आवारा पशुओं (Stray Animals) का आतंक

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के निवासी दिनेश छोटे किसान हैं. 8000 रुपए मासिक की प्राइवेट नौकरी करने वाले दिनेश के पास खेती के नाम पर महज 1 एकड़ सिंचित जमीन है. इस जमीन पर वे धान और गेहूं पैदा कर के अपने 6 सदस्यों के परिवार को खाना मुहैया कराते हैं. इस जमीन से उन्हें साल भर के लिए खाने का अनाज मिल जाता है. बाकी खर्चे वे बमुश्किल अपनी प्राइवेट नौकरी से पूरे करते हैं.

वह इन दिनों काफी परेशान हैं, क्योंकि जिस खेत में उन्होंने धान की फसल रोपी थी, उस का एक बड़ा हिस्सा आवारा पशुओं ने बरबाद कर दिया है. आवारा पशुओं ने सब तबाह कर दिया. उन को समझ नहीं आ रहा कि क्या करें.

आवारा पशुओं के आतंक से बरबाद हुई खेती से चिंतित उन का कहना है कि यदि उन्हें यह फसल नहीं मिली तो उन के परिवार के सामने भूखों मरने की नौबत आ जाएगी. इस तबाही के बाद अपनी बचीखुची फसल की देखभाल के लिए उन्होंने अपने बेटे का स्कूल छुड़वा कर उसे रखवाली करने के काम में लगा दिया है. अब दिन में बेटा फसल की निगरानी करता है और रात को वे खुद खेत पर सोते हैं. उन्हें लगता है कि इस तरह से वे अपने परिवार के लिए तैयार अन्न की सुरक्षा कर सकते हैं.

यह दर्द अकेले दिनेश का नहीं है. इस इलाके के तमाम किसान इसी तरह के दर्द से जूझ रहे हैं. पहले से ही संकट से जूझ रहे इन किसानों को अचानक आई इस मुसीबत से उबरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है. जो किसान फसल को बटाई पर तैयार करते हैं वे भी इन आवारा जानवरों से काफी परेशान हैं, क्योंकि उन की फसल तैयार करने की लागत जमीन मालिक से ज्यादा आती है. आवारा पशु झुंड में होते हैं और फसल को बरबाद कर देते हैं.

दरअसल, योगी सरकार द्वारा जब से अवैध बूचड़खानों पर कार्यवाही शुरू हुई है, तब से पशु व्यवसायी और कारोबारी गायों की खरीदबिक्री तकरीबन बंद कर चुके हैं. ऐसी स्थिति में लगातार महंगे हो रहे पशु चारे के कारण पशुपालकों ने बेकार पशुओं को रखना बंद कर दिया है यानी उन्हें खुला छोड़ दिया है, क्योंकि उन की अब कोई कीमत नहीं है.

आवारा पशु (Stray Animals)काफी मात्रा में खुले छोड़े गए इन जानवरों को किसी गौशाला में भी नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इन के लिए चारापानी और रखने की जगह नहीं है. आज हालत यह है कि आप किसी भी गांव में चले जाइए, आवारा पशुओं के झुंड आप को दिखाई देंगे. ये आवारा पशु आज किसानों के लिए संकट बन गए हैं.

बात यहीं तक सीमित नहीं है. गौकशी के नाम पर बंद किए गए बूचड़खानों से पशुपालन उद्योग पर भी संकट के बाद मंडराने लगे हैं. आज हालात ये हैं कि खुद योगी सरकार के पास भी इन आवारा पशुओं के निबटान का कोई उपाय नहीं है.

सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर बेकार गायबैलों और बछड़ों का आम किसान क्या करे? गौशालाओं की दुर्दशा का हाल भी किसी से छिपा नहीं है. ऐसे में आम पशुपालक अपने बेकार जानवरों को खुला छोड़ देते हैं. इस स्थिति के लिए सरकार खुद जिम्मेदार है.

दरअसल, अब तक उन इलाकों में किसानों को फसल की रखवाली की जरूरत नहीं पड़ती थी, जहां नीलगाय का आतंक नहीं था, अब आवारा पशुओं द्वारा फसलों की इस तरह से की जा रही तबाही की वजह से किसानों ने बाकायदा खेतों के पास मचान बना लिए हैं, जिस से  वे अपनी फसलों की देखभाल कर रहे हैं. कई किसान सिर्फ अपने खाने के लिए ही चिंतित नहीं हैं, बल्कि उन का कहना है कि यदि फसल ठीक से नहीं हुई तो वे खेती के कर्ज को कैसे अदा कर पाएंगे?

दिनेश से जब यह पूछ गया कि आखिर वे इन आवारा पशुओं से खेती को बचाने के लिए क्या तरीके सोचते हैं, तो उन्होंने कहा कि सरकार को इन की खरीदफरोख्त की मंजूरी दे देनी चाहिए ताकि इन बेकार जानवरों को बेचा जा सके. उन के मुताबिक उन के पास खुद एक बूढ़ी गाय है, जिसे बेच कर वे नई गाय लेना चाहते हैं ताकि घर में दूध का इंतजाम हो सके. लेकिन गाय के लिए उन के पास कोई खरीदार नहीं है और 2 गाय रखने की उन की हिम्मत नहीं है.

पिछले 15 सालों से पशुओं की खरीदबिक्री का काम कर रहे कपील अहमद से जब पूछा गया कि क्या वे अब गायबैलों की खरीदबिक्री नहीं करते, तो उन का कहना था कि अब वे इस काम को बंद कर चुके हैं. इस की वजह बताते हुए उन्होंने कहा कि पहले गायों को ले जाते हुए उन्हें किसी तरह का डर नहीं लगता था, लेकिन अब उन की हिम्मत नहीं होती है.

आवारा पशु (Stray Animals)एक किसान के मुताबिक गायों की तस्करी का आरोप लगा कर पुलिस ने उन का बेवजह उत्पीड़न किया, जबकि वे केवल भैंसों का ही कारोबार करते थे. वे बताते हैं कि उन के घर तकरीबन 2-4 किसान हर दिन आते हैं जो अपनी गाय और बैलबछड़े खरीदने को कहते हैं, लेकिन वे साफ मना कर देते हैं.

कुल मिला कर योगी सरकार के इस गौ प्रेम ने आज केवल पशुपालन को ही संकट में नहीं डाला, बल्कि किसानों के लिए भी एक बहुत बड़ा संकट पैदा हो गया है. आज जब खेती लगातार घाटे का सौदा बन चुकी है और किसान कर्ज के बोझ तले दब कर आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं. ऐसे में आवारा पशु किसानों के लिए मुसीबत बन गए हैं. पहले से ही मुसीबतें झेल रहे किसान इस नई परेशानी का सामना कैसे करेंगे, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. फिलहाल आवारा पशुओं के आतंक से परेशान किसानों के पास आंसू बहाने के सिवा कोई रास्ता नहीं है.

आलू (Potato) की खुदाई और रखरखाव

आलू की खुदाई उस समय करनी चाहिए जब आलू के कंदों के छिलके सख्त हो जाएं. हाथ से खुदाई करने में ज्यादा मजदूरों के साथ समय भी ज्यादा लगता है. उस की जगह बैल या ट्रैक्टर से चलने वाले डिगर से  खुदाई करें तो आलू का छिलका भी कम छिलता है, जबकि हाथ या हल से आलू कट जाते हैं. आलू के कट या छिल जाने पर भंडारण के समय उस में बीमारी ज्यादा लगती है.

खुदाई के समय खेत में ज्यादा नमी या सूखा नहीं होना चाहिए. इस के लिए खुदाई के 15 दिन पहले ही फसल में सिंचाई रोक देनी चाहिए.

आलू की खुदाई से पहले यह जरूर देख लेना चाहिए कि कहीं आलू का छिलका अभी कच्चा तो नहीं है. कुछ आलुओं को खोद कर अंगूठे से रगड़ें, अगर छिलका उतर जाए तो खुदाई कुछ दिन तक नहीं करनी चाहिए.

खुदाई के बाद कटेसड़े आलू छांट कर निकाल दें. ऐसा न करने पर कटेसड़े आलू अच्छे आलुओं को भी सड़ा देते हैं.

खुदाई के बाद कटे, छिले, फटे और बीमार आलुओं को निकाल कर बचे हुए स्वस्थ आलुओं को 1 से डेढ़ मीटर ऊंचा और 4-5 मीटर चौड़ा ढेर बना कर छाया में सुखाया जाता है. आलुओं को सुखाने से फालतू नमी सूख जाती है, जिस से आलुओं की क्वालिटी में सुधार होता है और वे सड़ने से बचते हैं.

सूरज की सीधी रोशनी पड़ने से आलू हरापन या गहरा बैंगनी रंग ले लेता है, इस तरह का आलू खाने के लिए अच्छा नहीं होता है, परंतु बीज के लिए यह ठीक होता है.

आलुओं को हवादार जगह में ढक कर रखना चाहिए. आलू की क्योरिंग में 10-15 दिन लगते हैं, जो वातावरण और आलुओं की किस्म पर निर्भर करता है. सही क्योरिंग हो जाने से आलू के घाव ठीक हो जाते हैं और छिलका सख्त हो जाता है.

आलू की ग्रेडिंग : आलू की खुदाई के बाद आलू की सही तरह से क्योरिंग करनी चाहिए ताकि आलू के छिलके पक जाएं और ढुलाई में उतरे नहीं.

अच्छी तरह क्योरिंग के बाद सड़ेगले व कटेफटे आलुओं को ढेर से बाहर निकाल कर साफ आलुओं की आकार के आधार पर ग्रेडिंग करनी चाहिए. गे्रडिंग किए हुए बीज, खाने व प्रोसेसिंग के आलुओं का भाव बाजार में अच्छा मिलता है.

ग्रेडिंग हाथ से, झन्ने से या ग्रेडर मशीन से की जाती है. आलू की ग्रेडिंग 3 हिस्सों में जैसे 80 ग्राम से बड़े (बड़ा), 40-80 ग्राम (मध्यम) और 25-40 ग्राम तक (छोटे) ढेर में की जाती है.

आलू (Potato)

मशीन से आलू की ग्रेडिंग : आलू ग्रेडिंग मशीन से बीज के लिए अलग, बाजार के लिए अलग, स्टोरेज के लिए अलग आलू की छंटाई कर सकते हैं.

हवा लगने के बाद जब आलू पर लगी मिट्टी सूख जाए तो उन की छंटाई करनी चाहिए. बड़े, मध्यम व छोटे आलुओं को बाजार भेज दिया जाता है. बीज के लिए मध्यम आकार के आलू ठीक रहते हैं. उन्हें अगले साल के बीज के लिए स्टोरेज किया जा सकता है.

‘2 हार्स पावर की मोटर से चलने वाली आलू ग्रेडिंग मशीन को ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर भी चलाया जा सकता है. आलू छंटाई मशीन की काम करने की कूवत 40 से 50 क्विंटल प्रति घंटा है. यह मशीन आलू की 4 साइजों में छंटाई करती है. पहले भाग में 20 से 35 मिलीमीटर, दूसरे भाग में 35 से 45 मिलीमीटर, तीसरे भाग में 45 से 55 मिलीमीटर और चौथे व आखिरी भाग में सब से बड़े आकार के आलू छंटते हैं.

‘इस मशीन की सब से खास बात यह है कि ग्रेडिंग करते समय आलू को किसी तरह का नुकसान नहीं होता. जैसा आलू डालोगे वैसा ही निकलेगा. आलू छंटाई के समय ही सीधे बोरे में भरा जाता है. बोरों को मशीन से लगा दिया जाता है, जिस की सुविधा मशीन में की गई है. इस मशीन के विषय में या हमारी किसी भी अन्य मशीन के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए आप मोबाइल नंबर 9813048612 पर फोन कर सकते हैं.’

आलू (Potato)

पैकिंग व रखरखाव : आलुओं को उन के आकार के अनुसार अलगअलग बोरियों में भरकर रखें. बोरों में रखते समय इस बात का ध्यान रखें कि 50 किलोग्राम आलू ही एक बोरी में भरा जाए. इस से बोरियों के रखरखाव में मजदूरों को आसानी होती है. ध्यान रखें कि उपचारित आलू का इस्तेमाल खाने के लिए न किया जाए.

बाजार की मांग के अनुसार छोटे या बड़े पैकेट में पैकिंग कर उन पर अपने ब्रांड और आलू की प्रजाति का नाम भी लिखना चाहिए. ढुलाई के समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि आलू को ऊंचे से न पटका जाए, क्योंकि पटकने से आलू ऊपर से न भी टूटे तो अंदर से फट जाते हैं.

आलू को पूरे साल उपलब्ध कराने के लिए इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना पड़ता है जो काफी खर्चीला है. कोल्ड स्टोरेज से निकला आलू महंगा होता है और इस के कारण आलू का भाव बाजार में समय के साथसाथ नई फसल की खुदाई तक बढ़ता जाता है.

मुख्य फसल को ढेर में भंडारण की घर पर सुविधा हो, तो उस का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि फसल को लंबे समय तक बेचा जा सके. मुख्य फसल की कुछ मात्रा कोल्डस्टोर में रखनी चाहिए और कुछ मात्रा ढेर के रूप में छायादार जगह पर स्टोर करनी चाहिए.

बाजार की मांग को देखते हुए थोड़ाथोड़ा कर के आलू को बाजार में बेचना चाहिए. कोल्ड स्टोर में रखे हुए आलू को बाजार भाव के अच्छे होने पर बेचना चाहिए.

मौजूदा दौर में खेतीकिसानी की हालत

कहा जाता है कि किसान किसी भी देश की रीढ़ होते हैं और उन की दशा ही देश की दिशा सुनिश्चित करती है. जिस देश में किसानों की बदहाली होती है, वह देश कभी विकसित हो ही नहीं सकता. आज यही स्थिति देश के विभिन्न राज्यों में देखने को मिल रही है.

किसानों को बैंकों से लिया कर्ज चुकाने और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं. इसी के चलते कई किसान अपनी जान की ही बाजी लगा दे रहे हैं. उन के पास इस के अलावा कोई दूसरा तरीका ही नहीं है.

किसान बैंकों से बीज, ट्रैक्टर व ट्यूबवेल वगैरह खरीदने के लिए कर्ज लेते हैं, लेकिन फसल चौपट होने पर वे कर्ज का भुगतान नहीं कर पाते हैं. ऐसे में वे मजबूरन आत्महत्या तक कर लेते हैं. कंगाली और बदहाली के कारण बैंक का कर्ज चुकाना तो दूर वे अपने परिवार का भरणपोषण भी नहीं कर पाते.

यदि किसानों के हालात ऐसे ही बदतर होते रहे तो एक दिन वे खेती करना ही बंद कर देंगे, तब देश में एक भयावह स्थिति पैदा हो जाएगी. इस हालत में दोषी किसान भी  हैं, क्योंकि उन में एकजुटता का अभाव अकसर देखने को मिलता है. इसी का फायदा सरकार उठाती है और वह उन के हितों की अनदेखी कर के उन की मांगों को दरकिनार कर देती है. इन्हीं सब कारणों से किसान तंगहाली से जूझ रहे हैं.

जरूरत है कि किसानों को सही मात्रा में कर्ज व सहायता मुहैया कराई जाए ताकि वे खेतीबारी की दशा सुधार कर के सही तरह से खाद्यान्न उत्पादन कर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकें.

लेकिन ये योजनाएं अधिकारियों और बिचौलियों की कमाई का जरीया बन जाती हैं.

आज के दौर में खेती का अर्थशास्त्र किसानों के खिलाफ है. मजदूरों और छोटे किसानों की बात तो दूर रही, मझोले और बड़े किसानों के सामने भी यह सवाल खड़ा है कि वे किस तरह बैंक का कर्ज चुकाएं और कैसे अपनी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करें.

हर राज्य में किसानों की हालत एक जैसी है. सरकारें उन्हें झूठा दिलासा दे कर चुप करा देती हैं. आज खेती घाटे का सौदा साबित हो रहा है, इसीलिए छोटेबड़े सभी किसान परेशान हैं कि किस तरह अपनी आजीविका चलाएं. दुनिया में सब से ज्यादा विकास वाला देश होने के बावजूद लगातार हमारी विकास दर में गिरावट आ रही है. साल 1990 में कृषि की जो विकास दर 2-8 फीसदी थी, वह साल 2000-2010 के बीच घट कर 2.4 फीसदी रह गई और वर्तमान दशक में तो यह मात्र 2.1 फीसदी ही है.

खराब फसलों की वजह से किसानों की हालत काफी दयनीय रहती है. यदि सूखे की वजह से खेती खराब हो गई तो उन की जो लागत लगी है, उस के चलते घाटा होना तय है. सरकार अपने वादे के मुताबिक सही समर्थन मूल्य किसानों को नहीं दे पाती, जिस के कारण उनहें अपनी उपज को औनेपौने दामों पर बेचना पड़ता है. अकसर ज्यादा उत्पादन होने पर भंडारण का सही इंतजाम न होने से अनाज पड़ापड़ा सड़ जाता है.

केंद्र और राज्य सरकारों की कर्जमाफी योजना किसानों के लिए कारगर नहीं है, बल्कि यह तो खतरनाक साबित हो सकती है. यह योजना किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इस से उन किसानों के लिए मुश्किल हो सकती है, जिन्हें कर्जमाफी नहीं मिली. इस से तमाम किसानों की दिमागी हालत खराब हो सकती है और वे डिप्रेशन की हालात में आ सकते हैं.

खेतीकिसानी के प्रति युवाओं में जज्बा पैदा करने के लिए कृषि को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना जरूरी है. कृषि को आधुनिक और परंपरागत तरीकों से भी जोड़ने की जरूरत है. साथ ही समयसमय पर इस में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना भी जरूरी है.

मूली (Radish): सेहत के लिए खास

खाने का जायका बढ़ाने वाली मूली काफी मुफीद चीज?है. दुनियाभर में मूली शौक से खाई जाती?है. आइए, जानते?हैं मूली के बेशुमार फायदे:

* रोजाना खाने में मूली का इस्तेमाल करने से डायबिटीज से जल्दी छुटकारा मिल सकता है.

* मूली खाने से जुकाम नहीं होता है, इसीलिए मूली सलाद में जरूर खानी चाहिए.

* रोज मूली के ऊपर काला नमक डाल कर खाने से भूख न लगने की समस्या दूर हो जाती?है.

* मूली खाने से हमें विटामिन ‘ए’ मिलता है, जिस से दांतों को मजबूती मिलती?है.

* मूली खाने से बाल झड़ने बंद हो जाते हैं.

* बवासीर में कच्ची मूली व उस के पत्तों की सब्जी बना कर खाना फायदेमंद रहता?है.

* यदि पेशाब का बनना बंद हो जाए तो मूली का रस पीने से पेशाब दोबारा बनने लगता है.

* कच्ची मूली रोज सुबह उठते ही खाने से पीलिया रोग में आराम मिलता है.

* नियमित मूली खाने से मधुमेह का खतरा कम हो जाता है.

* यदि आप को खट्टी डकारें आ रही?हैं, तो 1 कप मूली के रस में मिश्री मिला कर पीने से लाभ होता है.

* नियमित रूप से मूली खाने से मुंह, आंत और किडनी के कैंसर का खतरा कम रहता है.

* थकान मिटाने और नींद लाने में भी मूली सहायक है.

* मोटापा दूर करने के लिए मूली के रस में नीबू और नमक मिला कर इस्तेमाल करें.

* पायरिया से परेशान लोग मूली के रस से दिन में 2-3 बार कुल्ला करें और इस का रस पिएं.

* सुबहशाम मूली का रस पीने से पुराने कब्ज में भी लाभ होता है.

* मूली के रस में बराबर मात्रा में अनार का रस मिला कर पीने से हीमोग्लोबिन बढ़ता है.

लाभकारी है मचान खेती

मचान खेती किसानों के लिए लाभकारी साबित रही है. यही वजह है कि बड़ी संख्या में किसान इसे अपना रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि किसान इसे सही तरह से करें, जिस से न केवल अच्छी फसल ले सकें बल्कि एकसाथ कई फसलें उगा सकते हैं.

लता वाली सब्जियों की फसलों को बांस या लकड़ी आदि के बने ढांचे पर चढ़ा कर खेती करने का रिवाज देश के हर हिस्से में है. उत्तरी और पूर्वी राज्यों में इसे मचान या मंडप कहते हैं.

जल विभाग ने इस तरीके में तकनीकी सुधार कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में मचान को बढ़ावा दिया, जो किसानों के लिए काफी लाभदायक रहा. वहां अब काफी किसानों द्वारा इस विधि से सब्जियों की खेती की जा रही है. इस तरीके से साल भर किसी न किसी सब्जी का उत्पादन होता रहता है और किसानों को नियमित रूप से आमदनी होती रहती है. छोटे किसान जिन के पास बहुत कम जमीन है, उन के लिए यह विधि काफी लाभदायक है. इस से प्रतिवर्ग मीटर करीब 70-80 रुपए की आमदनी मिल जाती है.

किसान 10-12 डेसीमल (500 वर्गमीटर) जमीन से 1 साल में 38-40 हजार रुपए की आय ले लेते हैं. सब्जियों की मचान विधि से खेती करने से 34,80,000 लीटर प्रति एकड़ पानी की बचत के साथसाथ 64 लीटर डीजल प्रति एकड़ की भी बचत होती है. साल 2015-16 में 667 किसानों ने 81.42 एकड़ में मचान विधि से सब्जियों की खेती कर के 3065 टन सब्जी का उत्पादन कर के 2.57 करोड़ रुपए की शुद्ध आय हासिल की है.

मचान बनाने का तरीका

जिस खेत में मचान बनाना हो, पहले ठीक से उस की जुताई कर के मिट्टी को समतल करें और 10 फुट लंबी व 3 फुट चौड़ी क्यारी बनाएं. क्यारी बनाते समय सिंचाई और पानी की निकासी के लिए नालियां बनाएं. जहां गरमी में सिंचाई का साधन न हो, वहां ड्रिप किट द्वारा सिंचाई करें.

क्यारी बनाने के बाद खेत में 6×6 फुट की कतारों में बांस या लकड़ी के खंभों को 6×6 फुट की दूरी पर डेढ़ से 2 फुट गहरे गड्ढे बना कर मजबूती से गाड़ें. खंभों की ऊंचाई करीब 6 फुट रखें, ताकि हवा और धूप पौधों को मिलती रहे.

मचान के अंदर चलने और काम करने में कोई दिक्कत न हो. सभी खंभों के ऊपरी सिरों को एक से दूसरे खंभे को जोड़ते हुए मोटे तार से बांध कर मिला दें. इस तरह बना मचान 3 से 4 सालों तक लगातार सब्जियों की लता वाली फसलों को चढ़ाने के काम आएगा. बीचबीच में कुछ मरम्मत करते हुए इसे लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है. कुछ किसान सीमेंट से बने खंभे भी इस्तेमाल करने लगे हैं.

10-12 डेसीमल (500 वर्गमीटर) मचान से 1 साल में 4 फसलों से करीब 58 क्विंटल सब्जी मिलती है, जिस से किसान को 38-40 हजार शुद्ध आय हासिल होती है. मचान के ज्यादातर किसान रासायनिक उर्वरकों और दवाओं का इस्तेमाल न कर के रसायनमुक्त सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं.

वे बीज बोने से पहले बीजों के शोधन व कीड़ों और रोगों से बचाव के लिए जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं जैसे कंपोस्ट/नाडेप, गोबर की खाद बीजामृत, धनजीवामृत, जीवामृत, नीम बीजों का घोल (एनएसकेई 5 फीसदी) आदि. इस तरह से खेती करने पर किसानों की लागत भी कम आती है और सब्जियों का मूल्य भी ज्यादा मिलता है.

मचान विधि से खेती करने के मुख्य आधार

फसलों को 2 स्तर पर एकसाथ उगाना यानी लता वाली एक फसल मचान पर चढ़ा कर और एक जमीन पर साथसाथ उगाना. जमीन के नीचे (गांठों या जड़ वाली) प्याज और जिमीकंद या छाया में भी हो जाने वाली अदरक या हलदी जैसी फसलें उगाना. एक फसल के काटने से पहले ही दूसरी फसल की बोआई या रोपाई करना. साल में कम से कम 2 जमीन पर और 2 मचान पर होने वाली (लता वाली) फसलें लेना.

जीरे (Cumin) की उन्नत खेती

भारत में जीरे की खेती खासकर गुजरात और राजस्थान में की जाती है. राजस्थान में खासकर बाड़मेर, जालौर, जोधपुर, जैसलमेर, नागौर, पाली, अजमेर, सिरोही और टोंक जिलों में जीरे की खेती की जाती है. जीरे के बीजों से उस की किस्म व जगह के मुताबिक 2.5 से 4.5 फीसदी वाष्पशील तेल हासिल होता है. जीरे से हासिल होने वाले ओलियोरेजिन की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है. इस की खेती कर के कम लागत व कम समय में ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है.

जीरा सर्दी के मौसम की फसल है, इस के लिए सूखा और हलका ठंडा मौसम अच्छा रहता है. जिन इलाकों में फूल व बीज बनते समय वायुमंडलीय नमी ज्यादा रहती है, वहां जीरे की खेती अच्छी नहीं होती है. वायुमंडल में ज्यादा नमी से रोग व कीड़े ज्यादा पनपते हैं. जीरे की फसल पाला सहन नहीं कर पाती. पकते समय हलका गरम मौसम इस की फसल के लिए मुफीद रहता है. वातावरण का तापमान 30 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा व 10 डिगरी सेंटीग्रेड से कम होने पर जीरे के अंकुरण पर बुरा असर पड़ता है.

जमीन की तैयारी : जीरे की खेती वैसे तो हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन रेतीली, चिकनी बलुई या दोमट मिट्टी जिस में कार्बनिक पदार्थों की अधिकता हो, इस की खेती के लिए काफी अच्छी रहती है. खेत में ज्यादा वक्त तक पानी रुकने से उकठा रोग हो सकता है. साधारण किस्म की भारी और लवणीय मिट्टी भी जीरे की फसल के लिए अच्छी रहती है. बोआई से पहले खेत की मिट्टी भुरभुरी बनाने के लिए खेत की ठीक तरह से जुताई करें और खेत से कंकड़पत्थर, पुरानी फसल के अवशेष, खरपतवार आदि निकाल कर खेत को साफ कर दें.

जीरे की उन्नत किस्में

गुजरात जीरा 4 (जीसी 4) : यह प्रजाति गुजरात कृषि विश्वविद्यालय के मसाला अनुसंधान केंद्र, जगूदान ने तैयार की है. इस के पौधे बौने व झाड़ीनुमा होते हैं और शाखाएं ज्यादा होती हैं. यह किस्म 110 से 120 दिनों में पक कर 7 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस के बीजों में 4 फीसदी तक तेल की मात्रा होती है.

जीसी 4 के अलावा आरजेड 223, आरजेड 209 और आरजेड 19 भी उम्दा किस्में हैं.

खाद और उर्वरक : जीरे की ज्यादा पैदावार के लिए 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सड़ी हुई गोबर की खाद जुताई से पहले अच्छी तरह खेत में बिखेर कर मिलानी चाहिए. ढाई टन सरसों का अवशेष प्रति हेक्टेयर के हिसाब से अप्रैलमई में खेत में डाल कर तवी चला कर अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने से उकठा रोग की रोकथाम होने के साथसाथ मिट्टी में जीवांश की मात्रा भी बढ़ती है.

उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के हिसाब से करना चाहिए. औसत उर्वरता वाली जमीन में प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस और 15 किलोग्राम पोटाश की जरूरत पड़ती है. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले आखिरी जुताई के समय जमीन में मिलाएं. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा बोआई के 30 से 35 दिनों बाद खड़ी फसल में सिंचाई के साथ दें. इस के अलावा बेहतर पैदावार के लिए बोआई के समय 40 किलोग्राम गंधक जिप्सम के माध्यम से प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें.

बीजों की मात्रा और उपचार : उन्नत किस्म के 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही रहते हैं. बोआई से पहले बीजों को मित्र फफूंद यानी ट्राइकोडर्मा की 4 किलोग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. उस के बाद एजेटोबेक्टर जैव उर्वरक के 200 ग्राम के 3 पैकेटों से प्रति हेक्टेयर बोए जाने वाले बीजों को उपचारित कर के बोआई करें.

बोआई का समय व विधि : जीरे की बोआई 15 नवंबर के आसपास करनी चाहिए. आमतौर पर जीरे की बोआई छिटकवां तरीके से की जाती है.

पहले से तैयार खेत में एक जैसी क्यारियां बना कर उन में बीज एकसाथ छिटक कर लोहे की दंताली (दांतों वाला खास फावड़ा) इस तरह फिराएं कि बीजों के ऊपर मिट्टी की हलकी परत चढ़ जाए ध्यान रहे कि बीज ज्यादा गहराई में न जाएं.

निराईगुड़ाई और अन्य शस्य क्रियाओं व छिड़काव की सुविधा के लिहाज से छिटकवां तरीके के बजाय कतारों में बोआई करना ज्यादा मुफीद रहता है. कतारों में बोआई के लिए सीडड्रिल से भी 30 सेंटीमीटर की दूरी पर बोआई की जा सकती है. बोआई के दौरान इस बात का ध्यान रखें कि बीज मिट्टी से एकसार ढक जाएं और मिट्टी की परत 1 सेंटीमीटर से ज्यादा मोटी न हो.

सिंचाई : बोआई के एकदम बाद सिंचाई करें और दूसरी हलकी सिंचाई पहली सिंचाई के 8-10 दिनों बाद अंकुरण के समय करें. यदि दूसरी सिंचाई के बाद पूरी तरह अंकुरण न हो या जमीन पर पपड़ी जम गई हो तो फिर एक हलकी सिंचाई करना फायदेमंद रहता है. इस के बाद मिट्टी और मौसम के अनुसार 15 से 25 दिनों के बीच सिंचाई करें. जीरे में दाने आते समय भी सिंचाई करनी चाहिए, लेकिन पकने के दौरान फसल में सिंचाई न करें. जीरे में फव्वारा विधि से सिंचाई करना मुफीद रहता है.

निराईगुड़ाई : जीरे की शुरुआती बढ़वार काफी धीमी होती है और इस का पौधा भी काफी छोटा होता है. खरपतवारों से इस का काफी बचाव करना पड़ता है. जीरे की फसल में खरपतवारों की रोकथाम और जमीन में सही वायु संचार के लिए 2 बार निराईगुड़ाई करना जरूरी है. पहली निराईगुड़ाई बोआई के 30-35 दिनों बाद व दूसरी 55-60 दिनों बाद करनी चाहिए. पहली निराईगुड़ाई के दौरान फालतू पौधों को उखाड़ कर हटा दें, जिस से पौधों के बीच की दूरी 5 सेंटीमीटर रहे.

जीरा (Cumin)जीरे के रोग और कीट

उकठा : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम क्यूमीनाई नामक फफूंद से पौधों की जड़ों में लगता है और मिट्टी व बीज जनित है. जीरे में यह रोग किसी भी अवस्था में बोआई से कटाई तक हो सकता है. इस के पहले लक्षण में पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और पौधा धीरेधीरे मुरझा कर सूखने लगता है. यदि रोग का संक्रमण फूल या बीज बनने के समय होता है, तो जीरे का बीज पतला, छोटा व सिकुड़ा हुआ होता है. यदि रोगग्रसित जड़ों को चीर कर देखें तो तने तक लंबी काले रंग की एक धारी दिखाई देती है. इस का प्रभाव उन खेतों में ज्यादा दिखता है, जहां लगातार जीरे की खेती की जाती है.

रोकथाम

* खेत की सफाई पर ध्यान दें. रोगी पौधों के अवशेषों को नष्ट कर दें.

* गरमी में खेत खाली छोड़ कर गहरी जुताई करें.

* फसल चक्र अपनाएं.

* जब सरसों की फसल कट जाए तो उस का कचरा उसी खेत में दबा कर गरमी के मौसम में एक बार सिंचाई करें. इस कचरे के सड़ने से फफूंदनाशक गैस पैदा होती  है, जो उकठा रोग की फफूंद को मार देती है.

* स्वस्थ व रोगरोधी किस्मों की ही बोआई करें.

* बीजों को ट्राइकोडर्मा की 4 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

* रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें और ढाई किलोग्राम ट्राइकोडर्मा 100 किलोग्राम अच्छी तरह सड़ी नमीयुक्त गोबर की खाद के साथ जमीन में दें. ट्राइकोडर्मा बोआई से पहले खेत में देना ज्यादा फायदेमंद होता है.

झुलसा : यह रोग अल्टरनेरिया बर्नसाई नामक फफूंद से पैदा होता है, जो रोगी पौधों के अवशेषों पर जमीन में रहता है. यह रोग फसल पर फूल आने के दौरान दिखाई देता है और हवा से रोगी पौधों से स्वस्थ पौधों पर फैलता है. पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बों के रूप में इस रोग की शुरुआत होती है. रोग के संक्रमण के बाद नमी बनी रहे या छुटपुट बारिश हो जाए तो यह रोग बढ़ जाता है और तने को भी अपनी चपेट में ले लेता है. शुरू में रोग के धब्बे बैगनी और बाद में गहरे भूरे रंग से काले रंग के हो जाते हैं. रोग ग्रसित पौधों में बीज बिल्कुल भी नहीं बनते और यदि बनते हैं तो छोटे और सिकुड़े होते हैं. यह रोग इतनी तेजी से फैलता है कि फसल को नुकसान से बचाना मुश्किल हो जाता है.

रोकथाम

* खेत के आसपास पिछले साल का रोगग्रस्त कचरा न छोड़ें.

* गरमी के मौसम में गहरी जुताई कर के खेत को खुला छोड़ें.

* स्वस्थ बीज बोएं.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देते ही कापरआक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी 3 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर 15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं.

* ज्यादा सिंचाई न करें और ज्यादा सिंचाई वाली फसलों जैसे गेहूं व अरंडी के पास बिल्कुल भी जीरा न लगाएं.

* पौधों को सही दूरी पर रखें.

छाछ्या रोग : यह रोग ऐरीसाइफी पोलीगोनी नामक फफूंद से पैदा होता है और जड़ों को छोड़ कर पौधे के सभी भागों को नुकसान पहुंचाता है. फूल आने से बीज बनने के दौरान यह रोग ज्यादा नुकसान करता है.

रोग की शुरुआत पत्तियों पर छोटेछोटे सफेद धब्बों के रूप में रोग होती है और धीरेधीरे पत्तियों की पूरी सतह व पौधों पर रोग फैल जाता है. गरम व नमी वाले मौसम में यह रोग तेजी से फैलता है. इस रोग का फैलाव हवा, पानी व कीटों से होता है. इस रोग की वजह से बीज सिकुड़े व वजन में हलके बनते  हैं और उपज घट जाती है.

रोकथाम

* रोगी पौधों के अवशेषों को इकट्ठा कर के नष्ट कर दें.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देते ही 25 किलोग्राम गंधक चूर्ण या 2 से 5 किलोग्राम घुलनशील गंधक का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

मोयला : इस कीट से फसल को काफी नुकसान होता है. यह हरेपीले रंग का छोटा व कोमल कीट होता है. इसे माहू, चैंपा या कालिया जीवड़ा भी कहते हैं. यह पौधे के मुलायम हिस्से से रस चूस कर उसे नुकसान पहुंचाता है. इस का असर फसल में फूल आने के दौरान शुरू होता है और दाना पकने तक रहता है.

रोकथाम

* 12 पीले चिपचिपे ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* पहला छिड़काव 2 फीसदी लहसुन के अर्क का, दूसरा छिड़काव गौमूत्र (100 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का व तीसरा छिड़काव एजीडीराक्टीन 3000 पीपीएम (3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का करें.

कटाई : जीरे की फसल 110 से 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. फसल को हंसिया से काट कर ठीक तरह से सुखा लें. खेत में सूखते ढेर पर रेत न डालें. उड़ने का डर हो तो अखबार से ढक कर ऊपर से पत्थर रख दें. जहां तक संभव हो पक्के फर्श या त्रिपाल पर दानों को थ्रेसर से अलग कर लें. दानों से धूल व कचरा आदि ओसाई कर के दूर कर लें और उन्हें अच्छी तरह सुखा कर साफ बोरियों में भरें.

भंडारण : भंडारण करते समय दानों में नमी साढ़े 8 या 9 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. बोरियों को दीवार से 50-60 सेंटीमीटर की दूरी पर लकड़ी की पट्टियों पर रखें और चूहों व अन्य कीटों से बचाएं.

Attention: …तो नहीं मिलेगी पी. एम. सम्मान. निधि

बस्ती: शासन ने एग्री स्टैक (डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रचर फौर एग्रीकल्चर) के अंतर्गत फार्मर रजिस्ट्री तैयार करने का निर्देष दे दिया है. इसके लिए दिसम्बर माह तक विशेष अभियान चलाया जा रहा है. फार्मर रजिस्ट्री के लिए ग्राम पंचायत स्तर पर शिविर का आयोजन किया जा रहा है. फार्मर रजिस्ट्री के लिए चलाये जा रहे अभियान के क्रम में मुख्य विकास अधिकारी बस्ती द्वारा ग्रामपंचायत स्तर पर संचालित फार्मर रजिस्ट्री कैम्प तिलकपुर, विकास खंडकप्तानगंज, तहसील हर्रेया का निरीक्षण किया गया.

निरीक्षण के समय मुख्य विकास अधिकारी के साथ में अशोक कुमार गौतम, उप कृशि निदेशक, बस्ती, नायब तहसीलदार, हर्रैया एवं राजस्व, कृशि एवं पंचायत विभाग के क्षेत्रीय कर्मचारीगण उपस्थित रहे. मुख्य विकास अधिकारी द्वारा स्वयं भी फार्मर रजिस्ट्री कैम्प में उपस्थित कृषकों में से एक कृषक का एग्री स्टैक ऐप के माध्यम से फार्मर रजिस्ट्री किया गया.

उप कृषि निदेशक, बस्ती द्वारा कैम्प में उपस्थित कृषकों को फार्मर रजिस्ट्री कराये जाने के सम्बन्ध में पूरी जानकारी दी गयी एवं कृषक भाइयों से आह्वान किया गया कि वह कृषि विभाग के प्राविधिक सहायक ग्रुप-सी, बी.टी.एम, ए.टी.एम, पंचायत सहायक एवं लेखपाल अथवा कौमन सर्विस सेंटर से अथवा किसान भाई खुद भी सेल्फ मोड में एग्री स्टैक ऐप पर फार्मर रजिस्ट्री कर सकते है.

किसान भाईयों से अपील की गयी कि वह भी अपने अपने क्षेत्र में दुसरे किसान भाईयों को अधिक से अधिक फार्मर रजिस्ट्री कराने के बारे में बतायें क्योंकि जो किसान भाई फार्मर रजिस्ट्री नहीं करायेंगे उन्हें पी.एम. किसान की अगली किस्त प्राप्त नहीं होगी. इस लिए सभी किसान भाई अति शीघ्र फार्मर रजिस्ट्री करा लें.

मुख्य विकास अधिकारी द्वारा भी किसान भाईयों से फार्मर रजिस्ट्री कराने की अपील की गयी तथा क्षेत्रीय कर्मचारियों को भी निर्देशित किया गया कि वह अपने-अपने कार्य क्षेत्र में अधिक से अधिक फार्मर रजिस्ट्री कराना सुनिश्चित करें. निरीक्षण के समय लेखपाल द्वारा यह अवगत कराया गया कि एग्री स्टैक ऐप में तकनीकी खामियों की वजह से सहखातेदारों को फार्मर रजिस्ट्री कराने में समस्या आ रही है. उप कृषि निदेशक को निर्देशित किया गया है कि वह मुख्यालय से संम्पर्क कर तकनीकी खामियों से उनको अवगत कराकर, समस्या का समाधान करायें.

Artificial Intelligence: कृषि सुधार में उपयोगी तकनीक

नई दिल्ली: सरकार ने किसानों के हित में कृषि क्षेत्र में विभिन्न चुनौतियों का समाधान करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) विधियों को नियोजित किया है.:

किसान ईमित्र

यह एक एआई संचालित चैटबौट है जो किसानों को पीएम किसान सम्मान निधि योजना के बारे में जानकारी प्राप्त करने में सहायता करता है. यह कई भाषाओं में समाधान उपलब्ध कराता है और अन्य सरकारी कार्यक्रमों में सहायता के लिए विकसित हो रहा है.

जलवायु परिवर्तन के कारण उपज के नुकसान से निपटने के लिए राष्ट्रीय कीट निगरानी प्रणाली

यह प्रणाली फसल की समस्याओं का पता लगाने के लिए एआई और मशीन लर्निंग का उपयोग करती है. इस से स्वस्थ फसलों के लिए समय पर उपाय करना संभव होता है.

चावल और गेहूं की फसल के लिए सैटेलाइट, मौसम और मिट्टी की नमी डेटासेट का उपयोग करके फसल स्वास्थ्य आंकलन और फसल स्वास्थ्य निगरानी के लिए फ़ील्ड फ़ोटो का उपयोग करके एआई आधारित विश्लेषण कर समाधान करती है.

इस के अलावा, सरकार देश में प्रति बूंद अधिक फसल (पीडीएमसी) की एक केंद्र प्रायोजित योजना लागू कर रही है. पीडीएमसी ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणालियों जैसे सूक्ष्म सिंचाई के माध्यम से खेत स्तर पर जल उपयोग दक्षता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करती है. सूक्ष्म सिंचाई से पानी की बचत के साथ-साथ उर्वरक के उपयोग में कमी, श्रम व्यय, अन्य इनपुट लागत और किसानों की समग्र आय में वृद्धि में भी मदद मिलती है.

सरकार पीडीएमसी के तहत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिस्टम लगाने के लिए छोटे और सीमांत किसानों को 55 फीसदी और अन्य किसानों को 45 फीसदी की दर से वित्तीय सहायता प्रदान करती है. इस के अलावा, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने भी आईओटी आधारित सिंचाई प्रणाली विकसित की है और चयनित फसलों के लिए खेत में इसका परीक्षण किया है.

ग्रामीण महिलाएं (Rural Women): सहकारिता क्षेत्र में कितनी हिस्सेदारी और क्या हैं योजनाएं

नई दिल्ली : राष्ट्रीय सहकारी डेटाबेस के अनुसार, 28 नवंबर, 2024 तक देश में 25,385 महिला कल्याण सहकारी समितियां पंजीकृत हैं. इस के अलावा देश में 1,44,396 डेयरी सहकारी समितियां हैं, जहां काफी तादाद में ग्रामीण महिलाएं इस क्षेत्र में कार्यरत हैं.

सरकार ने सहकारी समितियों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न पहल की हैं, जिस में बहुराज्य सहकारी समितियां (एमएससीएस) अधिनियम, 2002 को एमएससीएस (संशोधन) अधिनियम, 2023 के माध्यम से संशोधित किया गया, जिस में एमएससीएस के बोर्ड में महिलाओं के लिए 2 सीटों के आरक्षण के लिए एक विशिष्ट प्रावधान किया गया, जिसे अनिवार्य कर दिया गया है. इस से सहकारी क्षेत्र में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने का रास्ता साफ होगा.

वहीँ सहकारिता मंत्रालय द्वारा पैक्स के लिए मौडल उपनियम तैयार किए गए हैं और देशभर के राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा अपनाए गए हैं. इस में पैक्स के बोर्ड में महिला निदेशकों की जरूरत को अनिवार्य किया गया है. इस से 1 लाख से अधिक पैक्स में महिलाओं का प्रतिनिधित्व और उन के द्वारा निर्णय लेना सुनिश्चित हो रहा है.

राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी), सहकारिता मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के तहत एक सांविधिक निगम है, जो पिछले कई सालों से महिला सहकारी समितियों की सामाजिकआर्थिक स्थिति को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जिस से उन्हें व्यवसाय मौडल आधारित गतिविधियां अपनाने में सक्षम बनाया जा सके.

एनसीडीसी विशेष रूप से महिला सहकारी समितियों के लिए निम्नलिखित योजनाओं को लागू कर रहा है :

स्वयंशक्ति सहकारी योजना : इस योजना के अंतर्गत महिला स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) को सामान्य/सामूहिक सामाजिकआर्थिक गतिविधियों के लिए पर्याप्त बैंक ऋण की सुविधा के लिए 3 साल तक के लिए कार्यशील पूंजी ऋण प्रदान किया जाता है.

नंदिनी सहकार : इस योजना के तहत महिला सहकारी समितियों को 5-8 साल तक की अवधि के लिए सावधि ऋण प्रदान किया जाता है, जिस में सावधि ऋण पर 2 फीसदी तक की ब्याज छूट दी जाती है. इस योजना के तहत वित्तीय सहायता एनसीडीसी को सौंपे गए व्यवसाय योजना आधारित गतिविधि/सेवा के लिए प्रदान की जाती है.

इस के अलावा सहकारिता मंत्रालय, नाबार्ड, एनडीडीबी, एनएफडीबी और राज्य सरकारों के साथ मिल कर भारत में सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहा है. इस में सभी पंचायतों/गांवों में नई बहुद्देशीय पैक्स, डेयरी और मत्स्य सहकारी समितियों की स्थापना करना शामिल है. प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए, एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) शुरू की गई है. एनडीडीबी को 1,03,000 से अधिक डेयरी सहकारी समितियों के गठन/मजबूतीकरण का काम सौंपा गया है.

इस के अतिरिक्त गुजरात में “सहकारी समितियों के बीच सहयोग” पायलट परियोजना का उद्देश्य प्राथमिक डेयरी सहकारी समितियों को बिजनैस कौरेसपोंडेंट/बैंक मित्र बना कर और सदस्यों को रुपे केसीसी प्रदान कर के उन्हें सशक्त बनाना है. इस पहल का उद्देश्य डेयरी सहकारी समितियों में काफी संख्या में ग्रामीण महिलाओं को शामिल कर के उन की बाजार तक पहुंच को बढ़ाना और उन के वित्तीय व सामाजिक सशक्तीकरण में योगदान देना है.

एमएससीएस (संशोधन) अधिनियम, 2023 के तहत सहकारी चुनाव प्राधिकरण की स्थापना की गई है और इस ने बहुराज्य सहकारी समितियों के 70 चुनाव आयोजित किए हैं और बोर्ड में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की है.

एनसीडीसी ने 31 मार्च, 2024 तक विशेष रूप से महिलाओं द्वारा प्रवर्तित सहकारी समितियों के विकास के लिए क्रमशः 7,708.09 करोड़ रुपए और 6,426.36 करोड़ रुपए की संचयी वित्तीय सहायता स्वीकृत और वितरित की है.

भारत सरकार ने गुजरात राज्य के पंचमहल और बनासकांठा जिलों में “सहकारी समितियों के बीच सहयोग” नामक एक पायलट परियोजना लागू की है, जिस के तहत प्राथमिक डेयरी सहकारी समितियों को जिला केंद्रीय सहकारी बैंकों (डीसीसीबी) का बिजनैस कौरेसपोंडेंट/बैंक मित्र बनाया गया है और सदस्यों को माइक्रोएटीएम प्रदान किए गए हैं.

इस के अलावा डेयरी सहकारी समितियों के सदस्यों (विशेष रूप से महिला सदस्यों) को उन की तत्काल वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए डीसीसीबी द्वारा रुपे केसीसी प्रदान किया जा रहा है. पायलट प्रोजैक्ट के दौरान दोनों जिलों में डीसीसीबी ने अपने सदस्यों को 22,344 रुपे केसीसी जारी किए हैं, जिन में 6,382 पशुपालन केसीसी शामिल हैं, जिस का लाभ ज्यादातर महिलाओं को मिला है. मंत्रालय ने ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण पर इन पहलों के प्रभाव के लिए कोई विशेष अध्ययन नहीं किया है.

Marketing and Branding: क्या है किसानों की आय बढ़ाने का तरीका

सबौर: बिहार कृषि विश्वविद्यालय सबौर में सेंटर औफ़ एकसीलेन्स मिलेट्स वैल्यू चैन परियोजना के अंतर्गत बिहार राज्य में पोषक अनाज की मार्केटिंग और ब्राडंगि (Branding) रणनीतियों पर ब्रेनस्ट्रोमिंग सेशन का आयोजन 6 दिशम्बर 2024 को किया गया. इस कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में बि० ए० यु० के निदेशक अनुसंधान, डा. श्रीनिवास राय, प्राचार्य बिहार कृषि महाविद्यालय सबौर, प्रधान अन्वेषक डा.महेश कुमार सिंह, उप अन्वेषक डा. बीरेंद्र सिंह, एवं डा. धर्मेंदर वर्मा, मौजूद थे. डा. नेहा पाण्डेय सहायक प्रध्यापक सह कैनिय वैज्ञानिक प्रसार शिक्षा, बि० ए० सी० सबौर ने कार्यक्रम का संचालन किया.

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे निदेशक अनुसंधान बि० ए० यु० सबौर डा.ए.के.सिंह का मानना है कि पोषक अनाज का उत्पादन कम उपजाऊ, असंचित क्षेत्र एवं बदलते जलवायु में असानी से किया जा रहा है, साथ ही विभिन्न बिमारीयों जैसे मोटापा, चीनी रोग, हृदय रोग, हड्डी रोग एवं बेहतर स्वास्थ के लिए इन को भोजन में शामिल करना आज की जरूरत हो गई है, जिस से श्री अन्न ब्रांडिग एवं मार्केटिंग से किसानों की आय और बढ़ेगी. डा. श्रीनिवास राय, प्राचार्य बिहार कृषि महाविद्यालय सबौर, ने किसानो को भरोसा दिलाया की पोषक अनाज उत्पादन विपणन एवं ब्रांडिंग में विश्वद्यिालय, किसान भाईयों एवं उद्धमियों को पूर्ण सहयोग प्रदान करेगी.

Marketing and Branding

इस एक दिवसीय कार्यक्रम के मुख्य वक्ता डा. रफी, वैज्ञानिक भारतीय श्री अन्न अनुसंधान संस्थान हैदराबाद ने पोषक अनाज के बाजार संर्पक स्थापित करने के बारे में विस्तार से चर्चा की. वहीँ दुसरे मुख्य वक्ता डा. रामदत्त सहायक प्रध्यापक, डा. राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर ने पोषक अनाज को विकसित करने के बारे मे चर्चा की. कार्यक्रम के तीसरे मुख्य डा. सुधानन्द प्रसाद लाल ने पोषक अनाज के मुल्य श्रृंखला सुदृड करने के लिए विस्तार से चर्चा की एवं बिहार और भारत सरकार की मुख्य योजानओं के बारे में जानकारी दी. प्रधान अन्वेषक डा. महेश कुमार सिंह, ने पोषक अनाज का मानव स्वास्थ में महत्त्व एवं उत्पादन तकनीक पर प्रकाश डाला. कार्यक्रम के अंत में डा. नेहा पाण्डेय ने किसानों को पोषक अनाज से उद्यमी बनाने और उन की आय बढ़ाने के लिए व्यापार की योजना पर विस्तार से चर्चा करी.