विज्ञान शुक्ला : आधुनिक तकनीक व नवाचार से खेती कर बनाई पहचान

दिल्‍ली प्रैस की कृषि पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ द्वारा लखनऊ में आयोजित  कृषि सम्‍मान अवार्ड 2024 में विज्ञान शुक्ला ‘बैस्‍ट फार्मर अवार्ड इन आर्गेनिक फार्मिंग’ से सम्मानित किए गए. उत्‍तरप्रदेश के बांदा जिले के विज्ञान शुक्ला आधुनिक तकनीक व नवाचार से खेती कर अपनी एक खास पहचान बना चुके हैं.

प्राकृतिक तरीके से बागबानी 

विज्ञान शुक्ला 400 एकड़ भूमि पर प्राकृतिक तरीके से अनेक फसलों का उत्पादन कर रहे हैं, जिन्हें दोगुना से अधिक दाम पर अपनी उपज बेच रहे हैं. वैदिक और्गेनिक फार्म के जरीए वे अनेक लोगों को रोजगार भी मुहैया करा रहे हैं. आप के द्वारा 150 एकड़ जमीन पर बागबानी भी की जा रही है. विज्ञान शुक्ला फलदार पेड़ों से अच्छाखासा मुनाफा ले रहे हैं.

खेतीबारी के साथसाथ वे पशुपालन भी

विज्ञान शुक्ला खेतीबारी के साथसाथ पशुपालन भी कर रहे हैं और उन  के पास 500 से अधिक साहीवाल गिरी, थारपारकर नस्ल की गाएं हैं, जिन के दूध से घी बना कर आप 3,000 रुपए से 3,500 रुपए प्रति लिटर तक लखनऊ, दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों तक अनेक संस्थाओं को बेच रहे हैं.

विज्ञान शुक्ला (Vigyan Shukla)

कई पुरस्कारों से सम्मानित 

विज्ञान शुक्ला का वैदिक फार्म बुंदेलखंड का मौडल बन चुका है, जहां अनेक अधिकारियों और किसानों का आना लगा रहता है. किसान उन के यहां से फार्म की गतिविधियों को जान कर अपने कृषि कार्यों को कर रहे हैं, जिस से उन की आमदनी बढ़ रही है. खेती में अपनाई जा रही आधुनिक तकनीकी से उन की पहले से कहीं अधिक आमदनी बढ़ गई है. इस नवाचार के लिए भारत सरकार द्वारा ‘जगजीवन राम अभिनव पुरस्कार’ से उन्हें सम्मानित किया जा चुका है. विज्ञान शुक्ला को प्रदेश द्वारा भी, मंडल द्वारा भी और जनपद द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है.

श्रीधर पांडेय: एक सामान्य युवक की असाधारण यात्रा

उत्‍तरप्रदेश के श्रीधर पांडेय दिल्‍ली प्रैस की कृषि पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ द्वारा आयोजित कृषि सम्‍मान अवार्ड 2024 में ‘बैस्‍ट फार्मर अवार्ड इन हार्वैस्टिंग ऐंड प्रोसैसिंग’ से सम्मानित किए गए.

सिद्धार्थ नगर जनपद के एक छोटे से गांव तेतरी बुजुर्ग में एक सामान्य किसान परिवार में जनमे श्रीधर पांडेय ने अपने सपनों को पूरा करने के लिए कठिन संघर्ष किया. बचपन से ही उन्होंने पढ़ाई के साथसाथ छोटेछोटे व्यवसाय भी किए, जिस में वाहनों का टायर पंचर बनाना भी शामिल था.

श्रीधर पांडेय का लक्ष्य एक कुशल चिकित्सक बनना था, लेकिन आरक्षण, प्रतिस्पर्धा और आर्थिक संकट के कारण उन्हें अपना रास्ता बदलना पड़ा. इस के बावजूद, उन्होंने हार नहीं मानी और विज्ञान वर्ग से स्नातक की परीक्षा पास की.

पिता और परिवार की इच्छा थी कि वे एक कुशल उद्यमी बनें, लेकिन श्रीधर की इच्छा थी कि सरकारी सेवा के माध्यम से एक कुशल जनसेवक बनना. इस दिशा में उन्होंने गौतम बुद्ध जागृति समिति नामक एक सामाजिक संस्था की स्थापना की, जिस का उद्देश्य गरीब, वंचित और पीड़ित वर्ग का आर्थिक और सामाजिक उत्थान करना था.

 Shridhar Pandey

उन्होंने कृषि को प्रमुखता से लिया और आपदा जोखिम मुक्त कृषि को बढ़ावा दिया, जिस से हजारों किसानों को अपने फसल चक्र को बदलते हुए आय में वृद्धि करने में मदद मिली. उन्होंने किसानों को बिचौलियों से मुक्त करने के लिए एक किसान उत्पादक कंपनी का गठन किया.

25 वर्षों तक भारत सरकार और राज्य सरकार से पैरवी करने के बाद उन्हें सिद्धार्थ नगर जनपद के विश्व विरासत कालानमक धान को पहचान दिलाने में सफलता मिली.

आज श्रीधर पांडेय को सैकड़ों पुरस्कारों के साथ उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा 3 बार पुरस्कार दिया गया है.

अपनी अच्छी सेहत को  दें लिफ्ट वर्टिकल गार्डनिंग (Vertical Gardening) के साथ

कहते हैं कि स्वच्छ वातावरण, साफ हवा और खुश मन, ये तीनों ही जरूरी होते हैं एक स्वस्थ शरीर के लिए, लेकिन, आज बड़ेबड़े शहरों में छोटेछोटे फ्लैट्स में रहने का चलन तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है. और शायद यही एक वजह है, जिस के चलते आज हम शुद्ध वातावरण और साफ हवा से कहीं दूर होते जा रहे हैं, जो सीधा हमारी सेहत पर असर डाल रहे हैं. ऐसे में वर्टिकल गार्डनिंग का चलन तेजी से देखा जा सकता है.

तो क्या है यह वर्टिकल गार्डनिंग का कौंसेप्ट, बता रहे हैं यहां :

क्या है वर्टिकल गार्डनिंग?

यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिस के द्वारा आप फ्लैट्स के अंदर कम जगह में ही अपनी सेहत के लिए जरूरी पौधों और फूलों को दीवार या जमीन पर एक सपोर्ट देते हुए पंक्तिबद्ध तरीके से लगवा सकती हैं.

इन पौधों और फूलों की सहायता से आप अपने घर के अंदर और आसपास के वातावरण में मौजूद कार्बनडाईऔक्साइड जैसे हानिकारक तत्त्वों को दूर कर खुद और अपने परिवार के सदस्यों को स्वच्छ हवा देने के साथसाथ अपने इंटीरियर को भी दे सकती हैं एक नया और स्टाइलिश लुक.

कैसे काम करता है वर्टिकल गार्डनिंग का ढांचा?

आप के फ्लैट्स के अनुसार वर्टिकल गार्डन के लिए मैटल के स्टैंडनुमा ढांचे बाजार में अब हर साइज और शेप में उपलब्ध हैं. इन के अंदर छोटेछोटे गमलों को एक कतार में उन की साइज और शेप के अनुसार उचित दूरी पर स्टैपल कर के रखा जाता है.

इस के बाद पौधों में आवश्यक मिट्टी और खाद इत्यादि मिलाने के बाद उन्हें पानी देने के लिए इस पूरे स्ट्रक्चर में पाइप का एक पैटर्न बनाया जाता है. इस में एक ही साइज के कई छेद होते हैं, जिन के द्वारा सभी पौधों या फूलों को सही और उपयुक्त मात्रा में पानी दिया जाता है.

घर में रहेगा खुशी का माहौल

स्वस्थ रहने के लिए खुश रहना जरूरी होता है. कहा भी गया है कि हरियाली है जहां, खुशहाली है वहां. पेड़पौधों में से निकलने वाली औक्सीजन आप के मूड को अच्छा रखने में काफी कारगर होती है. इस के

चलते सभी प्रकार की चिंताओं और समस्याओं को भूल कर मन अपनेआप ही खुश हो उठता है.

तो, क्यों ना आप भी वर्टिकल गार्डन के द्वारा अपने परिवार के सदस्यों को दें एक स्ट्रैस फ्री और हैल्दी वातावरण.

बोल उठेंगी पुरानी दीवारें

इस के द्वारा आप अपने घर की दीवारों को भी दे सकते हैं एक नया और स्टाइलिश लुक. यों तो अमूमन लोग अपने घर की दीवारों पर नया पेंट करवाते हैं, लेकिन आप अपने घर की पुरानी दीवारों पर वर्टिकल गार्डनिंग के कौंसेप्ट से नई जान डाल सकते हैं.

इस के लिए आप फर्न्स और मौस के पौधों को एक वुडन फ्रेम में लगा सकते हैं. इसे थोड़ा सा स्टाइलिश बनाने के लिए वुडन फ्रेम को डायनिंग या लिविंग रूम की दीवार पर एक पेंटिंग की तरह टांग सकते हैं. इस से आप की पुरानी दीवारों को एक नया और क्रिएटिव लुक मिल जाएगा.

पौधों के चयन का रखें खास खयाल

एक सही और अच्छे वर्टिकल गार्डन के लिए जगह के अनुसार पौधों का चयन बहुत महत्त्वपूर्ण होता है. इन पौधों के चयन में उस जगह के लोकल क्लाइमेट जैसे- न्यूनतम तापमान, सूरज की किरणों की दिशा और अवधि, हवा की रफ्तार और रुख इत्यादि एक अहम भूमिका निभाते हैं.

अपने वर्टिकल गार्डन के लिए पौधों का चयन करते समय निम्न बिंदुओं का खास खयाल रखें :

* एक परफैक्ट वर्टिकल गार्डन के लिए ज्यादातर लताओं वाले, ऊपर की ओर बढ़ने वाले और गूदेदार पौधों का ही चयन किया जाता है.

* चयनित पौधे सूखे, छाया और धूप तीनों ही अवस्था में खिलने वाले हों.

* अच्छी बढ़वार वाले पौधे या फूलों का चयन करें.

* पौधे कम लंबाई वाले हों.

कितनी डैंसिटी होनी चाहिए पौधों की?

ध्यान रखें कि पौधों की डैंसिटी 30 पौधे प्रति स्क्वायर मीटर होनी चाहिए. साथ ही, आप के इस वर्टिकल गार्डन के पौधों और फ्रेम इत्यादि को मिला कर कुल वजन 30 किलोग्राम/मीटर2 होना चाहिए.

घर के अंदर लगाए जाने वाले पौधे

अगर आप अपने घर के अंदर डायनिंग रूम या लिविंग रूम की दीवारों पर वर्टिकल गार्डन बनवाना चाहते हैं, तो आप फिलोडेन्ड्रान और एपीप्रेम्नम या गेस्नेरियाड्स के पौधे जैसे : एकाइनेन्थस, कालमिया और सेंटपौलिया के पौधों के अलावा पेपेरोमिया और बेगानिया या नेफ्रोलेपिस और टेरिस जैसे विभिन्न प्रकार के फर्न्स भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

साथ ही, क्लोरोफाइटम के पौधे घर के वातावरण में मौजूद नुकसानदेह कार्बनमोनोऔक्साइड, फार्माल्डीहाइड और जाइलिन जैसे हानिकारक प्रदूषित तत्त्वों को दूर कर के स्वच्छ हवा के साथसाथ सेहत के लिए जरूरी पोषक तत्त्व भी मुहैया कराते हैं.

लाइट और पानी का रखें खास खयाल

वर्टिकल गार्डन में लगने वाले पौधों और फूलों की अच्छी सेहत के लिए सही मात्रा में सूरज की किरणें और पानी आवश्यक होते हैं, इसीलिए यह सुनिश्चित करें कि उन्हें ऐसी जगह पर लगाएं, जहां सूरज की किरणें सही तरीके से आती हों. साथ ही, एक ही प्रकार के पौधों को एक ही स्थान पर लगाएं, ताकि उन्हें उपयुक्त मात्रा में पानी एकसाथ मिल जाए.

आटोमैटिक सिंचाई का विकल्प है बैस्ट

अपने वर्टिकल गार्डन में लगे पौधों को पानी देने के लिए हार्डवर्क न कर स्मार्टवर्क कर के लगा सकती हैं थोड़ा युनीक स्टाइल का तड़का. जहां एक ओर पौधों को पानी देने के लिए और लोग हाथ से चलाने वाले स्प्रेयर का इस्तेमाल करते हैं, वहीं आप आटोमैटिक आपरेटेड वर्टिकल गार्डनिंग का ढांचा लगवा सकती हैं.

आटोमैटिक ढांचे के अंदर पाइप के एक पैटर्न को पानी की टंकी के साथ जोड़ कर पूरे ढांचे में लगे पौधों और फूलों को एकसाथ बराबर और पर्याप्त मात्रा में पानी पहुंचाने की व्यवस्था की जाती है और वह भी कुछ ही मिनटों में.

इस तरह की व्यवस्था से आप पौधों और फूलों को कम समय में पानी देने के साथसाथ उन की अच्छी सेहत और लंबी आयु सुनिश्चित कर सकते हैं.

दे सकती हैं अपनी कलात्मक सोच को उड़ान

किसी भी वर्टिकल गार्डन के लिए यह जरूरी नहीं है कि आप पौधे या फूल सिर्फ गमलों में ही लगाएं. इस के लिए आप अपने घर में बेकार पड़े हुए पुराने प्लास्टिक के डब्बे, कौफी मग, जार, बोतल इत्यादि में भी पौधों और फूलों को लगा कर एक नया स्टाइलिश लुक दे सकते हैं.

पौधों की सेहत के लिए कुछ जरूरी बातें

* इंडोर प्लांट्स को ज्यादा एयरकंडीशनर वाले कमरे में रखने से बचाएं. ऐसे कमरों में पौधों को ज्यादा लंबे समय तक रखने से उन की नमी सूख जाती है. इस वजह से पौधों को सही तरह से बढ़ने में परेशानी होती है.

* खाद और सही मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल जरूरी है. इस से पौधों में लगने वाले विभिन्न प्रकार के कीट और कीटाणुओं को नियंत्रण करने में मदद मिलेगी.

* पौधों की अच्छी सेहत के लिए गमलों में मिट्टी, कोकोपीट इत्यादि जैसी जरूरी चीजें डालें. इस से पौधों को उन की अच्छी सेहत के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व मिल सकेंगे.

* नियमित रूप से पौधों की लंबाई को नियंत्रित करें. ऐसा करने से पौधों की लंबी उम्र को सुनिश्चित किया जा सकता है.

* पौधों और फूलों की किस्म के अनुसार उचित मिट्टी का चयन जरूरी है .

चने की उन्नत खेती

भारत में पैदा की जाने वाली दलहनी फसलों में चने की खेती का खास स्थान है. देश में चने की पैदावार दुनिया की कुल पैदावार की 70 फीसदी तक होती है. चने की खेती किसानों के लिए काफी फायदेमंद मानी जाती है.

चने का इस्तेमाल न केवल दाल के रूप में किया जाता है, बल्कि इस के बेसन से कई तरह के स्वादिष्ठ पकवान व मिठाइयां भी तैयार की जाती हैं. गरीब से ले कर अमीर परिवारों में कई लोगों के नाश्ते में अंकुरित चने की खास जगह है. ताकतवर खाद्य वस्तुओं में चने का खास स्थान है, क्योंकि इस में 21 फीसदी प्रोटीन, 61 फीसदी कार्बोहाइडे्रट व साढ़े 4 फीसदी वसा पाए जाते हैं.

सदियों से चना न केवल इनसानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि पशुओं के चारे व दाने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में बाजार में चने की मांग हमेशा बनी रहती है, जिस की वजह से किसानों को चने का सही बाजार मूल्य मिल जाता है. किसान अगर अच्छी कृषि तकनीकी व उन्नतशील प्रजातियों के बीजों का इस्तेमाल कर चने की खेती करें, तो उन्हें कम जोखिम व कम लागत में भरपूर फायदा मिल सकता है.

जमीन की तैयारी व बोआई का समय : चने की खेती के लिए दोमट व हलकी दोमट मिट्टी मुफीद रहती है. जमीन का चुनाव करते समय इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि खेत से पानी निकासी का सही इंतजाम हो और मिट्टी ज्यादा लवणीय न हो.

चने की बोआई के लिए सब से अच्छा समय अक्तूबर के दूसरे हफ्ते से ले कर 15 नवंबर तक होता है. चने की बोआई से पहले यह देख लें कि खेत की सतह सख्त न हो और अंकुरण के लिए सही मात्रा में नमी मौजूद हो. चने की बोआई से पहले एक गहरी जुताई कल्टीवेटर या हैरो से करें व पाटा लगा दें. इस के बाद सही नमी में जुताई कर के चने की बोआई करें.

उन्नतशील किस्मों का चयन : चने की कई उम्दा प्रजातियों का इस्तेमाल मौजूदा दौर में किया जा रहा है. लेकिन कुछ खास किस्में जिन में बीमारियां कम लगती हैं, का इस्तेमाल कर के किसान कम कीमत में अच्छी पैदावार कर सकते हैं. चने की उकठारोधी प्रजातियों में जेजी 16, के 850, डीसीपी 92, आधार आरएससी 936, डब्ल्यूसीजी 2 व केसीडी 1168 खास हैं. अन्य बीमारी अवरोधी प्रजातियों में पूसा 256, अवरोधी गुजरात चना, राधे, पूसा 372, डब्ल्यूसीजी 1 व डब्ल्यूसीजी 2 खास हैं. देरी से बोआई की जाने वाली प्रजातियों में 372, पंत जी 186 व उदय खास हैं. काबुली चने की प्रजातियों में एचके 94, शुभ्रा, उज्ज्वल, जेजीके 1, पूसा, शुभ्रा 8128 व फूले जी 0517 खास हैं. चने की इन किस्मों की बोआई के लिए 1 एकड़ खेत के लिए 35-40 किलोग्राम या 1 हेक्टेयर खेत के लिए 75-100 किलोग्राम बीज की जरूरत रहती है.

बीजोपचार या बीजशोधन : आमतौर पर सभी दलहनी फसलों का बीजोपचार करना जरूरी होता है. दलहनी फसलों में राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार किए जाने से पौधों की जड़ों में अधिक गाठें होती हैं.

नाइट्रोजन के स्थिरीकरण व फास्फोरस की मौजूदगी बढ़ाने के लिए अलगअलग राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल किया जाता है. चने की 10 किलोग्राम मात्रा पर 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल बीजोपचार के लिए किया जाता है. बीजोपचार के लिए चने की 10 किलोग्राम मात्रा को बाल्टी में ले कर उस में 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर को डाल कर अच्छी तरह से मिला लेते हैं. इस के बाद उपचारित बीजों को छाया में सुखाया जाता है. कभी भी उपचारित बीजों को धूप में न सुखाएं.

चने की फसल को बीजजनित रोगों से बचाने के लिए 2 ग्राम थीरम या 3 ग्राम मैंकोजेब या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा या 2 ग्राम थीरम के साथ 1 ग्राम कारबेंडाजिल की मात्रा को प्रति किलोग्राम की दर से बीजों में मिला कर बीज प्रोसेसिंग करना चाहिए. इस से चने की फसल को उकठा व जड़ गलन की बीमारी से बचाया जा सकता है.

खाद व उर्वरक : वैसे तो चने की खेती के लिए ज्यादा खाद व उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन चने की अधिक पैदावार लेने के लिए सही व संतुलित मात्रा में पोषक तत्त्वों की आपूर्ति करना भी जरूरी हो जाता है. चने की सभी किस्मों के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम गंधक का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय लाइन में करना चाहिए. चने में प्रोटीन काफी होता है, इसलिए मिट्टी से नाइट्रोजन का हृस होता है, जिस की भरपाई चने के पौधों में स्थित राइजोवियम गांठों से हो जाती है.

सिंचाई : चने की पहली सिंचाई बोआई के 45 से 60 दिनों बाद यानी फसल में फूल आने से पहले करनी चाहिए, जबकि दूसरी सिंचाई फली में दाना बनने के समय करनी सही रहती है. चने की फसल में जब फूल लगते हैं उस दौरान सिंचाई नहीं करनी चाहिए, ऐसा करने से चने की फसल में आने वाली फलियां झड़ जाती हैं व खरपतवार की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

चने की सिंचाई करते समय ध्यान रखें कि फसल में ज्यादा पानी न लगने पाए, क्योंकि चने की जड़ों में मौजूद राइजोबियम जीवाणुओं की क्रियाशीलता आक्सीजन के अभाव में ढीली पड़ जाती है.

इस का असर पौधों पर साफ दिखता है, इस से पौधे पीले पड़ जाते हैं और उन में फलियां व दाने कम बनने से पैदावार खुद ही घट जाती है. चने की फसल में उकठा रोग गहरी सिंचाई से ही लगता है. इसलिए जल निकासी जरूरी है.

Gram Cultivation

खरपतपवार रोकथाम : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया में जानकार राघवेंद्र विक्रम सिंह का मानना है कि चने की खेती में खरपतवार से न केवल पैदावार घटने की आशंका रहती है, बल्कि इस की विशेषता में भी कमी आ जाती है. चने की फसल में खरपतवार उगने से पैदावार में 50 से 60 फीसदी तक की कमी आती है. यदि समय रहते चने की फसल से खरपतवार को खत्म किया जाए तो पैदावार में 22 से 63 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी. चने की बोआई के 3 दिन के अंदर एलाक्लोर 3 से 4 लीटर या पैंडामेथालीन ढाई से 3 लीटर या मेंटोलाक्लोर 1 से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में छिड़कना चाहिए. इन रसायनों के इस्तेमाल से चौड़ी व सकरी पत्ती के खरपतवार खत्म हो जाते हैं.

बीमारियों की रोकथाम : चने की फसल में आमतौर पर उकठा, मूल विगलन, ग्रीवा गलन, तना गलन, एस्कोकाब्लाइट रोग अधिकतर देखा गया है. यदि बोआई से पहले बीज साफ किया गया है तो इन बीमारियों का असर पौधों पर नहीं होता है. अगर फसल में उकठा रोग दिखाई पड़े तो रोगी पौधों को अलग कर खत्म कर देना चाहिए, जिस से फसल में उकठा के फैलने की आशंका कम हो जाती है. फसल को उकठा रोग से बचाने के लिए उकठारोधी किस्मों का इस्तेमाल करना चाहिए. इस की रोकथाम के लिए कापर आक्सीक्लोराइड की ढाई ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बना कर 2 से 3 बार छिड़काव करना चाहिए.

Gram Cultivation

चने के खास कीट व उन की रोकथाम : चने में आमतौर पर कटुआ कीट का ज्यादा आक्रमण होता है, जो ढाई सेंटीमीटर लंबा मटमैले भूरे रंग का पतंगा जैसा होता है. यह कीट रात को पौधों को जड़ से काट कर जमीन पर गिरा देता है. इस के अलावा फलीबेधक कीट जिसे प्रौढ़ पतंगा भी कहते हैं, ये शुरू में मुलायम पत्तियों को खाते हैं और फिर फलियों में दानों में छेद कर उन्हें खा जाते हैं. फलीबेधक कीट की एक सूड़ी 30-40 फलियों को प्रभावित करती है.

कूबड़ कीड़ा : चने की फसल को कूबड़ कीड़े से भी ज्यादा नुकसान होता है. ये कीड़े फसल की पत्तियों, कलियों व फलों को खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. इन की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ईसी का डेढ़ से 2 लीटर की मात्रा का छिड़काव करना चाहिए.

कटाई व भंडारण : चने की फसल की कटाई के बाद उस के भंडारण पर खास ध्यान देना चाहिए, क्योंकि दालों के भंडारण में ढोरा या घुन का हमला ज्यादा देखा गया है. इस के बचाव के लिए दालें धूप में सुखा कर नमी रहित कर देनी चाहिए. उस के बाद अल्यूमिनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति टन की दर से इस्तेमाल में लानी चाहिए. चने की अच्छी खेती की जानकारी के लिए

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, बस्ती के कृषि जानकार राघवेंद्र विक्रम सिंह के मोबाइल नंबर 9415670596 पर संपर्क किया जा सकता है.

गाजर (Carrot) की खेती और बीज उत्पादन

गाजर का जड़ वाली सब्जियों में खास स्थान है. इसे देशभर में उगाया जाता है. उत्तर प्रदेश, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब व हरियाणा प्रमुख गाजर उत्पादक राज्य हैं.

किस्में : गाजर की किस्मों को 2 भागों में बांटा है, एशियन व यूरोपीय. एशियन किस्म सालाना होती है. इस का आकार व रंग अलग होता है. इस का ऊपरी भाग चौड़ा होता है, जो नीचे की ओर पतला होता जाता है. यह लाल, पीले, नारंगी व बैंगनी रंग की होती है. यह उच्च तापमान को सहन करने वाली किस्म है. यूरोपीय किस्म आकार में छोटी, चिकनी और समान रूप से मोटी होती है. इस का रंग नारंगी होता है.

एशियन : इस किस्म से अधिक उपज मिलती है. इन से हलुआ, अचार, मुरब्बा, सब्जी, सलाद आदि बनाए जाते हैं. इन्हें सुखा कर बेमौसमी फलों का मजा लिया जाता है. खास एशियन किस्मों के खास लक्षणों की जानकारी नीचे दी गई है :

पूसा केसर : यह एक संकर किस्म है, जो 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. इसे अगस्त से अक्तूबर के शुरू में बोया जाता है. इस की जड़ें गहरे लाल रंग की होती हैं. इस का मध्य भाग छोटा और हलके लाल रंग का होता है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल तक उपज देती है.

पूसा मेघाली : यह किस्म 110 से 120 दिनों बाद तैयार होती है. इस की जड़ें और गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अगस्तसितंबर में बोने के लिए सही किस्म है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल उपज देती है.

सेलेक्शन 223 : यह किस्म महज 60 दिनों में तैयार हो जाती है और खेत में 90 दिनों तक अच्छी तरह रहती है. इस की जड़ें 15 से 18 सेंटीमीटर लंबी, नारंगी और खाने में स्वादिष्ठ होती हैं. इस प्रजाति की बोआई देर से की जा सकती है. इस की औसतन उपज 200 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

गाजर नंबर 29 : यह एक अगेती किस्म है. इस की जड़ें लाल और लंबी बढ़ने वाली होती हैं. इस का बीज मैदानी क्षेत्रों में आसानी से तैयार किया जाता है. इस प्रजाति की औसतन उपज 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

गाजर (Carrot)

यूरोपीय किस्में

पूसा यमदग्नि : यह अधिक उपज देने वाली किस्म है. यह किस्म 86 से 130 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें 15-20 सेंटीमीटर लंबी, हलकी, केसरिया रंग की आधी ठूंठ के आकार की होती हैं. यह किस्म तेजी से बढ़ती है. इस में कैरोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है. इस का गूदा केसरिया रंग का अच्छी खुशबू वाला कोमल और स्वादिष्ठ होता है. पूसा नयनज्योति भी एक अच्छी किस्म है.

नैनटिस : इस किस्म का ऊपरी भाग छोटा और हरी पत्तियों वाला होता है. इस की जड़ें 12 से 15 सेंटीमीटर लंबी, बेलनाकार और नारंगी रंग की होती हैं. फसल 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. खाने में यह बेहद लजीज होती है और प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक उपज देती है. मध्य अक्तूबर से दिसंबर तक इस की बोआई की जाती है.

चैंटेन : यह किस्म 100 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें मोटी और गहरे लाल रंग की होती हैं. इस किस्म का बीज मैदानी क्षेत्रों में तैयार किया जाता है. प्रति हेक्टेयर यह 150 क्विंटल तक उपज देती है. इस किस्म को मध्य अक्तूबर से दिसंबर के शुरू तक बोया जा सकता है.

जैनो : यह किस्म 115 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें करीब 15 सेंटीमीटर लंबी होती हैं. तमिलनाडु का नीलगिरि क्षेत्र इस किस्म को उगाने के लिए सही है.

इंप्रेटर : इस किस्म को संकरण से तैयार किया जाता है. यह मध्य से देर अवधि वाली किस्म है. इस का गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अधिक उपज देने वाली किस्म है.

जलवायु : वैसे तो गाजर ठंडी जलवायु की फसल है, लेकिन इस की कुछ किस्में अधिक तापमान को भी सहन कर लेती हैं. जड़ों के रंग का विकास और उन की बढ़वार पर तापमान का प्रभाव पड़ता है.  10-15 डिगरी सेल्सियस तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है. लेकिन यूरोपीय किस्मों के लिए 4 से 6 हफ्ते तक 4.8 से 10 डिगरी सेल्सियस तापमान  होना चाहिए .

जमीन : गाजर के उत्पादन के लिए उचित जल निकास वाली गहरी, बलुई दोमट जमीन अच्छी मानी गई है. जमीन का पीएच मान साढे़ 6 होना चाहिए. अधिक क्षारीय या अधिक अम्लीय मिट्टी इस के सफल उत्पादन में बाधक मानी जाती है.

खेत की तैयारी : गाजर की अधिक उपज लेने के लिए खेत की तैयारी होना जरूरी है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. इस के बाद 2-3 बार कल्टीवेटर या हैरो से जुताई करें. जुताई के बाद पाटा चलाएं.

खाद व उर्वरक : गाजर को आमतौर पर कम उपजाऊ व हलकी मिट्टी में उगाया जाता है. लिहाजा, खाद और उर्वरकों के इस्तेमाल से इस पर अच्छा प्रभाव पड़ता है. मिट्टी की जांच के बाद इन का इस्तेमाल करना फायदेमंद होता है. फसल को 25-30 टन गोबर की खाद के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 45 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय खेत में मिला कर  पाटा चलाएं. उस के बाद बोआई करें. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा का बोआई के 40-45 दिनों बाद छिड़काव करें, जिस से पैदावार पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा.

बीजों की मात्रा : प्रति हेक्टेयर 5-6 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. फसल को फफूंदी जनित रोगों से बचाने के लिए बीजों को बोने से पहले कार्बेंडाजिम 3 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर उस से उपचारित कर के बोना चाहिए. बीज को जल्दी अंकुरण के लिए 12 से 24 घंटे पानी में भिगो कर बोना चाहिए.

बोने का समय : गाजर की बोआई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि उस की कौन सी किस्म उगानी है. उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में एशियाई किस्मों को अगस्त के आखिरी सप्ताह से अक्तूबर के पहले सप्ताह तक बोते हैं, जबकि यूरोपीय किस्मों की बोआई नवंबर में की जाती है. पर्वतीय इलाकों में बोआई मार्च से जून तक की जाती है. दक्षिण और मध्य भारत में बोआई जनवरीफरवरी, जूनजुलाई और अक्तूबरनवंबर में की जाती है.

बोने की विधि : गाजर की बोआई समतल क्यारियों व मेंड़ों पर की जाती है. इस की ज्यादाउपज लेने के लिए इसे मेंड़ों पर उगाना ठीक रहता है. लाइनों और पौधों की आपसी दूरी 45×7.5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज को 1.5 सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए. गाजर की लगातार फसल लेने के लिए 10-15 दिनों बाद बोआई करनी चाहिए. गाजर का अंकुरण धीमी गति से होता है. अकसर 10-20 दिनों बाद अंकुरण होता है.

सिंचाई और जल निकास : बोआई के बाद मेंड़ों को तब तक नम रखना जरूरी है, जब तक कि बीजों का अंकुरण न हो जाए. इस के बाद 8-10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. कम नमी के कारण उपज कम मिलती है, जबकि अधिक नमी से उपज में भारी कमी हो सकती है. लिहाजा, गाजर की सिंचाई पत्तियों के मुरझाने से पहले करनी चाहिए.

जल प्रबंधन पर दें ध्यान

सिंचाई करते समय यह ध्यान रहे कि सिंचाई पौधे में की जा रही है, न कि जमीन में. इस में सिंचाई की आधुनिक विधियां इस्तेमाल करें. करीब 3 दशकों में सिंचाई की सूक्ष्म प्रणाली से फसल के उत्पादन में पाया गया है कि औसतन अन्य पारंपरिक सिंचाई विधियों की तुलना में इस के द्वारा 50 से 60 फीसदी जल बचाया जा सकता है.

खेत में खरपतवार भी कम आते हैं. जिस तरह ड्रिपरों से बूंदबूंद जल दिया जाता है, उसी प्रकार रासायनिक उर्वरकों को भी सिंचाई में फर्टिलाइजर इंजेक्टर की मदद से फसलों को दिया जा सकता है.

ऐसी व्यवस्था के तहत उर्वरकों को कम मात्रा में कम अंतराल रख कर जल्दीजल्दी सिंचाई के साथ दिया जा सकता है.

खरपतवार नियंत्रण : गाजर की फसल के साथ उगे खरपतवार उस की बढ़वार व उपज पर खराब असर डालते हैं. लिहाजा, उन की रोकथाम समय पर करना जरूरी है. इस के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करें. इस दौरान घने पौधों को उखाड़ दें, ताकि पौधों का विकास व बढ़वार अच्छी तरह हो सके. खरपतवारों की रोकथाम के लिए पेंडामेथलीन नामक खरपतवारनाशी की 3.3 लीटर मात्रा 800 से 1,000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले छिड़काव करें.

गाजर (Carrot)

कीड़ों की रोकथाम

पत्ती फुदका : इस कीट के वयस्क और निम्फ  दोनों ही पौधों का रस चूसते हैं. इस वजह से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर खराब असर पड़ता है. इस कीड़े की रोकथाम के लिए 0.05 फीसदी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करना चाहिए.

कट वर्म : यह कीट रात के समय पौधों को आधार से काट देता है. इस की रोकथाम के लिए 0.1 फीसदी क्लोरोपाइरीफास के घोल से जमीन को अच्छी तरह भिगो दें.

गाजर की सुरसुरी : इस कीट के सफेद टांगरहित शिशु गाजर के ऊपरी हिस्से में सुरंग बना कर नुकसान पहुंचाते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 1 मिलीलीटर या डाइमेथोएट 30 ईसी 2 मिलीलीटर का छिड़काव करें.

जंग मक्खी : इस कीट के शिशु पौधों की जड़ों में सुरंग बनाते हैं, जिस से पौधे मर भी सकते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए क्लोरोपायरीफास 20 ईसी का 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से हलकी सिंचाई के साथ इस्तेमाल करें.

कंपोस्ट खाद : वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

आज वर्मी कंपोस्ट खाद बहुत सस्ती, सरल व खेतों के लिए काफी उपयोगी है. गोबर की खाद के लिए जहां भरपूर गोबर उपलब्ध नहीं हो पाता, वहीं दूसरी ओर गड्ढे खोद कर खाद बनाने में भी 6 महीने का समय लगता है. कूड़ाकरकट से बनने वाली कंपोस्ट खाद भी 4 महीने से पहले नहीं बन पाती है, जबकि वर्मी कंपोस्ट खाद 40 से 45 दिन में बन कर तैयार हो जाती है.

खेती के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल काफी खास है. फसल पैदावार की नजर से मिट्टी एक सचेत और जीवंत माध्यम है. भूमि की उत्पादकता कूवत को ध्यान में रखते हुए उस का पालनपोषण अत्यंत जरूरी माना जाता है. अगर हमें रासायनिक खेती को छोड़ कर वर्मी खाद आधारित खेती में बदलना है तो मिट्टी के उपयोग को समझना जरूरी  है. जमीन हमें अनेक तरह के खाद्यान्न मुहैया करा कर हमारी मुफ्त सेवा करती है.

अत: जमीन भी हम से कुछ सेवा की अपेक्षा रखती है. खेतों में प्रति बीघा 100 या 250 मिलीलीटर की शीशी खाली करना ही भूमि की सेवा नहीं है. प्रति बीघा 2 से 3 टन जैविक खाद बना कर खेतों में डालना भूमि की सच्ची सेवा है. ऐसी ही एक जैविक खाद केंचुओं द्वारा निर्मित खाद है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में वर्मी कंपोस्ट के नाम से भी जाना जाता है.

सलाह

एक अच्छे खेत के लिए साल में कम  कम 2 बार 8 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से वर्मी कंपोस्ट का समान मात्रा में इस्तेमाल करना चाहिए. 2 से 3 साल के बाद जमीन की उर्वरता व संरचना देख कर वर्मी कंपोस्ट की मात्रा धीरेधीरे कुछ कम की जा सकती है.

कंपोस्ट खाद के इस्तेमाल से खेतों को सब से ज्यादा लाभ जैविक कार्बन से होता है. इस जैविक कार्बन को किसी भी औद्योगिक उत्पाद के रूप में तैयार नहीं किया जा सकता है. अत: गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट खाद के अलावा मिट्टी में इतनी ज्यादा मात्रा में जैविक कार्बन पहुंचाने का दूसरा कोई माध्यम नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं कि मिट्टी में कार्बन से पौधों को ऊर्जा मिलती है.

पौधों की जड़ों व मिट्टी में उपस्थित अनेक प्रकार के जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण और न घुलने वाले फास्फोरस को घुलनशील फास्फोरस में बदल कर पौधों को मुहैया कराते हैं.

लेकिन कार्बन की कमी के कारण ये जीवाणु ठीक तरह से काम नहीं कर पाते. इसलिए जैविक कार्बन कृषि योग्य मिट्टी के लिए काफी खास तत्त्व माना जाता है. मिट्टी में कार्बन की कमी से सूक्ष्मजीवी सही तरह से सक्रिय नहीं हो पाते, जिस से मिट्टी में ह्मूमस का निर्माण नहीं हो पाता और उस की जलधारण कूवत कम हो जाती है.

मिट्टी में जैविक कार्बन का कितना महत्त्व है, इसे हम इस तरह समझ सकते हैं. यदि घर में 100 वाट का बल्ब लगाया जाए, लेकिन करंट 40 वाट जितना भी न हो तो 100 वाट की रोशनी हमें मिल ही नहीं सकती.

ठीक इसी तरह यदि मिट्टी में कई तरह के सूक्ष्म व पोषक तत्त्व मौजूद रहते हैं, लेकिन कार्बन यदि सही मात्रा में न हो तो पौधे इन तत्त्वों को सही तरह हासिल नहीं कर पाते और उन्हें इन पोषक व सूक्ष्म तत्त्वों की पूर्ति रासायनिक उत्पादों से करनी पड़ती है.

नतीजतन, सब से पहले तो फसल की लागत बढ़ जाती है, इस के बाद मिट्टी में मौजूद रासायनिक उत्पादों का कुछ हिस्सा ही पौधे ले पाते हैं और ज्यादा रासायनिक उत्पादों से  जमीन की संरचना व उर्वरता भी बिगड़ जाती है. मिट्टी में पौधों की संतुलित बढ़ोतरी के लिए 16 तरह के पोषक तत्त्व जरूरी बताए गए हैं, जिन में सब से पहला स्थान जैविक कार्बन का ही है. देश में मिट्टी को सोना बनाने की जो बात कही जाती  है वह मुख्य रूप से मिट्टी में जैविक कार्बन की उपस्थिति पर ही निर्भर करती है.

जमीन को भी खुराक की जरूरत होती है. उसे भूखा रख कर हम कब तक अन्न हासिल कर सकेंगे. रासायनिक उर्वरक जमीन का भोजन नहीं है, कार्बनिक पदार्थों व 16 तरह के पोषक तत्त्वों से युक्त गोबर या कंपोस्ट खाद ही जमीन का  भोजन है.

रासायनिक उर्वरक जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं. गोबर या कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल किए बिना जमीन में रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करना हानिकारक होता है. अलगअलग फसलों में विभिन्न तरह की बीमारियों व कीटों के लिए कई तरह के रासायनिक उत्पाद बाजार में बिकते हैं. खड़ी फसल बचाने के लिए रासायनिक उत्पादों का इस्तेमाल कोई बुराई नहीं है, लेकिन रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी ज्यादा से ज्यादा अहमियत देनी चाहिए.

देश में इतने सालों तक केवल रासायनिक खेती करने के बाद भी यदि हम जमीन से अनाज हासिल करते हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों को जाता है, जिन्होंने युगों तक इस जमीन में जैविक खेती की वरना अमेरिका जैसा राष्ट्र केवल कुछ समय तक रासायनिक खेती कर के अपनी 12 करोड़ एकड़ कृषि लायक जमीन गंवा चुका है और अब अपने कृषि कार्यक्रम में रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी काफी महत्त्व दे रहा है. वहीं दूसरी ओर जैविक खेती का जनक भारत केवल रासायनिक खेती के कुचक्र में दिनोदिन फंसता जा रहा है. यदि यही हालात रहे तो आने वाली पीढि़यों को कृषि योग्य जमीन के नाम पर रासायनिक झील व दलदल के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.

वर्तमान हालात में किसानों का रासायनिक उत्पादों का उपयोग किए बिना अधिकतम उपज लेना आसान नहीं है, लेकिन किसानों को कंपोस्ट खाद व अन्य जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करने में किसी भी तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.

अपने कृषि कार्यक्रम में जैविक खेती अपनाने पर किसानों का आर्थिक पहलू किसी भी तरह से कमजोर नहीं होगा, क्योंकि स्वास्थ्यप्रद जैविक खाद्य सामग्री हमेशा दोगुने दामों पर बिकती है और जमीन, जल व हवा भी प्रदूषणमुक्त रहते हैं.

देश में करोड़ों रुपए का शुद्ध पानी मिनरल वाटर की बोतलों में बिक सकता  है, तो जैविक खेती से उत्पन्न स्वास्थ्यप्रद खाद्य सामग्री भी ऊंचे दामों पर आसानी से बाजार में बिक सकती है.

पौधों के पोषण के लिए किसानों ने खुद पहल की और गोबर व गौमूत्र आधारित खादें तैयार कर इस्तेमाल कीं, जैसे अमृपानी, मटा खाद, हरी पत्तियों की तरल खाद, बायोगैस संयंत्र की स्लेरी खाद, सींग खाद आदि तरल और त्वरित खाद ने भी कमाल का काम कर दिखाया. प्रयोगशील किसानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व कुछ कर्मठ देशप्रेमी वैज्ञानिकों ने इस जैविक खेती पद्धति को कृषि विज्ञान में बदलना शुरू किया और खुद इस्तेमाल कर अनुकूल परिणाम हासिल कर दिखाया कि यह एक चिरस्थायी पद्धति है.

गेहूं, चना, मक्का, ज्वार, अरहर, मूंग, तिल, मूंगफली, कपास, सोयाबीन, फल, सब्जी, चरीचारा, सभी फसलें जैविक पद्धति से उपजा कर दिखा दिया कि बिना बाजारू कृषि उत्पादों के भी अच्छी खेती की जा सकती है.

खेती में कीट और बीमारी भी कभीकभी आती है, लेकिन जैविक कृषि पद्धति अपनाएंगे तो यह भी कम हो जाती है. गोमूत्र, पुरानी छाछ, हींग, मिर्च, लहसुन का मिश्रण, नीम का तेल, नीम, करंज, शरीफा, आईपोमिया, गाजर घास आदि पानी में घोल कर 15-20 दिन के अंतर से छिड़काव करने से कीट और बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है.

महिला किसान मालती मकोइया से मालामाल

भारत में आयुर्वेद का काफी पुराना इतिहास है. हमारे इर्दगिर्द न जाने कितनी जंगलीऔषधियां खेतखलिहानों, बागबगीचों व घर के गलियारे में लगी मिल जाएंगी. लेकिन जानकारी न होने के कारण हम उन्हें कभी तवज्जुह नहीं देते. यदि हमें इन दवाओं की जानकारी होती तो हमारी माली हालत में काफी सुधार होता.

हम एक ऐसी महिला किसान के बारे में बता रहे हैं, जिस ने औषधीय खेती के दम पर अपने साथसाथ इलाके के तमाम किसानों की जीवनशैली भी बदल दी है. मालती देवी औषधीय खेती मकोइया को अपना कर अपनी माली हालत में इजाफा कर आज मालामाल हो गई हैं. भारतीय वनस्पति मकोइया औषधीय गुणों से भरपूर है. खुद उगने और औषधीय होने की वजह से देश में इस की खेती की जाने लगी है.

उत्तर प्रदेश के हरदोई जनपद के कमलापुर गांव की मालती देवी के मन में शुरू से ही कुछ करने की इच्छा थी. मालती देवी बताती हैं कि अपने मायके में किसी को मकोइया की खेती करते देख मैं ने भी इस के बारे में सोचा और ठान लिया कि मैं भी मकोइया की खेती करूंगी. इस के लिए सब  पहले जमीन के बारे में सोचा.

बाजार की स्थिति, पूंजी, मसलन, तैयार माल कहां ले जाया जाए और किस दर से बिकेगा, पूरी जानकारी लेने के बाद इस की खेती पर विचार किया. मुझे लगा कि अन्य फसलों के मुकाबले मकोइया कम समय की सब से अच्छी नकदी फसल हो सकती है. मजबूत फैसले और अटूट विश्वास के साथ 500 ग्राम बीज मैं ने वहीं से लिए, फसल बोई और अच्छा लाभ कमाया.

मकोइया के गुणों के बारे में लखीमपुर जिला मुख्यालय पर हर्बल चिकित्सा पद्धति के जानेमाने चिकित्सक वीबी धुरिया बताते हैं कि जंगली औषधि मकोइया आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथ, एलोपैथ भारत में अलगअलग चिकित्सा विधियों में इस्तेमाल होती है. मकोइया का पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है, जिस में किडनी रोग, गुर्दों का सिकुड़ जाना, लिवर का छोटा होना, पीलिया, खून की कमी, गुर्दों के काम न करने की स्थिति में चमत्कारी प्रभाव देखे गए हैं.

खेत की तैयारी और बोजाई : खेत की जुताई कर, खरपतवार हटा कर, भुरभुरी मिट्टी में सड़ी गोबर की खाद संतुलित मात्रा में मिलाते  हैं. 1 बीघे खेत के लिए 100 ग्राम बीज की जरूरत होती है. सही नमी होने पर पौध तैयार करने के लिए बिजाई करते हैं.

रोपण विधि : बोआई के करीब 30 दिन के भीतर पौध रोपण के लिए तैयार हो जाती है. रोपण लाइन से लाइन की दूरी डेढ़ फुट सही रहती  है.

सही समय : अक्तूबर व नवंबर पौधरोपण के लिए सही है.

पैदावार : मकोइया किसान जसवंत बताते हैं कि 1 एकड़ खेत में 5 से 7 क्विंटल दाने निकलते हैं. जितने दाने निकलते हैं उतने ही डंठल निकलते हैं, जो समान दर से बाजार में बिकते हैं.

रखरखाव : रोपण के बाद समयसमय पर निराईगुड़ाई करनी पड़ती है, जिस से खरपतवार फसल को प्रभावित न कर सके. साथ ही मकोइया की खेती में जैविक खादों का इस्तेमाल काफी लाभकारी होता है.

5 से 6 महीने में फसल पक कर तैयार हो जाती है. फसल कटाई के बाद सुखाई जाती है. इसे तार से बुनी चारपाई पर डाल कर पतली छड़ी से पीटते हैं, जिस से उस का दाना नीचे गिर जाता है. इस प्रक्रिया से डंठल अलग हो जाते हैं. फिर दाने और डंठल अलग से सुखाए जाते हैं और फसल बाजार में बेचने के लिए तैयार हो जाती है.

हालांकि बाजार भाव में काफी

उतारचढ़ाव रहता है फिर भी कम समय में यह नकदी फसलों में सब से लाभकारी फसल साबित हो रही?है.

लखनऊ की शहादतगंज की औषधीय मंडी में ले जा कर किसान इसे बेच सकते?हैं. आज इलाके में तकरीबन 90 एकड़ में खेती होती है. कम समय की फसल होने के कारण आसपास के गांव के किसान भी इसे अपना रहे?हैं. वहीं मालती देवी मकोइया के बल पर मालामाल हो गई हैं.

सर्दी की गुलाबी फसल शलगम (Turnip)

शलगम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलगम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है. ठंडे मौसम की फसल होने से कम तापमान पर भी ज्यादा स्वाद होता है. बोआई के 20-25 दिनों के बाद से ही शलगम को साग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

शलगम की जड़ों व पत्तियों में ज्यादा पोषक तत्त्व पाए जाते हैं. इस से ज्यादा मात्रा में कैल्शियम और विटामिन ‘सी’ मिलता है. साथ ही इस में अन्य पोषक तत्त्व फास्फोरस, कार्बोहाइड्रेट्स वगैरह भी भरपूर मात्रा में मिलते हैं.

शलगम की फसल को सभी तरह की जमीन में उगाया जा सकता है. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए हलकी चिकनी दोमट या बलुई दोमट मिट्टी वाली जमीन बेहतर होती है. जल निकासी भी ठीक होनी चाहिए, वरना पानी भरा रहने पर फसल खराब हो सकती है.

शलगम सर्दी की फसल होने के कारण ज्यादा ठंड को भी सहन कर लेती है. अच्छी बढ़वार के लिए ठंड व नमी वाली जलवायु सही रहती है. इसी कारण पहाड़ी इलाकों में शलगम की अच्छीखासी पैदावार मिलती है.

अच्छी पैदावार के लिए खेत की जुताई अच्छी तरह करनी चाहिए, जिस से जमीन भुरभुरी हो जाए. साथ ही घास व ठूंठ वगैरह को बाहर निकाल कर नष्ट कर दें और छोटीछोटी क्यारियां बना लें, ताकि इन की देखभाल अच्छी तरह से हो सके.

उपज से फायदा : शलगम जब छोटेछोटे साइज की हों, तभी उन्हें मंडी में साग के रूप में बेचा जाता है और बाद में जब शलजम बड़ी हो जाती है, तो उसे लोग अचार व सब्जी वगैरह में भी इस्तेमाल करते हैं.

यह कम समय में तैयार होने वाली सामान्य फसल है. इस की खास देखभाल की भी जरूरत नहीं होती और किसान को मुनाफा भी ज्यादा मिलता है.

शलगम की कुछ खास प्रजातियां

लाल 4 : यह किस्म जल्दी तैयार होने वाली है. लाल किस्म को ज्यादातर सर्दी के मौसम में लगाते हैं. इस की जड़ें गोल, लाल और मध्यम आकार की होती हैं. फसल 60 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

सफेद 4 : इस किस्म को ज्यादातर बरसात के मौसम में लगाते हैं. यह जल्दी तैयार होती है और इस की जड़ों का रंग बर्फ जैसा सफेद होता है. गूदा चरपराहट वाला होता है. ये 50-55 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

परपल टोप : इस किस्म की जड़ें बड़े आकार की होती हैं. ऊपरी भाग बैगनी, गूदा सफेद और कुरकुरा होता है. यह ज्यादा उपज देती है. इस का गूदा ठोस और ऊपर का भाग चिकना होता है.

पूसा स्वर्णिमा : इस किस्म की जड़ें गोल, मध्यम आकार वाली, चिकनी और हलके पीले रंग की होती हैं. गूदा भी पीलापन लिए होता है. यह 65-70 दिनों में तैयार हो जाती है. सब्जी के लिए यह अच्छी किस्म है.

पूसा चंद्रिमा : यह किस्म 55-60 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की जड़ें गोलाई लिए हुए होती हैं. यह ज्यादा उपज देती है.

पूसा कंचन : इस किस्म का छिलका ऊपर से लाल, गूदा पीले रंग का होता है. यह अगेती किस्म है, जो शीघ्र तैयार होती है. इस की जड़ें मीठी व खुशबूदार होती  हैं.

पूसा स्वेती : यह किस्म भी अगेती है. बोआई अगस्तसितंबर में की जाती है. जड़ें काफी समय तक खेत में छोड़ सकते हैं. जड़ें चमकदार व सफेद होती हैं.

स्नोवाल : यह भी अगेती किस्मों में शामिल है. इस की जड़ें मध्यम आकार की, चिकनी, सफेद और गोलाकार होती हैं. गूदा नरम व मीठा होता है.

टिकाऊ यानी जैविक खेती (Organic Farming)

आजादी से पहले जैविक खेती ही होती थी और तब देश कि खाद्यान्न में आत्मनिर्भर न होने के कारण विदेशों से अनाज मंगाया जाता था. देश की आजादी के बाद हरितक्रांति की शुरुआत हुई और तब  से लगातार रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से फसल की अच्छी पैदावार इस बात का सुबूत है कि 60 के दशक से पहले जैविक खेती से खाद्यान्न उत्पादन उतना नहीं होता था जितना कि आज रासायनिक खेती से हो रहा है. यदि यह तथ्य सही है तो किसान जैविक खेती क्यों करेगा?

आज खेती निश्चित तौर से किसान के आर्थिक पहलू से जुड़ी है, अत: किसान वही खेती करेगा जिस में उसे अच्छा लाभ मिलेगा. यदि जैविक खेती में रासायनिक खेती के मुकाबले कम खाद्यान्न उत्पादन होता हो और किसान को घाटे की भरपाई नहीं हो पा रही हो तो किसान के लिए जैविक खेती का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. लेकिन दूसरी तरफ जमीन की उर्वरता का संरक्षण किए बगैर इसी तरह अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते रहे तो एक दिन यह सब रेगिस्तान में बदल जाएगा.

अगर दोनों पक्ष अपनीअपनी जगह सही हैं तो किसान खेती का चुनाव कर ऊपर लिखे तथ्यों के आधार पर यह समझ लें कि जमीन के स्वास्थ्य की कीमत पर अधिक फसल का लालची प्रयास ज्यादा दिन नहीं टिक सकता है. रासायनिक उर्वरकों से नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की ही पूर्ति होती है. शेष 13 तरह के सूक्ष्म तत्त्वों की आवक नहीं होगी तो भूमि की उर्वरता व संरचना कब तक बनी रहेगी और ऐसी जमीन से पैदा होने वाला खोखला अनाज हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर डालेगा?

जैविक खेती (Organic Farming)

पौधों को पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने के लिए कृषि विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार उर्वरकों का उपयोग करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन गोबर की खाद का प्रयोग न करने और रासायनिक उर्वरकों पर ही पूरी तरह निर्भर रहने से जमीन की उर्वराशक्ति कमजोर हो जाती है.

दूसरी तरफ कीटनाशकों के जहरीले रसायनों के बुरे नतीजों से सारा विश्व चिंतित है. वैज्ञानिकों के अनुसार कीटनाशकों के इस्तेमाल से मित्र कीट लगातार मर रहे हैं और हानिकारक कीटों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है.

इन रसायनों के खराब नतीजों से साफ है कि रासायनिक खेती टिकाऊ विकल्प नहीं हो सकती. अत: 90 के दशक से ही दुनिया के अनेक देशों ने जैविक खेती की वकालत शुरू कर दी है.

जीवाणु खाद और उस से होने वाले लाभ के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि गोबर या कंपोस्ट खाद का कोई चारा नहीं है. गोबर या कंपोस्ट खाद के उपयोग से मिट्टी की उर्वरता और संरचना कायम रखने के लिए समस्त पोषक तत्त्वों की आपूर्ति हो जाती है, जबकि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में किसी न किसी रूप में पोषक तत्त्वों की कमी रहती ही है. यदि मिट्टी में जरूरी पोषक तत्त्व नहीं होंगे तो हाईब्रिड फसलों को कम उपज के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. गोबर या कंपोस्ट का उपयोग करते रहने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को काफी कम किया जा सकता है. खेतों में यदि पोषक तत्त्व उचित मात्रा में होंगे तो पौधे एकदम स्वस्थ होंगे तथा स्वस्थ पौधों पर बीमारी का असर भी कम होगा, क्योंकि सामान्यत: कमजोर पौधे ही ज्यादा रोग से पीडि़त होते हैं.

जैविक या कार्बनिक खाद में सभी तरह के पोषक तत्त्व अधिक या कम मात्रा में होते हैं, लेकिन पौधों को ये पोषक तत्त्व धीरेधीरे प्राप्त होते हैं. सामान्यत: खाद में पोषक तत्त्वों की कमी और कार्बनिक पदार्थों की अधिकता होती है. मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के बढ़ने से सूक्ष्म जीवियों की संख्या बढ़ जाती है और सूक्ष्मजीवी मिट्टी में मौजूद जहरीले पदार्थों को खत्म कर के उन्हें बेकार करते हैं और सड़ेगले कार्बनिक पदार्थों को ह्मूमस में बदल देते हैं.

खाद के इस्तेमाल से मिट्टी में हवा का आनाजाना और पानी सोखने की कूवत बढ़ जाती है. इस से मिट्टी में प्रत्यारोधन की कूवत का विकास होता है. खाद का ज्यादा इस्तेमाल करने पर भी मिट्टी या पेड़पौधों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है.

जैविक खेती (Organic Farming)

गोबर की खाद

पशुओं के भोजन का पूरा या आधाअधूरा पचा हुआ भाग, जो पशुओं द्वारा मल के रूप में निकाल दिया जाता है, गोबर कहलाता है. गोबर की खाद में भैंस, गाय, बैल, भेड़, मुरगी, घोड़ा आदि पशुओं के मल को भी शामिल किया जाता है.

गोबर की खाद में मौजूद पोषक तत्त्व पौधों के लिए धीरेधीरे अलग होते हैं, इस कारण खेतों में गोबर की खाद का प्रभाव लंबे समय तक बना रहता  है. यह खाद मिट्टी में विनिमेय कैल्शियम बढ़ाती है, जो उस की भौतिक दशा सुधारने के लिए काफी खास मानी जाती है. खेतों में गोबर की खाद का इस्तेमाल करने पर पानी धीरेधीरे छूटता है, जिस में पौधे लंबे समय तक फायदे में रहते हैं. गोबर की खाद से मिट्टी में सूक्ष्म जीवियों की सक्रियता बढ़ जाती है, जिस से उस में ह्मूमस की मात्रा बढ़ती है और ह्मूमस रेतीली मिट्टी में पानी सोखने की कूवत में सुधार होता है और चिकनी मिट्टी को स्पंजी बनाता है.

फसल अवशेष : जलाए नहीं खाद बना कर बढ़ाएं जमीन की उर्वराशक्ति

हमेशा से देश में फसल के अवशेषों का सही निबटारा करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है. इन का अधिकतर भाग या तो दूसरे कामों में इस्तेमाल किया जाता है या फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाता है, जैसे कि गेहूं, गन्ने, आलू व मूली वगैरह की पत्तियां पशुओं को खिलाने में इस्तेमाल की जाती हैं या फिर फेंक दी जाती हैं. कपास, सनई व अरहर आदि के तने, गन्ने की सूखी पत्तियां और धान का पुआल आदि जलाने में इस्तेमाल कर लिया जाता है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में अधिकतर गेहूं व धान की कटाई मशीनों द्वारा की जाती है. पिछले कुछ सालों से एक समस्या देखी जा रही है. जहां हार्वेस्टर द्वारा फसलों की कटाई की जाती है, उन क्षेत्रों में फसल के तनों के अधिकतर भाग खेत में खड़े रह जाते हैं. वहां के किसान खेत में फसल के अवशेषों को जला देते हैं. आमतौर पर रबी सीजन में गेहूं की कटाई के बाद फसल के अवशेषों को जला कर नष्ट कर दिया जाता है.

इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन द्वारा बहुत से जिलों में गेहूं की नरई जलाने पर रोक लगा दी गई है. किसानों को शासन, कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विभाग व संबंधित संस्थाओं द्वारा यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि किसान अपने खेतों के अवशेषों को जीवांश पदार्थ बढ़ाने में इस्तेमाल करें.

इसी तरह गांवों में पशुओं के गोबर का अधिकतर भाग खाद बनाने के लिए इस्तेमाल न कर के उसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि इसी गोबर को यदि गोबर गैस प्लांट में इस्तेमाल किया जाए, तो इस से बहुमूल्य व पोषक तत्त्वों से भरपूर गोबर की स्लरी हासिल होगी, जिसे खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही गोबर गैस को घर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

योजना को सफल बनाने के लिए सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है, मगर फिर भी नतीजे संतोषजनक नहीं हैं. जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा लगातार कम होने से उत्पादकता या तो घट रही है या स्थिर हो गई है. लिहाजा समय रहते इस पर ध्यान दे कर जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने पर ही कृषि की उत्पादकता बढ़ा पाना मुमकिन हो सकता है. यह देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए बहुत ही जरूरी है. ज्यादातर भारतीय किसान फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

फसल अवशेषों को जलाने से होने वाले नुकसान

* जब खेत में आग लगाई जाती है, तो खेत की मिट्टी उसी तरह जलती  है जैसे ईंट भट्ठे की ईंट जलती है. खेत का तापमान बढ़ने से उस में पाए जाने वाले लाभकारी जीव जैसे जैविक फर्टिलाइजर राइजोबियम, अजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, ब्लू ग्रीन एलगी और पीएसबी जीवाणु जल कर नष्ट हो जाते हैं. इस के अलावा लाभदायक जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा, जैविक कीटनाशी विबैरिया बैसियाना, वैसिलस थिरूनजनेसिस और किसानों के मित्र कहे जाने वाले केंचुए आग की लपटों से जल कर नष्ट हो जाते हैं.

* फसल अवशेष जलने से पैदा होने वाले कार्बन से वायु प्रदूषित होती है, जिस का इनसानों व पशुपक्षियों पर बुरा असर पड़ता है.

* कार्बन डाईआक्साइड ज्यादा निकलने से ओजोन परत भी प्रभावित होती है और धरती का तापमान बढ़ जाता है.

ऊपर दी गई तालिका को देख कर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि फसल अवशेषों से कितनी ज्यादा मात्रा में हम मिट्टी के जरूरी पोषक तत्त्वों की पूर्ति कर सकते हैं. विदेशों में जहां अधिकतर मशीनों से खेती की जाती है, वहां पर फसल के अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिला दिया जाता है. वैसे मौजूदा दौर में भारत में भी इस काम के लिए रोटावेटर जैसी मशीन का इस्तेमाल शुरू हो चुका है, जिस से खेत को तैयार करते समय एक बार में ही फसल अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिलाना काफी आसान हो गया है. जिन क्षेत्रों में नमी की कमी हो, वहां पर फसल अवशेषों की कंपोस्ट खाद तैयार कर के खेत में डालनी फायदेमंद होती है.

फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल करने के लिए जरूरी है कि अवशेषों को खेत में जलाने की बजाय उन से कंपोस्ट तैयार कर के खेत में इस्तेमाल करें. उन क्षेत्रों में जहां चारे की कमी नहीं होती, वहां मक्के की कड़वी व धान के पुआल को खेत में ढेर बना कर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कंपोस्ट बना कर इस्तेमाल करना चाहिए.

आलू व मूंगफली जैसी फसलों की खुदाई करने के बाद बचे अवशेषों को खेत में जोत कर मिला देना चाहिए. मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़ कर अवशेषों को खेत में मिला देना चाहिए.

फसल अवशेष (Crop Remains)

खेतों के अंदर इस्तेमाल

फसल की कटाई के बाद खेत में बचे घासफूंस, पत्तियां व ठूंठों आदि को सड़ाने के लिए 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़क कर कल्टीवेटर या रोटावेटर से काट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस प्रकार अवशेष खेत में विघटित होना शुरू कर देंगे और तकरीबन 1 महीने में सड़ कर आगे बोई जाने वाली फसल को पोषक तत्त्व देंगे.

अगर फसल अवशेष खेत में ही पड़े रहे तो नई फसल के पौधे शुरुआत में ही पीले पड़ जाते  हैं, क्योंकि अवशेषों को सड़ाने के लिए जीवाणु जमीन की नाइट्रोजन का इस्तेमाल कर लेते हैं. लिहाजा अवशेषों का सही निबटारा करना बेहद जरूरी है, तभी हम अपनी जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा में इजाफा कर के जमीन को खेती लायक रख सकते हैं और ज्यादा उपज हासिल कर सकते हैं.