Crop diversification: फूलों और मशरूम की खेती से बढ़ेगी आय

उदयपुर: तुरगढ़ गांव, झाड़ोल तहसील, उदयपुर में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत फसल विविधीकरण (Crop diversification) परियोजना के तहत दोदिवसीय किसान प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम का उद्देश्य फसल विविधीकरण (Crop diversification)  को प्रोत्साहित करते हुए किसानों की आय और कृषि स्थिरता को बढ़ाना था.

कार्यक्रम के शुरू में परियोजना अधिकारी डा. हरि सिंह ने फसल विविधीकरण (Crop diversification) की परिभाषा और इस की आवश्यकता व आर्थिक महत्व पर चर्चा की. उन्होंने बताया कि पारंपरिक फसलों के साथ अन्य फसलों को अपनाने से न केवल मुनाफा बढ़ता है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता और जल संरक्षण भी होता है.

एकल फसल प्रणाली के विपरीत विविध फसलें बाजार के उतारचढ़ाव और मूल्य अस्थिरता से सुरक्षा प्रदान करती हैं. इस के अलावा डा. हरि सिंह ने किसानो को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, ई-नाम व न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी केंद्र द्वारा चलाई जा रही परियोजनाओं की जानकारी प्रदान की.

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. लक्ष्मी नारायण महावर ने कहा कि फसल विविधीकरण (Crop diversification) दक्षिणी राजस्थान के किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण बदलाव ले कर आया है. उन्होंने दक्षिण राजस्थान में फूलों की खेती के महत्व के बारे में बताया कि यहां की जलवायु फूलों की खेती के लिए अनुकूल है, जिस से किसानों को पारंपरिक खेती की तुलना में अधिक लाभ मिल सकता है.

वहीँ प्रोफैसर नारायण लाल मीना ने मशरूम की खेती पर ध्यान केंद्रित करते हुए इस के आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी लाभों के बारे में बताया और यह भी बताया कि किस प्रकार हम कम निवेश में अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं. साथ ही, उन्होंने मशरूम पाउडर के पोषण मूल्य और बाजार मूल्य के बारे में भी बताया.

Crop diversification

प्रशिक्षण के दौरान मदन लाल मरमट, नारायण सिंह झाला और नरेंद्र यादव ने किसानों के साथ सूखे और एकल फसल से होने वाले नुकसान और उन की चुनौतियों पर चर्चा की और बताया कि कैसे हम फसल विविधीकरण (Crop diversification) के माध्यम से ऐसी समस्याओं पर काबू पा सकते हैं, जिस से कृषि स्थिरता और किसानों की आय में वृद्धि होगी.

कार्यक्रम के अंत में परियोजना अधिकारी डा. हरि सिंह ने खरीफ और रबी फसलों की उन्नत किस्मों की विस्तृत जानकारी दी. उन्होंने किसानों को बताया कि उन्नत किस्में न केवल अधिक उत्पादकता देती हैं, बल्कि कीट और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी रखती हैं.

उन्होंने आगे कहा कि फसलों की उन्नत किस्मों का चयन और सही समय पर बोआई किसानों की उत्पादकता में वृद्धि कर सकता है. साथ ही, संतुलित उर्वरक और सिंचाई प्रबंधन भी महत्वपूर्ण है. उन्होंने खेती के नवीनतम तरीकों जैसे बीजोपचार, समय पर खरपतवार नियंत्रण और फसल चक्र अपनाने पर जोर दिया.

इस कार्यक्रम में 40 से अधिक किसानों ने भाग लिया और प्रशिक्षण को काफी लाभदायक बताया. प्रतिभागियों ने इस जानकारी को अपने खेतों में लागू करने का संकल्प लिया, ताकि फसल विविधीकरण (Crop diversification) के माध्यम से उन की कृषि आय और स्थिरता में सुधार हो सके.

Natural farming : प्रकृति के साथ तालमेल ही प्राकृतिक खेती

उदयपुर : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के तत्वावधान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित जैविक खेती (Natural farming) पर अग्रिम संकाय प्रशिक्षण केंद्र के अंतर्गत 21 दिवसीय राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘‘प्रकृति के साथ सामंजस्यः प्राकृतिक खेती में अनुसंधान और नवाचार’’ पर अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर में पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा की अध्यक्षता में 19 फरवरी, 2025 को शुभारंभ हुआ.

इस अवसर पर पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा ने कहा कि प्राकृतिक खेती ही पर्यावरण के लिए अनुकूल है. प्राकृतिक खेती (Natural farming) द्वारा पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के साथसाथ मृदा स्वास्थ्य यानी मिट्टी की सेहत में भी बढ़ोतरी होगी. प्राकृतिक खेती (Natural farming) में प्रयोग कर रहे घटकों से मिट्टी में लाभदायक जीवाणुओं की बढ़ोतरी होगी, जिस से फसलों के उत्पादन में स्थायित्व आएगा.

Natural farmingडा. उमाशंकर शर्मा ने सभी प्रतिभागियों को 21 दिवसीय प्रशिक्षण के दौरान सभी वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि अपनेअपने क्षेत्र में जा कर ब्रांड अंबेसडर की भूमिका निभाएं. इस प्रशिक्षण में 5 राज्यों के 26 वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया. डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने बताया कि प्राकृतिक कृषि (Natural farming) एक तकनीक ही नहीं, अपितु पारिस्थितिकी दृष्टिकोण है, जिस के द्वारा प्रकृति के साथ तालमेल बिठाया जाता है.

डा. उमाशंकर शर्मा ने 5 राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे प्राकृतिक कृषि पर प्रशिक्षण ले रहे वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए कहा कि ज्ञान की सघनता एवं प्रशिक्षणों से दक्षता में वृद्धि द्वारा इस कृषि को बढ़ावा दिया जा सकता है. साथ ही, उन्होंने प्राकृतिक खेती (Natural farming) के घटक जीवामृत, बीजामृत, धनजीवामृत, आच्छादन एवं वाष्प के साथ जैविक कीटनाशियों पर जोर  दिया.

इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि डा. एसके शर्मा ने कहा कि प्राकृतिक खेती (Natural farming) के महत्व को देखते हुए स्नातक छात्रों के लिए विशेष पाठ्यक्रम पूरे देश में शुरू किया जा रहा है. इस के लिए सभी विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों, शिक्षकों, विषय विशेषज्ञों एवं विद्यार्थियों के लिए प्रशिक्षण आयोजित किए जा रहे हैं.

उन्होंने आगे बताया कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय का प्राकृतिक खेती में वृहद अनुसंधान कार्य एवं अनुभव होने के कारण यह विशेष दायित्व विश्वविद्यालय को दिया गया है. प्राकृतिक खेती (Natural farming) के विषय में पूरे विश्व की दृष्टि भारत की ओर है. ऐसे में पूरे विश्व भर से वैज्ञानिक एवं शिक्षक प्रशिक्षण लेने के लिए भारत आ रहे हैं. ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम उत्कृष्ट श्रेणी के प्रशिक्षण आयोजित करें.

Natural farming

डा. अरविंद वर्मा, निदेशक अनुसंधान एवं कोर्स डायरेक्टर ने अतिथियों का स्वागत किया एवं प्रशिक्षणार्थियों को दिए गए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के बारे में विस्तृत रूप से बताया. डा. अरविंद वर्मा ने बताया कि पूरे प्रशिक्षण में 49 सैद्धांतिक व्याख्यान, 9 प्रयोग प्रशिक्षण एवं 4 प्रशिक्षण भ्रमणों द्वारा प्रतिभागियों को प्रशिक्षित किया गया.

उन्होंने प्राकृतिक खेती पर सुदृढ़ साहित्य विकसित करने की आवश्यकता बताई. साथ ही, इस ट्रेनिंग के रिकौर्ड वीडियो यूट्यूब व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से प्रसारित करने की आवश्यकता पर भी बल दिया, जिस से कि वैज्ञानिक समुदाय एवं जनसामान्य में प्राकृतिक खेती के प्रति जागरूकता बढ़े एवं इस की जानकारी सुलभ हो सके.

कार्यक्रम में डा. आरएल सोनी, निदेशक, प्रसार शिक्षा निदेशालय, डा. सुनील जोशी, निदेशक, डीपीएम एवं अधिष्ठाता सीटीएआई, डा. मनोज महला, छात्र कल्याण अधिकारी, डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, उदयपुर, डा. रविकांत शर्मा, सहनिदेशक अनुसंधान एवं डा. एससी मीणा, आहरण वितरण अधिकारी एवं राजस्थान कृषि महाविद्यालय के सभी विभागाध्यक्ष और  तमाम वैज्ञानिक आदि उपस्थित थे. कार्यक्रम का संचालन डा. लतिका शर्मा, आचार्य ने किया.

Agricultural Science Centers को मिला आईएसओ का दर्जा

उदयपुर : 21 फरवरी, 2025 को महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी से संबद्ध सभी कृषि विज्ञान केंद्रों (Agricultural Science Centers) को आईएसओ 9001: 2015 प्रमाणपत्र मिलने के साथ ही प्रसार शिक्षा निदेशालय को भी इस उपलब्धि से नवाजा गया. अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) प्रमाणपत्र मिलने से वैश्विक स्तर पर प्रसार सेवाओं को न केवल बढ़ावा मिलेगा, बल्कि किसानों का और अधिक जुड़ाव होगा.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने यह जानकारी देते हुए बताया कि एमपीयूएटी के इतिहास में यह उपलब्धि मील का पत्थर साबित होगी. आईएसओ प्रमाणपत्र मिलने से एमपीयूएटी की देशविदेश में ख्याति बढ़ेगी. साथ ही, केवीके की प्रतिष्ठा, विश्वसनीयता, कर्मचारी सहभागिता, कानून व नियमों की अनुपालना और वैश्विक व्यापार में भी बढ़ोतरी होगी.

इन केवीके को मिला आईएसओ प्रमाणपत्र

कृषि विज्ञान केंद्र – बोरवट फार्म- बांसवाड़ा, रिठोला- चित्तौड़गढ़, फलोज- डूंगरपुर, बसाड़- प्रतापगढ़, धोइंदा- राजसमंद और सियाखेड़ी- उदयपुर द्वितीय. सुवाणा- भीलवाड़ा प्रथम और अरणियाघोड़ा- भीलवाड़ा द्वितीय को पहले ही आईएसओ प्रमाणपत्र मिल चुका है. इस तरह प्रसार शिक्षा निदेशालय को भी यह प्रमाणपत्र दिया गया है.

ये गतिविधियां बनीं मुख्य आधार

प्रसार शिक्षा निदेशक डा. आरएल सोनी ने बताया कि कृषि विज्ञान केंद्रों पर हालांकि किसान हित से जुड़ी अनेकों गतिविधियां संचालित होती हैं, लेकिन भीलवाड़ा की तर्ज पर सभी आईएसओ प्राप्त केवीके में विभिन्न प्रदर्शन इकाईयां जैसे सिरोही बकरी, प्रतापधन मुरगी, डेयरी, चूजापालन, वर्मी कंपोस्ट, वर्मीवाश, प्राकृतिक खेती इकाई, नर्सरी, नेपियर घास, वर्षा जल संरक्षण इकाई, बायोगैस, मछलीपालन, कम लागत से तैयार हाइड्रोपौनिक, हरा चारा उत्पादन इकाई, आंवला, अमरूद एवं नीबू का मातृवृक्ष बगीचा, बीजोत्पादन एवं क्राप केफैटेरिया आदि के माध्यम से किसान समुदाय के लिए समन्वित कृषि प्रणाली के उद्यम स्थापित कर, स्वरोजगार पैदा कर एवं आजीविका को सुदृढ कर आत्मनिर्भर किया जा रहा है.

ऐसे में किसानों का गांव से शहरों की ओर पलायन कम हुआ है. यही नहीं, किसान समुदाय के फसल उत्पादन और अन्य कृषि उत्पादों का समय पर विपणन होने से आमदनी में भी इजाफा हुआ है. इस के अलावा कृषि विज्ञान केंद्रों में समयसमय पर किसान मेलों, किसानवैज्ञानिक संवाद, किसान गोष्ठी, जागरूकता कार्यक्रम, महत्वपूर्ण दिवस, प्रदर्शन आदि प्रसार गतिविधियों का आयोजन कर कृषि नवाचार की सफल तकनीकियों का हस्तांतरण किया जा रहा है.

मुरगीपालन (Poultry Farming) व्यवसाय की सीखी बारीकियां

जयपुर: राष्ट्रीय कृषि विकास योजना एवं अखिल भारतीय कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना के संयुक्त तत्वावधान में झाड़ोल व फलासिया के स्वयं सहायता समूहों की 30 महिलाओं एवं गुडली के 40 किसान परिवारों के लिए मुरगीपालन (Poultry Farming) व्यवसाय का दोदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम राजस्थान कृषि महाविद्यालय में आयोजित किया गया.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजनांतर्गत 10 महिला समूहों के गठन के साथ ही उन्हें कृषि संबंधित विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षित करने का लक्ष्य है. इस के लिए झाड़ोल व फलासिया में 10 महिला स्वयं सहायता समूहों का गठन किया गया है.

Poultry Farming

परियोजना प्रभारी डा. विशाखा बंसल ने बताया कि इन 2 दिनों में महिलाओं को मुरगीपालन व्यवसाय की तमाम बारीकियां सिखाई गईं जैसे कि मुरगियों को दाना कब और कैसे देना, मुरगियों का बाड़ा तैयार करना, टीकाकरण, अंडे एकत्रित करना आदि.

प्रशिक्षण में डा. गजानंद, डा. सुभाष, डा. डीपीएस डूडी, देवीलाल मेघवाल, डा. केसराम, डा. मनोज आदि ने मुरगीपालन की विस्तृत जानकारी दी. प्रशिक्षण में स्वयं सहायता समूहों को आय संवर्धन से जोड़ कर स्वावलंबी बनाने पर विशेष जोर दिया गया. प्रशिक्षण कार्यक्रम में कार्तिक सालवी, डा. कुसुम शर्मा व अनुष्का तिवारी ने महिलाओं को पशुपालन इकाई का भ्रमण करवाया.

Diarrhea in Calf: बछड़े को डायरिया से ऐसे बचाएं

गाय के बछड़े बचपन से ही स्वस्थ हों, तो भविष्य में उन का दूध उत्पादन बेहतर होता है. लेकिन उन के जीवन के पहले 3 हफ्ते में दस्त (डायरिया) एक सामान्य और गंभीर समस्या बन कर सामने आ सकती है.

यदि इस समस्या पर समय रहते ध्यान न दिया जाए, तो यही उन के मरने का कारण बन सकता है. साल 2007 में यूएस डेयरी की एक रिपोर्ट में पाया गया है कि 57 फीसदी वीनिंग गोवत्सों की मृत्यु दस्त के कारण हुई, जिन में अधिकांश बछड़े 1 माह से छोटे थे.

दस्त लगने की कई वजहें हो सकती हैं. सही समय पर दूध न पिलाना, दूध का अत्यधिक ठंडा होना या ज्यादा मात्रा में देना, रहने की जगह का साफसुथरा न होना या फिर फफूंद लगा चारा खिलाना आदि. इस के अलावा बछड़ों में दस्त अकसर एंटरोपैथोजेनिक ई कोलाई नामक जीवाणु के कारण होता है. यह जीवाणु आंत से चिपक कर घाव पैदा करता है, जिस से आंत के एंजाइम की गतिविधि घट जाती है. इस वजह से भोजन का पाचन प्रभावित होता है और खनिज पदार्थ अवशोषित होने के बजाय मल के माध्यम से बाहर निकल जाते हैं.

कुछ ई कोलाई वेरोटौक्सिन का उत्पादन करते हैं, जिस से अधिक गंभीर स्थिति जैसे खूनी दस्त हो सकते हैं.आमतौर पर 2 सप्ताह से 12 सप्ताह के बछड़ों में साल्मोनेला प्रजाति के जीवाणुओं के कारण दस्त के लक्षण देखे जाते हैं. इस के अलावा कोरोना वायरस, रोटा वायरस जैसे वायरस और जियार्डिया, क्रिप्टोस्पोरिडियम पार्वम जैसे प्रोटोजोआ भी दस्त के सामान्य कारण हैं.

दस्त के लक्षणों को पहचानना बहुत महत्त्वपूर्ण है. बछड़े की धंसी हुई आंखें, तरल पदार्थों का सेवन कम होना, लेटना, हलका बुखार, ठंडी त्वचा और सुस्ती इस समस्या के संकेत हैं.

यदि बछड़ा बारबार लेट रहा हो, खुद से खड़ा नहीं हो पा रहा हो और खींचने पर आंखों के पास की त्वचा वापस आने में 6 सेकंड से अधिक समय ले रही हो, तो तुरंत पशु डाक्टर से सलाह लें.

दस्त से बचाव के लिए गर्भावस्था के अंतिम 3 महीनों में गाय के पोषण का विशेष ध्यान रखना चाहिए, ताकि बछड़ा स्वस्थ हो और मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ जन्म ले.

बछड़े को जन्म के 2 घंटे से ले कर 6 घंटे के भीतर खीस पिलाना आवश्यक है. यदि बछड़ा डिस्टोकिया (कठिन प्रसव) से पैदा हुआ हो, तो उस के सिर और जीभ पर सूजन के कारण खीस को वह ठीक से नहीं पी पाएगा. ऐसे में बछड़े की विशेष देखभाल करनी चाहिए.

इस के अलावा बछड़े को बाहरी तनाव जैसे अधिक ठंड, बारिश, नमी, गरमी और प्रदूषण से बचाना चाहिए. साथ ही सही समय पर टीका भी लगवाना आवश्यक है, ताकि बछड़ा स्वस्थ रह सके.

यदि बछड़े को दस्त हो जाए, तो सब से पहले शरीर में पानी और इलैक्ट्रोलाइट्स की कमी को पूरा करना जरूरी है. इस के लिए हर दिन 2-4 लिटर इलैक्ट्रोलाइट घोल पिलाएं. घर पर ही इलैक्ट्रोलाइट घोल बनाने के लिए :

1 लिटर गरम पानी में 5 चम्मच ग्लूकोज, 1 चम्मच सोडा बाईकार्बोनेट और 1 चम्मच नमक मिलाएं यानी एक चम्मच = 5 ग्राम लगभग.

नेबलोन आयुर्वेदिक पाउडर (10-20 ग्राम) को सादा पानी या चावल के मांड में मिला कर दिन में 2-3 बार पिलाएं. यदि स्थिति गंभीर हो, तो हर 6 घंटे पर यह घोल दें. दस्त करने वाले आंतरिक परजीवियों से बचाव के लिए एल्बेंडाजोल, औक्सीक्लोजानाइड और लेवामिसोल जैसे डीवार्मर्स समयसमय पर देने चाहिए. यदि आवश्यक हो, तो पशु डाक्टर की सलाह से एंटीबायोटिक्स का उपयोग करें.

बछड़ों में दस्त की समस्या को सही समय पर पहचान कर उचित देखभाल और उपचार से नियंत्रित किया जा सकता है.

Khoya Chocolate Barfi : गजब का स्वाद चाकलेट का अंदाज

Khoya Chocolate Barfi| तमाम तरह की मिठाइयां मूल रूप से खोए, अनाजों, मेवों और चीनी से ही मिल कर बनती हैं. मिठाइयां बनाने के शौकीन लोग तरहतरह के प्रयोग कर के खाने वालों को अलगअलग स्वाद का एहसास कराने की कोशिश करते रहते हैं. खोया चाकलेट बरफी (Khoya Chocolate Barfi) भी इसी कोशिश का नतीजा है.

यह 2 तरह बनती है. पहली खोया चाकलेट परतदार बरफी होती है, जो खोए और चाकलेट के दोहरे स्वाद का एहसास कराती है. यह परतदार बरफी खाने में जितनी स्वादिष्ठ होती है, उतनी ही दिखने में भी अलग होती है. दूसरी किस्म की बरफी खोया चाकलेट की साधारण बरफी होती है, जिस में खोए के स्वाद में चाकलेट का अंदाज दिखता है. दोनों ही तरह की बरफियों में खोए के साथ मेवों का इस्तेमाल किया जाता है. दोनों में फर्क यह होता है कि परतदार बरफी में चाकलेट और खोया अलगअलग परतों में दिखते हैं और दूसरी किस्म में केवल एक ही तरह की बरफी दिखाई पड़ती है.

खोया चाकलेट परतदार बरफी बनाने के लिए पहले खोए की परत तैयार की जाती है, फिर चाकलेट की परत तैयार होती है. दोनों को एकदूसरे के ऊपर रख कर जमा दिया जाता है. खोया चाकलेट की साधारण बरफी तैयार करने के लिए खोए में चाकलेट पाउडर और मेवे मिला कर एक जैसी ही बरफी तैयार की जाती है.

कुछ लोग परतदार बरफी पसंद करते हैं, तो कुछ लोग दूसरी बरफी पसंद करते हैं. चाकलेट खोया बरफी देखने में चाकलेट पीस की तरह लगती है. इसे और अच्छा बनाने के लिए चांदी के वर्क से सजा दिया जाता है. खाने वाले को क्रंची स्वाद का एहसास हो इस के लिए बरफी में अलगअलग तरह के मेवे मिलाए जा सकते हैं.

मिठाइयों की माहिर प्रिया अवस्थी कहती हैं, ‘मुझे तो चाकलेट खोया की साधारण बरफी ज्यादा अच्छी लगती है. परतदार बरफी देखने में बरफी जैसी ही लगती है, मगर साधारण चाकलेट खोया बरफी चाकलेट जैसी नजर आती है.’

जरूरी सामग्री : खोया 300 ग्राम, चीनी पाउडर, 100 ग्राम, 5-6 छोटी इलायचियों का पाउडर. चाकलेट बरफी परत के लिए : खोया 200 ग्राम, चीनी पाउडर 70 ग्राम, कोको पाउडर 2 टेबल स्पून, घी 2 टेबल स्पून.

विधि : खोया बरफी बनाने के लिए खोए को कद्दूकस कीजिए. फिर कढ़ाई में 1 छोटा चम्मच घी डाल कर गरम कर लीजिए. गैस एकदम धीमी रखिए. घी पिघलने के बाद कद्दूकस किया हुआ खोया और चीनी पाउडर डाल दीजिए.

लगातार चलाते हुए खोए चीनी के आपस में ठीक से मिलने तक भूनिए. सही तरह से मिलने के बाद मिश्रण को धीमी गैस पर 5-6 मिनट तक लगातार चलाते हुए पका लीजिए. फिर इस में इलायची पाउडर मिला दीजिए. प्लेट में घी लगा कर चिकना कीजिए और मिश्रण को जमने के लिए प्लेट में डालिए और घी लगे चम्मच से एक जैसा फैला कर 1 घंटे तक ठंडा होने दीजिए.

चाकलेट बरफी की परत तैयार करने के लिए कढ़ाई में एक छोटा चम्मच घी, कद्दूकस किया खोया, चीनी पाउडर और कोको पाउडर डालें. मिश्रण को धीमी आंच पर लगातार चलाते हुए खोया चीनी के मिलने तक भूनें. खोया व चीनी अच्छी तरह मिलने के बाद मिश्रण को धीमी आंच पर 4-5 मिनट तक लगातार चलाते हुए भूनें.

चाकलेट का मिश्रण बरफी जमाने के लिए तैयार है. चाकलेट वाले तैयार मिश्रण को ठंडे किए हुए बर्फी के मिश्रण के ऊपर डालिए और घी लगे चम्मच से फैला कर एक जैसा कर दीजिए. बरफी को जमने के लिए ठंडी जगह पर 2-4 घंटे के लिए रख दीजिए. इस के बाद बरफी तैयार हो जाएगी, जमी तैयार बरफी को अपने मनपसंद टुकड़ों में काट लीजिए.

Cotton: कपास को कीड़ों से बचाएं

Cotton: कपास भारत में उगाई जाने वाली खास रेशेदार व नकदी फसल है. गुजरात, कर्नाटक, पंजाब, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश सूबे मिल कर देश के उत्पादन का करीब 90 फीसदी कपास (Cotton) पैदा करते हैं.

देश की करीब 60 फीसदी कपास (Cotton) की पैदावार केवल 3 राज्यों गुजरात, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में होती है. दूसरे खास कपास (Cotton) उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश और हरियाणा हैं.

विश्व के कपास (Cotton) के कुल रकबे की तुलना में भारत में कपास (Cotton) की खेती सब से ज्यादा रकबे 78.11 लाख हेक्टेयर में होती है. हमारे देश में कपास (Cotton) की खेती महाराष्ट्र में सब से ज्यादा रकबे में होती है. इस के बाद गुजरात, मैसूर, मध्य प्रदेश और पंजाब में कपास (Cotton) की खेती होती है. कपास (Cotton) के गुणों पर बारिश, गरमी व हवा वगैरह का बहुत असर पड़ता है.

कपास (Cotton) की फसल को कीड़ों से बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचता है. यहां कपास (Cotton) में लगने वाले कीड़ों व उन से बचाव के बारे में विस्तार से बताया जा रहा है.

रस चूसक कीट

माहू (एफिड गौसीपाई) : यह काले या पीले रंग का छोटा कीड़ा है, जिस का आकार 4 से 6 मिलीमीटर होता है. ये कीड़े झुंड में पाए जाते हैं. ये कीड़े 2-3 हफ्ते तक जिंदा रहते हैं. मादा रोजाना 5 से 20 अर्भक पैदा करती है. अर्भक करीब 5 दिनों में बड़े कीड़े में बदल जाते हैं. इस का असर दिसंबर से मार्च तक ज्यादा होता है. इस के बच्चे व बड़े पत्तियों व फूलों से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां किनारों से मुड़ जाती हैं. ये चिपचिपा पदार्थ अपने शरीर से बाहर निकालते हैं, जिस से पत्तियों के ऊपर काली फफूंद आ जाती है, इस से पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर असर पड़ता है.

रोकथाम

* कीड़े के असर वाले भागों को तोड़ कर खत्म कर दें.

* माहू का असर होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, ताकि माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50000-100000 अंडे या सूडि़यां प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* जरूरत के हिसाब से थायोमिथाक्सोम 25 डब्लूपी 100 जी या मिथाइल डेमीटान 25 ईसी 1 लीटर या इमिडाक्लोप्रिड 1.0 मिलीलीटर या मेटासिसटाक्स का 1.5-2.0 का प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए.

सफेद मक्खी (बेमीसिया टेबेसी) : इस के निम्फ धुंधले सफेद होते हैं. निम्फ व वयस्क दोनों ही पत्ती की निचली सतह पर बैठना पसंद करते हैं. इन के शरीर पर सफेद मोमिया पर्त पाई जाती है.

मादा मक्खी पत्तियों की निचली सतह पर 1-1 कर के अंडे देती है, जिन की संख्या तकरीबन 100-150 तक होती है. निम्फ अवस्था 81 दिनों में पूरी हो जाती है. इस का प्रकोप पूरी फसल के समय में बना रहता, साथ ही साथ दूसरी फसलों पर पूरे साल इस का प्रकोप पाया जाता है. निम्फ व वयस्क पत्तियों की निचली सतह पर झुंड में पाए जाते हैं, जो पत्तियों की कोशिकाओं से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां कमजोर हो कर गिर जाती हैं.

रोकथाम

* पीले चिपचिपे 12 ट्रैप प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल करें.

* क्राइसोपरला कार्निया के 50000-100000 अंडे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छोड़ें.

* कीट लगे पौधों पर नीम का तेल 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें या मछली रोसिन सोप का 25 मिलीग्राम प्रति लीटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* बीच या बाद की अवस्था में थायोमिथाक्सोम 25 डब्ल्यूपी 100 जी का छिड़काव करें या क्लोथिनीडीन 50 फीसदी डब्ल्यूडीजी 20-24 ग्राम 500 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें या एक्टामाप्रिड 20 एसपी या फोसलोन 35 ईसी 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर या क्यूनालफास 25 ईसी का 2.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव कर सकते हैं.

Cotton

लीफ हौपर (अमरासका डेवासटेंस) : यह बहुत ही छोटा कीट है, जिस की लंबाई करीब 4 मिलीमीटर होती है. इस का रंग भूरा, पंख पर छोटे काले धब्बे व सिर पर 2 काले धब्बे होते हैं. इस की मादा निचले किनारे पर पत्ती की शिराओं के अंदर पीले से अंडे देती है. ये अंडे 6 से 10 दिनों में फूटते हैं. पंखदार वयस्क 2 से 3 हफ्ते तक जिंदा रहते हैं. इस के शिशु व वयस्क पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियों के किनारे मुड़ जाते हैं और लालभूरे हो जाते हैं और पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं.

रोकथाम

* पौधे के कीटग्रस्त भाग को तोड़ कर खत्म कर देना चाहिए.

* प्रपंची फसलें जैसे भिंडी का इस्तेमाल करना चाहिए.

* क्राइसोपरला कार्निया परभक्षी के 50000 अंडे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छोड़ें.

* जरूरत पड़ने  डाईमेथोएट 30 ईसी का 1.0-1.5 लीटर या मेटासिसटाक्स का 1.5-2.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

थ्रिप्स (थ्रिप्स टैबेकी) : ये बहुत ही छोटे आकार के कीट होते हैं. वयस्क कीट का रंग भूरा व अर्भक का रंग हलका पीलापन लिए होता है. इस की लंबाई करीब 1 मिलीमीटर होती है. इस की मादा हरे पौधों के ऊतकों के अंदर 1-1 कर के हर रोज गुर्दे की शक्ल के 4-5 अंडे देती है. इन में से 5 दिनों में निम्फ निकल आते हैं. निम्फ का जीवनचक्र 5 दिनों, प्यूपा का 4-5 दिनों व वयस्क का 2-4 हफ्ते का होता है. वयस्क कीट भूरे रंग का कटे पंख वाला होता है. इस की इल्ली व वयस्क पत्ती की सतह फाड़ कर रस चूसते हैं, इस से पत्तियां मुड़ जाती हैं और सूख कर नीचे गिर जाती हैं.

रोकथाम

* पौधे के उन भागों को जहां कीट का हमला होता है, तोड़ देना चाहिए.

* बीजों को इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस 7 ग्राम प्रति किलोग्राम से उपचारित करने से फसल 8 हफ्ते तक खराब नहीं होती है.

* क्राइसोपरला कार्निया परभक्षी के 50000 से 75000 अंडे प्रति हेक्टेयर छोड़ें.

* जरूरत होने पर थायोमिथाक्सोम 25 डब्ल्यूपी 100 जी या क्लोथिनीडीन 50 फीसदी डब्ल्यूडीजी 20-24 ग्राम 500 लीटर पानी में या डाईमैथोएट 30 ईसी का 1.0-1.5 लीटर या मेटासिसटाक्स का 1.5-2.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

Cotton

लाल कीड़ा (डिस्डर्कस सिंगुलेटस) : यह कीट गहरे लाल रंग का होता है. इस के अगले पंख के पिछले भाग पर काले धब्बे होते हैं. मादा कीट नरम मिट्टी या जमीन की दरारों में 100 से 130 अंडे देती है. इस का विकास 49 से 89 दिनों में पूरा होता है. सर्दियों में यह वयस्क अवस्था में रहता है. वयस्क लंबे गोलाकार फैले हुए गहरे लाल रंग के होते हैं. उदर पर एक ओर से दूसरी ओर तक सफेद पट्टी होती है. इस की इल्ली व वयस्क हरे गूलरों का रस चूस कर उन में छेद कर देते हैं. इस से गूलरों पर सफेद से पीले धब्बे बनते हैं. ये रेशों को अपने मल द्वारा खराब कर देते हैं, जिस से फोहा रेशा पीला हो जाता है.

रोकथाम

* अंडे व प्यूपा को शुरू में ही इकट्ठा कर के खत्म करते रहना चाहिए.

* गूलर खिलते ही चुनाई कर लें.

* 5 फीसदी नीम अर्क के घोल का इस्तेमाल करना चाहिए.

* रासायनिक रोकथाम के लिए डाईमैथोएट 30 ईसी का 1.0-1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

गूलर खाने वाले कीट

पत्ती लपेटक कीट (साइलेप्टा डेरोगेटा) : प्रौढ़ कीट का रंग हलका पीलापन लिए हुए सफेद होता है, जिस पर कालेभूरे रंग के धब्बे होते हैं. इस की मादा पत्ती की निचली सतह पर 1-1 कर के 250-350 अंडे देती है. सूंड़ी अर्द्धपारदर्शी हरापन लिए सलेटी या गुलाबी रंग की होती है. इस का प्यूपा मिट्टी या लिपटी हुई पत्तियों में पाया जाता है. जीवनचक्र 23-53 दिनों में पूरा होता है. इस कीट की केवल सूंड़ी ही नुकसानदायक होती है. सूंड़ी किनारे या मध्य से 2-3 पत्तियों को एकसाथ मोड़ कर उन का हरा भाग खाती रहती है, जिस से पत्तियों से भोजन बनना बंद हो जाता है और वे सूख जाती हैं.

रोकथाम

* ग्रसित पत्तियों को हाथ से चुन कर सूंडि़यों सहित खत्म कर देना चाहिए.

* ट्राइकोकार्ड (ट्राइकोग्रामा बेसिलिएनसिस) के 50000 से 100000 अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरपाइरीफास 20 ईसी 2.0 लीटर प्रति हेक्टेयर या डाइक्लोरवास डब्ल्यूएससी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या इंडोक्साकार्ब 14.5 फीसदी एससी (1 मिलीलीटर प्रति 2 लीटर) प्रति लीटर का छिड़काव करें.

तंबाकू की सूंड़ी (स्पोडोप्टेरा लिट्यूरा) : इस के वयस्क पतंगों के पंख सुनहरे भूरे रंग के सफेद धारीदार होते हैं. हर मादा पतंगा 1000-2000 अंडे गुच्छों में पत्तियों के नीचे देती है. इस के अंडे के गुच्छे बादामी रोओं से ढके रहते हैं. अंडे 3-5 दिनों में फूटते हैं. सूंड़ी मटमैले से काले रंग की, शरीर पर हरीनारंगी धारियां लिए होती है. इस की साल में 6-8 पीढि़यां पनपती हैं. सूंडि़यां झुंड में पत्ती की निचली सतह पर हरा पदार्थ खा कर व चूस कर नुकसान पहुंचाना शुरू करती हैं. आखिर में पत्तियों की शिराएं बाकी बचती हैं. पत्तियों के बाद ये फूलों की कलियों व डंठलों वगैरह को खाती हैं. कपास (Cotton) के अलावा इन का हमला फूलगोभी, तंबाकू, टमाटर व चना वगैरह पर पाया जाता है.

रोकथाम

* अंडे या सूंड़ी के गुच्छों को हाथ से पत्ती के साथ तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* खेत में चारों ओर अरंडी की फसल की बोआई करें.

* ट्राइकोग्रामा कीलोनिस 1.5 लाख प्रति हेक्टेयर या किलोनस ब्लैकबर्नी या टेलिनोमस रिमस के 100000 अंडे प्रति हेक्टेयर 1 हफ्ते के अंतराल पर छोडें.

* 5 किलोग्राम धान का भूसा, 1 किलोग्राम शीरा व 0.5 किलोग्राम कार्बारिल को मिला कर पतंगों को आकर्षित करें.

* एसएलएनपीवी 250 एलई का प्रति हेक्टेयर की दर से 8-10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

* 1 किलोग्राम बीटी का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* प्रकोप बढ़ने पर फिपरोनिल 5 एससी या क्वालीनोफास 25 ईसी 1.5-2.0 का प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें.

* फसल में जहर चारा 12.5 किलोग्राम राईसबीन, 1.25 किलोग्राम जगेरी, कार्बेरिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी 1.25 किलोग्राम और 7.5 लीटर पानी के घोल का शाम के समय छिड़काव करें, जिस से जमीन से सूंडि़यां निकल कर जहर चारा खा कर मर जाएंगी.

Cotton

अमेरिकन गूलर सूंड़ी (हेलिकोवरपा आर्मिजेरा) : यह कीट साल भर विभिन्न फसलों पर सक्रिय रहता है. प्रौढ़ कीट का पंख विस्तार 3-4 सेंटीमीटर होता है और इस के शरीर की लंबाई 2 सेंटीमीटर होती है. इस का रंग हलका हरापन लिए हुए पीला या भूरा होता है, जिस पर काले या भूरे धब्बे पाए जाते हैं. मादा का रंग नर से गहरा होता है. मादा पौधे के कोमल अंगों पर 1-1  कर के सफेद अंडे देती है. एक मादा 500 से 700 तक अंडे देती है. ये अंडे 3-4 दिनों में फूटते हैं. अंडों की अवस्था 3-5 दिनों, सूंड़ी की 17-35 दिनों व प्यूपा की 17-20 दिनों की होती है. 25-60 दिनों में इस का जीवनचक्र पूरा हो जाता है. इस का प्यूपा मिट्टी में बनता है. हर साल 7-8 पीढि़यां बनती हैं. इस की सूंड़ी हरे से पीले रंग की होती है, शरीर पर उभरे हुए निशान होते हैं.

रोकथाम

* सूंड़ी सहित कीट लगे भागों को खत्म कर दें.

* जाल फसल के लिए बीचबीच में टमाटर की लाइन लगाएं.

* खेत में 20 फेरोमोन ट्रेप प्रति हेक्टेयर की दर से 20-25 मीटर की दूरी पर लगाएं.

* अंडों व सूंड़ी के गुच्छों को हाथ से पत्ती सहित तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* कीट का आक्रमण या अंडे दिखाई पड़ते ही ट्राइकोग्रामा किलोनिस 1.5 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर प्रति हफ्ते के अंतराल पर 6-8 बार छोड़े .

* सूंड़ी दिखाई देते ही एनपीवी की 250 एलई या 3 ग 1012 पीओबी का प्रति हेक्टेयर की दर से 7-8 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

* उस के बाद 1 किलोग्राम बीटी का छिड़काव करें. इस के अलावा 5 फीसदी नीम की निबोली के सत का इस्तेमाल कर सकते हैं.

* स्पाइनोसैड 45 एससी, इंडोक्सकार्ब 14.5 एससी व थायोमेंक्जाम 70 डब्ल्यूएससी का 1 मिलीमीटर प्रति लीटर का इस्तेमाल करें.

गुलाबी सूंड़ी (पेक्टीनोफोरा गोसीपिएला) : ये कीट छोटे आकार के तकरीबन 1 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. ये पतंगे कलियों, टहनियों और नई छोटी पत्तियों पर सफेद अंडे देते हैं. काले रंग की मादा पतंगा अंडे देने के लिए रोएंदार भाग पसंद करती है. इन से 8-41 दिनों में सूंड़ी निकलती है. छोटी सूंड़ी पहले पीले रंग की व बाद में गुलाबी हो जाती है. भूरा सिर इस की खास पहचान है. सूंड़ी छोटे गूलर बनने की अवस्था में ही अंदर घुस जाती है और बिना पके कच्चे बीज बिनौला खाती है. यह फल में घुसने के बाद छेद को बंद कर लेती है. सूड़ी गिरी हुई पत्तियों में अपना कुकून बनाती है और 16-29 दिनों तक इस अवस्था में रहती है.

रोकथाम

* खेत की गहरी जुताई करें, जिस से खाली वाली अवस्था सूंड़ी व प्यूपा खत्म हो जाएं.

* खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से 20-25 मीटर की दूरी पर लगाएं.

* ट्राइकोग्रामा किलोनिस 1.5 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर प्रति हफ्ते के अंतराल पर 6-8 बार छोंडे़.

* परभक्षी क्राइसोपरला कार्निया के 50000 से 100000 अंडे खेत में छोड़ें.

* 1 किलोग्राम बीटी का प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें.

* प्रकोप ज्यादा होने पर ट्राफाईजोफोस 40 ईसी 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर या कलोरोपाइरीफास 20 ईसी का 2.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

चित्तीदार सूंड़ी (एरियास फेबिया) : यह कीट पीलापन लिए हुए हरे रंग का होता है. इस का पंख विस्तार 25 सेंटीमीटर होता है. इस के वयस्क के पंखों में फन के आकार की हरी धारी पंख के शुरू से आखिर तक होती है. मादा पतंगा 1-1 कर फूलों की पंखडि़यों पर 200-400 अंडे देती है.

सूंड़ी 10 से 16 दिनों तक बनी रहती है. प्यूपा 4-9 दिनों व वयस्क 8-22 दिनों तक रहता है. प्यूपा नीचे पुरानी पत्तियों में बनता है. सूंड़ी शुरू में सिरे की छोटी टहनियों में छेद कर देती है, जिस से शाखाएं सूख जाती हैं. ग्रसित फूल व कलियां नीचे गिर जाती हैं. ग्रसित गूलर नीचे गिरने से खराब हो जाते हैं और गूलर के अंदर की रुई सड़ने के कारण बेकार हो जाती है.

रोकथाम

* सब से पहले अंडों के समूहों को इकट्ठा कर के खत्म कर देना चाहिए.

* फसल में ट्रैप फसल भिंडी की बोआई करनी चाहिए.

* बोआई के 40 दिनों बाद या कीड़े दिखाई पड़ते ही ट्राइकोग्रामा किलोनिस 1.5 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर 8-10 दिनों के अंतराल पर 4-6 बार छोड़ें.

Cluster Bean : ग्वार के उन्नत बीजों की खेती

Cluster Bean : ग्वार एक ऐसी फसल है जिस से बारानी इलाकों में भी उगा कर फायदा लिया जा सकता है. बारानी इलाके वे होते हैं जहां का इलाका शुष्क या असिंचित होता है यानी वहां की खेती बारिश पर आधारित होती है. जरूरत है केवल समय के साथ चलने की इसलिए आज के दौर में खेती के आधुनिक तौरतरीकों को अपना कर खेती करें.

ग्वार की फसल को पौष्टिक चारे के अलावा हरी खाद के लिए भी उगाया जाता है. हरियाणा के अनेक इलाकों में ग्वार की खेती ज्यादातर उस के दानों के लिए की जाती है.

ग्वार में गोंद होने की वजह से इस बारानी फसल का औद्योगिक महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है. भारत से करोड़ों रुपए का गोंद विदेशों को बेचा जाता है. ग्वार की उन्नत किस्मों में 30 से 35 फीसदी तक गोंद की मात्रा होती है.

गंवई इलाकों में ग्वार की फलियों के साथसाथ फूलों का साग बना कर खाने में इस्तेमाल किया जाता है. अब तो शहरों में भी ग्वार की फलियों को सब्जी के रूप में बहुत से लोग पसंद करते हैं.

ग्वार की फली (Cluster Bean)  का बाजार भाव भी अच्छा मिलता है, इसलिए किसानों को चाहिए कि वह ग्वार की खेती करते समय जागरूक रहें और अपने इलाके के मुताबिक उन्नत किस्मों के बीजों का इस्तेमाल करें, जिस से बेहतर पैदावार मिल सके.

ग्वार की अच्छी पैदावार के लिए रेतीली दोमट मिट्टी वाली जमीन अच्छी रहती है. हालांकि हलकी जमीन में भी इसे पैदा किया जा सकता है, परंतु कल्लर (ऊसर) जमीन इस के लिए ज्यादा ठीक नहीं है.

जमीन की तैयारी : सब से पहले 2-3 जुताई कर के खेत को तैयार करें. खेत की जमीन एकसार करने के साथसाथ खरपतवारों का भी खत्मा कर दें.

बोआई का समय : जल्दी तैयार होने वाली फसल के लिए जून के दूसरे पखवारे में बोआई करें. इस के लिए एचजी 365, एचजी 563, एचजी 2-20, एचजी 870 और एचजी 884 किस्मों को बोएं.

देर से तैयार होने वाली फसल के लिए एचजी 75, एफएस 277 की मध्य जुलाई में बोआई करें. अगेती किस्मों के लिए बीज की मात्रा 5-6 किलोग्राम प्रति एकड़ और मध्य अवधि के लिए बीज 7-8 किलोग्राम प्रति एकड़ की जरूरत होती है. बीज की किस्म और समय के मुताबिक ही बीज बोएं.

फसल बोने से पहले मिट्टी की जांच जरूर करा लें ताकि खाद व उर्वरक देने की मात्रा भी जरूरत के मुताबिक दी जा सके.

खरपतवारों की रोकथाम : बीज बोने के एक माह बाद खेत की निराईगुड़ाई करें. अगर बाद में भी जरूरत महसूस हो तो 15-20 दिन बाद दोबारा एक बार और खरपतवार निकाल दें.

गुड़ाई करने के लिए हाथ से चलने वाले कृषि यंत्र हैंडह्वील (हो) से कर देनी चाहिए. ‘पूसा’ पहिए वाला हो वीडर बहुत ही साधारण प्रकार का कम कीमत यंत्र है. इस यंत्र से खड़े हो कर निराईगुड़ाई की जाती है. इस का वजन तकरीबन 8 किलोग्राम है. इस यंत्र को आसानी से फोल्ड कर के कहीं भी लाया व ले जाया जा सकता है.

इस यंत्र को खड़े हो कर आगेपीछे धकेल कर चलाया जाता है. निराईगुड़ाई के लिए लगे ब्लेड को गहराई के अनुसार ऊपरनीचे किया जा सकता है. पकड़ने में हैंडल को भी अपने हिसाब से एडजस्ट कर सकते हैं. यह कम खर्चीला यंत्र है.

खेत में पानी : आमतौर पर इस दौरान मानसून का समय होता है और पानी की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन अगर बारिश न हो और खेत सूख रहे हों तो फलियां बनते समय हलकी सिंचाई जरूर करें.

फसल कटाई: जब फसल की पत्तियां पीली पड़ कर झड़ने लगें और फलियों का रंग भी भूरा होने लगे तो फसल की कटाई करें और कटी फसल को धूप में सूखने के लिए छोड़ दें. जब कटी फसल सूख जाए तो इस की गहाई करें और दानों को सुखा कर रखें.

अगर फसल में कीट बीमारी का हमला दिखाई दे तो कीटनाशक छिड़कें और कुछ दिनों तक पशुओं को खिलाने से परहेज करें.

चारे के लिए Cluster Bean  की खास किस्में

ग्वार (एचएफजी 156) : ग्वार ( Cluster Bean ) एक पौष्टिक चारा फसल होने के साथसाथ मिट्टी की पैदावार कूवत भी बढ़ाती है. इस को अकेले या ज्वारबाजरा के साथ भी बोया जा सकता है.

चारे के लिए किस्म (एचएफजी 156) : यह एक लंबी अनेक शाखाओं वाली फसल है. पत्तियों के किनारे कटे हुए होते हैं. यह किस्म 70 दिन में तैयार हो जाती है. इस किस्म की बोआई अप्रैल से मध्य जुलाई तक करनी चाहिए.

अगेती फसल में सिंचित हालात में अच्छी बढ़त होती है. वर्षाकालीन फसल जो जुलाई में बोई जाती है, वह किस्म पर निर्भर होती है. एचएफजी 156 की बोआई में बीज की मात्रा 16 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से लगती है.

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार, (हरियाणा) के चारा अनुभाग के जरीए कुछ उन्नत किस्मों की जानकारी

ये हैं ग्वार की कुछ खास उन्नत किस्में

एफएस 277 : यह किस्म बिना शाखाओं वाली सीधी व लंबी बढ़ने वाली है. साथ ही, देर से पकने वाली किस्म है. यह मिश्रित खेती के लिए अच्छी मानी गई है. इस की बीज की पैदावार 5.5-6.0 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 75 : शाखाओं वाली यह किस्म रोग के प्रति सहनशील और देर से पकने वाली है. इस के बीज की पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 365 : यह कम शाखाओं वाली जल्दी पकने वाली किस्म है. यह किस्म 85-100 दिनों में पक जाती है और औसतन पैदावार 6.5-7.5 क्विंटल प्रति एकड़ है. इस किस्म के बोने के बाद आगामी रबी फसल आसानी से ली जा सकती है.

एचजी 563 : Cluster Bean की इस किस्म पकने में 85-100 दिन लेती है. इस के पौधों पर फलियां पहली गांठ व दूसरी गांठ से ही शुरू हो जाती हैं. इस का दाना चमकदार और मोटा होता है. इस किस्म की पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 2-20 : ग्वार की यह किस्म पूरे भारत में साल 2010 में अनुमोदित की गई है. 90-100 दिन में पकने वाली इस किस्म की फलियां दूसरी गांठ से शुरू हो जाती हैं और इस की फली में दानों की तादाद आमतौर पर दूसरी किस्मों से ज्यादा होती है व दाना मोटा होता है. इस किस्म की औसत पैदावार 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 870 : ग्वार की इस किस्म को साल 2010 में हरियाणा के लिए अनुमोदित किया गया. पकने का समय 85-100 दिन. दाने की पैदावार 7.5-8 क्विंटल प्रति एकड़. गोंद की औसत मात्रा 31.34 फीसदी तक.

एचजी 884 : ग्वार ( Cluster Bean) की इस किस्म को पूरे भारत के लिए साल 2010 में अनुमोदित किया गया था. यह 95-110 दिन में पकती है. मोटे दाने, दाने की पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ व गोंद की औसत मात्रा 29.91 फीसदी तक है.

Agricultural Fair: पूसा संस्थान के कृषि मेलों में मीडिया संस्थानों को मिलेगा फ्री स्टौल

Agricultural Fair: पूसा संस्थान,नई दिल्ली में इस साल 22 से ले कर 24 फरवरी तक कृषि मेला (Agricultural Fair) लगेगा. इस बाबत 17 फरवरी को पूसा संस्थान में प्रैसवार्ता हुई थी, जिस की शुरुआत डा. आरएस बाना ने सभी का स्वागत करते हुए की.

उस के बाद पूसा संस्थान के नवनियुक्त डायरैक्टर डा. सीएच श्रीनिवास राव और डा. आरएन पंडारिया, जौइंट डायरैक्टर ऐक्सटैंशन ने सभी मीडिया वालों को संबोधित किया. उस के बाद संस्थान के अनेक कृषि वैज्ञानिकों ने भी कृषि जगत और इस मेले से जुड़ी जानकारी दी.

प्रैसवार्ता में चर्चा के दौरान ‘फार्म एन फूड’ के प्रतिनिधि ने अपनी बात सामने रखते हुए कहा कि मीडिया वाले आप का मेला कवर करते हैं, आप के संस्थान की गतिविधियों को आगे पहुंचाने का काम करते हैं, लेकिन कृषि मेले के लिए हमें फ्री स्टौल जैसी सुविधा उपलब्ध नहीं होती है.

अगर हमें पूसा मेले में स्टौल लेना है, तो मीडिया संस्थान को भी तय दर पर रकम का भुगतान करना होता है.

 

इस पर वहां मौजूद डा. आरएन पंडारिया ने आश्वासन दिया कि हम ने यह सब नोट कर लिया है और अब मीडिया के लिए नि:शुल्क स्टौल मिलेगा. उस में आप की हर सुविधा का ध्यान रखा जाएगा. आप वहां से अपना प्रचार कर सकते हैं, काम कर सकते हैं.

बाद में ‘फार्म एन फूड’ के प्रतिनिधि द्वारा दिल्ली प्रैस द्वारा कराए जा रहे  ‘फार्म एन फूड कृषि सम्मान अवार्ड’ के बारे में भी जानकारी दी गई और बताया गया  कि हम अलगअलग राज्यों में इस अवार्ड समारोह का आयोजन करते रहे हैं और आने वाली 28 फरवरी को भोपाल में 16 कैटेगिरी में यह समारोह होने जा रहा है.

इस से पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भी हम इस का सफल आयोजन कर चुके हैं.

संवाद के दौरान पूसा के बड़े अधिकारियों को यह भी बताया गया कि आप के संस्थान से डा. नफीस अहमद हमारे अवार्ड समारोह के जूरी मैंबर भी रहे हैं.

प्रैसवार्ता के अंत में दिल्ली प्रैस संस्थान की तरफ से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं का सैट भी भेंट किया गया.

पूसा कृषि विज्ञान मेला (Pusa Agricultural Science Fair) 2025

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली का पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025 22 फरवरी से 24 फरवरी में आयोजित होने जा रहा है. मेले का विषय “उन्नत कृषि विकसित भारत” है.

इस उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान होंगे. रामनाथ ठाकुर, राज्य मंत्री, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि होंगे. भागीरथ चौधरी, राज्य मंत्री, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय 24 फरवरी, 2025 को आयोजित समापन सत्र के मुख्य अतिथि होंगे. डा. हिमांशु पाठक, सचिव डेयर और महानिदेशक, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद उद्घाटन और समापन सत्र की अध्यक्षता करेंगे.

इस साल के पूसा कृषि विज्ञान मेले के मुख्य आकर्षण होंगे :

– भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित नई किस्मों और तकनीकों का लाइव  प्रदर्शन.

– भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद  के संस्थानों, कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विज्ञान केंद्रों, एफपीओ, उद्यमियों, स्टार्टअप्स, सार्वजनिक और निजी कंपनियों द्वारा नवीन तकनीकों, उत्पादों और सेवाओं की प्रदर्शनी.

– तकनीकी सत्र और किसानों वैज्ञानिकों के साथ संवाद, जो जलवायु अनुकूल कृषि, फसल विविधीकरण, डिजिटल कृषि, युवाओं और महिलाओं का उद्यमिता विकास, कृषि विपणन, किसान संगठन और स्टार्टअप्स, और किसानों के नवाचार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर आधारित होंगे.

– पूसा द्वारा विकसित फसलों की किस्मों की बिक्री.

– मेले के दौरान कृषि वैज्ञानिकों द्वारा कृषि सलाह.

जलवायु जोखिम और पोषण के बढ़ते महत्व को समझते हुए पूसा संस्थान में अनुसंधान जलवायु अनुकूल किस्मों और बायोफोर्टिफाइड किस्मों के विकास पर केंद्रित है, जो उच्च उत्पादकता के साथ बेहतर पोषण सुरक्षा प्रदान करता है.

साल 2024 के दौरान 10 विभिन्न फसलों में कुल 27 नई किस्में विकसित की गई हैं, जिन में 7 गेहूं की किस्में, 3 चावल, 8 संकर मक्का, 1 संकर बाजरा, 2 चने की किस्में, 1 अरहर संकर, 3 मूंग दाल की किस्में, 1 मसूर की किस्म, 2 डबल जीरो सरसों की किस्में और 1 सोयाबीन की किस्म शामिल हैं. इन में 16 किस्में और 11 संकर किस्में हैं.

बदलते जलवायु परिदृश्य के तहत पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए 10 जलवायु अनुकूल और बायोफोर्टिफाइड किस्मों का विकास किया गया है, जिस में 7 अनाज और मिलेट्स, 2 दालें और 1 चारा किस्म शामिल है.

संस्थान ने बासमती धान उत्पादन और व्यापार में श्रेष्ठ किस्मों के विकास के माध्यम से विशाल योगदान दिया है. पूसा बासमती धान की किस्मों में पूसा बासमती 1718, पूसा बासमती 1692, पूसा बासमती 1509 और उन्नत बासमती धान की किस्में, जिन में बैक्टीरियल ब्लाइट और ब्लास्ट रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता है, जैसे पीबी-1847, पीबी-1885 और पीबी-1886.

साल 2023-2024 में भारत से 5.2 मिलियन टन बासमती धान के निर्यात से 48,389 करोड़ रुपए की आय में लगभग 90 फीसदी योगदान करती है. अप्रैल, 2024 से नवंबर, 2024 तक पूसा के बासमती धान से निर्यात आय 31,488 करोड़ रुपए तक पहुंची है. 2 छोटी अवधि वाली धान की किस्में पूसा 1824 और पूसा 2090 विकसित की गई हैं, जो बाद में रबी फसल के खेतों की तैयारी के लिए पर्याप्त समय प्रदान कर सकती हैं.

पूसा आरएच 60 एक उच्च उपज वाली, छोटी अवधि वाली सुगंधित धान की संकर किस्म है, जिस में लंबे, पतले दाने होते हैं, जो बिहार और उत्तर प्रदेश के लिए सब से मुफीद है. पूसा नरेंद्र केएन-1 और पूसा सीआरडी केएन-2 उन्नत काला नमक धान की किस्में हैं, जिन में बेहतर प्रतिरोधक क्षमता और उच्च उपज है, जो उत्तर प्रदेश के लिए अनुशंसित हैं.

पूसा के अनुसंधान कार्यक्रम ने पोषण सुरक्षा पर भी ध्यान केंद्रित किया और 8 बायोफोर्टिफाइड किस्मों का विकास किया. एक गेहूं की किस्म (एचआई-1665) और एक ड्यूरम गेहूं की किस्म (एचआई-60 पीपीएम), प्रोविटामिन ए (6.22पीपीएम), उच्च लाइसीन (4.93 फीसदी) और ट्रिप्टोफैन (1.01 फीसदी) से समृद्ध किया गया है.

पूसा बायोफोर्टिफाइड मक्का संकर-4 को उच्च प्रोविटामिन A, लाइसीन, ट्रिप्टोफैन से बायोफोर्टिफाइड किया गया है. पूसा पौपकौर्न संकर-1 और संकर-2 उच्च पौपिंग फीसदी और बटरफ्लाई प्रकार के पौप किए गए फ्लैक्स प्रदान करते हैं, जो एनडब्ल्यूपीजेड और पीजेड क्षेत्रों के लिए अनुशंसित हैं. पूसा एचएम-4 मेल स्टीराइल बेबीकौर्न-2 एक मेल स्टीराइल आधारित संकर है, जिसे एनईपीजेडपीजेड और सीडब्ल्यूजेड क्षेत्रों के लिए विकसित किया गया है.

2 डबल जीरो सरसों की किस्में (पूसा सरसों-35 और पूसा सरसों-36), जिन में एरूसिक अम्ल और ग्लूकोसिनोलेट्स कम होते हैं. समय पर बोई गई सिंचित परिस्थितियों में यह उच्च उपज प्रदान करती हैं, जो क्षेत्र-III (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान) के लिए उपयुक्त हैं. पूसा-1801 (एमएच 2417) बाजरा की एक द्विउद्देश्यीय किस्म (अनाज और चारा) है, जो उच्च लोहा (70 पीपीएम) और जिंक (57 पीपीएम) से युक्त बायोफोर्टिफाइड किस्म हैं. यह कई रोगों के प्रति प्रतिरोधक है और दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए सब से उपयुक्त है.

चने की किस्म पूसा चना विजय 10217 उच्च उपज वाली किस्म है, जो फ्यूजेरियम विल्ट के प्रति प्रतिरोधक है. उत्तर प्रदेश में यह सिंचित परिस्थितियों के लिए अनुशंसित है. चने की किस्म पूसा-3057 में उच्च प्रोटीन (24.3 फीसदी) है और कई रोगों, जैसे फ्यूजेरियम विल्ट (उकठा), कौलर रोट (तना गलन) और ड्राई रूट रोट (जड़ गलन) के प्रति प्रतिरोधक है.

यह पोड बोरर (फली बेधक सूँडी) के प्रति भी मध्यम प्रतिरोधक है और इस के बीज आकर्षक रंग और बड़े आकार के होते हैं.

अरहर की किस्म पूसा अरहर हाइब्रिड-5 उच्च उपज वाली किस्म है (औसतन 23.35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक, और संभावित उपज 25.46 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, जो एसएमडी, फाइटोफोथोरा स्टेम ब्लाइट, मैक्रोफोमिना ब्लाइट (अंगमारी) और अल्टरनेरिया लीफ स्पौट (पत्ती धब्बा रोग) के प्रति प्रतिरोधक है और यह दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा छोटे किसानों के लिए 1.0 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए एक एकीकृत कृषि प्रणाली मौडल विकसित किया गया है, जिस में फसलें, डेयरी, मछलीपालन, बतखपालन, बायोगैस संयंत्र, फलदार पेड़ और कृषि वनस्पति शामिल हैं. इस मौडल में प्रति हेक्टेयर हर साल 3 लाख, 79 हजार रुपए तक की शुद्ध आय प्राप्त करने की क्षमता है. इसी तरह, पूसा संस्थान द्वारा 0.4 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए एकीकृत कृषि प्रणाली मौडल विकसित किया गया है, जिस में पौलीहाउस, मशरूम की खेती के साथसाथ फसल और बागबानी आदि गतिविधियां भी शामिल हैं. इस मौडल से प्रति एकड़ हर साल एक लाख, 75 हजार 650 रुपए की शुद्ध आय पैदा करने की क्षमता है.

बागबानी आधारित फसल विविधीकरण किसानों के बीच लोकप्रिय रहा है. सब्जियों, फलों और फूलों की खेती लाभदायक रही है, जबकि फलों और सब्जियों की खेती पोषण सुरक्षा को बढ़ावा देने में भी उपयोगी है.

सब्जियों की खेती को बढ़ावा देने के लिए संस्थान ने  48 सब्जी फसलों में 268 सुधारित सब्जी किस्में विकसित की हैं, जिन में 41 संकर और 227 किस्में शामिल हैं. आईएआरआई ने गाजर (पूसा प्रतीक, पूसा रुधिरा, पूसा असिता), भिंडी (पूसा लाल भिंडी-1), भारतीय सेम (पूसा लाल सेम), ब्रोकोली (पूसा पर्पल ब्रोकोली-1) और विटामिन सी से भरपूर पालक की किस्म (पूसा विलायती पालक) जैसे पोषणयुक्त किस्में विकसित की हैं, ताकि कुपोषण की समस्या का समाधान किया जा सके.

यलो वेन मोजेक वायरस (वेयूएमवी) प्रतिरोधी और ए नैशन लीफ कर्ल वायरस (ईएलसीवी) सहिष्णु भिंडी की किस्में (पूसा भिंडी-5 और डीओएच-1) पैस्टिसाइड्स के उपयोग को कम करने और खेती की लागत में कमी लाने के लिए विकसित की गई हैं.

हाल के सालों में बैंगन की 6 किस्में और एक संकर, प्याज की 3 किस्में, खीरे की 2 किस्में और 1 संकर, भारतीय सेम की 3 किस्में, करेला की 3 संकर किस्में और खरबूजे की 2 किस्में और 1 संकर विकसित की गई हैं. 2 सौफ्टसीडेड अमरूद की किस्में, पूसा आरुषि (लाल गूदा) और पूसा प्रतीक्षा (सफेद गूदा), साथ ही, एक उभयलिंगी, सैमीड्वार्फ पपीता किस्म, पूसा पीत भी विकसित की गई है.

एक गेंदा किस्म, पूसा बहार को केंद्रीय किस्म विमोचन समिति द्वारा जोन IV, V, VI और VII में विमोचन के लिए अनुशंसा की गई है. साल 2018-19 में (239.861 टन) से ले कर साल 2023-24 में (975.478 टन) तक गुणवत्ता वाले बीजों का उत्पादन चौगुना से अधिक बढ़ा है.

जैव रसायन संभाग द्वारा विकसित पोषणयुक्त खाद्य उत्पादों में डिवाइन डो (बाजरे का आटा, जिस में गुणवत्ता वाली प्रोटीन, प्रतिरोधी स्टार्च, फाइबर और सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे Fe और Zn होते हैं) शामिल हैं. पर्लीलोफ एक ग्लूटनमुक्त ब्रेड प्री-मिक्स है, जो पूरी तरह से बाजरा से बनाया गया है, जो गेहूं आधारित ब्रेड का पोषणयुक्त विकल्प प्रदान करता है. इस का ग्लाइसैमिक इंडेक्स (पीजीई 68-69 फीसदी) कम है, जो रक्तशर्करा के प्रबंधन में मदद करता है, जबकि यह फाइबर, आवश्यक खनिजों और बायोएक्टिव यौगिकों से भरपूर होता है.

पूसा संस्थान द्वारा एक त्वरित रंगमापी परीक्षण किट ‘स्पीडीसीड व्यायबिलिटी किट’ विकसित की गई है, जो 1–4 घंटे के भीतर बीज के प्रकार के आधार पर जीवित और अव्यायी बीजों के बीच अंतर करने में सक्षम है. इस किट में एक सूचक घोल शामिल है, जो जीवित बीजों द्वारा छोड़े गए CO₂ को पकड़ने पर रंग बदलता है. पूसा एसटीएफआर मीटर, जिसे पूसा संस्थान द्वारा विकसित किया गया है, एक कम लागत, यूजर फ्रेंडली, डिजिटल एम्बेडेड सिस्टम और प्रोग्रामेबल उपकरण है, जो 14 महत्वपूर्ण मृदा मापदंडों का विश्लेषण करने के लिए है, जिस में गौण और सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे कि मृदा pH, EC, जैविक कार्बन, उपलब्ध N (जैविक कार्बन से व्युत्पन्न), P, K, S, B, Zn, Fe, Cu, Mn, साथ ही, चूना और जिप्सम की आवश्यकता का परीक्षण किया जा सकता है.

पूसा डीकंपोजर, जिसे भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित किया गया है, एक पर्यावरणीय रूप से सुरक्षित और आर्थिक रूप से प्रभावी सूक्ष्मजीव समाधान है, जो स्थल पर और स्थल के बाहर अवशेष प्रबंधन के लिए है.

पूसा डीकंपोजर को तैयार व उपयोग पाउडर रूप में भी किया गया है. यह पाउडर पूरी तरह से पानी में घुलने योग्य है और इसे आसानी से यांत्रिक स्प्रेयर के साथ उपयोग किया जा सकता है. खेत में धान के पुआल के विघटन के लिए प्रति एकड़ 500 ग्राम की सिफारिश की जाती है.

पूसा फार्म सन फ्रिज, जिसे संस्थान द्वारा विकसित किया गया है, एक औफ-ग्रिड, बैटरीरहित सौर संवर्धित और वाष्पन शीतलक संरचना है. इस प्रौद्योगिकी का उद्देश्य खेतों में एक सौर शीतलक भंडारण केंद्र स्थापित करना है. इस ठंडे भंडारण का उपयोग नाशवान वस्तुओं के भंडारण के लिए किया जाता है.

“पूसा मीफ्लाई किट” और “पूसा क्यूफ्लाई किट” तैयार व उपयोग किट हैं, जो क्रमशः फलमक्खी की समस्या को विभिन्न प्रकार के फल और ककड़ी सब्जियों में प्रबंधित करने के लिए हैं. यह एक विशिष्ट और प्रभावी तरीका अपनाती है, जो बैक्ट्रोसेरा प्रजाति के नर फलमक्खियों को आकर्षित करने और नष्ट करने के लिए पैराफेरोमोन इन्प्रेग्नेशन का उपयोग करती है. यह पूरे मौसम के लिए पर्याप्त होती है. विभिन्न किटों को रोग प्रबंधन के लिए विकसित किया गया है.

चिली लीफ कर्ल वायरस और मूंगफली पीले मोजेक वायरस का त्वरित निदान करने के लिए प्वाइंट औफ केयर डायग्नोस्टिक किट और ईजी पीसीआर डिटेक्शन किट विकसित की गई हैं. पूसा धान बकानी परीक्षण किट को बीज और मृदा में बकानी रोग का कारण बनने वाले पैथोजन (रोग कारक) की पहचान करने के लिए विकसित किया गया है.