पान (Betel Leaf) की वैज्ञानिक खेती

हमारे प्रमुख कृषि  उद्योगों में पान की खेती का खासा महत्त्व है. कुछ इलाकों में इस का उतना ही महत्त्व है, जितना कि दूसरी खाद्य या नकदी फसलों का है. भारत में पान की खेती अलगअलग क्षेत्रों में कई तरीके से की जाती है, जैसे दक्षिण और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में जहां बारिश ज्यादा होती है और नमी ज्यादा रहती है, वहां पान की खेती कुदरती रूप से की जाती है.

उत्तर भारत में जहां भीषण गरमी और कड़ाके की सर्दी पड़ती है, वहां पान की खेती संरक्षित खेती के तौर पर की जाती है. पान की खेती के लिए अच्छी जलवायु बेहद महत्त्वपूर्ण है. पान की खेती मुंबई का बसीन क्षेत्र, असम, मेघालय, त्रिपुरा के पहाड़ी क्षेत्र, केरल के तटवर्ती इलाकों के साथसाथ उत्तर भारत के गरम व शुष्क इलाकों, कम बारिश वाले कडप्पा, चित्तुर, अनंतपुर, पुणे, सतारा, अहमदनगर उत्तर प्रदेश के बांदा, ललितपुर, महोबा व छतरपुर (मध्य प्रदेश) आदि इलाकों में सफलतापूर्वक की जाती है.

किसानों और व्यापारियों के मुताबिक भारत में पान की 100 से ज्यादा किस्में पाई जाती हैं. इस की किस्मों में बढ़ोतरी इसलिए हुई है, क्योंकि एक ही किस्म को भिन्नभिन्न इलाकों में अलगअलग नामों से जाना जाता है.

उत्तर प्रदेश का पान की पैदावार में खास स्थान है, जिस में महोबा का पान की खेती में पहला स्थान है. महोबा में पान की खेती की शुरुआत 9वीं शताब्दी में चंदेल शासकों ने की थी. पहले यहां तकरीबन 500-600 एकड़ क्षेत्रफल में पान की खेती होती थी, लेकिन गुटखा खाने के बढ़ते प्रचलन, सिंचाई की समस्या, कच्चे माल की कमी और घटती मांग के कारण मौजूदा समय में इस का क्षेत्रफल सिमट गया है. महोबा पान की अच्छी मंडी है. चित्रकूट धाम मंडल में महोबा व बांदा और झांसी मंडल में ललितपुर पान की खेती के लिए जाने जाते हैं.

पान की खेती पर शोध और किसानों को प्रशिक्षण देने के लिए महोबा में 1980-81 में पान प्रयोग और प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गई.

पान बरेजे (पान की बाड़ी) की तैयारी और पान की खेती

जलवायु : पान एक ऊष्ण कटिबंधीय पौधा है. इस की बढ़वार नम, ठंडे व छायादार वातावरण में अच्छी होती है.

बरेजे के लिए सही जमीन : भारत में पान की बेल हर तरह की जमीन में उगाई जाती है, लेकिन अच्छी पैदावार के लिए लाल मिट्टी मिली पडुवा मिट्टी बढि़या रहती है. ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस इलाके में पान की खेती करनी हो, वहां कम से कम 15 सेंटीमीटर मोटी परत वाली तालाब की काली मिट्टी डालनी चाहिए. जिस जमीन पर बरेजा बनाया जाए उस का ढाल सही होना चाहिए ताकि बरसात का पानी आसानी से निकल सके. यदि पानी का भराव या रुकाव होगा तो बरेजे में रोग लगने का खतरा रहता है.

जमीन की तैयारी : बरेजा बनाने से पहले खेत की पहली जुताई मईजून में किसी भी मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए, ताकि तेज धूप में मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीड़ेमकोड़े व खरपतवार खत्म हो जाएं. इस के बाद अगस्त में देशी हल से जुताई कर के खेत खुला छोड़ दें. बरेजा बनाने से 25 दिनों पहले फावड़े से गुड़ाई कर के देशी हल से आखिरी जुताई द्वारा मिट्टी भुरभुरी करनी चाहिए.

जमीन की सफाई : बरेजा बनने के बाद उस के भीतर से कूड़ाकरकट अच्छी तरह साफ करना चाहिए. कुदाल से गहरी गुड़ाई कर के वहां थोड़ी कलई यानी चूना डस्ट बुरक दें और अच्छी तराई करें. कुदाल से दोबारा मिट्टी ऊपर उठाएं और मिट्टी में से कूड़ाकरकट निकालें. तैयारी के बाद 0.25 फीसदी बोर्डों मिश्रण डालें. इस के साथ ही 30-40 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में 1 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी पाउडर ठीक से मिला कर छायादार स्थान पर रखें, इस में नमी बनाएं रखें, 1 हफ्ते बाद जैविक खाद तैयार हो जाएगी. इस को आखिरी जुताई के बाद पान बेल की बोआई से पहले खेत में मिला दें. ऐसा करने से जमीन में पैदा होने वाले रोगों से बचाव हो जाता है और जमीन अच्छी तरह से साफ हो जाती है.

पान की मुख्य किस्में : वैज्ञानिकों के मुताबिक पान की खास किस्में हैं, बनारसी, सौंफिया, बंगला, देशावरी, कपूरी, मीठा व सांची आदि. पान में नरमादा पौधे अलगअलग होते हैं, लेकिन देश में नर पौधों को ही उगाया जाता है. मादा पौधे कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल के वोनगांव इलाके से प्राप्त हुए हैं. फूलों के न होने से इस में प्रजनन से नई किस्में विकसित करने में काफी रुकावट है. देश में मुख्य रूप से पान की देशी, देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई व बनारसी आदि प्रजातियों का इस्तेमाल किया जाता है.

बोआई के लिए बेल का चुनाव : पान के बरेजे में बेल का भी काफी महत्त्व है. इस के लिए गांठ की कतरन बनाई जाती है. पान की सालभर पुरानी बेल की कतरन ही चुननी चाहिए. किनारे से 2-3 पान छोड़ कर नीचे जमीन से 90 सेंटीमीटर ऊपर यानी बीचोंबीच से ही कतरन बनानी चाहिए. इन कटिंग्स की अंकुरण कूवत भी ज्यादा होती है. बेल करे ब्लेड या पनकटे से ही काटें. बेल की कतरन को 200 के बंडल बना कर इकट्ठा करें. पान की बेल रोगी पान बरेजे से कभी न लें. इस से आगामी फसल में रोग का खतरा रहता है.

बेल की सफाई : बोने से 1 दिन पहले बेल को 0.25 फीसदी बोर्डों मिश्रण या ब्लाइटाक्स या 500 पीपीएम के घोल में 15-20 मिनट तक डुबोएं.

पान की बेल की रोपाई : पान की रोपाई सुबह 11 बजे तक और शाम को 3 बजे के बाद करनी चाहिए. 1 गांठ और 1 पत्ती वाली बेल एक जगह पर 10 से 15 सेंटीमीटर की दूरी पर 4-5 सेंटीमीटर गहराई में लगा कर अच्छी तरह दबा दें. कूड़ों की आपसी दूरी 50 से 55 सेंटीमीटर रखते हैं, जिस से निराईगुड़ाई व सिंचाई आदि काम आसानी से हो सकें. पान की बेलों की 2 लाइनों की बोआई उलटी दिशा में करते हैं ताकि सिंचाई आसानी से की जा सके.

सिंचाई : पान की खेती में सिंचाई का खास महत्त्व है. बोआई के एकदम बाद ओहर यानी मल्चिंग डाल कर हजारा, लुटिया या स्प्रिंकलर से हलकी सिंचाई करनी चाहिए. मौसम के मुताबिक 3-4 दिनों में ढाई घंटे के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. बरसात में सिंचाई की कोई खास जरूरत नहीं होती है, फिर भी जरूरी हो तो हलकी सिंचाई करें. सर्दी के मौसम में 7-8 दिनों बाद सिंचाई करनी चाहिए.

पान की बेल बांधना : पान की बेलों को सहारा देने के लिए बांस की पतली फट्टी का इस्तेमाल करते हैं. पौधे 15 सेंटीमीटर के हो जाएं तो उन्हें रस्सी से बांधें. इस से पान की पैदावार में बढ़ोतरी होती है.

निराईगुड़ाई : जब भी खरपतवार दिखाई दे, निराईगुड़ाई करते रहें.

खाद और उर्वरक : जैविक खाद के तौर पर पान की खेती के लिए नीम, सरसों व तिल आदि की खली का इस्तेमाल करते हैं. इस के अलावा जौ, उड़द, दूध, दही व मट्ठे का भी इस्तेमाल करते हैं. तिल की खली 50-60 क्विंटल और नीम की खली 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. नाइट्रोजन 150 किलोग्राम, फास्फोरस 100 किलोग्राम और पोटाश 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

पान (Betel Leaf)

कीड़े व उन की रोकथाम

सफेद मक्खी : यह बरसात में पत्तियों की निचली सतह पर पाई जाती है और इन्हीं सतहों पर अपने अंडों का कवच बना लेती है, जिस से पत्तियां काफी प्रभावित होती हैं. यह मक्खी पत्तियों का रस चूसती है, जिस से बेल की बढ़ोतरी रुक जाती है.

इस की रोकथाम के लिए 0.5 फीसदी डायमेथोएट और 5 फीसदी नीम औयल तेल का छिड़काव इस के प्रभाव के तुरंत बाद करना अच्छा रहता है. 0.5 मिलीलीटर डायमेथोएट या 5 मिलीलीटर नीम के तेल का प्रति लीटर की दर से स्वस्थ फसल में 2 महीने में एक बार छिड़काव करना चाहिए.

सूक्ष्म लाल मकड़ी : इस का प्रभाव पत्तियों की निचली सतह पर होता है, जिस की वजह से पत्तियों का रंग नीचे से लाल धब्बे की तरह दिखाई देता है. कीटों के ज्यादा प्रभाव से पान का रंग लाल हो जाता है. इस की रोकथाम के लिए 30-40 ग्राम सल्फेक्स दवा 10 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

शल्क कीट : इस का प्रभाव पान की पत्तियों व डंठलों पर होता है. मादा कीट का पिछला सिरा थोड़ा सा चौड़ा होता है. इन की मात्रा ज्यादा होने पर पत्ते सिकुड़ जाते हैं.

इन कीटों की रोकथाम के लिए 0.5 फीसदी डायमेथोएट का छिड़काव 15 दिनों पर करना चाहिए.

पान के खास रोग

पदगलन यानी फुट राट : यह रोग बीज और जमीन में फफूंद लगने से होता है. यह जमीन की सतह पर बेलों के तनों को प्रभावित करता है, जिस से बेल सड़नी शुरू हो जाती है और मुरझा कर खत्म हो जाती है. पत्तियां भी हलके पीले रंग की हो कर गिरने लगती हैं. यह रोग सर्दियों में ज्यादा असर करता है. इस की रोकथाम के लिए पानी का निकास बहुत अच्छा होना चाहिए. जमीन पर गिरी पान की बेलों को जमीन से हटा देना चाहिए. इस रोग से बचने के लिए 1 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर 30-40 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर 1 हफ्ते बाद जमीन की तैयारी करते वक्त खेत में मिलाना चाहिए.

पान की सूखी जड़ सड़न रोग : इस की वजह राइजोप्टोनिया नामक फफूंद है. यह जमीन से पैदा होने वाला रोग है. यदि जमीन को स्वस्थ और साफसुथरा रखा जाए तो इस रोग का खतरा बहुत कम होता है. इस रोग से बचाव के लिए खड़ी फसल में कार्बेंडाजिम 0.3 फीसदी या मैंकोजेब 0.2 फीसदी का महीने में 1 बार छिड़काव करें.

पत्ती का धब्बेदार और तने का एंथ्रेक्नोज रोग : यह रोग कोलेरोट्राइकेन केपसीसी नामक फफूंद से होता है. पत्तियों पर इस से धंसे हुए अनियमित टेढ़ेमेढे़ गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. पत्तियों के किनारे से ही इस रोग की शुरुआत होती है और आखिर में पत्ती का ज्यादातर हिस्सा काला पड़ने लगता है. यह रोग बरसात में ज्यादा होता है. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब 0.3 फीसदी का छिड़काव बरसात में 10-15 दिनों पर करना चाहिए.

तना कैंसर : लंबाई में यह भूरे रंग के धब्बे के रूप में तने पर दिखाई देता है. इस के प्रभाव से तना फट जाता है. इस की रोकथाम के लिए 150 ग्राम प्लांटो बाइसिन व 150 ग्राम कापर सल्फेट का घोल 600 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए.

जड़ों में गांठें बनना : यह रोग मलोयडोगायनी नामक सूत्रकृमि द्वारा फैलता है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में इस का प्रभाव ज्यादा देखा गया है. इस रोग से बेलें कम बढ़ती हैं और धीरेधीरे पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं. बेलों के सिरे मुरझा जाते हैं. ऐसी बेलों पर छोटीछोटी गांठें बनती हैं, जिस वजह से पौधों को पोषक तत्त्व कम मिलते हैं और पौधे छोटे ही रह जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए नीम की खली की 15-20 किलोग्राम मात्रा प्रति 100 मीटर की दर से 1 साल तक इस्तेमाल करें.

Farming: जंगल जलेबी: एक खास पेड़

जगल जलेबी (Jungle Jalebi) या गोरस इमली मध्यम आकार का तेजी से बढ़ने वाला और हमेशा हरा रहने वाला कांटेदार पेड़ है. इसे वैज्ञानिक भाषा में पीथेसेलोवीयम ड्यूक्स या पिथेसेलोवियम डलसी या मायमोसा ड्यूल्सीस भी कहते हैं. इस के अंगरेजी नाम मद्रास थोर्न व मनीला हेमेरिंड हैं.

यह करीब 18-20 मीटर तक ऊंचा होता है. इस की छाया में घास नहीं उग पाती है. इस की छाल सलेटी रंग की होती है, जिस पर भूरी या पीली आड़ी धारियां होती हैं. इस की पत्ती के अंत में एक जोड़े कांटे होते हैं. ये पेड़ मैक्सिको व मध्य अमेरिका में कुदरती रूप से पाए जाते हैं.

भारत में जंगल जलेबी के पेड़ गुजरात, राजस्थान, पंजाब व हरियाणा के अलावा दक्षिण भारत में भी लगाए गए हैं. ये हर किस्म की जमीन में उग सकते हैं. हलकी चूने वाली रेतीली जमीन, बंजर जमीन और समुद्र तट के खारे पानी वाली जमीन में भी ये उग सकते हैं. जंगल जलेबी के पेड़ 450 से 1650 मिलीमीटर बारिश वाले क्षेत्रों में आसानी से उग सकते हैं. ये पेड़ सूखा या गरमी सहन कर सकते हैं, पर पाले के प्रति संवेदनशील होते हैं.

जंगल जलेबी के पेड़ पर जनवरीफरवरी में सफेद फूल आते हैं. इस के फल मार्च से मई के बीच में लगते हैं. इस की फली अर्द्धचंद्राकार और बीजों के बीच में सिकुड़ी हुई होती है. हर फली में 6 से 10 बीज होते हैं. बीजों को 2-3 दिन धूप में सुखा कर और किसी कीटनाशक में मिला कर रखने से उन्हें 6 महीने तक रखा जा सकता है.

खेती का तरीका : जंगल जलेबी को बीजों द्वारा उगाया जा सकता है. इस में ठूंठ से दोबारा पनपने की कूवत भी होती है. इस के पेड़ को काटने पर ठूंठ से नई शाखाएं निकलती हैं. इस के बीजों को किसी तरह के उपचार की जरूरत नहीं होती है. बोआई के 2-3 दिनों बाद बीज उग जाते हैं. बारिश के मौसम में पौधों को 3 मीटर × 2 मीटर के अंतर पर रोपा जाता है. 1 हेक्टेयर में 1666 पौधे लगाए जा सकते हैं.

इस्तेमाल : इस पेड़ को ऊसर जमीन के सुधार के लिए लगाया जाता है. इस के अलावा इसे खेत की मेंड़ पर बाड़ के लिए और हवा की गति रोकने वाले पेड़ के रूप में भी लगाया जाता है.

Jungle Jalebi

इस की जड़ें हवा की नाइट्रोजन को योगीकरण द्वारा नाइट्रोजन के यौगिक नाइट्रेट में बदल देती हैं. इस की लकड़ी साधारण इमारती काम और खंभे बनाने के काम में इस्तेमाल की जाती है. इस की लकड़ी जलाने पर बहुत धुंआ देती है, लिहाजा ईंटों को पकाने के काम में इस्तेमाल की जाती है.

जंगल जलेबी की पत्तियां चारे के काम में आती हैं. इस में 29 फीसदी प्रोटीन होता है. इस की टहनियां भी जानवरों को खिलाई जा सकती हैं. इस की फलियों को मीठे गूदे के कारण बच्चे चाव से खाते हैं. इस की फलियां पशुओं को भी खिलाई जाती हैं. इस के बीजों में 17 फीसदी तेल होता है, जिसे शुद्ध करने के बाद खाने के काम में इस्तेमाल किया जा सकता है. इसे साबुन बनाने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इस की खली का इस्तेमाल पशुओं को खिलाने में किया जाता है.

कुल मिला कर जंगल जलेबी का पेड़ कई तरह के कामों में इस्तेमाल किया जाता है, लिहाजा इस की खेती कर के किसान काफी कमाई कर सकते हैं.

Farming Challenges: खेती की मौजूदा चुनौतयों के हल

आज युवा खेतीकिसानी से दूर भाग रहे हैं. कुछ तो शहरों की चमकदमक ने उन्हें अपनी तरफ खींचा है और दूसरा वे कड़ी मेहनत नहीं करना चाहते. यही नहीं हकीकत यह भी है कि खेतीकिसानी में किसान जितना पैसा लगाता है, कई बार प्राकृतिक आपदाओं के कारण उपज खराब होने से उस की लागत तक नहीं निकल पाती या फिर बंपर पैदावार होने से दाम इतने कम मिलते हैं कि उस का परता ही नहीं खाता.

सरकार की योजनाएं भी किसानों तक नहीं पहुंच पातीं. न तो वह उपज को समय पर सही समर्थन मूल्य दे कर किसानों से खरीदती है और न ही किसानों को अनाज के सही भंडारण की सुविधा मुहैया कराती है. ऐसे में बिचौलिए औनेपौने दाम में उपज खरीद कर उसे मनमाने दामों पर मंडी में बेचते हैं. यह किसान के साथ छलावा है. इन्हीं सब कारणों से युवावर्ग खेती की तरफ रुख नहीं कर रहा है. ऐसे में हमें समस्याओं का हल ढूंढ़ना होगा.

 युवावर्ग का खेती से दूर भागना

हल : युवावर्ग में खेती के प्रति दिलचस्पी पैदा करने के लिए सरकार को सही लाभ की व्यवस्था करनी होगी, साथ ही सरकार को अनाज का समर्थन मूल्य पैदावार की लागत के हिसाब से तय करना चाहिए और उपज बिक्री का सही इंतजाम करना होगा. साथ ही क्षेत्र विशेष की स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बिक्री की व्यवस्था करनी होगी और आधुनिक छोटेछोटे कृषि यंत्र स्थानीय स्तर पर उन्हें मुहैया कराने होंगे.

उपज का सही मूल्य न मिलना

हल : देश की आबादी की जरूरत के मुताबिक यह जानना जरूरी है कि देश को किसकिस अनाज की कितनी जरूरत है. देश में जरूरी अनाज कितनी मात्रा में मौजूद हैं और जरूरत के मुताबिक हमें कितनी और पैदावार चाहिए. साथ ही पैदा किए गए अनाज को क्षेत्रीय जरूरत के हिसाब से स्थानीय मंडियों में मुहैया कराने की जरूरत है, जमाखोरों पर सख्ती से लगाम लगाई जाए, तभी ग्राहकों और कारोबारियों के हितों की सुरक्षा की जा सकती है, क्योंकि कारोबारी और ग्राहक हमेशा मुश्किलों का सामना करते हैं और दलाल लाभ कमाते हैं. कारोबारियों को लागत के अनुसार सही कीमत न मिलने की शिकायत हमेशा रहती है.

इस के लिए सरकार को उपज का समर्थन मूल्य लागत को ध्यान में रखते हुए फसल बोआई से पहले तय करना चाहिए. साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि उपज बाजार में आने के बाद समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत पर न बिके. ऐसा करने से किसानों को यह फैसला लेने में आसानी होगी कि उन्हें कौन सी फसल बोनी है और उस से उन्हें कितना लाभ मिल सकता है.

आज देश की गंभीर समस्या यह है कि किसान फसलों की पैदावार तो करते हैं, लेकिन उस का उन्हें सही मूल्य न मिलने से काफी दिक्कत होती है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद में किसान अच्छे तरीके अपना कर 1,500 से 2,000 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गन्ना सफलतापूर्वक उगा रहे हैं और लाभहानि का भी पहले ही अनुमान लगा लेते हैं.

आज के दौर में प्रति किसान कृषि भूमि घटने से हर किसान को खेती के लिए साधन जैसे ट्रैक्टर, ट्राली, हैरो, रोटावेटर, स्प्रेयर वगैरह की जरूरत पड़ती है, जिन से पहले उन का परिवार बड़ी जोत पर खेती करता था. लेकिन इस का बुरा नतीजा यह निकला कि अब हर किसान की अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ताउम्र इन साधनों को जुटाने में लग जाता है, साथ ही इन साधनों का सही इस्तेमाल भी नहीं होता और किसानों की हालत जस की तस बनी रहती है.

हल : लगातार छोटी होती जोत के हल के लिए कांट्रेक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जा सकता है या सस्ते दामों पर किराए पर खेती के यंत्रों को मुहैया कराने के लिए कस्टम हायरिंग सेंटर किसानों की संख्या के हिसाब से बनाए जाएं.

मिट्टी में जीवाश्म और पोषक तत्त्वों का स्तर लगातार गिरना और हानिकारक कीड़े व बीमारियों का हमला बढ़ना.

हल : मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए कार्बनिक खादों जैसे गोबर की खाद, कंपोस्ट खाद, वर्मी कंपोस्ट व हरी खाद वगैरह के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए. खेत में हल चला कर कुछ दिनों के लिए खाली छोड़ दें, ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई और सही फसलचक्र को बढ़ावा देना चाहिए.

खेती में रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से किसान की सेहत पर असर पड़ता है.

हल : रसायनों का इस्तेमाल कम करने के लिए जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाए. किसानों को अपने फार्म पर ही जैविक खेती के लिए अच्छी ट्रेनिंग दी जाए.

पैदावार लागत बढ़ना और शुद्ध मुनाफा घटना.

हल : खेती में पैदावार लागत कम करने और मुनाफा बढ़ाने के लिए बाजार पर निर्भरता कम की जाए, खेती निवेशों का सही इस्तेमाल किया जाए और जैविक उपज फार्म पर ही तैयार करने का सही इंतजाम किया जाए.

सभी फसलों में बीज की बेकार व्यवस्था.

हल : किसानों को अपनी जरूरत के मुताबिक बीजों का सही इंजजाम करना चाहिए, क्योंकि सही इंतजाम के अभाव में पैदावार लागत बढ़ती है.

बीमारियों, कीटों और खरपतवारों की रोकथाम की जानकारी की कमी.

हल : रसायनों के इस्तेमाल का तरीका, इस्तेमाल का समय, रसायन की मात्रा और जरूरत के मुताबिक सही रसायन के चयन के बारे में किसानों को ट्रेनिंग देने की जरूरत है, क्योंकि इन के ज्यादा अैर गलत इस्तेमाल से पैदावार लागत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, आमतौर पर किसानों की निर्भरता विक्रेताओं पर रहती है.

लगातार जमीनी जल का स्तर  गिरना.

हल : ड्रिप, बौछारी और रेनगन सिंचाई पद्धतियों को बढ़ावा दिया जाए.

करें मशरूम (Mushroom) के स्पान का कारोबार

मशरूम का बीज यानी स्पान फफूंद का एक जाल होता है, जो अपने आधार यानी भूसे वगैरह पर उगता है और मशरूम पैदा करने के लिए तैयार किया जाता है. बोलचाल की भाषा में यह एक ऐसा माध्यम है जो कि मशरूम कवक जाल से घिरा होता है और मशरूम उत्पादन के लिए बीज का काम करता है.

वैसे तो मशरूम की पौध नहीं होती है, फिर भी इस की फसल तैयार करने या कह सकते हैं कि बीज तैयार करने की कई तकनीकें हैं यानी स्पान उत्पादन कई तरह से किया जा सकता है.

एक बीजाणु तकनीक

एक बीजाणु से बीज तैयार करने के लिए ये काम किए जाते हैं:

अच्छे बंद मशरूम का चुनाव करना, साफ रुई से धूल हटाना, 70 फीसदी अल्कोहल से इसे साफ करना और मशरूम के तने के निचले हिस्से को तेज धारदार चाकू से काटना.

उपचारित पेट्रीप्लेट में तार की मदद से तैयार किए गए स्टैंड पर मशरूम खड़ी अवस्था में रख देते हैं. इसे एक गोल मुंह वाले बीकर से ढक दिया जाता है.

इस मशरूम वाली पेट्रीप्लेट को 30 मिनट तक सामान्य तापमान पर रखने के बाद, लेमिनारफलो चैंबर के अंदर रख कर पेट्रीप्लेट से मशरूम फलकायन (स्टैंड सहित) व बीकर को हटाया जाता है. पेट्रीप्लेट को दोबारा दूसरी पेट्रीप्लेट से ढक दिया जाता है.

इस से इकट्ठा बीजाणुओं की संख्या को धीरेधीरे कम किया जाता है जब तक बीजाणुओं की गिनती 10 से 20 फीसदी मिलीलीटर तक नहीं पहुंच जाती है. इस के बाद इसे पिघले हुए सादे माध्यम के साथ पेट्रीप्लेट में उड़ेला जाता है.

पेट्रीप्लेटों को 3-4 दिनों तक बीओडी इनक्यूबेटर में तकरीबन 32 डिगरी सैल्सियस तापमान पर गरम किया जाता है. एकल बीजाणु का चयन बीजाणुओं की बढ़वार को सूक्ष्मदर्शी द्वारा देख कर किया जाता है.

एकल बीजाणु संवर्धन का चयन कर के इसे माल्ट एक्सट्रेक्ट यानी एमईए माध्यम पर फैलाया जाता है और 7 से 10 दिनों तक बीओडी इनक्यूबेटर में गरम किया जाता है.

बहुबीजाणु तकनीक

इस तकनीक में स्पोर प्रिंट से स्पोर उठाने के लिए निवेशन छड़ का छल्ला इस्तेमाल किया जाता है.

छल्ला, जिस में हजारों की तादाद में बीजाणु होते हैं, को पेट्रीप्लेट, जिस में माल्ट एक्सट्रेक्ट या कोई दूसरा कवक माध्यम होता है, के ऊपरी धरातल पर स्पर्श करा दिया जाता है. इन पेट्रीप्लेटों को 4-5 दिनों के लिए बीओडी इनक्यूबेटर में 32 डिगरी सैल्सियस तापमान पर गरम किया जाता है.

फफूंद बढ़ाने की तकनीक

फफूंद उगाने वाली जगह और हाथों को कीटाणुनाशक से और बंद मशरूम को 70 फीसदी एल्कोहल से साफ करना चाहिए.

उपचारित की हुई अंडाकार मशरूम को तेजधार और उपचारित चाकू से 2 बराबर भागों में काट दिया जाता है.

इन कटे टुकड़ों के उस स्थान से, जहां तना व छत्रक एकदूसरे से जुड़े होते हैं, ऊतक के छोटेछोटे टुकड़े निकालते हैं और इन टुकड़ों को माल्ट एक्सट्रेक्ट अगर की प्लेट पर रखा जाता है.

इन प्लेटों को 4-5 दिनों तक 32 डिगरी सेल्सियस तापमान पर बीओडी इनक्यूबेटर या कमरे में सामान्य तापमान पर गरम किया जाता है.

कवक जाल फैले इस माध्यम से छोटेछोटे टुकड़े काट कर इन्हें दूसरे माल्ट एस्सट्रेक्ट अगर पर रख दिया जाता है. इस के बाद इन्हें इनक्यूबेटर में 32 डिगरी सेल्सियस तापमान पर 4-5 दिनों के लिए गरम किया जाता है.

इन तकनीकों को सीधे स्पान माध्यम में इस्तेमाल किया जाता है.

मशरूम (Mushroom)माध्यम तैयार करना

बीज तैयार करने के आधार में बहुत से ऐसे माध्यम हैं, जिन पर मशरूम का बीज बनाया जाता है. ऐसे माध्यमों को तैयार करने की विधियां इस तरह हैं:

पीडीए माध्यम : इसे आलू ग्लूकोज अगर कहते हैं. इस के लिए  200 ग्राम आलुओं को धोने, छीलने व काटने के बाद 1000 मिलीलीटर पानी में खाने लायक नरम होने तक उबाला जाता है.

इसे साफ कपड़े से छान लिया जाता है और इस छने पानी को एक सिलेंडर में इकट्ठा किया जाता है. इस में ताजा उबाला पानी मिला कर 1000 मिलीलीटर तक बना लिया जाता है.

बाद में इस में 20 ग्राम शर्करा और 20 ग्राम अगर मिलाया जाता है और अगर के पूरी तरह से घुल जाने तक उबाला जाता है.

इस माध्यम को 10 मिलीलीटर क्षमता वाली परखनली या ढाई सौ मिलीलीटर क्षमता के फ्लास्क में रख दिया जाता है और पानी न सोखने वाली रुई से उन के मुंह को बंद कर दिया जाता है.

इस के बाद इन्हें 121 डिगरी सेल्सियस तापमान पर उपचारित किया जाता है.

गरम टैस्ट ट्यूब को टेढ़ा रखा जाता है और इन्हें अगले 24 घंटों तक ठंडा होने के लिए रखा जाता है.

माल्ट एक्सटे्रेक्ट अगर माध्यम : जौ का अर्क 35 ग्राम, अगर 20 ग्राम, पेप्टोन 5 ग्राम होना चाहिए.

इन चीजों को 1000 मिलीलीटर गरम पानी में मिलाना चाहिए. अब इसे लगातार एक समान आंच पर रख कर अगर के पूरी तरह घुलने तक हिलाएं.

इस माध्यम को परखनली या फ्लास्कों में डाला जाता है और पानी नहीं सोखने वाली रुई से उन के मुंह को बंद कर दिया जाता है.

अब इन्हें 121 डिगरी सेल्सियस तापमान पर उपचारित किया जाता है.

गरम परखनलियों को तिरछा रखा जाता है या माध्यम को उपचारित पेट्रीप्लेटों में डाल दिया जाता है. अब इन्हें कमरे में सामान्य तापमान पर ठंडा किया जाता है.

स्पान माध्यम

बहुत से पदार्थ अकेले या सभी को मिला कर स्पान माध्यम तैयार किया जाता है. धान का पुआल, ज्वार, गेहूं व राई के दाने, कपास, इस्तेमाल की हुई चाय की पत्तियां वगैरह इस के लिए इस्तेमाल की जाती हैं.

अनाज स्पान : इस में गेहूं, ज्वार, राई का इस्तेमाल किया जाता है. 100 किलोग्राम दानों को सब से पहले 150 लीटर पानी में 20-30 मिनट तब उबाला जाता है. इन उबले हुए दानों को छलनी पर फैला कर 12 से 16 घंटों तक छाया में सुखाया जाता है.

सूखे हुए दानों में 2 किलोग्राम चाक पाउडर व 2 किलोग्राम जिप्सम को अच्छी तरह मिला लें. दानों को ग्लूकोज की बोतलों में दोतिहाई हिस्से तक या फिर 100 गेज मोटे पौलीप्रोपेलीन के लिफाफों में भर दिया जाता है.

लिफाफों में भी दाने दोतिहाई भाग तक ही भरने चाहिए. अब इन के मुंह को पानी न सोखने वाली रुई के ढक्कन से बंद कर दिया जाता है. ढक्कन न ज्यादा ढीला और न ही ज्यादा कसा हुआ होना चाहिए.

स्पान माध्यम से भरी हुई ग्लूकोज की बोतलों या पौलीप्रोपेलीन के लिफाफों को 126 डिगरी सेल्सियस तापमान पर उपचारित किया जाता है. अब इन्हें लेमिनार फ्लो में ताजा हवा में ठंडा होने के लिए रख दिया जाता है.

कवक जाल संवर्धन को निवेशन छड़ की सहायता से इन बोतलों में डाल दिया जाता है. बोतलों को 2 हफ्ते के लिए गरम किया जाता है. अब स्पान इस्तेमाल के लिए तैयार है.

पुआल स्पान : सब से पहले धान के पुआल को 2-4 घंटे तक पानी में भिगोया जाता है, फिर इसे साफ किया जाता है और ढाई से 5 सेंटीमीटर तक लंबे टुकड़ों में काटा जाता है.

इस में चाक पाउडर 2 फीसदी व चावल का चोकर 2 फीसदी की दर से मिलाया जाता है और इसे चौड़े मुंह वाली ग्लूकोज की बोतल या पौलीप्रोपेलीन के 100 गेज मोटाई वाले लिफाफों में भर दिया जाता है. बोतलों व लिफाफों के मुंह को रुई के ढक्कन से बंद कर दिया जाता है.

स्पान माध्यम से भरी बोतल या लिफाफों को 126 डिगरी सेल्सियस तापमान पर उपचारित किया जाता है या 22 पीएसआई दबाव पर 2 घंटे के लिए रखा जाता है.

स्पान माध्यम को ठंडा करने के बाद लेमिनार फ्लो चैंबर में रख कर निवेशन छड़ की सहायता से कवक जाल संवर्धन इन में डाला जाता है.

बोतलों या लिफाफों को 2 हफ्ते के लिए गरम करते हैं.

चायपत्ती का स्पान : इस्तेमाल की हुई चाय की पत्ती को इकट्ठा कर के धोया जाता है, ताकि इस में कोई मलवा वगैरह न रहे. फिर निथारा जाता है. इस में 2 फीसदी की दर से चाक पाउडर मिला दें.

इस के बाद सामग्री को बोतलों या पौलीप्रोपेलीन के लिफाफों में भरा जाता है. बाकी के काम अनाज स्पान व पुआल स्पान बनाने की तरह ही किए जाते हैं.

इस तरह कपास के कचरे से स्पान माध्यम तैयार किया जाता है.

खादभूसी स्पान : घोड़े की लीद व कमल के बीज का छिलका समान मात्रा में मिलाए जाते हैं. इस मिश्रण को पानी में भिगोया जाता है. खाद की ढेरी 1 मीटर ऊंचाई तक पिरामिड के आकार में बनाई जाती है. फिर इसे 4-5 दिनों के लिए छोड़ दिया जाता है. ढेरी को तोड़ा जाता है और जरूरत पड़ने पर पानी मिला कर फिर से ढेर बना दें.

मिश्रण को ग्लूकोज की बोतलों या एल्यूमिनियम के हवाबंद डब्बों में भर कर उपचारित किया जाता है.

मिश्रण ठंडा होने के बाद ही इस में मशरूम के कवक जाल को डाला जाता है और खाद को 2 हफ्ते के लिए गरम करते हैं या जब तक कि स्पान तैयार न हो जाए.

मशरूम (Mushroom)

बीज तैयार करते समय बरतें कुछ सावधानियां

*             माध्यम जैसे धान की पुआल या बेकार कपास वगैरह को इतना ज्यादा भी न भिगोएं कि पानी बोतलों या बैगों के तल पर इकट्ठा हो जाए. ऐसे में कवक जाल सही तरह से नहीं फैलेगा.

*             बोतलों या बैगों को इतना कस कर बंद नहीं करना चाहिए कि हवा बाहर न आ सके और भाप अच्छी तरह से अंदर न घुसे.

*             केवल साफ रुई से बने ढक्कनों, डाटों का ही इस्तेमाल करना चाहिए.

*             ढक्कन या डाट के नीचे स्तर व माध्यम के बीच कम से कम 3-4 सेंटीमीटर खाली जगह होनी चाहिए.

*             मेज व सामग्री को उपचारित करना चाहिए.

*             हाथों को साबुन से साफ करना चाहिए.

*             केवल शुद्ध स्पान का ही इस्तेमाल करना चाहिए.

*             कवक डालने के बाद बोतलों व बैगों के मुंह को एल्यूमिनियम फाइल से ढकना चाहिए.

स्पान का स्टोरेज

पुआल मशरूम की बढ़वार के लिए ज्यादातर तापमान 30-35 डिगरी सेल्सियस होना चाहिए. अगर तापमान 45 डिगरी सेल्सियस से बढ़ाया जाए या 15 डिगरी सेल्सियस तक घटाया जाए तो कवक जाल में इजाफा नहीं होता है. इस की ज्यादातर प्रजातियां 15 डिगरी तापमान पर जीवित रह सकती हैं.

स्पान माध्यम में वाल्वेरिएला वाल्वेसिया का कवक जाल पूरी तरह फैलने के बाद यह इस्तेमाल के लिए तैयार होता है. अगर इस का इस्तेमाल नहीं करना हो तो इसे इनक्यूबेटर से निकाल लिया जाता है और कम तापमान पर भंडारण किया जाता है ताकि बीज मर न पाए.

15-20 डिगरी सेल्सियस तापमान पर कवक जाल की बढ़वार रुक जाती है और कवक जाल को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचता. इसे लंबे समय तक भंडारण किया जा सकता है.

आवारा पशुओं (Stray Animals) का आतंक

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के निवासी दिनेश छोटे किसान हैं. 8000 रुपए मासिक की प्राइवेट नौकरी करने वाले दिनेश के पास खेती के नाम पर महज 1 एकड़ सिंचित जमीन है. इस जमीन पर वे धान और गेहूं पैदा कर के अपने 6 सदस्यों के परिवार को खाना मुहैया कराते हैं. इस जमीन से उन्हें साल भर के लिए खाने का अनाज मिल जाता है. बाकी खर्चे वे बमुश्किल अपनी प्राइवेट नौकरी से पूरे करते हैं.

वह इन दिनों काफी परेशान हैं, क्योंकि जिस खेत में उन्होंने धान की फसल रोपी थी, उस का एक बड़ा हिस्सा आवारा पशुओं ने बरबाद कर दिया है. आवारा पशुओं ने सब तबाह कर दिया. उन को समझ नहीं आ रहा कि क्या करें.

आवारा पशुओं के आतंक से बरबाद हुई खेती से चिंतित उन का कहना है कि यदि उन्हें यह फसल नहीं मिली तो उन के परिवार के सामने भूखों मरने की नौबत आ जाएगी. इस तबाही के बाद अपनी बचीखुची फसल की देखभाल के लिए उन्होंने अपने बेटे का स्कूल छुड़वा कर उसे रखवाली करने के काम में लगा दिया है. अब दिन में बेटा फसल की निगरानी करता है और रात को वे खुद खेत पर सोते हैं. उन्हें लगता है कि इस तरह से वे अपने परिवार के लिए तैयार अन्न की सुरक्षा कर सकते हैं.

यह दर्द अकेले दिनेश का नहीं है. इस इलाके के तमाम किसान इसी तरह के दर्द से जूझ रहे हैं. पहले से ही संकट से जूझ रहे इन किसानों को अचानक आई इस मुसीबत से उबरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है. जो किसान फसल को बटाई पर तैयार करते हैं वे भी इन आवारा जानवरों से काफी परेशान हैं, क्योंकि उन की फसल तैयार करने की लागत जमीन मालिक से ज्यादा आती है. आवारा पशु झुंड में होते हैं और फसल को बरबाद कर देते हैं.

दरअसल, योगी सरकार द्वारा जब से अवैध बूचड़खानों पर कार्यवाही शुरू हुई है, तब से पशु व्यवसायी और कारोबारी गायों की खरीदबिक्री तकरीबन बंद कर चुके हैं. ऐसी स्थिति में लगातार महंगे हो रहे पशु चारे के कारण पशुपालकों ने बेकार पशुओं को रखना बंद कर दिया है यानी उन्हें खुला छोड़ दिया है, क्योंकि उन की अब कोई कीमत नहीं है.

आवारा पशु (Stray Animals)काफी मात्रा में खुले छोड़े गए इन जानवरों को किसी गौशाला में भी नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इन के लिए चारापानी और रखने की जगह नहीं है. आज हालत यह है कि आप किसी भी गांव में चले जाइए, आवारा पशुओं के झुंड आप को दिखाई देंगे. ये आवारा पशु आज किसानों के लिए संकट बन गए हैं.

बात यहीं तक सीमित नहीं है. गौकशी के नाम पर बंद किए गए बूचड़खानों से पशुपालन उद्योग पर भी संकट के बाद मंडराने लगे हैं. आज हालात ये हैं कि खुद योगी सरकार के पास भी इन आवारा पशुओं के निबटान का कोई उपाय नहीं है.

सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर बेकार गायबैलों और बछड़ों का आम किसान क्या करे? गौशालाओं की दुर्दशा का हाल भी किसी से छिपा नहीं है. ऐसे में आम पशुपालक अपने बेकार जानवरों को खुला छोड़ देते हैं. इस स्थिति के लिए सरकार खुद जिम्मेदार है.

दरअसल, अब तक उन इलाकों में किसानों को फसल की रखवाली की जरूरत नहीं पड़ती थी, जहां नीलगाय का आतंक नहीं था, अब आवारा पशुओं द्वारा फसलों की इस तरह से की जा रही तबाही की वजह से किसानों ने बाकायदा खेतों के पास मचान बना लिए हैं, जिस से  वे अपनी फसलों की देखभाल कर रहे हैं. कई किसान सिर्फ अपने खाने के लिए ही चिंतित नहीं हैं, बल्कि उन का कहना है कि यदि फसल ठीक से नहीं हुई तो वे खेती के कर्ज को कैसे अदा कर पाएंगे?

दिनेश से जब यह पूछ गया कि आखिर वे इन आवारा पशुओं से खेती को बचाने के लिए क्या तरीके सोचते हैं, तो उन्होंने कहा कि सरकार को इन की खरीदफरोख्त की मंजूरी दे देनी चाहिए ताकि इन बेकार जानवरों को बेचा जा सके. उन के मुताबिक उन के पास खुद एक बूढ़ी गाय है, जिसे बेच कर वे नई गाय लेना चाहते हैं ताकि घर में दूध का इंतजाम हो सके. लेकिन गाय के लिए उन के पास कोई खरीदार नहीं है और 2 गाय रखने की उन की हिम्मत नहीं है.

पिछले 15 सालों से पशुओं की खरीदबिक्री का काम कर रहे कपील अहमद से जब पूछा गया कि क्या वे अब गायबैलों की खरीदबिक्री नहीं करते, तो उन का कहना था कि अब वे इस काम को बंद कर चुके हैं. इस की वजह बताते हुए उन्होंने कहा कि पहले गायों को ले जाते हुए उन्हें किसी तरह का डर नहीं लगता था, लेकिन अब उन की हिम्मत नहीं होती है.

आवारा पशु (Stray Animals)एक किसान के मुताबिक गायों की तस्करी का आरोप लगा कर पुलिस ने उन का बेवजह उत्पीड़न किया, जबकि वे केवल भैंसों का ही कारोबार करते थे. वे बताते हैं कि उन के घर तकरीबन 2-4 किसान हर दिन आते हैं जो अपनी गाय और बैलबछड़े खरीदने को कहते हैं, लेकिन वे साफ मना कर देते हैं.

कुल मिला कर योगी सरकार के इस गौ प्रेम ने आज केवल पशुपालन को ही संकट में नहीं डाला, बल्कि किसानों के लिए भी एक बहुत बड़ा संकट पैदा हो गया है. आज जब खेती लगातार घाटे का सौदा बन चुकी है और किसान कर्ज के बोझ तले दब कर आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं. ऐसे में आवारा पशु किसानों के लिए मुसीबत बन गए हैं. पहले से ही मुसीबतें झेल रहे किसान इस नई परेशानी का सामना कैसे करेंगे, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. फिलहाल आवारा पशुओं के आतंक से परेशान किसानों के पास आंसू बहाने के सिवा कोई रास्ता नहीं है.

आलू (Potato) की खुदाई और रखरखाव

आलू की खुदाई उस समय करनी चाहिए जब आलू के कंदों के छिलके सख्त हो जाएं. हाथ से खुदाई करने में ज्यादा मजदूरों के साथ समय भी ज्यादा लगता है. उस की जगह बैल या ट्रैक्टर से चलने वाले डिगर से  खुदाई करें तो आलू का छिलका भी कम छिलता है, जबकि हाथ या हल से आलू कट जाते हैं. आलू के कट या छिल जाने पर भंडारण के समय उस में बीमारी ज्यादा लगती है.

खुदाई के समय खेत में ज्यादा नमी या सूखा नहीं होना चाहिए. इस के लिए खुदाई के 15 दिन पहले ही फसल में सिंचाई रोक देनी चाहिए.

आलू की खुदाई से पहले यह जरूर देख लेना चाहिए कि कहीं आलू का छिलका अभी कच्चा तो नहीं है. कुछ आलुओं को खोद कर अंगूठे से रगड़ें, अगर छिलका उतर जाए तो खुदाई कुछ दिन तक नहीं करनी चाहिए.

खुदाई के बाद कटेसड़े आलू छांट कर निकाल दें. ऐसा न करने पर कटेसड़े आलू अच्छे आलुओं को भी सड़ा देते हैं.

खुदाई के बाद कटे, छिले, फटे और बीमार आलुओं को निकाल कर बचे हुए स्वस्थ आलुओं को 1 से डेढ़ मीटर ऊंचा और 4-5 मीटर चौड़ा ढेर बना कर छाया में सुखाया जाता है. आलुओं को सुखाने से फालतू नमी सूख जाती है, जिस से आलुओं की क्वालिटी में सुधार होता है और वे सड़ने से बचते हैं.

सूरज की सीधी रोशनी पड़ने से आलू हरापन या गहरा बैंगनी रंग ले लेता है, इस तरह का आलू खाने के लिए अच्छा नहीं होता है, परंतु बीज के लिए यह ठीक होता है.

आलुओं को हवादार जगह में ढक कर रखना चाहिए. आलू की क्योरिंग में 10-15 दिन लगते हैं, जो वातावरण और आलुओं की किस्म पर निर्भर करता है. सही क्योरिंग हो जाने से आलू के घाव ठीक हो जाते हैं और छिलका सख्त हो जाता है.

आलू की ग्रेडिंग : आलू की खुदाई के बाद आलू की सही तरह से क्योरिंग करनी चाहिए ताकि आलू के छिलके पक जाएं और ढुलाई में उतरे नहीं.

अच्छी तरह क्योरिंग के बाद सड़ेगले व कटेफटे आलुओं को ढेर से बाहर निकाल कर साफ आलुओं की आकार के आधार पर ग्रेडिंग करनी चाहिए. गे्रडिंग किए हुए बीज, खाने व प्रोसेसिंग के आलुओं का भाव बाजार में अच्छा मिलता है.

ग्रेडिंग हाथ से, झन्ने से या ग्रेडर मशीन से की जाती है. आलू की ग्रेडिंग 3 हिस्सों में जैसे 80 ग्राम से बड़े (बड़ा), 40-80 ग्राम (मध्यम) और 25-40 ग्राम तक (छोटे) ढेर में की जाती है.

आलू (Potato)

मशीन से आलू की ग्रेडिंग : आलू ग्रेडिंग मशीन से बीज के लिए अलग, बाजार के लिए अलग, स्टोरेज के लिए अलग आलू की छंटाई कर सकते हैं.

हवा लगने के बाद जब आलू पर लगी मिट्टी सूख जाए तो उन की छंटाई करनी चाहिए. बड़े, मध्यम व छोटे आलुओं को बाजार भेज दिया जाता है. बीज के लिए मध्यम आकार के आलू ठीक रहते हैं. उन्हें अगले साल के बीज के लिए स्टोरेज किया जा सकता है.

‘2 हार्स पावर की मोटर से चलने वाली आलू ग्रेडिंग मशीन को ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर भी चलाया जा सकता है. आलू छंटाई मशीन की काम करने की कूवत 40 से 50 क्विंटल प्रति घंटा है. यह मशीन आलू की 4 साइजों में छंटाई करती है. पहले भाग में 20 से 35 मिलीमीटर, दूसरे भाग में 35 से 45 मिलीमीटर, तीसरे भाग में 45 से 55 मिलीमीटर और चौथे व आखिरी भाग में सब से बड़े आकार के आलू छंटते हैं.

‘इस मशीन की सब से खास बात यह है कि ग्रेडिंग करते समय आलू को किसी तरह का नुकसान नहीं होता. जैसा आलू डालोगे वैसा ही निकलेगा. आलू छंटाई के समय ही सीधे बोरे में भरा जाता है. बोरों को मशीन से लगा दिया जाता है, जिस की सुविधा मशीन में की गई है. इस मशीन के विषय में या हमारी किसी भी अन्य मशीन के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए आप मोबाइल नंबर 9813048612 पर फोन कर सकते हैं.’

आलू (Potato)

पैकिंग व रखरखाव : आलुओं को उन के आकार के अनुसार अलगअलग बोरियों में भरकर रखें. बोरों में रखते समय इस बात का ध्यान रखें कि 50 किलोग्राम आलू ही एक बोरी में भरा जाए. इस से बोरियों के रखरखाव में मजदूरों को आसानी होती है. ध्यान रखें कि उपचारित आलू का इस्तेमाल खाने के लिए न किया जाए.

बाजार की मांग के अनुसार छोटे या बड़े पैकेट में पैकिंग कर उन पर अपने ब्रांड और आलू की प्रजाति का नाम भी लिखना चाहिए. ढुलाई के समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि आलू को ऊंचे से न पटका जाए, क्योंकि पटकने से आलू ऊपर से न भी टूटे तो अंदर से फट जाते हैं.

आलू को पूरे साल उपलब्ध कराने के लिए इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना पड़ता है जो काफी खर्चीला है. कोल्ड स्टोरेज से निकला आलू महंगा होता है और इस के कारण आलू का भाव बाजार में समय के साथसाथ नई फसल की खुदाई तक बढ़ता जाता है.

मुख्य फसल को ढेर में भंडारण की घर पर सुविधा हो, तो उस का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि फसल को लंबे समय तक बेचा जा सके. मुख्य फसल की कुछ मात्रा कोल्डस्टोर में रखनी चाहिए और कुछ मात्रा ढेर के रूप में छायादार जगह पर स्टोर करनी चाहिए.

बाजार की मांग को देखते हुए थोड़ाथोड़ा कर के आलू को बाजार में बेचना चाहिए. कोल्ड स्टोर में रखे हुए आलू को बाजार भाव के अच्छे होने पर बेचना चाहिए.

मौजूदा दौर में खेतीकिसानी की हालत

कहा जाता है कि किसान किसी भी देश की रीढ़ होते हैं और उन की दशा ही देश की दिशा सुनिश्चित करती है. जिस देश में किसानों की बदहाली होती है, वह देश कभी विकसित हो ही नहीं सकता. आज यही स्थिति देश के विभिन्न राज्यों में देखने को मिल रही है.

किसानों को बैंकों से लिया कर्ज चुकाने और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं. इसी के चलते कई किसान अपनी जान की ही बाजी लगा दे रहे हैं. उन के पास इस के अलावा कोई दूसरा तरीका ही नहीं है.

किसान बैंकों से बीज, ट्रैक्टर व ट्यूबवेल वगैरह खरीदने के लिए कर्ज लेते हैं, लेकिन फसल चौपट होने पर वे कर्ज का भुगतान नहीं कर पाते हैं. ऐसे में वे मजबूरन आत्महत्या तक कर लेते हैं. कंगाली और बदहाली के कारण बैंक का कर्ज चुकाना तो दूर वे अपने परिवार का भरणपोषण भी नहीं कर पाते.

यदि किसानों के हालात ऐसे ही बदतर होते रहे तो एक दिन वे खेती करना ही बंद कर देंगे, तब देश में एक भयावह स्थिति पैदा हो जाएगी. इस हालत में दोषी किसान भी  हैं, क्योंकि उन में एकजुटता का अभाव अकसर देखने को मिलता है. इसी का फायदा सरकार उठाती है और वह उन के हितों की अनदेखी कर के उन की मांगों को दरकिनार कर देती है. इन्हीं सब कारणों से किसान तंगहाली से जूझ रहे हैं.

जरूरत है कि किसानों को सही मात्रा में कर्ज व सहायता मुहैया कराई जाए ताकि वे खेतीबारी की दशा सुधार कर के सही तरह से खाद्यान्न उत्पादन कर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकें.

लेकिन ये योजनाएं अधिकारियों और बिचौलियों की कमाई का जरीया बन जाती हैं.

आज के दौर में खेती का अर्थशास्त्र किसानों के खिलाफ है. मजदूरों और छोटे किसानों की बात तो दूर रही, मझोले और बड़े किसानों के सामने भी यह सवाल खड़ा है कि वे किस तरह बैंक का कर्ज चुकाएं और कैसे अपनी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करें.

हर राज्य में किसानों की हालत एक जैसी है. सरकारें उन्हें झूठा दिलासा दे कर चुप करा देती हैं. आज खेती घाटे का सौदा साबित हो रहा है, इसीलिए छोटेबड़े सभी किसान परेशान हैं कि किस तरह अपनी आजीविका चलाएं. दुनिया में सब से ज्यादा विकास वाला देश होने के बावजूद लगातार हमारी विकास दर में गिरावट आ रही है. साल 1990 में कृषि की जो विकास दर 2-8 फीसदी थी, वह साल 2000-2010 के बीच घट कर 2.4 फीसदी रह गई और वर्तमान दशक में तो यह मात्र 2.1 फीसदी ही है.

खराब फसलों की वजह से किसानों की हालत काफी दयनीय रहती है. यदि सूखे की वजह से खेती खराब हो गई तो उन की जो लागत लगी है, उस के चलते घाटा होना तय है. सरकार अपने वादे के मुताबिक सही समर्थन मूल्य किसानों को नहीं दे पाती, जिस के कारण उनहें अपनी उपज को औनेपौने दामों पर बेचना पड़ता है. अकसर ज्यादा उत्पादन होने पर भंडारण का सही इंतजाम न होने से अनाज पड़ापड़ा सड़ जाता है.

केंद्र और राज्य सरकारों की कर्जमाफी योजना किसानों के लिए कारगर नहीं है, बल्कि यह तो खतरनाक साबित हो सकती है. यह योजना किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इस से उन किसानों के लिए मुश्किल हो सकती है, जिन्हें कर्जमाफी नहीं मिली. इस से तमाम किसानों की दिमागी हालत खराब हो सकती है और वे डिप्रेशन की हालात में आ सकते हैं.

खेतीकिसानी के प्रति युवाओं में जज्बा पैदा करने के लिए कृषि को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना जरूरी है. कृषि को आधुनिक और परंपरागत तरीकों से भी जोड़ने की जरूरत है. साथ ही समयसमय पर इस में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना भी जरूरी है.

मूली (Radish): सेहत के लिए खास

खाने का जायका बढ़ाने वाली मूली काफी मुफीद चीज?है. दुनियाभर में मूली शौक से खाई जाती?है. आइए, जानते?हैं मूली के बेशुमार फायदे:

* रोजाना खाने में मूली का इस्तेमाल करने से डायबिटीज से जल्दी छुटकारा मिल सकता है.

* मूली खाने से जुकाम नहीं होता है, इसीलिए मूली सलाद में जरूर खानी चाहिए.

* रोज मूली के ऊपर काला नमक डाल कर खाने से भूख न लगने की समस्या दूर हो जाती?है.

* मूली खाने से हमें विटामिन ‘ए’ मिलता है, जिस से दांतों को मजबूती मिलती?है.

* मूली खाने से बाल झड़ने बंद हो जाते हैं.

* बवासीर में कच्ची मूली व उस के पत्तों की सब्जी बना कर खाना फायदेमंद रहता?है.

* यदि पेशाब का बनना बंद हो जाए तो मूली का रस पीने से पेशाब दोबारा बनने लगता है.

* कच्ची मूली रोज सुबह उठते ही खाने से पीलिया रोग में आराम मिलता है.

* नियमित मूली खाने से मधुमेह का खतरा कम हो जाता है.

* यदि आप को खट्टी डकारें आ रही?हैं, तो 1 कप मूली के रस में मिश्री मिला कर पीने से लाभ होता है.

* नियमित रूप से मूली खाने से मुंह, आंत और किडनी के कैंसर का खतरा कम रहता है.

* थकान मिटाने और नींद लाने में भी मूली सहायक है.

* मोटापा दूर करने के लिए मूली के रस में नीबू और नमक मिला कर इस्तेमाल करें.

* पायरिया से परेशान लोग मूली के रस से दिन में 2-3 बार कुल्ला करें और इस का रस पिएं.

* सुबहशाम मूली का रस पीने से पुराने कब्ज में भी लाभ होता है.

* मूली के रस में बराबर मात्रा में अनार का रस मिला कर पीने से हीमोग्लोबिन बढ़ता है.

लाभकारी है मचान खेती

मचान खेती किसानों के लिए लाभकारी साबित रही है. यही वजह है कि बड़ी संख्या में किसान इसे अपना रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि किसान इसे सही तरह से करें, जिस से न केवल अच्छी फसल ले सकें बल्कि एकसाथ कई फसलें उगा सकते हैं.

लता वाली सब्जियों की फसलों को बांस या लकड़ी आदि के बने ढांचे पर चढ़ा कर खेती करने का रिवाज देश के हर हिस्से में है. उत्तरी और पूर्वी राज्यों में इसे मचान या मंडप कहते हैं.

जल विभाग ने इस तरीके में तकनीकी सुधार कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में मचान को बढ़ावा दिया, जो किसानों के लिए काफी लाभदायक रहा. वहां अब काफी किसानों द्वारा इस विधि से सब्जियों की खेती की जा रही है. इस तरीके से साल भर किसी न किसी सब्जी का उत्पादन होता रहता है और किसानों को नियमित रूप से आमदनी होती रहती है. छोटे किसान जिन के पास बहुत कम जमीन है, उन के लिए यह विधि काफी लाभदायक है. इस से प्रतिवर्ग मीटर करीब 70-80 रुपए की आमदनी मिल जाती है.

किसान 10-12 डेसीमल (500 वर्गमीटर) जमीन से 1 साल में 38-40 हजार रुपए की आय ले लेते हैं. सब्जियों की मचान विधि से खेती करने से 34,80,000 लीटर प्रति एकड़ पानी की बचत के साथसाथ 64 लीटर डीजल प्रति एकड़ की भी बचत होती है. साल 2015-16 में 667 किसानों ने 81.42 एकड़ में मचान विधि से सब्जियों की खेती कर के 3065 टन सब्जी का उत्पादन कर के 2.57 करोड़ रुपए की शुद्ध आय हासिल की है.

मचान बनाने का तरीका

जिस खेत में मचान बनाना हो, पहले ठीक से उस की जुताई कर के मिट्टी को समतल करें और 10 फुट लंबी व 3 फुट चौड़ी क्यारी बनाएं. क्यारी बनाते समय सिंचाई और पानी की निकासी के लिए नालियां बनाएं. जहां गरमी में सिंचाई का साधन न हो, वहां ड्रिप किट द्वारा सिंचाई करें.

क्यारी बनाने के बाद खेत में 6×6 फुट की कतारों में बांस या लकड़ी के खंभों को 6×6 फुट की दूरी पर डेढ़ से 2 फुट गहरे गड्ढे बना कर मजबूती से गाड़ें. खंभों की ऊंचाई करीब 6 फुट रखें, ताकि हवा और धूप पौधों को मिलती रहे.

मचान के अंदर चलने और काम करने में कोई दिक्कत न हो. सभी खंभों के ऊपरी सिरों को एक से दूसरे खंभे को जोड़ते हुए मोटे तार से बांध कर मिला दें. इस तरह बना मचान 3 से 4 सालों तक लगातार सब्जियों की लता वाली फसलों को चढ़ाने के काम आएगा. बीचबीच में कुछ मरम्मत करते हुए इसे लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है. कुछ किसान सीमेंट से बने खंभे भी इस्तेमाल करने लगे हैं.

10-12 डेसीमल (500 वर्गमीटर) मचान से 1 साल में 4 फसलों से करीब 58 क्विंटल सब्जी मिलती है, जिस से किसान को 38-40 हजार शुद्ध आय हासिल होती है. मचान के ज्यादातर किसान रासायनिक उर्वरकों और दवाओं का इस्तेमाल न कर के रसायनमुक्त सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं.

वे बीज बोने से पहले बीजों के शोधन व कीड़ों और रोगों से बचाव के लिए जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं जैसे कंपोस्ट/नाडेप, गोबर की खाद बीजामृत, धनजीवामृत, जीवामृत, नीम बीजों का घोल (एनएसकेई 5 फीसदी) आदि. इस तरह से खेती करने पर किसानों की लागत भी कम आती है और सब्जियों का मूल्य भी ज्यादा मिलता है.

मचान विधि से खेती करने के मुख्य आधार

फसलों को 2 स्तर पर एकसाथ उगाना यानी लता वाली एक फसल मचान पर चढ़ा कर और एक जमीन पर साथसाथ उगाना. जमीन के नीचे (गांठों या जड़ वाली) प्याज और जिमीकंद या छाया में भी हो जाने वाली अदरक या हलदी जैसी फसलें उगाना. एक फसल के काटने से पहले ही दूसरी फसल की बोआई या रोपाई करना. साल में कम से कम 2 जमीन पर और 2 मचान पर होने वाली (लता वाली) फसलें लेना.

जीरे (Cumin) की उन्नत खेती

भारत में जीरे की खेती खासकर गुजरात और राजस्थान में की जाती है. राजस्थान में खासकर बाड़मेर, जालौर, जोधपुर, जैसलमेर, नागौर, पाली, अजमेर, सिरोही और टोंक जिलों में जीरे की खेती की जाती है. जीरे के बीजों से उस की किस्म व जगह के मुताबिक 2.5 से 4.5 फीसदी वाष्पशील तेल हासिल होता है. जीरे से हासिल होने वाले ओलियोरेजिन की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है. इस की खेती कर के कम लागत व कम समय में ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है.

जीरा सर्दी के मौसम की फसल है, इस के लिए सूखा और हलका ठंडा मौसम अच्छा रहता है. जिन इलाकों में फूल व बीज बनते समय वायुमंडलीय नमी ज्यादा रहती है, वहां जीरे की खेती अच्छी नहीं होती है. वायुमंडल में ज्यादा नमी से रोग व कीड़े ज्यादा पनपते हैं. जीरे की फसल पाला सहन नहीं कर पाती. पकते समय हलका गरम मौसम इस की फसल के लिए मुफीद रहता है. वातावरण का तापमान 30 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा व 10 डिगरी सेंटीग्रेड से कम होने पर जीरे के अंकुरण पर बुरा असर पड़ता है.

जमीन की तैयारी : जीरे की खेती वैसे तो हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन रेतीली, चिकनी बलुई या दोमट मिट्टी जिस में कार्बनिक पदार्थों की अधिकता हो, इस की खेती के लिए काफी अच्छी रहती है. खेत में ज्यादा वक्त तक पानी रुकने से उकठा रोग हो सकता है. साधारण किस्म की भारी और लवणीय मिट्टी भी जीरे की फसल के लिए अच्छी रहती है. बोआई से पहले खेत की मिट्टी भुरभुरी बनाने के लिए खेत की ठीक तरह से जुताई करें और खेत से कंकड़पत्थर, पुरानी फसल के अवशेष, खरपतवार आदि निकाल कर खेत को साफ कर दें.

जीरे की उन्नत किस्में

गुजरात जीरा 4 (जीसी 4) : यह प्रजाति गुजरात कृषि विश्वविद्यालय के मसाला अनुसंधान केंद्र, जगूदान ने तैयार की है. इस के पौधे बौने व झाड़ीनुमा होते हैं और शाखाएं ज्यादा होती हैं. यह किस्म 110 से 120 दिनों में पक कर 7 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस के बीजों में 4 फीसदी तक तेल की मात्रा होती है.

जीसी 4 के अलावा आरजेड 223, आरजेड 209 और आरजेड 19 भी उम्दा किस्में हैं.

खाद और उर्वरक : जीरे की ज्यादा पैदावार के लिए 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सड़ी हुई गोबर की खाद जुताई से पहले अच्छी तरह खेत में बिखेर कर मिलानी चाहिए. ढाई टन सरसों का अवशेष प्रति हेक्टेयर के हिसाब से अप्रैलमई में खेत में डाल कर तवी चला कर अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने से उकठा रोग की रोकथाम होने के साथसाथ मिट्टी में जीवांश की मात्रा भी बढ़ती है.

उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के हिसाब से करना चाहिए. औसत उर्वरता वाली जमीन में प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस और 15 किलोग्राम पोटाश की जरूरत पड़ती है. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले आखिरी जुताई के समय जमीन में मिलाएं. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा बोआई के 30 से 35 दिनों बाद खड़ी फसल में सिंचाई के साथ दें. इस के अलावा बेहतर पैदावार के लिए बोआई के समय 40 किलोग्राम गंधक जिप्सम के माध्यम से प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें.

बीजों की मात्रा और उपचार : उन्नत किस्म के 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही रहते हैं. बोआई से पहले बीजों को मित्र फफूंद यानी ट्राइकोडर्मा की 4 किलोग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. उस के बाद एजेटोबेक्टर जैव उर्वरक के 200 ग्राम के 3 पैकेटों से प्रति हेक्टेयर बोए जाने वाले बीजों को उपचारित कर के बोआई करें.

बोआई का समय व विधि : जीरे की बोआई 15 नवंबर के आसपास करनी चाहिए. आमतौर पर जीरे की बोआई छिटकवां तरीके से की जाती है.

पहले से तैयार खेत में एक जैसी क्यारियां बना कर उन में बीज एकसाथ छिटक कर लोहे की दंताली (दांतों वाला खास फावड़ा) इस तरह फिराएं कि बीजों के ऊपर मिट्टी की हलकी परत चढ़ जाए ध्यान रहे कि बीज ज्यादा गहराई में न जाएं.

निराईगुड़ाई और अन्य शस्य क्रियाओं व छिड़काव की सुविधा के लिहाज से छिटकवां तरीके के बजाय कतारों में बोआई करना ज्यादा मुफीद रहता है. कतारों में बोआई के लिए सीडड्रिल से भी 30 सेंटीमीटर की दूरी पर बोआई की जा सकती है. बोआई के दौरान इस बात का ध्यान रखें कि बीज मिट्टी से एकसार ढक जाएं और मिट्टी की परत 1 सेंटीमीटर से ज्यादा मोटी न हो.

सिंचाई : बोआई के एकदम बाद सिंचाई करें और दूसरी हलकी सिंचाई पहली सिंचाई के 8-10 दिनों बाद अंकुरण के समय करें. यदि दूसरी सिंचाई के बाद पूरी तरह अंकुरण न हो या जमीन पर पपड़ी जम गई हो तो फिर एक हलकी सिंचाई करना फायदेमंद रहता है. इस के बाद मिट्टी और मौसम के अनुसार 15 से 25 दिनों के बीच सिंचाई करें. जीरे में दाने आते समय भी सिंचाई करनी चाहिए, लेकिन पकने के दौरान फसल में सिंचाई न करें. जीरे में फव्वारा विधि से सिंचाई करना मुफीद रहता है.

निराईगुड़ाई : जीरे की शुरुआती बढ़वार काफी धीमी होती है और इस का पौधा भी काफी छोटा होता है. खरपतवारों से इस का काफी बचाव करना पड़ता है. जीरे की फसल में खरपतवारों की रोकथाम और जमीन में सही वायु संचार के लिए 2 बार निराईगुड़ाई करना जरूरी है. पहली निराईगुड़ाई बोआई के 30-35 दिनों बाद व दूसरी 55-60 दिनों बाद करनी चाहिए. पहली निराईगुड़ाई के दौरान फालतू पौधों को उखाड़ कर हटा दें, जिस से पौधों के बीच की दूरी 5 सेंटीमीटर रहे.

जीरा (Cumin)जीरे के रोग और कीट

उकठा : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम क्यूमीनाई नामक फफूंद से पौधों की जड़ों में लगता है और मिट्टी व बीज जनित है. जीरे में यह रोग किसी भी अवस्था में बोआई से कटाई तक हो सकता है. इस के पहले लक्षण में पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और पौधा धीरेधीरे मुरझा कर सूखने लगता है. यदि रोग का संक्रमण फूल या बीज बनने के समय होता है, तो जीरे का बीज पतला, छोटा व सिकुड़ा हुआ होता है. यदि रोगग्रसित जड़ों को चीर कर देखें तो तने तक लंबी काले रंग की एक धारी दिखाई देती है. इस का प्रभाव उन खेतों में ज्यादा दिखता है, जहां लगातार जीरे की खेती की जाती है.

रोकथाम

* खेत की सफाई पर ध्यान दें. रोगी पौधों के अवशेषों को नष्ट कर दें.

* गरमी में खेत खाली छोड़ कर गहरी जुताई करें.

* फसल चक्र अपनाएं.

* जब सरसों की फसल कट जाए तो उस का कचरा उसी खेत में दबा कर गरमी के मौसम में एक बार सिंचाई करें. इस कचरे के सड़ने से फफूंदनाशक गैस पैदा होती  है, जो उकठा रोग की फफूंद को मार देती है.

* स्वस्थ व रोगरोधी किस्मों की ही बोआई करें.

* बीजों को ट्राइकोडर्मा की 4 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

* रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें और ढाई किलोग्राम ट्राइकोडर्मा 100 किलोग्राम अच्छी तरह सड़ी नमीयुक्त गोबर की खाद के साथ जमीन में दें. ट्राइकोडर्मा बोआई से पहले खेत में देना ज्यादा फायदेमंद होता है.

झुलसा : यह रोग अल्टरनेरिया बर्नसाई नामक फफूंद से पैदा होता है, जो रोगी पौधों के अवशेषों पर जमीन में रहता है. यह रोग फसल पर फूल आने के दौरान दिखाई देता है और हवा से रोगी पौधों से स्वस्थ पौधों पर फैलता है. पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बों के रूप में इस रोग की शुरुआत होती है. रोग के संक्रमण के बाद नमी बनी रहे या छुटपुट बारिश हो जाए तो यह रोग बढ़ जाता है और तने को भी अपनी चपेट में ले लेता है. शुरू में रोग के धब्बे बैगनी और बाद में गहरे भूरे रंग से काले रंग के हो जाते हैं. रोग ग्रसित पौधों में बीज बिल्कुल भी नहीं बनते और यदि बनते हैं तो छोटे और सिकुड़े होते हैं. यह रोग इतनी तेजी से फैलता है कि फसल को नुकसान से बचाना मुश्किल हो जाता है.

रोकथाम

* खेत के आसपास पिछले साल का रोगग्रस्त कचरा न छोड़ें.

* गरमी के मौसम में गहरी जुताई कर के खेत को खुला छोड़ें.

* स्वस्थ बीज बोएं.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देते ही कापरआक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी 3 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर 15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं.

* ज्यादा सिंचाई न करें और ज्यादा सिंचाई वाली फसलों जैसे गेहूं व अरंडी के पास बिल्कुल भी जीरा न लगाएं.

* पौधों को सही दूरी पर रखें.

छाछ्या रोग : यह रोग ऐरीसाइफी पोलीगोनी नामक फफूंद से पैदा होता है और जड़ों को छोड़ कर पौधे के सभी भागों को नुकसान पहुंचाता है. फूल आने से बीज बनने के दौरान यह रोग ज्यादा नुकसान करता है.

रोग की शुरुआत पत्तियों पर छोटेछोटे सफेद धब्बों के रूप में रोग होती है और धीरेधीरे पत्तियों की पूरी सतह व पौधों पर रोग फैल जाता है. गरम व नमी वाले मौसम में यह रोग तेजी से फैलता है. इस रोग का फैलाव हवा, पानी व कीटों से होता है. इस रोग की वजह से बीज सिकुड़े व वजन में हलके बनते  हैं और उपज घट जाती है.

रोकथाम

* रोगी पौधों के अवशेषों को इकट्ठा कर के नष्ट कर दें.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देते ही 25 किलोग्राम गंधक चूर्ण या 2 से 5 किलोग्राम घुलनशील गंधक का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

मोयला : इस कीट से फसल को काफी नुकसान होता है. यह हरेपीले रंग का छोटा व कोमल कीट होता है. इसे माहू, चैंपा या कालिया जीवड़ा भी कहते हैं. यह पौधे के मुलायम हिस्से से रस चूस कर उसे नुकसान पहुंचाता है. इस का असर फसल में फूल आने के दौरान शुरू होता है और दाना पकने तक रहता है.

रोकथाम

* 12 पीले चिपचिपे ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* पहला छिड़काव 2 फीसदी लहसुन के अर्क का, दूसरा छिड़काव गौमूत्र (100 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का व तीसरा छिड़काव एजीडीराक्टीन 3000 पीपीएम (3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का करें.

कटाई : जीरे की फसल 110 से 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. फसल को हंसिया से काट कर ठीक तरह से सुखा लें. खेत में सूखते ढेर पर रेत न डालें. उड़ने का डर हो तो अखबार से ढक कर ऊपर से पत्थर रख दें. जहां तक संभव हो पक्के फर्श या त्रिपाल पर दानों को थ्रेसर से अलग कर लें. दानों से धूल व कचरा आदि ओसाई कर के दूर कर लें और उन्हें अच्छी तरह सुखा कर साफ बोरियों में भरें.

भंडारण : भंडारण करते समय दानों में नमी साढ़े 8 या 9 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. बोरियों को दीवार से 50-60 सेंटीमीटर की दूरी पर लकड़ी की पट्टियों पर रखें और चूहों व अन्य कीटों से बचाएं.