Jiji Bai : बाड़मेर की ‘जीजी बाई’ ने बनाई ग्लोबल पहचान

Jiji Bai| : थार रेगिस्तान को दुनिया के औयल मैप पर लाने वाले बाड़मेर के तेल क्षेत्रों के नाम अब एक और उपलब्धि जुड़ गई है. यहां के औयल फील्ड्स के सुदूर गांवों में बसी महिलाएं अपने कौशल से देशविदेश में जानी जा रही हैं. इसी कड़ी में अब जीजी बाई स्वयं सहायता समूह का नाम जुड़ गया है. उन के द्वारा बाड़मेर में तैयार मिलेट कुकीज यानी बाजरे के बिसकुट्स अब लंदन तक प्रसिद्ध हो चुके हैं.

‘विश्व महिला दिवस’ की पूर्व संध्या पर जीजी बाई कुकीज को ग्लोबल मार्केट से जोड़ने के लिए क्यूआर कोड मार्केटिंग की शुरुआत मंगला प्रोसैसिंग टर्मिनल के ली कैफे से की गई.

जीजी बाई के उत्पादों की सफलता को देखते हुए उन्हें हाल में दिल्ली में आयोजित इंडिया एनर्जी वीक में केयर्न, वेदांता के प्रदर्शनी स्थल में शामिल किया गया था. वहां उन के कौशल की तारीफ हुई और लोगों ने उन के बनाए उत्पादों को खूब पसंद किया. उन की सफलता की कहानियां अब देश के दूसरे क्षेत्रों में लोगों के लिए प्रेरणा बन रही हैं.

भारत की डायरेक्टर जनरल हाइड्रोकार्बन डा. पल्लवी जैन गोविल ने जीजी बाई के कार्यों की तारीफ करते हुए उन्हें दिल्ली भ्रमण का न्योता दिया.

इस से पूर्व जयपुर में हुए जयगढ़ फैस्टिवल और जयपुर लिटरेचर फैस्टिवल में भी जीजी बाई स्वयं समूह ने विदेशी मेहमानों की भरपूर प्रशंसा बटोरी. उन्हें अब लंदन स्थित प्रशंसकों से और्डर मिलने शुरू हो गए हैं.

बाड़मेर की इन महिलाओं का कौशल सिर्फ मिलेट कुकीज तक ही सीमित नहीं है, बल्कि डेयरी और कृषि क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी अलग जगह बनाई है. ब्रह्माणी सेल्फ हेल्प ग्रुप के अंतर्गत बनी डेयरी प्रोडक्ट्स और हस्तशिल्प वस्तुएं लोगों को खूब पसंद आ रही हैं. केयर्न एंटरप्राइज सैंटर से बैंकिंग, ब्यूटीशियन, ग्रूमिंग आदि स्किल्स निखार कर वे आत्मनिर्भर बनी हैं और अपने कौशल से गांव का नाम रोशन कर रही हैं.

International Women’s Day : कृषि महिला सशक्तीकरण के लिए प्रशिक्षण

International Women’s Day| भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR-IARI), नई दिल्ली ने उन्नत भारत अभियान और नई विस्तार पद्धतियों और दृष्टिकोण परियोजनाओं के तहत बीते 8 मार्च, 2025 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने और कृषि महिला सशक्तीकरण में तेजी लाने के लिए कृषि महिलाओं के लिए प्रशिक्षण सहप्रायोगिक खेत में क्षेत्र भ्रमण आयोजित किया.

इस कार्यक्रम में कृषि में महिलाओं के योगदान और टिकाऊ खेती के तरीकों में उन की भागीदारी बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए प्रतिष्ठित वैज्ञानिक, विशेषज्ञ और हितधारक एकसाथ आए.

इस कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले और उत्तराखंड के रुद्रपयाग जिले की महिला किसानों के साथसाथ आईएआरआई के वैज्ञानिकों और छात्रों सहित 75 से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया.

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के महत्व के साथसाथ नेमा, उन्नत भारत अभियान, फार्मर्स फर्स्ट, मौडल विलेज और आईएआरआई स्वैच्छिक संगठन आधारित साझेदारी कार्यक्रम जैसी विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से महिला सशक्तीकरण की दिशा में आईएआरआई के प्रयासों पर प्रकाश डाला गया.

वाणिज्यिक फूलों की खेती, एकीकृत फार्मिंग प्रणाली, संरक्षित खेती, पोषण और महिला सशक्तीकरण, पोषण हस्तक्षेप के साथसाथ फसल विविधीकरण के माध्यम से आय और रोजगार सृजन के प्रमुख मुद्दों पर भी चर्चा की गई. महिला किसानों और प्रतिनिधियों ने कृषि क्षेत्र में अपने अनुभव और योगदान साझा किए.

संयुक्त निदेशक (प्रसार) डा. आरएन पडारिया ने प्रौद्योगिकी और संस्थागत नवाचारों के माध्यम से महिला सशक्तीकरण पर विचार रखे और कृषि में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए क्षमता निर्माण, नैटवर्किंग, नवाचारों के अनुप्रयोग और बालिका शिक्षा पर जोर दिया.

डा. मनजीत सिंह नैन, डा. मार्कंडेय सिंह, डा. सुभाश्री साहू, डा. सुकन्या बरुआ, डा. नफीस अहमद, डा. हेमलता, डा. अलका जोशी, डा. एनवी कुंभारे, डा. पुनीता, डा. मीशा माधवन ने महिला उद्यमियों की सफलता की कहानियों के माध्यम से प्रतिभागियों को शिक्षित किया. बाद में महिलाओं को वाटिका बागबानी और पोषण सुरक्षा के लिए पूसा सब्जी बीज किट प्रदान की गई. मथुरा के परियोजना गांवों की महिला किसानों को सीधी बीजाई और श्रीविधि द्वारा धान की खेती को बढ़ावा देने के लिए धान की गुणवत्ता वाले बीज दिए गए.

Spice Crops : खेती और प्रोसैसिंग से मिलेगी अधिक आमदनी

Spice Crops| प्रसार शिक्षा निदेशालय, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर द्वारा पांचदिवसीय किसान प्रशिक्षण “मसाला फसलों की खेती एवं प्रसंस्करण” विषय पर बीते 3 मार्च से 7 मार्च, 2025 को आयोजित किया गया.

प्रशिक्षण के समापन समारोह के मुख्य अतिथि डा. आरएल सोनी, निदेशक, प्रसार शिक्षा निदेशालय, उदयपुर ने अपने उद्बोधन में प्रशिक्षणार्थियों को मसाला फसलों की खेती एवं प्रसंस्करण के महत्व पर प्रकाश डालते हुए बताया कि मसाला फसलों की खेती की लोकप्रियता के पीछे महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इन के उत्पादन में कई अन्य कृषि फसलों की तुलना में कम सिंचाई जल एवं पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है. साथ ही, यह किसानों के लिए अधिक आय अर्जित करने का एक अच्छा विकल्प है. मसाला फसलों के साथसाथ फल एवं सब्जियों का उत्पादन कर अतिरिक्त आमदनी भी ले सकते हैं.

समारोह के विशिष्ट अतिथि डा. एसके इंटोदिया, प्राध्यापक ने किसानों से आह्वान किया कि वे प्रशिक्षण के बाद एफपीओ का गठन करे और इस के माध्यम से अधिक आय प्राप्त करें. फसल को कटाई के बाद बेचने के मुकाबले ग्रेडिंग, क्लीनिंग, पैकेजिंग एवं प्रोसैसिंग से ज्यादा मुनाफा ले पाएंगे.

डा. लतिका व्यास, प्रशिक्षण प्रभारी ने बताया कि उक्त प्रशिक्षण कृषि विभाग आत्मा, मंदसौर (मध्य प्रदेश) द्वारा प्रायोजित था, जिस में मंदसौर जिले के विभिन्न गांवों से 60 किसानों ने भाग लिया. इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा कृषि विषयों पर तकनीकी जानकारी दी गई.

प्रशिक्षणार्थियों को विश्वविद्यालय की विभिन्न सजीव इकाइयों जैसे जैविक इकाई, पौलीहाउस, मुरगीपालन, डेयरी एवं मत्स्यपालन आदि के साथसाथ संग्रहालय भ्रमण एवं फिल्म शो कराया गया और तकनीकी जानकारी दी गई.

प्रशिक्षण समापन के दौरान प्रशिक्षणार्थियों से प्रश्नोत्तरी की गई, जिस में प्रथम, द्वितीय व तृतीय को पुरस्कार एवं सभी प्रतिभागियों को सांत्वना पुरस्कार एवं प्रमाणपत्र मुख्य अतिथि द्वारा दिए गए.

International Women’s Day : जल प्रौद्योगिकी केंद्र द्वारा कार्यशाला

International Women’s Day| कृषि क्षेत्र की महिलाओं को अधिक कार्यभार (घरेलू और कृषि कार्य दोनों), कुपोषण, निर्णय लेने के अवसर की कमी, दूरदराज के स्थानों से पानी इकट्ठा करने में कठिनाई, मैनुअल फील्ड औपरेशन जैसे निराई, इंटरकल्चरल औपरेशन, कटाई आदि में भाग लेने के दौरान लंबे समय तक काम करने में बहुमुखी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. जलवायु परिवर्तन से ये चुनौतियां और अधिक बढ़ रही हैं.

बीते 8 मार्च, 2025 को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ (International Women’s Day) के अवसर पर भारत में ग्रामीण महिलाओं की वर्तमान स्थिति और सामान्य रूप से कृषि क्षेत्र और विशेष रूप से जल प्रबंधन में उन के सामने आने वाली चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण करना प्रासंगिक है. इस के अलावा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस-2025 पर केंद्रीय विषय के दर्शन को समझते हुए कार्यवाही में तेजी लाने के लिए हमें सतत और जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन प्रौद्योगिकियों और नीतियों के माध्यम से महिलाओं के सशक्तीकरण को तेज करने के अपने प्रयासों को मजबूत करना चाहिए.

जल प्रौद्योगिकी केंद्र, भाकृअनुप- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली और डा. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय (आरपीसीएयू), बिहार द्वारा जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन पर विकसित विश्वसनीय प्रौद्योगिकियां इस संदर्भ में कृषि महिलाओं को लाभान्वित करने में अधिक सहायक होगी.

8 मार्च 2025 को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के अवसर पर जल प्रौद्योगिकी केंद्र, भाकृअनुप- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली और डा. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार द्वारा संयुक्त रूप से जल प्रौद्योगिकी केंद्र के सभागार में “सतत और जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन प्रौद्योगिकियों और नीतियों के माध्यम से महिलाओं का त्वरित सशक्तीकरण” पर विचारमंथन कार्यशाला का आयोजन किया गया था.

कार्यशाला के मुख्य उद्देश्य (क) जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि में कृषि जल प्रबंधन में ग्रामीण महिलाओं के सामने आने वाली वर्तमान चुनौतियों का विश्लेषण करना, (ख) सतत और जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन प्रौद्योगिकियों और नीतियों के एकीकरण के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण में तेजी लाना था.

कृषि क्षेत्र में सतत और जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन के लिए तकनीकी और नीति विकल्पों के रूप में कार्यशाला के अपेक्षित परिणाम संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) 6 (सभी के लिए पानी और स्वच्छता की उपलब्धता और सतत प्रबंधन सुनिश्चित करना) है.

इस कार्यशाला के उद्घाटन सत्र में राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो (एनबीएसएस व एलयूपी) के क्षेत्रीय केंद्र, नई दिल्ली की प्रमुख डा. जया एन. सूर्या, भाकृअनुप- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के संयुक्त निदेशक (अनुसंधान) डा. सी. विश्वनाथन, नई दिल्ली, जल प्रौद्योगिकी केंद्र के परियोजना निदेशक डा. पीएस ब्रह्मानंद और आरपीसीएयू के अनुसंधान निदेशक डा. एके सिंह ने भाग लिया.

 

उन्होंने ग्रामीण महिला सशक्तीकरण की समृद्धि के लिए सतत और जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन के लिए अनुसंधान और नीति समर्थन के महत्व पर प्रकाश डाला और सतत जल प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं के पुनर्निर्माण पर जोर दिया.

तकनीकी सत्र के दौरान डा. पीएस. ब्रह्मानंद, परियोजना निदेशक, जल प्रौद्योगिकी केंद्र, डा. सुशमा सुधीश्री, प्रधान वैज्ञानिक, जल प्रौद्योगिकी केंद्र और डा. रत्नेश झा, परियोजना निदेशक, आरपीसीएयू ने जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन और इस की सफलता की कहानियों और महिला सशक्तीकरण के लिए जल निकायों के पुनर्निर्माण पर जानकारी दी.

सत्र की अध्यक्षता डा. सीमा जग्गी, एडीजी (एचआरडी), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली और सहअध्यक्षता डा. डीएस गुर्जर, वरिष्ठ वैज्ञानिक, जल प्रौद्योगिकी केंद्र ने की. डा. सीमा जग्गी ने जलवायु अनुकूल प्रौद्योगिकियों के संभावित सकारात्मक प्रभाव की सराहना की और जल संसाधन प्रबंधन में महिलाओं के अनुपात में सुधार के लिए आवश्यक प्रयासों पर बल दिया.

इस के बाद “महिला सशक्तीकरण में तेजी लाने के लिए जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन प्रौद्योगिकियों और नीतियों को एकीकृत करने” जैसे विषय पर पैनल चर्चा आयोजित की, जिस का संचालन भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के कृषि भौतिकी विभाग के प्रमुख डा. एन. सुभाष ने किया.

भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के संयुक्त निदेशक (प्रसार) डा. आरएन पदारिया, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एडीजी (प्रोसैसिंग इंजीनियरिंग) डा. के. नरसैया, एनबीएसएस व एलयूपी, नई दिल्ली के क्षेत्रीय केंद्र की प्रमुख डा. जया एन. सूर्या, आरपीसीएयू के बेसिक साइंसेज एंड ह्यूमैनिटीज कालेज के डीन डा. अमरेश चंद्रा, आरपीसीएयू के मत्स्यपालन कालेज के डीन डा. पीपी श्रीवास्तव और आरपीसीएयू के शिक्षा निदेशक डा. यूके बेहरा ने पैनलिस्ट के रूप में भाग लिया.

उन्होंने एकीकृत कार्ययोजना के लिए सुझाव दिया, जिस में जल प्रबंधन प्रौद्योगिकियों को तेजी से अपनाने के लिए प्रभावी विस्तार विधियां, महिला किसान अनुकूल उपकरणों का विकास, कम लागत वाली वर्षा जल संचयन तकनीक, एकीकृत कृषि प्रणाली, अमृत सरोवर योजना को मजबूत करना, जल जीवन मिशन आदि शामिल हैं.

कार्यशाला में विचारविमर्श के आधार पर महिला सशक्तीकरण के लिए जलवायु अनुकूल जल प्रबंधन पर संक्षिप्त नीति तैयार की जाएगी. कुलमिला कर इस कार्यशाला में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली, एनबीएसएस व एलयूपी, नई दिल्ली, एनबीपीजीआर, नई दिल्ली और आरपीसीएयू, बिहार में स्थित अन्य संस्थानों के शोधकर्ताओं, शिक्षाविदों, कर्मचारियों और छात्रों सहित लगभग 70 प्रतिनिधियों ने इस में भाग लिया.

Brinjal : बैगन की आधुनिक खेती

गरमी के मौसम की खास सब्जियों में बैगन, टमाटर, भिंडी व कद्दू वर्गीय सब्जियां शामिल हैं. बैगन (Brinjal) का आमतौर पर सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल भरता, पकौड़े, अचार कलौंजी बनाने में भी किया जाता है. इस में कुछ औषधीय गुण भी पाए जाते हैं. यह भूख बढ़ाने वाला और कफ के लिए फायदेमंद बताया गया है. सफेद बैगन की सब्जी डाइबिटीज के रोगियों के लिए फायदेमंद पाई गई है.

बैगन (Brinjal) का जन्म मध्य अमेरिका में माना जाता है. यह भारत में 4000 सालों से बोया जा रहा है. बैगन में सब से जयादा नुकसान चोटी व फल छेदक कीट के द्वारा होता है.

इस कीट के कारण करीब 60-70 फीसदी पौधों को नर्सरी से ले कर फलों की तोड़ाई तक नुकसान उठाना पड़ जाता है. यह कीट बढ़ते पौधों की नईनई कलियों को खाता है और फलों में सुराख कर के उन को नुकसान पहुंचाता है. बैगन की अच्छी उपज व ज्यादा आमदनी के लिए उन्नतशील किस्मों की वैज्ञानिक तरीकों से खेती करना आवश्यक है.

भूमि का चुनाव और तैयारी

बैगन की अच्छी उपज के लिए गहरी दोमट भूमि जिस में जल निकास का सही इंतजाम हो, सब से अच्छी समझी जाती है. भूमि की तैयारी के लिए पहली जुताई डिस्क हैरो से और 3 से 4 जुताइयां कल्टीवेटर से कर के पाटा लगा दें. खेत की तैयारी के समय पुरानी फसल के बचे भागों को इकट्ठा कर के जला दें जिस से कीटों व बीमारियों का प्रकोप कम हो.

खाद व उर्वरक

बैगन में खाद व उर्वरक  की मात्रा इस की किस्म, स्थानीय जलवायु व मिट्टी की किस्म पर निर्भर करती है. अच्छी फसल के लिए 8 से 10 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

80 किलोग्राम नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी तय मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय डालें. बची नाइट्रोजन को 2 भागों में बांट कर 30 व 45 दिनों बाद खरपतवार नियंत्रण के बाद खड़ी फसल में छिड़क दें.

बीज की मात्रा

1 हेक्टेयर में फसल की रोपाई के लिए 250 से 300 ग्राम बीजों की जरूरत होती है. बीजों को  पौधशाला में बो कर पौधे तैयार किए जाते हैं.

बोआई व रोपाई

उत्तर भारत में बैगन लगाने का सही समय जूनजुलाई है. अच्छी तरह से तैयार खेत में सिंचाई के साधन के अनुसार क्यारियां बना लें. क्यारियों में लंबे फल वाली प्रजातियों के लिए 70 से 75 सेंटीमीटर और गोल फल वाली किस्मों के लिए 90 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधों की रोपाई करें. रोपाई के समय यह ध्यान रखें कि पौधे कीट व रोग रहित हों. वर्षा के अनुसार रोपाई मेंड़ों या समतल क्यारियों में करें.

सिंचाई

रोपाई के बाद फुहारे की सहायता से पौधों के थालों में 2 से 3 दिनों तक सुबह और शाम के वक्त हलका पानी दें. इस के बाद हलकी सिंचाई करें ताकि पौधे जमीन में अच्छी तरह जड़ पकड़ लें. बाद में जरूरतानुसार सिंचाई करते रहें. साधारणतया गरमी के मौसम में 10 से 15 दिनों और सर्दी के मौसम में 15 से 20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें. यदि पौधे मेड़ों पर लगाए गए हैं, तो सिंचाई आधी मेड़ तक करें और सिंचाई का अंतर कम रखें. बारिश के मौसम में यदि बारिश अधिक हो रही हो, तो खेत से पानी निकालने के लिए निकास नाली की सही व्यवस्था होनी चाहिए.

Mango Orchards : आम के बागों में कीड़ों व रोगों की रोकथाम जरूरी

Mango Orchards : आम की बागबानी में स्वस्थ्य और अच्छी उपज लेने के लिए कीटरोगों की रोकथाम समय रहते कर देनी चाहिए अन्यथा आम की मिठास कड़वाहट में बदलने में समय नहीं लगेगा.

कीड़ों की रोकथाम

भुनगा: इस कीट के बच्चे व वयस्क दोनों ही मुलायम टहनियों, पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. इस की वजह से फूल सूख कर गिर जाते हैं. यह कीट एक प्रकार का मीठा पदार्थ निकालता है, जो पेड़ों की पत्तियों, टहनियों आदि पर लग जाता है. इस मीठे पदार्थ पर काली फफूंदी पनपती है, जो पत्तियों पर काली परत के रूप में फैल कर पेड़ों के प्रकाश संश्लेषण पर खराब असर डालती है.

इलाज : बाग से खरपतवार हटा कर उसे साफसुथरा रखें. घने बाग की कटाईछंटाई दिसंबर में करें. बौर फूटने के बाद बागों की बराबर देखभाल करें. पुष्पगुच्छ की लंबाई 8-10 सेंटीमीटर होने पर भुनगे का प्रकोप होता है. इस की रोकथाम के लिए 0.005 फीसदी इमिडा क्लोप्रिड का पहली बार छिड़काव करें. 0.005 फीसदी थायामेथोक्लाज या 0.05 फीसदी प्रोफेनोफास का दूसरा छिड़ाकाव फल लगने के बाद करें.

गुजिया: इस के बच्चे और वयस्क पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. जब इन की तादाद ज्यादा हो जाती है, तो इन के द्वारा रस चूसे जाने के कारण पेड़ों की पत्तियां व बौर सूख जाते हैं और फल नहीं लगते हैं. इस कीट का हमला दिसंबर से मई महीने तक देखा जाता है.

इलाज : खरपतवारों और अन्य घासों को नवंबर में जुताई द्वारा बाग से निकालने से सुप्तावस्था में रहने वाले अंडे धूप, गरमी व चीटियों द्वारा नष्ट हो जाते हैं. दिसंबर के तीसरे हफ्ते में पेड़ के तने के आसपास 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण 1.5 फीसदी प्रति पेड़ की दर से मिट्टी में मिला देने से अंडों से निकलने वाले निम्फ मर जाते हैं. पालीथीन की 30 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी पेड़ के तने के चारों ओर जमीन की सतह से 30 सेंटीमीटर ऊंचाई पर दिसंबर के दूसरेतीसरे हफ्ते में गुजिया के निकलने से पहले लपेटने से निम्फों का पेड़ों पर ऊपर चढ़ना रुक जाता है. पट्टी के दोनों सिरों को सुतली से बांधना चाहिए. इस के बाद थोड़ी ग्रीस पट्टी के निचले घेरे पर लगाने से गुजिया को पट्टी पर चढ़ने से रोका जा सकता है. यह पट्टी बाग में मौजूद सभी आम के पेड़ों व अन्य पेड़ों पर भी बांधनी चाहिए. अगर किसी वजह से यह विधि नहीं अपनाई गई और गुजिया पेड़ पर चढ़ गई, तो ऐसी हालत में 0.05 फीसदी कार्बोसल्फान 0.2 मिलीलीटर प्रति लीटर या 0.06 फीसदी डायमेथोएट 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर का छिड़काव करें.

Mango Orchards

पुष्प गुच्छ मिज : आम के पेड़ों पर मिज के प्रकोप से 3 चरणों में हानि होती है. इस का पहला प्रकोप कली के खिलने की अवस्था में होता है. नए विकसित बौर में अंडे दिए जाने व लार्वा द्वारा बौर के मुलायम डंठल में घुसने से बौर पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं. इस का दूसरा प्रकोप फलों के बनने की अवस्था में होता है. फलों में अंडे देने व लार्वा के घुसने की वजह से फल पीले हो कर गिर जाते हैं. तीसरा प्रकोप बौर को घेरती हुई पत्तियों पर होता है.

इलाज : अक्तूबर व नवंबर में बाग में की गई जुताई से मिज की सूंडि़यों के साथ सोए पड़े प्यूपे भी नष्ट हो जाते हैं. जिन बागों में इस कीट का हमला होता रहा है, वहां बौर फूटने पर 0.06 फीसदी डायमेथोएट का छिड़काव करना चाहिए. अप्रैलमई में 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण प्रति पेड़ के हिसाब से छिड़काव करने पर पेड़ के नीचे सूंडि़यां नष्ट हो जाती हैं. फरवरी में भुनगे के लिए किए जाने वाले कीटनाशी के छिड़काव से इस कीट की भी अपनेआम रोकथाम हो जाती है.

डासी मक्खी : वयस्क मक्खियां अप्रैल में जमीन से निकल कर पके फलों पर अंडे देती हैं. 1 मक्खी 150 से 200 तक अंडे देती है. 2-3 दिनों के बाद सूंडि़यां अंडों से निकल कर गूदे को खाना शुरू कर देती हैं.

इलाज : इस कीट के असर को कम करने के लिए सभी गिरे हुए व मक्खी के प्रकोप से ग्रसित फलों को इकट्ठा कर के नष्ट कर देना चाहिए. पेड़ों के आसपास सर्दी के मौसम में जुताई करने से जमीन के अंदर के प्यूपों को नष्ट किया जा सकता है. काठ से बने यौनगंध ट्रैप को पेड़ पर लगाना इस की रोकथाम में बहुत कारगर है. इस ट्रैप के लिए प्लाईवुड के 5×5×1 सेंटीमीटर आकार के गुटके को 48 घंटे तक 6:4:1 के अनुपात में अल्कोहल, मिथाइल यूजिनाल, मैलाथियान के घोल में भिगो कर लगाना चाहिए. यौनगंध ट्रैप को 2 महीने के अंतर पर बदलना चाहिए. 10 ट्रैप प्रति हेक्टेयर लटकाने चाहिए.

रोगों की रोकथाम

पाउडरी मिल्ड्यू (खर्रा, दहिया) : इस रोग के लक्षण बौरों, पत्तियों व नए फलों पर देखे जा सकते हैं. इस रोग का खास लक्षण सफेद कवक या चूर्ण के रूप में जाहिर होता है. नई पत्तियों पर यह रोग आसानी से दिखता है, जब पत्तियों का रंग भूरे से हलके हरे रंग में बदलता है. नई पत्तियों पर ऊपरी और निचली सतह पर छोटे सलेटी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो निचली सतह पर ज्यादा होते हैं. बौरों पर यह रोग सफेद चूर्ण की तरह दिखाई पड़ता है और बौरों में लगे फूलों के झड़ने की वजह बनता है. इस रोग की वजह से फूल नहीं खिलते हैं और समय से पहले ही झड़ जाते हैं. नए फलों पर पूरी तरह सफेद चूर्ण फैल जाता है और मटर के दाने के बराबर हो जाने के बाद फल पेड़ से झड़ जाते हैं.

इलाज : पहला छिड़काव 0.2 फीसदी घुलनशील गंधक का घोल बना कर उस समय करना चाहिए, जब बौर 3-4 इंच का होता है. दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डिनोकोप का होना चाहिए, जो पहले छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद हो. दूसरे छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राईडीमार्फ का होना चाहिए.

एंथ्रेकनोज : यह रोग पत्तियों, टहनियों और फलों पर देखा जा सकता है. पत्तियों की सतह पर पहले गोल या अनियमित भूरे या गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. प्रभावित टहनियों पर पहले काले धब्बे बनते हैं और फिर पूरी टहनी सलेटी रंग की हो जाती है. पत्तियां नीचे की ओर झुक कर सूखने लगती हैं और बाद में गिर जाती हैं. बौर पर सब से पहले पाए जाने वाले लक्षण हैं, गहरे भूरे रंग के धब्बे, जो कि फूलों पर जाहिर होते हैं. बौर व खिले फूलों पर छोटे काले धब्बे उभरते हैं, जो धीरेधीरे फैलते हैं और आपस में जुड़ कर फूलों को सुखा देते हैं. ज्यादा नमी होने पर यह रोग तेजी से फैलता है.

इलाज : सभी रोगग्रसित टहनियों की छंटाई कर देनी चाहिए और बाग में गिरी हुई पत्तियों, टहनियों और फलों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए. मंजरी संक्रमण को रोकने केलिए 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना चाहिए. संक्रमण को रोकने के लिए 0.3 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव भी लाभकारी है. 0.1 फीसदी थायोफनेट मिथाइल या 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का बाग में फल तोड़ाई से पहले छिड़काव करने से गुप्त संक्रमण को कम किया जा सकता है.

उल्टा सूखा रोग : टहनियों का ऊपर से नीचे की ओर सूखना इस रोग का मुख्य लक्षण है. विशेष तौर पर पुराने पेड़ों में बाद के पत्ते सूख जाते हैं, जो आग से झुलसे हुए से मालूम पड़ते हैं. शुरू में नई हरी टहनियों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. जब ये धब्बे बढ़ते हैं, तब नई टहनियां सूख जाती हैं. ऊपर की पत्तियां अपना हरा रंग खो देती हैं और धीरेधीरे सूख जाती हैं. इस रोग का ज्यादा असर अक्तूबरनवंबर में दिखाई पड़ता है.

इलाज : छंटाई के बाद गाय का गोबर व चिकनी मिट्टी मिला कर कटे भाग पर लगाना फायदेमंद होता है. संक्रमित भाग में 3 इंच नीचे से छंटाई के बाद बोर्डो मिक्चर 5:5:50 या 0.2 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव रोग की रोकथाम में बेहद कारगर होता है.

Jowar : जायद में ज्वार (sorghum) की खेती

ज्वार (Jowar) को देश में अलगअलग नामों से जानते हैं. इसे उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय भाषा में कर्बी, मराठी में ज्वारी, कन्नड़ में जोर और तेलुगू में जोन्ना कहते हैं. महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान व गुजरात जैसे सूबों में इस की खूब खेती की जाती है. उत्तरी भारत में इस की खेती खरीफ और रबी दोनों मौसमों में की जाती है. खास बात यह है कि इसे कम बारिश वाले इलाकों में भी उगाया जा सकता है. चारे के अलावा इसे अन्न और जैव उर्जा के लिए भी इस्तेमाल करते हैं. इस से साइलेज भी तैयार किया जाता है. इस की खास किस्म से स्टार्च व दानों से अल्कोहल भी हासिल किया जाता है. यही कारण है कि खाद्यान्न फसलों में कुल बोए जाने वाले रकबे में इस का तीसरा स्थान है.

मिट्टी : ज्वार की खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट और हलकी व औसत काली मिट्टी जिस का पीएच मान सामान्य हो बेहतर होती है. अगर अधिक अम्लीय या अधिक क्षारीय मिट्टी हो तो ऐसे स्थानों पर इस की खेती करना सही नहीं होता.

खेत की तैयारी : पलेवा कर के पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से या हैरो से कर के 1 से 2 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए.

बोआई का समय : हरे चारे के लिए जायद में बोआई का सही समय फरवरी के अंतिम हफ्ते से ले कर मार्च के अंत तक होता है.

बीज दर : मल्टीकट (कई बार कटने वाली) प्रजातियों के 25-30 किलोग्राम बीज और सिंगल कट (सिर्फ 1 बार कटने वाली) प्रजातियों के 30-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए.

बीज उपचार : बीजजनित और मिट्टी रोगों से बचाव के लिए बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए.

बोआई का तरीका : ज्वार की ज्यादातर बोआई छिटकवां विधि से की जाती है, जो कि वैज्ञानिक तरीका नहीं है. बेहतर होगा कि इसे हल के पीछे कूड़ों में लाइन से लाइन की दूरी 30 सेंटीमीटर रखते हुए बोएं.

खाद और उर्वरक : खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के बाद मिली रिपोर्ट के अनुसार ही करना चाहिए. यदि किसान के पास खूब सड़ी हुई गोबर की खाद, खली या कंपोस्ट वगैरह मौजूद हो, तो बोआई से 15-20 दिनों पहले इन का इस्तेमाल करें.

सिंगल कट वाली प्रजातियों में 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन बोआई के 1 महीने बाद सही नमी होने पर छिड़क कर देना चाहिए. मल्टीकट वाली प्रजातियों में 60-70 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस बोआई के समय और 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन हर कटाई के बाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई : बारिश होने से पहले फसल की हर 8-12 दिनों के अंतराल पर या जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

खरपतवार नियंत्रण : फसल की बोआई के तुरंत बाद 1.5 किलोग्राम घुलनशील एट्राजिन 50 फीसदी या सिमेजिन को 1000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले खेत में छिड़काव करना चाहिए.

कटाई : पशुओं को उम्दा चारा खिलाने के लिए सिंगल कट फसल की कटाई 5 फीसदी फूल आने पर या 60-70 दिनों के बाद करनी चाहिए. वहीं दूसरी ओर मल्टी कट प्रजातियों की पहली कटाई सामान्य प्रजातियों से तकरीबन 10 दिनों पहले कर लेनी चाहिए और बाद की कटाई 30-35 दिनों के अंतराल पर जमीन की सतह से 6-8 सेंटीमीटर की (तकरीबन 4 अंगुल) ऊंचाई से करनी चाहिए. इस से कल्ले आसानी से निकलते हैं.

उपज : सिर्फ हरे चारे की बात की जाए तो मल्टी कट वाली प्रजाति की उपज तकरीबन 750-800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है. वहीं सिंगल कट वाली प्रजातियों की उपज तकरीबन 250-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई जाती है.

Jowar

ज्वार की कुछ उन्नत प्रजातियां

यूपी चरी 1 : सिंगल कट वाली यह प्रजाति पत्ती रोगों के लिए सहनशील है. इस का तना रसीला और मिठास वाला होता है. यह तेजी से बढ़ोतरी करने वाली अगेती प्रजाति है, जो पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 330 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 115 से 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

एचसी 171 : सिंगल कट वाली यह प्रजाति पत्ती रोगों और कीटों के लिए सहनशील है. इस का तना मध्यम मोटा, मीठा और रसीला होता है. यह प्रजाति पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 520 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा चरी 1 : सिंगल कट वाली इस प्रजाति के बीज बहुत कठोर व सफेद होते हैं. इस का तना रसीला और मध्यम मोटाई का होता है. यह पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 280 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

एसएल 44 : सिंगल कट वाली इस प्रजाति का तना पतला, मिठास रहित व रसीला होता है. इस की पत्तियां लंबी और मध्यम चौड़ाई की होती हैं. इसे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान  व उत्तर प्रदेश में उगाया जा सकता है. इस की उपज 320 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 75 से 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा चरी 23 : मल्टी कट वाली यह प्रजाति सूखा और पानी रुकने के प्रति सहनशील होती है. इस की पत्तियां संकरी, दाना नीलेलाल रंग का और तना पतला होता है. यह पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के पकने में 95 से 100 दिनों का समय लगता है.

Sustain Plus Project : एनडीडीबी सस्टेन प्लस परियोजना हुई शुरू

Sustain Plus Project : मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के तहत पशुपालन और डेयरी विभाग ने बीते दिनों 3 मार्च, 2025 को भारत मंडपम, नई दिल्ली में डेयरी क्षेत्र में स्थिरता पर कार्यशाला का सफलतापूर्वक आयोजन किया. केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन, डेयरी और पंचायती राज मंत्री राजीव रंजन सिंह की उपस्थिति में इस कार्यशाला का उद्घाटन किया.

केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के राज्य मंत्री प्रो. एसपी सिंह बघेल और जौर्ज कुरियन भी इस अवसर पर उपस्थित थे.  डेयरी क्षेत्र के प्रमुख हितधारकों के साथसाथ पशुपालन और डेयरी विभाग, पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, उर्वरक विभाग, राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी), इंडियन औयल कौर्पोरेशन लिमिटेड और विभिन्न दूध सहकारी समितियों के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी इस कार्यशाला में भाग लिया.

कार्यशाला ने तकनीकी, वित्तीय और कार्यान्वयन सहायता का लाभ उठा कर डेयरी क्षेत्र में सतत और समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिए एनडीडीबी और नाबार्ड के बीच समझौता हुआ.  देशभर में बायोगैस संयंत्र स्थापित करने के लिए एनडीडीबी ने 15 राज्यों के 26 दुग्ध संघों के साथ समझौता किया.

इस अवसर पर डेयरी क्षेत्र में स्थिरता के उद्देश्य से दिशानिर्देश जारी किए गए, साथ ही, एनडीडीबी (राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड) के लघु पैमाने पर बायोगैस, बड़े पैमाने पर बायोगैस/संपीड़ित बायोगैस परियोजनाओं और टिकाऊ डेयरी के आर्थिक सहायता के लिए एनडीडीबी ‘सस्टेन प्लस परियोजना’ के तहत वित्तपोषण पहलों की शुरुआत की गई.

इन पहलों से डेयरी फार्मिंग में चक्रीय प्रथाओं को अपनाने में तेजी आने, कुशल खाद प्रबंधन, ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा मिलने और पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने की उम्मीद है.  इस राष्ट्रीय कार्यशाला ने नीति बनाने वालों, उद्योग जगत के नेताओं और विशेषज्ञों को स्थिरता बढ़ाने, कार्बन उत्सर्जन को कम करने और छोटे व सीमांत डेयरी किसानों के लिए आर्थिक सहायता सुनिश्चित करने और विकसित करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान किया.

Sustain Plus Project

केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा कि आज जब हम श्वेत क्रांति 2.0 की ओर बढ़ रहे हैं, तो स्थिरता और चक्रीयता का महत्व और भी बढ़ गया है. उन्होंने कहा कि पहली श्वेत क्रांति की मदद से हम ने अब तक जो हासिल किया है, उस के अलावा डेयरी क्षेत्र में स्थिरता और चक्रीयता को अभी पूरी तरह हासिल किया जाना बाकी है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि भारत की कृषि व्यवस्था छोटे किसानों पर आधारित है और गांवों से शहरों की ओर उन का पलायन उन की समृद्धि से जुड़ा है. उन्होंने कहा कि ग्रामीण पलायन की समस्या पर काबू पाने के साथसाथ छोटे किसानों को समृद्ध बनाने के लिए डेयरी एक महत्वपूर्ण विकल्प है.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने कहा कि डेयरी क्षेत्र में चक्रीयता और स्थिरता पर ध्यान देने के साथ, ईंधन के उत्पादन के लिए गाय के गोबर का उपयोग किसानों की आय बढ़ाने में काफी मदद करेगा.

उन्होंने आगे कहा कि देश में 53 करोड़ से अधिक के विशाल पशुधन संसाधन में से लगभग 30 करोड़ गाय और भैंसें हैं, इसलिए बड़ी मात्रा में गाय का गोबर उपलब्ध है, जिस का उपयोग जैविक खाद, जैव ईंधन आदि के लिए किया जा सकता है, जिस से उत्पादकता बढ़ेगी और साथ ही किसानों की आय भी बढ़ेगी.

मंत्री राजीव रंजन सिंह ने आगे कहा कि आज सरकार के प्रयासों के कारण डेयरी क्षेत्र काफी हद तक असंगठित से संगठित क्षेत्र में बदल गया है. उन्होंने देश में हरित विकास और किसान कल्याण को बढ़ावा देने के लिए चक्रीय अर्थव्यवस्था प्रथाओं, नवीकरणीय ऊर्जा पहलों और सार्वजनिक निजी भागीदारी के महत्व का भी जिक्र किया.

हितधारकों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं को नवाचार के साथ एकीकृत करने से न केवल हरित विकास को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि लाखों किसानों का भला भी होगा.

पशुपालन एवं डेयरी विभाग की सचिव अलका उपाध्याय ने डेयरी क्षेत्र में टिकाऊ प्रथाओं की आवश्यकता और सर्कुलर अर्थव्यवस्था सिद्धांतों को एक करने के सरकार के दृष्टिकोण पर जोर दिया और कहा कि भारत “विश्व की डेयरी” है और डेयरी क्षेत्र, कृषि जीवीए में 30 फीसदी का योगदान देता है. इन टिकाऊ प्रथाओं को लागू करने के लिए एनडीडीबी ने 1,000 करोड़ रुपए के आवंटन के साथ एक नई वित्तपोषण योजना शुरू की है, जिस का उद्देश्य छोटे बायोगैस, बड़े पैमाने के बायोगैस संयंत्रों और संपीड़ित बायोगैस (सीबीजी) परियोजनाओं के लिए लोन सहायता के माध्यम से आर्थिक सहायता प्रदान करना है, जिस से आने वाले 10 सालों में विभिन्न खाद प्रबंधन मौडलों को बढ़ाने में सुविधा होगी.

कार्यशाला के विचारविमर्श के प्रमुख विषयों में सफल चक्रीय अर्थव्यवस्था मौडल, छोटे डेयरी किसानों के लिए कार्बन क्रैडिट के अवसर और टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा देने में कार्बन ट्रेडिंग की भूमिका शामिल थी. भारत सरकार द्वारा समर्थित और एनडीडीबी के नेतृत्व में डेयरी क्षेत्र ने स्थिरता और चक्रीयता को बढ़ाने के लिए प्रमुख खाद प्रबंधन पहलों की शुरुआत की है.

3 उल्लेखनीय मौडलों में जकारियापुरा मौडल, बनास मौडल और वाराणसी मौडल शामिल हैं, जो दूध के साथसाथ गोबर की एक मूल्यवान वस्तु के रूप में क्षमता को उजागर करते हैं, जो एक अधिक टिकाऊ और चक्रीय डेयरी पारिस्थितिकी तंत्र में योगदान देता है, साथ ही पशुपालकों की आय में वृद्धि का भी काम करता है.

छत्तीसगढ़ बजट 2025-26 : बस्तर के किसान हितों की अनदेखी

छत्तीसगढ़ सरकार के 2025-26 के बजट को हम एक माने में निश्चित रूप से अनूठा कह सकते हैं कि एआई और डिजिटलाइजेशन के युग में यह बजट हाथ से लिखा गया. कुछ नया कर दिखाने के चक्कर में पूर्व तेजतर्रार आईएएस वित्त मंत्री शायद मोदी के डिजिटलाइजेशन के नारे को भूल गए.

पहली नजर में बजट में कई लोकलुभावनी बातें नजर में आती हैं, पर जब हम गहराई से बजट की पड़ताल करते हैं, तो हमें प्रदेश के किसानों के उत्थान और बस्तर के समग्र विकास के लिए कोई ठोस दृष्टिकोण नजर नहीं आता. अकसर बजट आंकड़ों की बाजीगरी और खोखली घोषणाओं के पुलिंदे ही होते हैं, यह बजट भी इस से कुछ ज्यादा अलग हट कर नहीं है. इस बजट की सब से बड़ी विडंबना यह रही कि बस्तर, जो प्रदेश व देश के लिए सब से अधिक प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराता है, उसे एक बार फिर नजरअंदाज कर दिया गया है.

हंसें या रोएं- जैविक खेती के लिए 20 करोड़, प्रमाणीकरण के लिए 24 करोड़

सरकार सालभर जैविक खेती के सैमिनार व वर्कशौप करती है. दिनरात जैविक खेती की बातें होती हैं, पर जब बजट में राशि देने की बात आती है, तो जैविक खेती के साथ कैसा मजाक किया जाता है, उस की बानगी देखिए, इस बजट में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए मात्र 20 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है और जैविक प्रमाणन के लिए 24 करोड़ रुपए देंगे.

प्रदेश के 40 लाख किसानों को जैविक खेती के लिए प्रति किसान सालाना केवल 50 रुपए मात्र. ऐसे में जैविक भारत मिशन-2047: मियोनप (MIONP) और सतत विकास के ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के सस्टेनेबल डेवलपमेंट के ‘SDGs’ के संयुक्त वैश्विक लक्ष्यों को भारत कैसे पूरा कर पाएगा. इस बिंदु को हलके में बिलकुल नहीं लिया जाना चाहिए.

इसी से जुड़ी दूसरी गंभीर बात यह कि सरकार को जैविक खेती करवाने से ज्यादा चिंता जैविक प्रमाणीकरण की है. यह बिलकुल वैसा ही है, जैसे किसी को खेती के लिए 20 रुपए दिए जाएं और उस की फसल की गुणवत्ता जांचने के लिए 24 रुपए.

सचाई यह है कि जैविक प्रमाणीकरण की मौजूदा व्यवस्था किसान हितैषी नहीं, बल्कि पूरी तरह से बिचौलियों और सर्टिफिकेशन एजेंसियों के फायदे के लिए बनी हुई है. किसान जैविक खेती करने में हजारों रुपए लगाता है, लेकिन प्रमाणपत्र हासिल करने में उसे और ज्यादा खर्च करना पड़ता है. फिर भी उसे बाजार में उचित दाम नहीं मिलता. सरकार को यह समझना चाहिए कि जब जैविक खेती को सही तरीके से बढ़ावा ही नहीं दिया गया, तो प्रमाणीकरण करवा कर क्या फायदा?

अगर सरकार वास्तव में जैविक खेती के प्रति गंभीर होती, तो उसे प्रमाणीकरण की तुलना में जैविक खेती के विस्तार और किसानों की सहायता पर ज्यादा फोकस करना चाहिए था. लेकिन यहां फिर वही पुरानी नीति अपनाई गई. किसानों को कम पैसा दो और अफसरों व एजेंसियों को ज्यादा.

ऋण कृत्वा घृतं पिवामि यानी किसानों को कर्ज में डालने की नीति असली समस्या पर ध्यान नहीं

बजट में किसानों के लिए 8,500 करोड़ रुपए के ब्याजमुक्त लोन की घोषणा की गई है. देखने में यह अच्छा लग सकता है, लेकिन असल में यह किसानों की समस्याओं का हल नहीं कर रही,  बल्कि उन्हें एक और कर्ज के जाल में फंसाने की रणनीति है. कर्ज का मकड़जाल किसानों की सब से बड़ी समस्या है.

किसानों की असली समस्या का हल ‘कर्ज’ नहीं, बल्कि उन की उपज का वाजिब दाम न मिलना है. अगर किसान को उस की फसल का सही दाम मिले, तो उसे बारबार कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. कर्ज पर ध्यान देने के बजाय सरकार को यह देखना चाहिए कि:
– किसानों को उन की उपज का लाभकारी मूल्य मिले.
– सभी फसलों पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) सुनिश्चित किया जाए.
– खेत में उत्पादन के उपरांत भी फसल का एक बड़ा हिस्सा 25 से 30 फीसदी तक समुचित भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, विपणन की कमी और अन्य विभिन्न कारणों से नष्ट हो जाता है, यह राष्ट्रीय क्षति है. इन पोस्ट हार्वेस्ट हानि को नियंत्रित किया जाए.
– कृषि उत्पादों के लिए कृषकोन्मुखी प्रभावी बाजार व्यवस्था विकसित की जाए.

हम आखिर कब समझेंगे कि ब्याज मुक्त लोन देना सिर्फ तात्कालिक राहत है, लेकिन यह किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इस से किसान लगातार कर्ज के जाल में फंसते जाते हैं और उन की वित्तीय स्वतंत्रता कभी नहीं आती. समस्या कर्ज की नहीं, बल्कि आय बढ़ाने की है और इस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

बस्तर से हर घंटे खनिज की अनवरत लूट, लेकिन बस्तर को कुछ नहीं?

बस्तर सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए खनिजों का सब से बड़ा भंडार है. यहां से रोजाना 24 ट्रेन भर कर सिर्फ लौह अयस्क निकाला जाता है, जो भारत के कई प्रमुख इस्पात संयंत्रों और उद्योगों के लिए जीवनरेखा है. इस के अलावा बौक्साइट, टिन, सोना, मैग्नीज, कोयला और कई अन्य कीमती खनिज भी यहां से निकाले जाते हैं.

लेकिन क्या बस्तर को इन खनिजों से होने वाली कमाई का उचित हिस्सा मिलता है? अगर सिर्फ लौह अयस्क की रौयल्टी का पूरा हिस्सा बस्तर के लोगों को मिल जाए, तो वे अरब के शेखों की तरह और भी अमीर हो सकते हैं. लेकिन सचाई यह है कि खनिजों की लूट हो रही है और इस का लाभ बस्तर को नहीं मिलता है.

बस्तर के विकास के लिए जो थोड़ीबहुत राशि चिड़िया के चुग्गे की तरह ‘डीएमएफ’ के नाम पर मिलती भी है, तो वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है. यह पैसा कलक्टरों और नेताओं की पौकेटमनी की तरह खर्च होता है और आम जनता तक कुछ नहीं पहुंचता. यह घोर अन्याय है और वर्तमान वित्त मंत्री इस कड़वी सचाई से अच्छी तरह परिचित हैं, क्योंकि वे खुद बस्तर के कलक्टर रह चुके हैं.

बस्तर की अकूत वन संपदा, वनोपज का दोहन, पर बदले में सिर्फ ठेंगा

बस्तर संभाग में लगभग 70 फीसदी क्षेत्र वनों से आच्छादित माना जाता है. सरकारें यहां की बहुमूल्य लकड़ी और तरहतरह के वनोपजों का लगातार दोहन करती रही हैं. कहा जाता है कि वन विभाग के ठीकठाक रेंज के रेंजर साहब की आमदनी जिले के कलक्टर से भी ज्यादा होती है या थी (डीएमएफ फंड के प्रावधान के पूर्व). और यह विभागीय बंदरबांट तो मात्र खुरचन की है, असल मलाई तो सरकार के खाते में जाती है. किंतु इस के बदले में बस्तर को क्या मिलता है, यह भी अपनेआप में सोचने का विषय है.

बस्तर में पर्यटन और रोजगार के अपार अवसरों की अनदेखी

बस्तर पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाओं वाला क्षेत्र है, लेकिन बजट में इकोटूरिज्म और फार्मटूरिज्म के लिए सिर्फ 10 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. इतने कम बजट में कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन ढांचा विकसित नहीं किया जा सकता.

हवाई कनैक्टिविटी का संकट : बस्तर से रायपुर के लिए साल 1991 में हवाई सेवा शुरू हुई थी. सरकारों द्वारा बस्तर की अनदेखी के कारण यह कभी नियमित नहीं चल पाई. ‌इस सरकारी उदासीनता और पक्षपात के कारण पिछले 4-5 महीनों से यह सेवा एक बार फिर से बंद पड़ी है.

यह हास्यास्पद है कि जहां देशविदेश में नए एयरपोर्ट बन रहे हैं, वहीं बस्तर संभाग जो कि विश्व के कई देशों से क्षेत्रफल में ज्यादा बड़ा है, इसे प्रदेश की राजधानी रायपुर से जोड़ने वाली एकमात्र हवाई सेवा भी बंद कर दी गई है. अगर यह घोर पक्षपात और अपेक्षा नहीं है तो और क्या है?

अन्य राज्य अपने दुर्गम क्षेत्रों को हवाई सेवा से जोड़ने के लिए शुरुआती फ्लाइट्स में घाटा होने पर कैपिंग के आधार पर हवाई कंपनियों को जरूरी अनुदान दे कर भी नियमित हवाई सेवाएं चलवा रहे हैं, तो बस्तर के लिए यह व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती थी?

दरअसल, राजनीतिक इच्छाशक्ति और विजन का घोर संकट है और बस्तर में यह संकट सब से ज्यादा है. सड़क मार्ग से बस्तर के कोंटा से रायपुर तक की यात्रा आज भी कम से कम 12 घंटे की होती है, जो बाहर इलाज के लिए जाने वाले मरीजों, उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने वाले छात्रों और बस्तर में नए उद्यम लगाने में रुचि लेने वाले उद्यमियों के लिए बेहद कष्टदायक है. इन के लिए हवाई सेवा एक लग्जरी या विलासिता नहीं, बल्कि अनिवार्य आवश्यकता है.

आदिवासियों के लिए घोषणाएं, हकीकत में कितनी कारगर?

सरकार ने तेंदूपत्ता संग्राहकों को 5,500 रुपए प्रति बोरा भुगतान की घोषणा की है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि क्या यह राशि वास्तविक संग्राहकों तक पहुंचेगी?

पहले भी ऐसे दावे किए गए थे, लेकिन पैसा बिचौलियों के हाथों में चला जाता था.

‘चरण पादुका योजना’ के लिए 50 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, लेकिन यह सिर्फ एक सांकेतिक योजना बन कर रह जाती है.

हालांकि, ‘भूमिहीन कृषि मजदूर कल्याण योजना’ के तहत 5.65 लाख मजदूरों को सालाना 10,000 रुपए की आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है, जो एक अच्छा कदम कहा जा सकता है. यदि यह राशि सीधे मजदूरों के खातों में पारदर्शी तरीके से पहुंचती है, तो इस से काफी राहत मिलेगी.

कृषि व वनोपज आधारित उद्योगों के लिए कोई ठोस नीति और क्रियान्वयन का रोड मैप नहीं

छत्तीसगढ़ में खाद्य प्रसंस्करण और कृषि व वनोपजों पर आधारित उद्योगों की अपार संभावनाएं हैं. लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस व्यावहारिक नीति नहीं है.

डेयरी समग्र विकास परियोजना के लिए मात्र 50 करोड़ रुपए रखे गए हैं, जो ऊंट के मुंह में जीरा है. मत्स्यपालन, पोल्ट्री, बकरीपालन के लिए मात्र 200 करोड़ रुपए का प्रावधान है, जब कि ये क्षेत्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था को काफी मजबूत कर सकते हैं.

यह भी उल्लेखनीय है कि बस्तर में काजू, कौफी और मसालों की खेती के अलावा जड़ीबूटियों की खेती और प्रसंस्करण की जबरदस्त संभावनाएं हैं, लेकिन इस बजट में इन के लिए कोई विशेष प्रोत्साहन नहीं दिया गया. यदि सरकार इस क्षेत्र में ठोस नीतियां बनाती, तो बस्तर का आर्थिक परिदृश्य बदल सकता था.

अंत में यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान वित्त मंत्री ओपी चौधरी पूर्व में बस्तर के संवेदनशील लोकप्रिय कलक्टर रह चुके हैं. उन्हें इस क्षेत्र की चुनौतियों की गहरी समझ थी और उम्मीद थी कि उन के वित्त मंत्री के कार्यकाल में बस्तर को अधिक प्राथमिकता मिलेगी. लेकिन चाहे वजह जो भी हो, पर हुआ एकदम उलटा. मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री ने अपनेअपने क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान दिया, जब कि बस्तर के लिए बहुत कम ध्यान दिया गया. गजब है कि हमारी लगभग सभी समस्याओं की जड़ में राजनीति है और सभी समस्याओं का समाधान भी राजनीति में ही निहित है. इस राजनीति की माया भी अजब है, जहां राजनीति के हमाम में उतरते ही सब नंगे हो जाते हैं.

(लेखक ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ और राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ ‘आईफा’)

खेती में पशुपालन फायदेमंद, गौ संरक्षण भी जरूरी

उदयपुर : रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन की सेहत और पौलीथिन व अन्य डिस्पोजेबल के इस्तेमाल से गायों की सेहत इतनी बिगड़ चुकी है कि वह एक दिन स्वच्छ दूध देना भी बंद कर देंगी. ये बात स्कूल शिक्षा एवं पंचायती राज मंत्री मदन दिलावर ने कही.

मंत्री मदन दिलावर राजस्थान कृषि महाविद्यालय के नूतन सभागार में ’कृषि दक्षता और पशु कल्याण को सुदृढ़ बनाने की दिशा में सटीक पशुधन प्रबंधन तकनीक’ विषयक तीनदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे.

सम्मेलन में देशभर के 29 प्रांतों के लगभग 400 वैज्ञानिक, पशुधन के जानकार व किसानों ने भाग लिया. उन्होंने गिर, साहीवाल, थारपारकर गायों का जिक्र करते हुए कहा कि जिन का कंधा ऊंचा हो, सही मायने में उन्हीं गायों का दूध लाभप्रद है.

उन्होंने विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि वे इस रणनीति पर काम करें कि हमारी पारंपरिक देसी गायों का संरक्षण किया जा सके. पुराने समय से हमारे पूर्वजों ने खेती करना शुरू किया होगा तो कितने संकट आए होंगे. खुदाई कर मिट्टी तैयार करना, खेत का आकार देना. तब खेती में बैलों का ही इस्तेमाल होता था. हल के माध्यम से खेतीकिसानी का काम होता था. आज के तकनीकी दौर में मशीनीकरण का बोलबाला है. हमें बैलों की महत्ता को भी नहीं भूलना चाहिए.

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बताया कि उन के दो वर्ष तीन माह के कार्यकाल में एमपीयूएटी ने 44 पेटेंट हासिल किए. इस तरह कुल 55 पेटेंट विश्वविद्यालय के नाम हैं.

उन्होंने विश्वविद्यालय के पशुधन वैज्ञानिकों आह्वान किया कि मंत्री मदन दिलावर की मंशा के अनुसार अपनी गायों की ब्रीड को संरक्षित करने की दिशा में सारगर्भित शोध करने की जरूरत है. देश को ऐसी कृषि प्रणाली की जरूरत है, जो न केवल पशु हितैषी हो, बल्कि वातावरण और पर्यावरण को बचाने वाली भी हो. 21वीं पशुगणना के परिणाम भी इस में मददगार साबित होंगे.

विशिष्ट अतिथि अमूल आणंद (गुजरात) के महाप्रबंधक डा. अमित व्यास ने कहा कि विश्व में 240 मीट्रिक टन दूध उत्पादन में हमारे देश की भागीदारी 23 फीसदी है. देश में सर्वाधिक दूध उत्पादन में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान राजस्थान का है.

डा. अमित व्यास ने कहा कि गाय का दूध कैसे बढ़े और खर्च कम कैसे हो. इस पर अमूल बड़े पैमाने पर काम कर रहा है और सफलता भी मिली है. अमूल प्रतिष्ठान में 400 पशु चिकित्सकों की टीम में नित्य गायों की देखभाल में लगी है और लक्षण दिखाई देते ही इलाज आरंभ कर दिया जाता है. खास बात यह है कि आयुर्वेदिक व होमियोपैथिक दवाओं से गायों का इलाज किया जा रहा है. ऐसी तकनीक किसानों तक भी पहुंचनी चाहिए. साथ ही, अमूल बायोगैस, गायों की खुराक, कृत्रिम गर्माधान, ड्रोन तकनीक पर भी लगातार काम कर रहा है.

कार्यक्रम में राज्यसभा चुन्नी लाल गरासिया, एमबीएस विश्वविद्यालय जोधपुर के कुलपति डा. अजय शर्मा, भारतीय पशु उत्पादन एवं प्रबंधन सोसायटी सरदार कृषि नगर दांतीवाड़ा (गुजरात) के अध्यक्ष डा. एपी चौधरी ने भी संबोधित किया.

आयोजन सचिव सिद्धार्थ मिश्रा ने बताया कि राजस्थान कृषि महाविद्यालय के पशु उत्पादन विभाग और भारतीय पशु उत्पादन एवं प्रबंधन सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित तीनदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में कुल 7 तकनीकी सत्रों में वैज्ञानिकों ने उपरोक्त विषय पर गहन मंथन किया. आरंभ में सम्मेलन समन्वयक डा. जेएल चौधरी ने स्वागत भाषण दिया. संचालन डा. गायत्री तिवारी ने किया.

लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड व सम्मान

समारोह में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड तमिलनाडु के डा. त्यागराज शिवकुमार को दिया गया, जबकि पशु उत्पादन के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने पर डा. बालूस्वामी (तमिलनाडु), डा. बीएस खद्दा (मोहली), डा. बी. सतीशचंद्र (कर्नाटक), डा. बी. रमेश (तमिलनाडु) को शील्ड व सम्मानपत्र दे कर सम्मानित किया गया. साथ ही, इफको के प्रबंधक सुधीर मान व शिक्षा मंत्री के विशेषाधिकारी डा. सुनील दाधीच को भी स्मृति चिन्ह दे कर सम्मानित किया गया.

गाय का दूध पिलाओ – बच्चा चंचल व तेज दिमाग का होगा
‘पाडा तो पाडा ही रहेगा’

शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने कहा कि गाय का दूध पीने वाला बच्चा सदैव चंचल, तेज दिमाग वाला होता है, जबकि भैंस का दूध पीने वाला बच्चा ऊंगणिया (आलसी) होता है. गाय के बछड़े को छोड़ते ही वह उछलताकूदता सीधे अपनी मां के पास पंहुच जाता है.

उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि गाय का बछड़ा थोड़ा बड़ा होने पर केरड़ा, नारकिया और अंत में बैल बनता है, जबकि भैंस का बच्चा जन्म से अंत तक पाडा ही रहता है.

कृषि दक्षता व पशु कल्याण विषयक राष्ट्रीय सम्मेलन में मंत्री मदन दिलावर ने स्पष्ट किया कि हर पशु का अपना महत्व है. यदि चेतक घोड़ा नहीं होता तो महाराणा प्रताप का नाम इतना आगे नहीं होता.

उन्होंने आगे कहा कि ऊंट को राज्य पशु का दर्जा दिया गया है. यह प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है. वैज्ञानिकों को इसे बचाने के उपाय ईजाद करने होंगे. सीमा सुरक्षा मामले में भी ऊंट की अपनी अहमियत है. ‘रेगिस्तान के जहाज’ के नाम से परिचित ऊंट बीएसएफ के लिए वरदान है, जो बिना पानी पीए 8-10 दिन निकाल लेता है. लेकिन गाय की अपनी विशेष महत्ता है. गाय का गोबर व मूत्र से कई बीमारियां स्वतः भाग जाती हैं. कोई भी पवित्र कार्य करने से पूर्व गोबर से लिपाई का चलन है, ताकि शुद्धता बरकरार रहे.

उन्होंने यह भी कहा कि राजस्थान में कितना भी संकट आए, यहां का किसान आत्महत्या नहीं करता है. अकेली गाय ही अपने दूध से किसान का पेट भर सकती है. हमें दूध, पनीर, मिठाई, चाय तो भाती है, लेकिन गाय नहीं सुहाती. इसलिए हम ने उसे निकाल दिया और वह सड़कों पर, खेतों में या फिर बूचड़खाने ही उन के लिए बचे हैं.