उदयपुर: 9 मार्च 2024 को अखिल भारतीय समन्वित मशरूम परियोजना, राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर के तत्वावधान में अनुसूचित जनजाति उपयोजना (टीएसपी) के तहत ग्राम पंचायत मकड़ादेव में एकदिवसीय मशरूम प्रशिक्षण का आयोजन किया गया.
मशरूम प्रशिक्षण में गांव पानरवा, मानस, मकड़ादेव, सेलाणा और आसपास के गांव के किसानों एवं किसान महिलाओं ने हिस्सा लिया.
मशरूम एक ऐसा कृषि से जुड़ा रोजगार है, जिसे बिना खेतीबारी की जमीन के भी शुरू किया जा सकता है. इस काम को घर के कमरे से भी शुरू किया जा सकता है, जरूरत है उचित वातावरण की. महरूम की खेती के लिए प्रशिक्षण जरूरी है, जिस से आप इस काम को सफलता से कर सकें.
साप्रशिक्षण में परियोजना प्रभारी डा. एनएल मीना ने बच्चों व महिलाओं में मशरूम के उपयोग से कुपोषण को दूर भगाने और अधिक आय प्राप्त करने के लिए मशरूम तकनीकी को अपनाने का विस्तार से व्याख्यान दिया. वहीं पंचायत समिति झाड़ोल की सहायक विकास अधिकारी शांता भुदरा ने महिलाओं को स्वयं सहायता समूह के माध्यम से मशरूम की खेती को बढ़ावा दे कर अच्छी आय करने के लिए जोर दिया.
क्षेत्र के कृषि पर्यवेक्षक कमलेश चरपोटा ने प्राकृतिक खेती व राजस्थान सरकार की अनुसूचित जनजाति के किसानों के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के बारे में बताया.
अविनाश कुमार नागदा, किशन सिंह राजपूत और रवींद्र चौधरी ने प्रशिक्षण में भाग लेने वाले प्रशिक्षणार्थियों को मशरूम की प्रायोगिक जानकारी दी. प्रशिक्षण के अंत में अनुसूचित जनजाति उपयोजना के कुल 25 प्रशिक्षणार्थियों को सामग्री बांटी गई.
नई दिल्ली : 7 मार्च 2024. कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की 4 महत्वपूर्ण पहलों- मृदा स्वास्थ्य कार्ड पोर्टल एवं मोबाइल एप्लीकेशन, स्कूल मृदा स्वास्थ्य कार्यक्रम, कृषि सखी अभिसरण कार्यक्रम एवं उर्वरक नमूना परीक्षण के लिए सीएफक्यूसीटीआई (केंद्रीय उर्वरक, गुणवत्ता नियंत्रण और प्रशिक्षण संस्थान) के पोर्टल का शुभारंभ केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण व जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा और केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने कृषि भवन, दिल्ली में किया.
किसान हित में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा अन्य मंत्रालयों के साथ मिल कर निरंतर इस तरह की पहल की जा रही है व इन के जरीए सफलता के सोपान पर आगे बढ़ रहे हैं. इन पहलों के माध्यम से सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भी किसानों को लाभ हो, वे सहजता से खेती करें, इन सुविधाओं का यह उद्देश्य है.
उन्होंने कहा कि हमारे किसान ऐसी सभी सुविधाओं द्वारा सशक्त होंगे, तो उन का न केवल अपने लिए, बल्कि देश व दुनिया के लिए भी महत्वपूर्ण योगदान रहेगा. सरकार उद्देश्यपूर्ण, लक्ष्यपूर्ण व सहकार से समृद्धि के मूल मंत्र के साथ सहकारिता आधारित भारत बनाने के लिए ये काम कर रही है.
मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि हम हमारी मृदा के स्वास्थ्य व उपज के माध्यम से लोगों के भी स्वास्थ्य को बेहतर रखने के साथ ही अपने देश व दुनिया की भी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए एक नए क्षितिज का निर्माण कर सकेंगे.
उन्होंने कहा कि मृदा स्वास्थ्य को बेहतर रखने में कृषि सखी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह एक बहुत बड़ी ताकत उभरी है, जो मृदा स्वास्थ्य के बारे में किसानों को शिक्षित कर सकती हैं. महिला सशक्तीकरण के साथ हम लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाते हुए सार्थक परिणाम की ओर बढ़ रहे हैं. कृषि मंत्रालय ने स्कूल शिक्षा एवं साक्षरता विभाग के सहयोग से स्कूल मृदा स्वास्थ्य कार्यक्रम पर पायलट परियोजना भी शुरू की है. इस के तहत ग्रामीण क्षेत्रों के कुछ केंद्रीय और नवोदय विद्यालयों में मृदा प्रयोगशालाएं स्थापित की गईं. छात्रों व शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया गया, जो अपने गांवों व कृषि क्षेत्र के विकास में सहभागी होंगे.
केंद्र सरकार के इस अनूठे कार्यक्रम के तहत केंद्रीय विद्यालयों, नवोदय विद्यालयों और एकलव्य मौडल स्कूलों को शामिल किया गया है. ये प्रतिभागी कृषि अनुकूल माहौल बनाने में सफल होंगे और इस कार्यक्रम के माध्यम से उन्हें भी व्यावहारिक जानकारी मिलेगी.
उन्होंने कहा कि ये पहलें देश के किसानों के लिए विराट व प्रमुख हैं.
उन्होंने रियल-टाइम मृदा स्वास्थ्य व उर्वरता क्षमता बढ़ाने पर भी जोर दिया, ताकि किसान इन पहलों को अपना कर खेत में मिट्टी परीक्षण कर अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकें, साथ ही, प्राकृतिकता बनी रहे.
कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि देश में जैविक व प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देते हुए, जहां मृदा क्षरण बहुत बड़ी मात्रा में हुआ है, वहां सुधार की गुंजाइश पैदा की जाए और जो क्षेत्र आज भी जैविक हैं, वहां मृदा को अच्छा बनाए रखने के लिए डेटा तैयार करें. दुनिया में मिट्टी को कई अलगअलग नाम से बोला जाता है, लेकिन हम तो अपनी मिट्टी को धरती मां कहते हैं, यह भाव जुड़ा हुआ है और हमारी इस मां की सेहत अच्छी होना चाहिए.
केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि देश में अनेक क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता आईं है, वहीं अन्यान्य में भी हमें आत्मनिर्भर बनना है.
कार्यक्रम में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा कि कृषि सखियों को “पैरा-एक्सटेंशन वर्कर” के रूप में प्रमाणित करने के लिए संयुक्त पहल के रूप में कृषि सखी प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया है.
उन्होमे आगे यह भी कहा कि कृषि सखी व ड्रोन दीदी जैसे कार्यक्रम के रूप में एक बड़ी ताकत देश में अच्छा काम करने में जुटी है. जब मृदा व पशुओं की सेहत सुधरती है, तो मनुष्यों का स्वास्थ्य भी स्वतः सुधऱ जाता है. आज प्रारंभ की गई सुविधाओं के माध्यम से रियल टाइम डेटा भी उपलब्ध हो सकेगा, वहीं कृषि सखी से खेती को फायदा होने के साथ ही समाज में उन की विश्वनीयता भी बढ़ेगी, साथ ही किसानों में विश्वास बढ़ेगा.
मंत्री गिरिराज सिंह ने उम्मीद जताई कि आने वाले दिनों में जैविक उत्पादों का बाजार काफी बढ़ेगा. उन्होंने जैविक खेती को बढ़ावा देने में सभी कृषि विज्ञान केंद्रों का योगदान सुनिश्चित करने का आग्रह किया.
उन्होंने यह भी कहा कि कृषि से जुड़े संबंधित संस्थान कार्बन का भी रियल टाइम डेटा रखें. इस तरह की सुविधाओं के माध्यम से देश में प्रधानमंत्री मोदी के सपनों को शतप्रतिशत जमीन पर उतारने का काम हो रहा है.
कृषि सचिव मनोज अहूजा, ग्रामीण विकास सचिव शैलेष कुमार सिंह, डेयर के सचिव व भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डा. हिमांशु पाठक ने भी विचार रखे. इस मौके पर कृषि सखी नंदबाला व अर्चना माणिक ने अपने अनुभव साझा किए, जिन्हें मंत्री ने प्रमाणपत्र प्रदान किए, साथ ही कृषि सखी आईएनएम ट्रेनिंग मौड्यूल का विमोचन भी किया. संयुक्त सचिव योगिता राणा ने नई पहलों के बारे में प्रस्तुति दी. कार्यक्रम से कृषि सखी, स्कूली विद्यार्थी, अध्यापक वर्चुअल जुड़े थे.
मृदा स्वास्थ्य कार्ड पोर्टल और मोबाइल एप पोर्टल को नया रूप दिया गया है, जिस के तहत राष्ट्रीय, राज्य, जिला व ग्राम स्तर पर केंद्रीकृत डैशबोर्ड उपलब्ध कराया गया है.
किसान एसएमएस व पोर्टल पर मोबाइल नंबर दर्ज कर के एसएचसी डाउनलोड कर सकते हैं. पोर्टल में मृदा रजिस्ट्री, उर्वरक प्रबंधन, इमोजी आधारित मृदा स्वास्थ्य कार्ड, पोषक तत्व डैशबोर्ड, पोषक तत्वों के हीट मैप दिए गए हैं. अब तत्काल प्रगति की निगरानी की जा सकती है. मोबाइल एप आधारित मृदा नमूना संग्रहण व परीक्षण शुरू किया गया है. अब, जहां से नमूने एकत्र किए जाते हैं, एप से किसानों के जियोकोर्डिनेट्स स्वचालित रूप से कैप्चर किए जा रहे हैं. क्यूआर कोड स्कैन सक्षम नमूना संग्रहण शुरू किया गया है, जो मृदा के उचित नमूना संग्रहण को सुनिश्चित करता है. एप, प्लाट विवरण को भी पंजीकृत करता है व औनलाइन और औफलाइन मोड दोनों में काम करता है. मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनने तक किसान मृदा के नमूने का ट्रैक रख सकते हैं.
स्कूल मृदा स्वास्थ्य कार्यक्रम- पायलट परियोजना शुरू, जिस के तहत ग्रामीण क्षेत्रों के 20 केंद्रीय व नवोदय विद्यालयों में मृदा प्रयोगशालाएं स्थापित, अध्ययन मौड्यूल विकसित किए और छात्रों व शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया. मोबाइल एप को स्कूल कार्यक्रम के लिए अनुकूलित किया गया और पोर्टल में कार्यक्रम के लिए अलग खंड है, जहां छात्रों की गतिविधियों को रखा गया है.
अब, इस कार्यक्रम को 1000 स्कूलों में बढ़ाया गया है. केंद्रीय नवोदय विद्यालय व एकलव्य मौडल स्कूल कार्यक्रम में शामिल. स्कूलों को पोर्टल पर जोड़ा जा रहा है, औनलाइन बैच बनाए जा रहे हैं. नाबार्ड के जरीए कृषि मंत्रालय स्कूलों में मृदा लैब्स स्थापित करेगा. छात्र मृदा नमूने एकत्र करेंगे, स्कूलों में स्थापित प्रयोगशालाओं में परीक्षण करेंगे और मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनाएंगे. इस के बाद वे किसानों के पास जाएंगे व उन्हें मृदा स्वास्थ्य की अनुशंसा के बारे में शिक्षित करेंगे.
यह कार्यक्रम विद्यार्थियों द्वारा प्रयोग करने, मृदा नमूनों का विश्लेषण करने और मृदा में उपस्थित आकर्षक जैव विविधता के विषय में जानकारी जुटाने का अवसर प्रदान करेगा. व्यावहारिक गतिविधियों में संलग्न होने पर, विद्यार्थियों में समीक्षात्मक रूप से विचार करने का कौशल, समस्या निवारण करने की क्षमता और पारिस्थितिक तंत्र के अंतर्संबंधता की व्यापक समझ विकसित होगी. मृदा प्रयोगशाला कार्यक्रम केवल वैज्ञानिक अन्वेषण के विषय में नहीं है, अपितु यह पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी और सम्मान की भावना पैदा करने में जागरूक करेगा.
कृषि सखी अभिसरण कार्यक्रम- ग्रामीण परिदृश्य बदलने में कृषि सखियों की महत्वपूर्ण भूमिका है. कृषि मंत्रालय व ग्रामीण विकास मंत्रालय के बीच अभिसरण पहल के रूप में कार्यक्रमों को अभिसारित करने के लिए 30 अगस्त, 2023 को एमओयू किया गया था. इस के एक हिस्से के रूप में 70,000 कृषि सखियों को “पैराऐक्सटेंशन वर्कर” के रूप में प्रमाणित करने के लिए संयुक्त पहल के रूप में कृषि सखी प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया. ये सखियां, महत्वपूर्ण योजनाओं जैसे-प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, नेशनल मिशन औन नेचुरल फार्मिंग, जैव संसाधन केंद्रों व कई अन्य योजनाओं के क्रियान्वयन में भूमिका अदा करेगी.
कृषि सखी अर्थात स्टेट रूरल लाइवहुड मिशन द्वारा चिह्नित गांवों की महिलाओं को सहज क्षमता और खेतीगांवों से मजबूत जुड़ाव से ग्रामीण कृषि सेवाओं में व्याप्त अंतर को पाटने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है. कृषि सखी,जनभागीदारी रूप में प्राकृतिक खेती, मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन, परीक्षण पर जागरूकता सृजन बैठकों का आयोजन करेगी
इन पहलों का कृषि सखियों की आजीविका बढ़ाने पर सीधा प्रभाव पड़ेगा और कृषि कार्यक्रम व योजनाओं तक व्यापक पहुंच भी सुनिश्चित होगी. 3500 कृषि सखियों को प्रशिक्षित किया जा चुका है. इस कार्यक्रम को एकसाथ 13 राज्यों में क्रियान्वित किया जा रहा है.
उर्वरक नमूना परीक्षण के लिए सीएफक्यूसीटीआई पोर्टल
किसानों को गुणवत्तापूर्ण उर्वरकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने एवं उत्पादन, आपूर्ति और वितरण पर नियंत्रण करने की दृष्टि से कृषि मंत्रालय द्वारा केंद्रीय उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण और प्रशिक्षण संस्थान (सीएफक्यूसीटीआई) प्रयोगशाला स्थापित की गई. इस का लक्ष्य आयातित उर्वरकों की गुणवत्ता को नियंत्रित करना है. सीएफक्यूसीटीआई पोर्टल को वर्ष 2014-15 में बंदरगाहों पर आयातित उर्वरकों के नमूने लेने, नमूनों की सिस्टम कोडिंग/डिकोडिंग व आयातकों को सीधे औनलाइन विश्लेषण रिपोर्ट भेजने के उद्देश्य से तैयार किया गया, ताकि किसानों को आपूर्ति से पहले उन के उत्पाद की गुणवत्ता जानने में होने वाले विलंब से बचाया जा सके.
इस पोर्टल को नया रूप दिया गया है. बंदरगाहों पर नमूना संग्रहण व परीक्षण हेतु वन टाइम पासवर्ड/एसएमएस एप शुरू किया गया है. सिस्टम इसे आयातक के अधिकृत व्यक्ति के मोबाइल पर भेजेगा, जिस में व्यक्ति निर्धारित फार्म में निरीक्षक द्वारा भरे विवरणों को सत्यापित कर सकता है. सिस्टम द्वारा स्वचालित रूप से रैंडम बेसिस पर प्रयोगशालाओं को नमूना आवंटित किया जाएगा और विश्लेषण रिपोर्ट सिस्टम के माध्यम से आयातक के अधिकृत व्यक्ति की ई-मेल आईडी पर या सीधे आयातक को, जैसा भी मामला हो, जारी की जाएगी. दूसरे चरण में, पोर्टल को बंदरगाहों/डीलर बिक्री स्थान आदि पर लाइव सैंपलिंग सहित स्वदेशी रूप से निर्मित उर्वरकों के नमूने के लिए अपडेट किया जा सकता है.
नई दिल्ली: कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) भारत से कृषि निर्यात को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न उपाय कर रहा है. एपीडा की दूरदर्शी रणनीति में कुछ उत्पादों पर निर्भरता को कम करने और मूल्य श्रंखला को आगे बढ़ाने के लिए ताजा फल, सब्जियों, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ और पशु उत्पादों जैसे प्राथमिकता वाले उत्पादों पर केंद्रित उपाय के साथ निर्यात टोकरी का विस्तार करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण बदलाव शामिल है.
यूरोप, लैटिन अमेरिका और एशिया जैसे प्रमुख बाजारों में विस्तार पर ध्यान देने के साथ, एपीडा का लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने उत्पादों को प्रदर्शित करने के लिए वैश्विक सुपरमार्केट के साथ छोटीछोटी भागीदारी बनाना है. इस के अतिरिक्त यह संगठन शोध संस्थानों के साथ सहयोग के जरीए समुद्री प्रोटोकाल स्थापित कर के लौजिस्टिक खर्चों को कम करने पर काम कर रहा है.
ये रणनीतिक उपाय प्रतिस्पर्धात्मकता को बेहतर बना कर और सतत विकास को बढ़ावा दे कर भारत के कृषि निर्यात को बढ़ावा देने के लिए एक बार फिर इस मामले में एपीडा की प्रतिबद्धता को बताती है.
इस के अलावा श्रीअन्न बाजरा को बढ़ावा देने के लिए एपीडा के ठोस प्रयास एक स्वस्थ और अधिक विविध खाद्य परिदृश्य विकसित करने के सरकार के विजन के अनुरूप हैं. पिछले वर्ष अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष-2023 के दौरान विशेष ध्यान देने के साथ एपीडा ने श्रीअन्न ब्रांड के तहत मूल्यवर्धित उत्पादों की एक विस्तृत श्रंखला के विकास और एकीकरण की दिशा में बड़ी मेहनत से किया है.
इस रणनीतिक पहल ने पास्ता, नूडल्स, नाश्ते के लिए अनाज, आइसक्रीम, बिाकुट, एनर्जी बार और स्नैक्स सहित विभिन्न मूल्यवर्धित उत्पादों के बनाने और उन्हें मुख्यधारा में लाने में अग्रणी भूमिका निभाई.
श्रीअन्न उत्पाद श्रंखला में विविधता ला कर एपीडा ने न केवल नवाचार को बढ़ावा दिया है, बल्कि निर्बाधपूर्वक इन उत्पादों को निर्यात मूल्य श्रंखला से भी जोड़ा है. इन प्रयासों के माध्यम से एपीडा श्रीअन्न बाजरा की प्रोफाइल को खूब अच्छा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. इस की वजह से यह संगठन स्वस्थ आहार विकल्पों को बढ़ावा देने और भारत के कृषि निर्यात पोर्टफोलियो के विस्तार को सुगम बनाने के सरकार के व्यापक एजेंडे में योगदान दे रहा है.
अप्रैलनवंबर, 2023 के दौरान एपीडा ने इराक, वियतनाम, सऊदी अरब और ब्रिटेन जैसे बड़े बाजारों में निर्यात को आसान बनाया और पिछले वर्ष की तुलना में अच्छीखासी वृद्धि देखी गई. क्रमशः 110 फीसदी, 46 फीसदी, 18 फीसदी और 47 फीसदी की वृद्धि के साथ यह उल्लेखनीय निर्यात विस्तार प्रमुख बाजारों में भारतीय कृषि उत्पादों की बढ़ती वैश्विक मांग को रेखांकित करता है.
समावेशिता को बढ़ावा देने के अपने लक्ष्य के हिस्से के रूप में एपीडा वैश्विक कार्यक्रमों में स्टार्टअप, महिला उद्यमियों और किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ व एफपीसी) की भागीदारी को सक्षम बना कर उन को समर्थन दे रहा है.
निर्यातकों की प्रतिक्रिया के उत्तर में एपीडा तुर्की, दक्षिण कोरिया, केन्या, दक्षिण अफ्रीका और जापान जैसे उभरते हुए बाजारों में नए मेलों में भागीदारी की शुरुआत कर रहा है. इस सक्रिय दृष्टिकोण का मकसद भारतीय निर्यातकों के लिए बाजार तक ज्यादा पहुंच को आसान बनाना और सतत विकास के अवसरों को बढ़ावा देना है.
उदयपुर: महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, नई दिल्ली द्वारा एकदिवसीय कार्यशाला का आयोजन सीटीएई के सैमिनार हाल उदयपुर में किया गया, जिस में जलवायु परिवर्तन, कार्बन संचयन और कृषि सहकारिता पर किसानों व छात्रों को विस्तार से जानकारी दी गई.
अध्यक्षता करते हुए डा. पीएल गौतम, वाइस चांसलर, आरपीसीएयू ने मार्गदर्शन प्रदान करते हुए कहा कि हम सब को मिल कर काम करने की जरूरत है, तभी हम खेतों में नवाचार कर के अच्छी उपज ले सकते हैं. जलवायु परिवर्तन पर सब को मिल कर काम करने की बात कहीं. डा. अजीत कुमार कर्नाटक, वाइस चांसलर, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर ने संबोधित करते हुए कहा कि हमें खेतों में ऐसा काम करना है कि हम पैसों की तरफ न भागें, बल्कि पैसा हमारी तरफ भागे.
डा. जगदीश सिंह चैधरी ने जलवायु परिवर्तन पर प्रकाश डालते हुए खेती पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तार से जानकारी दे कर किसानों को लाभान्वित किया. डा. पीके सिंह डीन, सीटीएई, उदयपुर ने जल संरक्षण पर प्रकाश डालते हुए कार्बन संचयन के बारे में विस्तार से जानकारी दी.
अर्पण सेवा संस्थान के अध्यक्ष डा. शुभ करण सिंह ने संस्थान द्वारा किए जा रहे कामों के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि हम जलवायु परिवर्तन, कार्बन संचयन, कृषि सहभागिता पर काम करेंगे. डा. एनएल पवार ने खेती में कार्बन का क्या महत्व है, के बारे में प्रकाश डाला.
इस शुभ अवसर पर अर्पण सेवा संस्थान के नए लोगों का विमोचन मंच पर बैठे अतिथियों व उपस्थित किसान समुदाय द्वारा किया गया.
राम अवतार चैधरी ने कृषि के साथसाथ पशुपालन की तकनीक पर जानकारी दी. मंच का संचालन रमेश चंद शर्मा ने किया और धन्यवाद डा. चंद्रशेखर मीणा ने किया. कार्यशाला में खेरवाड़ा के तकरीबन 107 किसानों ने भाग लिया.
हिसार: चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय को मुलेठी (Liquorice) (वैराइटी एचएम-1) का उपयोग कर के सिल्वर नैनो कण बनाने की विधि पर भारतीय पेटेंट कार्यालय द्वारा पेटेंट प्रदान किया गया है. इस विधि को विश्वविद्यालय के आणुविक जीव विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी और जैव सूचना विज्ञान विभाग (एमबीबीएंडबी) की पूर्व विभागाध्यक्ष डा. पुष्पा खरब के नेतृत्व में उन के पीएचडी शोधार्थी डा. कनिका रानी और डा. निशा देवी ने विकसित किया है.
इस विधि को पेटेंट अधिनियम 1970 के अंतर्गत 20 वर्ष की अवधि के लिए 486872 संख्या से पेटेंट अनुदित किया गया है.
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने यह जानकारी देते हुए कहा कि पौलीहाउस, ग्रीनहाउस, बागबानी व सब्जियों में रूट नौट निमेटोड यानी जड़गांठ सूत्रकृमि के संक्रमण से बहुत अधिक नुकसान देखा गया है.
पौलीहाउस में नियंत्रित पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण निमेटोड की आबादी में वृद्धि हो जाती है और इन की अत्यधिक संक्रमण दर के कारण कोई फसल नहीं उग पाती है. इस वजह से किसानों को काफी ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है. इसलिए हम ने मुलेठी द्वारा निर्मित इन सिल्वर नैनो कणों को रूट नौट निमेटोड पर टैस्ट किया.
इस काम के लिए सूत्रकृमि विभाग के वैज्ञानिक डा. प्रकाश बानाकर का सहयोग लिया गया. शोधार्थियों ने यह जांच पहले लैब में, फिर स्क्रीनहाउस में की, दोनों ही केस में मुलेठी द्वारा निर्मित सिल्वर नैनो कण रूट नौट निमेटोड को मारने में सक्षम पाए गए, इस से संबंधित और भी शोध के काम जारी हैं.
प्रो. बीआर कंबोज ने बताया कि कमर्शियल कैमिकल नेमैटिसाइड (वाणिज्यिक रासायनिक सूत्र कृमिनाशक) की तुलना में मुलेठी द्वारा निर्मित सिल्वर नैनो कणों की बहुत कम मात्रा ही सूत्र कृमिनाशक के रूप में पाई गई है, इसलिए इन सिल्वर नैनो कणों को विभिन्न कृषि फसलों के लिए उपयोग किया जा सकता है.
विश्वविद्यालय द्वारा ईजाद की गई सिल्वर नैनो कण बनाने की यह विधि प्रभावी, किफायती और स्थिर है. यह सिल्वर नैनो कण एक साल से अधिक समय तक स्थिर पाए गए है.
विश्वविद्यालय के मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. नीरज कुमार ने कहा कि यह पेटेंट मुलेठी (वैराइटी एचएम-1) के मूल अर्क का उपयोग कर के उसे सिल्वर नैनो कणों में परिवर्तित करने की बेहतर विधि है. यह सिल्वर नैनो कण एक साल से अधिक समय तक स्थिर पाए गए हैं. इन नैनो कणों में नेमैटिसाइड (सूत्र कृमिनाशक) क्षमता की जांच इन विट्रो व इन विवो स्थितियों में भी की गई थी.
मुलेठी द्वारा निर्मित सिल्वर नैनो कणों के फायदे
पौधों के इस्तेमाल से नैनो कणों को बनाने की विधि में कैमिकल्स का कम उपयोग होता है और कोई अतिरिक्त जहरीला अवशेष भी नहीं बनता है. मुलेठी के इस्तेमाल से बनाए गए हमारे सिल्वर नैनो कण निमेटोड को मारने में सक्षम पाए गए हैं. किसान मुलेठी आधारित इन सिल्वर नैनो कणों का उपयोग निमेटोड संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए कर सकता है, जिस की वजह से तकरीबन सभी खेती वाली फसलों की उपज और गुणवत्ता को गंभीर नुकसान पहुंचता है.
हाल के सालों में देश में कई हिस्सों से खेतों से हल और बैल लुप्त होते जा रहे हैं. बहुत तेजी के साथ कृषि यंत्रीकरण हो रहा है. गेहूं, चावल जैसी फसलों में यंत्रीकरण 65 फीसदी के स्तर तक है, जबकि कपास में बहुत कम स्तर पर.
समग्र तौर पर देखें, तो भारत में कृषि यंत्रीकरण का स्तर 47 फीसदी है, जबकि चीन में यह 59 और ब्राजील में 75 फीसदी तक. वैसे, यंत्रीकरण के लिए सरकारी योजनाएं भी चल रही हैं. यंत्रों पर सब्सिडी भी है और कस्टम हायरिंग केंद्रों के साथ फार्म मशीनरी बैंक भी.
किसी भी इलाके में स्वाभाविक तौर पर मशीनें आप को कृषि क्षेत्र में देखने को मिल जाएंगी. किसान आंदोलनों पर भी ट्रैक्टरों को शक्ति के रुप में दर्शाने का प्रयास होता है. पर जहां तक महिलाओं की बात है, वे खुद मशीन बनी पहाड़ों से ले कर मैदानों तक में नजर आती हैं.
जब भी हम भारतीय किसान की तसवीर देखते हैं, तो वह ट्रैक्टर या दूसरे साजोसामान के साथ मूंछों पर ताव दे रहे किसी पुरुष किसान का चेहरा होता है. धान रोपती महिला, ड्रोन दीदी और लखपति दीदी जैसे संबोधनों के साथ प्रतीक रूप में कुछ ग्रामीण महिलाएं नजर आ जाती हैं. लेकिन यंत्रीकरण या मशीनीकरण का फायदा महिलाओं को सब से कम हुआ है.
आज ट्रैक्टर, टिलर व स्पेयर जैसे तमाम हथियार पुरुषों के पास हैं और अधिकतर महिलाएं हाथ से काम करते हुए खुद मशीन बनी हुई हैं. उन के लिए अनुसंधान की कमी नहीं, पर बहुत प्रयोगशाला से खेत के बीच काफी दूरियां हैं और महिला हितैषी कृषि यंत्रों का अकाल बना है. जो बने भी हैं, उन तक सामान्य महिलाओं की पहुंच नहीं है. तकनीकी और सामाजिक विकास के बावजूद उन का पिछड़ापन चिंता का विषय है.
दिक्कत यह है कि हमारे नीति निर्माताओं का ध्यान कभी भी महिला किसानों पर नहीं गया. तकनीकी और सामाजिक विकास के बावजूद वे बेहद पिछड़ी हैं. हम उन के जीवन को सुविधाजनक बनाने लायक यंत्र तक जुटा नहीं सके हैं. किसान महिलाएं लगातार हाथ से खटती हैं, जिस का असर उन की सेहत पर भी पड़ता है और कार्यकुशलता पर भी.
पहाड़ की महिला किसानों के लिए फौडर कलक्टर, चाय की पत्तियों की चुनाई का उपकरण, छाता, घास उठाने का यंत्र, पंखा करने का यंत्र और कटर आदि बने, पर उन की सीमित सुलभता है.
वैसे तो 18वीं शताब्दी में उद्योगों में यंत्रीकरण के बाद से कृषि उपकरणों और यंत्रों का बनना आरंभ हो गया. 20वीं शताब्दी में हलों में पर्याप्त सुधार हुआ और आगे रबड़ के पहिए के कारण कृषि यंत्रों और ट्रैक्टरों के भार खींचने में काफी सुविधा हुई.
भारत में हालांकि मानव और पशुचालित यंत्र अभी भी खेती को काफी मदद कर रहे हैं, पर तमाम उन्नतशील कृषि यंत्रों के निर्माण की होड़ मची है. हरित क्रांति के बाद से कृषि यंत्रीकरण में उत्तर भारत में काफी तेजी आई है, लेकिन छोटे किसानों में यंत्रीकरण धीमी गति से हो रहा है. छोटे किसानों और महिलाओं की जरूरतों वाले कृषि यंत्र बनाने में कंपनियों की खास रुचि नहीं, क्योंकि इस में सीमित मुनाफा है. लेकिन ड्रोन आदि मुनाफे की खेती बने हुए हैं, तो सारा जोर उधर ही है.
हाल के सालों में मैं ने हिमाचल प्रदेश के चौधरी श्रवण कुमार हिमाचल कृषि विश्वविद्यालय और डा. वाईएस परमार वानिकी विश्वविद्यालय का कई बार दौरा किया. चौधरी श्रवण कुमार हिमाचल कृषि विश्वविद्यालय में मुझे यह देख कर हैरानी हुई थी कि वहां होम साइंस विभाग में काफी बड़ी तादाद में पुरुष छात्र पढ़ाई कर रहे थे. होम साइंस महिलाओं का विषय माना जाता है, पर हिमाचल प्रदेश की बालिकाओं ने कृषि शिक्षा में पुरुषों का वर्चस्व तोड़ा.
देश में पहला कृषि विश्वविद्यालय 1962 में शुरू हुआ था, लेकिन छात्राओं के लिए खेती रुचि का विषय नहीं रहा. इस नाते उन की भागीदारी बमुश्किल 5 फीसदी तक होती थी. हिमाचल प्रदेश में वर्ष 1995-96 के बाद बालिकाओं ने कृषि शिक्षा की ओर कदम बढ़ाए और तब उन का नामांकन 14 फीसदी तक पहुंच गया. वर्ष 2004-05 तक 43 फीसदी और एक दशक पहले 2010 में 54 फीसदी पर आ गया, जबकि बालकों का वर्चस्व टूट गया. तब से बालिकाएं अग्रणी भूमिका में हैं.
यह तो विश्वविद्यालय की बात है. पर हिमाचल प्रदेश या देश के दूसरे पहाड़ी राज्यों से ले कर केरल तक की तसवीर देखें, तो पता चलता है कि खेतीबारी की रीढ़ महिलाएं ही हैं. कृषि शिक्षा में उन की भागीदारी कम हो या ज्यादा, पर खेतों में बहुत अधिक है. देश में एक से एक काबिल महिला किसान हैं.
Women’s Day
खेतीबारी में महिलाएं आखिर क्या काम नहीं करती हैं. बोआई, रोपाई, सिंचाई, निराई, कटाई, ढुलाई, छंटाई, भराई, बंधाई और पशुपालन से जुड़े काम जैसे चारा डालना, चराने ले जाना, दूध निकालना, सफाई करना, गोबर बटोरना व उपले यानी कंडे बनाना, दूध का प्रसंस्करण करना सभी में ज्यादातर महिला श्रम काम आता है.
वे ट्रैक्टर भी चलाती हैं और मोटर भी. लेकिन इतना सब होने के बाद भी वे क्या खेतीबारी की मुख्यधारा में शामिल हैं? क्या सरकार उन को वास्तव में किसान मानती है?
वर्ष 2011 की जनगणना में महिला किसानों की संख्या 3 करोड़, 60 लाख और महिला कृषि मजदूरों की संख्या सवा 6 करोड़ थी, जो अब काफी बढ़ चुकी है.
लेकिन खेतीलायक जमीनों के स्वामित्व में भूजोतों के हिसाब से महिला किसानों की 13.87 फीसदी ही है. उन को तमाम योजनाओं से सीमित फायदा हो रहा है. भूमि, कृषि ऋण, जल, बीज और बाजार जैसे संसाधनों में उन के साथ भेदभाव बरकरार है. तमाम नीतिगत खामियों के नाते वे सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाती हैं.
संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति ने कृषि क्षेत्र में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने की सिफारिश करते हुए वर्ष 2018 में माना था कि कृषि उत्पादन में महिला किसानों की अनूठी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
यूपीए सरकार के दौरान वर्ष 2007 में राष्ट्रीय कृषि नीति में महिला किसानों को मुख्यधारा में लाने की योजना बनाई गई थी. कई योजनाओं में 30 फीसदी महिला किसानों को लाभ देने के प्रावधान शामिल हैं. मोदी सरकार ने भी कई कदम महिला किसानों के हक में उठाए, लेकिन मशीन बनी महिलाओं का जीवन सहज नहीं हुआ.
बीज तैयार करने से ले कर कटाई के बाद की प्रक्रिया में महिलाओं की 80 फीसदी से ज्यादा भागीदारी होती है. खेती में 65 फीसदी मानवीय श्रम लगता है. लगातार एक स्थिति में शरीर रखने से मांसपेशियों पर खिंचाव होता है और शारीरिक ऊर्जा की अधिक खपत होती है. इस से महिलाएं कई बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं.
पशुपालन क्षेत्र में 71 फीसदी महिलाएं हैं, जबकि डेयरी क्षेत्र में 1.5 करोड़ पुरुषों की तुलना में 7.5 करोड महिलाएं काम करती हैं. चारा देने, दूध निकालने का काम महिलाएं करती हैं, जबकि पशुओं का परिवहन में उपयोग करने और चराने व जोतने जैसी गतिविधि पुरुषों के हाथ होती है.
महिलाएं डेयरी सहकारिता आंदोलन की रीढ़ है. हमारी महिला किसान सामान्यतया छोटी और सीमांत किसान हैं. आधे महिला किसानों के पास आधा हेक्टेयर से भी कम जमीन है और कागजों पर महिलाओं के नाम जमीनें सीमित होने के कारण उन को न खेती के लिए सुविधाएं मिलती हैं और न ही कर्ज. भले ही उन के कंधों पर खेती टिकी है, पर कृषि नीतियां उन को किसान ही नहीं मानती.
हालांकि 15 अक्तूबर, 2017 को पहली बार ‘महिला किसान दिवस’ मनाने के साथ भारत ने दुनिया को यह संकेत दे दिया है कि वह महिला किसानों के योगदान को स्वीकार रहा है. पर जमीनी हकीकत को देखें, तो यह सब प्रतीकात्मकता से अधिक नहीं लगता है.
कृषि में महिलाओं की भागीदारी को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1996 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भुवनेश्वर में सैंटल इंस्टीट्यूट फौर वूमन इन एग्रीकल्चर स्थापित किया था. यह कृषि में महिलाओं से जुड़े विभिन्न आयामों पर अध्ययन और अनुसंधान कर रहा है. तमाम तकनीकों का विकास किया है, जिस से खेती में महिलाओं की कठिनाइयां कम हो सकें.
सरकार ने देश के सभी कृषि विज्ञान केद्रों में एकएक महिला कृषि वैज्ञानिक की तैनाती का भी आदेश भी दिया है, लेकिन हकीकत यह है कि अभी भी अधिकतर केंद्रों पर गृह विज्ञान में ही काम हो रहा है, जिस में मे खुद पारंगत हैं.
खेतिहर मजदूरों में भी महिलाओं का अनुपात लगातार बढ़ रहा है, लेकिन उन की स्थिति कोई बहुत बेहतर नहीं है. खादी सैक्टर में भी ग्रामीण महिलाओं को अनाज और दालों के प्रसंस्करण, पापड़ और मसाले बनाने, अखाद्य तिलहनों का संग्रह से ले कर तमाम क्षेत्रों में प्रशिक्षण का इंतजाम किया गया. लेकिन अभी बहुतकुछ करने की दरकार है.
मनरेगा ने ग्रामीण महिला श्रमिकों की दशा को उन इलाकों में थोड़ा बेहतर बनाया है, जहां इस का जमीनी क्रियान्वयन ठीक है. लेकिन आयोजना के स्तर पर महिलाओं का योगदान अधिक नहीं है, क्योंकि वे इतनी शिक्षित औऱ जागरूक नहीं हैं. ग्रामीण भारत की अधिकांश महिलाएं अब भी रोजगार के लिए कृषि पर ही आश्रित हैं. अगर रोज़गार की गुणवत्ता की बात की जाए, तो यह अनिश्चित ही है.
बेशक, भारतीय महिलाएं सफलता के नए सोपान तय कर रही हैं. खेतीबारी में भी वे सफलता की तमाम कहानियों की नायिकाएं हैं, लेकिन ग्रामीण महिलाओं और खासतौर पर खेतिहर श्रम में लगी उन महिलाओं को भुला देते हैं, जिन का इस देश के विकास में सब से महत्वपूर्ण योगदान है.
पुरुषों ने अलाभकारी खेती को महिलाओं के भरोसे छोड़ शहरों की ओर अपने को केंद्रित कर दिया. तमाम गांव महिलाओं के कंधों पर खड़े हैं. लेकिन क्या ‘महिला दिवस’ देश की रीढ़ इन महिला किसानों और खेतिहर मजदूरों को मशीन बने रहने की विवशता पर भी कुछ चिंतन करेगा?
खेती में प्रयोग में लाए जाने वाले कृषि निवेशों में से सब से मंहगी सामग्री रासायनिक उर्वरक है. उर्वरकों के शीर्ष उपयोग की अवधि हेतु खरीफ एवं रबी के पूर्व उर्वरक विनिर्माता फैक्टरियों और विक्रेताओं द्वारा नकली एवं मिलावटी उर्वरक बनाने एवं बाजार में उतारने की कोशिश होती है. इस का सीधा असर किसानों पर पड़ता है.
नकली एवं मिलावटी उर्वरकों की समस्या से निबटने के लिए समयसमय पर विभागीय अभियान चला कर जांचपड़ताल की जाती है, फिर भी यह आवश्यक है कि खरीदारी करते समय किसान उर्वरकों की शुद्धता मोटेतौर पर उसी तरह से परख लें, जैसे बीजों की शुद्धता, बीज को दांतों से दबाने पर कट और किच्च की आवाज से, कपड़े की गुणवत्ता उसे छू कर या मसल कर और दूध की शुद्धता की जांच उसे उंगली से टपका कर लेते हैं.
किसानों के बीच प्रचलित उर्वरकों में से प्रायः डीएपी, जिंक सल्फेट, यूरिया और एमओपी नकली व मिलावटी रूप में बाजार में उतारे जाते हैं. खरीदारी करते समय किसान इस की प्रथमदृष्टया परख सरल विधि से कर सकते हैं और अगर उर्वरक नकली पाया जाए, तो इस की पुष्टि किसान सेवा केंद्रों पर उपलब्ध टेस्टिंग किट से की जा सकती है.
टेस्टिंग किट किसान सेवा केंद्रों पर उपलब्ध होती हैं. ऐसी स्थिति में कानूनी कार्यवाही किए जाने के लिए इस की सूचना जिले के उप कृषि निदेशक (प्रसार) या जिला कृषि अधिकारी एवं कृषि निदेशक, उत्तर प्रदेश को दी जा सकती है.
यूरिया पहचान विधि
यूरिया के असली होने की पहचान की उस के दाने सफेद चमकदार, लगभग समान आकार के होते हैं. इस के दाने पानी में डालने पर पूरी तरह घुल जाते हैं और घोल छूने पर ठंडी अनुभूति. जब यूरिया के दाने को गरम तवे पर रखा जाता है, तो यह पिघल जाता है.
एकचैथाई टेबल स्पून यूरिया में 8 से 10 बूंद सिल्वर नाइट्रेट मिलाने पर अगर यूरिया पूरी तरह घुल जाता है और बिलकुल पारदर्शी गोल प्राप्त होता है, तब यूरिया असली है. यदि सिल्वर नाइट्रेट मिलने पर घोल में दही जैसे थक्के बन जाते हैं, तब यूरिया नकली है.
डीएपी (डाई) पहचान विधि
असली डीएपी की पहचान है कि यह सख्त, दानेदार, भूरा, काला, बादामी रंग और नाखूनों से आसानी से नहीं टूटता है. डीएपी के कुछ दानों को ले कर तंबाकू की तरह उस में चूना मिला कर मलने पर तेज गंध निकलती है, जिसे सूंघना असहनीय हो जाता है. असली डीएपी को तवे पर धीमी आंच में गरम करने पर दाने फूल जाते हैं.
डीएपी के 4 से 5 दाने ले कर और उस में बुझा चूना मिलाने पर अत्यंत तीक्ष्ण गंध आती है. यदि तीक्ष्ण गंध नहीं निकलती है, तब डीएपी नकली हो सकती है
आधा चम्मच पिसा हुआ डीएपी लें. उस के ऊपर 10 मिलीलिटर आसुत जल और एक मिलीलिटर संद्रप्त नाइट्रिक एसिड डालें. यदि डीएपी पूरी तरह घुल जाती है और घोल का रंग पारदर्शी रहता है, तब डीएपी शुद्ध है. अगर डीएपी पूरी तरह नहीं घुलता है और घोल का रंग मटमैला रहता है, तब डीएपी अशुद्ध है.
सुपर फास्फेट पहचान विधि
यह सख्त दानेदार, भूरा काला, बादामी रंगों से युक्त और नाखूनों से आसानी से न टूटने वाला उर्वरक है. यह चूर्ण के रूप में भी उपलब्ध होता है. इस दानेदार उर्वरक की मिलावट बहुधा डीएपी एवं एनपी के मिक्सचर उर्वरकों के साथ की जाने की संभावना बनी रहती है.
परीक्षण
इस दानेदार उर्वरक को यदि गरम किया जाए, तो इस के दाने फूलते नहीं हैं, जबकि डीएपी व अन्य कम्प्लैक्स के दाने फूल जाते हैं. इस प्रकार इस की मिलावट की पहचान आसानी से कर सकते हैं.
जिंक सल्फेट पहचान विधि
जिंक सल्फेट में मैग्नीशियम सल्फेट प्रमुख मिलावटी रसायन हैं. भौतिक रूप में समानता के कारण नकलीअसली की पहचान कठिन होती है. अगर एक फीसदी जिंक सल्फेट के घोल में 10 फीसदी सोडियम हाईड्रौक्साइड का घोल मिलाया जाए, तो यह थक्केदार घना अवक्षेप बन जाता है. मैग्नीशियम सल्फेट के साथ ऐसा नहीं होता.
जिंक सल्फेट के घोल में पतला कास्टिक 10 फीसदी का घोल मिलाने पर सफेद, मटमैला माड़ जैसा अवक्षेप बनता है, जिस में गाढ़ा कास्टिक 40 फीसदी का घोल मिलाने पर अवक्षेप पूरी तरह घुल जाता है. यदि जिंक सल्फेट की जगह पर मैग्नीशियम सल्फेट है, तो अवशेष नहीं घुलेगा.
एमओपी (पोटाश खाद) पहचान विधि
यह सफेद कणाकार, पिसे नमक और लाल मिर्च जैसा मिश्रण होता है. इस के कण नम करने पर आपस में चिपकते नहीं हैं और पानी में घोलने पर खाद का लाल भाग पानी में ऊपर तैरता है.
हिसार: चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के कृषि विज्ञान केंद्र, सदलपुर द्वारा ‘गौ आधारित प्राकृतिक खेती’ विषय पर जिलास्तरीय जागरूकता कार्यक्रम व कृषि विज्ञान मेले का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज रहे, जबकि विश्वविद्यालय के कुलसचिव एवं विस्तार शिक्षा निदेशक डा. बलवान सिंह मंडल ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की.
प्रो. बीआर कंबोज ने किसानों को जीवामृत, बीजामृत, नीमास्त्र अग्निस्त्र, दशप्रर्णी अर्क आदि का प्रयोग कर के प्राकृतिक खेती को एक सफल मौडल के रूप में विकसित कर के अपनी आय बढ़ाने के लिए प्रेरित किया. गौ आधारित प्राकृतिक खेती से न केवल पर्यावरण को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी, बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
उन्होंने किसानों को कृषि कार्यों में नई तकनीक अपनाने की सलाह दी. साथ ही, किसानों को अपने उत्पादों का प्रसंस्करण कर के मूल्य संवर्धन करने और अपने उत्पादों की खुद कीमत तय कर के विपणन कर के अधिक लाभ कमाया जा सकता है. उन्होंने फार्मर प्रोड्यूसर और्गैनाइजेशन के तौर पर समूह बना कर काम करने, जिस में शुद्ध अनाज, सब्जी, फल तैयार कर के अधिक उत्पादन लेने के लिए किसानों को जागरूक किया.
विश्वविद्यालय के कुलसचिव एवं विस्तार शिक्षा निदेशक डा. बलवान सिंह मंडल ने अपने अध्यक्षीय भाषण में किसानों को जैविक एवं प्राकृतिक खेती में अंतर को समझाते हुए, वर्तमान समय में प्राकृतिक खेती के महत्व पर विस्तार से जानकारी दी. उन्होंने बताया कि सरकार किसानों को प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए प्रोत्साहन दे रही है. किसान विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान केंद्रों से तकनीकी जानकारी ले कर सीमित क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की शुरुआत कर सकते हैं.
विश्वविद्यालय में परीक्षा नियंत्रक डा. पवन कुमार, वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. ओपी बिश्नोई, डा. राजेश आर्य व डा. सुनील ने किसानों को विश्वविद्यालय द्वारा ईजाद की गई विभिन्न किस्मों व तकनीकों की जानकारी दी.
सेवानिवृत वैज्ञानिक डा. ओपी नेहरा, डा. बीडी यादव ने विभिन्न फसलों में प्राकृतिक खेती की संभावनाओं के बारे में बताया. कृषि विज्ञान केंद्र के कोआर्डिनेटर डा. नरेंद्र कुमार ने किसानों को कृषि क्षेत्र में नवाचार द्वारा स्वरोजगार स्थापित कर के अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए सरकार की विभिन्न योजनाओं से जुड़ कर लागत कम कर के मुनाफा बढ़ाने की जानकारी दी.
कार्यक्रम के दौरान खेतीबारी से जुड़ी मशीनरी, उर्वरक, सिंचाई में काम आने वाली सिस्टम और अन्य इनपुट बनाने वाली कंपनियों की प्रदर्शनियां भी लगाई गईं, जिस में सब्जी उत्पादन में काम आने वाली मशीनें, शतप्रतिशत जल विलय उर्वरक और नैनो यूरिया व नैनो डीएपी इत्यादि उत्पादों के बारे में किसानों को जानकारी दी गई.
कार्यक्रम के दौरान प्रगतिशील किसान सरपंच नथूराम, श्रीरामेश्वर करिर, शिवशंकर, कृष्ण रावलवास, सरजीत, विक्रम खांडा खेड़ी, चिरिंजी और कार्तिक को सम्मानित किया गया. इन प्रगतिशील किसानों ने प्राकृतिक खेती के बारे में अपने अनुभव साझा कर के अन्य किसानों को भी प्रेरित किया. इस अवसर पर केवीके के वैज्ञानिक डा. कुलदीप व डा. दिनेश भी उपस्थित रहे.
सोनीपत: महाराणा प्रताप उद्यान विश्वविद्यालय, करनाल के कुलपति डा. सुरेश कुमार मल्होत्रा ने 2 मार्च को क्षेत्रीय मशरूम अनुसंधान केंद्र, मुरथल में वैज्ञानिक पद्धति से मधुमक्खीपालन विषय को ले कर सातदिवसीय कार्यशाला का शुभारंभ किया.
कार्यशाला के शुभारंभ के बाद कुलपति डा. सुरेश कुमार मल्होत्रा ने केंद्र का निरीक्षण कर केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही गतिविधियों के बारे में जानकारी हासिल की. केंद्र में पहुंचने पर केंद्र निदेशक व कुलसचिव डा. अजय सिंह ने मुख्य अतिथि कुलपति डा. सुरेश कुमार मल्होत्रा और विशिष्ट अतिथि, कृषि विभाग के पूर्व क्वालिटी कंट्रोल अधिकारी डा. जेके श्योरोण, जीत खादी ग्रामोद्योग के प्रधान देवव्रत बाल्यान, सिंधु ग्रामोद्योग समिति के प्रधान अनिल सिंह सिंधू, गोबिंद अतुल्य बी मास्टर प्रोड्यूस कंपनी लिमिटेड का स्वागत किया.
कुलपति डा. सुरेश कुमार मल्होत्रा ने प्रतिभागियों को संबोधित करते हुए कहा कि किसानों को फसल विविधीकरण की ओर तेजी से बढ़ना चाहिए. खेती में नई तकनीकों का प्रयोग करना चाहिए, जो उन के लिए सकारात्मक दूरगामी परिणाम देने वाली साबित होगी.
उन्होंने किसानों को खेती में उन्नत किस्मों का प्रयोग करने की सलाह दी, जिस से फसल की ज्यादा पैदावार के साथसाथ गुणवत्ता में सुधार होगा. किसान अपनी फसलों को अच्छे दामों पर बेच कर भारी मुनाफा कमा सकेंगे. किसानों, युवाओं, महिलाओं को मधुमक्खी और मशरूम को व्यवसाय के तौर पर अपनाना चाहिए.
कृषि विभाग के पूर्व क्वालिटी कंट्रोल अधिकारी व मधुमक्खीपालन के एडीओ डा. जेके श्योरोण ने मधुमक्खीपालन को ले कर विस्तार से जानकारी दी. ट्रेनिंग कोर्डिनेटर रविंद्र मलिक रहे.
कुलपति ने किया केंद्र का निरीक्षण
कुलपति डा. सुरेश कुमार मल्होत्रा ने केंद्र का निरीक्षण किया. निरीक्षण के दौरान उन्होंने हाईटैक नर्सरी, पौलीहाउस, स्पान लैब व मशरूम यूनिट को देखा. इस बारे में केंद्र के निदेशक ने कुलपति को बताया कि केंद्र में किस प्रकार खाद व बीज बना कर किसानों को उपलब्ध करवाया जाता है.
इस पर कुलपति ने कहा कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा उन्नत किस्म का बीज उपलब्ध करवाया जाए, ताकि किसानों को एमएचयू से ज्यादा फायदा पहुंचे.
प्रतिभागियों को वितरित किए सर्टिफिकेट
कुलपति डा. सुरेश कुमार मल्होत्रा ने मशरूम उत्पादन प्रसंस्करण एवं विपणन विषय पर पांचदिवसीय कार्यशाला समापन होने पर प्रतिभागियों को सर्टिफिकेट व मशरूम का बीज वितरित किया. कार्यशाला में प्रदेशभर के अलगअलग जिलों से आए 24 प्रतिभागियों ने शिरकत की.
उन्होंने कहा कि ट्रेनिंग का मकसद मशरूम उत्पादन के दौरान होने वाली परेशानियों को पहले ही दूर करना है, ताकि प्रतिभागी मशरूम का उत्पादन अच्छे से कर पाएं. ट्रेनिंग के माध्यम से किसानों को जागरूक करना है. ट्रेनिंग कोर्डिनेटर डा. मनीष कुमार रहे.
असम:केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा ने आईएआरआई, दिरपई चापोरी, गोगामुख, असम में प्रशासनिक सह शैक्षणिक भवन, मानस गैस्ट हाउस, सुबनसिरी गल्र्स होस्टल और ब्रह्मपुत्र बौयज होस्टल का वर्चुअल माध्यम से उद्घाटन किया. केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण राज्य मंत्री कैलाश चैधरी उद्घाटन समारोह में उपस्थित थे और उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, असम में प्रदर्शनी स्टाल का दौरा किया.
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी का पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास पर विशेष बल है. केंद्र सरकार ने पूर्वोत्तर राज्यों में कृषि के विकास की कमियों को दूर कर उन्हें मुख्यधारा में लाने का काम किया है. इस क्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास को एक नया आयाम दिया है. सरकार 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाने के संकल्प के साथ काम कर रही है, जिस में कृषि की भूमिका बेहद अहम है.
मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि खाद्य तेल आयात का बोझ कम करने और तिलहन में आत्मनिर्भर बनने के लिए 11,000 करोड़ रुपए का मिशन चलाया जा रहा है. हमें इस सोच के साथ काम करना है कि आने वाले दिनों में हम आयात नहीं, बल्कि निर्यात करेंगे. उन्होंने कहा कि जब हम एक विजन के साथ काम करते हैं, तो हमें सफलता जरूर मिलती है.
अर्जुन मुंडा ने जलवायु अनुकूल फसल किस्मों के विकास पर भी बल दिया और कहा कि कृषि शिक्षा को आजीविका व रोजगार के अवसरों से जोड़ा जाना चाहिए. जैव विविधता अध्ययन पर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है. उन्होंने आशा व्यक्त की कि एक साल में यह संस्थान शोध के लिए सब से पसंदीदा विकल्प होगा.
उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि प्रौद्योगिकियों को जलवायु और लैंगिक स्तर पर तटस्थ होना चाहिए. वहीं राज्य मंत्री कैलाश चैधरी ने वैज्ञानिकों से उत्तरपूर्व क्षेत्र में मौजूद प्राकृतिक विविधता का दोहन करने का आग्रह किया.
उन्होंने प्रकृति के करीब प्रौद्योगिकियों के विकास पर भी बल दिया और कहा कि हमें जैविक और प्राकृतिक खेती से जुड़ना चाहिए. साथ ही, उन्होंने दलहन और तिलहन से संबंधित अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित करने पर बल दिया, ताकि देश को दालों के निर्यात पर बहुत अधिक पैसा खर्च न करना पड़े.
उन्होंने कहा कि कृषि अनुसंधान को उद्यमिता से जोड़ना होगा और यह सब तभी संभव है, जब विभिन्न संगठनों के बीच विचारों का मुक्त आदानप्रदान हो.
असम सरकार के शिक्षा, सामान्य जनजाति और पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री डा. रनोज पेगु ने आईएआरआई, असम के प्रयासों की सराहना की. उन्होंने इस बात पर बल दिया कि आईएआरआई, असम द्वारा किया जाने वाला शोध कार्य पौधों, पशुओं और मत्स्य विविधता पर विचार करने के साथसाथ पर्यावरण के संरक्षण में भी सहायक होगा.
लखीमपुर के सांसद प्रदान बरुआ ने कहा कि यह हमारा सपना था कि असम में इस स्तर का एक संस्थान बने. हमें आशा है कि यह संस्थान पूरे उत्तरपूर्व भारत के युवा प्रतिभाओं की उम्मीदों पर खरा उतरेगा.
डीएआरई के सचिव और आईसीएआर, नई दिल्ली के महानिदेशक डा. हिमांशु पाठक ने वर्चुअल माध्यम से उपस्थित लोगों को संबोधित किया और आईएआरआई, असम के उद्देश्यों व दायित्वों के बारे में विस्तार से बताया.
उन्होंने इस बात पर बल दिया कि उत्तरपूर्व भारत में अपार संभावनाएं हैं, जिन्हें अनुसंधान और विकास के माध्यम से तलाशने की जरूरत है.
उन्होंने आश्वासन दिया कि आईसीएआर यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा कि संस्थान तेजी से प्रगति करता रहे. इस संस्थान का खुलना आईसीएआर के इतिहास में एक यादगार दिन है. उन्होंने संस्थान के विकास से जुड़े लोगों को इस उपलब्धि के लिए बधाई दी. आईएआरआई के निदेशक डा. एके सिंह ने आईएआरआई, असम की श्रमिक समिति द्वारा किए गए सभी प्रयासों की सराहना की. इस अवसर पर डा. डीके सिंह, डा. अनिल सिरोही, डा. मनोज खन्ना, डा. अनुपम मिश्रा, भार्गव शर्मा, डा. वाईएल सिंह, डा. केबी पुन, अंकुर भराली और धेमाजी के जिला कमिश्नर भी उपस्थित थे.