा है.

गौरक्षा के नाम पर वोट हासिल करने वाली सरकार भी इस तरफ कोई रुचि नहीं दिखा रही है. इस वजह से शहर से ले कर गांव तक अब छुट्टा जानवरों का आतंक है. इस से यदि जल्द नजात नहीं मिली तो समस्या ज्यादा गंभीर हो जाएगी.

खेतीकिसानी में कारपोरेट क्रांति (Corporate Revolution) की दस्तक की जरूरत

प्रकृति द्वारा कृषि संकट के पहलू पर ध्यान दें, तो यह कोई कम गंभीर समस्या नहीं है. खेती में मुनाफा कम होने की वजह से जमीन का ठेका (किराया) मूल्य कम हो गया है. लगातार परिवारों के बढ़ने से खेती की जमीन लगातार बंट रही है, जिस से कृषि इकाई व्यावहारिक नहीं रह गई है. 15 फीसदी से ज्यादा ग्रामीण भूमिहीन हो गए हैं.

भारत में 75 फीसदी खेत 2 हेक्टेयर से कम नाप के हैं और इन में से दोतिहाई 1 हेक्टेयर से कम नाप के हैं. इस तरह की जोतों का हिस्सा और उन का इलाका दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है.

कृषि अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, पंजाब के 1 हेक्टेयर से कम जोत वाले किसान परिवार की आमदनी राज्य सरकार के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के वेतन से भी कम है और 2 हेक्टेयर से छोटी जोत वाले किसान की आमदनी राज्य सरकार में एक बाबू के मासिक वेतन से भी कम है. कृषि संकट के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर नजर डालें तो पाते हैं कि खेती अब फायदेमंद धंधा नहीं रहा है.

कृषि उत्पादकता गिर रही है, जबकि कृषि सामग्री की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं. कर्जदारी तेजी से बढ़ रही है. इस निराशा और हताशा भरी हालत का कोई हल न दिखाई देने से आमतौर पर किसान आत्महत्या जैसा कायरतापूर्ण कदम उठा रहे हैं. जो राज्य तुलनात्मक तौर पर ज्यादा विकसित हैं, उन में 1995-2005 के बीच तकरीबन 20 हजार किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. इन में से ज्यादातर सीमांत और छोटे किसान थे, जिन के पास सुविधाएं कम थीं और उन्होंने खेती के लिए कर्ज लिया था.

सरकारी अनदेखी के चलते आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे कृषि क्षेत्र में पिछले सालों से कोई भी कैपिटल इनवेस्टमेंट कर के खतरा मोल लेने को राजी नहीं था. इसीलिए पिछले 15 सालों से कृषि विकास दर प्रमुख राज्यों में बेकार यानी निम्न स्तर पर ही रही. ऐसे हालात में अब कारपोरेट सैक्टर ने कृषि क्षेत्र में भारी बदलाव करने का बीड़ा उठाया है.

सरकार ने किसानों के साथ उद्योग जगत को भी एक नया संदेश दिया है. इस का मतलब साफ है कि किसानों को परंपरागत खेती का रास्ता छोड़ कर आर्थिक क्रांति के नए प्रबंधकों से तालमेल बैठाना होगा. कृषि के ढांचे को मजबूत कर के भारत भी विकसित देशों की कतार में खड़ा हो सकता है. शायद यही संदेश भारती या रिलायंस जैसी कंपनियां देना चाहती हैं, जो खेती के मौजूदा हालात से बखूबी वाकिफ होने के बावजूद इस क्षेत्र में निवेश करने की पहल कर रही हैं.

कंपनियों का रुख देखते हुए यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले 5 सालों में इस सैक्टर में हजारों करोड़ का भारीभरकम निवेश होगा. देश की प्रमुख कारपोरेट सैक्टर की कंपनियों की नजर अब भारतीय कृषि क्षेत्र पर लगी है.

इन कंपनियों का मकसद भी एकदम साफ है. वे मुकाबले के इस दौर में भारतीय किसानों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की कला सिखाना चाहती हैं. अपने कारोबार के साथ कंपनियां चाहती हैं कि भारतीय किसान उन के प्रोजेक्टों के माध्यम से खेती की आधुनिक तकनीक में माहिर हो जाएं और ऐसी फसलें पैदा करें, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हाथोंहाथ लिया जाए. इस के लिए एक माहौल तैयार करने की जरूरत है. लिहाजा रिलांयस और भारती जैसी कंपनियों ने पंजाब को मौडल बना कर कारपोरेट एग्रीकल्चर की पहल की है.

पिछले समय में किसानों को खेती करने के ज्यादा उपाय नहीं दिए गए थे. उन्हें पुराने तरीकों से ही खेती करने को मजबूर किया जा रहा था, लेकिन अब आने वाले दिनों में तसवीर बदलने वाली है. राज्य के किसान कारपोरेट घरानों के सहारे विश्व बाजार में अपनी साख कायम कर सकेंगे. जानकारों की राय है कि देश के संगठित क्षेत्र में आ रही रिटेल कंपनियों को उम्दा और ग्रेडिंग वाली फलसब्जियों की काफी जरूरत है. आने वाले दिनों में यह बाजार तेजी से बढ़ने वाला है.

क्रांति (Corporate Revolution)

मौजूदा दौर में लोग अच्छी किस्म का सामान ही खरीदना चाहते हैं. ऐसे में ब्रांडेड फलसब्जियों की मांग में लगातार इजाफा हो रहा है. कई कंपनियों ने रीटेल चेन की शुरुआत भी कर दी है. कंपनियां देश के चुनिंदा शहरों में बड़े स्तर पर फलसब्जी के और्गनाइज्ड रीटेल शोरूम खोलने जा रही हैं. लिहाजा कारपोरेट एग्रीकल्चर घरेलू के साथसाथ विश्व बाजार की जरूरतों को भी पूरा करने में समर्थ होगा.

पंजाब में 1 लाख हेक्टेयर जमीन में हाईवैल्यू फसलों की खेती ठेके पर कराने की मुहिम को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. राज्य में कम हो रहे पानी के स्तर से चिंतित सरकार भी माइक्रो इरीगेशन और क्लाइमेट कंट्रोल की तकनीक अपना कर स्थिति में सुधार लाने की कोशिश में है. इसीलिए कारपोरेट सैक्टर के साथ हाथ मिलाए जा रहे हैं.

विश्व में भारत के फलसब्जी का दूसरा सब से बड़ा उत्पादक देश होने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उस का निर्यात 1 फीसदी से भी कम है. देश में हर साल तकरीबन 15 करोड़ टन फलसब्जियों की पैदावार होती है, लेकिन उस में से 3 फीसदी उत्पाद सही रखरखाव न होने के कारण खराब हो जाते हैं. कारपोरेट सैक्टर की सहायता से इस बरबादी को खत्म किया जा सकेगा.

कारपोरेट कंपनियां कृषि क्षेत्र में नई जान फूंकने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहतीं. अब खेतों में ओपन कल्टीवेशन के बजाय प्रोटेक्टेड कल्टीवेशन का दौर शुरू हो चुका है.

आने वाले समय में पंजाब के खेत ग्रीन हाउस के अलावा नेट पाली हाउस और ग्लास हाउस समेत न जाने कितने हाउसों से पटे नजर आएंगे. हाउसों में नमी कंट्रोल के अलावा क्लाइमेट कंट्रोल और सिंचाई कंट्रोल कर के फसलों को उन की जरूरत के मुताबिक मौसम, खुराक, कैमिकल और पानी दिया जाएगा. इन सभी हाउसों में सेंसर लगा कर कंप्यूटराइज्ड तरीके से कंट्रोल किया जा रहा है. कंप्यूटर फसलों की जरूरत के मुताबिक गरमी, सर्दी, बरसात और लाइट का इंतजाम करेगा.

पशुपालन में खनिज मिश्रण का महत्त्व

पशुओं की सेहत और ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए उन के आहार में कई तरह के खनिज तत्त्वों की जरूरत पड़ती है. जैसे कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम, तांबा, लोहा, जस्ता, सोडियम, पोटेशियम,  मैंगनीज, कोबाल्ट, आयोडीन वगैरह.

खनिज मिश्रण, भी ऐसे ही खनिज तत्त्वों का मिश्रण हैं. ये तत्त्व पशुओं को बहुत कम मात्रा में चाहिए होते हैं, लेकिन पशु आहार में इन की कमी या सही अनुपात न होने से पशु तमाम तरह की बीमारियों के शिकार हो जाते हैं और वे दूसरी बुरी आदतें जैसे मिट्टी, कपड़ा, कागज वगैरह खाना व पेशाब चाटना शुरू कर देते हैं. इसलिए पशुपालन के लिए उन के खाने में रोजाना सही मात्रा में खनिज मिश्रण देना बहुत ही जरूरी है.

खनिजों की कमी के कारण

गहन जुताई, ज्यादा फसलें लेना और ज्यादा उपज वाली किस्मों के प्रचलन से मिट्टी में खनिजों की कमी लगातार बढ़ती जा रही है. मिट्टी और पानी में कुछ खनिज तत्त्वों की कमी के कारण उस क्षेत्र के चारे में उन तत्त्वों की कमी हो जाती है.

इस तरह का चारा पशुओं को खिलाने से उन में खनिज तत्त्वों की कमी व असंतुलन हो जाता है. फलीदार हरे चारे जैसे बरसीम, रिजका वगैरह में कैल्शियम ज्यादा मात्रा में पाया जाता है, जबकि अफलीदार चारे जैसे कि मक्का, ज्वार, जई वगैरह में इन की काफी कमी होती है.

खनिज तत्त्वों की कमी में होने वाली समस्याएं : सब से खास बात यह है कि पशु दूध देने के मामले में पिछड़ जाते हैं.

साथ ही, पशुओं को भूख न लगना और बढ़वार में कमी हो जाना, प्रजनन शक्ति धीरेधीरे खत्म होना, बांझपन और समय पर गाभिन न होना, बच्चा न ठहरना जैसी तमाम समस्याएं पशुओं को घेर लेती हैं, जिन का नुकसान पशुओं के साथसाथ पशुपालक को भी भुगतना पड़ता है.

पशुपालन (animal husbandry)

पशुओं को खनिज मिश्रण खिलाने के फायदे : यह मिश्रण पशुओं की हड्डियों को मजबूत बनाता है. साथ ही, उन का हाजमा भी ठीक रहता है व पाचनशक्ति बढ़ाता है. यह पशुओं को तमाम तरह की बीमारियों से भी बचाता है.

वैसे तो इस के सेवन से पशु मिट्टी, कपड़ा, कागज इत्यादि नहीं खाते और पशुओं की पैदावार कूवत बढ़ती है. 2 ब्यांत के बीच का अंतर कम होता है और पशु को बच्चा देते समय ज्यादा परेशानी नहीं होती. इस के अलावा बच्चा न ठहरना या गरमी में न आने की परेशानी को यह खनिज मिश्रण दूर करता है.

खनिज मिश्रण खिलाने की विधि : खनिज मिश्रण को दाना मिश्रण के साथ मिला कर खिलाएं. साधारण नमक पशु आहार का स्वाद, भूख व पाचकता को बढ़ाता है. इसलिए खनिज मिश्रण के साथ नमक 2:1 के अनुपात में दें.