तुलसी को ठंड में सूखने से कैसे बचाएं

तुलसी लैमिएसी परिवार की एक महत्वपूर्ण सालाना और बारहमासी सुगंधित एवं औषधि जड़ीबूटी है. इस के तेल का इस्तेमाल स्वाद, सुगंध, भोजन और पारंपरिक दवाओं के लिए किया जाता है. आमतौर पर देखा गया है कि सर्दियों का मौसम आते ही तुलसी में कई प्रकार के बदलाव होने लगते हैं. इस मौसम में तुलसी के पौधे को उचित देखभाल की जरूरत होती है. तुलसी के पौधे को सूखने से बचाने के लिए हम कुछ आसान तरीके अपना सकते हैं, जो कि निम्नलिखित हैं:

तुलसी को ठंड से बचाने के कुछ उपाय

मिट्टी का अनुपात

तुलसी का पौधा रोपते समय मिट्टी के साथ बालू का उपयोग भी करना चाहिए. जिस गमले में तुलसी का पौधा लगा रहे हैं, उस में पानी के निकलने के लिए सही जगह होनी चाहिए, ताकि पौधा जड़ से गीला हो कर खराब न हो जाए. मिट्टी के साथ मौरंग की एक लेयर गमले में डालें. दोनों का अनुपात 50ः50 फीसदी रखें. पौधा रोपने के लिए जैविक खाद के साथ उपजाऊ मिट्टी का इस्तेमाल कर सकते हैं.

पानी का अनुपात

किसी भी पौधे को हराभरा रखने के लिए धूप, खाद और पानी तीनों की जरूरत होती है. तुलसी के पौधे में जरूरत से ज्यादा पानी न दें. वजह, पानी की अधिकता के कारण पौधा खराब हो सकता है. इसलिए अगर रोज पानी देते हैं, तो मिट्टी सूखने के बाद ही पानी दें. मिट्टी की निराईगुड़ाई करते रहें, ताकि पौधे को उचित औक्सीजन मिलता रहे.

पानी का तापमान

सर्दियों में ठंडे पानी से नहाने में लोगों को कंपन सी महसूस होती है और ठंडा पानी शरीर को नीला कर देता है. पौधे बहुत नाजुक होते हैं. अधिक ठंडा पानी पौधे को भी नुकसान पहुंचाता है, इसलिए तुलसी के पौधे को सर्दियों में पानी दे रहे हैं, तो ताजा पानी का उपयोग करें. ताजा पानी में कुछ गरमाहट होती है. चाहें तो पानी में कच्चा दूध मिला कर तुलसी को सींच सकते हैं. यह पेड़ को हराभरा रखने में मदद करता है.

ओस से बचाएं

सर्दियों में रात के समय गिरने वाली ओस पौधे को नुकसान पहुंचाती है. इसलिए शाम के समय जब तापमान कम होने लगे और ओस गिरने लगे, तो तुलसी के पौधे को सूती कपड़े से ढक कर रखें. चाहें तो पौधे को खुले आसमान में रखने के बजाय किसी शेड के नीचे भी रख सकते हैं.

Tulsiतुलसी को ठंड से बचाने के वैज्ञानिक उपाय

तुलसी को ठंड में सूखने से बचाने के लिए कुछ संस्थाओं ने नई प्रजातियां विकसित की हैं, जो सालाना एवं बहुवर्षीय प्रजातियों के संकरण से बनाई गई हैं.

सीएसआईआर सीमैप, लखनऊ ने नई जारी की गई अंतर्विशिष्ट संकर किस्म सीआईएम-शिशिर, जो ओसीमम बेसिलिकम और ओसीमम किलिमैंड्सचेरिकम के बीच संकरण से पैदा हुई है, एक मल्टीकट, लौजिंग प्रतिरोधी, ठंड में सहनशील, लिनालूल समृद्ध किस्म के साथ उच्च आवश्यक तेल उपज देने वाली किस्म होने का दावा करती है.

सुनीता सिंह धवन, पंखुरी गुप्ता, राज किशोरी लाल, स्मिता सिंह और दूसरे वैज्ञानिकों के सहयोग से बनी इस प्रजाति की मुख्य विशेषता यह है कि इस का तना बैंगनी व हरा रंग का होता है. इस में अन्य ओसीमम बेसिलिकम किस्मों की तुलना में सर्दियों के मौसम में बेहतर लाभ होता है, जो ठंड सहन कर सकती है.
हम यही कह सकते हैं कि जो हमारी पुरानी सोच थी कि तुलसी ठंड में खराब हो जाती है, अब हम तुलसी को ठंड के मौसम में भी हराभरा रख सकते हैं.

– डा. स्मिता सिंह, असिस्टेंट प्रोफैसर, पादप प्रजनन, श्री लाल बहादुर शास्त्री डिगरी कालेज, गोंडा

– राघवेंद्र विक्रम सिंह, वैज्ञानिक, कृषि प्रसार, कृषि विज्ञान केंद्र, संत कबीरनगर

गरमी में भिंडी की खेती ज्यादा लाभकारी

भिंडी के हरे, मुलायम फलों का प्रयोग सब्जी, सूप फ्राई और दूसरे रूप में किया जाता है. पौधे का तना व जड़, गुड़ एवं खांड़ बनाते समय रस को साफ करने में प्रयोग किया जाता है. भिंडी गर्मी और वर्षा दोनों मौसम में उगाई जाती है. इस के लिए पर्याप्त जीवांश एवं उचित जल निकास वाली दोमट भूमि उपयुक्त रहती है.

खेत की तैयारी

3 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद प्रति कट्ठा एक हेक्टेयर का 80वां भाग) अर्थात 125 वर्गमीटर के हिसाब से बोआई के 15-20 दिन पहले खेत में मिला देना चाहिए. मिट्टी की जांच के उपरांत ही उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए.

अधिक उपज प्राप्त करने के लिए यूरिया 1.10 किलोग्राम, सिंगल सुपर फास्फेट 3.00 किलोग्राम और म्यूरेट औफ पोटाश 800 ग्राम मात्रा बोआई के पूर्व खेत में मिला देना चाहिए. आधाआधा किलोग्राम यूरिया 2 बार बोआई के 30-40 दिन के अंतराल पर सिंचाई के बाद देना लाभदायक है.

बोआई

जायद (ग्रीष्म/गरमी) में फरवरी से मार्च माह तक और खरीफ (बरसात) के लिए जून से 15 जुलाई माह तक बोआई की जाती है.

बोआई से पहले बीजों को पानी मे 12 घंटे भिगो कर बोना ज्यादा लाभप्रद है. गरमी में 250 ग्राम और वर्षा में 150 ग्राम बीज प्रति विश्वा/कट्ठा में जरूरत पड़ती है. समतल क्यारियों में गरमी में कतारों से कतारों की आपसी दूरी 30 सैंटीमीटर और पौधों से पौधों की दूरी 15-20 सैंटीमीटर और वर्षा में 45-50 सैंटीमीटर कतार से कतार और पौधे से पौधे की दूरी 30 सैंटीमीटर पर रखनी चाहिए. 2 सैंटीमीटर की गहराई पर बोआई करनी चाहिए.

खास किस्में

भिंडी की किस्मों में काशी सातधारी,काशी क्रांति, काशी विभूति, काशी प्रगति, अरका अनामिका , काशी लालिमा आदि प्रमुख हैं. सभी किस्में 40-45 दिन में फल देने लगती हैं.

सिंचाई

खरीफ की फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन बारिश न होने पर जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. गरमी में सप्ताह में एक बार सिंचाई करने की जरूरत होती है. खेत में सदैव नमी रहना चाहिए. देर से सिंचाई करने पर फल जल्दी सख्त हो जाते हैं और पौधै व फल की बढ़वार कम होती है.

खरपतवार और कीट व बीमारी की रोकथाम

खरपतवार को नष्ट करने के लिए गुड़ाई करें. कीट व बीमारियों का भी ध्यान रखें. भिंडी में मुख्य रूप से बहुत छोटेछोटे महीन कीटों में से माहू, जैसिड, सफेद मक्खी एवं थ्रिप्स का प्रकोप होता है. इन सभी कीटों के प्रबंधन के लिए पीला स्टीकर का प्रयोग करें या 40 ग्राम नीम गिरी एवं 1 मिली इंडोट्रान (चिपकने वाला पदार्थ) प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. उन्नत तकनीक का खेती में समावेश करने पर प्रति कट्ठा (एक हेक्टेयर का 80वां भाग ) 120-150 किलोग्राम तक उपज प्राप्त कर सकते हैं.

सरसों की फसल को कीड़ों से बचाएं

सरसों भारत की एक अहम तिलहनी फसल है. यह फसल ज्यादातर पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में उगाई जाती है. राजस्थान में सरसों आमतौर पर सभी जिलों में पैदा की जाती है, लेकिन जोधपुर, अलवर, भरतपुर, सवाई माधोपुर, पाली, जालौर व श्रीगंगानगर जिलों में इस की फसल बडे़ पैमाने में ली जाती है.

सरसों को अनिश्चित फसल माना जाता है, क्योंकि यह कीटनाशक जीवों, अंगमारी रोगों और जलवायु के हालात से प्रभावित होती है. इस पर कई तरह की कवक यानी फफूंदी और कीट हमला करते हैं. ये कवक और कीडे़ पूरी फसल को खराब कर सकते हैं.

सरसों की फसल में दोमट औैर हलकी मिट्टी मुफीद होती है औैर इस की प्रति हेक्टेयर इलाके में बोआई के लिए 4 से 5 किलोग्राम बीज सही रहता है. सरसों में पौध संरक्षण के लिए बोआई के पहले बीजों को मैंकोजेब 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम के हिसाब से उपचारित कर लेना फायदेमंद रहता है.

बीजों की बोआई आमतौर पर सितंबर से अक्तूबर माह के अंत तक कर देनी चाहिए, क्योंकि देरी से बोआई करने पर उपज में भारी कमी के साथ चैंपा व सफेद रोली का प्रकोप भी अधिक होता है.

बोआई के 20-25 दिन बाद निराईगुड़ाई कर के खरपतवार को खत्म करना सही रहता है. इन सभी उपचारों से प्राथमिक तौर पर सरसों की फसल को कीड़ों से बचाया जा सकता है, परंतु फिर भी इलाके व जलवायु के आधार पर कई तरह के कवक और कीडे़ सरसों की फसल पर हमला करते हैं, जिन का उपचार बहुत जरूरी है.

सरसों की फसल पर कई प्रकार के कीट हमला करते हैं. आरा मक्खी (मस्टर्ड या फ्लाई) और चित्रित मत्कुण (पेंटेड बग) सरसों की फसल में अंकुरण के 7 से 10 दिन में ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं.

यह कीट, जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘एथोलिया प्रोक्सिया’ कहते हैं, पत्ती पर हमला कर इस के पूरे हिस्सों में छेद कर देता है और धीरेधीरे पत्तियों में महज शिराएं यानी अंदरूनी ढांचा ही बचा रहता है.

इस की रोकथाम करने के लिए मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी) या मैलाथियान (5 फीसदी) या कार्बारिल (5 फीसदी) चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सुबह या शाम को छिड़कना फायदेमंद रहता है.

सरसों पर लगने वाला दूसरा कीट डायमंड बैक मोथ या हीरक तितली है. इस की रोकथाम के लिए क्विनालफास (25 ईसी) एक लिटर प्रति हेक्टेयर के अनुसार छिड़कना फायदेमंद रहता है.

सरसों की फसल को ज्यादा प्रभावित करने वाला कीट मोयला (एफिड्स) है, जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘लैपाफिस हरिसीमी’ कहते हैं. इस कीट के निम्फ और व्यस्क दोनों ही पत्ती, तना व फली सहित पूरे पादप पर हमला कर उस का रस चूसते हैं. इस कीट के हमले से धीरेधीरे पौधा सूख जाता है और कभीकभी पूरी फसल ही खराब हो जाती है.

मोयला कीट की उचित रोकथाम के लिए मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी) या कार्बारिल (5 फीसदी) या मैलाथियान (5 फीसदी) चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है. इस के स्थान पर मैलाथियान (50 ईसी) 1250 मिलीलिटर या फास्फोमिडान (85 डब्ल्यूएससी) 250 मिलीलिटर या डाईमिथोएट (30 ईसी) 875 मिलीलिटर या फार्मोथियान (25 ईसी) प्रति लिटर या कार्बारिल (50 फीसदी) घुलनशील ढाई किलोग्राम या इंडोसल्फान (35 ईसी) प्रति 250 मिलीलिटर या क्लोरोपायरीफास (प्रति 20 ईसी) 600 मिलीलिटर पानी में मिला कर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है.

सरसों पर दीमक और जमीन के दूसरे कीडे़ जैसे लीफ माइनर भी हमला करते हैं. इस के मैगट पत्ती को खा जाते हैं, जबकि दीमक पूरे पौधे को खोखला कर देती है.

इस की रोकथाम करने के लिए क्लोरोपायरीफास (20 ईसी) 600 मिलीलिटर पानी में मिला कर खेत में बिखेर कर जुताई करना फायदेमंद रहता है.

फसलों को कीट रहित रखने के लिए खड़ी फसल में अंकुरण के 7 से 10 दिन बाद कीटनाशकों का पहला छिड़काव और दिसंबर के अंतिम सप्ताह में दूसरा छिड़काव करना चाहिए.

आमतौर पर एफिड्स दिसंबर के अंतिम सप्ताह में हमला शुरू कर देते हैं. इस तरह के छिड़काव में मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी) या मैलाथियान (5 फीसदी) या कार्बारिल (5 फीसदी) चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सुबह या शाम के समय छिड़काव करना फायदेमंद रहता है.

इस के स्थान पर मैलाथियान (50 ईसी) प्रति 250 मिलीलिटर या डाईमिथोएट (30 ईसी) 875 मिलीलिटर या फास्फोमिडान (85 डब्ल्यूएससी) 250 मिलीलिटर या क्लोरोपायरीफास (20 ईसी) 600 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर पानी में मिला कर छिड़काव करना भी सही रहता है.

दूसरे छिड़काव के 15 दिन बाद या फूल आने के बाद मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी) या कार्बारिल (5 फीसदी) या मैलाथियान (5 फीसदी) चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के अनुसार छिड़़काव करना फायदेमंद रहता है. इस के स्थान पर मैलाथियान (50 ईसी) प्रति 250 मिलीलिटर या डाईमिथोएट (30 ईसी) 875 मिलीलिटर या फिर फार्मोथियान (25 ईसी) प्रति लिटर या कार्बारिल 50 फीसदी घुलनशील चूर्ण 2.5 किलोग्राम या फास्फोमिडोन (85 डब्ल्यूएससी) 250 एमएल या इंडोसल्फान (35 ईसी) 1.25 लिटर या क्लोरोपायरीफास (20 ईसी) 600 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर पानी में मिला कर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है.

यदि तीसरे छिड़काव के बाद भी एफिड्स (चेंपा) का प्रकोप रहे, तो एक बार फिर से छिड़काव करना सही रहता है. एफिड्स के अच्छे नियंत्रण के लिए 10 कतारों के बाद चने की 2 कतार बोना फायदेमंद रहता है और इस से छिड़काव में भी सुविधा रहती है.

सरसों पर अनेक प्रकार की फफूंदी भी रोग फैलाती है, जिस से बहुत नुकसान होता है. ‘आल्टरनेरिया ब्रेसिकी’ नामक कवक से अंगमारी रोग लगता है. इस रोग में पत्तियों पर भूरी चित्तियां दिखाई देती हैं, जो बाद में काली पड़ जाती हैं.

इसी तरह ‘एल्बूगो कैंडिडा’ नामक फफूंद से भी श्वेत किट्ट रोग होता है. सरसों में तिलासिता (डाउनी मिल्ड्यू), झुलसा  (ब्लाइट) और सफेद रोली का भी बहुत प्रकोप रहता है.

इन रोगों में लक्षण प्रकट होते ही 2 किग्रा मैंकोजेब या फिर ढाई किलोग्राम जिनेब प्रति हेक्टेयर पानी में मिला कर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है. रोग के अधिक होने पर 20 दिन बाद फिर छिड़काव करना अच्छा रहता है.

सरसों की फसल में छाछया रोग के लक्षण दिखाई देने पर 20 किलोग्राम गंधक का चूर्ण प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करना सही रहता है. इस के स्थान पर ढाई किलोग्राम घुलनशील गंधक (80 फीसदी) या 750 मिलीलिटर डाईनोकेप (कैराथेन 30 ईसी) पानी में मिला कर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है. कुछ खरपतवार भी सरसों की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं, जिन्हें उखाड़ कर नष्ट करना अच्छा रहता है.

सरसों की फसल में कीट नियंत्रण के लिए कीट प्रतिरोधी और रोग प्रतिरोधी किस्मों की बोआई करना काफी फायदेमंद रहता है. पीआर 15 (क्रांति) तुलासिता रोग और सफेद रोली रोधक किस्म है.

इसी तरह मोयला कीट के प्रकोप को कम करने या उस से बचाव के लिए पीआर 45 और आरएच 30 किस्में द्वारा खड़ी फसल में छिड़काव द्वारा खरपतवारों को खत्म कर अच्छी पैदावार ली जा सकती है. साथ ही, खतरनाक कीड़ों से फसल की हिफाजत भी की जा सकती है.

दलहन आत्मनिर्भरता के लिए पोर्टल लौंच

नई दिल्ली: 4 जनवरी, 2024. केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने विज्ञान भवन, नई दिल्ली में एक समारोह में तूर के किसानों के पंजीकरण, खरीद, भुगतान के लिए ई-समृद्धि व एक अन्य पोर्टल लौंच किया. भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन महासंघ (नेफेड) और भारतीय राष्ट्रीय उपभोक्ता सहकारिता संघ (एनसीसीएफ) द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के अवसर पर दलहन में आत्मनिर्भरता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी भी आयोजित हुई.

यहां केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण व जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा, केंद्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चैबे, सहकारिता राज्यमंत्री बीएल वर्मा विशेष अतिथि थे. इस कार्यक्रम में किसान एवं पैक्स, एफपीओ, सहकारी समितियों के प्रतिनिधि बड़ी संख्या में मौजूद थे.

मुख्य अतिथि केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने कहा कि पोर्टल के जरीए ऐसी शुरुआत की है, जिस से नेफेड व एनसीसीएफ के माध्यम से किसानों को एडवांस में रजिस्ट्रेशन कर तूर दाल की बिक्री में सुविधा होगी, उन्हें एमएसपी या फिर इस से अधिक बाजार मूल्य का डीबीटी से भुगतान हो सकेगा. इस शुरुआत से आने वाले दिनों में किसानों की समृद्धि, दलहन उत्पादन में देश की आत्मनिर्भरता और पोषण अभियान को भी मजबूती मिलती दिखेगी. साथ ही, क्राप पैटर्न चेंजिंग के अभियान में गति आएगी और भूमि सुधार एवं जल संरक्षण के क्षेत्रों में भी बदलाव आएगा. आज की शुरुआत आने वाले दिनों में कृषि क्षेत्र में परिवर्तन लाने वाली है.

उन्होंने आगे कहा कि दलहन के क्षेत्र में देश आज आत्मनिर्भर नहीं है, लेकिन हम ने मूंग व चने में आत्मनिर्भरता प्राप्त की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दलहन उत्पादक किसानों पर बड़ी जिम्मेदारी डाली है कि वर्ष 2027 तक दलहन के क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर हो.

उन्होंने विश्वास जताया कि किसानों के सहयोग से दिसंबर, 2027 से पहले दलहन उत्पादन के क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर बन जाएगा और देश को एक किलोग्राम दाल भी आयात नहीं करनी पड़ेगी. दलहन में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सहकारिता मंत्रालय और कृषि मंत्रालय सहित अन्य पक्षों की कई बैठकें हुई हैं, जिन में लक्ष्य हासिल करने की राह में आने वाली बाधाओं पर चर्चा की गई है.

उन्होंने यह भी कहा कि कई बार दलहन उत्पादक किसानों को सटोरियों या किसी अन्य स्थिति के कारण उचित दाम नहीं मिलते थे, जिस से उन्हें बड़ा नुकसान होता था. इस वजह से वे किसान दलहन की खेती करना पसंद नहीं करते थे. हम ने तय कर लिया है कि जो किसान उत्पादन करने से पूर्व ही पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन कराएगा, उस की दलहन को एमएसपी पर खरीद लिया जाएगा. इस पोर्टल पर रजिस्टर करने के बाद किसानों के दोनों हाथों में लड्डू होंगे. फसल आने पर अगर दाम एमएसपी से ज्यादा होगा, तो उस की एवरेज निकाल कर भी किसान से ज्यादा मूल्य पर दलहन खरीदने का एक वैज्ञानिक फार्मूला बनाया गया है और इस से किसानों के साथ कभी नाइंसाफी नहीं होगी.

मंत्री अमित शाह ने किसानों से अपील की कि वे पंजीयन करें, प्रधानमंत्री मोदी की गारंटी है कि सरकार उन की दलहन खरीदेगी, उन्हें बेचने के लिए भटकना नहीं पड़ेगा. साथ ही, उन्होंने विश्वास जताया कि देश को आत्मनिर्भर बनाने में किसान कोई कसर नहीं छोड़ेगा. देश का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी शाकाहारी है, जिन के लिए प्रोटीन का बहुत महत्व है, जिस का दलहन प्रमुख स्रोत है. कुपोषण के खिलाफ देश की लड़ाई में भी दलहन उत्पादन का बहुत महत्व है. भूमि सुधार के लिए भी दलहन महत्वपूर्ण फसल है, क्योंकि इस की खेती से भूमि की गुणवत्ता बढ़ती है. भूजल स्तर को बनाए रखना और बढ़ाना है, तो ऐसी फसलों का चयन करना होगा, जिन के उत्पादन में पानी कम इस्तेमाल हो. दलहन एक प्रकार से फर्टिलाइजर का एक लघु कारखाना आप के खेत में ही लगा देती है.

उन्होंने आगे कहा कि वेयरहाउसिंग एजेंसियों के साथ इस एप का रियल टाइम बेसिस पर एकीकरण करने का प्रयास किया जा रहा है. आने वाले दिनों में वेयरहाउसिंग का बहुत बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के कारण कोआपरेटिव सैक्टर में आने वाला है. हर पैक्स एक बड़ा वेयरहाउस बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, इस से फसलों को दूर भेजने की समस्या का समाधान हो जाएगा.

उन्होंने किसानों से दलहन अपनाने व देश को 1 जनवरी, 2028 से पहले दलहन में आत्मनिर्भर बनाने की अपील की, ताकि देश को 1 किलोग्राम दलहन भी इंपोर्ट न करना पड़े. उन्होंने यह भी कहा कि बीते 9 साल में प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में खाद्यान्न उत्पादन में बहुत बड़ा बदलाव आया है. वर्ष 2013-14 में खाद्यान्न उत्पादन कुल 265 मिलियन टन था और 2022-23 में यह बढ़ कर 330 मिलियन टन तक पहुंच चुका है. आजादी के बाद के 75 साल में किसी एक दशक का विश्लेषण करें, तो सब से बड़ी बढ़ोतरी प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में देश के किसानों ने की है.

उन्होंने इस दौरान दलहन के उत्पादन में बहुत बड़ी बढ़ोतरी की बात कही, मगर 3 दलहनों में हम आत्मनिर्भर नहीं है और उस में हमें आत्मनिर्भर होना है.

मंत्री अमित शाह ने कहा कि प्रोडक्विटी बढ़ाने के लिए अच्छे बीज उत्पादन के लिए एक कोआपरेटिव संस्था बनाई गई है, कुछ ही दिनों में हम दलहन और तिलहन के बीजों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए अपना प्रोजैक्ट सामने रखेंगे. हम परंपरागत बीजों का संरक्षण और सवंर्धन भी करेंगे. उत्पादकता बढ़ाने हम ने कोआपरेटिव आधार पर बहुराज्यीय बीज संशोधन समिति बनाई है. उन्होंने अपील की कि सभी पैक्स समिति में रजिस्टर करें.

उन्होंने यह भी कहा कि हमें इथेनाल का उत्पादन भी बढ़ाना है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पैट्रोल के साथ 20 फीसदी इथेनाल मिलाने का लक्ष्य रखा है. अगर 20 फीसदी इथेनाल मिलाना है, तो हमें इस के लिए लाखों टन इथेनाल का उत्पादन करना है. नेफेड व एनसीसीएफ इसी पैटर्न पर आने वाले दिनों में मक्का का रजिस्ट्रेशन चालू करने वाले हैं. जो किसान मक्का बोएगा, उस के लिए सीधा इथेनाल बनाने वाली फैक्टरी के साथ एमएसपी पर मक्का बेचने की व्यवस्था कर देंगे, जिस से उन का शोषण नहीं होगा और पैसा सीधा बैंक खाते में जाएगा.

उन्होंने आगे कहा कि इस से आप का खेत मक्का उगाने वाला नहीं, बल्कि पैट्रोल बनाने वाला कुआं बन जाएगा. देश के पैट्रोल के लिए इंपोर्ट की फौरेन करैंसी को बचाने का काम किसानों को करना चाहिए. उन्होंने देशभर के किसानों से अपील की है कि हम दलहन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनें और पोषण अभियान को भी आगे बढ़ाएं.

Farmingकेंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में, किसान हित में अनेक ठोस कदम उठाते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं. केंद्र सरकार विभिन्न योजनाओं व कार्यक्रमों द्वारा कृषि क्षेत्र को सतत बढ़ावा दे रही है, जिन में दलहन में देश के आत्मनिर्भर होने का लक्ष्य अहम है, जिस पर कृषि मंत्रालय भी तेजी से काम कर रहा है.

उन्होंने कहा कि दलहन की क्षमता खाद्य एवं पोषण सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता का समाधान करने में मदद करती है, जिसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा साल 2016 को अंतर्राष्ट्रीय दलहन वर्ष की घोषणा के माध्यम से भी स्वीकार किया गया है. दलहन स्मार्ट खाद्य हैं, क्योंकि ये भारत में फूड बास्केट व प्रोटीन का महत्वपूर्ण स्रोत हैं. दालें पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करती हैं. दलहन कम पानी वाली फसलें होती हैं और सूखे या वर्षा सिंचित वाले क्षेत्रों में उगाई जा सकती हैं, मृदा नाइट्रोजन को ठीक कर के उर्वरता सुधारने में मदद करती हैं. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, तमिलनाडु व ओडिशा दलहन उत्पादक राज्य हैं, जो देश में 96 फीसदी क्षेत्रफल में दलहन का उत्पादन करते हैं.

उन्होंने आगे कहा कि यह गर्व की बात है कि भारत पूरे विश्व में दलहन का सब से बड़ा उत्पादक है, प्रधानमंत्री इसे प्रोत्साहित करते हैं. वर्ष 2014 के बाद से दलहन उत्पादन में वृद्धि हो रही है, वहीं इस का आयात पहले की तुलना में घटा है.

मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए कई पहल की हैं. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम)-दलहन को 28 राज्यों एवं जम्मू व कश्मीर और लद्दाख में कार्यान्विरत किया जा रहा है.

उन्होंने प्रसन्नता जताई कि 2 शीर्ष सहकारी संस्थाओं द्वारा ऐसा पोर्टल बनाया गया है, जहां किसान पंजीयन के पश्चात स्टाक ऐंट्री कर पाएंगे, स्टाक के वेयरहाउस पहुंचते ई-रसीद जारी होने पर किसानों को सीधा पेमेंट पोर्टल से बैंक खाते में होगा. पोर्टल को वेयरहाउसिंग एजेंसियों के साथ एकीकृत किया है, जो वास्तविक समय आधार पर स्टाक जमा निगरानी करने में सहायक होगा, जिस से समय पर पेमेंट होगा. इस प्रकार खरीदे स्टाक का उपयोग उपभोक्ताओं को भविष्य में अचानक मूल्य वृद्धि से राहत प्रदान करने के लिए किया जाएगा. स्टाक राज्य सरकारों को उन की पोषण व कल्याणकारी योजनाओं के तहत उपयोग के लिए भी उपलब्ध होगा.

कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि हम सब के सामूहिक प्रयास हमें ऐसे भविष्य की ओर ले जा रहे हैं, जहां भारत दाल उत्पादन में आत्मनिर्भर होगा. हम किसानों का समर्थन जारी रखें व कृषि आधार को मजबूत करते हुए अधिक समृद्ध और आत्मनिर्भर राष्ट्र की दिशा में काम करें. प्रधानमंत्री मोदी ने खूंटी, झारखंड से जो विकसित भारत संकल्प यात्रा प्रारंभ की है, उस के मूल में किसान ही हैं.

नेफेड के अध्यक्ष बिजेंद्र सिंह, एनसीसीएफ अध्यक्ष विशाल सिंह, केंद्रीय सहकारिता सचिव ज्ञानेश कुमार, उपभोक्ता मामलों के सचिव रोहित कुमार सिंह व कृषि सचिव मनोज आहूजा भी मौजूद थे. नेफेड के एमडी रितेश चैहान ने स्वागत भाषण दिया. एनसीसीएफ की एमडी ए. चंद्रा ने आभार माना.

लाभकारी भिंडी की खेती

सब्जियों का हमारे जीवन में खास स्थान है. भिंडी भारत में उगाई जाने वाली खास फसल है. इस में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण जैसे कैल्शियम, फास्फोरस के अलावा विटामिन ए, बी, सी, थाईमीन एवं रिबोप्लेविन भी पाया जाता है. इस में विटाविन ए व सी काफी मात्रा में पाया जाता है.

भिंडी की फसल में आयोडीन की मात्रा अधिक होती है. इस का फल कब्ज रोगी के लिए खास फायदेमंद होता है. इसे खासतौर से सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. यह कई रोगों में बहुत ही गुणकारी है. इस के अन्य भागों जैसे तना इत्यादि को भी इस्तेमाल किया जाता है.

सब्जियों में भिंडी का खास स्थान है, जिसे लोग लेडी फिंगर या ओकरा के नाम से भी जानते हैं. भारत का भिंडी उत्पादन में चीन के बाद दूसरा नंबर है. भारत में लगभग 3.25 लाख हेक्टेयर रकबे पर भिंडी की खेती की जाती है और 33.80 लाख टन प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है.

भिंडी की उत्पादकता 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. अन्य फसलों की तरह भिंडी में भी अनेक कीटों और बीमारियों का प्रकोप होता है, जो इस के उत्पादन और गुणवत्ता पर खराब असर डालते हैं. भिंडी की फसल को कीटों और रोगों से लगभग 40-50 फीसदी नुकसान उठाना पड़ता है. इस तरह यदि किसान नवीनतम विधि से भिंडी की खेती करेंगे, तो लाभ जरूर मिलेगा.

मिट्टी व खेत की तैयारी

भिंडी को पानी न जमा होने वाली हर तरह की भूमियों में उगाया जा सकता है. आमतौर से भूमि की पीएच मान 7.0 से 7.8 होना मुनासिब रहता है. खेत तैयार करने के लिए 2-3 बार जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. इस के बाद पाटा लगा कर खेत को एकसार कर लेना चाहिए. भिंडी की जड़ गहरी होने के कारण भूमि की 25-30 सैंटीमीटर गहरी जुताई करना फायदेमंद होता है.

आबोहवा : भिंडी के बेहतरीन उत्पादन के लिए लंबे, गरम एवं नमी की जरूरत होती है. इसे गरम नमी वाले रकबों में अच्छी तरह से उगाया जा सकता है. आमतौर से अच्छी बढ़वार के लिए 24-28 डिगरी सैल्सियस के बीच तापमान उत्तम होता है.

भिंडी के लिए लंबे समय का गरम व नम वातावरण बढि़या माना जाता है. आमतौर से बीज जमने के लिए 27-30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान मुनासिब होता है और 17 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान से कम पर बीज नहीं जमते हैं. यह रबी व खरीफ दोनों मौसमों में उगाई जाती है.

हाईब्रिड उन्नत किस्में : वर्षा विजय, उपहार एवं तुलसी, भिंडी नं.-10, डीवीआर-1, डीवीआर-2, डीवीआर-3 अथवा संकर नं.-152.

Bhindi

बीज की मात्रा व बोआई का तरीका

भिंडी की सिंचित दशा में 12 से 15 किलोग्राम और बिना सिंचाई की दशा में 8-10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. संकर किस्मों के लिए 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज काफी होता है. भिंडी के बीज सीधे खेत में ही बोए जाते हैं.

बारिश के मौसम में भिंडी के लिए कतार से कतार की दूरी 40-45 सैंटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 25-30 सैंटीमीटर का फासला रखना बेहतर होता है. गरमी के मौसम में भिंडी की बोआई कतारों में करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 25-30 सैंटीमीटर एवं कतारों में पौधे की दूरी 15-20 सैंटीमीटर का फासला रखना चाहिए. बीज की 2-3 सैंटीमीटर गहरी बोआई करनी चाहिए.

बोआई के पहले भिंडी के बीजों को 3 ग्राम थीरम, मेंकोजेब या कार्बंडाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

बोआई का समय

गरमी के मौसम में भिंडी की बोआई फरवरीमार्च महीने में और बारिश के मौसम में भिंडी की बोआई जूनजुलाई महीने में की जाती है. यदि भिंडी की फसल लगातार लेनी है, तो 3 सप्ताह के फासले पर फरवरी से जुलाई के बीच अलगअलग खेतों में भिंडी की बोआई की जा सकती है. इस से बढि़या उत्पादन मिलेगा.

खाद एवं उर्वरक

खेत की तैयारी के समय 200-250 क्विंटल अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट खेत में मिला देनी चाहिए. नाइट्रोजन 50 किलोग्राम (108 किलोग्राम यूरिया), फास्फोरस 50 किलोग्राम (312 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 50 किलोग्राम पोटाश (83 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश) आखिरी जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए. 50 किलोग्राम नाइट्रोजन (108 किलोग्राम यूरिया) बोआई के चार हफ्ते बाद खड़ी फसल में डालें. यदि फसल की बढ़वार ठीक न हो, तो 1 फीसदी यूरिया (10 ग्राम/ 1 लिटर पानी में) के 2-3 छिड़काव पैदावार बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं.

फूल आने की दशा में नाइट्रोजन की 50 किलोग्राम (108 किलोग्राम यूरिया) मात्रा कतारों में देनी चाहिए. पोषक तत्त्वों की मुनासिब मात्रा मिट्टी के नमूने की जांच रिपोर्ट पर निर्भर करती है.

निराई व गुड़ाई

भिंडी की समयसमय पर निराईगुड़ाई कर के खेत को खरपतवार से रहित रखना चाहिए. बोने के 15-20 दिन बाद पहली निराईगुड़ाई करना बहुत फायदेमंद होता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक खरपतवारनाशकों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

खरपतवारनाशी फ्लूक्लोरोलिन की 1 किलोग्राम या बेसालिन 1 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से मुनासिब नमी वाले खेत में बीज बोने के पहले मिलाने से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है. बोआई के 2 दिन बाद तक खेत में एलाक्लोर की 2.5 किलोग्राम या पेंडीमेथलीन 1.5 किलोग्राम अवयव की सक्रिय मात्रा प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करनी चाहिए.

सिंचाई

पहली सिंचाई जमने के बाद व पहली पत्ती निकलने के समय करनी चाहिए, वरना बीज के सड़ने का खतरा बना रहता है. भिंडी में डोलों के बीच डोल के आधे भाग से ज्यादा ऊंचाई पर पानी नहीं देना चाहिए. फल बनने के समय की दशा में नमी बने रहना जरूरी है, अन्यथा फलों में पकने से पहले ही रेशा बन जाता है, जिस से गुणवत्ता गिरती है.

बारिश के मौसम में ज्यादा पानी भरने पर पानी निकालने का इंतजाम करना चाहिए. गरमी के दिनों में 4-5 दिन के फासले पर हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

कटाई व उपज

भिंडी की फली तुड़ाई के लिए सीआईएई, भोपाल द्वारा विकसित ओकरा पोड पिकर यंत्र का इस्तेमाल करें. किस्म की गुणवत्ता के अनुसार 45-60 दिनों में फलों की तुड़ाई शुरू की जाती है एवं 4-5 दिनों के फासले पर रोज तुड़ाई की जानी चाहिए.

गरमी की भिंडी फसल में उत्पादन 60-70 क्विंटल व बारिश की फसल में 80-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है. भिंडी की तुड़ाई हर तीसरे या चौथे दिन जरूर करनी चाहिए. तोड़ने में थोड़ा भी अधिक समय हो जाने पर फल कड़ा हो जाता है.

 

फसलों में प्लास्टिक पलवार

आज के समय में सब्जी उत्पादक किसानों के सामने खरपतवार का उगना ही काफी लागत में वृद्धि कर देता है और उत्पादकता भी कम हो जाती है. इस से बचने के लिए किसानों को निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए, लेकिन अगर प्लास्टिक पलवार का उपयोग करते हैं, तो उत्पादकता में वृद्धि के साथ ही उत्पादन की गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है.

पहले के समय में किसान पलवार के रूप में कार्बनिक पदार्थ जैसे पुआल, पौधों की पत्तियां, फसलों के अवशेष, परंतु वर्तमान समय में इस की उपलब्धता न होने और लागत ज्यादा होने की वजह से प्लास्टिक पलवार का उपयोग एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है. यह आसानी से हर जगह पर उपलब्ध होने और एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने व लगाने में आसान होता है. इन सभी विशेषताओं के कारण आज कृषि में प्लास्टिक पलवार का उपयोग बढ़ रहा है.

मल्च (पलवार) लगाने की आवश्यकता 

परीक्षणों से पता चलता है कि फसलों में पलवार लगाने से सिंचाइयों की संख्या घट जाती है, खरपतवार कम होते हैं, पैदावार बढ़ती है व अन्य गुणों में भी बढ़ोतरी होती है. गृह वाटिका में भी पलवार का प्रयोग कर के उपरोक्त लाभ उठाए जा सकते हैं. विशेषकर उन गृह वाटिकाओं में, जहां ग्रीष्म काल में सिंचाई के साधन उपलब्ध न हों.

पलवार लगाने के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं :

* जमीन में उपलब्ध नमी को बचाने के लिए यदि क्यारियों में पलवार नहीं डाली गई, तो सूरज की तेज किरणें जमीन के सीधे संपर्क में आएंगी और नमी को तेजी से घटा देंगी.

* खरपतवारों की बढ़वार को रोकने के लिए पलवार समुचित मात्रा में डाली गई है, तो प्राय: खरपतवार में अंकुरण रुक जाता है.

* यदि कोई खरपतवार उगता भी है तो वह काफी कमजोर होता है. इस तरह पलवार के उपयोग में खरपतवार की समस्या से बहुत हद तक छुटकारा मिल सकता है.

* फलों को सड़ने से बचाने के लिए भी इस का प्रयोग किया जाता है. यदि फल जमीन के संपर्क में आते हैं, तो वे सड़ना शुरू कर देते हैं.

* यदि भूमि में पलवार बिछा दी जाए, तो फल जमीन के सीधे संपर्क में नहीं आ पाते और सड़ने से बच जाते हैं.

* अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए कुछ सब्जियों में पलवार के प्रयोग किए गए हैं और यह देखा गया है कि उपज और गुणवत्ता दोनों में बढ़ोतरी हुई हैं.

प्लास्टिक के प्रकार

पलवार अलगअलग रंगों जैसे काले, पारदर्शी, पीला, सिल्वर, लाल आदि उपलब्ध हैं. अधिकतर काली अथवा सिल्वर रंगों की प्लास्टिक पलवार मुख्य रूप से उपयोग में लाई जाती है.

प्लास्टिक पलवार का चयन

इस का चयन सब्जी फसलों की जरूरत के हिसाब से किया जाता है. सामान्य तौर पर 120 सैंटीमीटर चौड़ी प्लास्टिक पलवार का उपयोग अधिकतर किया जाता है, जिस से पलवार के उपरांत अन्य कृषि के काम सुगमतापूर्वक किए जा सकें.

पलवार की मोटाई

अलगअलग फसलों की जरूरत के मुताबिक दी गई मोटाई के पलवार का उपयोग करते हैं :

मोटाई (माइक्रोन में)       फसल अवधि

20-25                          वार्षिक/लघु अवधि

40-45                          द्विवार्षिक/मध्यम अवधि

50-100                        बहुवार्षिक/अधिक अवधि

पलवार को लगाना

पलवार को बोआई/रोपाई के पहले ही लगाना लाभदायक और आसान होता है. खेत के तैयार होने के उपरांत क्यारी बना कर पलवार लगा कर किनारेकिनारे से दबा दिया जाता है. इस के लिए श्रमिक के अपने ट्रैक्टर द्वारा पलवार लगाने वाली मशीन का भी उपयोग किया जाता है.

Farmingपलवार लगाते समय कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए :

* पलवार लगाने से पहले आवश्यक सभी खाद एवं उर्वरकों को भलीभांति खेत की तैयारी के समय मिलाने के उपरांत बैड बना कर ही पलवार बिछाना चाहिए.

* बीजों की बोआई अथवा पौधों की रोपाई पलवार में बने छिद्रों में सीधे करनी चाहिए.

* पलवार लगाने के उपरांत जरूरत के मुताबिक (पौधे के प्रकार के आधार पर) की दूरी पर ग्लास की सहायता से भी छिद्र बनाया जा सकता है.

* टपक (ड्रिप) सिंचाई पद्धति है, तो लेटरल को पलवार बिछाने के पहले बनी हुई क्यारियों पर रखा जाता है, जिस से सिंचाई एवं पोषक तत्त्वों का समुचित व्यवहार किया जा सके.

पलवार को हटाना/निस्तारण करना

फसलों से उत्पादन लेने के उपरांत खेत से निकाल कर सुरक्षित रखा जा सकता है पुन: उपयोग के लिए, परंतु एक फसल लेने के उपरांत दूसरी फसल भी ली जा सकती है.

फसलों की कटाई के बाद अगर पलवार फट गई है, तो उसे खेत से निकाल लेना चाहिए, क्योंकि प्लास्टिक पलवार खेत में अपघटित नहीं होती है, जिस से प्रदूषण की समस्या बनी रहती है.

सर्दियों में खेती का रखें ख्याल

इस मौसम की खास फसल गेहूं है. ठंड व पाले का प्रकोप भी  में चरम पर होता है. इस समय गेहूं फसल पर सब से ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है. 25 से 30 दिन के अंतर पर गेहूं में सिंचाई करते रहें. इस के अलावा खरपतवारों को भी समयसमय पर निकालते रहना चाहिए.

जौ की फसल का भी मुआयना करें. सिंचाई के अलावा जौ के खेतों की निराईगुड़ाई करना भी जरूरी है, ताकि तमाम खरपतवारों से नजात मिल जाए.

सरसों के खेतों की निराईगुड़ाई करें. अगर पौधों में फूल व फलियां आ रही हों, तो सिंचाई करना न भूलें. राई व सरसों की फसलों पर इस दौरान बालदार सूंड़ी का हमला हो सकता है. इस की रोकथाम के लिए उचित कीटनाशक दवा का छिड़काव करें. सरसों की फसल में इस समय चेंपा का भी प्रकोप होता है. इस की उचित तरीके से रोकथाम करें.

इस माह सरसों की फसल में फलियां बनने लगती हैं, इसलिए खेत में नमी जरूरी है. नमी बनाए रखने के लिए सिंचाई जरूर करें. इस से दाने मोटे और ज्यादा लगेंगे.

आलू की अगेती फसल जनवरी माह में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. जब पत्तियां व तने पीले पड़ने लगें, तो समझ लें कि आलू की फसल तैयार हो गई है.

मजदूरों से या आलू खुदाई मशीन पोेटैटो डिगर से भी आलू की खुदाई कर सकते हैं. इस के बाद आलू की ग्रेडिंग भी कर सकते हैं. आलू के ढेर को पुआल वगैरह से ढक कर रखना चाहिए, वरना हवापानी के संपर्क में आने पर आलू हरा हो जाता है.

चने व मटर के खेतों में फूल आने से पहले सिंचाई करें. ध्यान रखें कि इन फसलों में फूल बनने के दौरान सिंचाई करना मुनासिब नहीं होता. जब फूल पूरी तरह से आ चुके हों, तब फिर से सिंचाई करें.

 

Farming

चारा फसल बरसीम, रिजका व जई की हर कटाई के बाद सिंचाई करते रहें. इस से बढ़वार अच्छी होगी और उम्दा किस्म का चारा मिलता रहेगा. जई में कटाई के बाद यूरिया भी डालें.

फूलगोभी, पत्तागोभी व गांठगोभी इस समय तैयार हो चुकी होती है. अच्छी तरह से कटाईछंटाई कर के मंडी में भेजें व आगे के लिए बीज बनाने के लिए सेहतमंद पौधों का चुनाव करते रहें. इन्हें सुरक्षित रखें, ताकि उन से बीज भी तैयार किया जा सके.

मैदानी इलाकों में जनवरी माह के अंत तक फ्रैंचबीन बोई जा सकती है. झाड़ीनुमा किस्म जैसे पूसा सरवती के 35 किलोग्राम बीज को 2-2 फुट की लाइनों में और 8 इंच की दूरी पर पौधों को रोपें. लंबी ऊंची किस्म हेमलता के 15 किलोग्राम बीज को 3-3 फुट की लाइनों में और 1 फुट की दूरी पर पौधे रोपें.

पालक और मैथी की हर 15-20 दिन बाद कटाई करते रहें. पत्तेदार सब्जियों की फसल में कीट नियंत्रण के लिए दवा का प्रयोग कम से कम करें.

गन्ने की पेड़ी फसल व शरदकालीन बोआई वाले गन्ने की कटाई का काम पूरा करें. गन्ने की कटाई के दौरान निकली पत्तियों को जलाएं नहीं. इन पत्तियों को जमा कर के कंपोस्ट बनाने में इस्तेमाल करें.

गन्ने की पत्तियों को फसल में पलवार के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं. ऐसा करने से खेत में काफी समय तक नमी बनी रहती है और खरपतवार भी ज्यादा नहीं निकलते हैं.

जनवरी के महीने में पाले से बचाव के लिए छोटे फलों वाले पौधों व सब्जियों की नर्सरी को टाट वाली बोरियों या घासफूस के छप्परों से सही तरीके से ढक दें.

आम के बाग का भी ध्यान रखें. मौसम आने पर उन में कोई कमी नहीं आनी चाहिए. संतरा, किन्नू, नीबू जैसे पेड़ों की कटाईछंटाई करें और कृषि वैज्ञानिकों से सलाह ले कर इन की देखभाल के जरूरी काम निबटाएं.

अंगूर की बेलों की काटछांट का काम इस महीने के आखिर तक हर हालत में निबटा लें. जगह हो, तो अंगूर की नई बेलें भी लगाएं. नई बेल लगाने के बाद सिंचाई करना जरूरी होता है.

जनवरी माह में अधिक ठंड होने के चलते पशुओं की भी देखभाल जरूरी है. उन्हें सूखी जगह पर रखें और ठंड से बचाव करें. उन को नियमित रूप से संतुलित आहार दें. पशुओं को कृमिनाशक दवाएं देना न भूलें. इस मौसम में पशुओं को गुड़ भी खिलाते रहें.

मुरगियों को ठंड से बचाने के लिए खास ध्यान दें. मुरगीघरों में बिछावन को गीला न होने दें. अधिक ठंड के समय बिजली के बल्बों को जला कर रखें.

मक्काकीट की पहचान एवं प्रबंधन

सवाल: मक्का के पौधों की पत्तियों को जगहजगह से कीड़ों ने खा लिया है. फसल के पत्ते भी खराब हो रहे हैं. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं? खराब पौधों का फोटो भी भेज रहा हूं, कृपया समाधान बताने का कष्ट करें.

जवाब: फोटो देख कर पता चल रहा है कि मक्का के पौधों पर फाल आर्मीवर्म कीट का प्रकोप है. इस के बारे में यहां विस्तार से जानकारी दी जा रही है:

कीट की पहचान एवं प्रबंधन

पहचान: फाल आर्मीवर्म का लार्वा हलके भूरे से काले रंग का होता है और पीछे की ओर 3 हलकी पीली धारियां होती हैं. प्रत्येक तरफ एक चैड़ी गहरी पट्टी और एक लहरदार पीलीलाल धब्बेदार पट्टी होती है. लार्वा के शरीर के अंत में एक जोड़े के अलावा 4 जोड़े मांसल पेट के प्रोलेग होते हैं. फाल आर्मीवर्म और कौर्न ईयरवर्म दोनों से मिलताजुलता है, लेकिन फाल आर्मीवर्म कीट के काले सिर के सामने एक सफेद उलटा ‘ल्‘ निशान होता है.

कौर्न ईयरवर्म का सिर नारंगीभूरे रंग का होता है, जबकि फाल आर्मीवर्म का सिर भूरे रंग का होता है और उस पर गहरे शहद के छत्ते के निशान होते हैं. फाल आर्मीवर्म के पेट के 8वें खंड के शीर्ष पर एक वर्ग में व्यवस्थित 4 काले धब्बे होते हैं.

नुकसान: यह कीट दिन और रात के दौरान भोजन करता है, लेकिन आमतौर पर सुबह या देर दोपहर में सब से अधिक सक्रिय होता है. यह कीट मक्का की पत्तियों (गोभ ) के साथसाथ बालियों को भी नुकसान पहुंचाता है.

Cornनिगरानी:
– मक्का उत्पादकों को देर से बोए गए खेतों या इन समस्याओं के इतिहास वाले खेतों पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए.
– इस कीट की समस्याएं आमतौर पर 1 जून के बाद बोए गए खेतों से जुड़ी होती हैं. संक्रमण का शीघ्र पता लगाने से इस कीट पर अधिक प्रभावी ढंग से नियंत्रण किया जा सकता है.
– फाल आर्मीवर्म की गतिविधि के लिए जून के मध्य में मकई की जांच शुरू करें. खेत में कम से कम 5 स्थानों से लगातार 20 पौधों का सर्वे करें. स्वीट कौर्न में इस कीट की निगरानी के लिए फैरोमौन जाल का भी उपयोग किया जाता है.

प्रबंधन:
– खेत में पड़े पुराने अवशेषों एवं खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए.
– मिट्टी की जांच के आधार पर संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए.
– हर सप्ताह फसल का निरीक्षण करते रहना चाहिए.
– इंडोक्साकार्ब 14.5 एससी 500 मिलीलिटर या क्लोरएंट्रानिलिप्रोल 18.5 एससी 200 मिलीलिटर को 500 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

-प्रो. रवि प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक, निदेशक प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी देवरिया-274702

अपूर्वा त्रिपाठी को दिया गया ‘‘एग्रीकल्चर लीडरशिप अवार्ड 2023″

छत्तीसगढ़ और बस्तर के लिए यह बेहद गौरव के पल थे, जब 21 दिसंबर, 2023 को देश की राजधानी नई दिल्ली के ‘होलीडे इन’ के सभागार में आयोजित एक भव्य समारोह में, छत्तीसगढ़ बस्तर की बेटी अपूर्वा त्रिपाठी को भारत सरकार के कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा द्वारा कृषि क्षेत्र के देश के सर्वोच्च सम्मान ‘‘एग्रीकल्चर लीडरशिप अवार्ड-2023‘‘ से सम्मानित किया गया.

इस कार्यक्रम में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और केरल के पूर्व राज्यपाल न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम, ओपी धनकड़, इंडियन चैंबर औफ फूड एंड एग्रीकल्चर के चेयरमैन एमजे खान, ममता जैन और विभिन्न केंद्रीय और राज्य मंत्रियों सहित प्रतिष्ठित नामचीन व्यक्तियों, कृषि विशेषज्ञों और बड़ी तादाद में प्रगतिशील किसानों की सहभागिता रही.

’एग्रीकल्चर लीडरशिप अवार्ड 2023’

देश के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस के नेतृत्व में 21 विशेषज्ञ सदस्यों की जूरी द्वारा ‘एग्रीकल्चर लीडरशिप अवार्ड‘ के लिए उन व्यक्तियों चयन किया जाता है, जिन्होंने देश में कृषि के क्षेत्र में असाधारण नेतृत्व और सफल नवाचार का प्रदर्शन किया है, और क्षेत्र की वृद्धि और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

Apurva Tripathiकौन हैं अपूर्वा त्रिपाठी

देश के सब से पिछड़े आदिवासी क्षेत्र कहे जाने वाले कोंडागांव, बस्तर की अपूर्वा त्रिपाठी देश में एक युवा रोल मौडल और कृषि में नई प्रेरणा की किरण बन कर उभरी हैं. शैक्षणिक उत्कृष्टता के साथ देश के शीर्ष संस्थानों से बौद्धिक संपदा कानून और बिजनैस कानून में बीए, एलएलबी और ‘डबल एलएलएम‘ की डिगरी हासिल करने वाली अपूर्वा त्रिपाठी वर्तमान में बस्तर, छत्तीसगढ़ में जनजातीय महिलाओं के पारंपरिक स्वास्थ्य प्रथाओं और कृषि प्रथाओं पर पीएचडी कर रही हैं.

अपूर्वा त्रिपाठी ने 25 लाख रुपए सालाना की आकर्षक नौकरी की पेशकश को ठुकरा दिया और बस्तर के ‘मां दंतेश्वरी हर्बल ग्रुप‘ में शामिल हो कर इस समूह की हजारों आदिवासी महिलाओं द्वारा जैविक रूप से उगाए गए मसालों, बाजरा और जड़ीबूटियों की खेती, खेती का अंतर्राष्ट्रीय जैविक प्रमाणीकरण, प्राथमिक प्रसंस्करण, पैकेजिंग, ब्रांडिंग कर के और तैयार माल के देश और विदेशी बाजारों में बेचने में जुटी हैं.

इन की लगन और मेहनत के दम पर आज बस्तर के अंतर्राष्ट्रीय प्रमाणित जैविक और अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता प्रमाणित उत्पाद अब अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसे प्रमुख औनलाइन प्लेटफार्मों पर उपलब्ध हैं, जिस का फायदा सीधे परिवारों को मिल रहा है.

आज से 13 साल पहले देश का पहला ‘एग्रीकल्चर लीडरशिप अवार्ड‘ हासिल करने वाले ‘किसान और वैज्ञानिकः डा. राजाराम त्रिपाठी की बेटी हैं, जो कि कोंडागांव, बस्तर स्थित ‘‘मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर‘‘ में कृषि में नित नूतन नवाचारों और टिकाऊ व उच्च लाभदायक कृषि पद्धतियों के विकास के लिए देशदुनिया में जाने जाते हैं.

किसानों ने भविष्य तो बचाया पर खाली हाथ है उन का वर्तमान

वर्ष 2022 की विदाई और 2023 का आगमन. नए वर्ष के स्वागत की औपचारिकताओं के बीच यह कलैंडर वर्ष भी हर साल की तरह एक बार फिर अपनी केंचुली बदल लेगा. लेकिन इस कलैंडर वर्ष में देश की आबादी के सब से बड़े हिस्से के किसानों ने क्या खोया और पाया क्या, इस पर निष्पक्ष चिंतन जरूरी है.

कह सकते हैं कि वर्ष 2022 की शुरुआत किसानों के मोरचे पर अस्थाई युद्ध विराम से हुई. दरअसल, तीनों कृषि कानूनों को वापस करवा कर किसानों ने कुछ हद तक देश की खेतीकिसानी का भविष्य तो बचाया, पर उन के वर्तमान के दोनों हाथ आज भी बिलकुल खाली हैं.

देश के किसानों की आय में वृद्धि अथवा देश में अरबपतियों की बढ़ती संख्या दोनों में से देश की आर्थिक समृद्धि का वास्तविक सूचकांक आखिर आप किसे मानेंगे?

सिक्के का दूसरा पहलू भी जरा देखिए. भारत सरकार की ‘द सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे औफ फार्मर’ का कहना है कि पिछले सालों में भारत के किसान औसतन केवल 27 रुपए की रोज की कमाई कर पाए हैं.

कृषि मंत्रालय ने अन्नदाताओं की आय से संबंधित जो सब से ताजा आंकड़े जारी किए थे, उस के मुताबिक, भारत का किसान परिवार प्रतिदिन औसतन 264.94 रुपए यानी 265 रुपए कमाता है. यह एक व्यक्ति की आय नहीं है, बल्कि 5 सदस्यों के परिवार की औसत आय है.

हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय के मामले में यहां यह बताना भी लाजिमी है कि प्राय: गरीबी, भुखमरी, बाढ़, अकाल और न्यूनतम आय के लिए जाना जाने वाला पड़ोसी बंगलादेश इस साल प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम से आगे निकल गया है, जबकि 15 साल पहले इसी बंगलादेश की प्रति व्यक्ति आय हमारे देश की प्रति व्यक्ति आय की महज आधी थी.

एक ओर देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर खेती और किसानों की जिंदगी दिनोंदिन कठिन होती जा रही है. हर कलैंडर वर्ष के साथ अमीरों और गरीबों के बीच की खाई चौड़ी हाती जा रही है.

दिनरात कुरसी हासिल करने और उसे बचाने के खेल में लगी सरकारें धीरेधीरे यह भूलती जा रही हैं कि देश का सब से महत्त्वपूर्ण तबका रहा है यह किसान, जिस के पसीने के दम पर यह देश पूरी दुनिया में सोने की चिडि़या कहलाता था. कुछेक साल पहले तक किसान और खेती के महत्त्व व उपादेयता को रेखांकित करती हुई अकबर के समकालीन कृषि पंडित महाकवि घाघ की एक कहावत बड़ी मशहूर थी, ‘उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद चाकरी भीख निदान…’

मतलब साफ था कि समाज में अव्वल दर्जे पर अन्नदाता किसान और उस की खेती, फिर व्यापार और नौकरी आदि सामाजिक उपादेयता के क्रम में क्रमश: उस के बाद आते हैं. वैश्विक बाजारवाद की ताकतों ने खेतीकिसानी की इस 500 साल पुरानी कहावत के अर्थ और निहितार्थों को सीधेसीधे 180 डिगरी पर पलट दिया है.

आज 10 एकड़ के किसान का बेटा भी अपनी जमीन बेच कर मिले पैसे को रिश्वत में दे कर भी चपरासी की नौकरी करना चाहता है. जाहिर है कि अपने पिता की दुरावस्था को लगातार देखते हुए बड़ा हुआ बेटा किसी भी हालत में घाटे की खेती नहीं करना चाहता है.

भारत सरकार की ‘द सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे औफ फार्मर’ का कहना है कि वर्ष 2018-19 के दौरान भारत के हर किसान ने हर दिन केवल 27 रुपए की कमाई की. वर्ष 2022 के अंतिम हफ्ते में भी हालात इस से कुछ बेहतर नहीं दिखते.

इसी से अंदाज लगा सकते हैं कि किसानों का जीवन कितना कठिन हो गया है, और क्यों पिछले 2 दशकों में 4 लाख से ज्यादा किसान पूरी तरह से पस्त हो कर निराशा और मजबूरी में आत्महत्या का रास्ता चुन चुके हैं. इसे आत्महत्या कहना उचित नहीं है, बल्कि यह सरकार और बाजार की पक्षपाती नीतियों द्वारा की गई किसानों की  हत्या है.

एक किसान आत्महत्या करने के पहले ही हजारों बार मर चुका होता है. इस निर्मम आखेट में फंस कर किसानों का इस तरह से जान देना इस सदी की सब से बड़ी त्रासदी है. ऐसा नहीं है कि इन वर्गों के उत्थान के लिए नीतियां और योजनाएं नहीं बनाई गईं. ये योजनाएं देखने, पढ़ने, सुनने में भले ही आकर्षक लगती हैं, किंतु इन नीतियों की मूल डिजाइन ऐसी रही है कि किसानों की कमाई को जानबूझ कर कम रखा जाए. कमाई कम होगी, तो ये गांव छोड़ कर शहरों की तरफ प्रवास करेंगे. शहरों को, कारखानों को सस्ती कीमत पर मजदूर मिलेंगे. कारपोरेट्स दिनोंदिन मालमाल और किसान मजदूर बदहाल होंगे. अगर कमाई कम है, तो कर्ज के बोझ का बढ़ना भी स्वाभाविक है और बिलकुल ऐसा ही हुआ भी.

वर्ष 2012-13 में देश के हर किसान पर औसतन 47,000 रुपए के कर्ज का बोझ था. यह बढ़ कर वर्ष 2018-19 में तकरीबन 74,000 रुपए हो चुका है.

नए सरकारी आंकड़े आने अभी बाकी हैं. जिस तरह से हमारे देश के हर नागरिक पर कर्जा बढ़ रहा है. जाहिर है, अगर यही हाल रहा, तो हम देश के प्रति व्यक्ति के सिर पर एक लाख रुपए कर्ज के लक्ष्य तक वर्ष 2023 में अवश्य पहुंच जाएंगे.

बता दें कि सब से बुरा हाल किसानों का है. देश के 50 फीसदी किसान कर्ज के बोझ तले इतना दब चुके हैं कि उन के उबरने की अब कोई आशा नहीं दिखती. कर्ज में डूबे किसान की दयनीय दशा पर आज से 100 साल पहले वर्ष 1921 में मुंशी प्रेमचंद ने दिल को छू लेने वाली एक कालजयी कहानी लिखी थी, ‘पूस की रात’.

इस कहानी के नायक किसान हल्कू और उस की पत्नी मुन्नी के बीच का वार्त्तालाप है. मुन्नी अपने पति हल्कू से कहती है, ‘मैं कहती हूं, तुम खेती क्यों नहीं छोड़ देते? मरमर कर काम करो. पैदावार हो तो उस से कर्जा अदा करो. कर्जा अदा करने के लिए तो हम पैदा ही हुए हैं. ऐसी खेती से बाज आए.’

देश का सच यही है कि आजादी के 75 साल बाद भी देश के बहुसंख्यक किसानों की दशा अभागे हल्कू, होरी से बेहतर नहीं है.

वर्ष 2023 में देश के किसान के लिए आशा की किरण आखिर कहां छिपी है? सब से पहले हम अपनी सरकार की ओर देख लेते हैं. इस जिद्दी सरकार ने किसान आंदोलन के दबाव में तीनों कृषि कानूनों को वापस तो ले लिया, पर इस से उस के अहं को बड़ी चोट पहुंची है, ऐसा दिखता है.

मुख्य विपक्षी कांग्रेस पार्टी किसान राजनीति में अपनी जमीन तलाश रहे तथाकथित कुछेक मौकापरस्त किसान नेताओं को साथ ले कर किसानों की समस्या को बूझने और उन्हें साधने की कोशिश कर रही है, ऐसे में इन से भी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती.

भाजपा के अनुषंगी किसान संगठन, जो कि अपने दांत और नाखून पहले ही गिरवी रख चुके हैं, किसानों के नाम पर यदाकदा निरर्थक गर्जना करते घूम रहे हैं. इस नूराकुश्ती से भी कुछ खास हासिल नहीं है. उत्तर भारत और महाराष्ट्र के गन्ने की राजनीति से पैदा हुए किसान नेताओं के पास गन्ना किसानों का कुछ ठोस जनाधार तो है, पर आज भी वे गन्ने की राजनीति में ही उलझे हुए हैं. गन्ने से इतर समस्याओं की न तो इन्हें विशेष समझ है, न विशेष रुचि है और न ही इन के पास इन का कोई ठोस निदान है.

इधर सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ जैविक खेती, जीरो बजट खेती आदि कई लपूझन्ने जोड़ कर अपने जेबी तनखैया मेंबरान मनोनीत कर जैसेतैसे एक एमएसपी कमेटी का एक बेडौल बिजूका बना कर खड़ा कर दिया है, जिस से किसान का कोई भला होने की उम्मीद नहीं है.

एमएसपी पिछले कई दशकों से किसानों की सब से जरूरी मांग रही है. दरअसल, किसानों की कड़ी मेहनत से तैयार किए गए उत्पादों को केवल 4 से 6 फीसदी को ही घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाता है, बाकी 94 से 96 फीसदी किसानों का उत्पाद लागत से भी कम कीमत पर बिकता है अथवा लूटा जाता है. किसानों की बदहाली का यह एक प्रमुख कारण है.

इसी एकसूत्रीय मांग को ले कर वर्ष 2022 के अंतिम महीनों में देश के किसान संगठनों ने मिल कर सर्वसम्मति से देश के प्रत्येक किसान के लिए और प्रत्येक फसल के लिए ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी किसान मोरचा’ बनाया है. वरिष्ठ किसान नेता बीएम सिंह को इस का अध्यक्ष चुना गया है.

वर्ष 2023 में किसानों के लिए आशा की पहली किरण यहां दिखाई दे रही है. किंतु केवल मोरचा बनने से ही सबकुछ नहीं हो जाता. अब अपनी इस जरूरी मांग को हासिल करने के लिए सभी किसानों और किसान संगठनों को अपने सारे अंतर्विरोधों को दरकिनार कर के आगे आना होगा, एकजुट होना होगा. अभी नहीं तो कभी नहीं.  हमें स्पष्ट रूप से यह तय करना होगा कि एमएसपी नहीं तो वोट नहीं. नारा भी दिया गया है, ‘गांवगांव एमएसपी, घरघर एमएसपी’ और ‘फसल हमारी, भाव तुम्हारा, नहीं चलेगा’.

अब नारों और और जुमलों से आगे जा कर यह साबित करना होगा कि अगर सत्ता चाहिए तो आप को सब से पहले देश के किसान संगठनों के साथ बैठ कर किसानों के लिए लाभकारी ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी कानून’ बनाना होगा.

– डा. राजाराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) और राष्ट्रीय प्रवक्ता, एमएसपी गारंटी किसान मोरचा.