Nursery : प्रो ट्रे में सब्जियों की नर्सरी उत्पादन की नई तकनीक

Nursery: नए जमाने के किसानों ने सब्जी उत्पादन बढ़ाने के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल किया है, जिस से उन की माली हालत में सुधार हुआ है. इन नई तकनीकों में प्रो ट्रे में सब्जियों की पौध उगाना खास है.

उच्च तकनीक से सब्जियों की पौध तैयार करने से पौधों को वानस्पतिक तरीकों से संरक्षित वातावरण में विकसित किया जा सकता है, जिस से रोगरहित उच्च गुणवता वाली पौध तैयार की जा सकती है.

उच्च तकनीकी नर्सरी लगाने के लाभ

* बीज अंकुरण अच्छा होता है.

* ट्रे में पौधों के लिए काफी जगह होने से सभी पौधों का एकसमान विकास होता है.

* महंगे व हाइब्रीड बीजों का अच्छा इस्तेमाल.

* नर्सरी में कीट, बीमारी व खरपतवार की समस्या कम रहती है.

* पौली हाउस में सही वातावरण होने की वजह से बीज का जमाव व पौधों का विकास बहुत अच्छा होता है.

* प्रो ट्रे में पौधों को रोपाई के लिए आसानी से कैविटी से निकाल कर मिट्टी में लगा देते हैं. पौधों की जड़ें आसानी से मिट्टी में लग जाती हैं.

* प्रो ट्रे विधि से तैयार पौधे लगाने से फसल की बढ़वार समान होती है.

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प्रो ट्रे में नर्सरी तैयार करना

मिट्टी रहित नर्सरी तैयार करने के लिए निम्नलिखित चीजों की जरूरत होती है:

प्रो ट्रे  : पौलीप्रोपेलीन से बनी हुई विभिन्न कैविटी वाली ट्रे बाजार में मिलती हैं, पर आमतौर पर सब्जी की नर्सरी लगाने के लिए 98 कैविटी युक्त ट्रे का इस्तेमाल किया जाता है. 1 प्रो ट्रे को 4-5 बार इस्तेमाल किया जा सकता है.

कोकोपीट : यह पूर्ण विघटित धुला हुआ निर्जीमिक्रत कोयर इंडस्ट्री का बाई प्रोडक्ट है.

परलाइट : यह हलकी एल्यूमिनियम सिलिकेट चट्टानों का ज्यादा तापमान पर गरम किया हुआ पौपकार्न की तरह फूला हुआ पदार्थ है. इस का इस्तेमाल वायु संचार व जलधारण कूवत को बढ़ाता है.

वेर्मीकुलाइट : यह एक माइका है, इस में कैल्शियम व मैग्नीशियम तत्त्व भी पाए जाते हैं.

नर्सरी उगाने की विधि

* कोकोपीट नर्सरी लगाने से करीब 12 घंटे पहले पानी में भिगो लेना चाहिए और फालतू पानी को निकलने देना चाहिए.

* आयतन के हिसाब से 3:1:1 के अनुपात में कोकोपीट, परलाइट, वेर्मीकुलाइट को ले कर अच्छी तरह मिला देना चाहिए. इन चीजों को कभी ग्राम या किलोग्राम में न लें. इन्हें केवल आयतन (जैसे 3 बाल्टी कोकोपीट, 1 बाल्टी परलाइट व 1 बाल्टी वर्मीकुलाइट) के मुताबिक लें.

* मिश्रण को अच्छी तरह प्रो ट्रे की कैविटी में भर देना चाहिए.

* मिश्रण से भरी ट्रे को फुहारे से थोड़ा सा सींचना चाहिए.

* इस के बाद हर एक कैविटी में बीज के आकार के आधार पर गड्ढे बना कर उपचारित बीजों की बोआई करनी चाहिए.

* 1 कैविटी में 1 ही बीज लगाया जाता है. बड़े क्षेत्र में व्यावसायिक पौध तैयार करने के लिए कई तरह की आटोमैटिक बोआई मशीनें मौजूद हैं.

* बोआई के तुरंत बाद कैविटी की ऊपरी परत (जिस में बीज बोया गया है) को वर्मीकुलाइट की परत से (करीब आधा सेंटीमीटर) ढक देना चाहिए. इस से हरी शैवाल की बढ़वार नहीं होती है व वायु संचार भी अच्छी तरह होता है.

* फिर एक के ऊपर एक ट्रे को रख कर उन्हें पौलीथीन की शीट से ढक देना चाहिए ताकि प्रो ट्रे में 100 फीसदी नमी बनी रहे, जिस से कि बीजों का जमाव अच्छा हो.

* बीजों का अंकुरण होने पर ट्रे को अलगअलग कर देना चाहिए.

* करीब 4-7 दिनों में बीजों का जमाव हो जाता है. बीज के जमाव में लगने वाला समय फसल के प्रकार पर निर्भर करता है.

* अंकुरण होने पर प्रो ट्रे को अलगअलग कर के 15 सेंटीमीटर ऊंची क्यारियों पर 50 फीसदी छायाघर में या वातावरण नियंत्रित पौलीहाउस में रख देना चाहिए.

* जड़ सड़न व उकटा के प्रकोप से बचने के लिए फफूंदनाशी दवा (कापर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर या कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर) का इस्तेमाल करें.

* नर्सरी का एक चरण पूरा होने के बाद जब प्रो ट्रे खाली हो जाती हैं, तब उन को अच्छी तरह से साफ पानी से धो देना चाहिए. फिर प्रो ट्रे को रोगाणु रहित करने के लिए कपास के छोटे से टुकड़े को फोर्मेलीन घोल में डुबो कर हर कैविटी को अच्छी तरह साफ करना चाहिए. अच्छी तरह सूखने के बाद इन्हें एक के ऊपर एक रख कर पौलीथीन शीट से अच्छी तरह पैक कर के अगली बोआई के लिए रख देना चाहिए.

प्रो ट्रे नर्सरी के लिए उर्वरक

जब पौधों  में 2 पत्तियां आ जाएं तब 5 ग्राम एनपीके 19:19:19 उर्वरक प्रति 10 लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर रोजाना सिंचाई के साथ देना चाहिए. सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की खुराक के लिए भिन्नभिन्न प्रकार के मल्टी सूक्ष्म पोषक तत्त्व मिश्रण मिलते हैं, जैसे मैक्स व टेकनोवा 2 वगैरह. इन का 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर हफ्ते में 2 बार छिड़काव करना चाहिए. इस से पौधों को अच्छा पोषण मिलता है व पौधों का विकास अच्छा होता है, जिस से ज्यादा पैदावार होती है.

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सिंचाई

सर्दी के मौसम में दिन में 2 बार व गरमी में 3 बार सिंचाई करनी चाहिए. सिंचाई के पानी की गुणवत्ता जानने के लिए निम्नलिखित 3 मापक हैं:

पीएच : सिंचाई के पानी का पीएच 6.4-7 तक होना चाहिए. पीएच का सुधार नाइट्रिक एसिड, फास्फोरिक एसिड या एचसीएल जैसे रसायनों से सिंचाई के पानी को उपचारित कर के किया जाता है.

टीडीएस : टीडीएस पानी में पाए जाने वाले घुलनशील पदार्थों का मापक होता है.

नमक की मात्रा : नमक की मात्रा 1-2 डेसी साइमन होनी चाहिए. साफ पानी से सिंचाई करने से पौधों का विकास अच्छा होता है और अधिक पैदावार हासिल होती है.

पौधों में तनाव देना

प्रो ट्रे  नर्सरी उत्पादन में कृत्रिम रूप से तनाव देना बहुत खास काम है. पौधों की खेत में रोपाई से पहले उन्हें तनाव देने से पौधे खेत में आसानी से पनपते हैं. तनाव के लिए पौधों की 3-4 दिनों तक थोड़ाथोड़ा मुरझाने पर रोकरोक कर सिंचाई की जाती है, जिस से पौधे मजबूत हो जाते हैं.

Goat Farming : बकरीपालन के लिए नई मशीनें

Goat Farming : बकरी फार्म की सफलता इस बात पर बहुत ज्यादा निर्भर करती है कि फार्म में बकरी के बच्चों द्वारा मां का दूध छोड़ने से पहले बकरी के बच्चों की मृत्यु दर कितनी है. ऐसा देखा गया है कि दूध छुड़वाने की उम्र से पहले मृत्यु दर करीब 7 से 51 फीसदी तक होती है. इसलिए यह माना जा सकता है कि फार्म में जितनी कम मृत्यु दर हो, उतना अच्छा और लाभकारी फार्म होगा. यह भी पाया गया है कि सब से ज्यादा बकरी के बच्चों की मृत्यु उन के जन्म के पहले व दूसरे दिन होती है.

निम्न वजहों से बकरी अपने बच्चों को छोड़ सकती है:

* कभीकभी ऐसा होता है कि बकरी अपने नवजात बच्चे को जन्म के 24 घंटे के भीतर ही छोड़ देती है. ऐसा इस कारण से भी हो सकता है कि बकरी ने पहली बार बच्चा दिया हो और उसे बच्चों को दूध पिलाने का कोई तजरबा न हो.

* कभीकभी बकरी बच्चों को इसलिए भी दूध पिलाना छोड़ देती है, क्योंकि दूध पिलाते समय उसे गुदगुदी होती है.

* कभी ऐसा भी होता है कि बकरी के थन में किसी प्रकार की चोट होती है, जिस के कारण वह दूध नहीं पिलाना चाहती है.

* एक कारण यह भी हो सकता है कि बकरी के थनों में दूध का उत्पादन ही नहीं हो रहा हो.

* यह भी पाया गया है कि जब बकरी में दूध के उत्पादन की ताकत कम हो और वह 2 या ज्यादा बच्चों को जन्म दे, तो वह कुछ बच्चों को दूध पिलाना छोड़ देती है.

* कभीकभी बच्चे बहुत कमजोर पैदा होते हैं और उन का जन्म के समय वजन 1 किलोग्राम से भी कम होता है, लिहाजा उन की मौत हो जाती है.

* यही नहीं वे बच्चे भी मर जाते हैं, जिन की मां की मौत किसी वजह से हो गई हो.

* थनों की बीमारी जिसे मेस्टाइटिस या थनैला रोग कहते हैं की वजह से भी बकरी के दूध का उत्पादन कम हो सकता है. ऐसे में बच्चों को दूध नहीं मिल पाता है.

अब कारण कोई भी हो, यदि बच्चों को उन की मां का दूध नहीं मिलता है, तो वे लाचार हो जाते हैं. इन बच्चों के लिए यह बहुत जरूरी है कि उन को कृत्रिम रूप से दूध पिलाया जाए ताकि उन के जीवन की रक्षा की जा सके. यदि 1 या 2 ही ऐसे लाचार बकरी के ही बच्चे हों, तो उन को दूध पिलाने के लिए इनसानी बच्चों की दूध की बोतल इस्तेमाल की जा सकती है.

व्यावसायिक रूप से चलने वाले बकरी के फार्म में ऐसे बच्चों की संख्या ज्यादा हो सकती है, जिन को उन की मां दूध नहीं पिला पाती. ऐसे बच्चों के लिए दूध पिलाने वाली मशीन का इस्तेमाल किया जा सकता है.

Goat Farming

इस मशीन की मदद से एकसाथ 6 बच्चों को दूध पिला सकते हैं. इस मशीन के बीच में एक घेरा बना हुआ होता है, जो 6 अलगअलग खानों से जुड़ा होता है. जब हम दूध की एक तय मात्रा को मशीन के केंद्र पर स्थित खाने में उड़ेलते हैं, तो वह दूध स्वतंत्र रूप से 6 बराबर हिस्सों में बंट जाता है. इन 6 खानों से निप्पलें जुड़ी होती हैं और जब बकरी का बच्चा उन को चूसता है, तो उस खाने में पहुंचा हुआ दूध उस के हिस्से में आ जाता है. इस तरह बहुत ही कम समय में 6 बच्चों के ग्रुप को दूध पिलाया जा सकता है.

बकरी के बच्चों को शुरुआत में इस मशीन के पास ले जाना पड़ता है, जिस के बाद उन की ट्रेनिंग हो जाती है और वे खुद ही दूध पीने के लिए मशीन के पास चले आते हैं.

यह एक बहुत ही साधारण मशीन है, जिस का इस्तेमाल बकरी फार्म में करना बहुत ही आसान है. इस की मदद से बहुत ही कम मेहनत से बकरी के बच्चों को दूध पिलाया जा सकता है और उन की जान को बचाया जा सकता है. इस्तेमाल के बाद मशीन व निप्पलों की सफाई का खयाल रखना जरूरी है.

इस के अलावा बकरियों को चारा खिलाने की एक बेलनाकार मशीन भी होती है. इस में हरे चारे को या भूसे को आसानी से भरा जा सकता है. इस की बनावट ऐसी है कि जो भी चारा बकरियों द्वारा खा लिया जाता है, उस की जगह ऊपरी भाग में मौजूद चारा ले लेता है.

बकरियों का समूह जिस में छोटी या बड़ी सभी प्रकार की बकरियां हो सकती हैं, बेहद आसानी से मशीन के चारों ओर खड़ी हो कर चारे को खा सकती हैं. इस मशीन का खास फायदा यह है कि बहुत कम जगह पर ज्यादा बकरियों को आसानी से चारा या दाना खिलाया जा सकता है. पूरा चारा इस मशीन के अंदर ही भरा होता है, बकरियों या उन के बच्चों के पैरों के नीचे दब कर चारा बर्बाद नहीं हो पाता है. इस प्रकार कीमती चारे को खराब होने से बचाया जा सकता है.

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बकरियां चारे को नोचनोच कर खाना पसंद करती हैं. यह इस मशीन की बनावट के कारण आराम से मुमकिन है. जब बकरियां चारा मशीन के ऊपरी भाग से चारा खींचती हैं, तो उस में से नीचे गिरने वाला चारे का हिस्सा मशीन के निचले भाग में बनी हुई गोलाकार ट्रे में ही गिर जाता है. वहां से छोटी बकरियां आसानी से उसे उठा लेती हैं. इस प्रकार अच्छाखासा चारा बरबाद होने से बच जाता है. इस गोलाकार ट्रे में हम बकरियों का दाना भी डाल सकते हैं, जिसे बकरियां आसानी से खा सकती हैं.

अगर इन मशीनों को बकरियों के पालन में इस्तेमाल किया जाए तो एक तरफ बकरियों के बच्चों की मृत्यु दर को घटाया जा सकता है और दूसरी ओर कम जगह में ज्यादा बकरियों का आसानी से पालन किया जा सकता है.

Vermicompost : घर में बनाएं वर्मी कंपोस्ट

वर्मी कंपोस्ट (Vermicompost) को टैंक, क्यारी और ढेर विधि से तैयार किया जा सकता है. कचरों के ढेर को काटपीट कर 10 फुट लंबे, 3 फुट चौड़े और ढाई फुट गहरे टैंक या गड्ढे में डाल दिया जाता है. इस से केंचुओं को कचरों को खाने और पचाने में आसानी हो जाती है.

टैंक में कचरा बिछाने के बाद उस पर पानी मिला गोबर डाल दिया जाता है. हर टैंक में 5000 या 5 किलोग्राम केंचुओं को डाल दिया जाता है.

कचरे में सही नमी बनाए रखने के लिए गरमी के मौसम में रोज 2 बार और ठंड के मौसम में रोज 1 बार पानी का छिड़काव किया जाना जरूरी है, ताकि 30 फीसदी नमी बनी रहे. वर्मी कंपोस्ट बनाने वाली जगह को ऊपर से जूट के भीगे बोरे से ढक देने पर नमी और अंधेरे में केंचुए ज्यादा तेजी से काम करते हैं.

केंचुए ऊपर से खाना शुरू करते हैं और धीरेधीरे नीचे जाते हैं, इस से ऊपर का कचरा पहले वर्मी कंपोस्ट में बदलता है. 35-40 दिनों के बाद से कचरे की ऊपरी सतह पर केंचुओं द्वारा छोड़ा गया मल दिखने लगता है. करीब 70 से 75 दिनों में वर्मी कंपोस्ट तैयार हो जाता है.

वर्मी कंपोस्ट बनाने वाले मोकामा के किसान रामअवतार बताते हैं कि तैयार होने पर वर्मी कंपोस्ट बगैर बदबू का बारीक, दानेदार और गहरा लाल रंग लिए चाय की पत्ती की तरह दिखता है. वर्मी कंपोस्ट को इकट्ठा कर के 2 एमएम की छलनी से छान कर पैकेटों में भरना चाहिए.

कृषि वैज्ञानिक बजेंद्र मणि बताते हैं कि वर्मी कंपोस्ट मिट्टी को उपजाऊ बनाने के अलावा उस की जलधारण कूवत को भी बढ़ाता है. इस का पीएच 7 से 7.5 के बीच होता है. इस से मिट्टी में ज्यादा समय तक नमी बनी रहती है, लिहाजा सिंचाई का खर्च कम हो जाता है. इस में नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश के साथसाथ सभी पोषक और सूक्ष्म तत्त्व मौजूद रहते हैं.

खेत की तैयारी के समय प्रति हेक्टेयर 25-30 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करना चाहिए. पौधे लगाने के 15 दिनों बाद प्रति हेक्टेयर 12 से 15 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट डालना होता है. खाद्यान्न फसलों में प्रति हेक्टेयर 50 से 60 क्विंटल और सब्जियों में प्रति हेक्टेयर 100 से 120 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट डालना चाहिए. फलदार पेड़ों में प्रति पेड़ 1 से 5 किलोग्राम, सजावटी पौधों में प्रति गमला 100 ग्राम वर्मी कंपोस्ट डालने की जरूरत होती है.

कैमिकल खादों की जगह वर्मी कंपोस्ट यानी केंचुआ खाद का इस्तेमाल कर के मिट्टी और फसलों को बचाया जा सकता है. फसलों के कचरों, घासफूस, कूड़ा, गोबर, सड़ेगले फल और सब्जियों को केंचुए वर्मी कंपोस्ट में बदल देते हैं. अमूमन, हर केंचुआ 1 ग्राम का होता है और वह 24 घंटे में 1 ग्राम बीट निकालता है. 1 वर्गमीटर में बनी क्यारी में करीब 1000 केंचुए डालने पर रोज 1 किलोग्राम वर्मी कंपोस्ट तैयार हो जाता है.

Vermicompostइपीजीइक केंचुए मेन्योर वर्म या कंपोस्ट वर्म के नाम से जाने जाते हैं. ये कूड़ाकरकट के ढेर या जमीन की सतह पर सड़ते हुए किसी भी जैविक पदार्थ की परत तक सीमित रहते हैं. ये सड़ती हुई कार्बनिक चीजों को हजम कर जाते हैं. ये काफी कम समय तक जीवित रहेते हैं, पर इन की प्रजनन दर काफी ज्यादा होती है. एंडोजीइक केंचुए जमीन की निचली खनिजयुक्त परतों में रहते हैं और कार्बनिक चीजों के बजाय मिट्टी खाने में इन की ज्यादा दिलचस्पी होती है. एनेसिक केंचुआ बहुत जटिल और गहरी सुरंग बना कर रहते हैं. ये पत्ते ज्यादा खाते हैं.

वर्मी कंपोस्ट बनाने में बरती जाने वाली सावधानियां

* विधिवत ट्रेनिंग ले कर ही वर्मी कंपोस्ट बनाना शुरू करें.

* गोबर और कूड़ा कम से कम 20 दिन पुराना जरूर हो, क्योंकि ताजा गोबर में केंचुए मर जाते हैं.

* केंचुओं को सूरज की रोशनी, ज्यादा पानी, ज्यादा गरमी, चीटियों, मेंढकों, सांपों और चिडि़यों से बचाने के उपाय करना जरूरी है.

* नमी बनाए रखने के लिए जरूरत के मुताबिक पानी का छिड़काव करते रहें.

* वर्मी कंपोस्ट बनाने से ले कर पैकिंग करने तक का काम छायादार जगह पर ही करें.

Biogas Plant : आधुनिक गोबर गैस प्लांट आय बढ़ाने का तकनीकी संयंत्र

Biogas Plant : आज भी कई किसान खेतीबारी के साथसाथ पशुपालन भी करते हैं, इस से उन की आय में बढ़ोतरी भी होती है. कुछ लोग गोबर के उपले बनाते हैं या फिर गोबर को इकट्ठा करते रहते हैं, जिसे बाद में खाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं. तो क्यों न इस आमदनी को और ज्यादा बढ़ाने की दिशा में काम किया जाए. क्यों न हम गोबर गैस प्लांट (Biogas Plant) लगाएं, जिस से हमें ऊर्जा के साथ उन्नत किस्म की गोबर की खाद भी मिलेगी.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा संशोधित गोबर गैस प्लांट (Biogas Plant) तैयार किया है, जिस में काफी में ऊर्जा पैदा होती है और इस गोबर गैस प्लांट (Biogas Plant) की सहायता से गैस का चूल्हा जलाया जा सकता है, रोशनी के लिए बल्ब जलाए जा सकते हैं और कम हार्स पावर का इंजन भी चला सकते हैं. गोबर गैस प्लांट (Biogas Plant) से बेकार निकला गोबर जो पूरी तरह से सड़ जाता है, वह एक बढि़या खाद का काम करता है, जिस के इस्तेमाल से खेती की जमीन की पैदावार कूवत बढ़ती है. इस से रासायनिक खादों का भी इस्तेमाल कम करना पड़ता है.

आज हरियाणा में 1 करोड़ टन गोबर का 69 फीसदी भाग गोबर की खाद बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. 28.5 फीसदी गोबर उपले बनाने के काम आता है और मात्र 2.5 फीसदी गोबर बायोगैस प्लांट में इस्तेमाल करते हैं.

कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर हम सारे गोबर का इस्तेमाल गोबर गैस प्लांट के लिए करें तो 40 करोड़ घन मीटर गैस हर साल पैदा की जा सकती है, इस में इस्तेमाल किए गए गोबर से 50 लाख टन जैविक खाद भी बनेगी, जिस खाद में खेती के लिए फायदेमंद नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश जैसे सूक्ष्म तत्त्व भी मौजूद होंगे.

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों ने गोबर द्वारा चलने वाले जनता मौडल के बायोगैस प्लांट को संशोधित कर  के यह नया डिजाइन तैयार किया है, जो ताजे गोबर से चलता है. इस नए डिजाइन के प्लांट में गोबर डालने का पाइप 12 इंच चौड़ा होता है ताकि गोबर बिना पानी के सीधे ही डाला जा सके. गोबर के निकलने की जगह को भी चौड़ा रखा गया है, जिस से गोबर गैस के दबाव से खुद बाहर आ सके. निकलने वाला गोबर काफी गाढ़ा होता है, जिसे कस्सी की सहायता से खेत में डाला जा सकता है.

शुरूशुरू में गोबर गैस प्लांट बनाने के बाद उस में गोबर व पानी का घोल बराबर मात्रा में डाल दिया जाता है. इस के बाद गैस की निकासी का पाइप बंद कर के 10-15 दिनों के लिए छोड़ दिया जाता है.

जब गोबर की निकासी वाली जगह से गोबर आना शुरू हो जाता है, तो प्लांट में ताजा गोबर बिना पानी के प्लांट के आकार के मुताबिक सही मात्रा में हर रोज एक बार डालना शुरू कर दिया जाता है और उस से बनने वाली गोबर गैस को जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल किया जा सकता है, साथ ही निकलने वाले गोबर को खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. यह गोबर की खाद खेती के लिए बहुत फायदेमंद होती है.

गोबर गैस प्लांट से जुड़ी ज्यादा जानकारी के लिए अध्यक्ष, सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार, फोन नंबर 01662-285292 से संपर्क कर सकते हैं.

इस प्लांट की खासीयत

* इस प्लांट को लगाने में जगह व पैसे की लागत दूसरे डिजाइन के मुकाबले कम आती है. इसे घर के आंगन में भी लगा सकते हैं. इस के आसपास की जगह साफसुथरी रहती है और बदबू नहीं आती.

* 3-4 पशुओं के गोबर से चलने वाले 2 घन मीटर का प्लांट लगाने का खर्चा तकरीबन 20000 रुपए है. इस से बनने वाली गैस से 4-5 सदस्यों का 3 वक्त का खाना आसानी से बन सकता है.

* इस में ताजा गोबर डाला जाता है. गोबर को पानी में घोल कर डालने की जरूरत नहीं होती, जिस से समय और मेहनत दोनों की बचत होती है. अगर आप मुरगीपालन भी करते हैं, तो गोबर के साथ मुरगी की खाद (10 फीसदी) भी मिला कर डाल सकते हैं, जिस से 10 से 15 फीसदी गैस ज्यादा बनती है और खाद की गुणवत्ता भी बढ़ती है.

* गोबर गैस प्लांट को लैट्रीन से साथ जोड़ कर भी गैस की मात्रा व खाद की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है.

* बाहर निकलने वाला गोबर (सलरी) गाढ़ा होता है. इसलिए इसे इकट्ठा करने के लिए गड्ढे की जरूरत नहीं पड़ती, इसे आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है और खेत में डाला जा सकता है.

* निकली गोबर खाद में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा गोबर के मुकाबले ज्यादा होती है और इस का इस्तेमाल करने से जमीन की गुणवत्ता बढ़ती है. इस में नीम, आक या धतूरे के पत्ते मिला कर डालने से खेत में कीड़ों व बीमारियों का हमला नहीं होता.

* सही तरह से बना हुआ बायोगैस प्लांट कई सालों तक बिना कठिनाई के चलता रहता है.

* गोबर गैस प्लांट लगवाने के लिए भारत सरकार समयसमय पर किसानों को अनुदान भी देती है. इस के लिए किसान अपने नजदीकी कृषि अधिकारी से संपर्क कर सकते हैं.

प्रौद्योगिकी (Technology) पर 54 पेटेंट और अनेक किस्में विकसित

Technology : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के निदेशक अनुसंधान डा. अरविंद वर्मा ने बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने पिछले कुछ सालों में विभिन्न प्रौद्योगिकी पर 54 पेटेंट प्राप्त किए हैं. इस के   साथ ही, राष्ट्रीय स्तर पर बकरी की तीन नस्लें सिरोही, गुजरी एवं करौली को भी रजिस्टर्ड कराया है.

उन्होंने आगे कहा कि इस साल अफीम की चेतक किस्म, मक्का की पीएचएम-6 किस्म के साथ असालिया (प्रताप असालिया-1), ईसबगोल (प्रताप ईसबगोल-1), अश्वगंधा (प्रताप अश्वगंधा-1) एवं मूंगफली (प्रताप मूंगफली-4) की किस्में विकसित की हैं. वर्तमान में वैज्ञानिकों द्वारा चरी मक्का की दो किस्मों (पीएमसी-14 एवं पीएमसी-16) को राष्ट्रीय स्तर पर अनुमोदन के लिए प्रतिवेदन भेजा गया है. डा. अरविंद वर्मा ने विश्वविद्यालय के द्वारा विभिन्न अनुसंधान परियोजनाओं के अंतर्गत विकसित तकनीकियों के बारे में भी चर्चा की.

इस बैठक में डा. एसएस शेखावत, अतिरिक्त निदेशक विस्तार, पंत कृषि भवन, जयपुर ने राज्य सरकार द्वारा किसानों के समग्र विकास के लिए विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान करने का अनुरोध किया.

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डा. एसएस शेखावत ने वैज्ञानिकों के प्रस्तुतीकरण को देखा और किसान उपयोगी महत्वपूर्ण सुझाव दिए. उन्होंने वैज्ञानिकों से एआई, लघु उपकरण मशीनीकरण, एफपीओ, जी.आई. टैग एवं तिलहनी फसलों को केंद्रित करते हुए अनुसंधान करने पर जोर दिया और विश्वविद्यालय द्वारा चलाई जा रही विभिन्न उत्कृष्ट अनुसंधान परियोजनाओं की प्रंसशा की.

इस बैठक में आईएस संचेती, अतिरिक्त निदेशक कृषि विभाग, भीलवाड़ा ने गत खरीफ में वर्षा का वितरण, बोई गई विभिन्न फसलों के क्षेत्र एवं उन की उत्पादकता के बारे में विस्तार से जानकारी दी. उन्होनें संभाग में विभिन्न फसलों में खरीफ 2024 के दौरान आई समस्याओं को प्रस्तुत किया और अनुरोध किया कि वैज्ञानिकगण इन के समाधान के लिए उपाय बताएं.

इस बैठक में क्षेत्रीय अनुसंधान निदेशक डा. अमित त्रिवेदी ने विश्वविद्यालय में चल रही विभिन्न परियोजनाओं की जानकारी दी और कृषि संभाग की कृषि जलवायु परिस्थितियों और नई अनुसंधान तकनीकों के बारे में प्रकाश डाला. साथ ही, संभाग की विभिन्न फसलों में आ रही समस्याओं के निबटान के लिए प्रतिवेदन भी प्रस्तुत किया.

इस बैठक में डा. आरएल सोनी, निदेशक, विस्तार शिक्षा, डा. आरबी दुबे, अधिष्ठात, राजस्थान कृषि महाविद्यालय, डा. एपी सिंह, सीनियर मैनेजर ईफको एवं एनएस राठौड, अतिरिक्त निदेशक, कृषि विभाग, उदयपुर ने किसानों के हित में अपने विचार प्रकट किए.

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इस के साथ ही, बैठक में डा. मनोज कुमार महला, निदेशक, छात्र कल्याण अधिकारी, विनोद कुमार जैन, संयुक्त निदेशक कृषि, भीलवाड़ा, महेश चेजारा, संयुक्त निदेशक उद्यान, भीलवाड़ा, दिनेश कुमार जागा, संयुक्त निदेशक कृषि, चित्तौड़गढ़, सतीश कुमार चैहान, संयुक्त निदेशक कृषि, राजसमंद, ओपी शर्मा, प्रभारी ग्राह्य अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र, चित्तौड़गढ़, डा. शंकर सिंह राठौड़, पीडी, आत्मा, भीलवाड़ा, राजसमंद, डा. रविकांत शर्मा, उपनिदेशक, अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर एवं कृषि विभाग के अन्य अधिकारीगण एवं विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकगण उपस्थित थे.

इस बैठक में विभिन्न वैज्ञानिकों व अधिकारियों द्वारा गत खरीफ में किए गए अनुसंधान एवं विस्तार कार्यों का प्रस्तुतीकरण किया गया और किसानों को अपनाने हेतु सिफारिशें जारी की गई.

प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के लिए प्राकृतिक बीज

Natural Farming: महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय में ‘प्राकृतिक खेती’ (Natural Farming) विषय पर पिछले दिनों एक प्रशिक्षण आयोजित किया गया. इस प्रशिक्षण में भारतीय बीज निगम के चंडीगढ़, अहमदाबाद, जैतसर और सूरतगढ़ के अधिकारियों ने भाग लिया.

प्रशिक्षण के दौरान कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि किसी भी खेती का आधार बीज होता है, ऐसे में प्राकृतिक खेती के लिए प्राकृतिक रूप से तैयार किए गए बीजों की उपलब्धता बहुत जरूरी है. इसीलिए यह विशेष प्रशिक्षण बीज उत्पादन करने वाली संस्थाओं के लिए आयोजित किया गया है.

उन्होंने आगे बताया कि हरित क्रांति से हम ने उत्पादन तो बढ़ाया, पर कैमिकलों के अंधाधुंध उपयोग के चलते प्रकृति एवं इनसानी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव का सामना भी किया है. अब समय है कि हम प्रकृति एवं इनसानी खाने पर कैमिकलों के प्रभाव को जितना हो सके उतना कम या फिर पूरी तरह से खत्म कर सकें.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि प्रकृति के अनुकूल कार्य करना ही हमारी संस्कृति है और  प्रकृति के प्रतिकूल काम करना ही विकृति है. प्राकृतिक खेती में कई नए आयाम को जोड़ कर इसे स्वीकार्य रूप प्रदान कर किसान भाइयों के लिए एक आसान पद्धति तैयार कर सकते हैं.

इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डा. शांति कुमार शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन प्रबंधन, नई दिल्ली ने बताया कि प्राकृतिक खेती के प्रति लोगों के मन में कई भ्रांतियां रहती हैं, जिस का अनुसंधान के आधार पर हल करना बहुत जरूरी है.

Natural Farmingउन्होंने आगे बताया कि प्राकृतिक खेती के विचार का उद्भव बहुत समय पहले ही हो चुका है. अब इस को समाज में प्रभावी रूप से प्रचारित करने एवं अपनाने का वक्त है. यदि अब भी रसायनमुक्त खेती के प्रयास नहीं किए गए, तो यह प्रकृति के लिए बहुत ही नुकसानदायक हो सकता है. साथ ही, डा. शांति कुमार शर्मा ने राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक खेती के लिए किए गए प्रयासों की विस्तृत जानकारी दी.

अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने प्रशिक्षण की जानकारी देते हुए कहा कि उदयपुर केंद्र पर जैविक एवं प्राकृतिक खेती पर किए गए वृहद अनुसंधान कार्य का ही परिणाम है कि उदयपुर केंद्र राष्ट्र में इस प्रकार के प्रशिक्षण के लिए प्रथम स्थान पर चुना गया है.

डा. अरविंद वर्मा ने जानकारी देते हुए बताया कि प्रशिक्षण में प्राकृतिक खेती पर व्याख्यान एवं प्रायोगिक रूप से प्रशिक्षण दिया जाएगा, जिस से प्राकृतिक बीज उत्पादन श्रृंखला को बल मिलेगा.

प्रशिक्षण प्रभारी डा. रविकांत शर्मा ने प्रशिक्षण का प्रारूप रखा और वहां पधारे अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया.

Agriculture Sector : कृषि क्षेत्र को बनाएं रोजगार, मौके हैं हजार

Agriculture Sector: 12वीं की परीक्षा का रिजल्ट जल्दी ही घोषित होने वाला है. छात्र और अभिभावक 12वीं के रिजल्ट आ जाने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए  सोचते हैं. तब तक अच्छे संस्थान में प्रवेश की प्रक्रिया पूरी हो चुकी होती है. इसी को ध्यान में रखते हुए बाबा राघव दास कृषक इंटर कालेज भाटपार रानी के सभा  कक्ष में 12वीं के छात्रों एवं अध्यापकों के साथ एक कैरियर काउंसिल किया गया.

इस कैरियर काउंसिल में आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, अयोध्या की प्रोफैसर डा. सुमन प्रसाद मौर्य, अध्यक्ष, मानव विकास एवं परिवार अध्ययन ने  छात्रों से उन के भविष्य  की पढ़ाई के बारे में  बताया कि छात्र आगे की पढ़ाई कृषि विश्वविद्यालयों  में कर सकते हैं. आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या, उत्तर प्रदेश के 5 कृषि विश्वविद्यालयों में से एक है, जिस को  A++ मिला है.

इस विश्वविद्यालय का  कार्यक्षेत्र पूर्वांचल है, जहां कृषि, उद्यान एवं वानिकी,  मत्स्यपालन, पशुपालन एवं पशु चिकित्सा, कृषि अभियंत्रण   के अलावा सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय भी है. इस महाविद्यालय में स्नातक, परास्नातक एवं पीएचडी की उपाधि के लिए विभिन्न पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं.

Agriculture Sector

हर साल इस डिगरी कोर्स में नामांकन के लिए यूपी कैटेट (UP CATET) की संयुक्त परीक्षा होती है. इस के लिए मार्च महीने से ही औनलाइन आवेदन शुरू हो जाते हैं.  आवेदन की अंतिम तारीख 7 मई, 2025 है. यह आवेदन https//updated.net  पर किए जा सकते हैं.

प्रो. सुमन प्रसाद मौर्य ने छात्रछात्राओं को समझाया कि सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय में बीएससी आनर्स के  2 पाठ्यक्रम चलते हैं, जिन की अवधि 4 साल की है. पहला पाठ्यक्रम सामुदायिक विज्ञान (गृह विज्ञान) का है, जिस में गृह विज्ञान के 5 प्रमुख विषयों के विभागों द्वारा वैज्ञानिक एवं कलात्मक ज्ञान एवं कौशल सिखाए जाते हैं.

दूसरा फूड एवं  डाइटिशियन का कोर्स है. इस कोर्स में आहार विज्ञान में रोगियों के उपचार  के बारे में बताया जाता है. यह 4 वर्षीय डिगरी कार्यक्रम व्यावसायिक उपाधि है. इस में वे अपना स्वयं का व्यवसाय शुरू कर सकते हैं.

शोध में इच्छुक छात्राएं आगे अपने पसंद के विषय पढ़ सकती  हैं. प्रवेश परीक्षा  आवेदन की प्रक्रिया के बारे में संपूर्ण जानकारी  गूगल पर यूपी कैटेट 2025 सर्च कर आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय की साइट पर जा कर इस की विवरण पत्रिका को डाउनलोड कर सकते हैं.

यह विवरणिका चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर, उत्तर प्रदेश द्वारा निकाला गया है, क्योंकि इस बार की  संयुक्त परीक्षा वे संचालित कर रहे हैं. इस विवरणिका में प्रवेश परीक्षा, विश्वविद्यालय के संबंध में, औनलाइन आवेदन की पद्धति, परीक्षा की पद्धति, पाठ्यक्रमवार सीटों की संख्या एवं काउंसलिंग की पद्धति के बारे में विस्तार से दिया गया है.

इस के साथ ही प्रो. सुमन प्रसाद मौर्य ने तैयारी के टिप्स भी दिए. प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी  के निदेशक प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने एडमिशन कैरियर के साथसाथ जैविक खेती, पोषण वाटिका पर प्रकाश डाला.

कालेज के प्रधानाचार्य भानु प्रताप सिंह ने छात्रों के साथसाथ  अध्यापकों को भी कहा कि आप सभी कृषि क्षेत्र में बच्चों को अच्छे संस्थानों में नामांकन के लिए प्रोत्साहित करें, जिस से बच्चे अच्छे विश्वविद्यालय से पढ़ कर एक अच्छा नागरिक बनने के साथसाथ  रोजगार भी पा सकें.

बगीचे (Garden) लगाने से पहले करें जरूरी काम

फलों के बाग (Garden) लगाना आमदनी का अच्छाखासा जरीया साबित हो रहा है. मगर बगैर पूरी जानकारी के बाग (Garden) लगाना घाटे का सौदा साबित होता है. इसलिए वैज्ञानिक तरीके से बाग (Garden) लगाने में ही भलाई है.

बगीचा (Garden) लगाने से पहले निम्न जरूरी बातों का ध्यान रखना चाहिए:

फलों के बाग की योजना : ज्यादातर फलों के पेड़ लंबे समय के लिए होते हैं, इसलिए बाग इस तरह लगाए जाएं, ताकि उन से फायदा मिलता रहे, देखने में अच्छा लगे, देखभाल में कम खर्च हो, पेड़ स्वस्थ रहें और बाग में मौजूद साधनों का पूरा इस्तेमाल हो सके. उद्यान यानी बाग की योजना इस तरह की होनी चाहिए कि हर फल वाले पेड़ को फैलने के लिए सही जगह मिल सके व फालतू जगह नहीं रहे और हर पेड़ तक सभी सुविधाएं आसानी से पहुंच सकें.

फलों के उत्पादन के लिए सिंचाई का इंतजाम, मिट्टी व जलवायु वगैरह ठीक होनी चाहिए. बाग में काम करने के लिए मजदूर व तकनीकी कर्मचारी भी होने चाहिए.

जमीन का चयन : प्रधानमंत्री मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के तहत आप अपने नजदीकी कृषि पर्यवेक्षक के माध्यम से मिट्टी की जांच सकते हैं. फल उद्यानों यानी फलों के बगीचों के लिए गहरी, दोमट या बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती है. जमीन में ज्यादा गहराई तक कोई भी सख्त परत नहीं होनी चाहिए. जमीन में भरपूर मात्रा में खाद होनी चाहिए व जल निकासी का सही इंतजाम होना चाहिए. लवणीय व क्षारीय जमीन में बेर, आंवला, लसोड़ा, खजूर व बेलपत्र वगैरह फल लगाने चाहिए.

पौधों का चयन : राजस्थान की जलवायु में खासतौर से अनार, आम, पपीता, करौंदा, आंवला, नीबू, मौसमी, माल्टा, संतरा, अनार, बेल, बेर व लसोड़ा आदि फलों की खेती आसानी से की जा सकती है. जिन भागों में पाले का ज्यादा असर रहता है, उन इलाकों में आम, पपीता व अंगूर के बाग नहीं लगाने चाहिए. ज्यादा गरमी व लू वाले इलाकों में लसोड़ा व बेर के पेड़ लगाने चाहिए. अधिक नमी वाले इलाकों में मौसमी, संतरा व किन्नू के पेड़ लगाने चाहिए.

Garden

वायुरोधी पेड़ लगाना : गरम व ठंडी हवाओं और अन्य कुदरती दुश्मनों से रक्षा करने के लिए खेत के चारों ओर देशी आम, जामुन, बेल, शहतूत, खिरनी, देशी आंवला, कैथा, शरीफा, करौंदा, इमली आदि फलों के पेड़ लगाने चाहिए. इन से खेत गरम रहेगा व सर्द हवाओं से बचा रहेगा. अगर बाग का इलाका कम हो तो केवल उत्तर व पश्चिम दिशा में 1 या 2 लाइनों में इन पेड़ों को लगा सकते हैं.

ध्यान रहे कि इन पेड़ों की जड़ें बाग में घुस कर पोषक तत्त्वों का इस्तेमाल करने लग जाती हैं, जिस का नतीजा यह होता है कि उद्यान की उपज में कमी आने लगती है. इस से बचने के लिए उद्यान व बाड़ के बीच में 3 साल में 1 बार 3 फुट गहरी खाई खोद कर जड़ों को काट देना चाहिए.

सिंचाई : बगीचा लगाने से पहले सिंचाई कैसे होगी, इस पर ध्यान देना जरूरी है. पानी की कमी वाले इलाकों में बूंदबूंद सिंचाई विधि का इस्तेमाल करना चाहिए, जिस से पानी व मेहनत दोनों की बचत होगी और पौधों को जरूरत के हिसाब से पानी मिलने के कारण पैदावार में बढ़ोतरी होगी.

सिंचाई की नालियां पौधों की कतारों के बीच से निकाल कर दोनों ओर पौधों की जरूरत के हिसाब से थाले बना कर पानी दिया जाना चाहिए. पौधों की कतार में सीधी सिंचाई करने से पौधों में रोग फैलने की संभावना बढ़ जाती है और नाली का पहला पौधा काफी कमजोर हो जाता है. लवणीय व क्षारीय पानी सभी फलों के पेड़ों के लिए सही नहीं होता है.

इन इलाकों में आंवला, बेर, खजूर, कैर, लसोड़ा आदि फलों के पेड़ लगाने चाहिए. पानी के भराव वाले इलाकों में पानी निकलने का सही इंतजाम होना चाहिए.

फल के पेड़ों का सही दूरी पर रेखांकन करना :  उद्यान का रेखांकन करने के लिए सब से पहले खेत के किसी एक किनारे से जरूरी दूरी की आधी दूरी रखते हुए पहली लाइन का रेखांकन करते हैं. इस के बाद हर लाइन के लिए जरूरी दूरी रखते हुए पूरे खेत में दोनों किनारे से इसी विधि द्वारा रेखांकन कर लेते हैं व निशान लगी जगहों पर पौधे रोपते हैं. बगीचों को वर्गाकार विधि से ही लगाना चाहिए, क्योंकि यह सब से आसान तरीका है. इस में सभी प्रकार के काम आसानी से किए जा सकते हैं. पौधे लगाने से 1 महीने पहले मईजून में गड्ढे खोद कर 20 से 25 दिनों तक उन्हें खुला छोड़ देना चाहिए, ताकि तेज धूप से कीटाणु खत्म हो जाएं. गड्ढे खोदते समय ऊपर की आधी उपजाऊ मिट्टी एक तरफ रख देनी चाहिए और आधी मिट्टी दूसरी तरफ डालनी चाहिए.

गड्ढों की भराई : खुदाई के 1 महीने बाद गड्ढों को गोबर की सड़ी हुई खाद 25 किलोग्राम, सुपर फास्फेट 250 ग्राम, क्यूनाल्फास 1.5 फीसदी 50 ग्राम, नीम की खली 2 किलोग्राम, क्षारीय जमीन हो तो 250 ग्राम जिप्सम और गड्ढे की मिट्टी डाल कर भर देना चाहिए. मिश्रण में खेत की ऊपरी मिट्टी को मिलाना चाहिए.

बरसात शुरू होने से पहले मिश्रण से गड्ढे को खेत की सतह से कुछ ऊंचाई तक दबा कर भर देना चाहिए व काफी मात्रा में पानी डाल देना चाहिए, ताकि गड्ढे की मिट्टी अच्छी तरह से बैठ जाए. पौधों की रोपाई जहां तक मुमकिन हो, 2 से 3 बार अच्छी बारिश होने के बाद ही करनी चाहिए.

Garden

पौधों की रोपाई : सरकारी व अच्छी नर्सरी से खरीदे गए पौधों को तैयार गड्ढों में रोप देना चाहिए. रोपाई जुलाईअगस्त में शाम के समय करनी चाहिए. पौधे को रोपने से 2 घंटे पहले लिपटी हुई घास पिंड व पालिथीन थैली को थोड़े समय के लिए पानी में रख कर उस में भरी हवा को बाहर निकालें, जिस से पौधा लगाते समय पिंड की मिट्टी बिखरे नहीं.

पौधा लगाने से पहले लिपटी हुई घास व पालीथीन थैली को मिट्टी के पिंड से हलके से हटा देना चाहिए और जड़ों को पूरी तरह बचा कर रखना चाहिए.

पौधों पर लगी पैबंद वाली जगह व शाखा के जुड़ाव वाले बिंदु को जमीन के तल से 25 सेंटीमीटर ऊपर रखना चाहिए. जरूरत हो तो पौधे को सहारा दें, ताकि पौधा झुके नहीं.

पौधा लगाने के बाद सिंचाई करें व जरूरत के हिसाब से पानी देते रहें. पैबंद के नीचे से निकलने वाली शाखाओं व रोग लगी शाखाओं को हटाते रहें.

सिंचाई : शुरू के 2 महीने तक पौधों को पानी की ज्यादा जरूरत होती है. इस समय 2-3 दिनों के अंतर पर पानी देना चाहिए. 2 सिंचाइयों के बीच का समय जगह, मौसम, जमीन, फलों की किस्म, फलन का समय व वहां की जलवायु आदि पर निर्भर करता है.

* अगर बारिश के मौसम में बारिश होती रहे तो पानी देने की जरूरत नहीं होती.

* सर्दी के मौसम में 10 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए.

* गरमी के मौसम में 7 से 10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए.

जल निकास जरूरत के मुताबिक हो, क्योंकि बाग को उस की जरूरत से कम पानी देने से पेड़ों की बढ़वार कम होती है, जबकि जरूरत से अधिक पानी देने से भी नुकसान होता है. पानी की अधिक मात्रा देने से जमीन पर पानी भर जाता है और पेड़ों के खाद्य पदार्थ जमीन की निचली सतह में चले जाते हैं. फलों में पानी की अधिक मात्रा होने के कारण मिठास कम हो जाती है और स्वाद खराब हो जाता है. इसलिए ज्यादा पानी को तुरंत खेत से निकाल देना चाहिए. उद्यान क्षेत्र का जलस्तर 2 से 3 मीटर नीचे रहना चाहिए.

Sweets : केसरिया बरफी – खुशबू और जायके से भरपूर

बरफी का जायका और खुशबू बढ़ाने के लिए अब उस में केसर का इस्तेमाल किया जाने लगा है. इस से खोए से बनने वाली बरफी देखने में और भी ज्यादा सुंदर लगती है. केसर पहाड़ी इलाकों में पाया जाता है. दूध में केसर डाल कर पीने का चलन पुराना है. अब बरफी में केसर पड़ने से इस का आकर्षण बढ़ गया है.

कीमत में भी केसरिया बरफी बहुत किफायती है. केसरिया बरफी को चांदी के वर्क, काजू के पतले टुकड़ों और पिस्ते से सजाया जाता है.

मेवा बरफी की तरह दिखने के कारण ग्राहकों को केसरिया बरफी बहुत पसंद आती है. इसे बनाने और सजाने का तरीका साधारण बरफी से अलग होता है. ऐसे में यह सब को पसंद आती है.

केसरिया बरफी बनाने वाले कारीगर सेवक गुप्ता कहते हैं, ‘इस बरफी का जायका लोगों को पसंद आता है. इस की कीमत ग्राहकों को लुभाती है. पिस्ता, बादाम और चांदी के वर्क के कारण इस की ताजगी लंबे समय तक बरकरार रहती है. केसरिया बरफी बनाने के लिए गाय के दूध का इस्तेमाल किया जाता है. इसे सीधे दूध से बनाया जाता है.’

केसरिया बरफी बनाने की विधि

अच्छी किस्म की केसरिया बरफी बनाने के लिए सब से पहले गाय का दूध ले कर उसे आंच पर चढ़ा कर धीरेधीरे गरम करते हैं. दूध पर आने वाली मलाई को बाहर नहीं निकालते हैं. इस से तैयार खोए में भरपूर मात्रा में चिकनाई रहती है. यह बरफी के स्वाद को बढ़ाती है. धीरेधीरे दूध गरम हो कर गाढ़ा होने लगता है. ध्यान रहे कि दूध को बराबर चलाते रहें, जिस से वह जलने न पाए. कुछ देर के बाद दूध का खोया सा बनने लगता है. तब उस में थोड़ी सी मात्रा में केसर मिला दें. केसर गरम दूध के साथ मिल कर उस के रंग को बदल देती है, जिस से सफेद दिखने वाला खोया केसरिया रंग का दिखने लगता है. तैयार खोए में बहुत थोड़ी सी चीनी मिलाते हैं. जब खोया पूरी तरह से सूख जाए तो उसे आंच से उतार लेते हैं.

तैयार सामग्री को एक बड़े से थाल में पलट कर पूरी तरह से एक जैसा फैला देते हैं. जब यह हलकाहलका गरम रह जाता है, तो इस के ऊपर कटे हुए काजू और पिस्ते को डाल देते हैं. इस के ऊपर चांदी का वर्क फैला कर दबा देते हैं. थोड़ा गरम होने के कारण चांदी का वर्क ठीक से दब जाता है. ठंडा हो जाने पर उसे मनचाहे आकार में काट लेते हैं. चांदी का वर्क लगा होने के कारण यह बरफी आपस में चिपकती नहीं है.

कई लोगों को खोए की बरफी पसंद नहीं आती. ऐसे लोग केसरिया बरफी का स्वाद ले सकते हैं. यह स्वाद और महक दोनों में खोए की बरफी से अलग होती है.

खानपान की शौकीन मेघना मलिक कहती हैं, ‘बरफी सब से ज्यादा बिकने वाली मिठाई होती है. हर जगह पर मिलने के कारण लगता है कि हम कोई साधारण मिठाई खा रहे हैं. ऐसे में केसरिया बरफी कुछ अलग सा एहसास कराती है. यह देखने में ही नहीं, खाने में भी खोए की बरफी से पूरी तरह से अलग है. यह मुझे बहुत पसंद है. अपने रंग के कारण यह बच्चों को भी पसंद आती है.’

Sweets : परवल स्वीट (Parwal) : सब्जी का नाम मिठाई का स्वाद

Sweets : कम लोगों को पता होगा कि परवल (Parwal) से मिठाई भी तैयार होती है. गरमी के दिनों में यह लोगों को खूब पसंद आती है. जिन लोगों को सब्जियों से बनी मिठाइयां अच्छी लगती हैं, वे इसे बहुत पसंद करते हैं.

लखनऊ की मशहूर मिठाई (Sweet) की दुकान छप्पनभोग में परवल की मिठाई को खास तरह से बनाते हैं. छप्पनभोग वाले परवल स्वीट को कोरियर से भेजने का काम भी करते हैं. परवल स्वीट को कोरियर से मंगाने के लिए छप्पनभोग डाटकाम पर जा कर अपना आर्डर दिया जा सकता है. आप इस का पेमेंट भी नेटबैंकिंग के जरीए कर सकते हैं. छप्पनभोग वाले ब्लूडार्ट कोरियर के जरीए आप तक यह परवल स्वीट पहुंचाने का इंतजाम करते हैं.

छप्पनभोग के रवींद्र गुप्ता बताते हैं, ‘हमारे यहां 56 से ज्यादा किस्मों की मिठाइयां बनती हैं. इन में परवल स्वीट भी एक खास मिठाई है. कई लोग इस तरह की मिठाई खाना सेहत के लिए सही मानते हैं.’

फिल्म अभिनेत्री अर्चना सिंह कहती हैं, ‘मेरी यूएसए में रह रही फ्रेंड को यह मिठाई बहुत पसंद है. हम सीजन में एक बार उसे यह जरूर भेजते हैं. फेस्टिवल में होने वाली पार्टियों में भी इस मिठाई का आकर्षण सब से अलग होता है. विदेशों में रहने वाले यह जान कर हैरान होते हैं कि भारतीय लोग सब्जियों से भी मजेदार मिठाई बना लेते हैं.’

पहले परवल स्वीट गांवों में शादियों के समय बनाई जाती थी. आमतौर पर पहले शादियां गरमी के मौसम में ही होती थीं. केवल खोए या छेने की मिठाई बनवाने का काम महंगा होता था. ऐसे में बचत के लिए परवल स्वीट की शुरुआत की गई. कुछ ही दिनों में इस मिठाई का स्वाद लोगों की जबान पर ऐसा चढ़ा कि लोग इस के दीवाने हो गए.

रवींद्र गुप्ता कहते हैं, ‘परवल स्वीट दूसरी मिठाइयों से बिल्कुल अलग होती है. यह खाने में रसदार होने का एहसास जरूर कराती है, पर असल में सूखी मिठाई होती है. इसे कहीं लाने ले जाने में भी दिक्कत नहीं होती है.’

परवल स्वीट केवल लखनऊ में ही नहीं बनती. दूसरे शहरों की खास मिठाई की दुकानों में भी यह मिठाई मिल जाती है. इस का हराभरा मीठा स्वाद खाने का अलग मजा देता है. दूसरी मिठाइयों के मुकाबले इस में कैलोरी की मात्रा कम होती है. इसलिए भी परवल स्वीट ज्यादा पसंद की जाती है. जिन लोगों को परवल की सब्जी उस के बीजों की वजह से अच्छी नहीं लगती, वे परवल स्वीट का मजा ले सकते हैं.

कैसे बनाएं परवल स्वीट

परवल स्वीट को बनाना मुश्किल नहीं होता है. इसे बनाने के लिए सब से पहले अच्छे किस्म के एक साइज के ताजे परवल लेने चाहिए. एक साइज के परवल देखने में अच्छे लगते हैं. परवलों को सही तरह से धोने के बाद उन का छिलका उतार दें. चाकू से परवलों के बीच में चीरा लगाएं. इस के बाद परवलों के बीज निकाल दें. अब पानी और चीनी को मिला कर चाशनी बना लें. चाशनी में परवलों को डाल कर धीमी आंच पर चढ़ा दें और 10-15 मिनट तक पकने दें. खयाल रखें कि परवल जलने न पाएं.

परवलों में भरने के लिए मिल्क बरफी का इस्तेमाल किया जाता है. बरफी बनाने के लिए दूध के साथ चीनी, काजू, किशइमिश और इलायची का इस्तेमाल किया जाता है. बरफी बनाने के बाद परवलों के अंदर खाली जगह में उसे भरें. फिर परवलों को बाहर से चांदी के वरक से लपेट दें और 20 मिनट के लिए फ्रीजर में रखें. फिर तैयार परवल स्वीट का आनंद लें. ऐसा स्वाद आप को किसी दूसरी मिठाई से नहीं मिलेगा. लौकी की बरफी और मूंग की बरफी की तरह आजकल परवल स्वीट की मांग भी तेजी से बढ़ रही है.