औषधीय व खुशबूदार पौधों की जैविक खेती

शुरू से ही इनसान दूसरे जीवों की तरह पौधों का इस्तेमाल खाने व औषधि के रूप में करता चला आ रहा है. आज भी ज्यादातर औषधियां जंगलों से उन के प्राकृतिक उत्पादन क्षेत्र से ही लाई जा रही हैं. इस की एक मुख्य वजह तो उन का आसानी से मिलना है. वहीं दूसरी वजह यह है कि जंगल के प्राकृतिक वातावरण में उगने की वजह से इन पौधों की क्वालिटी अच्छी और गुणवत्ता वाली होती है.

वर्तमान में एलोपैथी की रासायनिक दवाओं के कई बुरे प्रभावों के चलते पौधों से उत्पादित आयुर्वेदिक हर्बल दवाओं का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है. इस वजह से इन का जंगलों से दोहन अधिक बढ़ रहा है और मांग को पूरा करने के लिए कई औषधीय एवं सुगंधीय पौधों की खेती की जा रही है.

चूंकि औषधियां रोगों को ठीक करने और सुगंधीय फसलों में से सुगंधित पदार्थ निकालने में काम आती हैं, इसलिए उत्पादन अधिक करने के बजाय अच्छी क्वालिटी के लिए उत्पादन बाजार की मांग के मुताबिक करना जरूरी है. अच्छी क्वालिटी हासिल करने के लिए जैविक या प्राकृतिक तरीके से उत्पादन ही एकमात्र तरीका है, क्योंकि :

* प्राकृतिक या जैविक तरीके से उत्पादन करने पर औषधीय पौधों में घुलनशील तत्त्व व खुशबूदार पौधों में तेल की मात्रा बढ़ जाती है, जबकि रसायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी आदि के प्रयोग से उन की क्वालिटी लगातार घटती जाती है.

* रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से औषधि विष बन जाती है अर्थात कीटनाशकों के अवशेष रोगी के रोग ठीक करने के बजाय रोग को और अधिक बढ़ा सकते हैं. इसलिए सिर्फ प्राकृतिक तरीकों से रोग, कीट नियंत्रण ही औषधीय पौधों की खेती में न केवल बाजार के लिए जरूरी है, बल्कि यह एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है.

* इस के अलावा कई अन्य प्रकार की हानियां हैं, जो रासायनिक खेती से जुड़ी हैं. ये सभी इन फसलों की खेती में भी होती हैं. जैसे लागत का बढ़ना, भूमि की कूवत का कम होना, कीटनाशकों में प्रतिरोधकता पैदा होना और गांवखेत में प्रदूषण का लैवल बढ़ना आदि. इसलिए सही यही है कि औषधीय और खुशबूदार पौधों की जैविक खेती की जाए.

जरूरी भी और मजबूरी भी

पर्यावरण व भूमि को बचाने के लिए और लोगों के स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती बहुत जरूरी है. कर्ज के बोझ को कम करने एवं कम होते भूजल से ही खेती करने के लिए जैविक खेती मजबूरी है.

भविष्य में पैट्रोलियम पदार्थों के लगातार बढ़ते दाम और घटती मांग से उवर्रक एवं कीटनाशकों की उपलब्धता (पैट्रोलियम से ही बनते हैं) अपनेआप खतरे में पड़ जाएगी, तब जैविक खेती ही संभव होगी, इसलिए वर्तमान या भविष्य की जरूरत को समझ कर जैविक खेती करना ही एकमात्र विकल्प है.

जैविक खेती के लिए सुझाव

औषधीय और खुशबूदार पौधों की खेती हमेशा जंगल जैसा वातावरण बना कर ही की जाए अर्थात खेत में कुछ पेड़, कुछ झाडि़यां, कुछ लताएं और कुछ शाकीय फसलें हों. इस में मिट्टी की उर्वरता, सूरज की रोशनी, मिट्टी में नमी से जो संतुलन होगा, उस से इन की क्वालिटी बढ़ेगी. दूसरे कई फसलों के होने से बाजार में मांगपूर्ति में संतुलन हो सकेगा, जिस से किसानों को नुकसान होने की संभावना कम होगी.

वर्मी कंपोस्ट या केंचुआ खाद का प्रयोग 10-12 टन प्रति हेक्टेयर हर साल अवश्य किया जाना चाहिए, जिस में अधिकांश मात्रा निराईगुड़ाई के समय दी जानी चाहिए. इस से न केवल अच्छा उत्पादन प्राप्त होगा, बल्कि क्वालिटी भी अच्छी होगी, किंतु वर्मी कंपोस्ट खुद के खेत अथवा ग्राम स्तर पर बना कर नमीयुक्त अवस्था में छायादार जगह पर भंडारण कर 15-20 दिन में उपयोग कर लेना चाहिए, क्योंकि प्लास्टिक के बोरों में पैक सूखा या 15 दिन से ज्यादा पुराने वर्मी कंपोस्ट के गुण बहुत कम हो जाते हैं.

रोग एवं कीट पर नियंत्रण पाने के लिए नीम+ गोमूत्र का छिड़काव 15-20 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए. भूमि के रोग एवं कीटों को खत्म करने के लिए नीम की खल या पिसी हुई निंबोली 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में 2 साल में एक बार अवश्य मिलानी चाहिए.

अग्निहोत्र, अमृतपानी, पंचगव्य आदि का प्रयोग मिट्टी में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ाने व जलवायुजनित कीट व रोग से बचाव करने के लिए किया जा सकता है.

कुछ औषधीय फसलों की खेती सामान्य फसल चक्र या अन्य के रूप में भी की जा सकती है. जैसे धान के साथ बच की खेती से धान के कई कीटों से छुटकारा मिलता है, इसी प्रकार सब्जियों की खेती के अंतराशस्य के रूप में खुशबूदार घासों/मसालों की खेती से कई रोग व कीट कम हो जाते हैं.

औषधीय पौधों में क्वालिटी सब से प्रमुख है, इसलिए सही समय पर कटाई, तुड़ाई और छाया में सुखा कर भंडारण/विक्रय करना चाहिए.

थोड़ा बीज या पौध को बाजार से ला कर उस का खुद के खेत में जैविक तरीके से उत्पादन करना चाहिए. इस से प्राप्त बीज को ही पूरे खेत में लगाने के लिए उपयोग करना चाहिए.

बीज से बाजार तक की सारी जानकारी होने पर ही औषधीय पौधे की खेती बड़े स्तर पर करनी चाहिए.

अन्न वाली फसलों की मांग हमेशा रहेगी और औषधीय एवं खुशबूदार फसलों की मांग व बाजार भाव तेजी से ऊपरनीचे होते रहते हैं, इसीलिए किसान अन्न वाली फसलों को पूरी तरह न हटाएं, बल्कि औषधीय एवं खुशबूदार फसलों को फसल चक्र अंतराशस्य के रूप में स्थान दें. इस से बाजार के अनुसार तालमेल बनाने में आसानी रहेगी.

Organic farming

प्रकृति का एक मुफ्त उपहार

जैविक खेती के लिए उपयोग की जाने वाली खाद खेती के अवशेष और पशु अपशिष्ट से बनती है, जिस में लागत के नाम पर सिर्फ मेहनत ही होती है. इन के उपयोग से भूमि उपजाऊ और पानी की बचत भी होती है. इसी प्रकार जैविक कीट नियंत्रण नीम व गोमूत्र के माध्यम से बनाए जाते हैं, जिन का कोई नुकसान नहीं होता.

जैविक उत्पाद स्वादिष्ठ, अच्छी गंध व रूप वाले और अधिक समय तक भंडारण करने के योग्य होते हैं और इन का बाजार मूल्य भी अधिक मिलता है.

इस प्रकार जैविक खेती प्रकृति का एक मुफ्त उपहार है, जिस के लिए केवल मेहनत और प्रकृति से तालमेल की आवश्यकता होती है.

एक बीघा जमीन सिर्फ एक गाय और एक नीम

एक हेक्टेयर (100 मीटर × 100 मीटर) भूमि में लगभग 6 बीघा होते हैं. अकसर किसान बीघा नाप को ही आधार मान कर खेती की सभी गणनाएं (नापतौल) आदि का काम करते हैं, इसलिए एक बीघा में जितनी खाद एवं जैविक कीट नियंत्रक की आवश्यकता होती है, उसी के हिसाब से गणना की जाए तो समझने में आसानी रहेगी.

एक गाय : सालभर में एक गाय लगभग 3-3.5 टन गोबर देती है. यदि सिर्फ गोबर से ही खाद बने तो लगभग 2 टन खाद तो बनेगी, जो कि एक  बीघा जमीन में यदि 3 फसल या सब्जियों की फसल भी लगाई जाए तो भी पर्याप्त रहेगी.

इसी प्रकार एक गाय लगभग 1,000 लिटर मूत्र पैदा करती है, जिस में से आधा खाद या सिंचाई के साथ मिला देने के बाद भी 500 लिटर गोमूत्र व नीम की पत्ती से इतना कीट नियंत्रक बन सकता है कि एक बीघा जमीन में साल में हर 15 दिन बाद लगभग 20 छिड़काव किए जा सकते हैं.

एक नीम : नीम की पत्तियां तो गोमूत्र आधारित कीटनाशक व भूमि में हरी खाद के रूप में काम आ ही जाती हैं. साथ ही, एक नीम से हर साल कम से कम 50-60 किलोग्राम निंबोली मिलती है, जिस का लगभग 10-15 लिटर नीम तेल निकालने के बाद 40 किलोग्राम खल को जमीन में मिलाने से पोषक तत्त्व तो मिलते ही हैं, साथ ही जमीन से पैदा होने वाली फसलों के कीड़े व रोग भी कम हो जाते हैं.

इसलिए जैविक खेती को आसान बनाने के लिए प्रति बीघा जमीन के हिसाब से एक गाय पालें और एक नीम का पेड़ लगाएं, तो बाहर से शायद कुछ भी लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. साथ ही, नीम की छाया और गाय का शुद्ध दूध मिलेगा.

पेड़ों का सहारा जरूरी

* औषधीय पौधों की खेती के लिए जंगल जैसा वातावरण बनाने के लिए खेत में पेड़ों की उचित संख्या का उचित प्रणाली में होना बहुत जरूरी हो जाता है. यह पेड़ औषधीय उपयोग के भी हो सकते हैं.

* पेड़ों को फसलों के साथ लगाने का तरीका नया नहीं है. यह शस्य वानिकी या एग्रो फोरैस्ट्री के नाम से जाना जाता है.

* खेत को जंगल बनाने का अर्थ एक उचित संख्या में पेड़ लगाने से है, जो कि एक हेक्टेयर में 10 से 20 तक संख्या हो सकती है. अधिक पेड़ लगाने पर वह फसल के साथ धूप, पानी और पोषक तत्त्व के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जिस से फसल की बढ़वार पर उलटा असर पड़ सकता है.

जैविक खेती के लिए औषधीय पेड़ों को लगाना ज्यादा सही रहता है. थोड़े से प्रयास से किसान स्वयं की पौधशाला में पौधे तैयार कर सकते हैं. खेत के पास पौधशाला में तैयार किए गए पौधे अधिक स्वस्थ, विकसित जड़ वाले और अच्छे से पनपते हैं.

पेड़/पौधों की प्रजाति ऐसी होनी चाहिए, जिस से साल में थोड़ीथोड़ी पत्तियां झड़ती रहें, जो जमीन पर गिर कर मल्च का काम करें (भूमि को ढक कर रखें) और बाद में खाद के रूप में पोषण भी दें.

कभी भी सफेदा (यूकेलिप्टिस) जैसे पेड़ को खेत में न लगाएं, क्योंकि इन की पत्तियां न तो सड़ती हैं, बल्कि भूमि के दूसरे कामों में बाधा पैदा करती हैं.

बड़े पौधों को खेत की बाड़ पर वायु अवरोधक के रूप में और छोटे पौधों या फलदार पौधों जैसे आंवला, बेल, किन्नू व बेर आदि को फसल की कतारों के बीच कम से कम 8 से 10 मीटर के गैप पर लगाना चाहिए, ताकि फसलों से प्रतिस्पर्धा न हो.

कुछ कांटेदार झाडि़यों जैसे कांटा-करंज (औषधीय पौधा) आदि को खेत की सुरक्षा के लिए बाढ़ के रूप में भी लगाया जा सकता है.

खेत की मेंड़ या गौशाला या चौपाल में कम से कम 2 से 3 पेड़ नीम, बकायन, करंज और सहजन आदि के जरूर लगाएं, जो कि औषधीय पौधे होने के साथसाथ रोग के नियंत्रण में भी सहायक होते हैं.

पेड़ों की नियमित रूप से काटछांट करते रहना चाहिए, ताकि वह सीधे तने वाले बने रहें और खेती के काम में बाधक न बनें.

सुबह की धूप सभी पौधों के लिए अच्छी होती है, इसलिए पेड़ों को हमेशा ऐसी दिशा में लगाना चाहिए, ताकि फसल को सुबह सूरज की रोशनी जरूर मिलती रहे.

सुरक्षा के लिहाज से चारों उन की छाया के बराबर थाला बना देना चाहिए, जिस से नियमित रूप से खादपानी देते रहना चाहिए. इस से फसल और पेड़ों में किसी भी प्रकार की होड़ नहीं होगी और दोनों का विकास अच्छा होगा. थालों में घासफूस की मल्च बिछाने से पानी का नुकसान कम होता है.

दीमक से बचाव : दीमक से बचाव के लिए पौधे लगाने से पहले गड्ढा भरते समय सड़ी गोबर की खाद में आंक, नीम के पत्तों व निंबोली का चूरा मिला कर गड्ढे को भरना चाहिए और हर साल खाद के साथ नीम एवं आंक के पत्ते भी मिलाने चाहिए.

भोपाल में लगे कृषि मेले में ‘फार्म एन फूड’ का जलवा

मध्य प्रदेश खेतीकिसानी पर निर्भर राज्य है, वहां कि सानों, बागबानों और कृषि से जुड़े उद्यमियों को कृषि, बागबानी, डेयरी व कृषि अभियांत्रिकी से जुड़ी नवीनतम और उन्नत जानकारियों से लैस करने के लिए भोपाल के केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान में पिछले दिनों 20 से ले कर 22 दिसंबर, 2024 को विशाल कृषि मेले का आयोजन हुआ.

यह आयोजन भारतीय मीडिया ऐंड इवैंट्स लिमिटेड व बीएसएल कौंफ्रैंस ऐंड ऐक्जीबिशन प्राइवेट लिमिटेड द्वारा भोज आत्मा समिति, भोपाल के सहयोग से किया गया, जिस  में मीडिया पार्टनर के रूप में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका की अहम भूमिका रही.

मंत्री लखन पटेल ने किया आह्वान

भोपाल के सीआईएई में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी में अतिथि के रूप में पहुंचे मध्य प्रदेश के पशुपालन एवं डेयरी विकास मंत्री लखन पटेल ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि किसानों को तकनीक का लाभ उठा कर स्वावलंबी बनने का प्रयास करना चाहिए.

उन्होंने यह भी कहा कि सरकार की योजनाओं और नई तकनीकों का मुख्य उद्देश्य किसानों को रोजगार और आत्मनिर्भरता प्रदान करना है. उन्होंने किसानों से सरकार की स्कीमों का लाभ ले कर आमदनी बढ़ाने का आह्वान किया. इस दौरान मंत्री लखन पटेल नें प्रदर्शनी में लगाए गए सभी स्टालों पर पहुंच कर जानकारी ली.

इस अवसर पर विधायक घनश्याम रघुवंशी ने प्रदेश सरकार की कृषि हितैषी नीतियों और खेती को लाभकारी बनाने के प्रयासों की जानकारी दी. उन्होंने कहा कि सरकार किसानों की समस्याओं का समाधान करने और उन की आय बढ़ाने के लिए लगातार प्रयासरत है.

 

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विशेषज्ञों ने साथ किए टिप्स

9वें इंटरनैशनल एग्री ऐंड हौर्टी टैक्नोलौजी ऐक्सपो में भारत सहित अन्य कई देशों के कृषि विशेषज्ञों की भागीदारी रही. इस दौरान मेले में भ्रमण पर आए किसानों और कृषि के छात्रों को विशेषज्ञों द्वारा खेतीबारी से जुड़ी जानकारी भी दी गई.

संगोष्ठी में वैज्ञानिकों में प्रमुख रूप से

डा. एसएस सिंधु, एमेरिट्स वैज्ञानिक, आईएआरआई, नई दिल्ली, डा. वाईसी गुप्ता, पूर्व डीन, एफएलए विभाग, डा. पीबी भदोरिया, आईआईटी खड़गपुर, प्रोफैसर डा. सीके गुप्ता, पूर्व डीन, डीवाईएस परमार विश्वविद्यालय, सोलन, डा. सीआर मेहता, डायरैक्टर, सीआईएई, डा. सुरेश कौशिक, पूर्व सीटीओ, आईएआरआई पूसा, नई दिल्ली, डा. प्रकाश, पूर्व अध्यक्ष, स्टूडैंट्स वर्ल्ड, नेपाल की भागीदारी रही.

वैज्ञानिकों ने किसानों की समस्याओं को सुना और उन के समाधान के लिए उपयोगी सुझाव  दिए. किसानों ने संगोष्ठी में अपनी जिज्ञासाओं को साथ किया और विशेषज्ञों से मार्गदर्शन प्राप्त किया.

इस दौरान मंच संचालन का जिम्मा संभाल रहे कृषि वैज्ञानिक विजी श्रीवास्तव ने खेतीबारी से जुड़ी उन्नत जानकारियों को प्रभावी ढंग से पेश करते हुए किसानों को कार्यक्रम के अंत तक बांधे रखा. उन्होंने कृषि स्टूडैंट्स के कैरियर से जुड़े सवालों का समाधान करते हुए उन्हें प्रोत्साहित भी किया.

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आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रदर्शन

कृषि, बागबानी, डेयरी एवं कृषि अभियांत्रिकी से जुड़े इस मेले में देश की नामी कृषि यंत्र और ट्रैक्टर निर्माता कंपनियों ने खेतीबारी के साथ ही हार्वेस्टिंग, प्रोसैसिंग और सिंचाई से जुड़े छोटेबड़े कृषि यंत्रों का प्रदर्शन और बिक्री की.

यंत्र निर्माता कंपनियों ने प्रदर्शनी में छोटे और मंझले किसानों का खास खयाल रखा था, जिस में कोनो वीडर, छोटी और बड़ी पावर के ट्रैक्टर, जायरोवेटर, रोटावेटर, बूम छिड़काव मशीन, मिनी हार्वेस्टर सहित सैकड़ों तरह के यंत्रों और कंबाइन का प्रदर्शन कर मौके पर बुकिंग कराने वालों को विशेष छूट का लाभ भी दिया गया.

इस प्रदर्शनी में खरपतवार नियंत्रण के लिए मैनुअल यंत्रों, फसल कटाई, निराईगुड़ाई सहित तमाम छोटे यंत्रों की रिकौर्डतोड़ बिक्री भी हुई. इस में सौ से अधिक कंपनियों ने आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रदर्शन किया. संगोष्ठी में प्रमुख वैज्ञानिकों ने किसानों को तकनीक और समस्याओं के समाधान पर मार्गदर्शन दिया.

ड्रिप इरिगेशन, रेनगन और सिंचाई प्रबंधन से जुड़े उत्पादों को बनाने वाली देश की जानीमानी कंपनी जैन इरिगेशन सिस्टम लिमिटेड ने भी सिंचाई प्रबंधन से जुड़ी जानकारियों और विधियों को साथ करते हुए अपने उत्पादों को प्रोत्साहित किया.

इस के अलावा ट्रैक्टर, कंबाइन और अन्य कृषि यंत्रों में उपयोग होने वाले टायर की प्रमुख कंपनियों में बालकृष्ण इंडस्ट्रीज लिमिटेड (बीकेटी) और जेके टायर्स ने भी अपनी विस्तृत रेंज पेश की.

इस के अलावा करतार ट्रैक्टर, कंबाइन, वंसुधरा कंपनी के छोटे और मंझले हार्वेस्टिंग से जुड़े कृषि यंत्र, रिपर, शक्तिमान कंपनी के जुताई और छिड़काव से जुड़े यंत्रों की भारी रेंज किसानों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल रही.

प्रदर्शनी में आने वाले किसानों को अपने उत्पादों से जोड़ने के लिए निर्माता कंपनियों ने जम कर गिफ्ट भी बांटे.

सरकारी महकमों के स्टाल पर रही भीड़

केंद्रीय कृषि अभियान अभियांत्रिकी संस्थान के प्रदर्शनी ग्राउंड में लगे अंतर्राष्ट्रीय मेले में मध्य प्रदेश सहित देश के तमाम राज्यों के कृषि और बागबानी के महकमों और आईसीएआर से जुड़ी संस्थाओं, डीआरडीओ, जल संसाधन विभाग आदि ने अपने स्टाल लगा कर किसानों को सरकारी योजनाओं सहित उन्नत खेती की जानकारियां साथ कीं, जिस में प्रमुख रूप से उद्यान विभाग, उत्तर प्रदेश, उद्यान विभाग, मध्य प्रदेश, उद्यान विभाग, तमिलनाडु, पंजाबहरियाणा और अन्य राज्यों के कृषि महकमों ने अपने स्टाल पर आने वाले किसानों को जानकारियां दीं.

रंगबिरंगी सब्जियां और फल रहे आकर्षण का केंद्र

मेले में विभिन्न राज्यों और केंद्र सरकार के महकमों के स्टाल पर प्रदर्शित की गई सब्जियों और फलों ने लोगों को अपनी तरफ खूब आकर्षित किया. इस में देशी और विदेशी दोनों तरह की सब्जियां और फल शामिल रहे.

इस मौके पर किसानों को रंगीन देशीविदेशी सब्जियों और फलों के व्यावसायिक उत्पादन व फायदे पर भी जानकारियां दी गईं, जिस में प्रमुख रूप से रंगीन पत्तागोभी, रंगीन फूलगोभी, रंगबिरंगी शिमला मिर्च की किस्में, चेरी, टमाटर की किस्में, रंगीन आम, स्ट्राबेरी, कमलम यानी ड्रैगन फू्रट सहित तमाम चीजें शामिल रहीं.

खूब बिके पौधे

भोपाल में लगे इस मेले में उन्नत किस्मों के फल और सब्जियों के पौधों की जम कर खरीदारी हुई, जिस में सब से ज्यादा, टमाटर, गोभी, बैगन, शिमला मिर्च सहित जैन इरिगेशन सिस्टम लिमिटेड द्वारा तैयार किए गए उन्नत किस्मों के आम, अमरूद, कटहल और केले की किस्मों की खरीदारी किसानों द्वारा की गई.

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‘फार्म एन फूड’ के स्टाल पर हुआ अवार्ड नौमिनेशन

इस कृषि मेले के मीडिया पार्टनर के रूप में दिल्ली प्रैस की पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ द्वारा भी स्टाल लगाया गया था, जिस में ‘फार्म एन फूड’ के अलावा दिल्ली प्रैस की अन्य पत्रिकाओं ‘सरस सलिल’, ‘सरिता’, ‘चंपक’, ‘गृहशोभा’, ‘सत्यकथा’, ‘मनोहर कहानियां’ सहित अन्य भाषाओं की पत्रिकाओं का प्रदर्शन भी किया गया.

इस दौरान ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका द्वारा फरवरी महीने में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लिए प्रस्तावित ‘फार्म एन फूड कृषि सम्मान अवार्ड’ के लिए मौके पर ही तमाम किसानों और वैज्ञानिकों द्वारा अपने नौमिनेशन पेश किए गए.

इस दौरान दिल्ली प्रैस में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका की जिम्मेदारी संभाल रहे भानु प्रकाश राणा और मध्य प्रदेश में दिल्ली प्रैस ब्रांच के इंचार्ज भारत भूषण श्रीवास्तव द्वारा प्रकाशन से जुड़ी जानकारियां भी दी गईं.

इस के अलावा कृषि की पढ़ाई और शोध कर रहे छात्रों द्वारा अपनी नवीनतम खोज और शोध का प्रस्तुतीकरण भी किया गया. इस दौरान कार्यक्रम के संचालक वीजी श्रीवास्तव ने छात्रों से सवालजवाब भी किए, जिस में सवालों के सही जवाब देने वाले छात्रों को इनाम के रूप में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका दी गई.

स्वास्थ्य के लिए खास है करेला

करेला में औषधीय गुण होने के कारण लोग इसे काफी पसंद करते है. करेले का रस शुगर और हाई ब्लडप्रेशर के मरीजों के लिए काफी फायदेमंद है. इस में मौजूद कड़वाहट वाला तत्त्व खून को साफ करता है. इन सब गुणों के चलते करेले का बाजार भाव भी अन्य सब्जियों की तुलना में काफी अच्छा रहता है. आज करेले की कई किस्में चलन में हैं. नीचे कुछ खास प्रजातियों की विस्तार से जानकारी दी गई है:

करेले की उन्नतशील प्रजातियां

पूसा (2 मौसमी) : नाम से ही मालूम है कि यह किस्म 2 मौसम (खरीफ व जायद) में बोई जाती है. फसल बोने के तकरीबन 55 दिन बाद करेला तोड़ाईर् लायक हो जाता है. इस प्रजाति के करेले का साइज तकरीबन 15 सेंटीमीटर के आसपास होता है. इस किस्म से औसत उपज 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

पूसा विशेष : इस प्रजाति के करेले हरे, पतले, मध्यम आकार के और 20 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. औसतन एक करेले का वजन 115 ग्राम होता है. इस की उपज 115-130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अर्का हरित : इस प्रजाति के करेले चमकीले हरे, चिकने, ज्यादा गूदेदार और मोटे छिलके वाले होते हैं. फलों की पहली तुड़ाई बोआई के 65 दिन बाद की जा सकती है. ऐसे करेले में बीज और कड़वापन भी कम होता है. फल की लंबाई 15 सेंटीमीटर और वजन 90 ग्राम होता है. इस की उपज 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

वीके 1 (प्रिया) : इस के फल 40 सेंटीमीटर तक लंबे और मोटे छिलके वाले होते हैं. बोआई के 60 दिन बाद फल तोड़ाई लायक हो जाते हैं. करेले का वजन औसतन 120 ग्राम होता है. इस की औसत उपज 140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

पंत करेला 1 : इस के फलों की पहली तोड़ाई बोआई के 55 दिनों बाद की जा सकती है. इस प्रजाति के करेले मोटे, 15 सेंटीमीटर लंबे, हरे और शुरू में पतले होते हैं. इन की औसत पैदावार कूवत लगभग 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह प्रजाति पहाड़ों के लिए अच्छी मानी गई है.

काशी हरित : फल चमकीले हरे, चिकने, गूदेदार होते हैं. एक फल का वजन 80-100 ग्राम होता है. पहली तोड़ाई 50 दिन बाद कर सकते हैं.

पूसा औषधि : हलके हरे, परचम लंबाई वाले और औसत, फल वजन 85 ग्राम, फसल तैयार होने का समय लगभग 48-52 दिन. यह अधिक उपज देने वाली प्रजाति है.

पूसा हाईब्रिड 1 : मध्यम लंबाई का फल, ज्यादा उपज. पहली तोड़ाई 55-60 दिनों में की जा सकती है. औसत उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा हाईब्रिड 2 : फल गहरा हरा मध्यम लंबाई का, फल का औसत वजन 85-90 ग्राम, पहली तोड़ाई 52 दिनों में, औसत उपज 180 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

कल्याणपुर बारहमासी :  यह किस्म चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई है.

हिसार सलैक्शन : यह किस्म पंजाब और हरियाणा में काफी पसंद की जाती है.

जमीन की तैयारी : खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2-3  जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी और खेत को समतल कर लेना चाहिए, जिस से पानी खेत में समान रूप से फैल सके.

बीज की मात्रा और बोआई :

1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए अच्छी अंकुरण कूवत वाले बीज की 5 किलोग्राम मात्रा की जरूरत पड़ती है.

एक जगह पर 2-3 बीज 3-4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए. बोने से पहले खराब बीज निकाल दें.

बोआई का समय : इस की बोआई गरमी के मौसम के लिए (जायद) में 15 फरवरी से 15 मार्च तक और बरसात के मौसम (खरीफ) के लिए 15 जून से 15 जुलाई तक करते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई अप्रैल के महीने में की जाती है.

बोआई की दूरी : करेले की बोआई जहां तक हो सके मेंड़ों पर करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 1.5 से 2.5 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 से 60 सेंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : आमतौर पर 20-22 टन सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद को खेत तैयार करते समय मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस के बाद 1 हेक्टेयर खेत के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए. नाइट्रोजन  की एकतिहाई मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय दें. बीज बोने के 30 व 45 दिन बाद जड़ के पास नाइट्रोजन टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए.

सिंचाई : खरीफ के मौसम में खेत की खास सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती और बारिश न होने पर सिंचाई की जरूरत 10-15 दिन बाद होती है. ज्यादा बारिश के समय पानी की निकासी ठीक होनी चाहिए. गरमियों में तापमान ज्यादा होने के कारण जल्दीजल्दी सिंचाई की जरूरत होती है.

खरपतवार : बारिश या गरमी के मौसम में सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं, उन्हें खुरपी से निकाल देना चाहिए. करेले में पौधे की बढ़ोतरी और विकास के लिए 2-3 बार गुड़ाई कर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. समय पर निराईगुड़ाई से अच्छी पैदावार मिलती है.

मचान बेहतर तरीका

करेले की बेहतर पैदावार लेने के लिए मचान खेती अच्छा तरीका है. करेले की बेलों को लकड़ी का सहारा देने से या मचान पर चढ़ा देने से फल जमीन के संपर्क से दूर रहते हैं. इस से फलों का आकार और गुणवत्ता अच्छी रहती है और पैदावार भी मिलती है.

मचान पर फल लगने से सड़ते नहीं हैं. इस के लिए पौधे जब 30 सेंटीमीटर के हो जाएं तो उन्हें नायलौन या जूट की रस्सी के सहारे मचान तक चढ़ाया जाता है.

इस के लिए लोहे या लकड़ी के खंभे गाड़ कर उन के सिरे पर तार बांध कर मचान बनाया जाता है. खंभों के आपस की दूरी 2 से 3 मीटर रख सकते हैं. सामान्यत: मचान की ऊंचाई 4.5 फुट तक रखते हैं.

फलों की तोड़ाई : जब फलों का रंग गहरे हरे से हलका हरा होना शुरू हो जाए और वे अपना सही आकार ले लें, तो यह समय फलों की तोड़ाई करने के लिए सही माना जा सकता है. फलों की तोड़ाई एक तय समय के दौरान करनी चाहिए ताकि फल कड़े न हों अन्यथा उन की बाजार में मांग कम हो जाती है.

सुखा कर भी रख सकते हैं करेला

करेले को काट कर छोटेछोटे टुकड़े कर के सुखा कर भी रखा जा सकता है और जब मन करे तब उस की सब्जी बनाई जा सकती है. करेले को सुखाने से पहले छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर उस में हलका सोडा या नमक छिड़क दें, जिस से करेले की कड़वाहट कम हो जाएगी. उस के बाद उन्हें धूप में अच्छी तरह सुखा कर किसी भी एयरटाइट डब्बे में रख लें और जब सब्जी बनानी हो तो कुछ समय पानी में भिगो कर रख दें, जिस से वह फूल जाएंगे फिर उन को निचोड़ कर सब्जी बना सकते हैं.

मिर्च में क्यों होता है तीखापन

भारत में ज्यादातर लोग ज्यादा मिर्चमसाले का इस्तेमाल करते हैं और महिलाएं तीखी मिर्च खरीदना ही पसंद करती हैं. मिर्च का नाम सुनते ही कई लोगों को पसीना आ जाता है, तो कई के मुंह में पानी आ जाता है. अकसर आप ने सुना होगा या महसूस किया होगा कि कुछ मिर्च काफी तीखी होती हैं, तो कुछ बिलकुल भी तीखी नहीं होतीं. आप के मन में सवाल उठता होगा कि आखिर ऐसा क्यों होता है. तो आइए, जानते हैं कि आखिर मिर्च तीखी क्यों होती है:

तमाम शोधों के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि कोई मिर्च ज्यादा तीखी तो कोई कम तीखी क्यों होती है? जीवविज्ञान की पत्रिका बायोलाजिकल साइंसेज के मुताबिक इस का खास कारण मिर्च के पौधे का जल के संपर्क में आने से है.

वैज्ञानिकों का मानना है कि मिर्च में कसैलापन कैपसाइपिनोइड नाम के पदार्थ की वजह से पाया जाता है. यह मिर्च को फफूंद से बचाता है. इंडियाना यूनिवर्सिटी के डेविड हाक के नेतृत्व में शोध करने वाले दल ने बोलिविया जा कर मिर्च के पौधे में कैपसाइपिनोइड तत्त्व की जांच की.

इस जांच में उन्होंने पाया कि उत्तरी क्षेत्र में मात्र 15-20 फीसदी मिर्चों में ही यह तीखा पदार्थ मौजूद था, जबकि दक्षिणी हिस्से में मिर्च के तीखेपन की स्थिति एकदम से अलग थी. इस इलाके में 100 फीसदी मिर्च के पौधों में इस तीखे पदार्थ कैपसाइपिनोइड के होने से मिर्च बहुत तीखी और कसैली थी.

आखिर शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि मिर्च का तीखापन फफूंद से बचने के लिए इस तत्त्व के विकास से पनपता है, जितना अधिक यह पदार्थ मिर्च में मौजूद रहेगा, उतनी ही मिर्च ज्यादा तीखी और कसैली होगी.

समोसे तरहतरह के

पहले जहां केवल आलू के समोसे ही बाजार में बिकते थे अब कई तरह के समोसे जिन में खोया वाले मीठे समोसे भी मिठाई की दुकानों में बिकने लगे हैं. खोया और आलू के समोसे ज्यादा दिन तक नहीं रखे जा सकते इसलिए इन्हें बनने के कुछ घंटे बाद ही खाना सही रहता है. अब मेवा और मसालों से ऐसे समोसे भी तैयार किए जाने लगे हैं, जो कई दिनों तक चलते हैं. यह नमकीन की तरह नाश्ते में इस्तेमाल होते हैं. पौष्टिक होने से इन को खाने के बाद भूख कम लगती है. मेवा मिला होने से यह शरीर को ताकत भी देते हैं.

समोसा भारत का ही नहीं पश्चिम एशियाई देशों का भी प्रमुख नाश्ता है. कमाल की बात यह है कि 1000 साल से इस का तिकोना आकार नहीं बदला है. अपने खास आकार के कारण ही इस को कई इलाकों में तिकोना भी कहा जाता है. यह छोटे से बडे सभी तरह के आकार में मिलता है. आकार के हिसाब से ही इस को कीमत तय होती है.

मुगलकाल में मीट वाला समोसा सब से ज्यादा प्रचलित था. भारत में आने के बाद समोसा के अंदर भरी जाने वाली सामग्री में बदलाव आया. ब्रिटिश काल में जब चाय का चलन बसे तो भारतीयों को चाय का स्वाद पसंद नहीं आता था. ऐसे में चाय और समोसे की जुगलबंदी तैयार हो गई. आज गलीचौराहों पर सब से ज्यादा चायसमोसा ही बिकता है.

आज समोसा भारत का सब से ज्यादा बिकने वाला स्ट्रीट फूड है. उत्तर भारत के हर कस्बे और शहर में समोसे की दुकान है. महाराष्ट्र के कुछ शहरों में रगड़ा समोसा चलन में है.

इस में समोसे के अंदर ब्रेड, आलू, भुजिया और दूसरी कई चीजें भरी जाती हैं. समोसे में स्वाद के लिए पनीर समोसा व मटरकाजू समोसे का इस्तेमाल भी होने लगा है. गोआ में कुछ खास दुकानों पर मीट वाला मांसाहारी समोसा मिलता है. समोसा अकेला ऐसा व्यंजन है जो इतना पुराना होने के बाद भी बदला नहीं है.

आलू भरे समोसे का अपना अलग बाजार है. समोसा भारतीय खानपान व संस्कृति के साथ पूरी तरह से रच बस गया है. यह रोजगार का भी बडा साधन है. कसबों और सड़क किनारे छोटी सी पूंजी लगा कर समोसा बनाने की दुकान खोली जा सकती है. समोसा लोगों को इतना पसंद है कि इस में नुकसान की आशंका नहीं रहती है.

मुनाफे का गणित

डेढ़ किलो आलू और 1 किलो मैदा से करीब 35 समोसे तैयार होंगे. यह सामान्य आकार के करीब 60-70 ग्राम वाले समोसे होंगे. इस को बनाने के लिए 30 रुपए का आलू, 30 रुपए का मैदा, 30 रुपए का बेजिटेबल आयल और 30 रुपए का मसाला लगता है. ऐसे में 120 रुपए खर्च कर करीब 35 समोसे तैयार होंगे. यह समोसे 8 रुपए प्रति समोसे के हिसाब से बिकेंगे. ऐसे में यह समोसे 280 रुपए के बिकेंगे. जिस में 95 रुपए का मुनाफा होगा. समोसा महंगा करने के लिए दुकानदार उस में कई बार मटर, काजू और पनीर डाल कर उस की कीमत दोगुनी कर देते हैं. जबकि ऐसा करने में प्रति समोसा केवल 2 रुपए की लागत बढ़ेगी.

समोसा बनाना आसान

समोसा बनाने के लिए सामग्री के रूप में मैदा, आलू , रिफाइंड तेल, नमक, धनिया पाउडर, गरम मसाला और पिसी खटाई का प्रयोग किया जाता है. सब से पहले आलू को उबाल लें. इस के बाद मैदा में तेल और नमक डाल कर अच्छी तरह से गूंथ लें. उबले आलू हाथ से ही मोटामोटा फोड़ दें. कढ़ाई में तेल डाल कर कर उस में धनिया पाउडर, गरम मसाला, नमक और अमचूर मिलाते हुए भून लें. अब इस में आलू डाल कर ठीक से मिला कर रख दें. पहले से तैयार मैदा के छोटेछोटे पीस तैयार करें. इन को गोल रोटी की तरह 8 इंच व्यास के आकार में तैयार करें. फिर चाकू से 2 हिस्सों में काट दें. एक भाग को तिकोना बनाते हुए उस में आलू मसाला भर लें. दोनों कोने चिपका दें. कढ़ाई में रिफाइंड तेल डाल कर तैयार समोसे तल लें. समोसे को मीठी और नमकीन दोनों ही चटनी के साथ खाया जाता है. मेवा और मसाला समोसे में आलू की जगह मेवा और मसाला पहले से तैयार कर के भरा जाता है.

22 से 24 फरवरी तक लगेगा पूसा संस्थान, नई दिल्ली में कृषि मेला

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा आयोजित किया जाने वाला पूसा कृषि विज्ञान मेला इस वर्ष फरवरी 22-24, 2025 के दौरान संस्थान के मेला ग्राउंड में आयोजित किया जा रहा है. इस मेले का मुख्य विषय “उन्नत कृषि – विकसित भारत” है. इस में विभिन्न कृषि कंपनियां, सरकारी व गैरसरकारी संस्थान, उद्यमी और प्रगतिशील किसान अपना स्टाल लगाएंगे. इस मेले में हर साल देश के विभिन्न भागों से 1 लाख से अधिक किसान, उद्यमी, राज्यों के अधिकारी, छात्र एवं अन्य उपयोक्ता भाग लेते हैं.

इस मेले के प्रमुख आकर्षणों में फसलों का जीवंत प्रदर्शन, फूलों और सब्जियों की संरक्षित खेती, गमलों में खेती, ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) खेती, मिट्टी एवं पानी की मुफ्त जांच, कट फ्लावर, विदेशी सब्जियों एवं उन्नत किस्म के फलों की प्रदर्शनी और विभिन्न भागीदारों द्वारा उच्च उपजशील बीजों/पौधों, कृषि प्रकाशनों की बिक्री और वैज्ञानिकों व किसानों की परस्पर चर्चा शामिल हैं.

इस अवसर पर किसानों को नवोन्मेषी एवं अध्येता सम्मान से सम्मानित किया जाएगा, जिस के लिए उन से आवेदन मांगे गए हैं. किसान अधिक से अधिक संख्या में इस सम्मान के लिए अपना आवेदन अतिशीघ्र भेजें. संबंधित विवरण पूसा संस्थान की वैबसाइट पर उपलब्ध है :

https://iari.res.in/en/krishi-vigyan-mela-2025.php.

कुलपति डा. कर्नाटक नई दिल्ली में मानद फैलो 2024 पुरस्कार से सम्मानित

नई दिल्ली : भारतीय कीट विज्ञान सोसाइटी ने 7 जनवरी, 2025 को नई दिल्ली में कीट विज्ञान में स्थापना दिवस समारोह और फ्रंटियर्स इन एंटोमोलौजी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक को मानद फैलो 2024 पुरस्कार से सम्मानित किया.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक को पुरस्कार प्रदान करते हुए सोसाइटी के अध्यक्ष डा. वीवी राममूर्ति ने कीट विज्ञान शिक्षण, अनुसंधान व प्रसार में उन के आजीवन योगदान की सराहना की.

उल्लेखनीय है कि डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने 40 साल तक कृषि एवं कीट विज्ञान क्षेत्र में अपनी उत्कृष्ट सेवाएं दी हैं. इन्हें मधुमक्खीपालन, चावलगेहूं और गन्ना पारिस्थितिकी तंत्र के कीट प्रबंधन और मृदा जैव प्रबंधन में विशेषज्ञता प्राप्त है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने तराई क्षेत्र में मधुमक्खी की एपिस मेलिफेरा प्रजाति स्थापित की और इस के पालन के लिए प्रबंधन पद्धतियां विकसित कीं, जिस से शहद, मोम और दूसरे शहद उत्पादों के उत्पादन से किसानों की आय में वृद्धि हुई है और परपरागण वाली फसलों की उत्पादकता में भी वृद्धि हुई है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने उत्तराखंड सरकार के कृषि पोर्टल का मधुमक्खीपालन भाग विकसित किया. डा. कर्नाटक को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा साल 2021 का सर्वश्रेष्ठ कुलपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

पिछले कुछ सालों में डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किए हैं, जिन में सोसाइटी फौर कम्युनिटी मोबिलाइजेशन फौर सस्टेनेबल डवलपमेंट, नई दिल्ली द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, प्लांटिका एसोसिएशन औफ प्लांट साइंस रिसर्चर्स, देहरादून द्वारा डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षाविद सम्मान और सतत कृषि व संबद्ध विज्ञान के लिए वैश्विक अनुसंधान पहल पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान कीट विज्ञान अनुसंधान में उन के योगदान के लिए चौधरी हंसा सिंह पुरस्कार शामिल हैं.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली और राजस्थान के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के कार्यान्वयन के लिए कई महत्वपूर्ण समितियों में नामित भी किया गया है.

स्वास्थ्यवर्धक है चुकंदर

व्यस्तता के चलते आजकल लोग अपनी सेहत का ध्यान नहीं रख पाते, जिस से आएदिन शरीर की इम्यूनिटी कमजोर होने से वे कई बीमारियों के शिकार हो जाते हैं. लंबी आयु के लिए जरूरी है कि अपने खानपीन में फल व हरी सब्जियों के साथ चुकंदर भी शामिल किया जाए. जब खानपान पर सही ध्यान दिया जाएगा तो निश्चित रूप से शरीर की इम्यूनिटी अच्छी होगी और आएदिन होने वाली तकलीफों से बचा जा सकेगा.

चुकंदर खाने से शरीर कई बीमारियों से लड़ने में सक्षम हो जाता है. यह महिलाओं में होने वाली एनीमिया की बीमारी को दूर करने का सब से सही साधन है. इस के गुणों को देखते हुए भारत में इस की व्यापक खेती की जा रही है. यह कैंसर, हाईब्लड प्रेशर के साथ ही अल्जाइमर  की बीमारी को भी दूर करने में कारगर है. चुकंदर स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी खास है. इस में मौजूद तत्त्व जहां शरीर को ऊर्जावान बनाते हैं, वहीं विभिन्न रोगों से लड़ने की कूवत भी विकसित करते हैं. चुकंदर का नियमित सेवन स्वास्थ्य के लिए काफी लाभप्रद है. खासतौर से बढ़ती उम्र के बच्चों और महिलाओं के लिए यह सब से उत्तम आहार है.

चुकंदर सलाद के रूप में नियमित खाने से शरीर कई बीमारियों से लड़ने में सक्ष्म हो जाता है. गर्भवती महिलाओं को तो इस का सेवन जरूर करना चाहिए. गर्भावस्था के दौरान आमतौर पर खून की कमी हो जाती है, जिसे एनीमिया कहा जाता है. जो महिलाएं नियमित रूप से चुकंदर का सेवन करती हैं. उन्हें खून की कमी नहीं होती. कई बार बच्चे भी खून की कमी की वजह से बीमार रहने लगते हैं. ऐसे बच्चों को चुकंदर का जूस पिलाना लाभकारी रहता है. चुकंदर एक तरह की जड़ है. आमतौर पर यह लाल रंग का होता है. कुछ जगहों पर सफेद रंग का चुकंदर भी पाया जाता है. इस के पत्तों को शाक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

किसानों को चुकंदर का अच्छा दाम मिलता है. इस में मौजूद गुणों के कारण इसे अब मौसमी सब्जी के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा है. चुकंदर में सही मात्रा में लौह, विटामिन और खनिज होते हैं जो रक्तवर्धन और रक्तशोधन के काम में सहायक होते हैं. इस में मौजूद एंटीऔक्सीडेंट तत्त्व शरीर को रोगों से लड़ने की कूवत देते हैं. इस में सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, क्लोरीन, आयोडीन और अन्य खास विटामिन पाए जाते हैं.

चुकंदर में गुर्दे और पित्ताशय को साफ करने के प्राकृतिक गुण पाए जाते हैं. इस में मौजूद पोटेशियम जहां शरीर को प्रतिदिन पोषण प्रदान करने में मदद करता है तो वहीं क्लोरीन गुर्दों के शोधन में सहायता करता है. यह पाचन संबंधी समस्याओं में भी लाभकारी है. चुकंदर का रस हाइपरटेंशन और हृदय संबंधी समस्याओं को दूर रखता है. महिलाओं के लिए तो यह काफी गुणकारी है. चुकंदर में बेटेन नामक तत्त्व पाया जाता है, जिस की आंत व पेट को साफ रखने के लिए हमारे शरीर को जरूरत रहती है, चुकंदर में मौजूद यह तत्त्व उस की आपूर्ति करता है.

काफी पहले यूरोप में कैंसर के इलाज के लिए चुकंदर का काफी इस्तेमाल किया जाता था. चुकंदर और इस के पत्ते फोलेट का अच्छा जरीया हैं, जो उच्च रक्तचाप और अल्जाइमर की परेशानी को दूर करने में मदद करते हैं.

कैसे खाएं : चुकंदर कई तरीके से खाया जाता है. आमतौर पर इसे कच्चे सलाद के रूप में खाया जाता है. मूली, गाजर, प्याज, टमाटर आदि की तरह ही चुकंदर को भी सलाद में शामिल करें.

इस के अलावा इसे दक्षिण भारत में उबाल कर खाने का भी प्रचलन है. हालांकि उबालने से इस के कुछ तत्त्व खत्म हो जाते हैं. इसलिए इसे कच्चा खाना ही सब से लाभप्रद है. बुजुर्गों और बच्चों को चुकंदर का जूस देना चाहिए. इस के अलावा देश में चुकंदर की सब्जी बना कर खाने का भी चलन है.

Beetroot

चुकंदर के औषधीय गुण

एनीमिया दूर करे चुकंदर : एनीमिया रोग के लिए चुकंदर रामबाण माना जाता है. चुकंदर में उचित मात्रा में आयरन, विटामिंन और मिनिरल्स होते हैं, जो रक्त बढ़ाने और उस के शोधन का काम करते हैं. यही कारण है कि महिलाओं को इस के नियमित सेवन की सलाह दी जाती है.

गुर्दों के लिए लाभकारी : चुकंदर में गुर्दे को स्वस्थ और साफ रखने के गुण मौजूद हैं. किडनी रोगियों को चुकंदर का रस देना लाभकारी है. इस में मौजूद क्लोरीन लीवर और किडनी को साफ रखने में मदद करता है.

पित्ताशय के लिए गुणकारी : शोध में पाया गया है कि यह किडनी के साथ ही पित्ताशय के लिए भी कारगर है. इस में मौजूद पोटेशियम शरीर को रोजाना पोषण देने में मदद करता है, वहीं क्लोरीन लीवर और किडनी को साफ करने में मदद करता है.

पाचन में सहायक : बच्चों और युवाओं को चुकंदर चबाचबा कर खाना चाहिए. इस से दांत और मसूढे़ मजबूत होते हैं. यह पाचन संबंधी समस्याओं को दूर करने में भी लाभकारी है. इस का नियमित सेवन करने से अपाच्य की समस्या खत्म हो जाती है. बढ़ती उम्र के बच्चों को चुकंदर जरूर खिलाना चाहिए, इस से उन का शारीरिक सौष्ठव बेहतर होता है और बच्चों के चेहरे पर चमक दिखती है.

उल्टीदस्त : यदि उल्टीदस्त की शिकायत हो तो चुकंदर के रस में चुटकीभर नमक मिलाना फायदेमंद रहता है. इस से पेट में बनने वाली गैस खत्म हो जाती है. उल्टी बंद होने के साथ ही दस्त भी बंद हो जाते हैं.

पीलिया में लाभकारी : चुकंदर पीलिया के रोगियों के लिए भी फायदेमंद है. पीलिया के रोगियों को चुकंदर का रस दिन में 4 बार देना चाहिए. ध्यान रखें कि एक बार 1 कप से ज्यादा जूस न दें.

हाइपरटेंशन : चुकंदर का जूस हाइपरटेंशन और हृदय संबंधी समस्याओं को दूर करता है. इस के नियमित सेवन से चिड़चिड़ापन दूर हो जाता है. खास कर यह महिलाओं के लिए काफी लाभकारी है.

मासिक धर्म में लाभकारी : मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को कमर व पेडू दर्द और अन्य शारीरिक दुर्बलताओं जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. चुकंदर के नियमित इस्तेमाल से मासिक धर्म के दौरान होने ली तकलीफ नहीं होती है.

माहवारी, फोड़े, जलन और मुहासों के लिए भी यह काफी उपयोगी है. खसरा और बुखार में भी त्वचा साफ करने में इस का इस्तेमाल किया जा सकता है.

बालों की रूसी भगाए : चुकंदर के काढ़े में थोड़ा सा सिरका मिला कर सिर में लगाएं या सिर पर चुकंदर के पानी में अदरक के टुकउ़ों को भिगो कर रात में मसाज करें. सुबह बालों को धो लें.

चुकंदर खाएं ब्लडप्रेशर भगाएं : ब्लडप्रेशर के रोगियों को चुकंदर जरूर खिलाएं. चुकंदर और इस के पत्ते फोलेट का एक अच्छा जरीया है, जो उच्च रक्तचाप और अल्जाइमर की समस्या को दूर करने में मदद करते हैं. रोज चुकंदर में गाजर और सेब मिला कर उस का जूस पीने से हाईब्लड प्रेशर में कमी आती है. एक अध्ययन के मुताबिक रोजाना 2 कप चुकंदर का जूस पीने से ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहता है.

हालांकि इस का ज्यादा सेवन नहीं करना चाहिए. इस के ज्यादा सेवन करने से चक्कर आना या वोकल कार्ड पैरालिसिस का खतरा बढ़ जाता है.

चुकंदर की सब्जी भी लाभदायक : चुकंदर स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद सब्जी है. इस में कार्बोहाइड्रेट और कम मात्रा में प्रोटीन और वसा पाई जाती है. यह प्राकृतिक शुगर का सब से अच्छा स्रोत है. इस में सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, कैल्शियम, सल्फर, क्लोरीन, आयोडीन, आयरन, विटामिन ‘बी1’, ‘बी2’ और ‘सी’ पाया जाता है. इस में कैलोरी काफी कम होती हैं.

पशुओं के स्वास्थ्य में भी कारगर : चुकंदर इतना गुणकारी है कि यह इंसान के साथसाथ पशुओं के लिए भी कारगर है. यही कारण है कि हरियाणा, पंजाब, गुजरात और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे सीजनल पशु आहार के रूप में खिलाया जाता है. विशेष रूप से दुधारू पशुओं को खिलाने से उन का स्वास्थ्य ठीक रहता है और दूध में भी इजाफा होता है.

इस में मौजूद तत्त्व पशुओं में होने वाले विभिन्न रोगों से उन का बचाव करते हैं. इसे खिलाने से पशुओं में आमतौर पर होने वाली बांझपन की समस्या खत्म हो जाती है.

दुधारू पशु 3 से 4 बार ब्याने के बाद कमजोर हो जाते हैं और कुछ में बांझपन के लक्षण भी आ जाते हैं, लेकिन जिन पशुपालकों ने नियमित रूप से उन के चारे में चुकंदर को शामिल किया है, उन्हें इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है.

स्टीविया की वैज्ञानिक खेती

स्टीविया को मीठी तुलसी, चीनी व मधुपत्र आदि नामों से भी जाना जाता है. स्टीविया लेमिएसी कुल का बहुवर्षीय, झाड़ीनुमा, शाकीय पौधा है.

भारत में अभी यह नया पौधा है. मौजूदा समय में इस की खेती खासकर कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही होती है. औषधीय गुणों की वजह से इस के क्षेत्रफल और पैदावार में बढ़ोतरी की जरूरत है. स्टीविया एक छोटा पौधा है, जिस की लंबाई 60-70 सेंटीमीटर तक होती है. इस के फल छोटे, सफेद और कई आकार में लगते हैं.

स्टीविया का पौधा चीनी से तकरीबन 25-30 गुना ज्यादा मीठा होता है. इस की पत्तियों में मिठास के कई तत्त्व पाए जाते हैं, जिन में स्टीवियोसाइड, रीबाऊदिस, रीबाऊदिस साइड सी और डाल्कोसाइड खास हैं. इन के अलावा इस की पत्तियों में 6 अन्य तत्त्व भी पाए जाते हैं, जिन में इंसुलिन को संतुलित करने के खास गुण मौजूद होते हैं. स्टीविया की पत्तियों से निकाले जाने वाले स्टीवियोसाइड में चीनी से 250 गुना ज्यादा और सुक्रोज से 300 गुना ज्यादा मिठास पाई जाती है.

स्टीविया कैलोरी रहित होने के कारण मधुमेह रोगियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण मीठा पदार्थ है. स्टीविया का सब से ज्यादा उपयोगी घटक स्टीवियोसाइड है.

स्टीविया की पत्तियों में स्टीवियोसाइड की मात्रा 3 से 20 फीसदी तक हो सकती है. स्टीविया की 9 फीसदी या इस से ज्यादा मात्रा वाली स्टीवियोसाइड प्रजातियों को अच्छा माना जाता है.

भारत में ज्यादातर लोग बिना मीठे के भोजन नहीं करते, इसलिए यहां स्टीविया के लिए बड़ा बाजार बन सकता है. चायकौफी में इस्तेमाल करने के साथसाथ इसे कई तरह की मिठाइयों और चाकलेट्स में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. स्टीविया मधुमेह के रोगियों के लिए काफी लाभदायक है.

खेती की तकनीक

जलवायु : स्टीविया का पौधा 11 से 41 डिगरी सेल्सियस तापमान पर ज्यादा बढ़ता है. 131-140 सेंटीमीटर सालाना बारिश वाले इलाकों में यह आसानी से उगाया जा सकता है.

जमीन : स्टीविया का पौधा ज्यादा पानी वाली मिट्टी में नहीं उगता है. इस के लिए सही जल निकास वाली रेतीली जमीन जिस का पीएच मान 6.5-7.5 हो, काफी अच्छी रहती है.

जमीन की तैयारी : स्टीविया बहुवर्षीय पौधा होने से 1 बार लगाने के बाद 4-5 सालों तक खेत में रहता है, इसलिए मिट्टी को अच्छी तरह तैयार करना चाहिए. खेत को 1 बार मिट्टी पलट हल से गहरा जोतने के बाद 4-6 जुताई हैरो और कल्टीवेटर या देशी हल से करनी चाहिए. आखिरी जुताई से पहले 20 टन गोबर की खाद, 6 से 8 टन कंपोस्ट खाद या 2-2.5 टन वर्मी कंपोस्ट डाल कर जुताई करनी चाहिए और हर जुताई के बाद पाटा लगा देना चाहिए ताकि खेत में ढेले न बनें और मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी हो जाए.

बोआई का तरीका और समय : इस की पौध बीज और कलम दोनों तरह से तैयार की जाती है. बीजों का अंकुरण कम होने से इसे ज्यादातर कलम से ही लगाया जाता है. इस की रोपाई मेंड़ों पर की जाती है. रोपाई के लिए तकरीबन 6 से 8 इंच ऊंची मेंडें़ बनाई जाती हैं. इन मेंड़ों पर पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर रख कर कलमों की रोपाई की जाती है. रोपाई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

इस की रोपाई का सब से अच्छा समय सितंबरनवंबर और फरवरीअप्रैल है. 15 सेंटीमीटर लंबी तने की कटिंग्स को 100 पीपीएम पैक्लान बूटेजाल से उपचारित कर के फरवरी में रोपाई करने से जड़ें ज्यादा और जल्दी निकलती हैं.

खाद और उर्वरक : स्टीविया की फसल को 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर जरूरत पड़ती है. फसल के इन जरूरी तत्त्वों की पूर्ति केवल कार्बनिक खादों से ही करनी चाहिए. स्टीविया में किसी भी तरह के रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. बोरोन और मोलिब्डेनम का खड़ी फसल पर छिड़काव करने से पत्तियों में स्टीवियोसाइड की संख्या में बढ़ोतरी होती है.

सिंचाई : स्टीविया को सालभर पानी की जरूरत होती है. गरमी में 6 से 8 दिनों और सर्दियों में 12 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए. यदि मुमकिन हो तो स्टीविया की सिंचाई के लिए टपक सिंचाई विधि का ही इस्तेमाल करना चाहिए.

stevia

प्रजातियां : स्टीविया का मूल्य उस में पाए जाने वाले स्टीवियोसाइड की मात्रा पर निर्भर करता है. इसलिए स्टीविया की खेती के लिए ऐसी किस्में जिन में स्टीवियोसाइड की ज्यादा मात्रा पाई जाती है, को ही चुना जाना चाहिए. मौजूदा समय में स्टीविया की 3 किस्में ज्यादा प्रचलित हैं.

बीआरआई 28 : स्टीविया की यह किस्म खेती के लिए काफी सही मानी जाती है, क्योंकि इस में 21 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं. यह प्रजाति जितनी अच्छी भारत के दक्षिणी इलाकों के लिए है, उतनी ही उत्तरी इलाकों के लिए भी है. यह किस्म बायोवेद संस्थान, इलाहाबाद ने विकसित की है.

बीआरआई 123 : स्टीविया की यह किस्म भारत के दक्षिणी पठारी इलाकों के लिए अच्छी है. इस में 9.12 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं. यह किस्म साल में 5 कटाई देती है.

बीआरआई 512 : इस प्रजाति की साल में 4 बार कटाई होती है. यह किस्म उत्तर भारत के लिए ज्यादा सही है. इस में 9 से 12 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं.

खरपतवारों की रोकथाम : स्टीविया की फसल से हमेशा खरपतवारों को दूर रखना चाहिए. इस के लिए फसल की खुरपी आदि से निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए. स्टीविया के पौधों के बीच से खरपतवार हाथ से ही हटा देना चाहिए.

स्टीविया की फसल में किसी भी तरह के रासायनिक खरपतवारनाशी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

फसल सुरक्षा : ज्यादातर स्टीविया की फसल पर किसी तरह के रोग और कीट नहीं लगते, लेकिन कभीकभी जमीन में बोरोन की कमी की वजह से पत्ती धब्बा जैसी बीमारी हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए 6 फीसदी बोरेक्स का छिड़काव करना चाहिए.

स्टीविया को जमीन में पाए जाने वाले कीड़ों व दीमक वगैरह से बचाने के लिए 15-20 किलोग्राम बायोनीमा जैविक खाद का इस्तेमाल मिट्टी में करना चाहिए और गौमूत्र का भी समयसमय पर छिड़काव कर सकते हैं.

फूल तोड़ना : स्टीविया की पत्तियों में सब से ज्यादा स्टीवियोसाइड्स मौजूद होते हैं. इसलिए पत्तियों की ज्यादा बढ़त के लिए पौधों से फूलों को हटा देना चाहिए, क्योंकि फूल आने के बाद पौधे की वानस्पतिक बढ़त रुक जाती है. पौध रोपने के 30, 45, 60, 75 व 85 दिनों बाद और कटाई के समय फूल तोड़ देने चाहिए. पेड़ी फसल में पहली कटाई के 40 दिनों बाद फूल आने लगते हैं, लिहाजा 40 दिनों बाद कटाई के समय फूलों को तोड़ देना चाहिए.

कटाई : रोपाई के तकरीबन 110-120 दिनों बाद फसल कटाई लायक हो जाती है. फसल की कटाई फूल तोड़ने के बाद और दोबारा फूल आने से पहले कर लेनी चाहिए. फिर 3 से 4 कटाई 90-90 दिनों के बीच कर लेनी चाहिए.

उपज : बहुवर्षीय फसल होने से स्टीविया की उपज में हर कटाई के बाद लगातार बढ़त होती है. स्टीविया की सालभर में 4 कटाई में 10-12 टन प्रति हेक्टेयर सूखी पत्तियां हासिल हो जाती हैं.

फसल से ज्यादा उत्पादन के मूलमंत्र

आमतौर पर खेती का उत्पादन मौसम व खेती के तरीकों पर टिका होता है. वर्षा, तापमान, सूर्य का प्रकाश व हवा आदि हमारी पहुंच से बाहर हैं, लेकिन खेती के तरीके हमारी पहुंच में हैं. समय पर सही ध्यान दे कर फसलों की मौजूदा उत्पादकता में बढ़ोतरी की जा सकती है. ज्यादा उत्पादन के निम्न मूलमंत्र हैं, जिन पर गौर फरमा कर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है:

समय

फसल उत्पादन में समय एक महत्त्वपूर्ण पहलू है. फसल की बोआई से ले कर कटाई तक फसल संबंधी सभी क्रियाएं सही समय पर करनी चाहिए. कभीकभी जानकारी न होने से मजबूरी या लापरवाहीवश बोआई, खरपतवारों की रोकथाम, कीड़ों की रोकथाम और सिंचाई जैसे जरूरी कामों को किसान समय पर नहीं कर पाते हैं, जिस वजह से उत्पादन में भारी कमी आती है.

कृषि विज्ञान केंद्रों और कृषि विभाग द्वारा चलाए जा रहे कई प्रशिक्षणों द्वारा किसान भाई खेती की नवीनतम तकनीक का ज्ञान हासिल कर सकते हैं. किसानों को कभीकभी कृषि की कई जरूरी चीजें जैसे उन्नत बीज, उर्वरक, फफूंदनाशक, कीटनाशक, खरपतवारनाशक वगैरह समय पर नहीं मिल पाते हैं, जिस से वे सही समय पर खेती के सभी काम नहीं कर पाते हैं. ऐसे हालात में फसल के उत्पादन में कमी आती है. इसलिए ऐसी हालत से बचने के लिए जरूरी सामान का प्रबंध सही समय पर करें.

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उम्दा बीज

बीजों की गुणवत्ता का उत्पादन पर 20 से 30 फीसदी असर पड़ता है. इसलिए किसान भाइयों को स्थानीय और परंपरागत बीजों के बजाय अच्छे प्रमाणिक बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि ऐसे बीज ज्यादा उत्पादन और गुणवत्ता वाले होते हैं. इसलिए जहां तक हो सके विभिन्न फसलों के अच्छे और प्रमाणिक बीजों का ही इस्तेमाल करें. विभिन्न फसलों की संकर किस्मों के बीजों को दोबारा बोआई के काम में न लें, क्योंकि उन की उत्पादन कूवत कम हो जाती है. इसलिए हर साल प्रमाणिक बीज ही खरीद कर बोएं.

बीजों को बोने से पहले घरेलू तकनीक से उन की अंकुरण कूवत परख लें और पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही बीज बोएं ताकि अंकुरण संबंधी किसी भी समस्या का हल बोआई से पहले ही हो जाए.

यदि किसान अपना पैदा किया बीज इस्तेमाल में लेते हैं तो बीज की बोआई से पहले ग्रेडिंग जरूर करें. बोआई से पहले बीज का उपचार भी फायदेमंद रहता है.

पोषक तत्त्व प्रबंधन

उर्वरक और खाद खेती के महत्त्वपूर्ण, हिस्से हैं. ये पौधों की बढ़त के साथसाथ पौधों द्वारा पानी सोखने की कूवत में भी वृद्धि करते हैं. विभिन्न फसलों में ज्यादातर किसान बिना मिट्टी की जांच के अपनी इच्छा से अंधाधुंध उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से धीरेधीरे मिट्टी की उर्वरता में कमी आ जाती है. लिहाजा किसानों को कम से कम 2 से 3 साल में खेतों की मिट्टी की जांच जरूर करानी चाहिए, जिस से खेतों में मौजूद पोषक तत्त्वों के सही स्तर का पता चल सके.

मिट्टी की जांच के मुताबिक ही फसलों में उर्वरकों का इस्तेमाल करें. इस से उस की लवणीयता और क्षारीयता का भी पता चलता है और ऐसी मिट्टी को सही तरीके से सुधारने में मदद मिलती है.

उर्वरकों को फसल की सही अवस्थाओं में सही तरीके से देना चाहिए, जिस से मिट्टी की कूवत बढ़ती है. उर्वरकों को बीज के साथ कभी न मिलाएं और हमेशा बीज से 2 इंच नीचे दबाएं.

लगातार उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल से फसलों की पैदावार में कमी आने लगी है, क्योंकि उर्वरकों के इस्तेमाल से मिट्टी के भौतिक गुणों पर उलटा असर पड़ने लगा है. लिहाजा ज्यादा उत्पादन और टिकाऊ खेती के लिए उर्वरकों के साथसाथ कार्बनिक खादों पर समुचित ध्यान देना जरूरी है.

इस के लिए कम से कम 3 सालों में 1 बार गोबर की सड़ी या कंपोस्ट खाद का जरूर इस्तेमाल करें या फिर सनई, ग्वार या ढैंचा को वर्षाऋतु में उगा कर फूल आने पर खेत में दबा कर हरी खाद के रूप में काम में लें.

खाद और उर्वरक के अलावा विभिन्न फसलों में निर्धारित जीवाणु खादों जैसे राइजोबियम जीवाणु, एजेटोबैक्टर या एजोस्पाइरिलम, फोस्फोबैक्टेरियम जीवाणु, नील हरित शैवाल, एजोला, फर्न, माइकोराइजा आदि का भी इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि इन के इस्तेमाल से विभिन्न पोषक तत्त्वों की मौजूदगी बढ़ती है. जीवाणु खाद न केवल किफायती है, बल्कि यह पर्यावरण को भी सुरक्षित रखती है. जीवाणु खाद वायु से नाइट्रोजन ले कर पौधों को मुहैया कराती है.

खरपतवार प्रबंधन

फसल में मौजूद खरपतवार पौधों से हवा, पानी, सूर्य की रोशनी और पोषक तत्त्वों के लिए मुकाबला कर के उन की बढ़वार पर असर डाल कर उत्पादकता कम कर देते हैं और कभीकभी फसल को भी नष्ट कर देते हैं. इसलिए ज्यादा उत्पादन के लिए फसलों को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए. खरपतवार नियंत्रण के लिए कुदाली, कुल्फा और खरपतवारनाशी रसायनों का प्रयोग कर सकते हैं. इस के अलावा गरमी में गहरी जुताई कर के भी खरपतवार की रोकथाम कर सकते हैं.

सिंचाई प्रबंधन

सिंचाई प्रबंधन सब से महत्त्वपूर्ण होता है. प्रकृति के सीमित साधनों का रखरखाव कर किफायत से पानी इस्तेमाल करना चाहिए. इस के लिए खेतों को पूरी तरह समतल कर के चारों तरफ मजबूत मेंड़बंदी करनी चाहिए ताकि खेत का पानी खेत में ही रुक सके.

पानी का सही इस्तेमाल करने के लिए फसलों की क्रांतिक अवस्थाओं में सिंचाई करनी चाहिए. फसल में जरूरत से ज्यादा पानी न दें और सिंचाई के नए तरीकों जैसे फव्वारा, ड्रिप और पाइपों का इस्तेमाल करें.

फसल संरक्षण

बीजजनित कीटों और रोगों की कारगर रोकथाम के लिए बीज उपचार एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है.

सभी फसलों के बीजों को बोआई से पहले खास रसायनों से उपचारित करने के बाद बोआई करें. बीजों को पहले फफूंदनाशी, फिर कीटनाशी और आखिर में जीवाणु कल्चर से उपचारित कर बोआई करें.

इस क्रम में किसी प्रकार का बदलाव न करें. कीटों और रोगों की रोकथाम के लिए 3 साल में एक बार गरमी में गहरी जुताई कर के खेत तपने के लिए कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें.

किसी भी तरह का कीटनाशक अपनी इच्छा या विक्रेता के कहने पर इस्तेमाल में नहीं लेना चाहिए. विभिन्न फसलों में संबंधित जानकारों की सलाह से ही रसायनों का इस्तेमाल करें.

रसायनों को खरीदते समय दवा का असर खत्म होने की तारीख जरूर देखें और बिल जरूर लें. मित्र कीटों का रखरखाव करें. प्रकाशपाश व फेरामोनट्रेप को काम में लें. इस से रसायनों का इस्तेमाल कम होगा और बिना रसायनों के कीड़ों की रोकथाम होगी, जिस से लागत में कमी आएगी.

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फसल बीमा

किसानों की फसल कुदरती आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़ आदि से बरबाद हो जाती है, जिस से किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. कुदरती कारणों से होने वाले नुकसान की भरपाई का सीधा तरीका है फसल बीमा.

फसल बीमा होने से किसान फसल की नई किस्मों और नई तकनीकों को इस्तेमाल में ले सकते हैं, क्योंकि यह जोखिम बीमा द्वारा रक्षित होता है. भारत सरकार ने देशभर में विभिन्न योजनाओं की शुरुआत की है.

इन में व्यापक फसल बीमा योजना, प्रायोगिक फसल बीमा, कृषि आय बीमा योजना, राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना आदि शामिल हैं.

जमीन और फसल की उत्पादकता बढ़ाने और उत्पादन लागत कम करने के लिए निम्न बातों पर गौर करना चाहिए:

* ज्यादा उत्पादन पाने के लिए समय पर बोआई करें.

* प्रमाणित उन्नत बीज ही बोएं, इस से उपज में बढ़ोतरी होती है.

* कम खर्च में निरोग व स्वस्थ फसल पाने के लिए बीजोपचार जरूर करें.

* बारिश का पानी ज्यादा से ज्यादा जमीन के अंदर संरक्षित करने के लिए जुताई व बोआई ढलान के विपरीत करें.

* पौधों की सही संख्या व सही दूरी से अच्छी बढ़वार व उपज पाने के लिए अच्छी बीज दर रखें.

* कतार में बोआई करें और लाइनों की दूरी बराबर रखें.

* फसलें बदलबदल कर बोएं जिस से कीट व रोग में कमी आएगी.

* दलहनी और तिलहनी फसलों में जिप्सम का इस्तेमाल करें.

* मिट्टी की जांच की सिफारिश के अनुसार उर्वरक का इस्तेमाल करें जिस से उर्वरक पर खर्च में कमी आएगी.

* जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाने के लिए गोबर की खाद, कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट आदि का इस्तेमाल करें.

* रासायनिक उर्वरकों से होने वाले नुकसानों से बचने के लिए जैविक खेती अपनाएं.

* कम पानी की स्थिति में फसल की समयसमय पर सिंचाई करें.

* सिंचित क्षेत्र बढ़ाने के लिए फव्वारा, ड्रिप व पाइपलाइन का इस्तेमाल करें, जिस से पानी की बचत हो.

* मित्र कीटों का रखरखाव करें. प्रकाशपाश व फेरामोनट्रेप काम में लें. इस से रसायनों का इस्तेमाल कम होगा और बिना रसायनों के कीड़ों की रोकथाम होगी, जिस से लागत में कमी आएगी.

* खरपतवार, रोग व कीट के असर में कमी लाने के लिए गरमी में गहरी जुताई जरूर करें.

* धोखाधड़ी से बचने के लिए खाद, बीज व दवा खरीदते समय बिल जरूर लें. इस से अनाज की गुणवत्ता भी पक्की होगी.

* उपज सुखा कर और अच्छी तरह साफ कर के बाजार में ले जानी चाहिए, जिस से उपज का ज्यादा मूल्य मिल सके.

* फसल बीमा जरूर करवाएं. इस से फसल जोखिम कम होता है.

* समय, मेहनत और पैसा बचाने के लिए उन्नत कृषि यंत्रों का इस्तेमाल करें.

* कृषि विज्ञान केंद्रों और कृषि विभाग द्वारा संचालित विभिन्न कृषि प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भागीदारी बढ़ाएं, नवीनतम जानकारी लें और समस्या का समाधान पाएं व उन्नत तकनीक का इस्तेमाल कर के उत्पादन बढ़ाएं.