Micro-Irrigation : ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ माइक्रोइरीगेशन योजना

Micro-Irrigation : आजकल किसानों के सामने खेती में सिंचाई एक बड़ी समस्या है. दिनोंदिन पानी का लैवल नीचे पहुंचता जा रहा है. ऐसे समय में हमें खेती में कम पानी से सिंचाई हो, ऐसी तकनीक की दरकार है. इसी संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा सिंचाई के लिए माइक्रोइरीगेशन (Micro-Irrigation) योजना ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ के नाम से योजना चलाई जा रही है. राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी इस योजना के अंतर्गत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी तरीके से अनेक फसलों में अपनाने पर जोर दे रहा है. इस सिंचाई पद्धति से 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है.

हमारे देश में किसानों के विकास के लिए सरकार द्वारा अनेक कृषि योजनाएं चलाई जा रही हैं. चाहे बात खेत की बोआई की हो या खेत की सिंचाई की हो, फसल की निराईगुड़ाई की हो, फसल की छंटाई की हो, उस की गहाई की हो या खेत तैयार करने की हो, इन सब के बावजूद खेती के अनेक काम होते हैं, जिस के लिए अनेक आधुनिक तकनीकी पर आधारित कृषि यंत्र हैं, जिन के इस्तेमाल से न केवल फसल से अच्छी उपज मिलती है, बल्कि समय और मेहनत भी कम लगती है.

आजकल किसानों के सामने खादबीज के अलावा सिंचाई भी एक बड़ी समस्या है. दिनोंदिन पानी का लैवल नीचे पहुंचता जा रहा है. ऐसे समय में हमें खेती में कम पानी से सिंचाई हो, ऐसी तकनीकों की दरकार है.

इसी संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा सिंचाई के लिए माइक्रोइरीगेशन योजना ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ के नाम से योजना चलाई जा रही है. इसे सूक्ष्म सिंचाई तकनीक भी कहा जाता है.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी इस योजना के अंतर्गत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी तरीके से अनेक फसलों में अपनाने पर जोर दे रहा है. इस सिंचाई पद्धति से 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है और 35 से 40 फीसदी तक अधिक पैदावार भी हासिल की जा सकती है.

यूपीएमआईपी पोर्टल से करें रजिस्टर

वर्तमान में इस योजना का संचालन यूपीएमआईपी पोर्टल के जरीए किया जा रहा है. जो किसान इस योजना का लाभ लेना चाहता है, वह  पोर्टल पर रजिस्टर कर सूक्ष्म सिंचाई पद्धति लगा सकते हैं.

योजना प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए लाभार्थी किसानों के प्रक्षेत्रों (खेत) पर लगाई गई इस यूनिट का इंस्पैक्शन (जांच) थर्ड पार्टी द्वारा किया जाता है, जिस से सिंचाई यूनिट का बीमा भी किया जा सके.

ड्रिप सिंचाई पद्धति के लिए चुनी गईं फसलें

बागबानी फसल : फल उद्यान (फलों के बाग) : आम, अमरूद, आंवला, नीबू, बेल, बेर, अनार, अंगूर, आड़ू, लोकाट, आलूबुखारा, नाशपाती, पपीता, केला आदि.

सब्जी फसल : टमाटर, बैंगन, भिंडी, मिर्च, शिमला मिर्च, गोभीवर्गीय एवं कद्दूवर्गीय सब्जियां.

फूल और औषधीय फसल : खुशबूदार और औषधीय फसलों में अनेक तरह के फूलों की खेती जैसे ग्लैडियोलस, गुलाब, रजनीगंधा, सगंध पौधे और अनेक औषधीय फसलें आती हैं. इन फसलों के अलावा आलू, गन्ना और अनेक कृषि फसलें भी हैं, जो इस ड्रिप सिंचाई की योजना के अंतर्गत आती हैं.

स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति

इस में मुख्य रूप से मटर, आलू, गाजर, पत्तेदार सब्जियां और कृषि फसलों में माइक्रो, मिनी, पोर्टेबल, सैमी, परमानैंट एवं रेनगन स्प्रिंकलर का इस्तेमाल होता है.

सिंचाई यंत्र पर सब्सिडी का पैमाना

माइक्रोइरीगेशन योजना के तहत किसान को इस योजना का लाभ उस की श्रेणी के अनुसार मिलता है. इस के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार अपनेअपने हिस्से की सब्सिडी किसान को देती है. शेष राशि जो लाभार्थी को उठानी होती है, वह काफी कम होती है. विस्तार से सारणी में जानकारी दी गई है.

Kesarbati : केसरबाटी – मेवों का स्वाद चीनी का अंदाज

Kesarbati: आजकल मिठाई बनाने और उसे पेश करने का अंदाज अलग होने लगा है. यही वजह है कि मिठाई की दुकानों के मालिक और मिठाई बनाने के कारीगर कुछ न कुछ नया करने की कोशिश में रहते हैं. इस तरह के ज्यादातर प्रयोग खोए और मेवों के साथ किए जाते हैं. खोया जब मेवों के साथ मिल जात है, तो उस से तैयार मिठाई की लाइफ और कीमत दोनों बढ़ जाती हैं. ग्राहक भी नए तरीके से तैयार की गई मिठाई को खूब पसंद करते हैं. ऐसी ही एक मिठाई केसरबाटी (Kesarbati) है. मेवों, खोए और चीनी से तैयार होने वाली यह मिठाई अपने नाम से ही कुछ अलग लगती है.

लखनऊ की छप्पन भोग मिठाई के मालिक विनोद गुप्ता कहते हैं, ‘बाटी और चोखा उत्तर प्रदेश और बिहार का बहुत मशहूर पकवान है. उसी में से बाटी के आकार को ले कर हम ने केसरबाटी तैयार की है, जो आकार में बाटी की तरह दिखती है. इस के अंदर मेवे भरे होते हैं. बाटी को सेहत के लिए कारगर बनाने के लिए केसर का इस्तेमाल करते हैं. चीनी के छोटेछोटे दाने ले कर उन को केसर के रंग में रंग देते हैं. तैयार बाटी के ऊपर रंगे चीनी के दानों को चिपका दिया जाता है, जिस से बाटी देखने में पूरी तरह से केसरिया नजर आने लगती है. इस के जरीए हम ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की बाटी को अलग स्वाद में पेश करने की बेहद कामयाब कोशिश की है.’

केसरबाटी का स्वाद ले चुकी उमा आदिल कहती हैं, ‘केसरबाटी में केसर की भीनीभीनी खुशबू के साथसाथ खोए और मेवों का स्वाद मिलता है. सब से अच्छे बाटी के ऊपर लगे चीनी के दाने लगते हैं. वे इस मिठाई को पूरी तरह से अलग कर देते हैं. उसे खा कर लगता है जैसे हम मेवों से भरपूर कोई बहुत उम्दा मिठाई खा रहे हों. सब से अच्छी बात यह है कि यह दूसरी मिठाइयों के मुकाबले काफी किफायती है. मेवे मिले होने के कारण इसे खोऐ की दूसरी मिठाइयों के मुकाबले ज्यादा दिनों तक रख सकते हैं.’

कैसे बनती है केसरबाटी

केसरबाटी को बनाने के लिए सब से पहले कलाकंद बरफी बना लेते हैं. इस के बाद छोटे दाने की सफेद रंग वाली साफ चीनी लेते हैं. चीनी को केसर के रंग में रंग देते हैं. केसर के रंग के लिए केसर का ही इस्तेमाल करें. केसरिया खाने वाले रंग का इस्तेमाल न करें. अब कलाकंद बरफी को बाटी का आकार देते हुए छोटेछोटे गोलगोल आकार में बना लेते हैं. कुछ बारीक कटे मेवे अंदर रख कर बाटी को बंद कर देते हैं. ऊपर से चीनी के केसरिया दाने चिपका देते हैं. हाथ से दबा कर बाटी के ऊपर गड्ढा सा बना देते हैं. गड्ढे में पिस्ते और बादाम के टुकड़े काट कर रख देते हैं.

विनोद गुप्ता कहते हैं, ‘आजकल लोगों को उन मिठाइयों का स्वाद ज्यादा पसंद आ रहा है, जो कम मीठी होती हैं. केसरबाटी में चीनी का इस्तेमाल बेहद कम किया जाता है. मेवों के मिलने से चीनी की मिठास कम हो जाती है. अपने नाम और आकार के अलावा केसरबाटी देखने में बहुत अच्छी लगती है, इसीलिए इस को लोग खूब पसंद कर रहे हैं.

इस की कीमत करीब 500 रुपए प्रति किलोग्राम है. अपने खास नाम की वजह से यह लोगों को आसानी से याद रहती है.’

Oilseed Production : कैसे बढ़ेगा तिलहन उत्पादन

Oilseed Production :  पिछले दिनों 24 फरवरी,2025 को राष्ट्रीय खाद्य तेल-तिलहन मिशन नेशनल मिशन औन एडिबल औयल (एनएमइओ) योजानान्तर्गत दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस कार्यशाला में खेरवाड़ा, मावली, झाड़ोल, फलासिया और नयागांव पंचायत समितियों के चयनित 100 किसानों ने भाग लिया.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) के निदेशक अनुसंधान के नवीन सभाकक्ष में आयोजित कार्यशाला में किसानों को तिलहन उत्पादन बढ़ाने और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता संबंधी महत्वपूर्ण गुण सिखाए गए.

एमपीयूएटी के पादप रोग वैज्ञानिक डा. आरएस रत्नू ने तेल वाली फसलों यथा तिल, मूगंफली, सोयाबीन, अरण्डी, सूरजमुखी, सरसों, अलसी, कुसुम आदि में लगने वाली बीमारियों और उन के निदान के बारे में बताया, ताकि तिलहन की खेती करने वाले किसान समय रहते नुकसान से बच सकें.

कीट वैज्ञानिक डा. आर स्वामिनाथन ने तिलहन फसलों में लगने वाले प्रमुख कीट और उन का निदान, मित्र कीट की पहचान और उस का महत्व, फसल चक्र अपनाने के फायदे आदि के बारे में विस्तारपूर्वक बताया. पादप व अनुवांशिकी विभाग के डा. पीबी सिंह, अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा और डा. अभय दशोरा ने मूगंफली की उन्नत किस्मों व खरपतार नियंत्रण आदि की जानकारी दी.

आरंभ में संयुक्त निदेशक कृषि जिला उदयुपर सुधीर कुमार वर्मा ने कार्यशाला के लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए बताया कि तिलहन उत्पादन मिशन के अंतर्गत 2030-31 तक केंद्र ने 10 हजार 800 करोड़ रूपए की मंजूरी दी है. इस में 20 फीसदी राशि राज्य सरकार वहन करेगी.

Agricultural Science Fair : आईएआरआई में ‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’

Agricultural Science Fair : ‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’ दिनांक 24 फरवरी, 2025 को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ. यह तीन दिवसीय आयोजन कृषि नवाचार, सतत विकास, और प्रौद्योगिकी संचालित समाधानों को किसानों तक पहुंचाने के लिए किया गया था.

पूसा कृषि विज्ञान मेले (Agricultural Science Fair) के समापन दिवस पर किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, उद्योग जगत के नेताओं और नीति निर्माताओं की भारी भागीदारी देखी गई. एक लाख से अधिक किसानों ने इस मेले में सक्रिय रूप से भाग लिया और 300 नवीनतम कृषि तकनीकों का अवलोकन किया, जो फसल  उत्पादकता बढ़ाने और स्थाई कृषि को बढ़ावा देने के लिए विकसित की गई हैं.

इस मेले में दिन की प्रमुख गतिविधियों में युवा और महिला उद्यमिता विकास पर तकनीकी सत्र शामिल था, जिस की अध्यक्षता डा. एके सिंह, पूर्व निदेशक, आईसीएआर-आईएआरआई (ICAR-IARI), ने की और इस की सह-अध्यक्ष डा. अनुपमा सिंह, डीन एवं संयुक्त निदेशक, आईएआरआई,रहीं.

इस सत्र के मुख्य अतिथि डा. वीवी सदामाते, योजना आयोग के पूर्व सलाहकार थे. सत्र में प्रमुख विषयों जैसे कि वर्टिकल फार्मिंग, हाइड्रोपोनिक्स, संरक्षित खेती, पुष्प कृषि आधारित उद्यमों और मशरूम उत्पादन पर चर्चा की गई. इस दौरान युवा और महिला किसानों को कृषि उद्यमिता को अपनाने के लिए प्रेरित करने के महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए.

इस के अतिरिक्त, नवाचारशील किसानों की बैठक (इनोवेटिव फार्मर्स मीटिंग) का आयोजन किया गया, जिस में प्रगतिशील किसानों को अपने सफलता के अनुभव और उन्नत तकनीकों को साझा करने का अवसर मिला. इस सत्र की अध्यक्षता डा. राजबीर सिंह, डीडीजी, आईसीएआर ने की, जब कि डा. जेपी शर्मा, पूर्व कुलपति, एसकेयूएएसटी, जम्मू, मुख्य अतिथि रहे. इस अवसर पर उत्कृष्ट किसानों और शोधकर्ताओं को उन के योगदान के लिए सम्मानित किया गया.

‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’ के समापन समारोह के मुख्य अतिथि डा. हिमांशु पाठक, सचिव(DARE) और महानिदेशक(ICAR) थे. उन्होंने जलवायु-स्मार्ट कृषि की आवश्यकता पर जोर दिया और सतत कृषि तकनीकों और आधुनिक प्रौद्योगिकी समाधानों के समावेश का आह्वान किया, जिस से खाद्य उत्पादन में स्थायित्व सुनिश्चित किया जा सके. उन्होंने किसानों को पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक नवाचारों का समावेश कर दीर्घकालिक कृषि स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया.

Agricultural Science Fair

आईसीएआर-आईएआरआई के निदेशक डा. सीएच श्रीनिवास राव ने भी सभा को संबोधित किया और जलवायु-प्रतिकारक (क्लाइमेट-रेसिलिएंट) फसलों और उन्नत कृषि तकनीकों को अपनाने पर बल दिया, जिस से जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम किया जा सके. उन्होंने सतत कृषि उत्पादकता बनाए रखने के लिए निरंतर अनुकूलन और वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता को दोहराया.

कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन डा. आरएन पडारिया, संयुक्त निदेशक (विस्तार), आईसीएआर-आईएआरआई, द्वारा प्रस्तुत किया गया. उन्होंने सभी गणमान्य व्यक्तियों, प्रतिभागियों, हितधारकों और देशभर के किसानों का आभार व्यक्त किया, जिन के योगदान से यह आयोजन सफल बना.

‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’  उत्साहपूर्ण माहौल में संपन्न हुआ, जिस ने किसानों को ज्ञान, तकनीक और संसाधनों से सशक्त बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को फिर से दोहराया. यह आयोजन कृषि परिवर्तन को बढ़ावा देने, नवाचार को प्रोत्साहित करने और कृषि क्षेत्र को भविष्य की चुनौतियों के प्रति अधिक सशक्त बनाने के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करेगा.

फूलों की खुशबू (Fragrance of Flowers) से खिला किसान का भविष्य

मध्य प्रदेश के गांव करसरा के किसान रामसुजान कुशवाहा की कहानी संघर्ष, मेहनत और उम्मीदों की अनोखी मिसाल है. छोटे से गांव से बड़े सपने देखने वाले रामसुजान का जीवन संघर्षों और कठिनाइयों से भरा रहा, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी. खेती, परिवार और विपरीत हालात के बीच उन की जद्दोजेहद प्रेरणा देती है.

रामसुजान का गांव सतना जिला मुख्यालय से तकरीबन 28 किलोमीटर दूर सतना पन्ना स्टेट हाईवे पर बसा हुआ है. उन्होंने अपनी ससुराल से लिया गया कर्ज चुकाने के लिए उन्हीं की जमीन पर खेती कर के यह मुकाम पाया है.

शुरुआत का संघर्ष

रामसुजान कुशवाह का जीवन साधारण किसान परिवार में शुरू हुआ. उन के पिता  लल्लू कुशवाहा खुद संघर्षशील किसान थे. रामसुजान के पास अपनी जमीन नहीं थी, इसलिए उन्होंने 2 एकड़ जमीन ठेके पर ले कर खेती शुरू की. सालाना 12,000 रुपए ठेका भर कर उन्होंने आलू, प्याज और टमाटर की खेती की.

रामसुजान बताते हैं, ‘‘हमारे पास जमीन नहीं थी, लेकिन मेहनत करने का हौसला था. मैं ने सोचा कि खेती ही हमारा सहारा है, इसलिए आलू, टमाटर और प्याज की खेती शुरू की.’’ रामसुजान कुशवाहा ने साल 2018 में  पहली बार प्याज की खेती में हाथ आजमाया.

2 एकड़ में 15,000 रुपए लगा कर उन्होंने 100 क्विंटल प्याज का उत्पादन किया. यह उन का पहला बड़ा मुनाफा था, जिस में उन्होंने 50,000 रुपए कमाए. लेकिन अगले साल हालात बदल गए.

साल 2019 में प्याज की खेती में लागत बढ़ गई. बीज, कटाई, निदाई और खुदाई पर 30,000 रुपए खर्च हुए, लेकिन पैदावार घट गई. उन्हें 50 क्विंटल प्याज के उत्पादन से 20,000 रुपए का घाटा हुआ. यह पहली बार था, जब उन्होंने खेती में इतना बड़ा नुकसान देखा था.

दुर्घटना और माली परेशानी

साल 2020 रामसुजान कुशवाहा की जिंदगी का सब से कठिन वर्ष साबित हुआ. एक दिन जब वह प्याज ले कर सतना बाजार जा रहे थे, तो उन की गाड़ी करसरा के पास ट्रक से टकरा गई. इस दुर्घटना में उन की पसलियां टूट गईं और इलाज में एक लाख रुपए से ज्यादा का खर्च आया.

माली तंगी के इस दौर में उन के ससुर ने उन की मदद की, लेकिन जो पैसे दिए थे, वे कर्ज के रूप में दिए थे. इसे चुकाने के लिए ससुर की जमीन में ही रामसुजान ने खेती शुरू कर दी. ससुर भगवती प्रसाद का खेत सतना शहर से सटे महदेवा गांव में है. अब यह गांव सतना नगरनिगम का वार्ड नंबर 41 है.

रामसुजान बताते हैं, ‘‘एक पल को लगा कि सब खत्म हो गया. पैसे नहीं थे, लेकिन ससुरजी ने मदद (कर्ज)  की और परिवार ने भी सहायता की. ससुर ने जो पैसे दिए, उन्हें आज नहीं तो कल चुकाना ही था, सो काम कर के चुका रहे हैं. अब यह कर्ज हम चुका चुके हैं, पर और कोई काम नहीं है तो उन्हीं का खेत ठेके पर ले कर काम कर रहे हैं.’’

ससुर भगवती प्रसाद रेलवे में नौकरी करते थे. वे अब रिटायर हो चुके हैं. वे बताते हैं, ‘‘दामाद की बीमारी में कर्ज ले कर ही पैसा दिया था. रेलवे की जो नौकरी थी, उस से बहुत पहले ही रिटायर हो गया था, इसलिए अपनी गारंटी पर पैसा ले कर दिया था, उसे तो चुकाना ही था. तो खेत में काम कर के दामाद ने वे पैसे चुका दिए हैं. अब तो जो कमाई आ रही है, उसी की है. हम बस खेत का किराया, जो कि 12,000 रुपए प्रति सीजन है, ले लेते हैं.’’

फूलों की खेती से उम्मीद की किरण

साल 2022 में रामसुजान कुशवाहा ने फूलों की खेती में कदम रखा. उन्होंने आधा एकड़ में गेंदे, गुलाब और सेवंती के पौधे लगाए. फूलों ने उन की जिंदगी में नई रोशनी बिखेरी.

रामसुजान ने बताया, ‘‘गेंदे के फूल से हमें उम्मीद की नई किरण मिली. हर सीजन में 50,000 रुपए तक की कमाई होने लगी. गुलाब और सेवंती भी अच्छी आमदनी देने लगे.’’

फूलों की खुशबू (Fragrance of Flowers)

गेंदे के 100 पौधे हर रोज लगभग 150-200 रुपए की कमाई देने लगे. एक सीजन में 50,000 रुपए की आमदनी हुई. नवंबर और अप्रैल में बोआई करने के बाद गेंदे के फूल 4 महीनों में तैयार हो जाते हैं. गुलाब और सेवंती ने भी अच्छी आमदनी दी है. गुलाब के पौधों से प्रति किलोग्राम 100 रुपए और सेवंती से प्रति किलोग्राम 30 रुपए की कमाई होने लगी.

उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के उद्यानिकी अधिकारी नरेंद्र सिंह ने सतना जिले का डाटा शेयर करते हुए बताया कि साल 2022-23 का फाइनल डाटा आया है, उस के आधार पर 1744 हेक्टेयर में फूलों की खेती होती है. इस में 14192.5 मीट्रिक टन फूलों का उत्पादन हुआ है. इस में 684 हेक्टेयर में अकेले गेंदा फूल की खेती दर्ज की गई है.

इस रकबे में 8130 मीट्रिक टन गेंदा फूल का उत्पादन हुआ है. इस के अलावा ग्लैडियोलस 23 हेक्टेयर में 281.5 मीट्रिक टन, गुलाब 238 हेक्टेयर में 2048 मीट्रिक टन, ट्यूब रोज 11 हेक्टेयर में 100 मीट्रिक टन और अन्य फूल 788 हेक्टेयर में 3633 मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ है.

फूलों की खेती में पनपे सपने और उम्मीदें

आज रामसुजान और उन की पत्नी मुन्नी कुशवाहा अपनी मेहनत और दृढ़ता से आगे बढ़ रहे हैं. उन के परिवार की माली हालत धीरेधीरे सुधर रही है. गांव के 2 एकड़ खेतों और उन की मेहनत ने उन्हें अपने सपनों की ओर बढ़ने का साहस दिया है.

रामसुजान अपनी कमाई के बारे में कहते हैं, ‘‘अब फूलों की खेती से एक लाख रुपए तक आ जाते हैं. आलू और प्याज से 30 से 40 हजार रुपए और अन्य फसलों से भी 20-30 हजार रुपए मिल जाते हैं. कुलमिला कर हमारी सालाना आय 1.5 से 2 लाख रुपए तक पहुंच जाती है.’’

रामसुजान का मानना है कि जिंदगी में कितनी भी मुश्किलें आएं, उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए. उन की कहानी संघर्षशील किसानों के लिए प्रेरणा है, जो कम संसाधनों में बड़े सपने देखते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए बड़ी शिद्दत से मेहनत करते हैं.

भावनात्मक पहलू

रामसुजान कुशवाहा की जिंदगी हमें यह सिखाती है कि असफलताएं जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन सच्चा योद्धा वही है, जो हर गिरावट के बाद फिर खड़ा हो जाए. उन की दुर्घटना, माली तंगी, और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच उन की मेहनत और हौसला काबिलेतारीफ है.

रामसुजान के खेत आज सिर्फ फसल ही नहीं, बल्कि उम्मीद और सपनों की फसल उगा रहे हैं. उन के फूलों की खुशबू उन की मेहनत और जज्बे की कहानी सुनाती है.

रामसुजान कहते हैं, ‘‘खेती में घाटा भी होता है और मुनाफा भी. सब से जरूरी है मेहनत और उम्मीद. मैं ने मुश्किल समय में भी अपने खेतों को नहीं छोड़ा और आज मेरे खेत हमारी उम्मीदों का सहारा बने हैं.’’

प्रदेश चौथे नंबर पर

रामसुजान की कहानी भारत में फूलों की खेती के बढ़ते महत्त्व को दर्शाती है. राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय बागबानी डाटाबेस के अनुसार, साल 2023-24 के दौरान भारत में पुष्पकृषि का क्षेत्र 285 हजार हेक्टेयर था, जिस में 2,284 हजार टन शिथिल फूलों  और 947 हजार टन कटे फूलों का उत्पादन हुआ.

मध्य प्रदेश में उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के आंकड़ों के अनुसार, साल 2021-22 में 35,720 हेक्टेयर भूमि पर फूलों की खेती हुई, जिस से 4,12,730 मीट्रिक टन उत्पादन हुआ, वहीं साल 2023-24 में यह आंकड़ा 41,049 हेक्टेयर और 4,71,584 मीट्रिक टन तक पहुंच गया, जिस से 4 सालों में 58,854 मीट्रिक टन उत्पादन की वृद्धि दर्ज की गई.

मध्य प्रदेश अब फूलों के उत्पादन में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के बाद देश में चौथे स्थान पर है.

औषधीय फसल चंद्रशूर (Medicinal Crop Chandrashoor) की उन्नत खेती

सेहत के लिहाज से फायदेमंद मानी जाने वाली कई फसलें खेती न किए जाने से विलुप्त होने के कगार पर हैं. इन में कुछ ऐसी फसलें हैं, जो न केवल अपने औषधीय गुणों के चलते खास पहचान रखती हैं, बल्कि इन में उपलब्ध पोषक गुण व्यावसयिक नजरिए से भी बेहद खास माने जाते हैं.

ऐसी ही एक फसल का नाम है चंद्रशूर. इसे हालिम, हलम, असालिया, रिसालिया, असारिया, हालू, अशेलियो, चमशूर, चनसूर, चंद्रिका, आरिया, अलिदा, गार्डन-कैस,  लेपीडियम सेटाईवम आदि नामों से भी जाना जाता है.

इस औषधीय फसल की खेती पहले उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में व्यावसायिक स्तर पर खूब होती थी, लेकिन बीते 2 दशकों में इस की खेती सिमट कर छिटपुट रूप में होती है.

चंद्रशूर का औषधीय महत्त्व 

आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में चंद्रशूर के बीज का टूटी हड्डी को जोड़ने, पाचन प्रणाली और मन को शांत करने, सांस संबंधी रोगों, खूनी बवासीर, कैंसर, अस्थमा, सूजन, मांसपेशियों के दर्द आदि में प्रयोग किया जाता है. बच्चों के शरीर के सही विकास के लिए इस के बीज का पाउडर बहुत लाभकारी होता है.

इस के अलावा चंद्रशूर बच्चों की लंबाई बढ़ाने में भी खासा मददगार होता है. बच्चों की याददाश्त को बढ़ाने में भी यह सहायक है. इस के पौधे की ताजा पत्तियों को सलाद और चटनी के रूप में बना कर खाया जाता है. मूत्र संबंधी रोगों में पौधे का काढ़ा बना कर दिन में 3 बार सेवन करने पर लाभ मिलता है. दस्त में चंद्रशूर के बीज का चूर्ण बना कर चीनी अथवा मिश्री के साथ मिला कर उपयोग में लाया जाता है. इस के बीजों को एनीमिया से ग्रस्त मरीजों के इलाज के लिए भी उपयोग किया जाता है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

पोषक तत्त्वों से भरपूर

चंद्रशूर का वनस्पतिक नाम लेपीडियम सेटाईवम है. यह कुसीफेरी कुल का सदस्य है. इस का पौधा 30-60 सैंटीमीटर ऊंचा होता है, जिस की उम्र 3-4 माह होती है. इस के बीज लालभूरे रंग के होते हैं, जो 2-3 मिलीमीटर  लंबे, बारीक और बेलनाकार होते हैं. पानी लगने पर बीज लसलसे हो जाते हैं. यही लसलसा पदार्थ अरेबिक गम के विकल्प के रूप में उपयोग में लाया जाता है.

चंद्रशूर की खेती रबी के मौसम में की जाती है. इस का पौधा अलसी से मिलताजुलता है. बोआई अक्तूबर माह में की जाती है. इस के बीजों में प्रोटीन (25 फीसदी), वसा (24 फीसदी), कार्बोहाइड्रेट (33 फीसदी) और फाइबर (3 फीसदी) भी पाए जाते हैं. इस के अलावा इस में अन्य तत्त्व जैसे आयरन, कैल्शियम, फोलिक एसिड, विटामिन ए और सी भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं.

पशुओं के लिए भी है फायदेमंद

पशु डाक्टरों की मानें, तो चंद्रशूर के पौधों को बरसीम में मिला कर हरे चारे के रूप में उपयोग में लाने से बीजों में पाए जाने वाला गैलेक्टगौग तत्त्व लैक्टेशन (दूध) बढ़ाने में सहायक होता है और दूध में कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन एवं लैक्टोस में वृद्धि होती है.

यह डोपामिन रिसैप्टर के साथ क्रिया कर के प्रोलैक्टिन की मात्रा को बढ़ाता है. यह दूध की मात्रा बढ़ाने में भी सहायक होता है. इस से किसानों की आय में बढ़ोतरी की जा सकती है. चंद्रशूर को पशुओं को खिलाने से दूध की गुणवत्ता भी अच्छी हो जाती है.

उन्नत किस्में

चंद्रशूर की कुछ किस्मों, जिन की व्यावसायिक लैवल पर खेती की जाती है, में आरवीए-1007, जीए-1 एवं राज विजय-1007 प्रमुख हैं. हाल ही में हिसार के चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में विकसित की गई औषधीय फसल चंद्रशूर की उन्नत किस्म एचएलएस-4 पूरे देश विशेषकर उत्तरी हिस्से में खेती के लिए अनुमोदित की गई है.

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज के अनुसार, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उपमहानिदेशक (फसल विज्ञान) डा. टीआर शर्मा की अध्यक्षता वाली फसल मानक अधिसूचना एवं फसल किस्म अनुमोदन केंद्रीय उपसमिति द्वारा चंद्रशूर की इस किस्म को समस्त भारत विशेषकर उत्तरी भारत (हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में खेती के लिए जारी की गई है.

चंद्रशूर की एचएलएस-4 किस्म के विकसित होने से हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर के किसान भी इस की खेती आसानी से कर सकेंगे.

इस वनस्पति का औषधि के रूप में प्रयोग होने वाला मुख्य भाग इस का बीज है. राष्ट्रीय स्तर पर एचएलएस-4 किस्म के बीज की पैदावार 10.58 फीसदी, जबकि उत्तरी भाग में 30.65 फीसदी अधिक दर्ज की गई है.

इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 306.71 किलोग्राम तेल प्राप्त होता है, जो चंद्रशूर की प्रचलित जीए-1 किस्म के लगभग समान (306.82 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) है.

चंद्रशूर की यह किस्म हकृवि के औषधीय, सगंध एवं क्षमतावान फसल अनुभाग के वैज्ञानिकों डा. आईएस यादव, डा. जीएस दहिया, डा. ओपी यादव, डा. वीके मदान, डा. राजेश आर्य, डा. पवन कुमार, डा. ?ाबरमल सुतालिया और डा. वंदना की कड़ी मेहनत का परिणाम है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

बोआई के लिए मिट्टी और खेत की तैयारी

चंद्रशूर की खेती करने के लिए अच्छे जल निकास और सामान्य पीएच मान वाली बलुईदोमट मिट्टी में इस की खेती होती है. मुख्य रूप से चंद्रशूर की खेती रबी सीजन वाली फसलों के साथ की जाती है. चंद्रशूर की बारानी और असिंचित अवस्था में पलेवा की गई नमीयुक्त मिट्टी में बिजाई की जाती है.

चंद्रशूर की बिजाई अक्तूबर माह के दूसरे पखवारे में की जा सकती है. सिंचित अवस्था में ही चंद्रशूर की बिजाई की जाए, तो वह सर्वोत्तम रहती है. चंद्रशूर की खेती के लिए सिंचित बलुईदोमट मिट्टी पर 2 बार हैरो से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाने वाले यंत्र से भुरभुरा बना लेना चाहिए.

बीज की मात्रा

चंद्रशूर के बीज आकार में बहुत छोटे होते हैं, इसलिए एक एकड़ के लिए लगभग 1.5 से 2 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सैंटीमीटर और बीज की गहराई 1 से 2 सैंटीमीटर रखना उचित रहता है. बीज अधिक गहरा डालने पर अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ने से कम जमाव होने का खतरा रहता है. बीजों का अंकुरण आमतौर पर 5 से 15 दिनों में हो जाता है.

खाद और उर्वरक की मात्रा

चंद्रशूर की खेती के लिए लगभग 6 टन प्रति एकड़ गोबर की अच्छी सड़ीगली खाद एकसाथ खेत की तैयारी से पहले भूमि में मिला दें. इस के साथसाथ खेत में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ डाल कर मिला दें. पोटाश खाद बिजाई के समय जरूरत के मुताबिक डालना सही रहता है.

फसल की सिंचाई

चंद्रशूर की फसल असिंचित भूमि में ली जा सकती है, लेकिन अगर 2-3 सिंचाई उपलब्धता के आधार पर क्रमश: एक माह, 2 माह एवं ढाई माह पर सिंचाई करें, तो यह लाभकारी होता है.

बीज जमाव के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी का रहना अति आवश्यक है. बोआई के समय अगर मिट्टी में पर्याप्त नमी न हो, तो बिजाई के तुरंत बाद हलका पानी लगाने से अंकुरण शीघ्र एवं पर्याप्त मात्रा में होता है. दूसरा जल छिड़काव दाना बनते समय अवश्य करना चाहिए. स्वस्थ फसल और अधिक पैदावार लेने के लिए 2 निराईगुड़ाई, बोआई के क्रमश: 3 एवं 6 हफ्ते बाद करनी चाहिए.

कीट व बीमारियों का नियंत्रण

चंद्रशूर की फसल में तेला (एफिड) और पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप देखा गया है. अगर फसल में तेला (एफिड) रोग का प्रकोप दिखाई देता है, तो एक मिलीलिटर मैलाथियान प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना लाभदायक रहता है. अगर फसल में पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप दिखाई पड़े, तो सल्फर डस्ट का छिड़काव करना भी हितकर रहता है.

90 से 120 दिन में पक कर तैयार होती है फसल

चंद्रशूर के पौधों में बोआई के 2 महीने बाद फूल आने शुरू हो जाते हैं. चंद्रशूर की फसल 90 से 120 दिन के भीतर पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती है. पत्तियां जब हरी से पीली पड़ने लगें या फल में बीज लाल रंग का हो जाए, तो यह समय कटाई के लिए उपयुक्त रहता है. हंसिए या हाथ से इसे उखाड़ कर खलिहान में 2-3 दिन सूखने के लिए डाल दें, फिर डंडे से पीट कर या ट्रैक्टर से मिंजाई कर बीज को साफ कर लें.

उपज

असिंचित भूमि में इस की उपज 10-12 क्विंटल और सिंचित भूमि में 14-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है. इस के बीजों का बाजार भाव आमतौर पर 7,000 से 8,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक रहता है.

चंद्रशूर के औषधीय महत्त्व को देखते हुए इस के संरक्षण और व्यासायिक खेती के महत्त्व को ले कर सरकार और कृषि संस्थानों को आगे आ कर किसानों को जागरूक करने की जरूरत है. इसी के साथ देश के सभी राज्यों में चंद्रशूर की खेती को बढ़ावा मिले, इस के लिए चंद्रशूर की नई किस्मों को विकसित कर किसानों की आय में इजाफा भी किया जा सकता है.

Fox Nut : टैक्नोलौजी की मदद से बेहतर व आसन होगी मखाने की खेती

दरभंगा : केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान पिछले दिनों 23 फरवरी को दरभंगा, बिहार पहुंचे, जहां उन्होंने तालाब में उतर कर मखाना (Fox Nut) उत्पादक किसानों से बात की.

उन्होंने मखाने (Fox Nut)  की खेती की पूरी प्रक्रिया समझी और मखाना (Fox Nut) उत्पादन में आने वाली कठिनाइयों को जानने के साथ ही किसानों से सुझाव भी लिए. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि मखाना की खेती कठिन है और तालाब में दिनभर रह कर खेती करनी होती है. केंद्र सरकार ने इस साल बजट में मखाना बोर्ड बनाने का ऐलान किया है. इस बोर्ड के बनने के पहले वे किसानों से सुझाव ले कर चर्चा कर रहे हैं, ताकि किसानों की वास्तविक समस्याएं समझी जा सकें.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दरभंगा में राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र पर संवाद कार्यक्रम में मखाना के किसानों से सुझाव लेने के साथ ही उन्हें संबोधित भी किया. इस मौके पर मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम केवल विभाग नहीं चलाते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में गहराई तक जा कर कैसे हम किसानों की तकलीफ दूर करें, इस की कोशिश करते हैं.

उन्होंने आगे कहा कि किसान की आमदनी बढ़नी चाहिए. 57 फीसदी  लोग आज भी खेती पर निर्भर हैं, और खेती भी एक चीज की नहीं है, कहीं केला है तो कहीं लीची है, कहीं मकई है, तो कहीं गेहूं है, कहीं धान है, इस धरती पर तो मखाना है. अगर किसानों का कल्याण करना है, तो हमें हर एक फसल को ठीक से देखना पड़ेगा और इसलिए जब मैं पहली बार कृषि मंत्री बन कर पटना आया था, कृषि भवन में तब बैठक हुई थी किसानों के साथ और उस बैठक में मखाना उत्पादक किसानों ने अपनी समस्या बताई थी.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद किया, जिन्होंने मखाना केंद्र बनाया था. उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी का भी आभार जताया कि अब उन्होंने मखाना बोर्ड बनाने का फैसला किया है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि मखाना सुपरफूड है, पौष्टिकता का भंडार है, ये मखाना आसानी से पैदा नहीं होता है. मखाना पैदा करने के लिए कितनी तकलीफें सहनी पड़ती हैं, ये यहां आ कर देखा जा सकता है. इसलिए मेरे मन में ये भाव आया कि जिन्होंने किसानों की तकलीफ नहीं देखी, वह दिल्ली के कृषि भवन में बैठ कर मखाना बोर्ड बना सकते हैं क्या…? इसीलिए मैं ने कहा कि पहले वहां चलना पड़ेगा, जहां किसान मखाने की खेती कर रहा है. खेती करतेकरते कितनी दिक्कत और परेशानी आती है, ये भी हो सकता है कि यहां कार्यक्रम करते और निकल जाते, लेकिन इस से भी सही जानकारी नहीं मिलती.

उन्होंने कहा कि मेरे मन में भाव आया कि शिवराज तू तो सेवक है, एक बार पोखर, तालाब में उतर जा और मखाने की बेल को लगा, तब तो पता चलेगा कि मखाने की खेती कैसे होती है. जब बेल हाथ में ली तो पता चला कि उस के ऊपर भी कांटे थे और नीचे भी कांटे थे. हम तो केवल मखाना खाते हैं, लेकिन कभी कांटे नहीं देखे. जब हमारे किसान भाईबहन मखाने की खेती करते हैं, उन के लिए इस फसल को जितना लगाना कठिन है, उतना ही निकालना भी कठिन है.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों से कहा कि सही माने में आप से समझ कर कि मखाना बोर्ड बने तो कैसे बने, इसलिए उन्होंने अधिकारियों को भी निर्देश दिया है कि आईसीएआर (ICAR) व अनुसंधान केंद्र  कांटारहित मखाने का बीज विकसित करने पर काम करें.

Fox Nut

यह असंभव काम भी नहीं है. पर जहां बात मेकैनाइजेशन की आई, पानी में डुबकी लगा कर इसे निकालना पड़ता है, पूरे डूब गए आंख, नाक, कान में पानी और केवल पानी ही नहीं होता है, पानी के साथ कीचड़ भी होती है. अब आज के युग में मेकैनाइजेशन से ये चीज बदली जा सकती हैं, अभी यंत्र तो बने हैं, लेकिन उस में आधा मखाना आता है और आधा आता ही नहीं है. गुरिया बड़ी मुश्किल से निकलती है और इसलिए मेकैनाइजेशन होगा और ऐसे यंत्र बनाए जाएंगे, जो गुरिया को आसानी से बाहर खींच लाएं. आज टैक्नोलौजी है और प्रोसैसिंग में लगे कई मित्र ये काम कर रहे हैं.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम उत्पादन बढ़ाने पर काम करेंगे. दूसरा, हम काम करेंगे उत्पादन की लागत घटाना. लागत कैसे घट सकती है, उस के कई पक्ष मेरे सामने आ गए हैं. तीसरा काम- उत्पादन में आने वाली कठिनाइयों को दूर करना, जिस से खेती आसान हो जाए. अब कई पोखर चाहिए, तालाब चाहिए, पानी रोकने की व्यवस्था चाहिए, हम लोग विचार करेंगे कि केंद्र और राज्य सरकार की अलगअलग योजना के तहत ये कैसे बनाए जा सकते हैं. क्या मनरेगा में कहीं तालाबों का निर्माण हो सकता है? कई तरह के रास्ते निकल सकते हैं, उस पर भी हम काम करेंगे. कठिनाइयों को दूर करना है और जिस के लिए कई काम करने पड़ेंगे, वे  है- मखाने की उचित कीमत मिल जाए, इस का इंतजाम करना आदि.

अभी तो ठीक है, लेकिन कई बार दाम गिर जाते हैं, इसलिए बाजार का विस्तार, मंडियों को ठीक करना, घरेलू बाजार, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मखाने की पहुंच बनाना है. उन्होंने कहा कि ये सुपरफूड मखाना एक दिन दुनिया में छा जाएगा, क्योंकि मखाने में कई गुण मौजूद हैं. इसलिए सुपरफूड की हम कैसे मार्केटिंग करें, ब्रांडिंग करें, पेकैजिंग करें, उस सभी में सहयोग देंगे.

उन्होंने कहा कि लीज पर जमीन ले कर खेती करने वाले किसानों को केंद्र सरकार की सभी योजनाओं का लाभ मिले. चाहे किसान क्रैडिट कार्ड हो, कम दरों पर ब्याज, खाद की व्यवस्था, एमएसपी आदि का भी बंदोबस्त हो. बंटाईदार, मेहनत  करने वाले को भी लाभ मिलना चाहिए. इस दिशा में हम काम कर रहे हैं. मखाना उत्पादक किसानों की ट्रेनिंग पर भी काम किया जाएगा. कार्यशाला लगाना, ट्रेनिंग कैंप लगा कर कैसे कौशल विकसित किया जाए, इस की कोशिश करेंगे.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि आज का कार्यक्रम कर्मकांड नहीं है, यह आम सभा नहीं है, यह किसान पंचायत है. मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए भी किसानों से बात कर के उन के कल्याण की योजना बनाता था.  यही तो जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है.

उन्होंने आगे कहा कि कल बिहार के सौभाग्य के सूर्य का उदय होगा, जब प्रधानमंत्री मोदी पधारेंगे. पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि बिहार अद्भुत राज्य है, यहां का टैलेंट, यहां के मेहनती किसान, विशेषकर बिहार का मखाना सुपर फूड. मखाना का उत्पादन बढ़े, प्रोसैसिंग हो, गुणवत्ता बढ़े, अभी मखाना उत्पादक किसान कई कठिनाइयों में काम करते हैं, टैक्नोलौजी के माध्यम से उन कठिनाइयों को दूर किया जाए, इस के लिए मखाना बोर्ड बनाया जा रहा है.

Crop diversification: फूलों और मशरूम की खेती से बढ़ेगी आय

उदयपुर: तुरगढ़ गांव, झाड़ोल तहसील, उदयपुर में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत फसल विविधीकरण (Crop diversification) परियोजना के तहत दोदिवसीय किसान प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम का उद्देश्य फसल विविधीकरण (Crop diversification)  को प्रोत्साहित करते हुए किसानों की आय और कृषि स्थिरता को बढ़ाना था.

कार्यक्रम के शुरू में परियोजना अधिकारी डा. हरि सिंह ने फसल विविधीकरण (Crop diversification) की परिभाषा और इस की आवश्यकता व आर्थिक महत्व पर चर्चा की. उन्होंने बताया कि पारंपरिक फसलों के साथ अन्य फसलों को अपनाने से न केवल मुनाफा बढ़ता है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता और जल संरक्षण भी होता है.

एकल फसल प्रणाली के विपरीत विविध फसलें बाजार के उतारचढ़ाव और मूल्य अस्थिरता से सुरक्षा प्रदान करती हैं. इस के अलावा डा. हरि सिंह ने किसानो को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, ई-नाम व न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी केंद्र द्वारा चलाई जा रही परियोजनाओं की जानकारी प्रदान की.

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. लक्ष्मी नारायण महावर ने कहा कि फसल विविधीकरण (Crop diversification) दक्षिणी राजस्थान के किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण बदलाव ले कर आया है. उन्होंने दक्षिण राजस्थान में फूलों की खेती के महत्व के बारे में बताया कि यहां की जलवायु फूलों की खेती के लिए अनुकूल है, जिस से किसानों को पारंपरिक खेती की तुलना में अधिक लाभ मिल सकता है.

वहीँ प्रोफैसर नारायण लाल मीना ने मशरूम की खेती पर ध्यान केंद्रित करते हुए इस के आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी लाभों के बारे में बताया और यह भी बताया कि किस प्रकार हम कम निवेश में अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं. साथ ही, उन्होंने मशरूम पाउडर के पोषण मूल्य और बाजार मूल्य के बारे में भी बताया.

Crop diversification

प्रशिक्षण के दौरान मदन लाल मरमट, नारायण सिंह झाला और नरेंद्र यादव ने किसानों के साथ सूखे और एकल फसल से होने वाले नुकसान और उन की चुनौतियों पर चर्चा की और बताया कि कैसे हम फसल विविधीकरण (Crop diversification) के माध्यम से ऐसी समस्याओं पर काबू पा सकते हैं, जिस से कृषि स्थिरता और किसानों की आय में वृद्धि होगी.

कार्यक्रम के अंत में परियोजना अधिकारी डा. हरि सिंह ने खरीफ और रबी फसलों की उन्नत किस्मों की विस्तृत जानकारी दी. उन्होंने किसानों को बताया कि उन्नत किस्में न केवल अधिक उत्पादकता देती हैं, बल्कि कीट और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी रखती हैं.

उन्होंने आगे कहा कि फसलों की उन्नत किस्मों का चयन और सही समय पर बोआई किसानों की उत्पादकता में वृद्धि कर सकता है. साथ ही, संतुलित उर्वरक और सिंचाई प्रबंधन भी महत्वपूर्ण है. उन्होंने खेती के नवीनतम तरीकों जैसे बीजोपचार, समय पर खरपतवार नियंत्रण और फसल चक्र अपनाने पर जोर दिया.

इस कार्यक्रम में 40 से अधिक किसानों ने भाग लिया और प्रशिक्षण को काफी लाभदायक बताया. प्रतिभागियों ने इस जानकारी को अपने खेतों में लागू करने का संकल्प लिया, ताकि फसल विविधीकरण (Crop diversification) के माध्यम से उन की कृषि आय और स्थिरता में सुधार हो सके.

Natural farming : प्रकृति के साथ तालमेल ही प्राकृतिक खेती

उदयपुर : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के तत्वावधान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित जैविक खेती (Natural farming) पर अग्रिम संकाय प्रशिक्षण केंद्र के अंतर्गत 21 दिवसीय राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘‘प्रकृति के साथ सामंजस्यः प्राकृतिक खेती में अनुसंधान और नवाचार’’ पर अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर में पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा की अध्यक्षता में 19 फरवरी, 2025 को शुभारंभ हुआ.

इस अवसर पर पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा ने कहा कि प्राकृतिक खेती ही पर्यावरण के लिए अनुकूल है. प्राकृतिक खेती (Natural farming) द्वारा पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के साथसाथ मृदा स्वास्थ्य यानी मिट्टी की सेहत में भी बढ़ोतरी होगी. प्राकृतिक खेती (Natural farming) में प्रयोग कर रहे घटकों से मिट्टी में लाभदायक जीवाणुओं की बढ़ोतरी होगी, जिस से फसलों के उत्पादन में स्थायित्व आएगा.

Natural farmingडा. उमाशंकर शर्मा ने सभी प्रतिभागियों को 21 दिवसीय प्रशिक्षण के दौरान सभी वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि अपनेअपने क्षेत्र में जा कर ब्रांड अंबेसडर की भूमिका निभाएं. इस प्रशिक्षण में 5 राज्यों के 26 वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया. डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने बताया कि प्राकृतिक कृषि (Natural farming) एक तकनीक ही नहीं, अपितु पारिस्थितिकी दृष्टिकोण है, जिस के द्वारा प्रकृति के साथ तालमेल बिठाया जाता है.

डा. उमाशंकर शर्मा ने 5 राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे प्राकृतिक कृषि पर प्रशिक्षण ले रहे वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए कहा कि ज्ञान की सघनता एवं प्रशिक्षणों से दक्षता में वृद्धि द्वारा इस कृषि को बढ़ावा दिया जा सकता है. साथ ही, उन्होंने प्राकृतिक खेती (Natural farming) के घटक जीवामृत, बीजामृत, धनजीवामृत, आच्छादन एवं वाष्प के साथ जैविक कीटनाशियों पर जोर  दिया.

इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि डा. एसके शर्मा ने कहा कि प्राकृतिक खेती (Natural farming) के महत्व को देखते हुए स्नातक छात्रों के लिए विशेष पाठ्यक्रम पूरे देश में शुरू किया जा रहा है. इस के लिए सभी विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों, शिक्षकों, विषय विशेषज्ञों एवं विद्यार्थियों के लिए प्रशिक्षण आयोजित किए जा रहे हैं.

उन्होंने आगे बताया कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय का प्राकृतिक खेती में वृहद अनुसंधान कार्य एवं अनुभव होने के कारण यह विशेष दायित्व विश्वविद्यालय को दिया गया है. प्राकृतिक खेती (Natural farming) के विषय में पूरे विश्व की दृष्टि भारत की ओर है. ऐसे में पूरे विश्व भर से वैज्ञानिक एवं शिक्षक प्रशिक्षण लेने के लिए भारत आ रहे हैं. ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम उत्कृष्ट श्रेणी के प्रशिक्षण आयोजित करें.

Natural farming

डा. अरविंद वर्मा, निदेशक अनुसंधान एवं कोर्स डायरेक्टर ने अतिथियों का स्वागत किया एवं प्रशिक्षणार्थियों को दिए गए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के बारे में विस्तृत रूप से बताया. डा. अरविंद वर्मा ने बताया कि पूरे प्रशिक्षण में 49 सैद्धांतिक व्याख्यान, 9 प्रयोग प्रशिक्षण एवं 4 प्रशिक्षण भ्रमणों द्वारा प्रतिभागियों को प्रशिक्षित किया गया.

उन्होंने प्राकृतिक खेती पर सुदृढ़ साहित्य विकसित करने की आवश्यकता बताई. साथ ही, इस ट्रेनिंग के रिकौर्ड वीडियो यूट्यूब व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से प्रसारित करने की आवश्यकता पर भी बल दिया, जिस से कि वैज्ञानिक समुदाय एवं जनसामान्य में प्राकृतिक खेती के प्रति जागरूकता बढ़े एवं इस की जानकारी सुलभ हो सके.

कार्यक्रम में डा. आरएल सोनी, निदेशक, प्रसार शिक्षा निदेशालय, डा. सुनील जोशी, निदेशक, डीपीएम एवं अधिष्ठाता सीटीएआई, डा. मनोज महला, छात्र कल्याण अधिकारी, डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, उदयपुर, डा. रविकांत शर्मा, सहनिदेशक अनुसंधान एवं डा. एससी मीणा, आहरण वितरण अधिकारी एवं राजस्थान कृषि महाविद्यालय के सभी विभागाध्यक्ष और  तमाम वैज्ञानिक आदि उपस्थित थे. कार्यक्रम का संचालन डा. लतिका शर्मा, आचार्य ने किया.

Agricultural Science Centers को मिला आईएसओ का दर्जा

उदयपुर : 21 फरवरी, 2025 को महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी से संबद्ध सभी कृषि विज्ञान केंद्रों (Agricultural Science Centers) को आईएसओ 9001: 2015 प्रमाणपत्र मिलने के साथ ही प्रसार शिक्षा निदेशालय को भी इस उपलब्धि से नवाजा गया. अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) प्रमाणपत्र मिलने से वैश्विक स्तर पर प्रसार सेवाओं को न केवल बढ़ावा मिलेगा, बल्कि किसानों का और अधिक जुड़ाव होगा.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने यह जानकारी देते हुए बताया कि एमपीयूएटी के इतिहास में यह उपलब्धि मील का पत्थर साबित होगी. आईएसओ प्रमाणपत्र मिलने से एमपीयूएटी की देशविदेश में ख्याति बढ़ेगी. साथ ही, केवीके की प्रतिष्ठा, विश्वसनीयता, कर्मचारी सहभागिता, कानून व नियमों की अनुपालना और वैश्विक व्यापार में भी बढ़ोतरी होगी.

इन केवीके को मिला आईएसओ प्रमाणपत्र

कृषि विज्ञान केंद्र – बोरवट फार्म- बांसवाड़ा, रिठोला- चित्तौड़गढ़, फलोज- डूंगरपुर, बसाड़- प्रतापगढ़, धोइंदा- राजसमंद और सियाखेड़ी- उदयपुर द्वितीय. सुवाणा- भीलवाड़ा प्रथम और अरणियाघोड़ा- भीलवाड़ा द्वितीय को पहले ही आईएसओ प्रमाणपत्र मिल चुका है. इस तरह प्रसार शिक्षा निदेशालय को भी यह प्रमाणपत्र दिया गया है.

ये गतिविधियां बनीं मुख्य आधार

प्रसार शिक्षा निदेशक डा. आरएल सोनी ने बताया कि कृषि विज्ञान केंद्रों पर हालांकि किसान हित से जुड़ी अनेकों गतिविधियां संचालित होती हैं, लेकिन भीलवाड़ा की तर्ज पर सभी आईएसओ प्राप्त केवीके में विभिन्न प्रदर्शन इकाईयां जैसे सिरोही बकरी, प्रतापधन मुरगी, डेयरी, चूजापालन, वर्मी कंपोस्ट, वर्मीवाश, प्राकृतिक खेती इकाई, नर्सरी, नेपियर घास, वर्षा जल संरक्षण इकाई, बायोगैस, मछलीपालन, कम लागत से तैयार हाइड्रोपौनिक, हरा चारा उत्पादन इकाई, आंवला, अमरूद एवं नीबू का मातृवृक्ष बगीचा, बीजोत्पादन एवं क्राप केफैटेरिया आदि के माध्यम से किसान समुदाय के लिए समन्वित कृषि प्रणाली के उद्यम स्थापित कर, स्वरोजगार पैदा कर एवं आजीविका को सुदृढ कर आत्मनिर्भर किया जा रहा है.

ऐसे में किसानों का गांव से शहरों की ओर पलायन कम हुआ है. यही नहीं, किसान समुदाय के फसल उत्पादन और अन्य कृषि उत्पादों का समय पर विपणन होने से आमदनी में भी इजाफा हुआ है. इस के अलावा कृषि विज्ञान केंद्रों में समयसमय पर किसान मेलों, किसानवैज्ञानिक संवाद, किसान गोष्ठी, जागरूकता कार्यक्रम, महत्वपूर्ण दिवस, प्रदर्शन आदि प्रसार गतिविधियों का आयोजन कर कृषि नवाचार की सफल तकनीकियों का हस्तांतरण किया जा रहा है.