अधिक मुनाफा वाली सरसों कि उन्नत किस्में (Mustard Varieties)

हिसार: चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित सरसों की उन्नत किस्में न केवल हरियाणा, बल्कि देश के अन्य प्रदेशों के किसानों के लिए काफी फायदेमंद साबित होंगी. इस के लिए विश्वविद्यालय ने नैशनल क्राप साइंस, बीकानेर (राजस्थान), माई किसान एग्रो नीमच (मध्य प्रदेश), फेम सीड्स (इंडिया) व उत्तम सीड्स हिसार के साथ तकनीकी व्यवसायीकरण को बढ़ावा देने के लिए समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं.

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने कहा कि जब तक विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध किसानों तक नहीं पहुंचेंगे, तब तक उस का कोई फायदा नहीं है. इसलिए इस तरह के समझौतों से विश्वविद्यालय का प्रयास है कि यहां विकसित फसल की उन्नत किस्मों व तकनीकों को अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचाया जा सके.

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने यह भी बताया कि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित सरसों की किस्म आरएच 1424 समय पर बोआई और बारानी परिस्थितियों में खेती के लिए उपयुक्त है, जबकि आरएच 1706 एक मूल्यवर्धित किस्म है.

उन्होंने आगे जानकारी देते हुए यह भी कहा कि उपरोक्त किस्में सरसों उगाने वाले राज्यों की उत्पादकता को बढ़ाने में मील का पत्थर साबित होगी . हरियाणा पिछले कई सालों से सरसों फसल की उत्पादकता के मामले में देश में शीर्ष स्थान पर है. यह मुकाम विश्वविद्यालय में सरसों की अधिक उपज देने वाली किस्मों के विकास एवं किसानों द्वारा उन्नत तकनीकों को अपनाने के कारण ही संभव हुआ है. अब तक यहां अच्छी उपज क्षमता वाली सरसों की कुल 21 किस्मों को विकसित किया गया है.

एकसाथ 4 कंपनियों के साथ हुआ समझौता

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कुलपति प्रो. बीआर कंबोज की उपस्थिति में विश्वविद्यालय की ओर से समझौता ज्ञापन पर कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. एसके पाहुजा ने हस्ताक्षर किए. राजस्थान स्थित बीकानेर की नैशनल क्राप साइंस सरसों की किस्म आरएच 1424 के लिए समझौता ज्ञापन पर कंपनी की तरफ से राजेश पूनियां ने हस्ताक्षर किए हैं.

मध्य प्रदेश स्थित नीमच की माई किसान एग्रो के साथ सरसों की किस्म आरएच 1706 के लिए समझौता ज्ञापन पर कंपनी की ओर से सीईओ जसवंत सिंह ने हस्ताक्षर किए हैं. हिसार की 2 कपंनियां, जिन में फेम सीड्स (इंडिया) के साथ सरसों की किस्मों आरएच 1706 व आरएच 1424 के लिए समझौता ज्ञापन पर कंपनी की तरफ से हिमांशु बंसल ने हस्ताक्षर किए हैं.

दूसरी कंपनी उत्तम सीड्स के साथ सरसों की किस्मों आरएच 1706 व आरएच 1424 के लिए समझौता ज्ञापन पर कंपनी की तरफ से शुभम ने हस्ताक्षर किए है.

सरसों की किस्मों की विशेषताएं

बारानी परीक्षणों में नव विकसित किस्म आरएच 1424 में लोकप्रिय किस्म आरएच 725 की तुलना में 14 फीसदी की वृद्धि के साथ 26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की औसत बीज उपज दर्ज की गई है. यह किस्म 139 दिनों में पक जाती है और इस के बीजों में तेल की मात्रा 40.5 फीसदी होती है. सरसों की दूसरी किस्म आरएच 1706 में 2.0 फीसदी से कम इरूसिक एसिड होने के साथ इस के तेल की गुणवत्ता में सुधार हुआ है, जिस का उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को लाभ होगा. यह किस्म पकने में 140 दिन का समय लेती है और इस की औसत बीज उपज 27 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के बीजों में 38 फीसदी तेल की मात्रा होती है.
विश्वविद्यालय के साथ किसानों को भी होगा फायदा

मानव संसाधन प्रबंधन निदेशालय की निदेशक डा. मंजू मेहता ने बताया कि समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर होने के बाद अब कंपनियां विश्वविद्यालय को लाइसेंस फीस अदा करेंगी, जिस के तहत उन्हें बीज का उत्पादन व विपणन करने का अधिकार प्राप्त होगा. इस के बाद किसानों को भी इस उन्नत किस्मों का बीज मिल सकेगा. सरसों की किस्में तैयार कर कंपनियां किसानों तक पहुंचाएंगी, ताकि किसानों को इन किस्मों का विश्वसनीय बीज मिल सके और उन की पैदावार में इजाफा हो सके.

ये रहे मौजूद

इस अवसर पर ओएसडी डा. अतुल ढींगड़ा, मीडिया एडवाइजर डा. संदीप आर्य, एसवीसी कपिल अरोड़ा, तिलहन अनुभाग के अध्यक्ष डा. करमल सिंह, डा. राम अवतार, आईपीआर सेल के प्रभारी डा. विनोद सांगवान भी उपस्थित रहे.

तिलहन फसलों को बढ़ावा,मनाया गया सरसों प्रक्षेत्र दिवस (Mustard Field Day)

छिंदवाड़ा: जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय द्वारा संचालित कृषि विज्ञान केंद्र, छिंदवाड़ा द्वारा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत तिलहन फसल (Oilseed Crops) का रकबा बढ़ाने के लिए मिशन के अंतर्गत संचालित समूह पंक्ति प्रदर्शन में ग्राम खैरवाड़ा में सरसों का प्रक्षेत्र दिवस (Mustard Field Day) मनाया गया.

इस कार्यक्रम में किसान राजेश बट्टी व सोमलाल बट्टी के प्रक्षेत्र पर सरसों की किस्म आरएच 749 प्रदर्शन का अवलोकन किया गया, जिस में गांव के प्रगतिशील किसानों ने बढ़चढ़ कर सहभागिता की.

कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख डा. डीसी श्रीवास्तव ने कार्यक्रम में बताया कि किसानों को जिले में तिलहनी फसल द्वारा सरसों का रकबा बढ़ाने के लिए सल्फर व एनपीके उर्वरक के उचित प्रबंधन पर विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई.

केंद्र के उद्यानिकी विषय से संबंधित वैज्ञानिक डा. आरके झाडे ने लहसुन व प्याज का उत्पादन बढ़ाने और उन का रखरखाव करने के संबंध में किसानों के बीच जानकारी साझा की. केंद्र की महिला वैज्ञानिक डा.सरिता सिंह ने सरसों फसल में लगने वाले रोग, कीट आदि को नियंत्रित करने और अधिक उत्पादन के लिए सरसों की विभिन्न किस्मों से अवगत कराया.

केंद्र के तकनीकी अधिकारी सुंदरलाल अलावा ने किसानों को सरसों की फसल में प्राकृतिक खेती के घटक जैसे बीजामृत, जीवामृत, घन जीवामृत और आच्छादन आदि पर जानकारी दी.

सरसों की फसल को कीड़ों से बचाएं

सरसों भारत की एक अहम तिलहनी फसल है. यह फसल ज्यादातर पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में उगाई जाती है. राजस्थान में सरसों आमतौर पर सभी जिलों में पैदा की जाती है, लेकिन जोधपुर, अलवर, भरतपुर, सवाई माधोपुर, पाली, जालौर व श्रीगंगानगर जिलों में इस की फसल बडे़ पैमाने में ली जाती है.

सरसों को अनिश्चित फसल माना जाता है, क्योंकि यह कीटनाशक जीवों, अंगमारी रोगों और जलवायु के हालात से प्रभावित होती है. इस पर कई तरह की कवक यानी फफूंदी और कीट हमला करते हैं. ये कवक और कीडे़ पूरी फसल को खराब कर सकते हैं.

सरसों की फसल में दोमट औैर हलकी मिट्टी मुफीद होती है औैर इस की प्रति हेक्टेयर इलाके में बोआई के लिए 4 से 5 किलोग्राम बीज सही रहता है. सरसों में पौध संरक्षण के लिए बोआई के पहले बीजों को मैंकोजेब 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम के हिसाब से उपचारित कर लेना फायदेमंद रहता है.

बीजों की बोआई आमतौर पर सितंबर से अक्तूबर माह के अंत तक कर देनी चाहिए, क्योंकि देरी से बोआई करने पर उपज में भारी कमी के साथ चैंपा व सफेद रोली का प्रकोप भी अधिक होता है.

बोआई के 20-25 दिन बाद निराईगुड़ाई कर के खरपतवार को खत्म करना सही रहता है. इन सभी उपचारों से प्राथमिक तौर पर सरसों की फसल को कीड़ों से बचाया जा सकता है, परंतु फिर भी इलाके व जलवायु के आधार पर कई तरह के कवक और कीडे़ सरसों की फसल पर हमला करते हैं, जिन का उपचार बहुत जरूरी है.

सरसों की फसल पर कई प्रकार के कीट हमला करते हैं. आरा मक्खी (मस्टर्ड या फ्लाई) और चित्रित मत्कुण (पेंटेड बग) सरसों की फसल में अंकुरण के 7 से 10 दिन में ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं.

यह कीट, जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘एथोलिया प्रोक्सिया’ कहते हैं, पत्ती पर हमला कर इस के पूरे हिस्सों में छेद कर देता है और धीरेधीरे पत्तियों में महज शिराएं यानी अंदरूनी ढांचा ही बचा रहता है.

इस की रोकथाम करने के लिए मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी) या मैलाथियान (5 फीसदी) या कार्बारिल (5 फीसदी) चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सुबह या शाम को छिड़कना फायदेमंद रहता है.

सरसों पर लगने वाला दूसरा कीट डायमंड बैक मोथ या हीरक तितली है. इस की रोकथाम के लिए क्विनालफास (25 ईसी) एक लिटर प्रति हेक्टेयर के अनुसार छिड़कना फायदेमंद रहता है.

सरसों की फसल को ज्यादा प्रभावित करने वाला कीट मोयला (एफिड्स) है, जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘लैपाफिस हरिसीमी’ कहते हैं. इस कीट के निम्फ और व्यस्क दोनों ही पत्ती, तना व फली सहित पूरे पादप पर हमला कर उस का रस चूसते हैं. इस कीट के हमले से धीरेधीरे पौधा सूख जाता है और कभीकभी पूरी फसल ही खराब हो जाती है.

मोयला कीट की उचित रोकथाम के लिए मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी) या कार्बारिल (5 फीसदी) या मैलाथियान (5 फीसदी) चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है. इस के स्थान पर मैलाथियान (50 ईसी) 1250 मिलीलिटर या फास्फोमिडान (85 डब्ल्यूएससी) 250 मिलीलिटर या डाईमिथोएट (30 ईसी) 875 मिलीलिटर या फार्मोथियान (25 ईसी) प्रति लिटर या कार्बारिल (50 फीसदी) घुलनशील ढाई किलोग्राम या इंडोसल्फान (35 ईसी) प्रति 250 मिलीलिटर या क्लोरोपायरीफास (प्रति 20 ईसी) 600 मिलीलिटर पानी में मिला कर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है.

सरसों पर दीमक और जमीन के दूसरे कीडे़ जैसे लीफ माइनर भी हमला करते हैं. इस के मैगट पत्ती को खा जाते हैं, जबकि दीमक पूरे पौधे को खोखला कर देती है.

इस की रोकथाम करने के लिए क्लोरोपायरीफास (20 ईसी) 600 मिलीलिटर पानी में मिला कर खेत में बिखेर कर जुताई करना फायदेमंद रहता है.

फसलों को कीट रहित रखने के लिए खड़ी फसल में अंकुरण के 7 से 10 दिन बाद कीटनाशकों का पहला छिड़काव और दिसंबर के अंतिम सप्ताह में दूसरा छिड़काव करना चाहिए.

आमतौर पर एफिड्स दिसंबर के अंतिम सप्ताह में हमला शुरू कर देते हैं. इस तरह के छिड़काव में मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी) या मैलाथियान (5 फीसदी) या कार्बारिल (5 फीसदी) चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सुबह या शाम के समय छिड़काव करना फायदेमंद रहता है.

इस के स्थान पर मैलाथियान (50 ईसी) प्रति 250 मिलीलिटर या डाईमिथोएट (30 ईसी) 875 मिलीलिटर या फास्फोमिडान (85 डब्ल्यूएससी) 250 मिलीलिटर या क्लोरोपायरीफास (20 ईसी) 600 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर पानी में मिला कर छिड़काव करना भी सही रहता है.

दूसरे छिड़काव के 15 दिन बाद या फूल आने के बाद मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी) या कार्बारिल (5 फीसदी) या मैलाथियान (5 फीसदी) चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के अनुसार छिड़़काव करना फायदेमंद रहता है. इस के स्थान पर मैलाथियान (50 ईसी) प्रति 250 मिलीलिटर या डाईमिथोएट (30 ईसी) 875 मिलीलिटर या फिर फार्मोथियान (25 ईसी) प्रति लिटर या कार्बारिल 50 फीसदी घुलनशील चूर्ण 2.5 किलोग्राम या फास्फोमिडोन (85 डब्ल्यूएससी) 250 एमएल या इंडोसल्फान (35 ईसी) 1.25 लिटर या क्लोरोपायरीफास (20 ईसी) 600 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर पानी में मिला कर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है.

यदि तीसरे छिड़काव के बाद भी एफिड्स (चेंपा) का प्रकोप रहे, तो एक बार फिर से छिड़काव करना सही रहता है. एफिड्स के अच्छे नियंत्रण के लिए 10 कतारों के बाद चने की 2 कतार बोना फायदेमंद रहता है और इस से छिड़काव में भी सुविधा रहती है.

सरसों पर अनेक प्रकार की फफूंदी भी रोग फैलाती है, जिस से बहुत नुकसान होता है. ‘आल्टरनेरिया ब्रेसिकी’ नामक कवक से अंगमारी रोग लगता है. इस रोग में पत्तियों पर भूरी चित्तियां दिखाई देती हैं, जो बाद में काली पड़ जाती हैं.

इसी तरह ‘एल्बूगो कैंडिडा’ नामक फफूंद से भी श्वेत किट्ट रोग होता है. सरसों में तिलासिता (डाउनी मिल्ड्यू), झुलसा  (ब्लाइट) और सफेद रोली का भी बहुत प्रकोप रहता है.

इन रोगों में लक्षण प्रकट होते ही 2 किग्रा मैंकोजेब या फिर ढाई किलोग्राम जिनेब प्रति हेक्टेयर पानी में मिला कर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है. रोग के अधिक होने पर 20 दिन बाद फिर छिड़काव करना अच्छा रहता है.

सरसों की फसल में छाछया रोग के लक्षण दिखाई देने पर 20 किलोग्राम गंधक का चूर्ण प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करना सही रहता है. इस के स्थान पर ढाई किलोग्राम घुलनशील गंधक (80 फीसदी) या 750 मिलीलिटर डाईनोकेप (कैराथेन 30 ईसी) पानी में मिला कर छिड़काव करना फायदेमंद रहता है. कुछ खरपतवार भी सरसों की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं, जिन्हें उखाड़ कर नष्ट करना अच्छा रहता है.

सरसों की फसल में कीट नियंत्रण के लिए कीट प्रतिरोधी और रोग प्रतिरोधी किस्मों की बोआई करना काफी फायदेमंद रहता है. पीआर 15 (क्रांति) तुलासिता रोग और सफेद रोली रोधक किस्म है.

इसी तरह मोयला कीट के प्रकोप को कम करने या उस से बचाव के लिए पीआर 45 और आरएच 30 किस्में द्वारा खड़ी फसल में छिड़काव द्वारा खरपतवारों को खत्म कर अच्छी पैदावार ली जा सकती है. साथ ही, खतरनाक कीड़ों से फसल की हिफाजत भी की जा सकती है.

सरसों की फसल में माहू कीट का प्रकोप

अगर सरसों की फसल में माहू कीट का प्रकोप हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में सरसों के उत्पादन में तकरीबन 25 से 30 फीसदी तक की कमी हो सकती है.

जानिए, माहू कीट क्या है, यह कीट किस तरह से फसल को नुकसान पहुंचाता है और इस कीट का रासायनिक और जैविक विधि से नियंत्रण कैसे करें.

माहू कीट की पहचान : यह कीट छोटे आकार के सलेटी या जैतूनी हरे रंग के होते हैं. इस की लंबाई 1.5-2 मिलीमीटर तक होती है. इस कीट को एफिड, मोयला, चैंपा, रसचूसक कीट आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है.

sarsonमाहू कीट के प्रकोप की संभावना : इस कीट का प्रकोप देरी से बोई गई सरसों में ज्यादा होता है. आमतौर पर जब मौसम बदलने लगता है या सर्दी कम होने लगती है, उस समय फरवरीमार्च महीने में माहू कीट का प्रकोप तेजी से होने लगता है.

माहू कीट द्वारा सरसों में नुकसान : यह कीट कोमल पत्तियों और फूलों का रस चूस लेते हैं. जो फली बन रही होती है, उन का भी रस चूस लेते हैं, जिस से फलियां गूदेदार नहीं हो पाती हैं. इस में फलियों में जो दाने बनने चाहिए, वे नहीं बन पाते हैं.

माहू कीट पौधों पर लिसलिसा या चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ते हैं. इस वजह से प्रभावित जगह पर काले रंग की फफूंदी आ जाती है, जिस से फूलों की वृद्धि रुक जाती है और फलियों का विकास नहीं हो पाता है. इस के चलते उत्पादन में काफी कमी आ जाती है.

माहू कीट को ऐसे करें काबू : इस कीट के नियंत्रण के लिए मैलाथियान 50 ईसी या डाईमिथोएट 30 ईसी एक लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में मिला कर छिड़काव करें. साथ में स्टीकर भी मिला लें, जिस से दवा पौधों पर चिपक सके.

जैविक नियंत्रण के लिए नीम की निंबोली के सत का 5 फीसदी पानी में घोल बना कर कीट दिखाई देने पर तुरंत छिड़काव करें.

तोरिया की बोआई का सही समय मध्य सितंबर

इस बार देश के कई इलाकों में बरसात सामान्य से कम हुई है, जिस के कारण या अन्य किसी कारण से किसान खरीफ में कोई खास फसल नहीं ले पाए या कई किसान जो बरसाती सीजन के अनुसार फसल लगाते हैं, उन्हें भी धोखा ही मिला. ऐसे में वे किसान खाली पडे़ खेतों में तोरिया/लाही की फसल ले सकते हैं.

तोरिया खरीफ एवं रबी के मध्य में बोई जाने वाली तिलहनी फसल है, जिस में मुनाफे की संभावना हमेशा रहती है.

खेत की तैयारी

इस के लिए खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताई देशी हल, कल्टीवेटर/हैरो से कर के पाटा दे कर मिट्टी भुरभुरी बना लेनी चाहिए.

प्रमुख प्रजातियां

तोरिया की प्रमुख प्रजातियां टी.-9,भवानी, पीटी -303, पीटी -30 एवं तपेश्वरी है, जो 75 से 90 दिन में पक कर तैयार हो जाती है, जिन की उपज क्षमता 4 से 5 क्विंटल प्रति एकड़ है.

बीज की मात्रा एवं बीजोपचार

तोरिया का बीज डेढ़ किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करना चाहिए. बीजजनित रोगों से सुरक्षा के लिए उपचारित एवं प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए. इस के लिए 2.5 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज को उपचारित कर के ही बोएं.

बोआई का समय

अच्छी फसल लेने के लिए तोरिया की बोआई सितंबर माह के पहले पखवारे में ही की जानी चाहिए.

भवानी प्रजाति की बोआई सितंबर माह के दूसरे पखवारे में ही करें.

खाद एवं उर्वरक

मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए. यदि मिट्टी परीक्षण न हो सके, तो 16 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद का प्रयोग प्रति एकड़ में करें. 44 किलोग्राम यूरिया, 125 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट एवं 30 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश प्रति एकड़ की दर से अंतिम जुताई के समय खेत में मिला दें.

बोआई के 25 से 30 दिन के बीच पहली सिंचाई के बाद टौप ड्रेसिंग के रूप में 44 किलोग्राम यूरिया प्रति एकड़ में देना चाहिए.

बोआई की विधि

तोरिया की बोआई 30 सैंटीमीटर की दूरी पर 3 से 4 सैंटीमीटर की गहराई पर कतारों में करनी चाहिए और पाटा लगा कर बीज को ढक देना चाहिए. घने पौधों को बोआई के 15 दिन के भीतर निकाल कर पौधों की आपसी दूरी 10-15 सैंटीमीटर कर देना चाहिए और खरपतवार नष्ट करने के लिए एक निराईगुड़ाई भी साथ में कर देनी चाहिए.

ऐसे करें सिंचाई

फूल निकलने से पूर्व की अवस्था पर पानी की कमी के प्रति तोरिया (लाही) विशेष संवेदनशील है. अतः अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए इस अवस्था पर सिंचाई करना आवश्यक है. वर्षा होने से हानि से बचने के लिए उचित जल निकास की व्यवस्था करें.

Farmingकीट एवं रोग प्रबंधन

नाशीजीवों की सही पहचान कर उचित प्रबंधन करना चाहिए.

यों करें कटाईमड़ाई

जब फलियां 75 फीसदी तक सुनहरे रंग की हो जाएं, तो फसल को काट कर सुखा लेना चाहिए. तत्पश्चात मड़ाई कर बीजों को सुखा कर भंडारित करें.

सरसों की प्रोसैसिंग कर अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है. आजकल सरसों का तेल भी ऊंचे दामों पर मिलता है. सरसों पिलाई के बाद उस की खली पशुओं के आहार में काम आती है. कुछ लोग तो सरसों खरीद कर उस का तेल, खली आदि बेच कर अच्छाखासा मुनाफा भी कमाते हैं. यही उन के रोजगार का जरीया भी बनता है.

तोरिया की खेती

खरीफ फसल की कटाई और रबी फसल की बोआई के बीच के समय में  तोरिया की खेती ली जाती है. तोरिया शुद्ध और अंतरवर्ती फसल के रूप में भी उगाया जाता है. इस में 42 से 45 फीसदी तक तेल होता है और इस की खली पशुओं के आहार के रूप में काम में लाई जाती है.

तोरिया के उत्पादन में उन्नत विधियां अपनाने पर बढ़ोतरी की जा सकती है. यहां तोरिया की उन्नत तकनीक से खेती कैसे करें का विस्तार से  उल्लेख किया गया है.

तोरिया एक नकदी फसल है. इस की अच्छी किस्मों की बोआई कर के सही मात्रा में खाद डाल कर व समय से कीट और बीमारी पर उचित नियंत्रण करने से पैदावार बढ़ाई जा सकती है.

बीज की मात्रा व बोआई

तोरिया के 4 किलोग्राम बीज (जिन के 1,000 दानों का वजन 4-5 ग्राम हो) या 5-6 किलोग्राम बीज (जिन के 1,000 दानों का वजन 4-5 ग्राम हो) प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचित व असिंचित दोनों हालात में बोआई के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं.

बोआई से पहले बीजोें को 2 ग्राम मैंकोजेब या 3 ग्राम थीरम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. इस के बाद सफेद गेरूई व तुलासिता रोगों से बचाव के लिए बीज को 1.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करें.

पेंटेड बग की रोकथाम के लिए बीजों को एमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस की 5 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करें.

वहीं दूसरी ओर जैविक उर्वरक के रूप में एजोटोबैक्टर 200 ग्राम पीएसबी व माइकोराइजा 200 ग्राम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजों को उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए.

जमीन का उपचार

जमीन से होने वाले रोगों की रोकथाम के लिए बायोपेस्टीसाइड्स ट्राइकोडर्मा विरडी 1 फीसदी डब्ल्यूपी या ट्राइकोडर्मा हरजिएनम 2 फीसदी डब्ल्यूपी की 2.5 किलोग्राम मात्रा 60-70 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में मिला कर बोआई से तकरीबन 10-15 दिन पहले प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालने से तोरिया के जमीन से होने वाले रोगों की रोकथाम होती है.

बोआई का समय

तोरिया की बोआई सितंबर के पहले पखवाड़े से ले कर सितंबर के अंत तक की जाती है. बोआई में लाइन से लाइन की दूरी 30-40 सैंटीमीटर, पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सैंटीमीटर व गहराई 5 सैंटीमीटर (असिंचित इलाकोें में बीज की गहराई नमी के हिसाब से) रखनी चाहिए. भवानी प्रजातियों को सितंबर के दूसरे पखवारे में ही बोएं.

खाद व उर्वरक 

तोरिया में रासायनिक खाद, जैविक खाद व जैविक उर्वरक की मिलीजुली मात्रा देनी चाहिए.

सिंचित दशा में 8-10 टन व असिंचित दशा में 4-5 टन अच्छी तरह गोबर की सड़ी खाद के साथसाथ 2.5-3.0 किलोग्राम बाइवेरियाब्रेसियाना को (इस्तेमाल करने से 15-20 दिन पहले नमी वाली जगह में बोरे से ढक कर रखें) इस्तेमाल करने से दीमक और जमीन के अंदर के कीड़ों को काफी हद तक काबू में किया जा सकता है.

अगर मिट्टी में जस्ते की मात्रा 0.6 पीपीएम से कम है, तो अंतिम जुताई के समय तकरीबन 20 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए. जहां तक तोरिया में संतुलित उर्वरकों के इस्तेमाल करने की बात है, तो मिट्टी की जांच के मुताबिक उर्वरकों को इस्तेमाल करना चाहिए.

मिट्टी की जांच न होने की दशा में सिंचित इलाकों में 80-100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश, 20 किलोग्राम सल्फर और 2 किलोग्राम बोरान प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें.

वहीं दूसरी ओर बारानी इलाकों में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30-40 किलोग्राम फास्फोरस, 30-40 किलोग्राम पोटाश और सल्फर के लिए 200 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. साथ ही, 5 टन केंचुआ खाद या 10 टन गोबर की सड़ी खाद व 75 फीसदी संतुलित उर्वरक इस्तेमाल करने से 5-10 फीसदी पैदावार में इजाफा होता है.

असिंचित इलाकों में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30-40 किलोग्राम फास्फोरस, 30 किलोग्राम पोटाश, 2 किलोग्राम बोरोन प्रति हेक्टेयर करना चाहिए, वहीं सल्फर के लिए 200 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए.

बारानी इलाकों में उर्वरकों की पूरी मात्रा बोआई के समय देनी चाहिए. फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के जरीए देने पर सल्फर की कमी भी दूर हो जाती है.

यदि डीएपी का इस्तेमाल किया गया हो, तो बोआई से पहले 200 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर देना चाहिए. सिंचित दशा में नाइट्रोजन की आधी मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय नाई या चोंगा द्वारा बीज से 2-3 सैंटीमीटर नीचे देना फायदेमंद होता है.

वहीं नाइट्रोजन की बाकी बची हुई मात्रा को पहली सिंचाई के समय बोआई के 25 दिन बाद टौप ड्रैसिंग के समय इस्तेमाल करना चाहिए. फूल आने के वक्त थायोयूरिया के 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करने से उपज ज्यादा होती है.

विरलीकरण

तोरिया में बोआई के तकरीबन 15-20 दिनों के अंदर ही घने और कमजोर पौधों को निकाल कर पौधों से पौधों की दूरी 15-20 सैंटीमीटर कर देना जरूरी है.

सही तौर पर 2.5-3.0 लाख पौध प्रति हेक्टेयर पर या 25-30 पौधे प्रति वर्गमीटर होने से सही उपज मिलती है. साथ ही, तोरिया की खेती के साथ मधुमक्खीपालन काफी फायदेमंद होता है.

खरपतवार नियंत्रण

पौधों की तादाद ज्यादा होने की दशा में बोआई के तकरीबन 15-20 दिनों पर विरलीकरण के साथसाथ खरपतवारों को भी निराई कर के खेत से निकाल देना चाहिए. रासायनिक तरीके से खरपतवारों की रोकथाम के लिए फ्लूक्लोरेलिन की 1.25 लिटर मात्रा पर्याप्त पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई  से पहले जमीन में मिला दें या 0.7 किलोग्राम मात्रा पर्याप्त पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के बाद इस्तेमाल करना चाहिए.

पेंडीमिथेलीन 30 ईसी की 3.30 लिटर मात्रा को बोआई के बाद फौरन बाद छिड़काव करना चाहिए.

वहीं सूखी बोआई की स्थिति में बोआई कर के फ्लूक्लोरेलिन का छिड़काव कर के सिंचाई करनी चाहिए. बोआई के तकरीबन 20-25 दिन बाद आइसोप्रोट्यूरान की 0.75 किलोग्राम मात्रा का पर्याप्त पानी में घोल बना कर छिड़काव कर सकते हैं.

सिंचाई

पहली सिंचाई बोआई के 30-40 दिनों बाद (फूल आने से पहले) और दूसरी सिंचाई बोआई के 70-80 दिन बाद (फलियां बनने की अवस्था में) करें.

वहीं दूसरी ओर बलुई दोमट मिट्टी में तकरीबन 12 मीटर की दूरी पर नोजल लगा कर फव्वारा सेट 7 घंटे चला कर 2 बार सिंचाई करने पर सतही विधि के बराबर उपज के साथसाथ 40 फीसदी पानी की बचत की जा सकती है.