नई दिल्ली : खुले बाजार में गेहूं की उपलब्धता बढ़ाने और गेहूं की कीमतों को स्थिर रखने के लिए 1 नवंबर, 2023 से ओपन मार्केट सेल स्कीम (घरेलू) ओएमएसएस (डी) के तहत प्रत्येक बोली लगाने वाले की अधिकतम खरीद मात्रा 100 मीट्रिक टन से बढ़ा कर 200 मीट्रिक टन कर दी गई है और पूरे भारत में प्रति ईनीलामी की कुल मात्रा को 2 लाख मीट्रिक टन से बढ़ा कर 3लाख मीट्रिक टन तक कर दिया गया है.
चावल, गेहूं और आटे की खुदरा कीमत को नियंत्रित करने के लिए बाजार में हस्तक्षेप की भारत सरकार की पहल के तहत गेहूं और चावल दोनों की साप्ताहिक ईनीलामी आयोजित की जाती है.
वर्ष 2023-24 की 18वीं ईनीलामी 26 अक्तूबर, 2023 को आयोजित की गई थी. देशभर के 444 डिपो से 2.01 एलएमटी गेहूं की बिक्री की गई.
ईनीलामी में गेहूं के लिए 2763 सूचीबद्ध खरीदारों ने भाग लिया और 2318 सफल बोली लगाने वालों को 1.92 एलएमटी गेहूं बेचा गया.
एफएक्यू गेहूं के लिए भारित औसत विक्रय मूल्य 2251.57 रुपए प्रति क्विंटल, जबकि आरक्षित मूल्य पूरे भारत में 2150 रुपए प्रति क्विंटल था, वहीं यूआरएस गेहूं का भारित औसत बिक्री मूल्य, आरक्षित मूल्य 2125 रुपए प्रति क्विंटल के मुकाबले 2317.85 रुपए प्रति क्विंटल था.
स्टाक की जमाखोरी से बचने के लिए व्यापारियों को ओएमएसएस (डी) के तहत गेहूं की बिक्री से बाहर रखा गया है और ओएमएसएस (डी) के तहत गेहूं खरीदने वाले प्रोसैसरों की आटा मिलों पर नियमित जांच/निरीक्षण भी किया जा रहा है. 26 अक्तूबर, 23 तक देशभर में 1627 जांचें की जा चुकी हैं.
हमारे देश के गांवों में बसने वाली आबादी की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा खेती और पशुपालन से आता है. इस वजह से देश की ज्यादातर गांवदेहात की आबादी पशुपालन से जुड़ी हुई है, लेकिन कभीकभी पशुपालकों द्वारा सही चारा प्रबंधन और पोषण प्रबंधन न हो पाने के चलते प्रति पशु पर्याप्त दूध नहीं मिल पाता है और न ही बीमारियों का सही तरीके से प्रबंधन हो पाता है.
ऐसे में पशुपालकों की पशु आहार से जुड़ी समस्याओं को देखते हुए बिहार राज्य के समस्तीपुर जिले के चकलेवैनी ग्राम पंचायत की कैजिया गांव की महिलाओं ने स्थानीय स्तर पर पशु आहार बनाने का कारोबार शुरू कर आसपास के गांवों में पशुपालकों की पशु आहार से जुड़ी समस्या का निदान कर दिया है, जिस की बदौलत कैजिया गांव में चूल्हेचौके तक सिमटी रहने वाली घरेलू महिलाएं आज खुद की और पशुपालकों की तरक्की की कहानी तो लिख ही रही हैं, साथ ही साथ पशुपालकों की आमदनी बढ़ाने में मददगार भी साबित हो रही हैं.
छोटी बचत से हुई शुरुआत
पशु आहार बनाने से जुड़ी कैजिया गांव की महिलाओं को कुछ साल पहले तक घर से बाहर निकलने तक की मनाही थी, लेकिन आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम (भारत) द्वारा एक्सिस बैंक फाउंडेशन के सहयोग से इन गंवई महिलाओं को मजबूत बनाने के लिए स्वयंसहायता समूह से जोड़ कर बचत की आदतों को बढ़ावा देने की पहल शुरू की गई.
साहूकारों के चंगुल से मिली नजात
कैजिया गांव की इन महिलाओं ने मां संतोषी स्वयंसहायता समूह बनाया, जिस में पहले साल 12 महिलाएं ही जुड़ीं, जिस से जुड़ कर इन महिलाओं ने हर महीने 20 रुपए से ले कर 100 रुपए तक की बचत की शुरुआत की.
महिलाओं ने इस बचत के पैसों का इस्तेमाल अपने घर की जरूरतों और साहूकारों का कर्ज चुकता करने में किया, जिस से धीरेधीरे इन महिलाओं का परिवार साहूकारों के चंगुल से मुक्त हो गया. इस के बाद 3 साल में इस समूह से 18 महिलाएं जुड़ गईं.
महिलाओं की इस स्वयंसहायता समूह की साख को देख कर स्थानीय बैंक ने 2 लाख रुपए का लोन भी स्वीकृत किया है, जिस से समूह से जुड़ी महिलाएं व्यवसाय कर अपनी आमदनी को बढ़ा सकें.
इन महिलाओं ने बचत के दौरान यह महसूस किया कि उन्हें गांव में ही कुछ ऐसा व्यवसाय करना चाहिए, जिस से वह लाभ भी कमा सकें और उन के घर के पुरुषों का दूसरे शहरों में पलायन भी रुके. ऐसी दशा में इन महिलाओं ने आपस में तय किया कि उन के आसपास बकरीपालक और पशुपालकों की तादाद अधिक है. ऐसे में उन्होंने पाया कि पशुपालकों में अच्छी क्वालिटी के पशु आहार की मांग स्थानीय स्तर पर अधिक है. फिर क्या था, महिलाओं ने छोटे स्तर पर पशु आहार बनाने की मशीन लगाने का फैसला लिया.
इन महिलाओं ने एकेआरएसपीआई से अपनी यह मंशा सांझा की, तो एकेआरएसपीआई ने एक्सिस बैंक फाउंडेशन के सहयोग से उन के इस सपने को पूरा करने के लिए पशु आहार बनाने में उपयोग होने वाली मशीनरी को उपलब्ध कराने का फैसला लिया. इस पर कुल लागत तकरीबन 1 लाख, 97 हजार रुपए की आई. बाकी इस व्यवसाय में उपयोग आने वाले कच्चे माल को महिलाओं ने अपनी बचत के पैसों से खरीदारी करने का फैसला लिया.
समूह की महिलाएं पशु आहार बनाने के लिए खड़े दाने और चारा पीसने के लिए फीड ग्राइंडर मशीन, कैटल फीड मशीन, मिक्स करने के लिए मिक्सर मशीन, वजन करने के लिए वेट मशीन और थ्री फेज के बिजली कनैक्शन का उपयोग करती हैं.
उत्पादक समूह बना कर शुरू किया उत्पादन
कैजिया गांव की महिलाओं ने स्थानीय स्तर पर ही मां तारा उत्पादक समूह बना कर पशु आहार बनाने का काम शुरू किया है. चूंकि इन महिलाओं ने जब मशीनें लगाईं, तभी लौकडाउन लगा दिया गया. लेकिन मशीनें सप्लाई करने वाली कंपनी ने इन महिलाओं को मशीन चलाने और पशु आहार बनाने की औनलाइन ट्रेनिंग दी.
कम पढ़ीलिखी इन महिलाओं ने इसे बड़ी संजीदगी से सीखा और ये महिलाएं आज पशु आहार बनाने का काम कर रही हैं.
स्थानीय स्तर पर आसानी से मिलता है कच्चा माल
इस उत्पादक समूह की सचिव पूनम देवी ने बताया कि पशु आहार बनाने में उपयोग होने वाला कच्चा माल वाजिब दाम पर स्थानीय स्तर पर मिल जाता है. ऐसे में तैयार पशु आहार पशुपालकों को बाजार में उपलब्ध दूसरे ब्रांड की तुलना में सस्ता पड़ता है. इस वजह से उन के पशु आहार की मांग स्थानीय स्तर पर अधिक है.
समूह की कोषाध्यक्ष प्रमिला ने बताया कि पशु आहार बनाने में जिन चीजों का इस्तेमाल किया जाता है, उस में चोकर और खलियां, मोरिंगा पाउडर, मक्का, बाजरा, तेलयुक्त व तेलरहित चावल की पौलिश, मूंगफली, सोयाबीन, तिल्ली, सरसों, सूरजमुखी की खली, खनिज लवण, नमक, विटामिन व गुड़ प्रमुख हैं.
Ladli Award
पोषक तत्त्वों का रखा जाता है खयाल
कैजिया गांव में स्थानीय स्तर पर महिलाओं द्वारा तैयार किए जा रहे पशु आहार में पर्याप्त मात्रा में खनिज लवण, वसा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, न्यूक्लिक एसिड, विटामिन की मात्रा उपलब्ध रहती है, जिस से बकरियां, गायभैंस अधिक समय तक और अधिक मात्रा में दूध देती हैं. इस महिला समूह द्वारा तैयार पशु आहार पशुओं को अधिक स्वादिष्ठ और पौष्टिक लगता है.
समूह की सदस्य रीना देवी ने बताया कि उन के समूह द्वारा तैयार किया जाने वाला पशु आहार आसानी से व जल्दी पच जाता है. इस से पशुओं का स्वास्थ्य ठीक रहता है और उन की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है. इस वजह से पशुओं में बीमारियां होने की संभावनाएं कम होती हैं.
उन्होंने आगे बताया कि उन के समूह द्वारा तैयार पशु आहार संतुलित होने से पशु की दूध देने की क्षमता बढ़ती है व अन्य पशु आहारों से सस्ता होने से दूध की प्रति लिटर लागत भी कम होती है.
उन्होंने यह भी बताया कि उन के उत्पाद में पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्त्व मौजूद होते हैं, जिस से पशुओं का ऋतु चक्र नियमित होता है और वह समय पर गर्भ धारण करती है.
लौकडाउन में बना मददगार
कैजिया गांव में भी कोरोना के चलते देश में लगे लौकडाउन की वजह से दूसरे शहरों में नौकरी करने वाले लोग अपने गांव लौट आए. इस दशा में उन के घरों की महिलाओं ने लौकडाउन के दौरान भी पशु आहार तैयार कर उस की मार्केटिंग कर अपने घर की माली हालत को बिगड़ने से बचाने में अहम भूमिका निभाई.
अब पुरुषों पर निर्भर नहीं
समूह की सचिव पूनम ने बताया कि कभी हम घर के पुरुष सदस्यों पर निर्भर हुआ करते थे और आज हमारे यहां के पुरुष नौकरी कर पशु आहार की मार्केटिंग में जुटे हुए हैं. इस से इन का दूसरे शहरों की तरफ पलायन तो रुका ही है, साथ ही स्थानीय लैवल पर रोजगार मिलने में भी मदद मिली है.
आमदनी बढ़ाने में हुई सफल
एकेआरएसपीआई के बिहार प्रदेश के रीजनल मैनेजर सुनील कुमार पांडेय ने बताया कि कैजिया गांव की ये महिलाएं छोटे और बड़े पशुओं के लिए खुद ही मिनरल आहार तैयार करती हैं, जिस पर प्रति किलोग्राम तकरीबन 20 से 25 रुपए की लागत आती है, जिसे वह आसानी से 35 रुपए की दर से बेच लेती हैं. इस प्लांट की जो सब से बड़ी खूबी है वह है, इस प्लांट का संचालन खुद महिलाएं ही करती हैं.
उन्होंने बताया कि गांव की कम पढ़ीलिखी महिलाओं ने पशु आहार बनाने के कारोबार में कामयाबी पा कर यह साबित कर दिया है कि आज के दौर में महिलाएं किसी से कमतर नहीं रहीं.
गंवई महिलाओं के लोकल लैवल पर पशु आहार बनाने के कारोबार की कामयाबी के मसले पर एकेआरएसपीआई के बिहार में कृषि प्रबंधक डा. बसंत कुमार ने बताया कि समस्तीपुर के ज्यादातर गांवों में लोग पशुपालन के कारोबार से जुड़े हुए हैं.
उन्होंने यह भी बताया कि पशुओं से अधिक दूध उत्पादन के लिए और बीमारियों से बचाव के लिए पशुओं को संतुलित पशु आहार खिलाया जाना जरूरी हो जाता है. ऐसे में पोषक तत्त्वों से युक्त गुणवत्तापूर्ण और सस्ता पशु आहार लोकल लैवल पर मिलना पशुपालकों के लिए चुनौतीपूर्ण था. ऐसे में चकलेवैनी ग्राम पंचायत के कैजिया गांव की महिलाओं ने लोकल लैवल पर पशु आहार बनाने का कारोबार शुरू कर पशुपालकों की समस्या को काफी हद तक कम करने का काम किया है.
उन्होंने यह भी बताया कि महिलाएं पशु आहार बना कर अपने घर की आमदनी बढ़ाने में खासा मददगार साबित हुई हैं.
धान एक प्रमुख खाद्यान्न फसल है, जो पूरे विश्व की आधी से ज्यादा आबादी को भोजन प्रदान करती है. चावल के उत्पादन में सर्वप्रथम चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर आता है. भारत में धान की खेती लगभग 450 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है. छोटी होती जोत एवं कृषि श्रमिक न मिल पाने के चलते और जैविक, अजैविक कारकों की वजह से धान की उत्पादकता में लगातार कमी आ रही है.
इन सभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग, पहचान और उन के प्रबंधन के बारे में बता रहे हैं, जिस से कि किसान धान की फसल में उस रोग की समय से पहचान कर फसल का बचाव कर सकें.
1. झोंका रोग : यह धान की फसल का मुख्य रोग है, जो एक पाईरीकुलेरिया ओराइजी नामक फफूंद से फैलता है. इस रोग के लक्षण पौधे के सभी वायवीय भागों पर दिखाई देते हैं. परंतु सामान्य रूप से पत्तियां और पुष्प गुच्छ की ग्रीवा इस रोग से अधिक प्रभावित होती हैं. प्रारंभिक लक्षण में पौधे की निचली पत्तियों पर धब्बे दिखाई देते हैं. जब ये धब्बे बड़े हो जाते हैं, तो ये धब्बे नाव अथवा आंख की जैसी आकृति के जैसे हो जाते हैं. इन धब्बों के किनारे भूरे रंग के और मध्य वाला भाग राख जैसे रंग का होता है. बाद में धब्बे आपस में मिल कर पौधे के सभी हरे भागों को ढक लेते हैं, जिस से फसल जली हुई सी प्रतीत होती है.
रोग प्रबंधन
– रोगरोधी क़िस्मों का चयन करना चाहिए.
– बीज का चयन रोगरहित फसल से करना चाहिए.
– बीज को सदैव ट्राईकोडर्मा से उपचारित कर के ही बोना चाहिए.
– फसल की कटाई के बाद खेत में रोगी पौध अवशेषों एवं ठूठों इत्यादि को एकत्र कर के नष्ट कर देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
2. जीवाणु झुलसा या झुलसा रोग : यह रोग जेंथोमोनास ओराईजी नामक जीवाणु से फैलता है. इसे साल 1908 में जापान में सब से पहले देखा गया था.
रोग की पहचान
पौधों की चोटी अवस्था से ले कर परिपक्व अवस्था तक यह रोग कभी भी लग सकता है. इस रोग में पत्तियां नोंक अथवा किनारों से शुरू हो कर मध्य भाग तक सूखने लगती हैं. सूखे हुए किनारे अनियमित एवं टेढ़ेमेढ़े या झुलसे हुए दिखाई देते हैं. इन सूखे हुए पीले पत्तों के साथसाथ राख़ के रंग के चकत्ते भी दिखाई देते हैं. संक्रमण की उग्र अवस्था में पत्ती सूख जाती है. बालियों में दाने नहीं पड़ते हैं.
रोग प्रबंधन
– शुद्ध एवं स्वस्थ बीजों का ही प्रयोग करें.
– बीजों को बोआई से पहले 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन और 25 ग्राम कौपरऔक्सीक्लोराइड के घोल में 12 घंटे तक डुबोएं.
– इस रोग के लगने की अवस्था में नत्रजन का प्रयोग कम कर दें.
– जिस खेत में रोग लगा हो, उस खेत का पानी किसी दूसरे खेत में न जाने दें. साथ ही, उस खेत में सिंचाई न करें.
– रोग को और अधिक फैलने से रोकने के लिए खेत में समुचित जल निकास की व्यवस्था की जानी चाहिए.
3. धान का भूरा धब्बा रोग : यह एक बीजजनित रोग है, जो हेलिमेंथो स्पोरियम ओराईजी नामक फफूंद द्वारा फैलता है. इस रोग की वजह से साल 1943 में बंगाल में अकाल पड़ गया था.
रोग की पहचान
इस रोग में पत्तियों पर गहरे कत्थई रंग के गोल अथवा अंडाकार धब्बे बन जाते हैं. इन धब्बों के चारों तरफ पीला घेरा बन जाता है और मध्य भाग पीलापन लिए हुए कत्थई रंग का होता है और पत्तियां झुलस जाती हैं. दानों पर भी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. इस रोग का आक्रमण पौध अवस्था से ले कर दाने बनने की अवस्था तक होता है.
4. शीत झुलसा या आवरण झुलसा रोग : यह एक फफूंदजनित रोग है, जिस का रोग कारक राईजोक्टोनिया सोलेनाई है. पूर्व में इस रोग को अधिक महत्व का नहीं माना जाता था. अधिक पैदावार देने वाली एवं अधिक उर्वरक उपभोग करने वाली प्रजातियों के विकास से यह रोग धान के रोगों में अपना प्रमुख स्थान रखता है, जो कि उपज में 50 फीसदी तक नुकसान कर सकता है.
रोग की पहचान
इस रोग का संक्रमण नर्सरी से ही दिखना आरंभ हो जाता है, जिस से पौधे नीचे से सड़ने लगते हैं. मुख्य खेत में ये लक्षण कल्ले बनने की अंतिम अवस्था में प्रकट होते हैं. लीफ शीथ पर जल सतह के ऊपर से धब्बे बनने शुरू होते हैं. इन धब्बों की आकृति अनियमित और किनारा गहरा भूरा व बीच का भाग हलके रंग का होता है. पत्तियों पर घेरेदार धब्बे बनते हैं. अनुकूल परिस्थितियों में कई छोटेछोटे धब्बे मिल कर बड़ा धब्बा बनाते हैं. इस के कारण शीथ, तना, ध्वजा पत्ती पूरी तरह से ग्रसित हो जाती है और पौधे मर जाते हैं.
खेतों में यह रोग अगस्त एवं सितंबर माह में अधिक तीव्र दिखता है. संक्रमित पौधों में बाली कम निकलती है और दाने भी नहीं बनते हैं.
रोग प्रबंधन
– धान की रोगरोधी प्रजातियों को चुनें.
– शुद्ध एवं स्वस्थ बीजों का ही प्रयोग करें.
– बीजों को फफूंदनाशक से उपचारित कर के बोएं.
– मुख्य खेत एवं मेंड़ों को खरपतवार से मुक्त रखें.
– संतुलित उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए.
– नाइटोजन उर्वरकों को 2 या 3 बार में देना चाहिए.
– खेतों से फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
5. खैरा रोग : यह रोग जस्ता की कमी के कारण होता है. इस रोग के लगने पर पौधे की निचली पत्तियां पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के अनियमित धब्बे उभरने लगते हैं. रोग की उग्र अवस्था में पौधे की पत्तियां पीली पड़ कर सूखने लगती हैं. कल्ले कम निकलते हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है.
रोग प्रबंधन
– धान की फसल में यह रोग न लगे, उस के लिए 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ की दर से रोपाई से पहले खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए.
– रोग लगने के बाद इस की रोकथाम के लिए 2 किलोग्राम जिंक सल्फेट और 1 किलोग्राम चूना 250 से 300 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ में छिड़काव करें. आवश्यकतानुसार 10 दिन के बाद फिर से स्प्रे करें.
6. आभासी कंड या ध्वज कंड या हलदी रोग : यह रोग क्लेविसेप्स ओराईजी नामक फफूंद से फैलता है. पहले यह रोग ज्यादा महत्व का नहीं माना जाता था, बल्कि इसे किसान के लिए शुभ संकेत माना जाता था. परंतु अधिक पैदावार देने वाली एवं अधिक उर्वरक उपयोग करने वाली प्रजातियों के विकास और जलवायु परिवर्तन से अब यह रोग धान के रोगों में अपना प्रमुख स्थान रखता है, जो कि संक्रमण के अनुसार उपज में 2 फीसदी से ले कर 40 फीसदी तक नुकसान करता है.
रोग की पहचान
इस रोग के लक्षण पौधों की बालियों में केवल दानों पर ही दिखाई देते हैं. रोगजनक के विकसित हो जाने के कारण बाली में कहीं कहीं बिखरे हुए दाने बड़़े मखमल के समान चिकने हरे समूह में बदल जाते हैं, जो अनियमित रूप में गोल अंडाकार होते हैं. इन का रंग बाहरी और नारंगी पीला और मध्य में लगभग सफेद होता है. इस रोग से बाली में कुछ ही दाने प्रभावित होते हैं.
रोग प्रबंधन
– सदैव बीजोपचार कर के ही बोना चाहिए.
– खेत को खरपतवारमुक्त रखना चाहिए.
– खेत की तैयारी के वक्त खेत की सफाई कर उस की गहरी जुताई कर के तेज धूप लगने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
धान एक प्रमुख खाद्यान्न फसल है, जो पूरे विश्व की आधी से ज्यादा आबादी को भोजन प्रदान करती है. चावल के उत्पादन में सर्वप्रथम चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर आता है. भारत में धान की खेती लगभग 450 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है. छोटी होती जोत एवं कृषि श्रमिक न मिल पाने के चलते और जैविक, अजैविक कारकों की वजह से धान की उत्पादकता में लगातार कमी आ रही है.
इन सभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग, पहचान और उन के प्रबंधन के बारे में बता रहे हैं, जिस से कि किसान धान की फसल में उस रोग की समय से पहचान कर फसल का बचाव कर सकें.
1. झोंका रोग : यह धान की फसल का मुख्य रोग है, जो एक पाईरीकुलेरिया ओराइजी नामक फफूंद से फैलता है. इस रोग के लक्षण पौधे के सभी वायवीय भागों पर दिखाई देते हैं. परंतु सामान्य रूप से पत्तियां और पुष्प गुच्छ की ग्रीवा इस रोग से अधिक प्रभावित होती हैं. प्रारंभिक लक्षण में पौधे की निचली पत्तियों पर धब्बे दिखाई देते हैं. जब ये धब्बे बड़े हो जाते हैं, तो ये धब्बे नाव अथवा आंख की जैसी आकृति के जैसे हो जाते हैं. इन धब्बों के किनारे भूरे रंग के और मध्य वाला भाग राख जैसे रंग का होता है. बाद में धब्बे आपस में मिल कर पौधे के सभी हरे भागों को ढक लेते हैं, जिस से फसल जली हुई सी प्रतीत होती है.
रोग प्रबंधन
– रोगरोधी क़िस्मों का चयन करना चाहिए.
– बीज का चयन रोगरहित फसल से करना चाहिए.
– बीज को सदैव ट्राईकोडर्मा से उपचारित कर के ही बोना चाहिए.
– फसल की कटाई के बाद खेत में रोगी पौध अवशेषों एवं ठूठों इत्यादि को एकत्र कर के नष्ट कर देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
2. जीवाणु झुलसा या झुलसा रोग : यह रोग जेंथोमोनास ओराईजी नामक जीवाणु से फैलता है. इसे साल 1908 में जापान में सब से पहले देखा गया था.
रोग की पहचान
पौधों की चोटी अवस्था से ले कर परिपक्व अवस्था तक यह रोग कभी भी लग सकता है. इस रोग में पत्तियां नोंक अथवा किनारों से शुरू हो कर मध्य भाग तक सूखने लगती हैं. सूखे हुए किनारे अनियमित एवं टेढ़ेमेढ़े या झुलसे हुए दिखाई देते हैं. इन सूखे हुए पीले पत्तों के साथसाथ राख़ के रंग के चकत्ते भी दिखाई देते हैं. संक्रमण की उग्र अवस्था में पत्ती सूख जाती है. बालियों में दाने नहीं पड़ते हैं.
रोग प्रबंधन
– शुद्ध एवं स्वस्थ बीजों का ही प्रयोग करें.
– बीजों को बोआई से पहले 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन और 25 ग्राम कौपरऔक्सीक्लोराइड के घोल में 12 घंटे तक डुबोएं.
– इस रोग के लगने की अवस्था में नत्रजन का प्रयोग कम कर दें.
– जिस खेत में रोग लगा हो, उस खेत का पानी किसी दूसरे खेत में न जाने दें. साथ ही, उस खेत में सिंचाई न करें.
– रोग को और अधिक फैलने से रोकने के लिए खेत में समुचित जल निकास की व्यवस्था की जानी चाहिए.
3. धान का भूरा धब्बा रोग : यह एक बीजजनित रोग है, जो हेलिमेंथो स्पोरियम ओराईजी नामक फफूंद द्वारा फैलता है. इस रोग की वजह से साल 1943 में बंगाल में अकाल पड़ गया था.
रोग की पहचान
इस रोग में पत्तियों पर गहरे कत्थई रंग के गोल अथवा अंडाकार धब्बे बन जाते हैं. इन धब्बों के चारों तरफ पीला घेरा बन जाता है और मध्य भाग पीलापन लिए हुए कत्थई रंग का होता है और पत्तियां झुलस जाती हैं. दानों पर भी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. इस रोग का आक्रमण पौध अवस्था से ले कर दाने बनने की अवस्था तक होता है.
4. शीत झुलसा या आवरण झुलसा रोग : यह एक फफूंदजनित रोग है, जिस का रोग कारक राईजोक्टोनिया सोलेनाई है. पूर्व में इस रोग को अधिक महत्व का नहीं माना जाता था. अधिक पैदावार देने वाली एवं अधिक उर्वरक उपभोग करने वाली प्रजातियों के विकास से यह रोग धान के रोगों में अपना प्रमुख स्थान रखता है, जो कि उपज में 50 फीसदी तक नुकसान कर सकता है.
रोग की पहचान
इस रोग का संक्रमण नर्सरी से ही दिखना आरंभ हो जाता है, जिस से पौधे नीचे से सड़ने लगते हैं. मुख्य खेत में ये लक्षण कल्ले बनने की अंतिम अवस्था में प्रकट होते हैं. लीफ शीथ पर जल सतह के ऊपर से धब्बे बनने शुरू होते हैं. इन धब्बों की आकृति अनियमित और किनारा गहरा भूरा व बीच का भाग हलके रंग का होता है. पत्तियों पर घेरेदार धब्बे बनते हैं. अनुकूल परिस्थितियों में कई छोटेछोटे धब्बे मिल कर बड़ा धब्बा बनाते हैं. इस के कारण शीथ, तना, ध्वजा पत्ती पूरी तरह से ग्रसित हो जाती है और पौधे मर जाते हैं.
खेतों में यह रोग अगस्त एवं सितंबर माह में अधिक तीव्र दिखता है. संक्रमित पौधों में बाली कम निकलती है और दाने भी नहीं बनते हैं.
रोग प्रबंधन
– धान की रोगरोधी प्रजातियों को चुनें.
– शुद्ध एवं स्वस्थ बीजों का ही प्रयोग करें.
– बीजों को फफूंदनाशक से उपचारित कर के बोएं.
– मुख्य खेत एवं मेंड़ों को खरपतवार से मुक्त रखें.
– संतुलित उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए.
– नाइटोजन उर्वरकों को 2 या 3 बार में देना चाहिए.
– खेतों से फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
5. खैरा रोग : यह रोग जस्ता की कमी के कारण होता है. इस रोग के लगने पर पौधे की निचली पत्तियां पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के अनियमित धब्बे उभरने लगते हैं. रोग की उग्र अवस्था में पौधे की पत्तियां पीली पड़ कर सूखने लगती हैं. कल्ले कम निकलते हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है.
रोग प्रबंधन
– धान की फसल में यह रोग न लगे, उस के लिए 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ की दर से रोपाई से पहले खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए.
– रोग लगने के बाद इस की रोकथाम के लिए 2 किलोग्राम जिंक सल्फेट और 1 किलोग्राम चूना 250 से 300 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ में छिड़काव करें. आवश्यकतानुसार 10 दिन के बाद फिर से स्प्रे करें.
6. आभासी कंड या ध्वज कंड या हलदी रोग : यह रोग क्लेविसेप्स ओराईजी नामक फफूंद से फैलता है. पहले यह रोग ज्यादा महत्व का नहीं माना जाता था, बल्कि इसे किसान के लिए शुभ संकेत माना जाता था. परंतु अधिक पैदावार देने वाली एवं अधिक उर्वरक उपयोग करने वाली प्रजातियों के विकास और जलवायु परिवर्तन से अब यह रोग धान के रोगों में अपना प्रमुख स्थान रखता है, जो कि संक्रमण के अनुसार उपज में 2 फीसदी से ले कर 40 फीसदी तक नुकसान करता है.
रोग की पहचान
इस रोग के लक्षण पौधों की बालियों में केवल दानों पर ही दिखाई देते हैं. रोगजनक के विकसित हो जाने के कारण बाली में कहीं कहीं बिखरे हुए दाने बड़़े मखमल के समान चिकने हरे समूह में बदल जाते हैं, जो अनियमित रूप में गोल अंडाकार होते हैं. इन का रंग बाहरी और नारंगी पीला और मध्य में लगभग सफेद होता है. इस रोग से बाली में कुछ ही दाने प्रभावित होते हैं.
रोग प्रबंधन
– सदैव बीजोपचार कर के ही बोना चाहिए.
– खेत को खरपतवारमुक्त रखना चाहिए.
– खेत की तैयारी के वक्त खेत की सफाई कर उस की गहरी जुताई कर के तेज धूप लगने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
आज के दौर में लोगों के रहनसहन और खानपान की आदतों में न केवल बदलाव आया है, बल्कि लोग खुद की सेहत को ले कर बेहद सजग रहने लगे हैं. ऐसे में लोगों का खाने में पोषक तत्वों की प्रचुरता वाली सागसब्जियों की तरफ ज्यादा झुकाव देखने को मिल रहा है.
पोषक तत्वों की प्रचुरता के नजरिए से भिंडी एक ऐसी सब्जी है, जिसे आम से खास लोग अपने खानें में पसंद करते हैं. भिंडी में सेहत को फायदा पहुंचाने वाली प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, फास्फोरस के अतिरिक्त विटामिन ए, बी, सी, थाईमीन एवं रिबोफ्लेविन भी पाया जाता है. इसलिए इस के खाने में उपयोग के चलते शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता में इजाफा होता है.
अगर देश में भिंडी को खेती के नजरिए से देखा जाए, तो अभी तक देश के अधिकांश भूभाग पर भिंडी के हरे किस्म की खेती की जाती रही है. लेकिन वाराणसी के भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान ने भिंडी की ऐसी किस्म ईजाद की है, जिस का रंग भिंडी की दूसरी किस्मों से हट कर बैगनी और लाल रंग की होती है. इसे ईजाद करने वाले वैज्ञानिकों में डा. बिजेंद्र, डा. एसके सानवाल और डा. जीपी मिश्रा के साथसाथ तकनीकी सहायक सुभाष चंद्र का नाम शामिल है. इसे ईजाद करने वाले संस्थान ने इस किस्म का नाम “काशी लालिमा” रखा है. इस को विकसित करने के लिए भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान द्वारा 1995-96 से लगातार शोध किया जा रहा था, जिस में 23 वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद कृषि वैज्ञानिकों ने सफलता पाई.
इस किस्म को विकसित करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार, भिंडी की इस किस्म के बैगनीलाल होने के चलते इस में पाया जाने वाला एंथोसायनीन तत्व की उपलब्धता है, जिस के चलते इस किस्म का रंग लाल होता है.
लोगों में पोषक तत्वों से भरपूर प्रचुरता वाली सब्जियों की मांग बढ़ी है. ऐसे में भिंडी की काशी लालिमा प्रजाति की खेती कर किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि हरी भिंडी के मुकाबले लाल भिंडी में अधिक पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो लोगों की सेहत को दुरुस्त रखने में सहायक माने जा रहे हैं.
भिंडी की इस किस्म में एंटीऔक्सिडेंट, आयरन और कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है. यह हृदय रोग, डायबिटीज, मोटापा आदि सभी रोगों के लिए कारगर है. इस के अलावा विटामिन बी- 9 पाया जाता है, जो जैनेटिक डिसऔर्डर को दूर करता है.
विशेषज्ञों के अनुसार, भिंडी की बैगनीलाल किस्म गर्भवती महिलाओं के लिए भी फायदेमंद मानी जा रही है, क्योंकि महिलाओं के पेट में जो शिशु पलता है, उस के मस्तिष्क के विकास के लिए इसे बहुत उपयोगी माना जा रहा है. गर्भवती महिलाओं में यह लाल भिंडी फोलिक एसिड की कमी को दूर करता है.
पहले विदेशों से होता था आयात
लाल भिंडी की खेती अभी तक पश्चिमी देशों में ही होती थी और वहीँ से आयात हो कर आती थी. लेकिन देश में लाल भिंडी की किस्म विकसित हो जाने से व्यापक स्तर पर इस की खेती किए जाने की संभावनाएं जगी हैं, क्योंकि भारतीय मार्केट में लाल भिंडी की भारी मांग है. यह 150 रुपए से ले कर 200 रुपए तक में बिकती है. ऐसे में लाल भिंडी की खेती कर किसान भी अधिक मुनाफा ले सकेंगे.
खेत की तैयारी
काशी लालिमा को भिंडी की दूसरी किस्मों की तरह ही अच्छी जल निकास वाली सभी तरह की भूमियों में उगाया जा सकता है. इस के बीजों को खेत में बोने के पहले खेत की 2-3 बार जुताई कर भुरभुरी कर और पाटा चला कर समतल कर लेना चाहिए.
बीज की मात्रा व बोआई का तरीका
भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी की वैबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार, गरमियों में 12-14 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और बरसात के मौसम की फसल के लिए 8-10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की आवश्यकता पड़ती है.
भिंडी की इस लाल किस्म के बीज की बोआई सीधी लाइन में की जाती है. भिंडी के बीजों को बोने से पहले खेत को तैयार करने के लिए 2-3 बार जुताई करनी चाहिए.
गरमियों में बोई जाने भिंडी के लिए कतार से कतार की दूरी 45 सैंटीमीटर एवं पौधे के बीच की दूरी 20 सैंटीमीटर का अंतर रखा जाता है, जबकि वर्षाकाल में कतार से कतार की दूरी 60 सैंटीमीटर एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30 सैंटीमीटर रखा जाना उचित होता है. बीज की 2 से 3 सैंटीमीटर गहरी बोआई करनी चाहिए. बोने से पहले भिंडी के बीज को उपचारित कर लेना चाहिए.
बोआई का उचित समय
भिंडी की काशी लालिमा प्रजाति भी सामान्य भिंडी की किस्मों की तरह बोई जा सकती है. इसे विकसित करने वाले संस्थान की वैबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार, ग्रीष्मकालीन भिंडी की बोआई फरवरीमार्च माह में और वर्षाकालीन भिंडी की बोआई जूनजुलाई माह में की जाती है.
उर्वरक की संस्तुत मात्रा
भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान के अनुसार, काशी लालिमा की फसल में अच्छा उत्पादन लेने के लिए प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 15-20 टन सड़ीगली गोबर की खाद के अलावा 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस, 50 किलोग्राम पोटैशियम की दर से मिट्टी में देना चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोने के पूर्व भूमि में देनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा को 2 भागों में 30-40 दिनों के अंतराल पर देना चाहिए.
सिंचाई व खरपतवार नियंत्रण
फसल की बोआई के बाद पहली सिंचाई फरवरीमार्च माह में 10-12 दिन के अंतराल पर और अप्रैल में 7-8 दिन के अंतराल पर करते रहें. मईजून माह में जब ज्यादा गरमी पड़ने लगे, तो 4-5 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें. बरसात के सीजन में अगर अच्छी बरसात हो रही है, तो सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है.
फसल में खरपतवार न निकलने पाए, इस का विशेष खयाल रहे, क्योंकि इस से उत्पादन प्रभावित होता है. ऐसे में फसल में नियमित रूप से निराईगुड़ाई कर खेत से खरपतवार को नष्ट करते रहें. अधिक खरपतवार की दशा में खरपतवार नियंत्रक रसायनों का प्रयोग भी किया जा सकता है.
उत्पादकता और लाभ
वाराणसी में स्थित भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान के अनुसार, भिंडी की काशी लालिमा किस्म 130 से 140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस किस्म की लंबाई 11-14 सैंटीमीटर और व्यास 1.5 और 1.6 सैंटीमीटर होता है.
किसानों के लिए भिंडी की काशी लालिमा किस्म को इसलिए फायदेमंद माना जा रहा है, क्योंकि इस में पोषक तत्वों की प्रचुरता के चलते इस का बाजार रेट भिंडी की आम किस्मों से अधिक मिलता है.
आईसीएआर-आईएआरआई, नई दिल्ली ने “पर्यावरणीय स्थिरता के लिए कृषि और औद्योगिक अपशिष्ट प्रबंधन पर उद्यमिता अवसर” पर पांच दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का समापन
की वर्ड: फार्म एन फूड, प्रशिक्षण कार्यक्रम, पर्यावरणीय स्थिरता, औद्योगिक अपशिष्ट,
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पर्यावरणीय स्थिरता के लिए कृषि और औद्योगिक अपशिष्ट प्रबंधन पर उद्यमिता के अवसरों पर पांच दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्घाटन 15 मई, 2023 को पद्म भूषण प्रो. (डा.) आरबी सिंह द्वारा 15 मई को किया गया था. कुल 49 प्रतिभागियों (कोरिया और नेपाल से 15 राज्य और 2 अंतर्राष्ट्रीय उम्मीदवार) ने विभिन्न पृष्ठभूमि और शिक्षा के विविध समूह से प्रशिक्षण के लिए पंजीकरण कराया, जिन में से 34 फीसदी उम्मीदवार महिला प्रतिभागियों के हैं.
इस कार्यक्रम के अंत में समापन सत्र के दौरान डा. आलोक सिंह, डायरैक्टर इन चीफ (बागबानी), दिल्ली नगरनिगम द्वारा “वेस्ट टू आर्ट टू वेस्ट टू वेल्थ” पर मुख्य व्याख्यान दिया गया.
डा. आलोक सिंह ने अपने व्याख्यान के दौरान कचरे का महत्व बताया और दिल्ली नगरनिगम द्वारा चलाए जा रहे ड्रीम प्रोजैक्ट्स, वेस्ट टू वंडर पार्क, भारत दर्शन पार्क, नंदन वन चिल्ड्रन पार्क, वुडलैंड चिल्ड्रन पार्क के बारे में चर्चा की.
उन्होंने कचरे को मूर्तियों में बदलने के बारे में चर्चा की और अपशिष्ट पदार्थों से पैसे की अवधारणा पर विचारविमर्श किया.
समापन सत्र के दौरान पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख डा. एस. नरेश कुमार ने सभी प्रतिभागियों का स्वागत किया और प्रशिक्षण के समन्वयक डा. भूपिंदर सिंह ने प्रारंभिक टिप्पणी की. डा. आशीष खंडेलवाल पाठ्यक्रम निदेशक ने प्रशिक्षण कार्यक्रम का अवलोकन प्रस्तुत किया. समग्र कार्यक्रम में बायोगैस और बायोस्लरी के उत्पादन, जैव ईंधन उत्पादन, कृषि अवशेष प्रबंधन के लिए पूसा डीकंपोजर की भूमिका, औद्योगिक और कृषि अनुप्रयोग के लिए बायोएक्टिव यौगिकों के लिए निष्कर्षण दृष्टिकोण, अपशिष्ट प्रबंधन के लिए बायोडिग्रेडेशन दृष्टिकोण, नीले हरे शैवाल जैसे विभिन्न विषयों को शामिल किया गया. पोषक तत्वों से भरपूर सूत्रीकरण, विविध क्षेत्रों के लिए गन्ना उद्योग के कचरे का उपयोग, जैविक कीटनाशक के रूप में बागबानी अपशिष्ट, अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग कर के विकसित स्टार्टअप की केस स्टोरी, वर्मी कंपोस्ट के संदर्भ में बायोमास उपयोग, पत्ती समृद्ध खाद, मशरूम उत्पादन, पशु ब्लौक प्रौद्योगिकी के लिए इंजीनियरिंग हस्तक्षेप और पेलेट विकास, सजावटी में मूल्य संवर्धन, कृषि अपशिष्ट का उपयोग.
प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान प्रशिक्षुओं को वेस्ट टू इलेक्ट्रिसिटी प्लांट तहखंड व नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन दादरी का भ्रमण कराया गया.
जेना टेस्डेल, निदेशक, कृषि विकास के लिए युवा पेशेवर (वैश्विक), सम्मानित अतिथि, ने वाईपीएआरडी का अवलोकन किया और युवाओं की भूमिका व कृषि और संबद्ध क्षेत्र में उद्यमिता के अवसरों की दिशा में उन की भागीदारी प्रस्तुत की. डा. आरएन पडारिया, संयुक्त निदेशक (विस्तार), भाकृअनुप-आईएआरआई ने अपशिष्ट प्रबंधन और उद्यमिता के अवसरों के महत्व पर प्रकाश डाला और न केवल अपशिष्ट प्रबंधन, बल्कि उद्यमिता के अवसरों, अपशिष्ट प्रबंधन पर व्यवसाय मौडल पर एक पाठ्यक्रम शुरू करने पर ध्यान केंद्रित किया.
अंत में जेडटीएमबीपीडी की प्रभारी डा. आकृति शर्मा ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया. कुलमिला कर प्रशिक्षण कार्यक्रम ने कचरे को पैसे में बदलने और कचरे के आसपास उद्यमिता के अवसरों के लिए प्रौद्योगिकी पर ध्यान केंद्रित किया.