खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming) और सरकार की अनदेखी

जब कभी दाल, तेल, सब्जी, फल, मांस व अंडे आदि की कमी महसूस होती है, तो भारीभरकम आयात कर के उन की कमी पूरी की जाती है, जबकि हमारे किसान इन चीजों की कमी को पूरा कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें फसल की उत्पादन लागत से थोड़ा फायदा मिलने की उम्मीद हो.

देश में तेजी से नए शहरों का विकास हो रहा है, साथ ही ग्रामीण जनता भी शहरों की तरफ भाग रही है. देश की आजादी के समय ग्रामीण आबादी तकरीबन 85 फीसदी थी, जो कि घट कर आज 65 फीसदी तक रह गई है.

अब भोजन की थाली में पोषण का खयाल रखा जाने लगा है. आज भोजन पेट भरने के साथ ही शारीरिक तंदुरुस्ती का भी महत्त्वपूर्ण साधन है. तंदुरुस्त शरीर पाने के लिए दूध, फल, सब्जी, तेल, मांस व अंडे की मांग में काफी इजाफा हुआ है. आएदिन इन चीजों की पूर्ति में कमी के कारण इन के दामों में तेजी देखने को मिलती है. इन की कीमत में आई तेजी को रोकने के लिए सरकार आयात का सहारा लेती है.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming)

यदि सरकार इन चीजों को बेचने की बेहतर सुविधाएं मुहैया कराए, तो देश के किसान इन का भरपूर उत्पादन करेंगे.

अगर पिछले 20 साल के आंकड़े देखें तो मक्का, फल, दूध, मांस, अंडा, मछली व तेल आदि की मांग में चौगुनी वृद्धि देखने को मिली है, जबकि गेहूं व दाल आदि की मांग में मामूली बढ़ोतरी देखी गई है.

यदि कुछ चुनिंदा फसलों को देखें तो उन में से मक्का व सोयाबीन की मांग में साल दर साल तकरीबन 12 से 15 फीसदी का इजाफा हो रहा है, क्योंकि पोल्ट्री उद्योग के साथ ही कई सौफ्ट ड्रिंकों में भी इन दोनों फसलों का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. इसी तरह पोल्ट्री उद्योग की मांग में भी 12 से 15 फीसदी का साल दर साल जबरदस्त इजाफा देखने को मिल रहा है. आज देश में पोल्ट्री उद्योग और तकरीबन 1 करोड़ 60 लाख लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है.

जब बेमौसम बारिश या सूखे के कारण फसलों के उत्पादन पर असर पड़ता है, तो उन फसलों के दामों में अप्रत्याशित तेजी देखने को मिलती है, क्योंकि आज भी देश में भंडारण के लिए अच्छे गोदामों का अभाव है.

सरकारी स्तर पर यदि ढांचागत क्षेत्र में कुछ बदलाव किए जाएं, तो सफलता मिल सकती है.

गोदाम और कोल्ड चेन का निर्माण : देश में आज भी गोदामों की बहुत कमी है. गेहूं, चावल और चीनी के सही भंडारण के लिए ही गोदामों की कमी है, तो इस स्थिति में मक्का, बाजरा और सोयाबीन के लिए गोदामों की उपलब्धता दूर की बात है.

अगर सरकार सिर्फ गोदामों की व्यवस्था ही सही कर दे तो किसान इस बढ़ती मांग को पूरा कर सकते हैं, जिस में उन को भी भारी लाभ होगा.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming)जैसा कि बताया जा चुका है कि देश में गोदामों की काफी कमी है. कमोबेश वही स्थिति कोल्ड स्टोरेज की भी है. तकरीबन 40 फीसदी सब्जियां कोल्ड स्टोरेज के अभाव में खुले में ही सड़ जाती हैं.

प्रदेश सहकारी समिति के गोदामों का इस्तेमाल सिर्फ उर्वरकों के स्टोरेज के लिए ही किया जाता है, जबकि आधे से ज्यादा गोदामों की हालत जर्जर और दयनीय है, जबकि केंद्रीय भंडारण निगम व भारतीय खाद्य निगम सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गेहूं, चावल और चीनी का भंडारण करते हैं. किसानों के माल के भंडारण की जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश में पूरी तरह राज्य भंडारण निगम के पास है, जिस की कूवत जरूरत के मुकाबले सिर्फ एकचौथाई ही है. सरकार को किसानों व उपभोक्ताओं की भलाई के लिए प्राइवेट सेक्टर की मदद करनी चाहिए ताकि इस क्षेत्र में अधिक से अधिक लोग आकर्षित हो सकें.

अब सारा दारोमदार प्राइवेट सेक्टर के हाथ में है कि वह अधिक से अधिक भंडारण में निवेश करे, मगर सवाल यह उठता है कि वह अपना निवेश क्यों करे, जब तक उसे अपना निवेश सुरक्षित और कमाऊ न लगता हो.

इसलिए जरूरत है कि सरकार कुछ खास उपाय करे जैसे कि निवेश की गई रकम पर कम से कम 5 साल का ब्याज सरकार सब्सिडी के तौर पर दे, साथ ही साथ पहले 3 साल तक गोदाम में 50 फीसदी सरकारी माल रखने की गारंटी दे, जिस से सिर्फ 2 साल के अंदर ही कम से कम 10 लाख टन के गोदाम बन कर तैयार हो जाएं. यदि सरकार गोदामों का इंतजाम पक्का कर दे तो किसानों की आर्थिक तरक्की में बहुत बदलाव परिवर्तन देखने को मिलेगा.

लिली (Lily) से बढ़ती आमदनी

आकर्षक नजर आने वाले लिली के फूल लाल, पीला, गुलाबी, हलका लाल, सफेद व संतरी रंग के होते हैं. इन का इस्तेमाल खास कर गुलदस्ते बनाने के लिए किया जाता है. लिली के कटे हुए फूलों को अन्य फूलों की तुलना में ज्यादा समय तक संभाल कर रखा जा सकता है. लिली के पौधे की ऊंचाई 3 से 4 फुट तक होती है और 4-5 फूल प्रति पौधा आ जाते हैं. ठंडी जलवायु वाले इलाकों में लिली ज्यादा आसानी से उगाई जा सकती है. वैसे गरम जलवायु वाले क्षेत्रों में भी इस का उत्पादन किया जाता है.

लिली के पौधों पर ज्यादा तेज धूप का गंभीर असर होता है, अत: गरमी के मौसम में तेज धूप से बचाव के लिए पौधों के ऊपर जाली का इस्तेमाल करना चाहिए और पौधों को कम दूरी पर लगाना चाहिए. लिली की खेती के लिए सही तापमान 10 से 25 डिगरी सेंटीग्रेड सही रहता है.

लिली के फूल की बाजार में अच्छी मांग है, जिस से उस की कीमत भी अच्छी मिलती है. इस की खेती की तकनीक इस तरह है :

जमीन : लिली की खेती सभी तरह की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है. लेकिन जिस मृदा का पीएच मान 6.0 से 7.0 हो वह लिली के लिए अच्छी मानी जाती है.

जमीन की तैयारी : जमीन की 3-4 बार जुताई करनी चाहिए और उस के बाद गोबर की अच्छी तरह सड़ी खाद प्रति एकड़ समान रूप से खेत में फैलाएं. खाद फैलाने के बाद एक बार जुताई कर के खाद को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें फिर खेत समतल कर दें. इस के बाद 1 मीटर चौड़ी और 8-10 मीटर लंबी क्यारी बनाएं. यदि मिट्टी ज्यादा सख्त हो तो जुताई करने से पहले सिंचाई कर लें.

किस्में : लिली के 2 वर्ग हैं :

एशियाटिक लिली : इस की प्रमुख किस्में कोर्डिलिया, बीट्रीक्स, पेरिस, जेनेवा, लंदन, इलीट, लोट्स, अलास्का, फैस्टिवल, मोना, माउंटेन, वैरियंट, र्स्टलिंग स्टार, सोरबर्ट, यैलो जायंट और यैलो पीजेंट आदि मुख्य हैं.

ओरिएंटल लिली : इस की 2 प्रमुख किस्में हैं :

स्टार गैजर (सफेद) और स्टार गैजर (गुलाबी).

पौध लगाना : लिली की पौध कंद द्वारा लगाई जाती है. कंद अलगअलग व्यास के होते हैं. 10-12 सेंटीमीटर व्यास वाला कंद अच्छा माना जाता है, लेकिन रोगग्रस्त कंदों को पौध लगाने के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

कंद लगाने का समय : कंदों को मैदानी क्षेत्रों में अक्तूबरनवंबर में लगाते हैं और पहाड़ी क्षेत्रों में इन्हें अप्रैलमई में लगाते हैं.

कंद लगाने के तरीके : सर्दी के मौसम में कंदों को 7-8 सेंटीमीटर गहराई पर और गरमी के मौसम में 8-10 सेंटीमीटर गहराई पर लगाना चाहिए. एक कंद की दूसरे कंद से दूरी 15-20 सेंटीमीटर और लाइन से लाइन की दूरी 25-30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. कंद लगाते समय मिट्टी में सही नमी रखनी चाहिए.

सिंचाई : फसल को जरूरत के मुताबिक पानी देना चाहिए. वैसे सर्दी के मौसम में 10-12 दिन और गरमी के मौसम में 5-6 दिन के बीच सिंचाई करनी चाहिए.

सिंचाई के लिए अच्छी गुणवत्ता वाला पानी इस्तेमाल करना चाहिए.

लिली (Lily)

खाद और उर्वरक : अच्छे फूलों की पैदावार के लिए कंद लगाने के 20-22 दिन बाद 40 किलोग्राम सीएएन खाद प्रति एकड़ की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए. पौधे की अच्छी बढ़त के लिए कंद लगाने के 40-45 दिन बाद 40 किलोग्राम नाइट्रोजन उर्वरक प्रति एकड़ की दर से डालना चाहिए. खाद और उर्वरक डालने के बाद सिंचाई जरूर करें.

निराईगुड़ाई व खरपतवार की रोकथाम : लिली की फसल में खरपतवार भी काफी उगते हैं. इन को जड़ से उखाड़ने के लिए निराईगुड़ाई करनी चाहिए. निराईगुड़ाई से जमीन में वायु संचार बढ़ जाता है, जिस से पौधों की बढ़त अच्छी होती है.

पौधों को सहारा देना : जब पौधों की लंबाई ज्यादा हो जाए और वे झुकने लगें तो उन के पास सहारे के लिए एक बांस या लकड़ी लगा दें व पौधों को इन से बांध दें ताकि पौधे सीधे खड़े रह सकें.

छाया के लिए जाल : ज्यादा तेज धूप से लिली के पौधों पर गहरा असर पड़ता है. अत: इन्हें तेज धूप से बचाने के लिए 50 फीसदी छाया के लिए जाल लगाना चाहिए ताकि पौधों को प्रकाश और सही छाया मिल सके और पौधों की बढ़त भी अच्छी हो सके.

फूलों की डंडियों की कटाई : फूलों की डंडियां तब काटें जब कली खिलनी शुरू हो जाए. फूलों की डंडियों को जमीन की सतह से तकरीबन 6 इंच ऊपर से काटना चाहिए. साथ ही डंडी के निचले हिस्से की कुछ पत्तियां भी काट दें. उस के बाद पैकिंग कर बाजार में भेजना चाहिए.

कंद निकालना : फूल की डंडियों को काटने के बाद जब पौधा पीला पड़ कर सूख जाए तब इन के कंदों की खुदाई कर निकालना चाहिए. कंदों की खुदाई के दौरान सावधानी बरतें. कंदों को कोई नुकसान न पहुंचे. कंदों को निकालने के बाद छाया में रखना चाहिए.

लिली (Lily)

कंदों का भंडारण : लिली के कंदों को 26 फीसदी केप्टान रसायन से उपचारित करने के बाद शीत भंडारगृह में रखें. शीत भंडारगृह में 2.0 डिगरी सेंटीग्रेड से 3.0 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और 70-75 फीसदी नमी रहनी चाहिए. कंदों के नीचे बालू डालना चाहिए. समयसमय पर कंदों को पलटते रहें अन्यथा नीचे के कंद खराब हो सकते हैं. इस दौरान देख लें कि कंद में कोई बीमारी तो नहीं लगी है. यदि कंद बीमारी से ग्रस्त हों तो उन्हें अलग कर भंडारगृह से बाहर फेंक दें. भंडारणगृह में कंद सूखने नहीं चाहिए.

आमदनी : 1 एकड़ खेत में लिली की खेती करने पर 2 से ढाई लाख रुपए तक की आमदनी हो सकती है.

विस्तृत जानकारी और वित्तीय सुविधा के लिए निम्न पते पर संपर्क करें:

* नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र.

* राज्य सरकार के उद्यान विभाग.

* पुष्प विज्ञान संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली-12

* राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड, प्लाट नंबर 85 इंस्टिट्यूशनल क्षेत्र, गुरुग्राम (हरियाणा) यहां से वित्तीय सुविधा अनुदान सहित मिलती है.

केला उत्पादन से आमदनी बढ़ाएं

हमारे देश में केला एक लोकप्रिय फल है. यह लाभदायक होता है और आसानी से ज्यादा पैदावार होने से किसानों में काफी लोकप्रिय है. देश में केले की सभी किस्मों में गुच्छे के निचले हिस्से के फलों का कमजोर होना सब से बड़ी समस्या है, पर इस का अभी तक कोई इलाज नहीं है. कार्बनिक, जैविक, रासायनिक खादों और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के छिड़काव के बावजूद इस समस्या से नजात नहीं मिल पाई है. दक्षिणपूर्वी देशों में गुच्छे के निचले आधे भाग को गुच्छा बनने के तुरंत बाद काट देते हैं, लेकिन भारत की जलवायु की वजह से यह संभव नहीं है.

भारत में (2013-14 के अनुसार) केले की खेती 802.6 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है. क्षेत्रफल के हिसाब से आम व नीबू के बाद केले का तीसरा स्थान है, जबकि 29724.6 हजार मीट्रिक टन (2013-14 के अनुसार) उत्पादन के साथ यह पहले स्थान पर है.

मिट्टी : केला सभी तरह की मिट्टी में उग जाता है, लेकिन व्यावसायिक रूप से खेती करने के लिए अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो, फायदेमंद रहती है. ज्यादा रेतीली मिट्टी जो देर तक पोषक तत्त्वों को रोकने में असमर्थ रहती है और ज्यादा चिकनी मिट्टी जिस में पानी की कमी से दरारें पड़ जाती हैं, केले की खेती के लिए अच्छी नहीं होती हैं.

जलवायु : केला उष्ण जलवायु का पौधा है. गरम और नमी वाली जलवायु में इस की अच्छी पैदावार होती है. केले की खेती के लिए 20 से 35 डिगरी सेल्सियस तापमान अच्छा रहता है. 500 से 2000 मिलीमीटर वर्षा वाले इलाकों में इस की खेती की जा सकती है. केले को पाला और शुष्क तेज हवाओं से नुकसान होता है.

किस्में

ड्वार्फ कैवेंडिस (एएए) : यह सब से ज्यादा उगाई जाने वाली एक व्यावसायिक प्रजाति है. पौधे लगाने के 250-260 दिनों बाद इस में फूल आने शुरू हो जाते हैं. फूल आने के 110-115 दिनों बाद घार (फलों का गुच्छा) काटने लायक हो जाती है. इस तरह पौधे लगाने के 12-13 महीने बाद घार तैयार हो जाती है. फल 15 से 20 सेंटीमीटर लंबे और 3.0-3.5 सेंटीमीटर मोटे पीले व हरे रंग के होते हैं. घार का वजन 20 से 27 किलोग्राम तक होता है, जिस में औसतन 130 फल होते हैं.

यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है, लेकिन शीर्ष गुच्छा रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रोवस्टा (एएए) : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. फल 12-13 महीने में पक कर तैयार हो जाते हैं. फल आकार में 20 से 25 सेंटीमीटर लंबे और 3-4 सेंटीमीटर मोटे होते हैं. घार का भार औसतन 25 से 30 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और सिगाटोका रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रसथली (एएबी) : इस किस्म के फल आकार में बड़े तथा पकने पर सुनहरेपीले रंग के होते हैं. घार का भार 15 से 18 किलोग्राम तक होता है. फसल 13 से 15 महीने में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म में फल फटने की समस्या आती है.

पूवन (एएबी) : यह दक्षिण और उत्तरपूर्वी राज्यों में उगाई जाने वाली एक लोकप्रिय प्रजाति है. इस के पौधों की लंबाई ज्यादा होने से उन्हें सहारे की जरूरत नहीं होती है. पौधा लगाने के 12 से 14 महीने बाद घार काटने लायक हो जाती है. घार में मध्यम लंबाई वाले फल ऊपर की तरफ लगते हैं.

फल पकने के बाद पीले और स्वाद में हलका सा खट्टापन लिए मीठे होते हैं. फलों की भंडारण कूवत अच्छी है, इसलिए फल एक जगह से दूसरी जगह आसानी से भेजे जा सकते हैं. घार का औसत वजन 20 से 24 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और स्ट्रीक विषाणु रोग से प्रभावित होती है.

नेंद्रेन (एएबी) : इस किस्म का इस्तेमाल मुख्य रूप से चिप्स और पाउडर बनाने के लिए किया जाता है. इसे सब्जी केला भी कहा जाता है. इस के फल लंबे, मोटी छाल वाले थोड़े मुड़े हुए होते हैं. फल पकने पर पीले हो जाते हैं. घार का भार 8 से 12 किलोग्राम तक होता है. हर घार में 30-35 फल होते हैं. इस की खेती केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में की जाती है.

मांथन (एएबी) : इस किस्म के पौधे ऊंचे और मजबूत होते हैं. घार का भार 18 से 20 किलोग्राम होता है. प्रति घार औसतन 60-70 फल होते हैं. यह किस्म पनामा उकटा रोग से प्रभावित होती है, लेकिन पत्ती धब्बा और सूत्रकृमि रोगों की प्रतिरोधी होती है.

गें्रड नाइन (एएए) : इस किस्म के पौधों की ऊंचाई मध्यम और उत्पादकता ज्यादा होती है. फसल की अवधि 11-12 महीने की होती है. घार का भार 25 से 30 किलोग्राम होता है. सारे फल समान लंबाई के होते हैं.

कपूराबलि (एबीबी) : इस किस्म के पौधों की बढ़ोतरी काफी अच्छी होती है. घार का भार 25 से 35 किलोग्राम होता है. प्रति घार करीब 200 फल लगते हैं. फलों में मिठास और पेक्टिन की मात्रा दूसरी किस्मों के मुकाबले ज्यादा पाई जाती है. फलों की भंडारण क्षमता काफी अच्छी होती है. यह किस्म पनामा मिल्ट रोग और तना छेदक कीट के प्रति संवेदनशील और पत्ती धब्बा रोग की प्रतिरोधी होती है. यह तमिलनाडु और केरल की एक महत्त्वपूर्ण किस्म है.

संकर किस्में

एच 1 : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. घार का भार 14 से 16 किलोग्राम होता है. फल लंबे और पकने पर सुनहरेपीले होते हैं. इस किस्म से 3 साल के फसलचक्र में 4 बार फसलें ली जा सकती हैं.

एच 2 : इस के पौधे मध्यम ऊंचाई (2.13 मीटर से 2.44 मीटर) के होते हैं. फल छोटे, गसे हुए और गहरे हरे रंग के थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठी खुशबू वाले होते हैं.

को 1 : इस के फल में खास अम्लीय महक होती है. यह किस्म ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए ज्यादा कारगर होती है.

एफएचआर 1 (गोल्ड फिंगर) : इस किस्म की घार का वजन 18 से 20 किलोग्राम होता है. यह किस्म सिगाटोका और फ्यूजेरियम बिल्ट के प्रति अवरोधी होती है.

केले की खेती मुख्य रूप से अंत: भूस्तारी से की जाती है. केले की जड़ों से 2 तरह के सकर निकलते हैं यानी तलवार सकर और जलीय सकर. व्यावसायिक नजरिए से तलवार सकर खेती के लिए सब से सही हैं. इन की पत्तियां तलवार की तरह पतली और ऊपर की तरफ उठी रहती हैं. 0.5 से 1 मीटर ऊंचे और 3-4 महीने पुराने तलवार सकर रोपाई के लिए सही होते हैं. सकर ऐसे पौधों से लेने चाहिए, जो अच्छे और पूरी तरह विकसित हों और किसी रोग से पीडि़त न हों.

वर्तमान दौर में केले की खेती शूट टोप कल्चर, इन विट्रो, ऊतक प्रवर्धन विधि से भी की जाती है. इस विधि से तैयार पौधे विषाणु रोग से बचे रहते हैं.

banana production

रोपाई का समय

रोपाई का सही समय जलवायु, प्रजाति के चयन और बाजार की मांग आदि पर निर्भर करता है. तमिलनाडु में ड्वार्फ कैवेंडिश और नेंद्रेन किस्मों को फरवरी से अप्रैल, जबकि पूवन और कपूरावली किस्मों को नवंबरदिसंबर में रोपा जाता है. महाराष्ट्र में साल में 2 बार यानी जूनजुलाई और सितंबरअक्तूबर में रोपाई की जाती है.

रोपाई की विधि : खेत को 2-3 बार कल्टीवेटर चला कर समतल कर लें. रोपाई के लिए 60×60×60 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोदें. हर गड्ढे में मिट्टी, रेत और गोबर की खाद 1:1:1 के अनुपात में भरें. सकर को गड्ढे के बीच में रोप कर उस के चारों तरफ मिट्टी को अच्छी तरह से दबाएं. पौधों की दूरी, किस्म, जमीन की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है. सामान्य रूप से केले के पौधों की दूरी किस्मों के अनुसार सारणी में दिखाई गई है.

घनी रोपाई : घनी रोपाई विधि आर्थिक नजरीए से खास है. इस विधि में खरपतवारों की बढ़ोतरी कम होती है और तेज हवाओं से नुकसान कम होता है.

बौनी या मध्यम ऊंचाई वाली किस्मों जैसे कैवेंडिश, बसराई और रोबस्टा आदि घनी रोपाई के लिए सही होती हैं. रोबस्टा और ग्रेंड नाइन को 1.2×1.2 मीटर की दूरी पर रोप कर क्रमश: 68.98 और 94.07 टन प्रति हेक्टेयर की उपज हासिल होती है.

खाद व उर्वरक : केला अधिक पोषक तत्त्व लेने वाली फसल है. खाद और उर्वरक की मात्रा मिट्टी की उर्वराशक्ति, किस्म, उर्वरक देने की विधि और जलवायु पर टिकी रहती है. सामान्य वृद्धि और विकास के लिए 100 से 250 ग्राम नाइट्रोजन, 20 से 50 ग्राम स्फुर और 200-300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा जरूरी है. नाइट्रोजन और पोटाश को 4-5 भागों में बांट कर देना चाहिए और स्फुर की पूरी मात्रा को रोपण के समय ही देनी चाहिए.

सिंचाई : केले की रोपाई से ले कर तोड़ाई के समय तक 1800 से 2200 मिलीमीटर पानी की जरूरत होती है. केले में खासकर कूंड़, थाला और टपक सिंचाई विधि से सिंचाई की जाती है. केले को गरमियों में 3-4 दिनों और सर्दियों में 8-10 दिनों के भीतर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. ड्रिप विधि से सिंचाई किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है. इस विधि से सिंचाई करने पर 40-50 फीसदी पानी की बचत के साथ ही उत्पादन भी ज्यादा हासिल होता है.

मल्च का इस्तेमाल : मल्च के इस्तेमाल से जमीन में नमी बनी रहती है. साथ ही खरपतवारों की बढ़ोतरी भी रुकती है. गुजरात कृषि विश्वविद्यालय, नवसारी में ड्रिप सिंचाई विधि से गन्ने की खोई या सूखी पत्तियों द्वारा 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मल्चिंग करने से केले के उत्पादन में 49 फीसदी तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है और इस के साथ ही 30 फीसदी पानी की बचत भी होती है. इस के अलावा पौलीथीन शीट द्वारा मल्चिंग से भी अच्छे नतीजे हासिल हुए हैं.

देखभाल

मिट्टी चढ़ाना : पौधों पर मिट्टी चढ़ाना जरूरी होता है, क्योंकि इस की जड़ें उथली होती हैं. कभीकभी कंद जमीन से बाहर आ जाते हैं, जिस की वजह से उन की बढ़ोतरी रुक जाती हैं.

बेकार सकर हटाना : केले के पौधों में पुष्प गुच्छ निकलने से पहले तक बेकार सकर्स को हटाते रहना चाहिए. जब 3/4 पौधों में फूल आ जाएं तब 1 सकर को छोड़ कर अन्य को काटते रहें.

सहारा देना : केले के फलों का गुच्छा भारी होने से पौधे नीचे झुक जाते हैं. पौधों को गिरने से बचाने के लिए बांस की बल्ली या 2 बांस आपस में बांध कर कैंची की तरह बना कर फलों के गुच्छों को सहारा दें.

गुच्छों को ढकना : गुच्छों को सूरज की सीधी रोशनी से बचाने और फलों का आकर्षक रंग हासिल करने के लिए गुच्छों को छेद वाले पौलिथीन बैगों या सूखी पत्तियों से ढकना चाहिए.

एग्री बिजनेस (Agri Business) में किया कमाल

बिहार के एक किसान के बेटे ने ऐसा ही एक काम शुरू किया, जिस से आज हजारों फलसब्जी उत्पादक उस से फायदा उठा रहे हैं. अकेले इनसान के लिए यह करिश्मा करना आसान नहीं था, लेकिन एक ग्रामीण नौजवान ने अपनी सूझबूझ से यह मुमकिन कर दिया.

मिसाल

बिहार के नालंदा जिले के मौहम्मदपुर गांव के एक किसान ने अपने बेटे कौशलेंद्र को एग्रीकल्चर से इंजीनियरिंग करवाई. उस ने आईआईएम, अहमदाबाद से टौप किया. उसे कई नामी कंपनियों से मोटे वेतन पर नौकरी के औफर आए, लेकिन उस ने उन्हें ठुकरा दिया. कौशलेंद्र जानता था कि किसानों को उन की उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती, जिस वजह से परेशान किसान गांव छोड़ कर शहरों का रुख कर रहे हैं. इसलिए उस ने ऐसे रोजगार का फैसला किया जो खेती से जुड़ा हो और उस से किसानों का भी भला हो.

किसी भी काम को शुरू करने के लिए सब से पहले पूंजी की जरूरत होती?है, लेकिन उस के पास निवेश के लिए ज्यादा पैसा नहीं था बल्कि सिर्फ  एक नया विचार व सपना था. इसलिए उस ने कम पैसों में आसानी से शुरू होने वाला काम चुना. यह काम था आसपास के गांवों के छोटे किसानों और बागबानों से फल और सब्जियां खरीद कर उन्हें पटना शहर में बेचना.

इस काम में शुरुआत में कई दिक्कतें आईं. लोगों ने उसे बुराभला कहा और जलील किया कि इतना पढ़लिख कर तुम सब्जी बेचोगे. शुरू में तो ज्यादातर किसान कौशलेंद्र पर भरोसा करने व उसे अपनी उपज देने के लिए राजी नहीं थे, लेकिन इस नौजवान ने हिम्मत नहीं हारी. वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ता रहा.

जीरो से हीरो

पहले दिन मात्र 22 रुपए की सब्जी बेचने वाले इस नौजवान की कंपनी का सालाना कारोबार अब करोड़ों रुपए में है. हालांकि सब्जी का काम काफी जोखिम वाला होता है, क्योंकि सब्जियां बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं. उन्हें तरोताजा रखने के लिए काफी मुश्किल होती है. इसलिए किसान बिक्री के दौरान ही सब्जियां तोड़ते हैं, फिर उन्हें एक जगह पर इकट्ठा किया जाता है. यह सब काम तयशुदा तरीके से बिना देरी के होता है.

इस सब्जी चेन की कई खासियत हैं. मसलन, ग्राहकों की सहूलियत के लिए उन्हें प्रीपेड कार्ड मुहैया कराए गए हैं, जिन के जरीए सब्जी खरीदने के बाद वे चाहें तो नकदी की जगह आसानी से डिजीटल भुगतान भी कर सकते हैं. जल्दी ही इस काम को बढ़ा कर अब कौशलेंद्र बिहार के दूसरे इलाकों व राज्य से बाहर देशभर में फैलाना चाहता है.

एग्री बिजनेस से बेहतर बदलाव लाने के लिए कौशलेंद्र ने छोटे किसानों व उद्यमियों को खुशहाली से जोड़ा. इस के लिए उस का नाम देश के चुनिंदा उद्यमियों में गिना जाता है. राष्ट्रीय बागबानी मिशन ने सभी राज्य सरकारों को कौशलेंद्र का समृद्धि माडल अपनाने की सलाह दी है.

किसानों को सीख

यह तो सिर्फ एक नमूना है. यदि किसान चाहें तो अपनी सूझबूझ से अकेले ऐसा कोई भी कामधंधा कर सकते हैं. किसान छोटेबड़े उत्पादक संघ बना कर सरकार की मदद से खेती के सहयोगी कारोबार कर सकते हैं. अब फलसब्जी ताजा रखने के लिए कम कीमत वाले जीरो ऐनर्जी, पानी, वाष्प व सोलर ऐनर्जी आदि से चलने वाले कूल चैंबर्स की बहुत सी तकनीक मौजूद हैं. इस बारे में ज्यादा जानकारी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान व भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, पूसा, नई दिल्ली से ली जा सकती है.

कूल चेन बनाने व कूल चैंबर खरीदने के लिए खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय व बागबानी मिशन अपनी स्कीमों के तहत किसानों व उद्यमियों की मदद करते हैं. इस की जानकारी संबंधित विभागों की वैबसाइट्स या जिले के बागबानी दफ्तर से ली जा सकती है.

मशीनें

फलसब्जियों को पकाने व देर तक तरोताजा रखने वाले कूल चैंबर अब देश में ही आसानी से मिल जाते हैं. इसलिए इन्हें खरीदते समय पूरी तसल्ली व जानकारी के बाद ही अच्छी साख वाली नामी कंपनी से खरीदें. इच्छुक किसान व उद्यमी मै. पीजी ओमेगा इंटरप्राइजेज, एसएस नगर, चेन्नई, तमिलनाडु, फोन : 08046034054 से जानकारी कर सकते हैं.

उपज की खरीदारी, ढुलाई, भंडारण व बिक्री तक का पूरा ढांचा खड़ा करने के लिए सब से बड़ी जरूरत पूंजी की होती है. किसान खुद आगे आ कर पहल करें. इच्छुक किसान कंपनी बनाने, बाजार तलाशने, पूंजी जुटाने व छूट आदि सरकारी सहूलियतें हासिल करने के लिए इस पते पर संपर्क कर सकते हैं:

प्रबंध निदेशक,

लघु कृषक कृषि व्यापार संघ,

एनसीयूआई आडिटोरियम भवन,

अगस्त क्रांति मार्ग, नई दिल्ली. फोन : 011-26966077, 26966037

नई तकनीक से चारा उत्पादन

भारत में किसानों की आमदनी का मुख्य जरीया खेती के अलावा दूध उत्पादन भी है. भारत दूध के उत्पादन में दुनिया में पहले स्थान पर है. किसान दूध पैदा करने के लिए गाय, भैंस और बकरियां पालते हैं. इन से उन्हें भरपूर लाभ होता है.

पशुपालन के लिए सरकार किसानों को प्रोत्साहित कर रही है. इतना सब होने के बावजूद देश में पशुओं के लिए पौष्टिक चारा मुहैया नहीं हो पा रहा है, जिस से उन की दूध देने की कूवत पर असर पड़ रहा है. जनसंख्या के मुकाबले खेतों का दायरा कम होता जा रहा है, जिस की वजह से पशुओं के लिए हरा चारा मिलना काफी कठिन हो गया है.

किसानों के पास इतनी जमीन नहीं है कि वे खेतों में पशुओं के लिए चारा उगा सकें. इस समस्या से किसान परेशान हैं. कुछ ऐसी ही कहानी मध्य प्रदेश के होशंगाबाद रोड स्थित दीपड़ी गांव के आकाश पाटीदार की है, जिन का डेरी का कारोबार  है.

आकाश कहते हैं कि उन्हें पशुओं को हरा चारा खिलाना काफी महंगा पड़ रहा था, इसलिए वे परेशान रहते थे. लेकिन एक दिन उन्होंने यूट्यूब पर एक वीडियो देखा, जिस में कम लागत से हरा चारा उगाने की जानकारी थी. इस तकनीक का नाम हाइड्रोपोनिक्स ग्रास ट्रे है.

क्या है हाइड्रोपोनिक्स तकनीक : पानी, बालू या कंकड़ों के बीच बिना मिट्टी के चारा उगाए जाने की तकनीक को हाइड्रोपोनिक तकनीक कहते हैं.

इस विधि से चारे वाली फसल को 15 से 30 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान पर करीब 80 से 85 फीसदी नमी में उगाया जाता है और 8 से 10 दिनों में चारा तैयार हो जाता है. यह तकनीक काफी सस्ती भी पड़ती है. इस तकनीक से किसान चारे की समस्या पर काबू पा सकते हैं.

घर में कैसे तैयार करें हाइड्रोपोनिक्स चारा : हाइड्रोपोनिक्स ट्रे बनाने के लिए 8×2 फुट की टीन की चादर या प्लास्टिक ट्रे का इस्तेमाल किया जा सकता है. हाइड्रोपोनिक्स चारा 10 दिनों में पशुओं को खिलाने लायक हो जाता है, इसलिए आप को कम से कम 10 ट्रे की जरूरत होगी.

इस से आप को रोजाना हरा चारा हासिल होगा. एक ट्रे में करीब 10 किलोग्राम चारा हो जाता है.

बीज : हाइड्रोपोनिक्स ग्रास ट्रे के लिए करीब 1किलोग्राम मक्के के बीज लें. उन बीजों को 10 से 12 घंटे तक किसी बालटी में भीगने के लिए रख दें. अब इन भीगे हुए बीजों को 24 घंटे के लिए जूट के बोरे में लपेट कर रख दें. अगले दिन बीज अंकुरित हो जाएंगे, फिर इन अंकुरित बीजों को किसी ट्रे में रख दें.

पशुओं को रोजाना ताजा हरा चारा मिले, इस के लिए रोजाना बीजों को 12 घंटे के लिए भिगाएं और फिर उन्हें अगले 24 घंटे तक जूट के बोरे में लपेट कर रखें, जिस से बीजों में अंकुर आ जाएं. इस बात पर खास ध्यान दें कि हर दिन इसी तरह काम करना होगा. आप मक्के के बीजों के अलावा ज्वार, बाजरा और बरसीम के बीजों से भी पशुओं के लिए हरा चारा उगा सकते हैं.

मिट्टीपानी की जरूरत नहीं : हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से चारा उगाने के लिए पानी और मिट्टी की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन गरमियों में 10 दिनों में 1 या 2 बार पानी का हलका सा छिड़काव किया जा सकता है, क्योंकि अंकुरित बीजों में पहले से ही नमी रहती है.

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से लाभ : इस तकनीक का सब से बड़ा लाभ यह है कि इस से काफी कम जगह में पोषणयुक्त हरा चारा आसानी से मुहैया हो जाता है.

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से आम किसान सालभर दुधारू पशुओं के लिए कम जगह में हरा चारा उगा सकते हैं, जिन्हें आमतौर पर कई एकड़ में चारा उगाना पड़ता है. इस विधि से लागत भी काफी कम आती है और मिट्टी के उपजाऊ न होने का फर्क भी नहीं पड़ता.

* रिसर्च में पाया गया कि परंपरागत हरे चारे में क्रूड प्रोटीन 10.7 फीसदी होता है, जबकि मक्के से तैयार हाइड्रोपोनिक्स चारे में कू्रड प्रोटीन 13.6 फीसदी होता है, परंपरागत हरे चारे में कू्रड फाइबर भी कम होता है. हाइड्रोपोनिक्स चारे में अधिक ऊर्जा और विटामिन होते हैं. इस से पशुओं में दूध का उत्पादन अधिक होने लगता है.

* हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में मिट्टी की जरा भी जरूरत नहीं होती और पानी भी बहुत कम देना पड़ता है.

इस वजह से पौधों के साथ न तो अनावश्यक खरपतवार उगते हैं और न ही इन पर कीड़ेमकोड़े लगने का डर रहता है. इसलिए कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं होता और न ही खाद का. इस तकनीक से हरा चारा उगाने में मौसम का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता. इसे किसी भी मौसम में उगाया जा सकता है.

* हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से हरा चारा 8 से 10 दिनों में पशुओं को खिलाने के लायक हो जाता है. परंपरागत तकनीक में चारा तैयार होने में 40 से 45 दिन लगते हैं. 100 पशुओं के लिए परंपरागत विधि से चारा उगाने के लिए करीब 15 एकड़ जमीन की जरूरत पड़ती है, लेकिन हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से 1000 वर्गफुट में 15 एकड़ के बराबर चारा आसानी से कम लागत में उगाया जा सकता है.

इस चारे को मशीन से काट कर खिलाया जाता है और चारे की जड़ को भी पशुओं को खिलाया जाता है, क्योंकि उस में मिट्टी नहीं होती है.

Fodder production

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से दूध उत्पादन में बढ़ोतरी : इस तकनीक से उगाया गया चारा अंकुरित होने के कारण अधिक प्रोटीन और मिनरल से भरपूर होता है. इस से दूध में फैट की मात्रा बढ़ जाती है.

दूध देने वाले पशुओं को अतिरिक्त प्रोटीन व मिनिरल्स की जरूरत होती है, जिसे पूरा करने के लिए बाजार से अधिक कीमत में खरीद कर तरल प्रोटीन दिया जाता है.

बाजार से खरीदा गया प्रोटीन काफी मंहगा पड़ता है. इस की पूर्ति के लिए डेरी वाले ग्राहकों से ज्यादा कीमत वसूलते हैं.

प्रति पशु 40 रुपए की बचत : आकाश पाटीदार बताते हैं कि यूट्यूब पर सीखी गई इस तकनीक ने उन की हरे चारे की दिक्कत दूर कर दी है. आकाश बताते हैं कि उन्होंने पहले एक रैक में चारा उगाया और फिर इस की सफलता के बाद 1000 वर्गफुट में 100 पशुओं के लिए प्रोटीनयुक्त हरा चारा उगा रहे हैं.

पहले 1 पशु को दोनों समय मिला कर 8 किलोग्राम पशुआहार देना होता था, जिस के लिए बाजार से 20 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से पशुआहार खरीदना पड़ता था. वे अब सिर्फ 6 किलोग्राम चारा दे रहे हैं. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से प्रति पशु 40 रुपए की बचत होने लगी.

डाक्टर एसआर नागर कहते हैं कि मिट्टी जनित चारे के मुकाबले अंकुरित चारा हर लिहाज से बेहतर है.

इस में विटामिन ‘ए’ समेत भरपूर मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है. इस से दूध का उत्पादन बढ़ेगा, साथ में उस की गुणवत्ता भी बेहतर होगी.

रोटावेटर (Rotavator) से जुताई

आजकल खेती में नएनए यंत्र आ रहे हैं. रोटावेटर ट्रैक्टर से चलने वाला जुताई का एक खास यंत्र है, जो दूसरे यंत्रों की 4-5 जुताई के बराबर अपनी एक ही जुताई से खेत को भुरभरा बना कर खेती योग्य बना देता है.

रोटावेटर का फ्रेम लोहे के एंगल से बना होता है, जिस में इस के अन्य भाग जुड़े रहते हैं. यह एंगल संचालन के समय भागों को पकड़ कर रखता है और इस का दूसरा महत्त्वपूर्ण भाग रोटावेटर गैंग होता है.

रोटावेटर गैंग बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले इस्पात के बने होते हैं, जो फ्रेम में जुड़े रहते हैं. इन का संचालन मूविंग मेकैनिज्म द्वारा होता है और यही मिट्टी को काट कर भुरभुरा बनाते हैं, जिन के द्वारा जुताई का काम अच्छी तरह पूरा होता है.

इस का तीसरा महत्त्वपूर्ण भाग होता है यूनिवर्सल ज्वाइंट. यह रोटावेटर के अगले भाग में लगा होता है. इस को ट्रैक्टर के पीटीओ शाफ्ट से जोड़ा जाता है, जो मूविंग मेकैनिज्म को घुमाता है और रोटावेटर जुताई करना शुरू कर देता है.

इस का चौथा भाग मूविंग मेकैनिज्म होता है, जो ट्रैक्टर द्वारा दिए गए चक्कर के द्वारा मूविंग मेकैनिज्म रोटावेटर गैंग को चलाता है. इस से मिट्टी कटती है और जुताई का काम पूरा होता है.

रोटावेटर (Rotavator)

ट्रैक्टर के थ्री प्वाइंट लिंकेज को इस के थ्री प्वाइंट लिंकेज से जोड़ दिया जाता है. इस के बाद रोटावेटर के यूनिवर्सल ज्वाइंट को ट्रैक्टर के पीटीओ शाफ्ट से जोड़ देते हैं. इस के बाद पीटीओ शाफ्ट और ट्रैक्टर को खेत में एकसाथ चलाना शुरू करते हैं, जिस से रोटावेटर गैंग मूविंग मेकैनिज्म के द्वारा घूमने लगता है और मिट्टी कटकट कर भुरभुरी होने लगती है, जिस से जुताई का काम पूरा होता है.

देखभाल

रोटावेटर धातु से बना हुआ यंत्र होता है, इसलिए इस की देखभाल भी अच्छी तरह करना जरूरी होता है. इस के लिए रोटावेटर से जुताई करने से पहले इस मशीन को तैयार कर लेना चाहिए. तैयार करने के लिए इस के मूविंग मेकैनिज्म और रोटावेटर गैंग के ध्रुवों के पास बालबेयरिंग में ग्रीसिंग व औयलिंग कर लेना जरूरी होता है और जुताई का काम पूरा होने के बाद यंत्र को रखने से पहले अच्छी तरह मिट्टी और खरपतवारों को साफ कर लेना चािहए और किसी छायादार जगह पर सुरक्षित रखना चाहिए.

फायदे

रोटावेटर से जुताई करने पर मिट्टी बहुत छोटेछोटे टुकड़ों में बंट जाती है और पूरा खेत बहुत अच्छी तरह भुरभुरा हो जाता है व खेत में उगे खरपतवार और फसल अवशेष छोटेछोटे टुकड़ों में बंट कर जमीन में दब जाते हैं, जो सड़ कर मिट्टी में जीवांश पदार्थ में बदल जाते हैं.

रोटावेटर से जुताई करने पर दूसरे यंत्रों की  5 जुताई इस के केवल एक ही बार की जुताई में पूरी हो जाती है. इसलिए डीजल की खपत कम होती है और समय की भी बचत होती है.

खेती में भरपूर काम फिर भी महिला किसान होने का नहीं सम्मान

सदियों से खेतीकिसानी के काम को पुरुषों का ही काम माना जाता रहा है, जबकि खेतों में काम करते हुए लोगों को अगर देखें, तो उस में सब से ज्यादा तादाद महिलाओं की ही होती है. खरीफ सीजन में खेतों में काम करने वाले किसानों की तादाद में और भी इजाफा हो जाता है, क्योंकि खरीफ सीजन में धान रोपाई से ले कर कटाई, हार्वेस्टिंग और भंडारण तक में महिलाएं ही भूमिका निभाती हैं. फिर भी घर की इन महिलाओं को किसान होने का दर्जा इसलिए नहीं मिल पाता है, क्योंकि जमीन का मालिकाना हक घर के पुरुष सदस्य के पास ही होता है.

हम किसानों के लिए संबोधन किए जाने वाले सरकारी या गैरसरकारी लैवल पर भाषाई स्तर पर नजर डालें, तो किसान के रूप में अन्नदाताओं के लिए सिर्फ ‘किसान भाई’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, जबकि खेती में अहम भूमिका निभाने वाली महिलाओं को आज तक ‘किसान बहनों’ के नाम से संबोधित करते नहीं देखा गया. महिला किसानों के लिए यह असमानता मीडिया लैवल पर भी दिखाई देता रहा है.

खेती के करती हैं सभी काम, फिर भी नहीं मिलता दाम

महिलाएं घरपरिवार की देखभाल के साथसाथ पशुपालन, दूध निकालना, रोपाई, निराई, गुड़ाई, हार्वेस्टिंग और भंडारण तक का काम संभालती हैं, लेकिन जब कृषि उपज को बेचने की बात आती है, तो उस का निर्णय किसान कहलाने वाला घर का पुरुष सदस्य लेता है और उपज को बेच कर की हुई कमाई को भी अपने पास ही रखता है.

महिला किसानों के हक पर काम करने वाली माधुरी का कहना है कि जब महिलाएं दिनभर धान के पानी से भरे खेत में खड़ी हो कर पुरुषों की तरह ही निंदाईगुड़ाई कर सकती हैं, तो फिर मंडी में उसी फसल को बेचने के लिए उन्हें जाने क्यों नहीं दिया जाता बीज खरीदने, फसल बेचने, उस फसल से प्राप्त रकम के उपयोग में उस की भूमिका कहां चली जाती है, जबकि वह घर में सब से पहले उठने और सब से बाद में सोने वाली इकाई होती है?

किसान आंदोलन में खेती का पूरा काम महिलाओं के हवाले

देश के किसान जब खेतीबारी के मसलों पर नीति बनाने को ले कर दिल्ली और दिल्ली से सटे बौर्डर पर आंदोलन कर रहे थे, तो खेती से जुड़े 100 फीसदी कामों की जिम्मेदारियों को घर की महिलाओं ने ही संभाला था, लेकिन इस आंदोलन में चर्चा केवल पुरुष किसानों की ही हुई, जबकि अगर घर की महिलाएं खेती से जुड़े काम न संभालतीं तो खेती तो बरबाद ही होती. साथ ही, धरने पर बैठने वाले किसानों को आंदोलन में जीत भी नहीं मिलती.

महिलाओं ने इस दौरान न केवल खेती के काम बखूबी संभाले, बल्कि घर के बड़ेबुजुर्गों की देखभाल से ले कर बच्चों को स्कूल जाने के लिए तैयार करना, खाना पकाने जैसे काम को भी अंजाम दिया. किसान आंदोलन के दौरान हजारों की तादाद में महिला किसान भी धरने पर नजर आईं.

महिला किसानों के हक पर काम करने वाली माधुरी का कहना है कि पुरुषों के नाम खेती की जमीन होने मात्र से हम किसान होने का मानक तय नहीं कर सकते हैं, बल्कि हमें खेती में 80 फीसदी तक योगदान देने वाली घर की महिलाओं को भी ‘महिला किसान’ के रूप में सम्मान देना सीखना होगा.

महिला किसानों ने बढ़ाया महिलाओं का हौसला

बिहार में ‘किसान चाची’ के नाम से जानी जाने वाली एक महिला किसान हम सभी के लिए बड़ा उदाहरण हैं. उन्होंने कई जिलों में मीलों दूर साइकिल चला कर किसानी के प्रति गांव की महिलाओं में अलख जगाई.

उन्होंने देखा कि किसानों के पास खेती के लिए कम जमीनें थीं. घरपरिवार का गुजारा मुश्किल से होता था, परिवार की स्थिति ठीक नहीं थी. ऐसे में किसान चाची ने पुरुषों को शहरों में जा कर नौकरी करने और महिलाओं को खेती करने का रामबाण नुसखा दिया.

महिलाओं ने उन ‘चाची’ की सलाह मानी. नतीजा यह निकला कि उन के घरों में महिलापुरुष दोनों कमाने के लिए सशक्त हुए. बिहार में किसान चाची के प्रयास से आज कई जिलों की महिलाएं खेती के काम करती हैं. महिलाओं में खेती के प्रति जगाए सशक्तीकरण को देखते हुए 2 साल पहले भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ सम्मान से भी नवाजा.

महिला किसान (Woman Farmer)

ये सारे काम महिला किसानों के हवाले

हाल ही में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका द्वारा ‘फार्म एन फूड किसान सम्मान’ का आयोजन किया था, जिस में भारी तादाद में महिलाओं ने विभिन्न कैटीगिरियों में आवेदन किए थे. इस में खेतीकिसानी से जुड़े ऐसे काम भी रहे, जिस पर यह माना जाता है कि इन कामों को करने की कूवत केवल पुरुष किसानों में ही है. यह काम खेतीकिसानी से जुड़े बड़े कृषि यंत्रों के चलाने से जुड़ा है, जिसे महिला किसान बड़ी ही आसानी से संचालित कर रही हैं.

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के कोठडी बहलोलपुर गांव की रहने वाली बेहद कम उम्र की शुभावरी चौहान न सिर्फ एक सफल किसान हैं, बल्कि वे अपने पिता के साथ मिल कर ट्रैक्टर से खेतों की जुताई भी करती हैं और कालेज जाने के लिए मोटरसाइकिल का इस्तेमाल करती हैं.

वर्तमान में शुभावरी चौहान अपने गांव से तकरीबन 45 किलोमीटर दूर सहारनपुर में ‘मुन्ना लाल गर्ल्स डिगरी कालेज’ में अपने बीए फाइनल ईयर की पढ़ाई कर रही हैं. उन का सालाना टर्नओवर 25 लाख रुपए है और वे 25-30 लोगों को रोजगार प्रदान करती हैं.

इसी तरह गांव कोटी अठूरवाला, जिला देहरादून, उत्तराखंड की रहने वाली पशुपालक पुष्पा नेगी पशुपालन के क्षेत्र में नवीनतम तकनीक अपना कर स्थानीय किसानों को भी जागरूक करती हैं.

पशुपालक पुष्पा नेगी के द्वारा साल 2016 से गोपालन किया जा रहा है. इस समय उन के पास लगभग 30 गाय हैं, जिन में होल्सटीन फ्रीजियन और साहीवाल दोनों नस्ल की गाय शामिल हैं.

पुष्पा नेगी गाय के दूध से घी, छाछ, मक्खन आदि बना कर बाजार में अच्छे दामों पर बेचती हैं और प्रकृति संरक्षण को ध्यान में रखते हुए उन के यहां गाय के गोबर से दीया, दीपक, मूर्ति, समरानी कप, गौ काष्ठ एवं वर्मी कंपोस्ट आदि चीजें तैयार की जाती हैं. इस काम में उन्होंने अनेक लोगों को जोड़ रखा है, जिस से उन्हें भी रोजगार मिल रहा है.

गोंडा जनपद की रहने वाली साधना सिंह साल 2012 से कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. इस समय वे कृषि आधारित कई व्यवसाय भी कर रही हैं. उन्होंने 2 भैंसों के साथ पशुपालन का काम शुरू किया था और इस समय उन के पास 35 दुधारू भैंसें हैं. उन के दूध से पारंपरिक बिलोना विधि से भैंस का देशी घी तैयार किया जाता है, जो ‘अवध गोल्ड’ के नाम से बिकता है.

साधना सिंह के पास 2 पोल्ट्री फार्म हैं, जिस से उन्हें सालाना 7 से 8 लाख रुपए का मुनाफा होता है. इस के अलावा वे मछलीपालन व्यवसाय से भी जुड़ी हैं, जिस से उन्हें सालाना 10 लाख का लाभ प्राप्त होता है.

साधना सिंह का कहना है कि हम पंगास मछली का उत्पादन करते हैं. यह हाईडैंसिटी में उत्पादन होने वाली मछली है, जिस से ज्यादा मुनाफा होता है. मछलीपालन में फायदा होते देख कई महिला किसानों ने मछलीपालन शुरू किया है, जिस से गांव में अनेक महिला किसान मछलीपालन से फायदा उठा रही हैं. इस के अलावा वे 40 एकड़ में गन्ने की खेती और 20 एकड़ में धान की खेती करती हैं. 2 एकड़ में वे जैविक खेती से धान और गेहूं उत्पादन करती हैं.

बस्ती जिले के बिहराखास गांव की रहने वाली पुष्पा गौतम कृषि उत्पादों जैसे मल्टीग्रेन आटा, चावल, चना, अचारमुरब्बा आदि की प्रोसैसिंग कर बाजार से कई गुना अधिक मुनाफा कमाने के साथसाथ अनेक लोगों को ट्रेनिंग व रोजगार भी दे रही हैं.

महिला किसानों को मिलेगी सही पहचान

महिला किसान अधिकारों पर काम करने वाली और एक सफल किसान माधुरी का कहना है कि खेतीकिसानी से जुड़ी ट्रेनिंग और अन्य क्षमतावर्धन गतिविधियों में महिला किसानों को कम तवज्जुह दी जाती है. अगर सरकारी और गैरसरकारी लैवल पर आयोजित होने वाले इन कार्यक्रमों में महिला किसानों की भागीदारी बढ़ाई जाए, तो उन्हें असल पहचान मिल पाएगी.

वे कहती हैं कि परंपरागत रूप से महिलाओं को खेती में निराई, बोआई, रोपाई और कटाई जैसे काम सौंपे जाते थे. उत्पाद बेचना घर के पुरुष सदस्य का अधिकार होता था. वे पशुपालन जैसी सहायक गतिविधियों की देखभाल में भी शामिल थे. लेकिन अब यह सब बदल रहा है.

आज सरकार से इतर देश की कई गैरसरकारी संस्थाएं गांव की महिलाओं को कृषि व्यवसाय मौडल पर शिक्षित कर के उन की प्रबंधन क्षमताओं को निखार रही हैं और नई आजीविकाओं में प्रशिक्षित कर रही हैं, जिस में खेती के अलावा ग्रेडिंग, सौर्टिंग, तौल, भंडारण, लोडिंग, अनलोडिंग, चालान और समन्वय रसद को प्रसंस्करण मिलों तक उत्पाद भेजने पर महिलाओं की क्षमता बढ़ाई जा रही है.

माधुरी बताती हैं कि एक अनुमान के मुताबिक भारत में तकरीबन 10 करोड़ महिलाएं खेती से जुड़ी हैं. लेकिन इन्हें महिला किसान न मान कर खेतिहर मजदूर माना जाता है.

वे कहती हैं कि छोटे और मझोले किसान घरों की तकरीबन 75 फीसदी महिलाएं खेती के कामों से तो जुड़ी हैं, किंतु आमतौर पर उन्हें उन के कामों का श्रेय नहीं दिया जाता है, न ही उन के हाथों में सीधी मजदूरी पहुंचती है और कई बार वे खेती से जुड़ी निर्णय प्रक्रिया से बाहर रहती हैं. वे खेती और परिवार से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी एकसाथ निभाती हैं. लेकिन इन सब के बावजूद उन के योगदान का मूल्यांकन कहीं नहीं होता है.

बढ़ाया महिला किसानों के नाम खेती का रकबा

खेती की जमीन के मालिकाना हक के मामले में पुरुषों का दबदबा रहा है, लेकिन जब से ‘पीएम किसान सम्मान निधि’ योजना की शुरुआत हुई है, तब से घर के पुरुषों ने साल में मिलने वाले 6,000 रुपए के लालच में अपने घर की महिलाओं के नाम जमीन ट्रांसफर करना शुरू कर दिया.

अगर हम ‘पीएम किसान सम्मान निधि’ योजना के आंकड़ों पर गौर करें, तो 12.13 करोड़ पंजीकृत किसानों में 25 फीसदी हिस्सेदारी महिलाओं की है. पीएम किसान सम्मान निधि पोर्टल पर पंजीकृत महिला किसानों का यह आंकड़ा बहुत कम था, जो इस योजना के आने के बाद बढ़ा है.

इस के अलावा उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जमीन नामांतरण प्रक्रिया में बड़ी सहूलियत दी है. इस के तहत उत्तर प्रदेश में अब कोई भी व्यक्ति 5,000 रुपए का स्टांप शुल्क दे कर अपने परिजनों के नाम जमीन का बैनामा कर सकता है. इस स्कीम के चलते उत्तर प्रदेश में महिलाओं के नाम खेती योग्य जमीन के रकबे में बढ़ोतरी दर्ज की गई है.

महिला किसान (Woman Farmer)खेतीबारी से जुड़े आंकड़ों में भी महिलाएं

‘पीएम किसान’ पोर्टल पर महिला किसानों के जो आंकड़े प्रदर्शित हैं, भारत की जनगणना 2011 से बेहद कम है, क्योंकि साल 2011 की जनगणना के हिसाब से देश में तकरीबन 6 करोड़ महिला किसान हैं, वहीं आवधिक श्रमबल सर्वे 2018-19 का डेटा बताता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 71.1 फीसदी महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं.

माधुरी कहती हैं कि 73.2 फीसदी ग्रामीण महिला श्रमिक किसान हैं, लेकिन उन के पास 12.8 फीसदी जमीन स्वामित्व है. महाराष्ट्र में 88.46 फीसदी ग्रामीण महिलाएं कृषि में लगी हैं, जो देश में सब से ज्यादा है.

साल 2015 की कृषि जनगणना के अनुसार, पश्चिमी महाराष्ट्र के नासिक जिले में महिलाओं के पास केवल 15.6 फीसदी कृषि भूमि का स्वामित्व है यानी कुल खेती वाले क्षेत्र में 14 फीसदी की हिस्सेदारी है.

वे बताती हैं कि संयुक्त राष्ट्र की साल 2013 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जबरन बेदखली या गरीबी के खतरे को कम कर के, प्रत्यक्ष और सुरक्षित भूमि अधिकार महिलाओं की घर में सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ाते हैं और उन की सार्वजनिक भागीदारी के स्तर में सुधार करते हैं.

माधुरी के अनुसार, महिलाओं को ‘महिला किसान’ के रूप में बनाई गई नीतियां नाकाफी हैं, इसलिए सरकार को इन नीतियों की समीक्षा कर उस में जरूरी सुधार कर के उस की सख्ती से पालन सुनिश्चित कराने की जरूरत है.

कचरे के पहाड़ों पर खेती : कमाई की तकनीक

वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.

हमारे देश में कचरे की लैंडफिलिंग कचरा निष्पादन का प्रमुख तरीका है, जो बिलकुल अवैज्ञानिक है. देश में हजारों लैंडफिल जगहें हैं, जहां हजारों टन ठोस कचरा जमा है, जिस में दिल्ली की गाजीपुर, ओखला, भलस्वा, मुंबई की मुलुंड, देवनार, नागपुर की भांडेवाड़ी, अहमदाबाद की पिराना और बैंगलुरु की मंदूर लैंडफिल साइट्स ऐसी डंपिंग साइट्स हैं, जहां कचरे के बड़ेबड़े पहाड़ बन चुके हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, देशभर में मौजूद कचरे के पहाड़ों के नीचे तकरीबन 15,000 एकड़ जमीन दबी हुई है, जिस पर तकरीबन 16 करोड़ टन कचरा जमा है. देश में बढ़ते कचरे के पहाड़ पानी, हवा एवं मिट्टी को दूषित कर पर्यावरण एवं सेहत के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं.

कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के लिए सरकार ने ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत 10 साल में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए, लेकिन आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार महज 15 फीसदी ही कचरे के पहाड़ों को साफ एवं 35 फीसदी कचरे को निष्पादित किया जा सका है.

अगर इस गति और इतने खर्च से कचरे के पहाड़ों के निष्पादन का काम होगा, तो शायद ये कचरे के पहाड़ कभी भी खत्म नहीं हो पाएंगे. अगर कचरे के पहाड़ खत्म हो भी जाते हैं, तो उन को खत्म करने में जो खर्चा आएगा, वह शायद कचरे के पहाड़ों से होने वाले नुकसान से भी ज्यादा होगा, इसलिए मौजूदा कचरे के पहाड़ों को साफ करने की व्यवस्था के साथसाथ कचरे के पहाड़ों पर खेती करने की कार्ययोजना बनाई जाए, क्योंकि देश में मौजूद ज्यादातर कचरे के पहाड़ों में 50 फीसदी से अधिक जैव कचरा है, इसलिए कचरे के पहाड़ों पर खेती संभव हो सकती है.

कचरा खेती

कचरा खेती तकनीक पर्यावरण हितैषी, आर्थिक रूप से सस्ती और सामाजिक रूप से स्वीकार्य तकनीकी है. इस तकनीक में कचरे के पहाड़ों पर खेती करते हैं, जिस में सजावटी पौधों, फूलों, औषधीय पौधों और हरी खाद की खेती के साथसाथ बड़े पेड़पौधों और ?ाडि़यों को भी उगाते हैं.

कचरा खेती में अनाज, दलहन एवं तिलहन की फसलें, फल एवं सब्जियों की खेती नहीं करते हैं, क्योंकि कचरे के पहाड़ों में जहरीला कचरा भी मौजूद होता है जैसे भारी धातुएं और जैव रासायनिक प्रक्रिया से बहुत से जहरीले कैमिकल पैदा होते हैं, जो उगाए गए पौधों में चिपक जाते हैं.

यदि इन पौधों के किसी भी भाग का इस्तेमाल पशुओं या इनसानों द्वारा किया जाता है, तो ये जहरीले तत्त्व पौधों के माध्यम से इनसानों एवं पशुओं के शरीर में जा कर गंभीर सेहत संबंधी समस्याएं पैदा कर सकते हैं.

कचरे के पहाड़ों पर खेती करने के लिए सब से पहले कचरे के पहाड़ों को सीढ़ीनुमा खेत में बदलते हैं, जिस में सीढ़ी का ढाल अंदर की ओर रखते हैं. इस से कचरे के पहाड़ से निकलने वाला जहरीला तरल पदार्थ बह कर पहाड़ के बाहर न जाए.

इस के बाद सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में न सड़ने वाला कचरा जैसे पौलीथिन, प्लास्टिक और धातु के कचरे को तकरीबन 30 सैंटीमीटर गहराई की परत से छांट कर निकाल देते हैं और बचे कचरे को महीन कर लेते हैं. इस के बाद खेत की उपजाऊ मिट्टी में जरूरत के मुताबिक गोबर या केंचुए या कंपोस्ट खाद और उर्वरकों को मिला कर सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में अच्छी तरह मिला देते हैं.

यदि नमी न हो, तो पानी का छिड़काव कर कचरे को नम कर देते हैं. इस के बाद सीढ़ीनुमा खेत में नर्सरी में तैयार पौधों का रोपण करते हैं.

ध्यान रहे कि कचरा खेती में बीजों को सीधे खेत में नहीं बोते, क्योंकि कचरे में बीजों का जमाव ठीक से नहीं हो पाता है, इसलिए पौधों को नर्सरी में तैयार कर रोपण करते हैं. लेकिन जिन पौधों या फसलों की नर्सरी तैयार करना कठिन होता है, ऐसी फसलों के बीजों की बोआई करते हैं, जैसे हरी खाद की फसलें ढैंचा, सनई आदि.

कचरे के सीढ़ीनुमा खेतों में पेड़पौधों को लगाने के लिए चिह्नित जगहों पर एक मीटर लंबाई, चौड़ाई और गहराई के गड्ढे खोद कर उन का कचरा बाहर निकाल देते हैं और फिर उन में मिट्टी और सड़ी गोबर की खाद के तैयार मिश्रण को भर कर पौधों को रोप देते हैं.

पौधों का रोपण बारिश के मौसम में करते हैं, जिस से पौधों को पानी देने की जरूरत न पड़े और पौधों की बढ़वार भी अच्छी हो सके. पौधों की अच्छी बढ़वार एवं विकास के लिए जरूरत के मुताबिक ड्रोन, स्प्रिंकलर या ड्रिप विधि से सिंचाई करते हैं. साथ ही, कीट, रोग एवं खरपतवार प्रबंधन का भी काम करते रहते हैं.

Farming on mountainsकचरा खेती के लाभ

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से कचरे के दुर्गंध वाले पहाड़ों को बिना खत्म किए हरित क्षेत्र में बदला जा सकता है.

* गरमियों के दिनों में कचरे के पहाड़ों में आग लगने की समस्या का भी समाधान हो जाएगा.

* कचरे के पहाड़ों से निकलने वाली दुर्गंध फूलों की सुगंध में परिवर्तित हो कर आसपास के वातावरण को शुद्ध करेगी.

* कचरे के पहाड़ों से उड़ने वाली धूल पर भी नियंत्रण होगा.

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से आसपास का वातावरण स्वच्छ रहेगा, तो पहाड़ों के आसपास की बस्तियों के लोगों में बीमारियों का खतरा भी कम होगा.

* कचरा खेती से कचरे के पहाड़ों के आसपास के लोगों को रोजगार और आय सृजन के अवसर भी उपलब्ध होंगे.

* लंबे समय तक कचरे के पहाड़ों पर खेती करते रहने पर कचरे के पहाड़ धीरेधीरे अपघटित हो कर समतल खेत में बदल जाएंगे, क्योंकि कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से पेड़पौधों की जड़ों के माध्यम से वर्षा एवं सिंचाई का पानी पहाड़ के अंदर तक कचरे को गीला रखेगा, जिस से कचरे का अपघटन तेज होगा और पेड़पौधों की जड़ों में उपस्थित असंख्य सूक्ष्म जीव कचरे को सड़ाने में मददगार होंगे.

* पेड़पौधों की जड़ों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के अम्ल कचरे को गलाने एवं सड़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, इसलिए कचरे के पहाड़ धीरेधीरे विघटित एवं अपघटित हो कर जमींदोज हो जाएंगे.

मौजूद कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के काम के साथसाथ स्थानीय स्तर पर ही कचरे के निष्पादन की कार्ययोजना पर काम  किया जाए, जिस से भविष्य में नए कचरे के पहाड़ वजूद में न आ सकें.

मसाला तथा औषधिय फसल मैथी (Fenugreek)

दुनिया में मसाला उत्पादन और मसाला निर्यात के हिसाब से भारत का प्रथम स्थान है, इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. मसाले हमारे खाद्य पदार्थों को स्वादिष्ठता तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही हम इस से विदेशी पैसा भी कमाते हैं.

मसाले की एक प्रमुख फसल मेथी है. इस की हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी और भरपूर मात्रा में खनिज तत्त्व पाए जाते हैं. मेथी के बीज मसाले और दवा के रूप में काफी उपयोगी है.

भारत में मेथी की खेती व्यावसायिक स्तर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब राज्यों में की जाती है. भारत मेथी का मुख्य उत्पादक और निर्यातक देश है. इस का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है.

भूमि और जलवायु

मेथी को अच्छे जल निकास एवं पर्याप्त जीवांश वाली सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परंतु दोमट मिट्टी इस के लिए उत्तम रहती है. यह ठंडे मौसम की फसल है. पाले व लवणीयता को भी यह कुछ स्तर तक सहन कर सकती है.

मेथी की प्रारंभिक वृद्धि के लिए मध्यम आर्द्र जलवायु और कम तापमान उपयुक्त है, परंतु पकने के समय गरम व शुष्क मौसम उपज के लिए लाभप्रद होता है. पुष्प व फल बनते समय अगर आकाश बादलों से घिरा हो, तो फसल पर कीड़ों व बीमारियों के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है.

उन्नत किस्में

आरएमटी 305 : यह एक बहुफलीय किस्म है. इस का औसत बीज भार और कटाई सूचकांक अधिक है. फलियां लंबी और अधिक दानों वाली होती हैं, जिस के दाने सुडौल, चमकीले पीले होते हैं. इस किस्म में छाछ्या रोग के प्रति अधिक प्रतिरोधकता है. इस किस्म के पकने की अवधि 120-130 दिन है. औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएमटी 1 : समूचे राजस्थान के लिए यह उपयुक्त किस्म है. इस के पौधे अर्ध सीधे एवं मुख्य तना नीचे की ओर गुलाबीपन लिए होता है. बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप कम होता है. पकने की अवधि 140-150 दिन है. इस की औसत उपज 14-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

हरी पत्तियों के लिए

पूसा कसूरी : यह छोटे दाने वाली मेथी होती है. इस की खेती हरी पत्तियों के लिए की जाती है. कुल 5-7 हरी पत्तियों की कटाई की जा सकती है. इस की औसत उपज 5-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी : भारी मिट्टी में खेत की 3-4 और हलकी मिट्टी में 2-3 जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए और खरपतवार को निकाल देना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक : प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय डालें. इस के अलावा 40 किलोग्राम नाइट्रोजन एवं 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में ऊपर से दें.

बीज की बोआई एवं मात्रा : इस की बोआई अक्तूबर माह के अंतिम सप्ताह से नवंबर माह के पहले सप्ताह तक की जाती है. बोआई में देरी करने से फसल के पकने की अवस्था के समय तापमान अधिक हो जाता है. इस वजह से फसल शीघ्र पक जाती है और उपज में कमी आती है. पछेती फसल में कीट व बीमारियों का प्रकोप अधिक बढ़ जाता है.

इस के लिए 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. बीजों को 30 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में 5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोएं. बीजों को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर बोने से फसल अच्छी मिलती है.

सिंचाई एवं निराईगुड़ाई : मेथी की खेती रबी में सिंचित फसल के रूप में की जाती है. सिंचाइयों की संख्या मिट्टी की संरचना और वर्षा पर निर्भर करती है. वैसे, रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज के लिए तकरीबन 8 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है. परंतु अच्छे जल धारण क्षमता वाली भूमि में 4-5 सिंचाइयां पर्याप्त हैं.

फली व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं रहे. बीज बोने के बाद हलकी सिंचाई करें. उस के बाद आवश्यकतानुसार 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें.

बोआई के 30 दिन बाद निराईगुड़ाई कर पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए व कतारों में बोई फसल में अनावश्यक पौधों को हटा कर पौधों के बीच की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें.

अगर जरूरी हो, तो 50 दिन बाद दूसरी निराईगुड़ाई करें. पौधों की वृद्धि की प्राथमिक अवस्था में निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में पूरी तरह से हवा का संचार होता है और खरपतवार रोकने में मदद मिलती है.

खरपतवार नियंत्रण

मेथी को उगने के 25 व 50 दिन बाद 2 निराईगुड़ाई कर पूरी तरह से खरपतवार से मुक्त रखा जा सकता है. इस के अलावा मेथी की बोआई के पहले 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन को 600 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें. उस के बाद मेथी की बोआई करें या फिर पेंडीमिथेलीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर  को 600 लिटर पानी में घोल कर मेथी की बोआई के बाद, मगर उगने से पहले छिड़काव कर के खरपतवारों से मुक्त किया जा सकता है.

यह ध्यान रखें कि फ्लूक्लोरेलिन के छिड़काव के बाद खेत को खुला न छोड़ें, अन्यथा इस का वाष्पीकरण हो जाता है और पेंडीमिथेलीन के छिड़काव के समय खेत में नमी होना आवश्यक है.

मैथी (Fenugreek)

प्रमुख कीट एवं उन का प्रबंधन

फसल पर नाशीकीटों का प्रकोप कम होता है, परंतु कभीकभी माहू, तेला, पत्ती भक्षक, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, माइट्स, फली छेदक एवं दीमक आदि का आक्रमण पाया गया है. सब से ज्यादा नुकसान माहू कीट से होता है.

माहू का प्रकोप मौसम में अधिक नमी व आकाश में बादल के रहने पर अधिक होता है. यह कीट पौधों के कोमल भागों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है. दाने कम व निम्न गुणवत्ता के बनते हैं.

इस की रोकथाम के लिए जैविक विधियों का अधिकाधिक प्रयोग करें. आक्रमण बढ़ता दिखने पर नीम आधारित रसायनों निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल आधारित 0.03 फीसदी का 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. कीटनाशी अवशेषों से उपज को बचाएं.

प्रमुख रोग और उन का प्रबंधन

छाछ्या : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है. रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है और पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस से काफी नुकसान होता है.

प्रबंधन : गंधक चूर्ण 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भुरकाव करें या केराथेन एलसी 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 10 से 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार माधवी बोएं.

तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘पेरेनोस्पोरा स्पी. ’ नामक कवक से होता है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले घब्बे दिखाई देते हैं और नीचे की सतह पर फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है. उग्र अवस्था में रोग से ग्रसित पत्तियां झड़ जाती हैं.

प्रबंधन : फसल में अधिक सिंचाई न करें. इस रोग के लगने की प्रारंभिक अवस्था में फसल पर मैंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार मुक्ता एचएम 346 बोएं.

जड़गलन : मेथी की फसल में जड़गलन रोग का प्रकोप भी बहुत होता है, जो बीजोपचार कर और फसलचक्र अपना कर, ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले भूमि में दे कर कम किया जा सकता है.

कटाई एवं उपज

जब पौधों की पत्तियां झड़ने लगें व पौधे पील रंग के हो जाएं, तो पौधों को उखाड़ कर या फिर दंताली से काट कर खेत में छोटीछोटी ढेरियोंं में रखें. सूखने के बाद कूट कर या थ्रैशर से दाने अलग कर लें. साफ दानों को पूरी तरह सुखाने के बाद बोरियों मे भरें. समुचित तरीके से खेती की क्रियाओं को अपनाने से 15 से 20 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार हो सकती है.

गेहूं की खेती (Wheat Cultivation) में कीटों व रोगों से बचाव

दीमक (ओडोंटोटर्मिस आबेसेस) : दीमक बिना सिंचाई वाली और हलकी जमीन का एक खास हानिकारक कीट है. दीमक जमीन में सुरंग बना कर रहती है और पौधों की जड़ें खाती है, जिस वजह से पौधे सूख जाते हैं. यह हलके भूरे रंग की होती है. इस का असर टुकड़ों में होता है, जिसे आसानी से पहचाना जाता है.

रोकथाम : 1 किलोग्राम बिवेरिया और 1 किलोग्राम मेटारिजयम को तकरीबन 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर प्रति एकड़ बोआई से पहले इस का इस्तेमाल करें. असर ज्यादा होने पर क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी की 3-4 लीटर मात्रा बालू में मिला कर प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें. बीज बोआई से पहले इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस 0.1 फीसदी से उपचारित कर लेना चाहिए.

माहूं : गेहूं में 2 तरह के माहूं लगते हैं. पहला जड़ का माहूं रोग कारक रोपालोसाइफम रूफीअवडामिनौलिस नामक कीट है. दूसरा, पत्ती का माहूं है, यह सीटोबिनयन अनेनी, रोपालोसारफम पाडी और इस की विभिन्न जातियों से होता है. यह फसल की पत्तियों का रस चुस कर नुकसान पहुंचाता है. इन के मल से पत्तियों पर काले रंग की फफूंदी पैदा हो जाती है, जिस से फसल का रंग खराब हो जाता है.

रोकथाम : माहूं का असर होने पर पीले चिपचिपे ट्रेप का इस्तेमाल करें, जिस से माहूं ट्रेप पर चिपक कर मर जाए. परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50000 से 100000 अंडे या सूंडी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें. 5 फीसदी नीम का अर्क या 1.25 लीटर तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें. बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. इंडोपथोरा व वरर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोग कारक कवक) का माहूं का असर होने पर छिड़काव करें. जरूरत होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल डाइमेथोएट 30 ईसी या मेटासिसटाक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

कर्तन कीट (एग्राटिन एप्सिलाना) : इस की सूंडियां खेत में एकसाथ हमला कर के सारी पत्तियां खा जाती हैं. नर व मादा संभोग कर पत्तियों पर अंडे देते हैं. इन की जीवन चक्र क्रिया वातावरण के हिसाब से एकदो महीने में पूरी होती है. इस की सूंडी जमीन में गेहूं के पौधे के पास मिलती है और जमीन की सतह से पौधे को काट देता है.

रोकथाम : खेतों के बीचोंबीच शाम को घासफूस के छोटेछोटे ढेर लगाने चाहिए. रात को जब सूंडियां खाने को निकलती हैं तो बाद में इन्हीं में छिपती हैं. घास हटाने पर आसानी से इन्हें नष्ट किया जा सकता है. ज्यादा असर होने पर क्लोरपाइरीफास 20 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

 

सैनिक कीट (माइथिमना सपरेटा) : अंडे से निकली सूंडी हवा के झोंकों से एक पौधे से दूसरे पौधे तक पहुंचती है. नवजात सूंडी पौधे के बीच की मुलायम पत्तियों को खाती है. जैसेजैसे यह बढ़ती है, तो पुरानी पत्तियों को खाने लगती है और पूरा पौधा कंकाल हो जाता है. बड़ी सूंडियां बालियों के सींकुर भी खाती हैं, साथ ही बिना पके दानों को भी खाती हैं. इसे काली कर्तन कीट या बाली काटने वाला कीट भी कहा जाता है.

रोकथाम : कीटनाशी रसायन डायक्लोरवास 76 फीसदी 500 मिलीलीटर, क्विनालफास 25 ईसी 1 लीटर या कार्बारिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी की 3 किलोग्राम मात्रा को 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

तना मक्खी या प्ररोह मक्खी (एथरिगोना सोकटा) : मादा मक्खी तने के निचले भाग में या पत्तियों के नीचे अंडे देती है. अंडे से मैगट निकल कर तने में छेद कर के भीतर दाखिल हो जाती है और अंदर से तने को खाती रहती है. तने के अंदर सुरंग बना कर मृत केंद्र डेडहार्ट बनाती है. फलस्वरूप पौधा पीला पड़ जाता है और अंत में सूख जाता है.

रोकथाम : कीटनाशी रसायन इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल 1 मिलीलीटर या साइपरमेथ्रिन 25 फीसदी की 350 मिलीलीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. कार्बारिल 10 फीसदी डीपी 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकें.

कटाई और मंडाई : जब गेहूं का दाना पक जाए या दांत से तोड़ने पर कट की आवाज आए तो समझना चाहिए कि फसल कटाई के लिए तैयार हो गई है. फसल की कटाई मौजूदा साधनों के आधार पर हंसिया ट्रैक्टरचालित रीपर या कंबाइन से की जा सकती है. कटाई के एकदम बाद यानी कटाईमड़ाई के समय मौसम खराब हो जाता है.

उपज : यदि किसान सही समय पर अच्छी नस्ल व नए तरीके अपना कर अच्छी विधियों का इस्तेमाल करता है, तो वह पैदावार को ज्यादा उगा सकता है, जिस में तकरीबन 50 से 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज हासिल होती है.