सेहत के लिए फायदेमंद है मोटा अनाज

चंडीगढ़: राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ‘मोटे अनाज का उपयोग स्वस्थ मानव जीवन व सुरक्षित पर्यावरण’ विषय पर तीनदिवसीय राष्ट्रीय सैमिनार आयोजित किया गया, जिस में हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने शिरकत की.

उन्होंने भोजन में मोटे अनाज के उपयोग पर बल देते हुए कहा कि मोटा अनाज सेहत के लिए अत्यंत फायदेमंद है, इसलिए इसे अपने दैनिक भोजन में जरूर शामिल करें.

राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने कहा कि हरियाणा सरकार मोटा अनाज विशेषकर बाजरा की पैदावार बढ़ाने पर जोर दे रही है और इस दिशा में किसान को समृद्ध करने के लिए बाजरे को भावांतर भरपाई योजना में शामिल किया गया है. प्रदेश में बाजरे की खेती को बढ़ावा देने के लिए पहले कदम के रूप में, इस वर्ष भिवानी जिला में एक पोषक-अनाज अनुसंधान केंद्र बनाया जा रहा है.

Milletsउन्होंने बताया कि मोटे अनाज का प्रयोग कई तरह की बीमारियों, जिन में शुगर, ब्लडप्रेशर, हार्ट, किडनी, कैंसर आदि शामिल हैं, से बचाव हो सकता है. राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने कहा कि जब तक भोजन में अनाज नहीं बदलेंगे, तो देश का स्वास्थ्य नहीं बदल सकता है, इसलिए मोटे अनाज का प्रयोग हमें बड़े पैमाने पर करना होगा.

राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने आगे कहा कि मोटे अनाज को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है और संयुक्त राष्ट्र ने भी भारत के आग्रह पर मोटे अनाज को ‘अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष‘ के रूप में घोषित किया है. मोटे अनाज को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने के इस अभियान में केंद्र सरकार की ओर से इसी वर्ष इसे प्रोत्साहित करने का फैसला किया गया है और केंद्र ने एक नई योजना ‘श्रीधान्य‘ की शुरुआत की है.

समकलित खेती पर पांचदिवसीय प्रशिक्षण

अविकानगर (राजस्थान): भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के संस्थान केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर, तहसील मालपुरा, जिला टोंक (राजस्थान) के दक्षिण क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र, माननावनूर जिला- कोडईकनाल राज्य-तमिलनाडु  द्वारा राज्य के पहाड़ी जिलों के एससी तबके के किसानों को अनुसूचित जाति उपयोजना के माध्यम से किसानवैज्ञानिक संवाद द्वारा समकलित खेती पर पांचदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया.

वैज्ञानिक संवाद एवं स्थापना दिवस के कार्यक्रम मे मुख्य अतिथि संस्थान के निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर, प्रशासनिक अधिकारी भीम सिंह, माननावनूर सैंटर के प्रभारी डा. पी थिरूमुरुगान, वैज्ञानिक डा. एस. जगवीरा पांडेयन एवं केंद्र के समस्त कर्मचारियों द्वारा कार्यक्रम में हिस्सा लिया गया.

कार्यक्रम में पधारे मुख्य अतिथि निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर एवं अन्य अतिथि का केंद्र द्वारा दक्षिण परंपरा से स्वागतसत्कार किया गया.

Farmingकार्यक्रम को संबोधन करते हुए निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर ने सभी को समेकित खेती की ओर जाने का निवेदन करते हुए कहा कि इस से सालभर परिवार की आजीविका बनी रहेगी.

उन्होंने जानकारी देते हुए यह भी बताया कि आप भेड़, खरगोश, गाय आदि पशुओं के पालन के साथ ही सब्जी, फल और मसाले का और्गैनिक तरीके से उत्पादन कर के अच्छी आमदनी ले सकते हैं.

डा. अरुण कुमार तोमर ने आगे कहा कि आप उत्तरी भारत के हिमाचल प्रदेश के किसानों की बागबानी, सब्जी और टूरिस्ट आधारित पारिवारिक आजीविका से सीख कर कुछ अपने फार्मिंग सिस्टम को ऐसी दिशा देने की जरूरत है.

इस अवसर पर तमिलनाडु राज्य के किसानों के खरगोश मांस संगठन के साथ एमओयू किया गया, जिस से अविकानगर संस्थान की खरगोशपालन उन्नत तकनीकी को राज्य के पहाड़ी क्षेत्र के सभी तबके के लोगों तक पहुंचाया जाएगा.

केंद्र के कार्यालय प्रभारी डा. पी. थिरूमुरुगान ने बताया कि अनुसूचित जाति के  तबके के किसानों को तमिलनाडु राज्य की कृषि और पशुपालन संस्थान के साथ उन्नत खेती और पशुपालन पर भ्रमण और लेक्चर्स करवाया जाएगा.

’ग्रीन कान्हा रन का आयोजन’

उदयपुर: 19, नवंबर, 2023. जलवायु परिवर्तन के चलते दिनोंदिन आबोहवा में अनेक बदलाव आ रहे हैं, जिन के प्रति सजग रहना जरूरी है. इसी कड़ी में पर्यावरण की सुरक्षा और वृक्षारोपण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए हार्टफुलनेस संस्थान की ओर से ग्रैन्यूल्स ग्रीन कान्हा रन का आयोजन पिछले दिनों फतेह सागर में आयोजित किया गया. इस रन का आयोजन कान्हा शांति वनम के साथ ही विश्व के अनेक देशों में आयोजित किया गया था.

उदयपुर केंद्र समन्वयक डा. राकेश दशोरा ने बताया कि सुबह 7.30 बजे फतेह सागर की पाल पर देवली छोर से 2 किलोमीटर की दौड़ का आयोजन किया गया.

ग्रैन्यूल्स ग्रीन कान्हा रन के यूथ समन्वयक दीपक मेनारिया ने बताया कि इस दौड़ में डा. राजेश भारद्वाज, एडिशनाल एसपी (विजिलेंस), उदयपुर, सलोनी खेमका सीईओ, नगरनिगम उदयपुर, पुनीत शर्मा, डायरेक्टर, प्लानिंग उदयपुर, डा. एचपी गुप्ता, शल्य चिकित्सक, डा. उमा ओझा, सेवानिवृत्त प्रो. आरएनटी, मधु मेहता, जोनल कार्डिनेटर हार्टफुलनेस, नरेश मेहता, प्रशिक्षक आशा शर्मा, महेश कुलघुडे, मोहन बोराणा, डा. सुबोध शर्मा पूर्व डीन मात्स्यिकी महाविद्यालय के साथ ही लगभग 100 से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया.

इस इवेंट की श्रेणियों में 2 किलोमीटर, 5 किलोमीटर, 10 किलोमीटर व 21 किलोमीटर की दूरी तय की गई, जिस में अलगअलग लोगों ने हिस्सा लिया.

’कृषि पीएचडी के लिए 6 दिसंबर तक आवेदन’

हिसार: चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार में विभिन्न पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिले के लिए आवेदन प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने बताया कि आवेदन की प्रक्रिया 6 दिसंबर, 2023 तक जारी रहेगी.

उन्होंने जानकारी देते हुए आगे बताया कि पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिला एंेट्रेंस टैस्ट में हासिल मैरिट के आधार पर होगा. औनलाइन आवेदन फार्म एवं प्रोस्पैक्टस विश्वविद्यालय की वैबसाइट पर उपलब्ध है.

उन्होंने यह भी कहा कि आवेदन करने से पहले और कांउसलिंग के समय आने से पूर्व उम्मीदवार प्रोस्पैक्टस 2023-24 में दिए गए दाखिला संबंधी सभी हिदायतों व नियमों को अच्छी तरह से पढ़ लें.

सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार के लिए आवेदन की फीस 1,500 रुपए है, जबकि अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, पीडब्ल्यूडी (दिव्यांग)के उम्मीदवारों के लिए 375 रुपए होगी. इस के अलावा उपलब्ध सीटों की संख्या, महत्वपूर्ण तिथियां, न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता, दाखिला प्रक्रिया आदि संबंधी सभी जानकारियां विश्वविद्यालय की वैबसाइट पर उपलब्ध प्रोस्पैक्टस में मौजूद है.

उन्होंने उम्मीदवारों को दाखिला संबंधी नवीनतम जानकारियों के लिए विश्वविद्यालय की वैबसाइट  ींन.ंब.पद ंदक ंकउपेेपवदे.ींन.ंब. पद पर नियमित रूप से चेक करते रहने को कहा है.

पीएचडी प्रोग्राम में दाखिले की ये होगी प्रक्रिया

स्नातकोत्तर शिक्षा अधिष्ठाता डा. केडी शर्मा ने बताया कि विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में पीएचडी में दाखिला कौमन ऐंट्रेंस टैस्ट के आधार पर होगा. कृषि महाविद्यालय में एग्रीकल्चरल इकोनोमिक्स, एग्रोनोमी, इंटोमोलौजी, एग्रीकल्चरल ऐक्सटेंशन एजुकेशन, हार्टिकल्चर, नेमोटोलौजी, जैनेटिक्स ऐंड प्लांट ब्रीडिंग, प्लांट पेथोलौजी, सीड साइंस एवं टैक्नोलौजी, सौयल साइंस, वेजीटेबल साइंस, एग्री. मेटीयोरोलौजी, फोरैस्ट्री, एग्री बिजनैस मैनेजमेंट व बिजनैस मैनेजमेंट विषय शामिल हैं, जबकि मौलिक एवं मानविकी महाविद्यालय में कैमिस्ट्री, बायोकैमिस्ट्री, प्लांट फिजियोलौजी, एनवायरमेंटल साइंस, माइक्रोबायोलौजी, जूलौजी, सोशियोलौजी, स्टैटिक्स, फिजिक्स, मैथमैटिक्स व फूड साइंस एंड टैक्नोलौजी विषयों में दाखिले होंगे.

इसी प्रकार बायोटैक्नोलौजी महाविद्यालय में मोलिक्यूलर बायोलौजी ऐंड बायोटैक्नोलौजी, बायोइनफर्मेटिक्स विषय शामिल होंगे. सामुदयिक विज्ञान महाविद्यालय में फूड्स %

पोषक तत्त्वों से भरपूर करेला

अकसर घरों में दादी, नानी या मां करेले के गुणों का बखान करती मिलती हैं. कई बुजुर्गों को आप ने करेले का जूस मजे से पीते देखा होगा, मगर करेले का नाम सुनते ही नौजवानों के मुंह का जायका बिगड़ जाता है. बच्चे तो उस के नाम से ही नाकभौं चढ़ा लेते हैं. करेले की कड़वाहट झेलना सब के बस की बात नहीं है.

करेला भले ही एक कड़वी सब्जी हो, लेकिन इस में कई गुण होते हैं. करेला खून तो साफ करता ही है, साथ ही डायबिटीज के मरीजों के लिए बेहद फायदेमंद है.

करेला डायबिटीज में अमृत की तरह काम करता है. इस से खून में शुगर लेवल कंट्रोल में रहता है. दमा और पेट के मरीजों के लिए भी यह लाभदायक है. इस में फास्फोरस पर्याप्त मात्रा में होता है जो कफ की शिकायत को दूर करता है.

करेले का इस्तेमाल एक नैचुरल स्टेरायड के रूप में किया जाता है, क्योंकि इस में कैरेटिन नामक रसायन होता है जो खून में शुगर का लैवल नियंत्रित रखता है. करेले में मौजूद ओलिओनिक एसिड ग्लूकोसाइड शुगर को खून में घुलने नहीं देता है.

करेला जितना शुगर लैवल को संतुलत करता है, शरीर को उतने ही पोषक तत्त्व मिलते हैं. इस के अलावा करेले में तांबा, विटामिन बी, अनसैचुरेटैड फैटी एसिड जैसे तत्त्व मौजूद होते हैं. इन से खून साफ रहता है और किडनी व लिवर भी सेहतमंद रहता है.

करेला खाने के फायदे

* कफ के मरीजों के लिए करेला बहुत फायदेमंद होता है.

* दमा होने पर बिना मसाले की सब्जी लाभदायक होती है.

* पेट में गैस की समस्या या अपच होने पर करेला राहत देता है.

* लकवे के मरीजों को कच्चा करेला खाने से फायदा होता है.

* उलटी, दस्त या हैजा होने पर करेले के रस में पानी और काला नमक डाल कर सेवन करने पर तुरंत फायदा होता है.

* पीलिया के रोग में भी करेला लाभकारी है. मरीजों को इस का रस पीना चाहिए.

* करेले के रस का लेप लगाने से सिरदर्द दूर होता है.

* गठिया रोगियों के लिए करेला फायदेमंद होता है.

* मुंह में छाले पड़ने पर करेले के रस का कुल्ला करने से राहत मिलती है.

अनार: मैदानी इलाकों में भी लें अच्छी पैदावार

भारत में अनार का कुल रकबा 2018-19 में 2,46,000 हेक्टेयर है और उत्पादन 28,65,000 मीट्रिक टन है, वहीं अगर एक हेक्टेयर की बात करें तो अनार का कुल उत्पादन तकरीबन 11.69 टन प्रति हेक्टेयर है. अनार गरम और गरम व ठंडी जलवायु वाले देशों का काफी लोकप्रिय फल है.

भारत में इस की खेती खासतौर से महाराष्ट्र में की जाती है. राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात में छोटे लैवल पर इस के बगीचे देखे जा सकते हैं. इस का रस जायकेदार और औषधीय गुणों की वजह से फायदेमंद होता है.

अनार की खेती के लिए कम लागत, लगातार उच्च तापमान, लंबी भंडारण अवधि जैसी खूबियों के चलते इस का क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है.

आबोहवा : यह हलकी सूखी जलवायु में बढि़या तरह से उगाया जा सकता है. फलों के बढ़ने व पकने के समय गरम और शुष्क जलवायु की जरूरत होती है. लंबे समय तक ज्यादा तापमान बने रहने से फलों में मिठास बढ़ती है, वहीं नम जलवायु रहने से फलों की क्वालिटी पर बुरा असर होता है.

जमीन  : अनार अनेक तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है, पर बढि़या जल निकास के इंतजाम वाली रेतीली दोमट मिट्टी सब से बढि़या होती है. फलों की गुणवत्ता व रंग भारी

मिट्टी के मुकाबले हलकी मिट्टियों में अच्छा होता है. अनार के लिए मिट्टी लवणीयता 9.00 ईसी प्रति मिलीलिटर और क्षारीयता 6.78 ईएसपी तक सहन कर सकता है.

खास प्रजाति

भारतीय प्रजाति : अर्कता, भगवा, ढोकला, जी 137, गणेश, जलोर सीडलैस, ज्योति, कंधारी, मृदुला, फूले फगवा, रूबी के 1 वगैरह.

प्रजाति इगजोटिक : अगेती वंडरफुल, ग्रांड वंडरफुल वगैरह.

खास किस्म और खूबियां 

गणेश : इस किस्म के फल मध्यम आकार के, बीज मुलायम और गुलाबी रंग के होते हैं. यह महाराष्ट्र की खास किस्म है.

ज्योति : फल मध्यम से बड़े आकार के, चिकनी सतह व पीलापन लिए हुए लाल रंग के होते हैं. एरिल गुलाबी रंग के बीज काफी मुलायम, बहुत मीठे होते हैं. प्रति पौधा 8-10 किलोग्राम उपज ली जा सकती है.

मृदुला : फल मध्यम आकार के, चिकनी सतह वाले लाल रंग के होते हैं. एरिल गहरे लाल रंग का बीज मुलायम, रसदार और मीठे होते हैं. प्रति पौधा 8-10 किलोग्राम उपज ली जा सकती है.

भगवा : इस किस्म के फल बड़े आकार के भगवा रंग के, चिकने चमकदार होते हैं. एरिल मनमोहक लाल रंग की और बीज मुलायम होते हैं. बढि़या देखरेख करने पर प्रति पौधा 30-38 किलोग्राम उपज ली जा सकती है.

अर्कता : यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है. फल बड़े आकार के, मीठे और मुलायम बीजों वाले होते हैं. एरिल लाल रंग की व छिलका मनमोहक लाल रंग का होता है. बढि़या देखरेख करने पर प्रति पौधा 25-30 किलोग्राम उपज ली जा सकती है.

प्रवर्धन

कलम द्वारा : एक साल पुरानी शाखाओं से 20-30 सैंटीमीटर लंबी कलमें काट कर पौधशाला में लगा दी जाती हैं और इंडोल ब्यूटारिक अम्ल (आईबीए) 3,000 पीपीएम से कलमों को उपचारित करने से जड़ें जल्दी व ज्यादा तादाद में निकलती हैं.

गूटी द्वारा : अनार का व्यावसायिक प्रवर्धन गूटी द्वारा किया जाता है. इस विधि में जुलाईअगस्त माह में एक साल पुरानी पैंसिल समान मोटाई वाली स्वस्थ पकी 45-60 सैंटीमीटर लंबाई की शाखाओं को छांटें.

छांटी गई शाखाओं से कलिका के नीचे 3 सैंटीमीटर चौड़ी गोलाई में छाल पूरी तरह से निकाल दें. छाल निकाली गई शाखा के ऊपरी भाग में आईबीए 10,000 पीपीएम का लेप लगा कर नमी वाला स्फेगनम मास चारों ओर लगा कर पौलीथिन की शीट से ढक कर सुतली से बांध दें. जब पौलीथिन से जड़ें दिखाई देने लगें, उस समय शाखा को स्केटियर काट कर क्यारी या गमलों में लगा दें.

पौध की रोपाई : आमतौर पर पौध रोपण की आपसी दूरी मिट्टी की क्वालिटी व जलवायु पर निर्भर करती है. आमतौर पर 4-5 मीटर की दूरी पर अनार को रोप दिया जाता है.

सघन रोपण विधि में 5×2 मीटर (1,000 पौधे प्रति हेक्टेयर), 5×3 मीटर (666 पौधे प्रति हेक्टेयर) 4.5×3 (740 पौधे प्रति हेक्टेयर) की आपसी दूरी पर रोपण किया जा सकता है.

पौध रोपने के तकरीबन एक महीने पहले 60×60×60 सैंटीमीटर (लंबाई × चौड़ाई × गहराई) आकार के गड्ढे खोद कर 15 दिनों के लिए खुला छोड़ दें. इस के बाद गड्ढे की ऊपरी मिट्टी में 20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद, 1 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 50 ग्राम क्लोरोपाइरीफास चूर्ण मिट्टी में मिला कर गड्ढों को सतह से 15 सैंटीमीटर की ऊंचाई तक भर दें.

खाद व उर्वरक : पौधों की उम्र के मुताबिक कार्बनिक खाद व नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का इस्तेमाल करें. नाइट्रोजन व पोटाशयुक्त उर्वरकों को 3 हिस्सों में बांट कर पहली खुराक सिंचाई के समय बहार प्रबंधन के बाद और दूसरी खुराक 3-4 हफ्ते बाद दें, फास्फोरस की पूरी खाद को पहली सिंचाई के समय दें. जिंक, आयरन, मैगनीज और बोरोन की 25 ग्राम की मात्रा प्रति पौधे डालें.

जब पौधों पर फूल आना शुरू हो जाएं, तो उस में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश 12:61:00 को 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से एक दिन के फासले पर एक महीने तक दें.

जब पौधों में फल लगने शुरू हो जाएं तो नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश 19:19:19 को ड्रिप की मदद से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से एक दिन के अंतराल पर एक महीने तक दें.

जब पौधों पर पूरी तरह से फल आ जाएं तो नाइट्रोजन और फास्फोरस 00:52:34 या मोनोपोटैशियम फास्फेट 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की मात्रा को एक दिन के अंतराल पर एक महीने तक दें.

फल की तुड़ाई के एक महीने पहले कैल्शियम नाइट्रेट की 12.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की मात्रा को ड्रिप की सहायता से 15 दिनों पर 2 बार दें.

ऐसे करें सिंचाई 

अनार के पौधे सूखा सह लेते हैं, पर अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई का खास फायदा है. मृग बहार की फसल लेने के लिए सिंचाई मई माह के मध्य से शुरू कर के मानसून आने तक नियमित रूप से करनी चाहिए.

बारिश आने के बाद फलों के अच्छे विकास के लिए लगातार सिंचाई 10-12 दिन के फासले पर करनी चाहिए. ड्रिप सिंचाई अनार के लिए उपयोगी साबित हुई है. इस में 43 फीसदी पानी की बचत और 30-35 फीसदी उपज में इजाफा हुआ है.

संधाई व काटछांट : अनार की 2 तरह से संधाई की जा सकती है. एक, तना विधि द्वारा. इस विधि में एक तने को छोड़ कर बाकी सभी बाहरी टहनियों को काट दिया जाता है. दूसरी, बहु तना विधि द्वारा. इस विधि में 3 से 4 तने छूटे हों, बाकी टहनियों को काट दिया जाता है.

इस तरह साधे हुए तने में रोशनी बढि़या मिलती है. रोगग्रस्त हिस्से के 2 इंच नीचे तक छंटाई करें और तनों पर बने सभी कैंकर को गहराई से छील कर निकाल देना चाहिए. छंटाई के बाद 10 फीसदी बोर्डो पेस्ट को कटे हुए हिस्से पर लगाएं. बारिश के समय में छंटाई के बाद तेल वाला कौपर औक्सीक्लोराइड और 1 लिटर अलसी का तेल का इस्तेमाल करें.

बहार नियंत्रण : अनार में साल में 3 बार जूनजुलाई (मृग बहार), सितंबरअक्तूबर (हस्त बहार) व जनवरीफरवरी (अंबे बहार) में फूल आते हैं. व्यावसायिक तौर पर केवल एक बार ही फसल ली जाती है और इस का निर्धारण पानी की मौजूदगी व बाजार की मांग के मुताबिक किया जाता है.

जिन इलाकों में सिंचाई की सुविधा नहीं होती है, वहां मृग बहार से फल लिए जाते हैं. जिन इलाकों में सिंचाई की सुविधा है, वहां अंबे बहार से फल लिए जाते हैं. बहार नियंत्रण के लिए जिस बहार से फल लेने हों, उस के फूल आने से 2 माह पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए. रासायनिक बहार नियमन के लिए इथ्रेल की उच्च सांध्रता (1 से 2 मिलीलिटर प्रति लिटर) का इस्तेमाल किया जाता है.

तुड़ाई : अनार बेमौसम वाला फल है. जब फल पूरी तरह से पक जाएं, तभी पौधों से तोड़ना चाहिए. पौधों में फल सेट होने के बाद 120-130 दिन बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं. पके फल पीलापन लिए लाल हो जाते हैं.

उपज : पौध रोपण के 2-3 साल बाद फलना शुरू कर देते हैं, लेकिन व्यावसायिक रूप से उत्पादन रोपण के तकरीबन 4-5 साल बाद ही लेना चाहिए. अच्छी तरह से विकसित पौधा 60-80 फल हर साल 25-30 साल तक देता है.

भारत का एक प्राचीन देशी गेहूं पैगांबरी किस्म है शुगर फ्री

आज से २० साल पहले मटर की फसल के बीच में हमें एक गेहूं का ऐसा पौधा मिला, जो देखने में सामान्य गेहूं के पौधों से काफी अलग था. उसी एक पौधे से हम ने इस के बीज संवर्धन की शुरुआत की थी, पर इस एक पौधे ने हमें इस गेहूं पर शोध करने के लिए प्रेरित किया.

पैगांबरी गेहूं लोकप्रिय रूप से अपने आकर्षक चमकीले छोटे गोल मोती जैसे दाने के कारण शुगर फ्री गेहूं के रूप में जाना जाता है. यह एक प्रकार का ट्रिटिकम स्फेरोकोकम  गेहूं है. इस का दाना गोल आकार का और पौधा बौनी प्रजाति का होता है. इस के पौधे की ऊंचाई 70 से 80 सैंटीमीटर तक होती है.

सही माने में देखा जाए तो यह गेहूं पहला भारतीय गेहूं कहा जाता है, क्योंकि इस की उत्पत्ति सिंधु घाटी सभ्यता से हुई थी और यह उस सभ्यता में मुख्य भोजन में से एक था. इस के उलट यह माना जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में तकरीबन 4000 साल पहले बौना गेहूं विकसित किया गया था, जो शायद वह यही गेहूं है.

मधुमेह की बढ़ती घातक बीमारी को देखते हुए मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के भगवंतराव मंडलोई कृषि कालेज ने इसी देशी प्रजाति पैगांबरी गेहूं से एक नई किस्म तैयार की है. इस गेहूं के सेवन से मधुमेह की बीमारी काबू की जा सकती है.

दुनियाभर में तेजी से शुगर के मरीजों की बढ़ती तादाद को देखते हुए खंडवा के भगवंतराव मंडलोई कृषि कालेज के वैज्ञानिकों ने गेहूं की एक पुरानी प्रजाति का पता लगाया है. गेहूं की इस प्रजाति का प्राचीन नाम पैगांबरी है, किंतु कृषि वैज्ञानिकों के इस प्रजाति पर किए गए अपने शोध में कई स्वास्थ्य लाभ देने वाले गुण पाए गए हैं. इस वजह से वैज्ञानिकों ने इस प्रजाति से एक नई किस्म तैयार की है, जो शुगर फ्री है. यह डायबिटीज के मरीजों के लिए वरदान साबित होगा. वैज्ञानिकों का यह प्रयोग स्थानीय स्तर पर सफल हुआ है.

कृषि वैज्ञानिक सुभाष रावत ने बताया कि शुगर कंट्रोल करने के लिए कृषि कालेज में गेहूं की प्राचीन देशी प्रजाति से गेहूं की एक नई किस्म ए-12 तैयार की गई है. इसे शुगर फ्री गेहूं का नाम दिया है. इस में शुगर व प्रोटीन की मात्रा कम है.

अब कालेज इस तरह की खेती बड़े पैमाने पर कराने की तैयारी कर रहे हैं, ताकि शुगर से पीडि़त मरीजों को ठीक किया जा सके.

उन्होंने यह भी बताया कि कालेज में पिछली बार भी यह गेहूं लगाया गया था. इस के अच्छे नतीजे सामने आए थे. साथ ही, किसानों को जागरूक किया जा रहा है, ताकि वे गेहूं की किस्म ए-12 की ज्यादा से ज्यादा बोआई करें.

Wheatपैगांबरी गेहूं की प्रजाति का दाना देखने में मैथी के दाने की तरह है, जबकि सामान्य गेहूं का दाना लंबा व अंडे के आकार का होता है. इस में छिलका व फाइबर अधिक और प्रोटीन की मात्रा कम होती है.

पैगांबरी गेहूं की खासीयत : इस गेहूं के बारे में समृद्धि देशी बीज बैंक, रुठियाई द्वारा किए कृषि शोधात्मक विश्लेषण में यह पाया गया कि यह किसी भी तरह की मिट्टी में बोया जा सकता है. वैसे तो इस की सिंचाई के लिए 4 से 5 बार सिंचाई की जरूरत होती है, किंतु काली दोमट उपजाऊ मिट्टी में केवल 2 सिंचाई में भी पक कर तैयार हो जाता है.

अगर इस के उत्पादन की बात करें, तो पर्याप्त सिंचित, कार्बनिक तत्त्वों से भरपूर उपजाऊ जमीन पर 60 से 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज ली जा सकती है.

इस की बोआई नवंबर माह के पहले हफ्ते से ले कर जनवरी माह के पहले हफ्ते तक की जा सकती है. इस की फसल 120 से 125 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

इस का भूसा बहुत बारीक निकलता है, जिसे पशु बहुत पसंद करते हैं.

अब इस के उपयोग पर अगर हम नजर डालें तो इस का उपयोग मुख्य रूप से रोटियां बनाने, ब्रेड टोस्ट बनाने, दलिया बनाने और इस के दानों से चावल की तरह खीर बनाने में किया जाता है.

इस गेहूं की रोटियां बहुत ही मुलायम, सफेद और स्वादिष्ठ होती हैं.

इसे खाने के फायदे

एनर्जी के लिए : पैगांबरी गेहूं खाने से एनर्जी मिलती है. ये ऊर्जा का एक बहुत अच्छा स्रोत है. यह वजन घटाने में भी सहायक है. दरअसल, इसे खाने के बाद काफी देर तक भूख नहीं लगती. इस से वजन कंट्रोल भी होता है.

स्वस्थ दिल के लिए : पैगांबरी गेहूं कौलेस्ट्रौल लेवल को कंट्रोल करने में मदद करता है. इस से दिल से जुड़ी बीमारियां होने का खतरा कम हो जाता है. इस में मैग्नीशियम और पोटैशियम भी है, जो ब्लड प्रैशर को नियंत्रित रखने में मददगार है.

पाचन को रखे दुरुस्त : पैगांबरी गेहूं में भरपूर मात्रा में फाइबर पाया जाता है, जो पाचन को दुरुस्त रखने में सहायक है. इस गेहूं को खाने से कब्ज की समस्या भी नहीं होती है.

कैंसर से बचाव : गेहूं की खेती जैविक तरीके से की जा रही है, इसलिए यह कैंसर के बचाव में भी सहायक है. डायबिटीज के मरीज इस का नियमित सेवन कर शुगर कंट्रोल कर सकते हैं.

पैगांबरी गेहूं की खूबियां

* आकार मैथी की तरह है.

* बाजरे की तरह गुण हैं.

* अन्य गेहूं की अपेक्षा प्रोटीन कम है.

* छिलका ज्यादा है.

* जल्दी पचने वाली वैरायटी है.

* फायबर अधिक है.

अधिक जानकारी के लिए लेखक से उन के मोबाइल नंबर 7898915683 पर संपर्क कर सकते हैं.

ऐसे बनाएं भरपूर कंपोस्ट

आज के सघन खेती के युग में जमीन की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने के लिए समन्वित तत्त्व प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. इस के तहत प्राकृतिक खादों का प्रयोग बढ़ रहा है. इन प्राकृतिक खादों में गोबर की खाद, कंपोस्ट और हरी खाद मुख्य है.

ये खाद मुख्य तत्त्वों के साथसाथ गौण तत्त्वों से भी भरपूर होती हैं. गोबर का प्रयोग ईंधन के रूप में (70 फीसदी) होने के कारण इस से बनी खाद कम मात्रा में उपलब्ध होती है. हरी खाद और अन्य खाद भी कम मात्रा में प्रयोग होती है, इसलिए जैविक पदार्थ का प्रयोग बढ़ाने के लिए खाद बनाने के लिए कंपोस्ट का तरीका अपनाना चाहिए.

कंपोस्ट बनाने के लिए फसलों के अवशेष, पशुशाला का कूड़ाकरकट के अलावा गांव व शहरी कूड़ाकरकरट वगैरह को एक बड़े से गड्ढे में गलाया और सड़ाया जाता है.

जरूरी सामग्री : फसल के अवशेष व कूड़ाकरकर 80 फीसदी, गोबर (10-15 दिन पुराना) 10 फीसदी, खेत की मिट्टी 10 फीसदी, ढकने के लिए पुरानी बोरी या पौलीथिन और पानी. इस के अलावा छायादार जगह पर या पेड़ के नीचे गड्ढा बनाएं.

Compostकंपोस्ट बनाने की विधि : कंपोस्ट बनाने के लिए गड्ढे की लंबाई 1 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर और गहराई 1 मीटर होनी चाहिए. गड्ढे की लंबाई, चौड़ाई व गहराई फसल अवशेष पर भी निर्भर है.

* सब से नीचे 12-15 सैंटीमीटर मोटी भूसे की परत लगाते हैं.

* भूसे की परत के ऊपर 10-12 सैंटीमीटर मोटी गोबर की परत लगाई जाती है.

* गोबर की परत के ऊपर 30-45 सैंटीमीटर मोटी फसल अवशेष या कूड़ाकरकट की परत लगाते हैं.

* इस के ऊपर 3-4 सैंटीमीटर की मोटी मिट्टी की परत लगाई जाती है.

* सब से ऊपर 5-6 सैंटीमीटर की मोटी गोबर की परत लगाई जाती है.

* एक महीने के बाद इस को उलटपलट कर देते हैं.

* नमी की मात्रा सामग्री में 60-70 फीसदी होना जरूरी है.

* इस तरह कंपोस्ट 3 महीने में तैयार हो जाती है.

* इस कंपोस्ट में नाइट्रोजन 0.8 से 1.0 फीसदी, फास्फोरस

0.6-0.8 फीसदी और पोटाश 0.8-1.0 फीसदी होती है.

कंपोस्ट के इस्तेमाल से लाभ

* इस के इस्तेमाल से मिट्टी में जैविक पदार्थ की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

* जरूरी तत्त्वों की संतुलित मात्रा में उपलब्धि होती है.

* मिट्टी व पानी का संरक्षण अधिक होता है.

* पौधों की जड़ों के लिए उचित वातावरण बनता है और इन की बढ़ोतरी अच्छी होती है.

* फसल अवशेष का सदुपयोग होता है.

* पशुशाला के कूड़ेकरकट का उपयोग कंपोस्ट बनाने में इस्तेमाल होता है.

* यह एक प्रदूषणरहित प्रक्रिया है.

* कंपोस्ट खाद की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए रौक फास्फेट डाल कर फास्फोरसयुक्त कंपोस्ट भी बना सकते हैं.

फास्फोरसयुक्त खाद बनाने की विधि

घासफूस, खरपतवार, फसल अवशेष 400 किलोग्राम. पशुओं का गोबर 300 किलोग्राम. रौक फास्फेट 100-150 किलोग्राम.

* बताई गई सामग्री को फावड़े या कस्सी से अच्छी तरह मिलाएं और पानी से नमी की मात्रा 60-70 फीसदी तक रखें.

* इस मिश्रण को 4 फुट चौड़े, 10 फुट लंबे व 3 फुट गहरे गड्ढे में डालें.

* 20 दिन बाद मिश्रण को उलटपलट कर व जरूरत के मुताबिक पानी डालें. इस प्रक्रिया को 50 दिन बाद फिर दोहराएं.

* 90 दिन बाद जैविक खाद बन कर तैयार हो जाएगी. इस में 0.8 से 1.0 फीसदी नाइट्रोजन, 3-4 फीसदी फास्फोरस व 0.5 फीसदी पोटाश.

* इस तरह से तैयार 2 टन जैविक खाद 60 किलोग्राम फास्फोरस के बराबर होती है.

धान की पराली से जैविक खाद बनाएं 

हरियाणा में ज्यादातर किसान धान की पराली को आग लगा कर खत्म कर देते हैं. इस से कि हवा खराब हो जाती है और जमीन के लाभदायक जीवजंतु भी खत्म हो जाते हैं.

अगर किसान धान की पराली को इकट्ठा कर उस से खाद बनाएं और खेतों में 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें तो इस से जमीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ेगी और नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की खाद भी कम मात्रा में डालनी पड़ेगी और किसान भाइयों को रासायनिक खाद की बचत भी होगी.

बनाने की विधि

* सब से पहले अपने खेत में धान की पराली को इकट्ठा करें, फिर 1,000 लिटर पानी में एक किलोग्राम यूरिया डाल कर घोल बनाएं और इस घोल में 10 ग्राम एसपरजीलस अवामोरी नामक फफूंद डालें जो कि सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार से मिल जाएगी.

* अब धान की पराली का एकएक गट्ठर उठाएं और घोल में 3 मिनट के लिए डुबो दें और फिर निकाल कर एक ढेर बनाते जाएं जो कि 1.5 मीटर चौड़ा, 1.5 मीटर ऊंचा हो और जिस की लंबाई पराली की मात्रा के मुताबिक रखी जा सकती है. इस तरह पराली का ढेर बनाने के बाद इसे मोटी पौलीथिन की शीट से ढक दें.

* ऊपर बनी धान की पराली के ढेर में पानी की मात्रा 60-70 फीसदी 3 महीने तक बनाए रखें, एक महीने के बाद धान की पराली को उलटपलट कर दें और फिर से पौलीथिन की शीट को ढक दें. तकरीबन 3 महीने में खाद बन कर तैयार हो जाएगी.

* इस विधि से तैयार 1 टन खाद में 12-14 किलोग्राम नाइट्रोजन, 6-7 किलोग्राम फास्फोरस और 19-22 किलोग्राम पोटाश होती है.

चमेली की खेती महकती जिंदगी

भारत में चमेली की खेती कई इलाकों में की जाती है, लेकिन तमिलनाडु पहले स्थान पर है. उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद, जौनपुर और गाजीपुर जिलों में भी इसे उगाया जाता है. इस के फूल आमतौर पर सफेद रंग के होते हैं, लेकिन कहींकहीं पीले रंग के फूलों वाली चमेली भी पाई जाती है.

चमेली के फूल, पेड़ व जड़ तीनों ही औषधीय चीजें बनाने में इस्तेमाल होते हैं. इस के फूलों से सजावट के अलावा तेल और इत्र भी तैयार किए जाते हैं. भारत से चमेली के फूलों को श्रीलंका, सिंगापुर और मलयेशिया भेजा जाता है.

आबोहवा और मिट्टी : इस की खेती गरम व नम जलवायु में अच्छी तरह से होती है. गरम जलवायु में पानी की अच्छी सहूलियत और लंबे समय तक उजाला चमेली के लिए अच्छा माना जाता है.

चमेली की खेती कई तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्टी, जिस में पानी न रुकता हो और जिस का पीएच मान 6.5-7.5 हो, ज्यादा अच्छी रहती है.

किस्में : भारत में चमेली की तकरीबन 80 किस्में पाई जाती हैं, किंतु कारोबारी खेती के लिए 3 किस्मों को उगाया जाता है :

जैस्मिनम

औरिकुलेटम : यह झाडि़यों वाली किस्म है, जो पूरे साल फूल देती है. इस में सब से ज्यादा फूल मानसून के समय आते हैं. इस के फूलों में महक बहुत होती है और इन से 0.24 से 0.42 फीसदी तक तेल हासिल होता है.

जैस्मिनम सैमबैक : यह किस्म फूल की पैदावार के लिए बेहद अच्छी है.

जैस्मिनम ग्रांडीफ्लोरम : इस के पौधे आधे बेल वाले होते हैं और इन में फूल जून से सितंबर महीने में आते हैं. इस के फूलों से 0.24 से 0.42 फीसदी तेल हासिल किया जाता है.

पौध तैयार करना : चमेली की कलम कटिंग द्वारा तैयार की जाती है. इस की कटिंग जनवरीफरवरी महीने में लगानी चाहिए, क्योंकि इस समय इस में सब से ज्यादा जड़ें निकलती हैं.

खेत की तैयारी : चमेली की खेती के लिए सब से पहले खेत की 2-3 बार गहरी जुताई करते हैं. इस के बाद 1.5×1.5 मीटर की दूरी पर 30×30 सैंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद लेते हैं. इन गड्ढों में 10-15 किलोग्राम कंपोस्ट खाद और मिट्टी भर देते हैं.

जड़ निकली हुई कटिंग को इन गड्ढों के बीच में लगा कर सिंचाई कर देते हैं. कटिंग की रोपाई का सब से अच्छा समय जून से ले कर अक्तूबर माह तक होता है. एक एकड़ खेत के लिए तकरीबन 1,800 कटिंग की जरूरत होती है.

खरपतवार खत्म करने के लिए पहली निराई रोपाई के 3-4 हफ्ते बाद करनी चाहिए. पौधों की कटाईछंटाई करने के बाद थालों व पानी की नालियों को अच्छी तरफ साफ कर के 10-15 सैंटीमीटर की गहराई तक खुदाई करनी चाहिए और उस में खाद व उर्वरक मिलाना चाहिए. यह काम हर 2-3 महीने बाद दोहराते रहना चाहिए.

कटाईछंटाई : चमेली की फसल में साल में एक बार कटाईछंटाई की जाती है.

सिंचाई : चमेली को ज्यादा पानी की जरूरत होती है. रोपाई के तुरंत बाद एक सिंचाई कर देनी चाहिए. इस के बाद जरूरत के मुताबिक हफ्ते में 1-2 बार सिंचाई करते रहें. जब फूल आने शुरू हो जाएं, तो नमी बनाए रखने के लिए सिंचाई करते रहें.

फसल सुरक्षा : चमेली पर मिली बग, जैस्मिन बग, बड वर्म, रैड स्पाइडर माइट, पत्ती काटने वाली सूंड़ी और सफेद मक्खी का हमला होता है.

इन कीटों की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास व सल्फर का इस्तेमाल करें. सरकोस्पोरा व जड़ विगलन बीमारी के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड का इस्तेमाल करें.

फूलों की तुड़ाई व उपज : फूलों की तुड़ाई उस समय करनी चाहिए, जब कलियां पकी हों, लेकिन खिली न हों. फूलों की तुड़ाई हमेशा सुबह सूरज निकलने से पहले ही करें.

वैज्ञानिक तकनीक से चमेली की एक  एकड़ फसल से पहले साल 600 से 800 किलोग्राम, दूसरे साल 1,400 से 1,500 किलोग्राम और तीसरे साल 2,200 से 2,500 किलोग्राम फूल हासिल होते हैं. चौथे साल में यह उपज बढ़ कर तकरीबन 3,500 किलोग्राम तक पहुंच जाती है, जो 7-8 साल तक बनी रहती है.

शरदकालीन गन्ने की वैज्ञानिक खेती

शरदकालीन गन्ने की खेती जो किसान भाई करना चाहते हैं तो इस के लिए सही समय अक्तूबरनवंबर माह का होता है. गन्ना घास समूह का पौधा है. इस का इस्तेमाल बहुद्देश्यीय फसल के रूप में चीनी उत्पादन के साथसाथ अन्य मूल्यवर्धित उत्पादों जैसे कि पेपर, इथेनाल और दूसरे एल्कोहल से बनने वाले कैमिकल, पशु खाद्यों, एंटीबायोटिक्स, पार्टीकल बोर्ड, जैव उर्वरक व बिजली पैदा करने के लिए कच्चे पदार्थ के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

गन्ने को खासतौर पर व्यापारिक चीनी उत्पादन करने वाली फसल के रूप में इस्तेमाल में लाया जाता है, जो कि दुनिया में उत्पादित होने वाली चीनी के उत्पादन में तकरीबन 80 फीसदी योगदान देता है. गन्ने की खेती दुनियाभर में पुराने समय से ही होती आ रही है, पर 20वीं सदी में इस फसल को एक नकदी फसल में रूप में पहचान मिली है.

भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि आधारित होने के चलते गन्ने का इस में खासा योगदान है. गन्ने के क्षेत्र, उत्पादन व उत्पादकता में भारत दुनियाभर में दूसरे नंबर पर है. वर्तमान में गन्ना उत्पादन में भारत की विश्व में शीर्ष देशों में गिनती होती है. वैसे, ब्राजील व क्यूबा भी भारत के तकरीबन बराबर ही गन्ना पैदा करते हैं. भारत में 4 करोड़ किसान रोजीरोटी के लिए गन्ने की खेती पर निर्भर हैं और इतने ही खेतिहर मजदूर निर्भर हैं.

गन्ने के महत्त्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि देश में निर्मित सभी प्रमुख मीठे उत्पादों के लिए गन्ना एक प्रमुख कच्चा माल है. इतना ही नहीं, इस का इस्तेमाल खांड़सारी उद्योग में भी किया जाता है.

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, पंजाब, हरियाणा मुख्य गन्ना उत्पादक राज्य हैं. मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और असम के कुछ इलाकों में भी गन्ना पैदा किया जाता है, लेकिन इन राज्यों में उत्पादकता बहुत कम है. इस के अलावा महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात में भी गन्ने का उत्पादन किया जाता है.

कुल उत्पादित गन्ने का 40 फीसदी हिस्सा चीनी बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. उत्तर प्रदेश देश की कुल गन्ना उपज का 35.8 फीसदी, महाराष्ट्र, 25.4 फीसदी और तमिलनाडु 10.3 फीसदी पैदा करते हैं यानी ये तीनों राज्य देश के कुल गन्ना उत्पादन का 72 फीसदी उत्पादन करते हैं.

गन्ने के बीज का चयन करते समय यह ध्यान रखें कि गन्ना बीज उन्नत प्रजाति का हो, शुद्ध हो व रोगरहित होना चाहिए. गन्ने की आंख पूरी तरह विकसित और फूली हुई हो. जिस गन्ने का छोटा कोर हो, फूल आ गए हों, आंखें अंकुरित हों या जड़ें निकली हों, ऐसा गन्ना बीज उपयोग न करें.

शरदकालीन गन्ने की बोआई के लिए अक्तूबर माह का पहला पखवाड़ा सही है. बोआई के लिए पिछले साल सर्दी में बोए गए गन्ने के बीज लेना अच्छा रहेगा. बोने से पहले खेत की तैयारी के समय ट्राईकोडर्मा मिला हुआ प्रेसमड गोबर की खाद 10 टन प्रति हेक्टेयर का प्रयोग जरूर करें.

कैसे बचाएं कीटों से

जिन खेतों में दीमक की समस्या है या फिर पेड़ी अंकुर बेधक कीटों की समस्या ज्यादा होती है, वहां पर इस की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास 6.2 ईसी 5 लिटर प्रति हेक्टेयर या फ्लोरैंटो नीपोल 8.5 ईसी 500 से 600 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर का 1,500 से 1,600 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

गन्ने की खेती के लिए जैव उर्वरक : शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया है कि गन्ने की खेती के लिए जैव उर्वरक काफी फायदेमंद साबित होते हैं. सही माने में देखा जाए तो जैविक खाद लाभकारी जीवाणुओं का ऐसा जीवंत समूह है जिन को बीज जड़ों या मिट्टी में प्रयोग करने पर पौधे को अधिक मात्रा में पोषक तत्त्व मिलने लगते हैं. साथ ही, मिट्टी की जीवाणु क्रियाशीलता व सामान्य स्वास्थ्य में भी बढ़वार देखी गई है.

गन्ने की खेती के लिए जीवाणु वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन स्तर का प्रवर्तन कर उसे पौधों के लायक बना देते हैं. साथ ही, यह पौधे के लिए वृद्धि हार्मोन बनाते हैं. अकसर देखा गया है कि एसीटोबैक्टर, एजोटोबैक्टर, एजोस्पिरिलम वगैरह ऐसे जीवाणु हैं, जो गन्ने की खेती को फायदा पहुंचाते हैं.

जैविक खाद के बेअसर होने की वजह : प्रभावहीन जीवाणुओं का उपयोग, जीवाणु तादाद में कम होना, अनचाहे जीवाणुओं का ज्यादा होना, जीवाणु खाद को उच्च तापमान या सूरज की रोशनी में रखना, अनुशंसित विधि का ठीक से प्रयोग न करना, जीवाणु खाद को कैमिकल खाद के साथ प्रयोग करना, इस्तेमाल के समय मिट्टी में तेज तापमान या कम पानी का होना, मिट्टी का ज्यादा क्षारीय और अम्लीय होना, फास्फोरस और पोटैशियम की अनुपलब्धता और मिट्टी में जीवाणुओं व वायरस का अधिक होना भी उत्पादन को प्रभावित करता है.

कितनी करें सिंचाई : यह बात सही है कि जैविक खाद कैमिकल खाद की जगह नहीं ले सकती, लेकिन किसान अगर दोनों का सही मात्रा में अपनी खेती में इस्तेमाल करते हैं, तो माली फायदे के साथ में पानी भी दूषित नहीं हो सकेगा.

जैविक खाद का इस्तेमाल करना किसानों के लिए हितकारी ही नहीं, लाभकारी भी होगा. उष्णकटिबंधीय इलाकों में पहले 35 दिनों तक हर 7वें दिन, 36 से 110 दिनों के दौरान हर 10वें दिन, बेहद बढ़वार की अवस्था के दौरान 7वें दिन और पूरी तरह पकने की अवस्था के दौरान हर 15 दिन बाद सिंचाई की जानी चाहिए. इन दोनों को बारिश होने के मुताबिक अनुकूलित करना पड़ता है. गन्ने की खेती में तकरीबन 30 से 40 सिंचाइयों की जरूरत पड़ती है.

कम पानी में कैसे हो खेती

गन्ना एक से अधिक पानी की जरूरत वाली फसल है. एक टन गन्ने के उत्पादन के लिए तकरीबन 250 टन पानी की जरूरत होती है. वैसे तो बिना उत्पादन में कमी लाए पानी की जरूरत को अपनेआप में कम नहीं किया जा सकता है, मगर सिंचाई के लिए पानी की जरूरत में कमी पानी को उस के स्रोत से पाइपलाइन के द्वारा खेत जड़ क्षेत्र तक ला कर रास्ते में होने वाले रिसाव के कारण नुकसान को रोक कर या फिर सूक्ष्म सिंचाई विधियों को अपना कर लाई जा सकती है.

जब पानी की कमी के हालात हों, तब हर दूसरे हफ्ते में पानी से सिंचाई की जा सकती है या फिर मल्च का प्रयोग कर के पानी की जरूरत में कमी लाई जा सकती है. सूखे के हालात में 2.5 फीसदी यूरिया, 2.5 फीसदी म्यूरेट औफ पोटाश के घोल को पाक्षिक अंतराल पर 3 से 4 बार छिड़काव कर उस के प्रभाव को कम किया जा सकता है.

पानी के सही प्रयोग के लिए टपक सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त रखना बेहद जरूरी है. इस के लिए समयसमय पर पानी की नालियों के अंत के ढक्कन खोल कर इन में से पानी को तेजी से बह कर साफ करें. टपक प्रणाली के अंदर की सतह पर जमे पदार्थ को हटाने के लिए 30 फीसदी हाइड्रोक्लोरिक एसिड को इंजैक्ट करें. जब सिंचाई के पानी का स्रोत नदी, नहर और खुला कुआं वगैरह हों, तो व्यक्ति कवच वगैरह के लिए 1 पीपीएम ब्लीचिंग पाउडर से  साफ करना चाहिए. एसिड उपचार और साफ करते समय यह पानी की क्वालिटी पर निर्भर करती है.

Sugarcane

उन्नत प्रजातियां

जल्दी पकने वाली प्रजातियां : कोषा 681, कोषा 8436, कोषा 90265, कोषा 88230, कोषा 95435, कोषा 95255, कोषा 96258, कोसे 91232, कोसे 95436, कोएच 92201, कोजा 64 प्रमुख हैं.

मध्यम और देर से पकने वाली प्रजातियां : कोशा 7918, कोशा 8432, कोशा 767, कोशा 8439, कोशा 88216, कोशा 90269, कोशा 92263, कोशा 87220, कोशा 87222, कोशा 97225, कोपंत 84212, कोपंत 90223, यूपी 22, यूपी 9529, कोसे 92234, कोसे 91423, कोसे 95427, कोसे 96436 खास हैं.

सीमित सिंचित इलाकों के लिए : कोशा 767, कोशा 802, कोशा 7918, कोशा 8118 व यूपी 5 वगैरह हैं.

जलभराव वाले इलाकों के लिए : कोशा 767, कोशा 8001, कोशा 8016, कोशा 8118, कोशा 8099, कोशा 8206, कोशा 8207, कोशा 8119, कोशा 95255, कोसे 96436, यूपी 1, कोशा 9530 वगैरह हैं.

ऊसर जमीन के लिए : को 1158, कोशा 767 खास हैं.

गन्ने के साथ लें दूसरी फसल भी

गन्ने की शुद्ध फसल में गन्ने की बोआई 75 सैंटीमीटर और आलू, राई, चना, सरसों के साथ मिलवां फसल में 90 सैंटीमीटर की दूरी पर बोना चाहिए. एक आंख का टुकड़ा लगाने पर प्रति एकड़ 10 क्विंटल बीज लगेगा. 2 आंख के टुकड़े लगाने पर 20 क्विंटल बीज लगेगा.

पौलीबैग यानी पौलीथिन के उपयोग से बीज की बचत होगी और ज्यादा उत्पादन मिलेगा. बीजोपचार के बाद ही बीज बोएं. 205 ग्राम अर्टन या 500 ग्राम इक्वल को 100 लिटर पानी में घोल कर उस में तकरीबन 25 क्विंटल गन्ने के टुकड़े उपचारित किए जा सकते हैं.

जैविक उपचार प्रति एकड़ 1 लिटर एसीटोबैक्टर प्लस 1 लिटर पीएसबी का 100 लिटर पानी में घोल बना कर रासायनिक बीजोपचार के बाद गन्ने के टुकड़ों को सूखने के बाद सही घोल में 30 मिनट तक डुबो कर उपचार करने के बाद ही बोआई करें.

गन्ने को भी दें खादउर्वरक : गन्ने में खादउर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी जांच के आधार पर जरूरत के मुताबिक पोषक तत्त्वों का उपयोग कर के उर्वरक खर्च में बचत कर सकते हैं. अगर मिट्टी जांच न हुई हो तो बोआई के समय प्रति हेक्टेयर 60 से 75 किलोग्राम नाइट्रोजन, 70 से 80 किलोग्राम फास्फोरस, 20 से 40 किलोग्राम पोटाश व 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का इस्तेमाल करना चाहिए.

गन्ने की लगाई तकरीबन 10 फीसदी फसल खराब होने की मुख्य वजह फसल को दी गई खाद के साथ पोटाश की सही मात्रा का उपलब्ध न होना है.

शोधों से पता चला है कि गन्ने की खेती में अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए प्रति एकड़ तकरीबन 33 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है, इसलिए गन्ने की खेती में पोटाश का प्रयोग जरूर करें.