रबी व खरीफ उपज खरीद के लिए राज्य खाद्य सचिवों की बैठक

नई दिल्लीः भारत सरकार के उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के अधीन खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग (डीएफपीडी) ने 28 फरवरी, 2024 को नई दिल्ली में राज्यों के खाद्य सचिवों की एक बैठक आयोजित की. इस बैठक का उद्देश्य रबी विपणन सीजन (Rabi Marketing Season)  2024-25 और खरीफ विपणन सीजन (Kharif Marketing Season) 2023-24 में रबी फसलों की खरीद व्यवस्था पर चर्चा करना था. इस बैठक की अध्यक्षता भारत सरकार के डीएफपीडी सचिव ने की.

इस बैठक में खरीद को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों जैसे कि मौसम की स्थिति का पूर्वानुमान, उत्पादन का अनुमान और राज्यों की तैयारी की समीक्षा की गई. इस में विचारविमर्श के बाद आगामी आरएमएस 2024-25 के दौरान गेहूं खरीद का अनुमान 300-320 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) की सीमा में तय किया गया. इसी प्रकार केएमएस 2023-24 (रबी फसल) के दौरान धान की खरीद का अनुमान 90-100 लाख मीट्रिक टन की सीमा में तय किया गया.

वहीं, केएमएस 2023-24 (रबी फसल) के दौरान राज्यों की ओर से खरीद के लिए तकरीबन 6.00 लाख मीट्रिक टन मोटे अनाज व बाजरा (श्रीअन्न) की मात्रा का भी अनुमान लगाया गया. राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को फसलों के विविधीकरण और आहार स्वरूप में पोषण बढ़ाने के लिए मोटे अनाज की खरीद पर अपना ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी गई.

इस के अलावा तेलंगाना राज्य सरकार ने आपूर्ति श्रंखला अनुकूलन के संबंध में अपनाई गई अच्छे अभ्यासों को साझा किया और भारत सरकार की इस पर्यावरण अनुकूल पहल के माध्यम से सालाना 16 करोड़ रुपए की बचत का उल्लेख किया. उत्तर प्रदेश सरकार ने ई-पीओएस को इलैक्ट्रौनिक वजन पैमाने के साथ जोड़ने के संबंध में सफल पहल साझा की, जिस ने लाभार्थियों को उन के लिए निर्धारित मात्रा के अनुसार खाद्यान्न की आपूर्ति प्रभावी ढंग से सुनिश्चित की है.

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने राज्य एमएसपी खरीद अनुप्रयोगों की डिजिटल परिपक्वता पर अपना मूल्यांकन अध्ययन प्रस्तुत किया. इस के अलावा राज्य सरकारों को केएमएस 2024-25 की शुरुआत से पहले खरीद प्रणाली में पारदर्शिता व दक्षता लाने के लिए एग्रीस्टैक पोर्टल के मानक और मुख्य विशेषताओं के अनुरूप अपने मौजूदा अनुप्रयोगों को अपनाने या उन में सुधार की सलाह दी गई.

इस बैठक के दौरान नामित डिपो से उचित मूल्य की दुकानों तक खाद्यान्न के परिवहन के लिए आपूर्ति श्रंखला अनुकूलन, खरीद केंद्रों में बुनियादी ढांचे में सुधार, सर्वश्रेष्ठ पिसाई अभ्यासों व डिजिटल कौमर्स के लिए ओपन नैटवर्क (ओएनडीसी) पर उचित मूल्य की दुकानों को लाने से संबंधित मुद्दों पर भी चर्चा की गई.

इस बैठक में एफसीआई के अध्यक्ष व प्रबंध निदेशक और राज्यों के प्रधान सचिव व सचिव (खाद्य) सहित भारतीय मौसम विभाग, कृषि एवं किसान कल्याण विभाग, भारतीय कृषि सहकारी विपणन संघ और भारतीय राष्ट्रीय उपभोक्ता सहकारिता संघ लिमिटेड के अधिकारी उपस्थित थे.

आठ हजार से अधिक एफपीओ (FPO) पंजीकृत

नई दिल्ली : देश में उपभोक्ताओं को अपनी उपज औनलाइन बेचने के लिए 8,000 पंजीकृत किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) में से लगभग 5,000 को ओपन नेटवर्क फोर डिजिटल कौ एलमर्स (ओएनडीसी) पोर्टल पर पंजीकृत किया गया है.

देश के किसी भी हिस्से में अपने खरीदारों तक पहुंचने के लिए ओएनडीसी पर एफपीओ को शामिल करना उत्पादकों को बेहतर बाजार पहुंच प्रदान करने के केंद्र सरकार के उद्देश्य के अनुरूप है. इस कदम का उद्देश्य इन किसान उत्पादक संगठनों की डिजिटल मार्केटिंग, औनलाइन भुगतान, बिजनैस-टू-बिजनैस और बिजनैस-टू-कंज्यूमर लेनदेन तक सीधी पहुंच को सशक्त बनाना है.

6,865 करोड़ रुपए के बजटीय प्रावधान के साथ वर्ष 2020 में शुरू की गई “10,000 किसान उत्पादन संगठनों (एफपीओ) का गठन और संवर्धन” नामक एक नई केंद्रीय क्षेत्र योजना के तहत 10,000 किसान उत्पादक संगठनों के सरकारी लक्ष्य की तुलना में 8,000 से अधिक एफपीओ पंजीकृत किए गए हैं.

इन एफपीओ में छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसानों का एकत्रित होना, किसानों की आय बढ़ाने के लिए उन की आर्थिक ताकत और बाजार संपर्क बढ़ाने में भी सहायता प्रदान करता है.

एफपीओ किसानों को बेहतर गुणवत्ता वाली वस्तुओं का उत्पाद का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से बेहतर प्रौद्योगिकी, ऋण, बेहतर इनपुट और अधिक बाजारों तक पहुंच की सुविधा प्रदान करते हैं.

एफपीओ को 3 वर्ष की अवधि के लिए प्रति एफपीओ 18 लाख रुपए तक की वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है. इस के अलावा एफपीओ को संस्थागत ऋण पहुंच सुनिश्चित करने के लिए 15 लाख प्रति एफपीओ की सीमा और पात्र ऋण देने वाली संस्थाओं से प्रति एफपीओ 2 करोड़ रुपए के परियोजना ऋण के साथ एफपीओ के प्रति किसान सदस्यों को 2,000 रुपए तक मैचिंग इक्विटी अनुदान देने का प्रावधान किया गया है.

अभी तक 10.2 लाख से अधिक किसानों को कवर करते हुए 246 करोड़ रुपए की गारंटीकृत कवरेज के लिए 1,101 एफपीओ को क्रेडिट गारंटी जारी की गई है. 145.1 करोड़ रुपए का मैचिंग इक्विटी अनुदान पात्र 3,187 एफपीओ के बैंक खाते में सीधे हस्तांतरित कर दिया गया है.

कृषि को आत्मनिर्भर कृषि में परिवर्तित करने के लिए एफपीओ का गठन और प्रचार पहला कदम है. यह पहल किफायती उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने और एफपीओ के सदस्य की शुद्ध आय को बढ़ाती है. इस से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के साथसाथ ग्रामीण युवाओं के लिए उन के गांवों में ही रोजगार के अवसर पैदा होते हैं. किसानों की आय में उल्लेखनीय सुधार करने की दिशा में यह एक बड़ा कदम था.

एफपीओ को उपज समूहों में विकसित किया जाना है, जिस में पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं का लाभ उठाने और सदस्यों के लिए बाजार पहुंच को बेहतर बनाने के लिए कृषि और बागबानी उपज की खेती या उत्पादन किया जाता है. विशेषज्ञता और बेहतर प्रसंस्करण, विपणन, ब्रांडिंग और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए “एक जिला, एक उत्पाद” क्लस्टर बनाए गए हैं. इस के अलावा कृषि मूल्य श्रृंखला संगठन एफपीओ का गठन कर रहे हैं और सदस्यों की उपज के लिए 60 फीसदी बाजार संपर्क की सुविधा प्रदान कर रहे हैं.

योजना का उद्देश्य

इस योजना का मुख्य उद्देश्य स्थायी आय उन्मुख खेती के विकास और समग्र सामाजिकआर्थिक विकास और कृषि समुदायों के कल्याण के लिए 10,000 नए एफपीओ बनाने के लिए समग्र और व्यापक आधारित सहायक ईकोसिस्टम उपलब्ध कराना है. इस के अलावा कुशल, किफायती और सतत संसाधन उपयोग के माध्यम से उत्पादकता बढ़ाना और अपनी उपज के लिए बेहतर तरलता और बाजार जुड़ाव के माध्यम से अधिक आय प्राप्त करना और सामूहिक कार्रवाई के माध्यम से टिकाऊ बनाना भी है.

इस योजना के तहत एफपीओ के प्रबंधन, इनपुट, उत्पादन, प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन, बाजार लिंकेज, क्रेडिट लिंकेज और प्रौद्योगिकी के उपयोग आदि के सभी पहलुओं में सृजन के वर्ष से 5 साल तक नए एफपीओ को सहायता और समर्थन प्रदान भी करना है. इस के साथ ही सरकार से समर्थन की अवधि के बाद आर्थिक रूप से व्यवहार्य और आत्मनिर्भर बनने के लिए कृषि उद्यमिता कौशल विकसित करने के लिए एफपीओ को प्रभावी क्षमता निर्माण प्रदान करना है. एफपीओ को या तो कंपनी अधिनियम के भाग 9ए के तहत या सहकारी समितियों के तहत पंजीकृत किया जा सकता है

किसानों ने किया प्राकृतिक उत्पादों (Natural Products) का प्रदर्शन, महिला किसान बनेगी लखपति

सिवनी: केंद्रीय इस्पात एवं ग्रामीण विकास राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने पौलीटैक्निक मैदान में आयोजित हुए कृषि सह अन्न मेले को संबोधित कर कहा कि कृषि लागत में कमी और आम लोगों को स्वास्थ्य लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से देश में प्राकृतिक खेती के माध्यम से मोटे अनाज के उत्पादन को बढावा देने का काम सरकार द्वारा किया जा रहा है. देश में अन्नदाताओं की आय को बढाने को ले कर विभिन्न प्रयास लगातार जारी हैं.

मोटे अनाज की खेती, महिलाएं बनेंगी लखपति

उन्होंने कहा कि पुराने समय से प्राकृतिक खेती की पद्धति अपनाई जाती रही है और मोटे अनाज स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक है.

उन्होंने कहा कि किसान की आय में वृद्धि के लिए सरकार मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी, रागी, चीना सहित मोटे अनाज को प्रोत्साहित किया जा रहा है.

उन्होंने बताया कि इस काम में विशेष रूप से महिलाओं को जोड़ कर उन्हें लखपति बनाने के उद्देश्य से सरकार काम कर रही है.

सारस पोर्टल से ट्रेनिंग

उन्होंने बताया कि सारस पोर्टल के द्वारा अन्न के उत्पादन में लगे किसानों को पैकेजिंग, ब्रांडिंग आदि की ट्रेनिंग भी सरकार द्वारा दी जा रही है.

उन्नत तकनीकों की प्रदर्शनी

केंद्रीय राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने अन्न मेले में उपस्थित किसानों से मेले में उपस्थित कृषि वैज्ञानिकों को एवं उन्नत कृषि तकनीकी को प्रदर्शित करती प्रदर्शनी से जानकारी प्राप्त करने की अपील करते हुए कहा कि अन्न मेले में शामिल हुए सभी किसान कृषि वैज्ञानिकों से उन्नत कृषि तकनीकी एवं बीजों की जानकारी अनिवार्य रूप से प्राप्त करें और उन्नत कृषि उपकरणों की प्रदर्शनी का अवलोकन करते हुए आवश्यकतानुसार नवीन तकनीक को अपनाएं.

अधिक कृषि रसायन नुकसानदायक, प्राकृतिक खेती को दें बढ़ावा

कार्यक्रम को संबोधित कर सांसद डा. ढालसिंह बिसेन ने कहा कि अधिक उत्पादन के लालच में हम ने विदेशी बीजों को अपना कर अनेक बीमारियों को जन्म दिया है और अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करने से हमारी जमीन बंजर हो गई है और उत्पादित फसलों में भी पोषक तत्वों की कमी आई है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि आज हमें प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, जिस से कम लागत में पोषक खाद्य पदार्थों की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकेगी.

विधायक दिनेश राय ने किसानों से जैविक कृषि अपना कर उन्नत कृषि उपकरणों, बीजों एवं तकनीक को अपनाने की बात कही.

मृदा स्वास्थ्य कार्ड से फायदा

उन्होंने कहा कि प्रत्येक किसान अपनी कृषि भूमि का मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनाए, ताकि कमी वाले पोषक तत्वों को ध्यान में रख कर खाद एवं बीज का उपयोग किया जा सके. इसी तरह आलोक दुबे ने अपने उद्बोधन में शासन द्वारा संचालित की जा रही विभिन्न योजनाओं की जानकारी दी.

कलक्टर क्षितिज सिंघल द्वारा मेले में उपस्थित किसानों को अन्न मेले के उद्देश्यों के बारे में जानकारी देने के साथसाथ सभी से उन्नत कृषि तकनीकी एवं खाद्य प्रसंस्करण के बारे में जानकारी ले कर तकनीकों को अपनाने की अपील की गई.

कार्यक्रम में जिला पंचायत अध्यक्ष मालती डहेरिया, जनपद अध्यक्ष सिवनी किरण भलावी, जनपद अध्यक्ष लोचन सिंह मरावी के साथ ही अन्य जनप्रतिनिधियों एवं विभागीय अधिकारियों एवं बडी संख्या में किसानों की उपस्थिति रही.

आयोजित मेले में कृषि विभाग के साथसाथ उद्यानिकी, कृषि विज्ञान केंद्र, पशुपालन विभाग, मत्स्य, आजीविका मिशन, आयुष, जिला उद्योग एवं व्यापार केंद्र के साथसाथ अन्य विभागों द्वारा स्टाल के माध्यम से विभागीय योजनाओं की जानकारी दी गई.

मेले में विशेष रूप से अन्न फसलों के उत्पादों जैसे कोदो, कुटकी के बिसकुट, कुकीज एवं प्राकृतिक खेती के उत्पादों के साथ छिंदवाड़ा, मंडला के किसान उत्पादक संगठनों ने अपने उत्पादों का प्रदर्शन किया. इस के साथसाथ सिवनी के प्रगतिशील किसानों द्वारा जीराशंकर चांवल एवं प्राकृतिक खेती के उत्पाद, नरसिंहपुर जिले के गुड़ एवं तुअर की दाल के साथसाथ अन्य जिलों के विभिन्न उत्पादकों द्वारा अपने उत्पाद का प्रदर्शन किया गया.

प्राकृतिक खेती (Natural Farming) वर्तमान समय की जरूरत

प्राकृतिक कृषि पद्धति आजकल खेती का एक प्रमुख विकल्प बन रहा है, जो कृषि क्षेत्र में पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान करने के लिए अपना योगदान दे रही है. इस पद्धति में खेती का प्रबंधन प्राकृतिक और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों के साथ किया जाता है, ताकि स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक न्याय को बढ़ावा मिले.

प्राकृतिक खेती एक भारतीय पारंपरिक कृषि पद्धति है, जो प्रकृति के साथ तालमेल स्थापित कर पर्यावरण संरक्षण के साथसाथ स्वास्थ्यवर्धक खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के साथ ही टिकाऊ खेती को बढ़ावा देता है.

प्राकृतिक खेती में रसायनों के प्रयोग को पूरी तरह से वर्जित किया जाता है और फसलोत्पादन के लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग पौध पोषण एवं फसल सुरक्षा के लिए किया जाता है.

प्राकृतिक खेती क्यों?

प्राकृतिक खेती की जरूरत क्यों है? जबकि वर्तमान समय में प्रचलित रसायनयुक्त पारंपरिक कृषि से किसान को अच्छा फसलोत्पादन प्राप्त हो रहा है. इस का उत्तर प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि यह समझा जाए कि वर्तमान समय में प्रचलित रसायनयुक्त पारंपरिक खेती में क्याक्या समस्याएं हैं. वर्तमान समय में रसायन आधारित पारंपरिक कृषि के विभिन्न अनपेक्षित परिणाम हैं, जो पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं. पारंपरिक खेती से होने वाले अनपेक्षित कुछ प्रमुख परिणाम हो सकते हैं.

जल प्रदूषण

पारंपरिक खेती में सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग से जल निकायों में रिसाव होता है, जिस से भूजल और सतही जल प्रदूषित हो रहे हैं. यह प्रदूषण जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है और इनसान की सेहत को भी प्रभावित कर रहा है.

मृदा क्षरण

गहन जुताई, मोनोक्रापिंग और रासायनिक निवेशों के उपयोग से मिट्टी की क्वालिटी का खराब होना, भूक्षरण, मिट्टी का सख्त होना और कृषि भूमि की उत्पादन क्षमता में गिरावट हो रही है. इस के उलट प्राकृतिक खेती में मिट्टी की क्वालिटी में सुधार होने से उत्पादन क्षमता में निरंतर वृद्धि होती है.

जैव विविधता को नुकसान

पारंपरिक खेती में अकसर फसलोत्पादन के लिए प्राकृतिक रूप से उगे पेड़पौधे, जंगल आदि को (हैबिटैट) को साफ कर भूमि को खेती में शामिल किया जाता है. प्राकृतिक वास के इस नुकसान से जैव विविधता में गिरावट आ रही है, जिस से परागण और प्राकृतिक कीट नियंत्रण जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रभावित हो रही हैं.

ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन

पारंपरिक कृषि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है. मुख्य रूप से सिंथेटिक रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से नाइट्रस औक्साइड, जो एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है, वातावरण में अवमुक्त होती है.

स्वास्थ्य पर प्रभाव

पारंपरिक कृषि में कीटनाशकों के उपयोग से कृषि श्रमिकों, उपभोक्ताओं और आसपास के समुदायों पर नकारात्मक स्वास्थ्य प्रभाव पड़ रहा है. खाद्य श्रंखला में कीटनाशकों के अवशेष स्वास्थ्य के लिए बेहद नुकसानदायक हैं.

ग्रामीण समुदायों का क्षरण

पारंपरिक कृषि पद्धतियों से कृषि भूमि को बड़े पैमाने पर मोनोकल्चर में समेकित किया जा रहा है, जो छोटे किसानों को खेती से विस्थापित कर रहा है, जिस से ग्रामीण समुदायों का सामाजिक तानाबाना प्रभावित हो रहा है.

कई बार यह भी तर्क दिया जाता है कि प्राकृतिक खेती लाभदायक नहीं है. प्राकृतिक खेती कम लागत (स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कृषि निवेशों के प्रयोग के कारण कई बार इसे जीरो बजट प्राकृतिक खेती कहा जाता है) अच्छी गुणवत्ता के उत्पाद, जिस का बाजार मूल्य अच्छा होता है, किसान की शुद्ध आय में कोई कमी नहीं होती है. रसायनयुक्त पारंपरिक कृषि में कई छुपे हुए खर्च निहित होते हैं, जिसे प्रायः हम आगणित ही नहीं करते. पारंपरिक कृषि से निम्नलिखित खर्च भी व्यक्ति अथवा समाज को करने पड़ते हैं.

पर्यावरणीय सफाई पर अनावश्यक खर्च

जल प्रदूषण, मिट्टी के क्षरण और अन्य पर्यावरणीय क्षति का निवारण अत्यंत महंगा होता है और इस के लिए पर्याप्त पैसों की जरूरत हो सकती है.

स्वास्थ्य देखभाल पर अनावश्यक खर्च

कीटनाशकों के संपर्क और दूषित जल स्रोतों से संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज करने से स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर वित्तीय बोझ पड़ रहा है.

पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का नुकसान

जैव विविधता के नुकसान और पारिस्थितिकी प्रणालियों के क्षरण से परागण और जल शुद्धीकरण जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की उपलब्धता कम हो रही है, जिस का व्यक्ति पर आर्थिक और सामाजिक प्रभाव पड़ता है.

जलवायु परिवर्तन लागत

पारंपरिक कृषि से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन में योगदान देता है, जिस का बड़े पैमाने पर आर्थिक व सामाजिक प्रभाव है, जिस में बुनियादी ढांचे, कृषि और मानव स्वास्थ्य के नुकसान शामिल हैं.
प्राकृतिक खेती अपनाने से इन सभी नुकसानों से सुगमता से बचा जा सकता है. यदि इन नुकसानों को रोक कर इन पर होने वाले खर्चे को बचाया जाए, तो यह बहुत अधिक होगी. साथ ही, प्राकृतिक खेती से मानव स्वास्थ्य के साथसाथ मृदा एवं पर्यावरण के संरक्षण को भी बल मिलता है.

प्राकृतिक खेती की विशेषताएं

कैमिकल निर्भरता से नजात

प्राकृतिक खेती में कोई भी रासायनिक उर्वरक, सिंथेटिक कीटनाशक या खरपतवारनाशक का प्रयोग नहीं किया जाता है. प्राकृतिक कृषि पद्धति खेती को कैमिकल निर्भरता से पूरी तरह से मुक्त बनाता है.

मिट्टी का संरक्षण

प्राकृतिक खेती में मिट्टी के संरक्षण और उस की गुणवत्ता को बनाए रखने पर जोर दिया जाता है. इस में किसान के प्रक्षेत्र पर उपलब्ध स्थानीय उत्पादों को खेती के लिए उपयोग होता है, जो मृदा स्वास्थ्य को सुदृढ़ रखने में सहयोगी होता है.

बायोविविधता का संरक्षण

प्राकृतिक खेती के अनुसार, फसलों को प्राकृतिक तरीके से उगाया जाता है और एकल खेती को हतोत्साहित कर बहुफसली खेती को बढ़ावा देती है, जिस से बायोविविधता को संरक्षित करने को भी प्रोत्साहित किया जाता है.

प्राकृतिक वित्तीय उपाय

प्राकृतिक खेती में जैविक खादों, जैविक कीटनाशकों और प्रकृति के साथ तालमेल स्थापित कर उन्नत खेती तकनीकों का उपयोग कर के किसान स्वावलंबी बनते हैं. प्राकृतिक खेती में किसान को बाहर से कृषि निवेशों की निर्भरता समाप्त होती है.

सामुदायिक सहयोग

प्राकृतिक खेती में स्थानीय समुदायों को सहयोग दिया जाता है, जो साझेदारी और अनुभव के माध्यम से खेती का प्रबंधन करते हैं.

जैविक खेती तकनीकों का उपयोग

जैविक खेती तकनीकों के उपयोग से खेती को संवेदनशील बनाया जाता है, जैसे कि जैविक खाद, जैविक कीटनाशक और प्राकृतिक बायोफार्मिंग प्रविधि.

जल संरक्षण

प्राकृतिक खेती में जल संरक्षण को महत्व दिया जाता है, जैसे कि बूंदों के संचय तंत्र और सूखे के प्रतिरोध के लिए प्राकृतिक साधनों का उपयोग.

संरक्षण क्षेत्रों की गुणवत्ता

प्राकृतिक खेती में भूमि, वन्य जीवों और जल संपदा की सुरक्षा का खासा ध्यान रखा जाता है, जिस से संरक्षण क्षेत्रों की गुणवत्ता बनाए रखने में मदद मिलती है.

प्राकृतिक खेती के लाभ

स्वास्थ्य लाभ

प्राकृतिक खेती से प्राप्त उत्पादों में कैमिकल का कम उपयोग होता है, जिस से उन में पोषक तत्वों की अधिक मात्रा पाई जाती है. इस से उपभोक्ताओं को स्वस्थ और पौष्टिक आहार मिलता है और विभिन्न बीमारियों से बचाव होता है.

पर्यावरण संरक्षण

प्राकृतिक खेती में कैमिकल का कम उपयोग किया जाता है, जिस से प्रदूषण कम होता है और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण होता है. इस से जल, मिट्टी और वायु की स्थिरता बनी रहती है.

आर्थिक लाभ

प्राकृतिक खेती में कम खर्च और अधिक मूल्य प्राप्ति के चलते किसानों को अधिक लाभ होता है. इस के अलावा जब उत्पादों की मांग बढ़ती है, तो उन की कीमतें भी बढ़ जाती हैं, जिस से खेती करने वालें किसानों की आर्थिक स्थिरता बढ़ती है.

सामाजिक लाभ

प्राकृतिक खेती के माध्यम से किसान समुदाय आपस में साझेदारी करते हैं, जो सामाजिक भाईचारा और सामूहिक समृद्धि को बढ़ावा देता है. इस से सामाजिक न्याय, समर्थन और भाईचारा बढ़ता है.

बायोडाइवर्सिटी का संरक्षण

प्राकृतिक खेती में जलवायु, वन्य जीवों और जलवायु के संरक्षण का विशेष ध्यान रखा जाता है, जिस से बायोडाइवर्सिटी का संरक्षण होता है. इस से प्राकृतिक प्रणालियों का संतुलन बना रहता है.

आत्मनिर्भरता

प्राकृतिक खेती के प्रयोग से किसान आत्मनिर्भर बनते हैं. वे अपनी जरूरतों को स्वयं पूरा कर सकते हैं और स्थानीय संसाधनों का सही उपयोग कर के उत्पादन में वृद्धि कर सकते हैं.

जल संरक्षण

प्राकृतिक खेती में जल संचयन, स्थल संरक्षण और जल संपादन की प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है. इस से जल संसाधन का सही उपयोग होता है और जल की कमी को कम किया जाता है.

अनुसंधान और विकास

प्राकृतिक खेती में नई और समृद्ध प्राकृतिक तकनीकों का अनुसंधान और विकास किया जाता है. यह न केवल खेती की उत्पादकता को बढ़ाता है, बल्कि विशेषज्ञों को भी नए और संबंधित क्षेत्रों में नए अवसर प्रदान करता है.

अनुभव और साझेदारी

प्राकृतिक खेती के माध्यम से किसान अनुभवों को साझा करते हैं और एकदूसरे से सीखते रहते हैं. यह सामूहिक उत्पादन और साझेदारी को प्रोत्साहित करता है, जिस से कृषि समुदाय का विकास होता है.
प्राकृतिक खेती के इन लाभों से न केवल कृषि सैक्टर में सुधार होता है, बल्कि समाज और पर्यावरण को भी स्थिरता और समृद्धि प्राप्त होती है. प्राकृतिक कृषि, खेती करने का वह प्राचीन तरीका है, जिस का रथ बीजामृत, जीवामृत, आच्छादन एवं वाफ्सा नामक चार पहियों पर आगे बढ़ता है.

प्राकृतिक खेती में शून्य अथवा न्यूनतम जुताई, स्थानीय स्तर पर उपलब्ध बीज, फसल आच्छादन, पूरे साल खेत में फसल, पौध पोषण के लिए जीवामृत अथवा घनजीवामृत का प्रयोग, फसल सुरक्षा के लिए खेत पर तैयार अवयवों के प्रयोग के साथसाथ गायों का पालन किया जाना सम्मिलित है, जिस के कारण खेती की लागत न्यूनतम, उच्च गुणवत्ता का उत्पादन और पर्यावरण के अनुकूल एक टिकाऊ कृषि पद्धति है, जो ऋषि कृषि परंपरा पर आधारित है. अतः वर्तमान समय में प्राकृतिक कृषि, खेती का अनुकूलतम विकल्प है.

मशरूम अनुसंधान केंद्र में जानें मशरूम उत्पादन (Mushroom Production) के तौरतरीके

सोनीपत: क्षेत्रीय मशरूम अनुसंधान केंद्र (एमएचयू), मुरथल, सोनीपत में कुलपति डा. सुरेश कुमार मल्होत्रा के नेतृत्व में पांचदिवसीय ‘मशरूम उत्पादन, प्रसंस्करण व विपणन’ विषय पर कार्यशाला का आयोजन हुआ. इस कार्यशाला में भागीदारी कर रहे प्रतिभागियों को विभिन्न प्रगतिशील किसानों के फार्म पर ले जा कर भ्रमण करवाया. साथ ही, कई प्रोसैसिंग प्लांटों का भी भ्रमण करवाया गया, वहीं बिहार से आए किसानों ने भी केंद्र का भ्रमण किया और मशरूम उत्पादन से ले कर प्रसंस्करण आदि तक की सभी प्रकार की जानकारी हासिल की.

एमएचयू के कुलसचिव व केंद्र के निदेशक डा. अजय सिंह ने बताया कि पांचदिवसीय ट्रेनिंग कार्यक्रम में दौरान 24 प्रतिभागियों को प्रगतिशील किसान, जो कि क्षेत्रीय मशरूम अनुसंधान केंद्र से ट्रेनिंग ले कर अपना काम अच्छे से कर रहे हैं, उन किसानों के फार्म पर ले जा कर प्रतिभागियों को भ्रमण करवाया, ताकि प्रतिभागी प्रगतिशील किसानों से प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासाओं को शांत कर सकें, उन के मन में मशरूम उत्पादन को ले कर जो शुरुआती दिक्कतें हैं, उन्हें कैसे दूर करें, जानकारी हासिल कर सकें.

प्रतिभागियों को गांव हसनपुर, मुरथल के अलावा अटेरना, कुंडली स्थित प्रोसैसिंग यूनिट में ले जाया गया. वहां प्रतिभागियों ने अपनी आंखों से देखा कि मशरूम से क्याक्या उत्पाद बना सकते हैं, उत्पाद बनाने में कौनकौन सी मशीनें उपयोगी होती हैं, इस के पश्चात प्रतिभागियों को अढेरना गांव में एपीओ द्वारा लगाई यूनिट पर ले जाया गया, वहां पर प्रतिभागियों ने जाना कि किस प्रकार किसान मिल कर मशरूम को टीन में पैक कर विदेशों में भेजा जा रहा है. मशरूम को किस प्रकार पैक किया जा रहा है.

जहानाबाद, बिहार के 24 किसानों ने क्षेत्रीय मशरूम अनुसंधान केंद्र का भ्रमण किया

नेशनल हार्टिकल्चर मिशन (एनएचएम) स्कीम के तहत जहानाबाद, बिहार के 24 किसानों ने क्षेत्रीय मशरूम अनुसंधान केंद्र का भ्रमण किया. इस दौरान किसानों को विभिन्न प्रकार की मशरूम जैसे ढिंगरी, किंग ओएस्टर, ओरी क्लुरिया, बटन, शिटाके मशरूम को दिखाया और उन के बारे में विस्तार से जानकारी दी.

मशरूम को उगाने के लिए खाद कैसे तैयार की जाती है आदि सभी जानकारियों से अवगत कराया गया. किसानों को बताया गया कि मशरूम की खेती कर उस के विभिन्न प्रकार के उत्पाद तैयार कर ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है.

किसान काफी उत्साहित नजर आए, जब उन्हें मशरूम का बीज कैसे तैयार होता है, कैसे लगाया जाता है, कैसे खाद तैयार होती है आदि सब अपनी आंखों से देखा और वैज्ञानिकों से मशरूम को ले कर जानकारी हासिल की.

केले के अपशिष्ट (Banana Waste) से बन रही घावों के लिए दवाई

केले के रेशों का उपयोग कर के घावों के लिए बनाई गई पर्यावरण-अनुकूल ड्रेसिंग सामग्री घाव की देखभाल के लिए एक स्थायी समाधान प्रस्तुत करती है.

विश्व के सब से बड़े केले की खेती वाले देश भारत में केले के छद्म तने (स्यूडो स्टेम्स) प्रचुर मात्रा में हैं, जिन्हें कटाई के बाद फेंक दिया जाता है.

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी उच्च अध्ययन संस्थान, इंस्टीट्यूट औफ एडवांस्ड स्टडी इन साइंस एंड टैक्नोलौजी –आईएएसएसटी के वैज्ञानिकों ने केले के छद्म तने, जिसे अकसर कृषि अपशिष्ट माना जाता है, को घावों के उपचार के लिए पर्यावरण अनुकूल घाव ड्रेसिंग सामग्री में बदल दिया है. .

प्रो. देवाशीष चौधरी और सेवानिवृत्त प्रो. राजलक्ष्मी देवी के नेतृत्व में आईएएसएसटी-डीकिन यूनिवर्सिटी संयुक्त पीएचडी कार्यक्रम में एक शोध विद्वान मृदुस्मिता बर्मन सहित अनुसंधान टीम ने एक उत्कृष्ट यांत्रिक शक्ति और एंटीऔक्सीडेंट गुणों वाला एक बहुक्रियाशील (मल्टीफंक्शनल) पैच बनाने के लिए केले के रेशों को चिटोसन और ग्वार गम जैसे जैव बहुलकों (बायोपौलीमर्स) के साथ कुशलतापूर्वक संयोजित किया है.

इसे एक कदम और आगे बढ़ाते हुए शोधकर्ताओं ने विटेक्स नेगुंडो एल. पौधे के सत्व (एक्स्ट्रेक्ट) के साथ इस पैच को लोड किया, जो कृत्रिम परिवेशीय औषधि निकास (इन विट्रो ड्रग रिलीज) और जीवाणुरोधी एजेंटों के रूप में पौधे के सत्व-मिश्रित केले के रेशे (फाइबर) -बायोपौलीमर मिश्रित पैच की क्षमताओं का प्रदर्शन करता है. इस अभिनव ड्रेसिंग सामग्री को बनाने में उपयोग की जाने वाली सभी सामग्रियां प्राकृतिक और स्थानीय रूप से उपलब्ध हैं और जो विनिर्माण प्रक्रिया को सरल, लागत प्रभावी और गैरविषैली (नौन-टौक्सिक) बना देती हैं.

घाव की ड्रेसिंग सामग्री घाव की देखभाल के लिए एक स्थायी समाधान प्रस्तुत करती है और प्रचुर मात्रा में केले के पौधे के लिए अतिरिक्त उपयोग का सुझाव देती है, जिस से किसानों को लाभ हो सकता है और पर्यावरणीय प्रभाव भी कम हो सकता है.

प्रो. देवाशीष चौधरी ने बताया कि यह जांच घाव भरने में एक नए युग का द्वार खोलने के साथ ही कम लागत वाला, विश्वसनीय और पर्यावरण के अनुकूल ऐसा विकल्प प्रस्तुत करती है, जो जैव चिकित्सकीय (बायोमैडिकल) अनुसंधान में महत्वपूर्ण क्षमता रखती है. केले के फाइबर-बायोपौलीमर मिश्रित यह ड्रेसिंग अपने व्यापक अनुप्रयोगों एवं स्वास्थ्य और पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव के साथ घाव की देखभाल में क्रांति ला सकती है.

एल्सेवियर ने हाल ही में इस कार्य को इंटरनेशनल जर्नल औफ बायोलौजिकल मैक्रोमोलेक्यूल्स में प्रकाशित किया है.

इस अभूतपूर्व शोध को हाल ही में एल्सेवियर द्वारा इंटरनेशनल जर्नल औफ बायोलौजिकल मैक्रोमोलेक्यूल्स में प्रकाशित किया गया है, जो वैज्ञानिक समुदाय में इस के महत्व को और अधिक उजागर करता है.

अधिक जानकारी के लिए प्रो. देवाशीष चौधरी की औफिशियल वैबसाइट devasish@iasst.gov.in पर संपर्क कर सकते हैं.

खरीफ और रबी मौसम में फसलोत्पादन (Crop Production) के द्वितीय अग्रिम अनुमान जारी

नई दिल्ली: पिछले वर्ष से जायद के मौसम को रबी मौसम से अलग कर दिया गया है और इसलिए इस वर्ष क्षेत्र, उत्पादन और उपज के द्वितीय अग्रिम अनुमान में केवल 2 मौसमों यानी खरीफ और रबी मौसम शामिल हैं.

यह अनुमान मुख्य रूप से राज्य कृषि सांख्यिकी प्राधिकरण (एसएएसए) से प्राप्त जानकारी के आधार पर तैयार किए गए हैं. प्राप्त आंकड़ों को रिमोट सैंसिंग, साप्ताहिक फसल मौसम निगरानी समूह (सीडब्ल्यूडब्ल्यूजी) की रिपोर्ट और अन्य एजेंसियों से प्राप्त जानकारी के साथ मान्य और त्रिकोणित किया गया है. इस के अलावा अनुमान तैयार करते समय जलवायु परिस्थितियों, पिछले रुझानों, मूल्यो में उतारचढ़ाव, मंडी आगमन आदि पर भी विचार किया जाता है.

विभिन्न फसलों (केवल खरीफ और रबी) के उत्पादन का विवरण इस प्रकार हैः
– खरीफ खाद्यान्न – 1541.87 लाख मीट्रिक टन: रबी खाद्यान्न- 1551.61 लाख मीट्रिक टन
– खरीफ चावल -1114.58 लाख मीट्रिक टन: रबी चावल – 123.57 लाख मीट्रिक टन
– गेहूं- 1120.19 लाख मीट्रिक टन
– खरीफ मक्का – 227.20 लाख मीट्रिक टन: रबी मक्का – 97.50 लाख मीट्रिक टन
– खरीफ श्रीअन्न – 128.91 लाख मीट्रिक टन: रबी श्रीअन्न – 24.88 लाख मीट्रिक टन
– तूर – 33.39 लाख मीट्रिक टन
– चना- 121.61 लाख मीट्रिक टन
– खरीफ तिलहन- 228.42 लाख मीट्रिक टन: रबी तिलहन- 137.56 लाख मीट्रिक टन
– सोयाबीन – 125.62 लाख मीट्रिक टन
– रेपसीड और सरसों – 126.96 लाख मीट्रिक टन
– गन्ना- 4464.30 लाख मीट्रिक टन
– कपास – 323.11 लाख गांठें (प्रत्येक 170 किलोग्राम)
– जूट – 92.17 लाख गांठें (प्रत्येक 180 किलोग्राम)
– खरीफ खाद्यान्न उत्पादन 1541.87 लाख मीट्रिक टन: रबी खाद्यान्न उत्पादन 1551.61 लाख मीट्रिक टनवर्ष 2023-24 में खरीफ चावल का उत्पादन 1114.58 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है, जो 2022-23 के 1105.12 लाख मीट्रिक टन की तुलना में 9.46 लाख मीट्रिक टन की वृद्धि दर्शाता है. वहीं रबी चावल का उत्पादन 123.57 लाख मीट्रिक टन अनुमानित है और गेहूं का उत्पादन 1120.19 लाख मीट्रिक टन अनुमानित है, जो पिछले वर्ष के 1105.54 लाख मीट्रिक टन उत्पादन की तुलना में 14.65 लाख मीट्रिक टन अधिक है.

श्रीअन्न (खरीफ) का उत्पादन 128.91 लाख मीट्रिक टन और श्रीअन्न (रबी) का उत्पादन 24.88 लाख मीट्रिक टन अनुमानित है. ज्वार (खरीफ) और ज्वार (रबी) का उत्पादन क्रमशः 15.46 लाख मीट्रिक टन और 24.88 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है, जो पिछले वर्ष की तुलना में क्रमशः 0.66 लाख मीट्रिक टन और 1.66 लाख मीट्रिक टन अधिक है.

इस के अलावा, पोषक व मोटे अनाज (खरीफ) का उत्पादन 356.11 लाख मीट्रिक टन और पोषक व मोटे अनाज (रबी) का उत्पादन 144.61 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है.

तूर का उत्पादन 33.39 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है, जो पिछले साल के उत्पादन 33.12 लाख मीट्रिक टन के लगभग बराबर है. इस के अलावा तूर की कटाई अभी भी जारी है, जिस के परिणामस्वरूप क्रमिक अनुमानों में और भी बदलाव हो सकते हैं.

चने का उत्पादन 121.61 लाख मीट्रिक टन अनुमानित है, जो पिछले वर्ष के चने के उत्पादन से थोड़ा कम है, लेकिन औसत (वर्ष 2018-19 से 2022-23) चने के उत्पादन से अधिक है. मसूर का उत्पादन 16.36 लाख मीट्रिक टन अनुमानित है, जो पिछले वर्ष के 15.59 लाख मीट्रिक टन उत्पादन से 0.77 लाख मीट्रिक टन अधिक है.

सोयाबीन का उत्पादन 125.62 लाख मीट्रिक टन और रेपसीड और सरसों का उत्पादन 126.96 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है, जो पिछले साल के उत्पादन के लगभग बराबर है. हालांकि औसत उत्पादन से 20.57 लाख मीट्रिक टन अधिक है.

कपास का उत्पादन 323.11 लाख गांठें (प्रत्येक गांठ 170 किलोग्राम) और गन्ने का उत्पादन 4464.30 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है.

खरीफ फसलों के उत्पादन अनुमान तैयार करते समय फसल कटाई प्रयोग (सीसीई) आधारित उपज पर विचार किया गया है. हालांकि राज्य अभी भी खरीफ सीसीई के परिणामों को संकलित करने की प्रक्रिया में है. इस के अलावा कुछ फसलों जैसे तूर, गन्ना, अरंडी आदि की सीसीई अभी भी जारी है.

रबी फसलों का उत्पादन प्रारंभिक बोए गए क्षेत्र की रिपोर्ट और औसत उपज पर आधारित है. इसलिए, सीसीई के आधार पर बेहतर उपज अनुमान प्राप्त होने पर ये आंकड़े क्रमिक अनुमानों में परिवर्तन के अधीन हैं. विभिन्न जायद फसलों का उत्पादन आगामी तीसरे अग्रिम अनुमान में शामिल किया जाएगा.

कृषि मेले व प्रशिक्षण कार्यक्रम में मिलती है नई तकनीकों (New Technologies) की जानकारी

चिड़ावा (झुंझुनूं) : 1 मार्च, 2023. रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान द्वारा आज संस्थान के खेलकूद परिसर में विशाल कृषि मेले का आयोजन हुआ, जिस में क्षेत्र के किसान, किसान महिलाएं, कृषि विषय का अध्ययन करने वाले छात्रछात्राएं, पशुपालकों सहित प्रगतिशील किसानों ने भाग लिया. मेले में विभिन्न कंपनियों एंव सरकारी विभागों द्वारा लगाई गई कृषि आदानों, उपकरणों, नवीन कृषि यंत्रों, जैविक उत्पादों, जल संरक्षण सहित अन्य उपयोगी जानकारीपरक 35 स्टाल लगाए.

मेले में कृषि विशेषज्ञों द्वारा कृषि उत्पादन को बढ़ाने, परंपरागत खेती के स्थान पर अधिक आय देने वाली फसलों की बोआई करने, भोजन में मिलेट्स का उपयोग बढ़ाने जैसी जानकारी दी गई.

कृषि मेले के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर (जयपुर) के पूर्व कुलपति डा. प्रवीण सिंह राठौड़ ने कहा कि किसानों को अब जमीन के घटते क्षेत्रफल और गिरते भूजल स्तर पर विशेष ध्यान देना होगा. उन्होंने बताया कि निरंतर उवर्रकों के उपयोग से भूमि की गुणवत्ता एवं पोषक तत्वों की उपलब्धता में निरंतर गिरावट आ रही है. इसी प्रकार अधिक सिंचाई वाली फसलों की बोआई के कारण भूजल स्तर भी गिरता जा रहा है. राजस्थान के 216 ब्लौक ओवर एक्सप्लौटेड हो गए हैं.

यदि यही स्थिति रही तो सिंचाई के लिए दूर पेयजल के लिए हमें पानी की तलाश करनी होगी. उन्होंने सुझाव दिया कि किसानों को संतुलित उर्वरा प्रबंधन पर ध्यान देना होगा.

कायर्क्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रवासी उद्योगपति एंव ट्रस्टी रघुहरि डालमिया ने कहा कि देश को ऐसे किसानों की आवश्यकता है, जो देश की प्रगति में सहभागी बनें. किसानों ने जमीन को आबाद कर हम सब को भोजन के लिए अन्न उपलब्ध करवा कर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की है.

उन्होंने मेले में आए किसानों से आग्रह किया कि वे मेेले में प्रदर्शित की गई नवीन तकनीकों के उपकरणों, जानकारी व अनुसंधानों के ज्ञान को कृषि उपज बढ़ाने में साझा करें.

उन्होंने यह भी कहा कि कृषि विद्यालय अथवा महाविद्यालय से आने वाले छात्रछात्राएं संस्थान द्वारा वर्षा जल संरक्षण, वृक्षारोपण व कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए अपनाई जा रही पद्धतियों का किसी भी दिन आ कर अवलोकन कर सकते हैं.

कृषि मेले में उद्यान विभाग झुंझुनूं के उपनिदेशक डा. शीशराम जाखड़ ने परंपरागत खेती के स्थान पर अधिक आय देने वाली नकदी फसलों की बोआई करने, बागान लगाने, परंपरागत सिंचाई पद्धति के स्थान पर फव्वारा, मिनी फव्वारा आदि पद्धतियों का उपयोग करने का सुझाव दिया.

पयार्वरण विकास एंव अध्ययन केंद्र के निदेशक डा. मनोहर सिंह राठौड़ ने किसानों को एकजुट होने व जागरूक हो कर खेती करने का सुझाव दिया.

स्वामी केशवानंद विश्वविद्यालय, बीकानेर के पूर्व निदेशक डा. हनुमान प्रसाद ने रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान द्वारा वर्षा जल संरक्षण सहित किसानों की आर्थिक समृद्धि के लिए चलाई जा रही कायर्क्रमों की सराहना की और कहा कि वर्षा जल की उपलब्धि को देखते हुए हमें कम पानी के उपयोग वाली फसलों की बोआई करनी होगी.

किसान आयोग के सदस्य ओपी खेदड़ ने कहा कि मिलेट्स की पौष्टिकता को देखते हुए हमें इस का उपयोग बढ़ाना होगा. प्रगतिशील किसान मुकेश मांजू ने भी अपने विचार रखे.

मेले में प्रगतिशील किसानों के रूप में विद्याधर, सवाई सिंह, सुरेश, लालचंद, कुंजबिहारी को, ग्राम विकास समिति के लिए मालुपुरा की ग्राम जलग्रहण समिति को, पयार्वरण मित्र के रूप में राकेश बराला को और जलयोद्धा के रूप में रोहिताश बराला को प्रमाणपत्र व प्रतीक चिन्ह दे कर सम्मानित किया.

प्रारंभ में संस्थान के परियोजना प्रबंधक भूपेंद्र पालीवाल ने अतिथियों का स्वागत किया और संस्थान की प्रगति पर प्रकाश डाला. कार्यक्रम का संचालन मोनिका स्वामी द्वारा किया गया.

इस अवसर पर संस्थान के जल संसाधन समन्वयक संजय शर्मा, कृषि समन्वयक शुबेंद्र भट्ट, प्रशासनिक अधिकारी कुलदीप कुल्हार, अजय बलवदा, राकेश महला, सूरजभान रायला, नरेश, बलवान सिंह, अनिल सैनी, मान सिंह, जितेंद्र एवं सुनील उपस्थित रहे.

10 वर्षों में यूरिया उत्पादन (Urea production) बढ़ कर 310 लाख मीट्रिक टन हुआ

नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड के धनबाद के सिंदरी में हिंदुस्तान उर्वरक एवं रसायन लिमिटेड (एचयूआरएल) सिंदरी उर्वरक संयंत्र को राष्ट्र को समर्पित किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2018 में उर्वरक संयंत्र का शिलान्यास किया था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत की यात्रा की इस महत्वपूर्ण पहल के महत्व पर प्रकाश डाला.

उन्होंने कहा कि भारत को हर साल 360 लाख मीट्रिक टन यूरिया की आवश्यकता होती है और वर्ष 2014 में भारत सिर्फ 225 लाख मीट्रिक टन यूरिया का उत्पादन कर रहा था. मांग और पूर्ति के इस भारी अंतर के कारण बड़ी मात्रा में यूरिया की आयात की आवश्यकता पड़ी.

उन्होंने कहा कि हमारी सरकार के प्रयासों से पिछले 10 वर्षों में यूरिया का उत्पादन बढ़ कर 310 लाख मीट्रिक टन हो गया है.

उन्होंने यह भी कहा कि इस संयंत्र के शुभारंभ से स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार के नए मार्ग खुले हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रामागुंडम, गोरखपुर और बरौनी उर्वरक संयंत्रों के पुनरुद्धार के बारे में भी जानकारी दी. साथ ही, सिंदरी को भी इस सूची में जोड़ा गया है.

यूरिया उत्पादन (Urea production)प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि तालचेर उर्वरक संयंत्र भी अगले वर्ष में शुरू हो जाएगा. ये 5 संयंत्र 60 लाख मीट्रिक टन यूरिया का उत्पादन करेंगे और भारत को इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में तेजी से आत्मनिर्भरता के मार्ग पर अग्रसर करेंगे.

हिंदुस्तान उर्वरक और रसायन लिमिटेड (एचयूआरएल) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) अर्थात राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम लिमिटेड (एनटीपीसी), इंडियन औयल कारपोरेशन लिमिटेड (आईओसीएल), कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) और एफसीआईएल)/एचएफसीएल की एक संयुक्त उद्यम कंपनी है, जिसे 15 जून, 2016 को निगमित किया गया था. प्रति वर्ष 12.7 एलएमटी की स्थापित क्षमता के साथ नया अमोनिया यूरिया संयंत्र स्थापित कर के सिंदरी उर्वरक इकाई का पुनरुद्धार किया गया. सिंदरी संयंत्र ने 5 नवंबर, 2022 को यूरिया का उत्पादन शुरू किया.

एचयूआरएल को सिंदरी में 2200 टीपीडी अमोनिया और 3850 टीपीडी नीमलेपित यूरिया की क्षमता वाले नए अमोनिया यूरिया संयंत्र स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इस के लिए 8939.25 करोड़ रुपए का निवेश किया गया. इस में एनटीपीसी, आईओसीएल और सीआईएल प्रत्येक की इक्विटी 29.67 फीसदी और एफसीआईएल की इक्विटी 11 फीसदी है.

अत्याधुनिक गैस आधारित सिंदरी संयंत्र की स्थापना आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए फर्टिलाइजर कारपोरेशन औफ इंडिया लिमिटेड (एफसीआईएल) और हिंदुस्तान फर्टिलाइजर्स कारपोरेशन लिमिटेड (एचएफसीएल) की बंद पड़ी यूरिया इकाइयों के पुनरुद्धार के लिए सरकार की पहल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. यूरिया के क्षेत्र में घरेलू स्तर पर उत्पादित यूरिया की उपलब्धता बढ़ाने के लिए एफसीआईएल और एचएफसीएल की बंद इकाइयों का पुनरुद्धार सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता रही है.

सिंदरी संयंत्र देश में प्रति वर्ष 12.7 एलएमटी स्वदेशी यूरिया उत्पादन बढ़ाएगा और यूरिया क्षेत्र में भारत को “आत्मनिर्भर” बनाने के प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण को साकार करने में मदद करेगा. संयंत्र का लक्ष्य झारखंड राज्य के साथसाथ पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और बिहार में किसानों को यूरिया की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करना है. संयंत्र न केवल उर्वरक की उपलब्धता में सुधार करेगा, बल्कि सड़क, रेलवे और इस से जुड़े उद्योगों की आधारभूत अवसंरचना के विकास सहित क्षेत्र में समग्र आर्थिक विकास को भी बढ़ावा देगा.

यूरिया उत्पादन (Urea production)यह संयंत्र 450 प्रत्यक्ष और 1,000 अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर प्रदान करेगा. इसबीके अतिरिक्त कारखाने के लिए विभिन्न वस्तुओं की आपूर्ति से सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विक्रेता भी लाभान्वित होंगे, जिस से इस क्षेत्र को लाभ होगा. आज जब भारत ‘आत्मनिर्भर भारत’ पहल के मार्ग पर अग्रसर है, ऐसे में हिंदुस्तान उर्वरक और रसायन लिमिटेड का ‘भारत यूरिया’ न केवल आयात में कमी लाएगा, बल्कि स्थानीय किसानों को समय पर उर्वरकों की आपूर्ति और विस्तार सेवाओं को गति दे कर अर्थव्यवस्था को सुदृढ़  बनाएगा.

कृषि आदान विक्रेताओं (Agricultural Input Sellers) को डिप्लोमा जरूरी, करें आवेदन

सतना: परियोजना संचालक आत्मा किसान कल्याण एवं कृषि विकास ने बताया कि कृषि आदान विक्रेताओं के लिए निर्धारित न्यूनतम अर्हता कृषि संकाय में स्नातक/विज्ञान डिगरीधारी या डिप्लोमाधारी नहीं होने की स्थिति में भारत सरकार द्वारा उर्वरक एवं कीटनाशक नियमों को संशोधित करते हुए न्यूनतम अर्हता प्राप्त करने की सलाह दी गई है.

उन्होंने बताया कि कृषि आदान विक्रेताओं के लिए भारत सरकार द्वारा मैनेज के माध्यम से एकवर्षीय कोर्स डिप्लोमा इन एग्रीकल्चर एक्सटेंशन सर्विसेज फार इनपुट डीलर्स (देसी) की सुविधा उपलब्ध कराई गई है.

यह डिप्लोमा कोर्स 48 सप्ताह की अवधि का है, जिस के अंतर्गत सप्ताह में एक दिन स्थानीय मार्केट के अवकाश के अनुसार जिले के आदान विक्रेताओं को जिले में प्रशिक्षण के लिए अनुमोदित प्रशिक्षण संस्थान में प्रशिक्षित किया जाएगा.

प्रशिक्षण प्राप्त करने के इच्छुक आवेदकों को परियोजना संचालक आत्मा सतना के नाम से 20,000 रुपए का डिमांड ड्राफ्ट निर्धारित प्रपत्र के साथ परियोजना संचालक आत्मा कार्यालय सतना में जमा कर पंजीयन कराना होगा. आवेदक को कम से कम 10वीं पास होना चाहिए. ‘पहले आओ-पहले पाओ’ के आधार पर डिप्लोमा कोर्स के लिए आवेदन लिए जाएंगे.