Agricultural Equipment : सैकड़ों परिवारों को मिले अनेक कृषि उपकरण

Agricultural Equipment  : उदयपुर  स्थित महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अखिल भारतीय समन्वित कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत ग्राम पंचायत झाडोलफलासिया के तुरगढ़ गांव में केंद्रीय कृषिरत महिला संस्थान भुवनेश्वर द्वारा अनुसूचित जाति के उपपरियोजना के अंतर्गत तीनदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम 5 से 7 फरवरी, 2025 तक आयोजित किया गया.

प्रशिक्षण कार्यक्रम में अनुसूचित जाति के सौ परिवारों में अन्न भंडारण के लिए एल्युमिनियम की 100 कोठियां वितरित की गई. प्रशिक्षण कार्यक्रम में डा. विशाखा बंसल, प्रोफैसर व इकाई समन्वयक, प्रसार शिक्षा एवं संचार प्रबंधन ने अनाज भंडारण के लिए प्राकृतिक तरीकों के बारे में महिलाओं को जानकारी दी.

प्रशिक्षण कार्यक्रम के दूसरे दिन आदिवासी जाति के परिवारों को कृषि वैज्ञानिक डा. सुभाष चंद्र मीणा ने खेतीबारी की उन्नत तकनीक एवं मृदा स्वास्थ्य के बारे में बताया और पशुपालन के विभिन्न गुर सिखाए. साथ ही, कार्तिक सालवी ने भी मृदा संरक्षण और मृदा के अपरदन के बारे में व मिट्टी के अनुसार फसल के उत्पादन के बारे में जानकारी दी.

प्रशिक्षण के 3 दिनों में कृषि से संबंधित विभिन्न प्रकार के उपकरणों (Agricultural Equipment) को अनुसूचित जाति के 571 परिवार में वितरित किया गया. जिस में कुल मिला कर 17 उपकरण (Agricultural Equipment) जैसे सिंचाई के लिए पाइप, मिल्क कैन, सिलाई मशीन, अजोला बेड, मेटल बकेट, खुरपी, दरांती, गार्डन रेक और स्प्रेयर आदि थे.

कार्यक्रम में सहायक कृषि अधिकारी शिव दयाल मीणा ने आदानों के वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कार्यक्रम का संचालन डा. विशाखा बंसल, इकाई समन्वयक, कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना द्वारा किया गया. इस कार्यक्रम में डा. कुसुम शर्मा, अनुष्का तिवारी, यंग प्रोफैशनल एवं कार्तिक सालवी द्वारा सहयोग दिया गया.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत प्रशिक्षण (Training)

उदयपुर : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के सामुदायिक एवं व्यावहारिक विज्ञान महाविद्यालय में संचालित राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की परियोजना “मेवाड़ क्षेत्र की परंपरागत फसलों के प्रसंस्करणों का उत्कृष्टता केंद्र” के तहत कृषि विज्ञान केंद्र, प्रतापगढ़ के देवगढ़ गांव में दोदिवसीय कौशल विकास प्रशिक्षण (Training) कार्यक्रम आयोजित किया गया.

इस कार्यक्रम का मुख्य विषय ‘मिलेट प्रसंस्करण एवं मूल्य संवर्धन’ व ‘हलदी एवं अदरक प्रसंस्करण एवं मूल्य संवर्धन’ रहा, जिस का उद्देश्य किसानों और महिलाओं को प्रसंस्करण तकनीकों से परिचित करा कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना था. कार्यक्रम में कुल 65 ग्रामीण महिलाओं ने भाग लिया.

विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने इस प्रशिक्षण को किसानों और महिलाओं के लिए रोजगार के नए अवसर को उत्पन्न करने वाला बताया. परियोजना की प्रमुख अन्वेषक डा. कमला महाजनी ने बताया कि मिलेट, अदरक और हलदी प्रसंस्करण की दी गई जानकारी से महिलाओं में स्वयं का रोजगार शुरू करने की प्रेरणा मिलेगी, जिस से वे अपने लघु उद्योग स्थापित कर सकेंगी.

प्रशिक्षण के पहले दिन यंत्र चालक चित्राक्षी कछवाहा ने मिलेट और मसाला प्रसंस्करण मशीनों के उपयोग और सरकारी योजनाओं की जानकारी दी. साथ ही, डा. पायल तलेसरा और योगिता पालीवाल ने रागी और बाजरा से चौकलेट बनाने की तकनीकों को बना कर सिखाया.

दूसरे दिन योगिता पालीवाल ने अदरक कैंडी, मुरब्बा, सांवे के गाठीया बनाने का प्रशिक्षण दिया, वहीं डा. पायल तलेसरा ने विपणन, पैकेजिंग और लेबलिंग पर प्रकाश डाला.

कार्यक्रम के दौरान मिलेट आधारित उत्पादों की प्रदर्शनी भी लगाई गई, जिस से प्रतिभागियों को इन के संभावित व्यावसायिक अवसरों की जानकारी मिली. प्रशिक्षण का समापन प्रतिभागियों को प्रसंस्करण क्षेत्र में नवाचार अपनाने और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करते हुए किया गया.

किसान और बीज उत्पादकों के लिए बढ़ाई सब्सिडी (Subsidy)

नई दिल्ली : केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले दिनों  वीडियो कौंफ्रेंसिंग से एक महत्वपूर्ण बैठक की थी, जिस में समीक्षा करते हुए देश के किसानों के हित में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एवं पोषण मिशन के दिशानिर्देशों में बड़े बदलाव करने की मंजूरी  दी गई.

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के घटकों में किसानों के हित में परिवर्तन किए गए हैं. इस मिशन के दिशानिर्देशों में संशोधन करते हुए किसानों और बीज उत्पादकों के लिए सब्सिडी बढ़ाई गई है, वहीं केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अधिकारियों से साफ कहा कि योजना का लाभ सिर्फ किसानों को मिले, यह पक्का किया जाना चाहिए. ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसानों के नाम पर दूसरा कोई इस का फायदा उठा ले.

इस मिशन के तहत पारंपरिक देशी बीज किस्मों का उत्पादन बढ़ाने का प्रावधान किया गया है, वहीं पंचायत लेवल पर बीज प्रसंस्करण व भंडारण इकाई स्थापित करने की भी कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंजूरी दी है. उन्होंने आला अफसरों को निर्देश दिए कि पूरी प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए, ताकि किसानों का भला हो.

इस के साथ ही पहले “बीज और रोपण सामग्री” उपमिशन सहित “राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और पोषण मिशन” अब कृषि संवर्धन योजना का एक घटक होगा. इस मिशन के उद्देश्य हैं- देश के चिन्हित जिलों में सतत तरीके से क्षेत्र विस्तार और उत्पादकता वृद्धि के माध्यम से चावल, गेहूं, दलहन, मोटे अनाज (मक्का व जौ) व पोषक अनाज (श्री अन्न) का उत्पादन बढ़ाना, व्यक्तिगत खेत लेवल पर मिट्टी की उर्वरता व उत्पादकता बढ़ाना, किसानों में विश्वास बहाल करने के लिए  कृषि लाभ को बढ़ाना और कुशल बाजार संपर्कों के माध्यम से किसानों को बेहतर मूल्य प्राप्ति के लिए खेत पर फसलोपरांत मूल्य संवर्धन को बढ़ाना और बीज प्रतिस्थापन दर और किस्म प्रतिस्थापन दर को बढ़ाना एवं देश के बीज क्षेत्र के लिए इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर ढांचे में सुधार करना आदि.

इस बैठक में केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नई प्रजातियों के प्रदर्शन, प्रमाणित बीज उत्पादन एवं प्रमाणित बीज वितरण के घटकों में किसानों के लिए सब्सिडी बढ़ाने की मंजूरी दी है. साथ ही, जलवायु अनुकूल, बायोफोर्टिफाइड और उच्च उपज देने वाली किस्मों के उत्पादन को प्राथमिकता दी जाएगी. साथ ही, इस मिशन के सभी प्रावधानों पर डिजिटली मानीटरिंग की जाएगी. कृषि मैपर और साथी पोर्टल की सहायता भी इस में ली जाएगी.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान  ने कहा कि स्कीम का फायदा किसानों को पूरी तरह से मिलना सुनिश्चित किया जाए व स्कीम के केंद्र में किसान ही हो.

इसी तरह पारंपरिक किस्मों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंजूरी दी है, क्योंकि ये पारंपरिक किस्में फसल विकास, स्थानीय अनुकूलन, पोषण मूल्य व अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं में रणनीतिक महत्व रखती हैं. इस प्रकार पहचान, सूचीकरण, उन के उत्पादन के मुख्य क्षेत्रों की पहचान, जियो टैगिंग, उन के उत्पादन में वृद्धि, उन के उत्पादों को लोकप्रिय बनाने और उन की विपणन क्षमता बढ़ाने जैसे समग्र दृष्टिकोण के साथ पारंपरिक किस्मों को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है. इसलिए, इस घटक में उन के बीज वितरण, उत्पादन, विभिन्न पहलुओं में क्षमता निर्माण व पीपीवीएफआरए व राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण द्वारा पंजीकृत ऐसी किस्मों के बीज बैंक के निर्माण व विकास पर सहायता भी दी जाएगी.

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन में संशोधित दिशानिर्देशों में ग्राम पंचायत स्तर पर बीज प्रसंस्करण एवं भंडारण इकाई का प्रावधान भी किया गया है. इस के तहत बीज और रोपण सामग्री के ग्राम पंचायत लेवल पर बीज प्रसंस्करण एवं भंडारण इकाई को पुनर्जीवित करने की मंजूरी भी केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा दी गई है, ताकि देशभर के किसानों के आसपास के क्षेत्र में स्थानीय स्तर पर बीज प्रसंस्करण, सफाई, ग्रेडिंग, पैकेजिंग व भंडारण के काम किया जा सकें.

साथ ही, गैरपारंपरिक तरीके से आलू बीज उत्पादन के लिए नए घटक के निर्देशों को भी कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंजूरी प्रदान की है, वहीं बीज उत्पादन, विधायन, प्रमाणीकरण एवं टेस्टिंग से जुड़ी विभिन्न सरकारी एजेंसियों को दी जाने वाली सहायता में भी बढ़ोतरी की गई है, ताकि वे सशक्त हो कर और बेहतर काम कर सकें.

नए तरीकों से करें गेहूं (Wheat) की खेती

गेहूं दुनियाभर में सब से ज्यादा उगाई जाने वाली फसल है. भारत में अनाज की फसलों में गेहूं का खास स्थान है. रकबे और पैदावार की दृष्टि से गेहूं चावल के बाद दूसरे स्थान पर है. गेहूं देश की कुल जनसंख्या के तकरीबन 40 फीसदी लोगों का खास भोजन है, जबकि उत्तर भारत में तकरीबन 83 फीसदी जनसंख्या अपनी भोजन संबंधी जरूरतों के लिए गेहूं पर निर्भर है. इस का इस्तेमाल रोटी, दलिया, हलवा, मिठाई, पावरोटी, बिस्कुट, मैदा जैसे अनेक पदार्थों को बनाने में होता है.

गेहूं की पैदावार की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का पहला स्थान है. उत्तर भारत में गेहूं की खेती रबी मौसम में की जाती है. इन इलाकों की जलवायु भी अलग है, जो अधिक पैदावार बढ़ाने में बाधक है, लेकिन फिर भी यहां पर उत्पादन बढ़ाने की काफी संभावनाएं हैं, जिस में अच्छी विधियां अपनाना बहुत जरूरी है. ये विधियां परंपरागत तरीकों से ज्यादा प्रभावी और लाभप्रद हैं.

मिट्टी व जलवायु : गेहूं की अच्छी पैदावार के लिए सही जल निकास वाली चिकनी दोमट व बलुई दोमट जमीन अच्छी रहती है. मौजूदा दौर में उत्तर प्रदेश में सभी तरह की सामान्य मिट्टी में इस की खेती की जा सकती है. इस के अलावा ऐसी जमीन जिस का पीएच मान 6 से 8.5 के बीच होता है, उस में गेहूं की पैदावार की जा सकती है. बढ़वार की शुरुआती अवस्थाओं में गेहूं की उपज को पकने के दौरान ठंडी और सूखी जलवायु की जरूरत पड़ती है.

खेत की तैयारी : सब से पहले 2 जुताई मिट्टी पलटने वाले हैरो से करते हैं. फिर 2-3 जुताई कल्टीवेटर या देशी हल से करते हैं. आखिर में पाटा चला कर खेत तैयार करते हैं. जमीन के लिए फास्फेटिका कल्चर 2.5 किलोग्राम और एजोटोबैक्टर 2.5 किलोग्राम इन दोनों जैविक कल्चरों को 1 एकड़ खेत के लिए 100 से 120 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर 4 से 5 दिनों के लिए जूट के बोरे से ढकने के बाद खेत की तैयारी में आखिरी जुताई के समय छिटक कर मिट्टी में मिला देते हैं.

बीज की मात्रा : सामान्य स्थिति में गेहूं की बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 100 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. मोटे दाने की दशा में यह मात्रा 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो जाती है. यदि छिटकवां विधि या देर से बोआई की जाए तो प्रति हेक्टेयर 125 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. बीजशोधन के लिए 2.5 ग्राम थीरम, 2.5 ग्राम कार्बेंडाजिम या 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा स्पोर में से किसी एक दवा को प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर किसी साफ घड़े में बीज और दवा डाल कर पालीथीन से मुंह बांध कर अच्छी तरह बीज पर दवा लगाते हैं.

बोआई का समय : बोआई समय से करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 23 सेंटीमीटर और बीज की गहराई 5 सेंटीमीटर होनी चाहिए. देर से बोआई के लिए लाइन से लाइन की दूरी 18 सेंटीमीटर और बीज की गहराई 4 सेंटीमीटर होनी चाहिए. बोआई का समय 15 अक्तूबर से 25 नवंबर तक अच्छा रहता है. देर से बोआई का समय 25 नवंबर से 25 दिसंबर तक है.

बोआई का तरीका : गेहूं की बोआई 6 तरह से की जा सकती है. छिटकवां विधि, हल के पीछे कूड़ में, सीडड्रिल मशीन से, डिबलर से, जीरो टिल सीडड्रिल मशीन और उभरी हुई क्यारी तरीके से की जाती है. बोआई में यह ध्यान रखें कि प्रति वर्गमीटर 400 से 500 बाली वाले पौधे जरूर हों वरना उपज पर कुप्रभाव पड़ेगा. बोआई के समय जमीन में सही नमी होना जरूरी है.

खाद और उर्वरक : खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के मुताबिक ही करना चाहिए. अच्छी उपज लेने के लिए कंपोस्ट खाद 100 से 112 क्विंटल प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें. आमतौर से 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश, लेकिन देरी से बोआई के लिए 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 30 किलोग्राम पोटाश व अन्य तत्त्वों की पूर्ति के लिए 30 किलोग्राम गंधक व पोषक 20 से 25 किलोग्राम सूक्ष्म पोषक तत्त्व मिश्रण का इस्तेमाल करते हैं दोमट या मटियार मिट्टी में नाइट्रोजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई के 24 घंटे पहले या ओट आने पर देनी चाहिए. बलुई दोमट या बलुई जमीन में नाइट्रोजन की 1/3 मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय कूड़ों में बीज के 2 से 3 सेंटीमीटर नीचे दी जाती है और बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद और आधी मात्रा दूसरी सिंचाई के बाद देनी चाहिए.

जल प्रबंधन : गेहूं की फसल में दी गई तालिका के मुताबिक समयसमय पर सिंचाई करना सही रहता है.

खरपतवारों की रोकथाम : फसल में यदि खरपतवार उगे हों तो एक गुड़ाई 30 से 35 दिनों पर करें. रासायनिक तरीके से खरपतवारों की रोकथाम तालिका में दी गई है.

फायदेमंद हैं रंगीन सब्जियां (Colorful Vegetables)

हाल ही में देखा गया है कि पिछले एक दशक में देश में फलों व सब्जियां की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है, जो कि कृषि क्षेत्र में आई प्रगति को तो दर्शाता ही है, साथ ही यह खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के लिहाज से भी एक बड़ी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है.

पिछले 10 सालों में समूचे देश में फलों और सब्जियों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता क्रमश: 7 और 12 किलोग्राम बढ़ी है. प्रति व्यक्ति उपलब्धता बढ़ने का श्रेय मुख्य रूप से तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब और जम्मूकश्मीर को मिलना चाहिए, जिन के योगदान से ही आज देश प्रति व्यक्ति हर साल 227 किलोग्राम फल व सब्जियों का उत्पादन कर रहा है, जो प्रति व्यक्ति 146 किलोग्राम की अनुशंसित खपत से कहीं ज्यादा है.

दरअसल, आज का भारत परंपरागत खेती से आगे बढ़ कर नवाचार और तकनीकी उपायों को अपनाने में सफल हो रहा है. किसानों द्वारा ड्रिप सिंचाई उच्च उपज वाली फसलों को प्राथमिकता देना और स्मार्ट खेती जैसे वीडियो को अपनाना इस के मुख्य कारण हैं.

इस के अलावा प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, कृषि अवसरंचना कोष और किसान उत्पादक संगठन जैसी पहलों ने किसानों को बेहतर संसाधन तो दिए ही हैं, साथ ही, उन की बाजारों तक पहुंच भी सुनिश्चित की है.

लोगों में स्वास्थ्य एवं पोषण को ले कर बढ़ती जागरूकता ने भी फलों एवं सब्जियों की मांग को प्रोत्साहित किया है. लोगों के आहार पैटर्न में यह जो बदलाव दिखाई दे रहा है, वह कोरोना महामारी के दौर से ही दिखना शुरू हो गया था.

हालांकि, आसमान में होती मौसम की स्थितियों में होने वाले नुकसानों पर भी भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी रिपोर्ट में प्रकाश डाला है कि आजकल बाजार में हरी सब्जियों के साथसाथ बैंगनी रंग की सब्जियों का चलन काफी बढ़ गया है. लोग इन सब्जियों को स्वास्थ्य के लिए काफी महत्त्वपूर्ण मानते हुए अधिक खरीद रहे हैं, साथ ही, किसानों को उस की कीमत भी अच्छी मिल रही है.

कई सब्जियों और फलों की प्रजातियां ऐसे विज्ञान द्वारा विकसित कर दी गई हैं, जिन का कलर बैंगनी हो गया है. चाहे टमाटर हो या पत्तागोभी, मूली, शलजम, गाजर, आलू, फूलगोभी, ब्रोकोली, केला, अंगूर आदि फल और सब्जियां हैं, जिन की लगातार बाजार में मांग बढ़ रही है.

रंगीन सब्जियां (Colorful Vegetables)

रंगीन सब्जियों की पोषण सुरक्षा में भूमिका

रंगीन सब्जियां पोषण सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, क्योंकि ये आवश्यक विटामिन, खनिज और एंटीऔक्सिडैंट से भरपूर होती हैं. इन में मौजूद प्राकृतिक पिगमेंट जैसे कैरोटीनौइड, एंथोसायनिन और फ्लेवोनौइड़स न केवल सब्जियों को आकर्षक रंग प्रदान करते हैं, बल्कि ये शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली यानी इम्यून सिस्टम को भी मजबूत बनाते हैं.

गाजर, पालक, टमाटर और बैंगन जैसी सब्जियां कुपोषण से बचाने में मददगार हैं, क्योंकि ये विटामिन ए, सी, ई और के, के साथसाथ आयरन, कैल्शियम और पोटैशियम की कमी को भी पूरा करती हैं.

इन सब्जियों में मौजूद फाइबर पाचन तंत्र को स्वस्थ बनाए रखता है, जबकि बीटाकैरोटीन आंखों और त्वचा के स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है. इस के अलावा हृदय और हड्डियों को मजबूत करने में भी इन का महत्त्वपूर्ण योगदान है. कम कैलोरी और उच्च पोषण मूल्य के कारण रंगीन सब्जियां संतुलित आहार और टिकाऊ पोषण सुरक्षा का एक अनिवार्य हिस्सा हैं.

बैंगनी कलर लोगों को करता है आकर्षित

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार, अनाज के उत्पादन में तापमान में 3 डिगरी सैल्सियस से एक डिगरी भी ज्यादा होने पर गेहूं की पैदावार में 3 से 4 फीसदी की कमी आ सकती है, जो बेहद चिंताजनक है. लेकिन इस से भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि 30 से 35 फीसदी फसल कटाई भंडारण, परिवहन और पैकेजिंग के गलत तौरतरीकों के चलते खराब हो जाती है.

देश के 7 फीसदी कोल्ड स्टोरेज केवल 4 राज्यों गुजरात, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब में है. भारत फिलहाल फल व सब्जियों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर है. लेकिन बढ़ती आबादी और भविष्य की जरूरतों के मद्देनजर अब आत्मनिर्भरता के साथ आगे बढ़ने का समय है. फलसब्जियों की उपलब्धता बढ़ाना सकारात्मक संकेत है, लेकिन खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अभी लंबा सफर तय करना बाकी है.

आखिर क्यों होता है इन का रंग बैंगनी

सब्जियों का बैंगनी रंग मुख्य रूप से उन के अंदर मौजूद एंथोसायनिन नामक पिगमेंट के कारण होता है, जो एक प्रकार का फ्लेवोनौइड है. यह पिगमेंट सब्जी के परिपक्वता स्तर और उस के अंदर की अम्लीयता पर निर्भर करता है. जैसेजैसे सब्जी अपने विकास के अंतिम चरण में पहुंचती है, एंथोसायनिन पूरी तरह से विकसित हो जाता है, जिस से उस का रंग गहरा बैंगनी हो जाता है.

इस के अलावा बाहरी कारण जैसे प्रकाश, तापमान और पर्यावरणीय दबाव भी इस रंग को और गहरा बनाने में भूमिका निभाते हैं. बैंगनी रंग का विकास अकसर सब्जी के पकने और पोषक तत्त्वों के पूरे विकास का संकेत देता है. यह रंग न केवल सौंदर्य बढ़ाता है, बल्कि यह एंटीऔक्सिडैंट गुणों से भरपूर होता है, जो सब्जी को पोषण और स्वास्थ्य के नजरिए से और भी उपयोगी बनाता है.

रंगीन सब्जियों की खूबियां

रंगीन सब्जियां जैसे गाजर, टमाटर, पालक, ब्रोकोली, शिमला मिर्च, चुकंदर, बैंगन और अन्य अपने विशिष्ट रंगों के कारण विशेष पोषक तत्त्वों से भरपूर होती हैं. इन रंगों के पीछे मौजूद पिगमेंट्स जैसे कैरोटीनौइड, फ्लेवोनौइड्स और एंथोसायनिंस स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं.

लाल सब्जियां : टमाटर और चुकंदर जैसे खाद्य पदार्थ लाइकोपीन और एंथोसायनिन से भरपूर होते हैं, जो हृदय स्वास्थ्य को बढ़ावा देने और कैंसर के खतरे को कम करने में सहायक हैं.

हरी सब्जियां : पालक, ब्रोकोली और पत्तेदार सब्जियां आयरन, कैल्शियम और फाइबर का सब से बेहतर स्रोत हैं. ये हड्डियों को मजबूत करती हैं और पाचन तंत्र को स्वस्थ बनाए रखती हैं.

पीली और नारंगी सब्जियां : गाजर और कद्दू जैसे खाद्य पदार्थ विटामिन ए और बीटाकैरोटीन प्रदान करते हैं, जो आंखों की रोशनी और प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करते हैं.

बैंगनी और नीली सब्जियां : बैंगन और अन्य गहरे रंग की सब्जियां एंटीऔक्सिडैंट से भरपूर होती हैं, जो कोशिकाओं को क्षति से बचाने में मदद करती हैं.

फरवरी महीने में खेती के खास काम (Farming Tasks)

फरवरी का महीना खेतीबारी के लिए बहुत अहम है, क्योंकि यह मौसम फसल और पशुओं के लिए नाजुक होता है, इसलिए किसानों को कुछ एहतियात बरतने चाहिए:

* समय पर बोई गेहूं की फसल में इन दिनों फूल आने लगते हैं. इस दौरान फसल को सिंचाई की बहुत जरूरत होती है. झुलसा, गेरुई, करनाल बंट जैसी बीमारी का हमला फसल पर दिखाई दे, तो मैंकोजेब दवा के 2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

* गन्ने की बोआई 15 फरवरी के बाद कर सकते हैं. बोआई के लिए अपने इलाके की आबोहवा के मुताबिक गन्ने की किस्मों का चुनाव करें. बोआई में 3 आंख वाले सेहतमंद बीजों का इस्तेमाल करें. बोआई 75 सैंटीमीटर की दूरी पर कूंड़ों में करें. बीज को फफूंदनाशक दवा से उपचारित कर के ही बोएं.

* सूरजमुखी की बोआई 15 फरवरी के बाद कर सकते हैं. उन्नत बीजों की बोआई लाइन में 4-5 सैंटीमीटर की गहराई पर करें. बीज को कार्बंडाजिम से उपचारित कर के बोएं.

* मैंथा की बोआई करें. बोआई के लिए उन्नतशील किस्में जैसे हाईब्रिड एमएसएस का चुनाव करें. 1 हेक्टेयर खेत के लिए 400-500 किलोग्राम मैंथा जड़ों की जरूरत पड़ती है. बोआई के दौरान 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 75 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* आलू की फसल पर पछेता झुलसा बीमारी दिखाई दे, तो इंडोफिल दवा के 0.2 फीसदी वाले घोल का अच्छी तरह छिड़काव करें. फसल को कोहरे और पाले से बचाने का भी इंतजाम  करें.

* चना, मटर और मसूर की फसल में फलीछेदक कीट की रोकथाम के लिए कीटनाशी का इस्तेमाल करें. चने की फसल की सिंचाई करें. मटर की चूर्ण फफूंदी बीमारी की रोकथाम के लिए कैराथेन दवा का इस्तेमाल करें.

* टमाटर की गरमियों की फसल की रोपाई करें. रोपाई 60×45 सैंटीमीटर की दूरी पर करें. रोपाई से पहले खेत को अच्छी तरह तैयार कर लें.

* प्याज की रोपाई अभी तक नहीं की गई है, तो फौरन रोपाई करें. पिछले महीने रोपी गई फसल की निराईगुड़ाई करें. जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

* इस महीने धूप में चटकपन आ जाता है. धूप देख कर किसान पशुओं की देखरेख में लापरवाही बरतने लगते हैं. ऐसा न करें, पशुओं का ठंड से पूरा बचाव करें. जरा सी लापरवाही नुकसानदायक हो सकती है.

* अपने ऐसे पशु, जो जल्द ही ब्याने वाले हों, को दूसरे पशुओं से अलग कर दें और उन पर लगातार निगरानी रखें. गाभिन पशु का कमरा आदामदायक और कीटाणुरहित हो. इस में तूड़ी का सूखा डाल कर रखें.

* अगर बरसीम सही मात्रा में उपलब्ध हो, तो दाना मिश्रण में 5-7 फीसदी खल को कम कर के अनाज की मात्रा बढ़ा दें.

एग्रोटैक किसान मेला 2025 का सफलतापूर्वक समापन

रांचीः  बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित तीनदिवसीय एग्रोटैक किसान मेला 2025 का पिछले दिनों सफलतापूर्वक समापन हुआ. इस तीनदिवसीय मेले में हर दिन लोगों की अच्छीखासी भीड रही.

इस मेले में बड़ी संख्या में किसान और आम लोग पहुंच थे. मेले में कुल 120 स्टौल लगाए गए थे, जिस के माध्यम से पशुधन को होने वाली बीमारी से ले कर खेतीबाड़ी की आधुनिक तकनीक तक की जानकारी दी गई. साथ ही, किसानों द्वारा उत्पादित फलसब्जियों, फूलों और बोनसाई पेड़ों की भी प्रदर्शनी लगाई गई थी.

किसानों के लिए प्रतियोगिता का आयोजन

हर साल की तरह इस बार भी मेले में बीएयू के उद्यानिकी विभाग द्वारा प्रगातिशील किसानों के बीच एक प्रतियोगिता आयोजित की गई थी. इस प्रतियोगिता को जीतने के लिए सब्जी उत्पादक किसानों में होड़ लगी हुई थी.

28 किलोग्राम का कद्दू रहा आकर्षण का केंद्र

2 साल से लगातार शिमला मिर्च और कद्दूकोहड़ा सेगमेंट में पुरस्कार जीतने वाले पिठोरिया ब्लौक के किसान मो. आलिम अंसारी ने कहा कि बेहद सावधानी से कद्दू का रखरखाव करना पड़ता है. पिछली बार 34 किलोग्राम का कद्दू मेले में लाया गया था. इस के लिए पिछली बार उन्हें पुरस्कार भी मिला था. इस बार वे 28 किलोग्राम का कद्दू ले कर मेले में पहुंचे थे. उन्होंने कहा कि इस बार वे कद्दू के अलावा शिमला मिर्च, सफेद कोहड़ा (भतुआ) आदि ले कर आए थे.

Kisan Mela

सब्जी उत्पादक किसानों को बढ़ावा दे सरकार

एग्रोटैक किसान मेले में 4 किस्म के आलू ले कर पहुंचे बोड़ैया के किसान मधु साव ने कहा कि जो लोग सब्जियां नहीं उगाते, वही यह कहते हैं कि इस में बहुत मुनाफा होता है, जबकि सच तो यह है कि आज सब्जी उत्पादक किसान बरबादी के कगार पर है. सरकार को सब्जियों के लिए बाजार उपलब्ध कराना चाहिए.

समझदारी से खेती करने की है जरूरत

अनगड़ा से आए एक प्रगतिशील किसान मो. शाहनवाज ने कहा कि अब समय है कि किसान होशियारी से खेती करें. वह पहले से ही यह अनुमान लगा लें कि जिस सब्जी को वह अभी लगा रहे हैं, जब वह तैयार होगी, तब उस की कीमत कितनी होगी. बाजार में उस की क्या कीमत मिलेगी आदि.

पशुओं को होने वाली रोग की दी गई जानकारी

एग्रोटैक किसान मेला-2025 में वेटेनरी कालेज द्वारा लगाए गए स्टौल में पशुपालकों को खुरपकामुंहपका बीमारी, उस के लक्षण और बचाव के उपाय बताए बताए गए, वहीँ बीएयू के अभियंत्रण विभाग की ओर से कृषि में तकनीक को बढ़ावा देने के लिए कई मशीनों का प्रदर्शन भी किया गया.

मटर की जैविक खेती, जानिए किस्में, देखभाल और पैदावार

मटर की जैविक खेती में फसलों के उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों जैसे गोबर की सड़ी खाद, जैव उर्वरक का प्रयोग  आदि फसल के पोषण व रसायनरहित कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण के लिए किया जाता है. मटर की जैविक खेती में किसान कम लागत में अच्छी गुणवत्ता वाली सब्जी मटर का अधिक उत्पादन कर सकते हैं.

मटर की रासायनिक खेती में न चाहते हुए भी उत्पादकों को 8 से 10 छिड़काव कीटनाशकों के करने पड़ते हैं, जिस से मटर के फल जहरीले हो जाते हैं, जो इनसानी सेहत के लिए नुकसानदायक हैं. अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल से भूमि बंजर हो रही है और पर्यावरण दूषित हो रहा है, इसलिए मटर की जैविक खेती आज की जरूरत है.

जलवायु

मटर की जैविक खेती के लिए नम और ठंडी जलवायु अधिक अच्छी रहती है, इसलिए हमारे देश में ज्यादातर मटर की फसल रबी के मौसम में लगाई जाती है, जहां पर 4 महीने ठंडा मौसम रहता है, साथ ही, ठंड धीरेधीरे गरमी की ओर बढ़ती है, इसलिए मटर की जैविक खेती के लिए यह मौसम सब से बेहतर होता है. साथ ही, उन सभी स्थानों पर जहां सालाना बारिश 60 से 80 सैंटीमीटर तक होती है, वहां मटर की फसल आसानी से उगाई जा सकती है.

मटर फसल की बढ़वार में अधिक बारिश का होना काफी नुकसानदायक होता है. बीज के अंकुरण के लिए औसत तापमान 22 डिगरी सैल्सियस व अच्छी फसल के लिए 12-20 डिगरी सैल्सियस तापमान सब से अच्छा होता है.

भूमि का चयन

मटर की खेती ज्यादातर उन सभी तरह की मिट्टियों में आसानी से की जा सकती है, जिन में अच्छी मात्रा में नमी उपलब्ध हो, परंतु फलीदार फसल के लिए अधिक अम्लीय एवं अधिक क्षारीय भूमि अच्छी नहीं होती. लेकिन जैविक पदार्थों से भरपूर बलुई दोमट या दोमट मिट्टी, मटर की खेती के लिए सब से अच्छी होती है.

भूमि का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना अच्छा होता है. ऐसी मिट्टी, जिस में पानी का ठहराव न होता हो और पानी सोखने की क्षमता अधिक हो, वहां उत्पादन सब से अच्छा होता है.

खेत की तैयारी

मटर की जैविक खेती के लिए खेत को 2 से 3 बार गहरी जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए, ताकि पौधों की बढ़वार अच्छी हो सके. गोबर की खाद 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिला दें.

गोबर की खाद के बदले केंचुआ खाद भी 100 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से मिला सकते हैं. बीजों के अच्छे जमाव के लिए खेत में उचित नमी होनी चाहिए. ट्राइकोडर्मा पाउडर से मिट्टी को बोआई से पहले मिला कर उपचारित कर लेना चाहिए. बोआई से पहले उपचारित खाद को खेत में फैला दें. ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से फफूंद या कवकजनित रोगों की रोकथाम बेहतर तरीके से हो जाती है.

उन्नत किस्में

मटर की जैविक खेती के लिए उन्नत और अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए, ताकि मटर की जैविक फसल से अधिकतम उपज प्राप्त हो सके. साथ ही, यदि संभव हो, तो जैविक प्रमाणित बीज का बोआई के लिए उपयोग करें.

मटर की कुछ प्रचलित किस्में अर्केल, बोनविले, जवाहर मटर-1, जवाहर मटर-2, लिंकन, वीएल-3, पालम प्रिया, सोलन निरोग, जीसी-477, पंजाब-89, पंत मटर-155 व विवेक मटर-8 व 9 आदि हैं.

बोआई का उचित समय

मैदानी क्षेत्रों में अंगरेजी किस्म के लिए मध्य सितंबर से मध्य अक्तूबर व मध्यम देर से पकने वाली किस्म के लिए 15 अक्तूबर से 15 नवंबर तक बोआई की जा सकती है.

लेकिन बोआई के समय अधिक तापमान होने के कारण पौधे कम बढ़ते हैं और मटर में तना छेदक व उकठा रोग के होने की संभावना बढ़ जाती है.

मटर की बोआई अक्तूबर के पहले सप्ताह से ले कर नवंबर माह के अंत तक की जा सकती है. समय से पहले और समय के बाद बोआई करने से उत्पादकता एवं गुणवत्ता दोनों पर बुरा असर पड़ सकता है.

बीज का उपचार मटर की जैविक खेती के लिए स्वस्थ व रोगमुक्त प्रमाणित बीज का चयन करना चाहिए और खेत में बोआई से पहले राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें (3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज). ऐसा करने से उपज में 10-15 फीसदी तक की बढ़ोतरी होती है.

बीज दर व अंतराल

मटर की जैविक खेती में जल्दी पकने वाली किस्मों के लिए 100 से 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और मध्य व देर से पकने वाली किस्मों के लिए 70 से 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा उपयुक्त है.

अगेती किस्मों की कतार से कतार की दूरी 30 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सैंटीमीटर और देर से पकने वाली किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 30-40 सैंटीमीटर और कतार में पौधे से पौधे की दूरी 5 से 8 सैंटीमीटर रहती है.

उपचारित बीज की बोआई सीड ड्रिल अथवा देशी हल द्वारा कतारों में की जाती है. बीज की बोआई 5-8 सैंटीमीटर की गहराई पर करें.

खाद प्रबंधन

मटर की अच्छी उपज लेने के लिए 2 टन वर्मी कंपोस्ट या 5 टन गोबर की खाद का इस्तेमाल करना चाहिए. यह खाद अच्छी प्रकार से हल चलाते समय भूमि में मिला देनी चाहिए. वर्मी कंपोस्ट को आखिरी बोआई के समय उपयोग करना चाहिए, जिस से मटर की जैविक फसल में पोषक तत्त्वों की पूर्ति संभव हो.

वर्मी कंपोस्ट 1:10 भाग पानी के साथ मिला कर कम से कम फसल बोनी के 30 दिन एवं 45 दिन के बाद स्प्रे करें.

सिंचाई व जल प्रबंधन

मटर की बिजाई से पहले एक सिंचाई और उस के बाद 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. मटर की फसल के लिए पानी की आवश्यकता भूमि व बारिश पर निर्भर करती है, इसलिए आमतौर पर मटर की फसल के लिए 2 से 3 सिंचाइयां बहुत जरूरी होती हैं.

पहली सिंचाई बीज बोने से पहले, दूसरी सिंचाई फल आने पर और तीसरी सिंचाई जब फलियां तैयार हो रही हों. जमीन में अधिक नमी मटर की फसल के लिए नुकसानदायक होती है, जिस से जड़ सड़न रोग, पौधों का पीला पड़ना और फसल के दूसरे तत्त्वों को उपयोग में लाने में बाधा होती है.

खरपतवार नियंत्रण

मटर की जैविक खेती में 1 से 2 निराईगुड़ाई की जरूरत होती है, जो कि फसल की किस्म पर निर्भर करती है. पहली निराई व गुड़ाई जब पौधों में 3-4 पत्ते हों या बिजाई से 3 से 4 सप्ताह बाद करनी चाहिए. दूसरी, फूल आने से पहले करें. खेत की मेंड़ों पर पाए जाने वाले सालाना घास वाले और चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों की रोकथाम उन को नष्ट करने के बाद कर सकते हैं.

Organic farming of peas

कीट एवं रोग नियंत्रण

एंथ्रेक्नोज

इस रोग में पत्तियों के ऊपर पीलेकाले रंग के सिकुड़े हुए धब्बे बन जाते हैं और धीरेधीरे पूरी पत्ती को ढक लेते हैं. यह बीमारी बीज के माध्यम से एक मौसम से दूसरे मौसम में फैलती है.

रोकथाम

बोने से पहले बीज को बीजामृत या गौमूत्र से उपचारित करें और रोगरोधी किस्म लगाएं.

फली छेदक

खेत में फेरोमोन ट्रैप लगाएं. टी आकार की खूंटियां (20-25 प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाएं) टांगें. रस्सों की अंतर्वर्ती फसल लगाने से भी काफी फायदा होता है.

माहू

माहू कीट का प्रकोप जनवरी महीने में शुरू होता है. यह कीट पत्तियों व टहनियों से रस चूसता है.

रोकथाम

इस रोग से बचाव के लिए पीला ट्रैप लगाएं. नीम तेल को अच्छी तरह पानी के साथ मिलाने के बाद 1500 पीपीएम का 2.5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के साथ मिला कर स्प्रे करें.

पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीड़ा पौधे की पत्तियों में सफेद धागे की तरह बारीक सुरंग बनाता है. अधिक प्रकोप होने से पत्तियां सूख जाती हैं. इस कीट के उपचार के लिए नीम गोल्ड 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में मिला कर या नीम की निंबोली का सत (अर्क) 4 फीसदी का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें.

जैविक प्रमाणीकरण

जैविक प्रमाणीकरण, जैविक उत्पाद की गुणवत्ता एवं सत्यता को प्रमाणित करने के लिए तीसरे पक्ष द्वारा कराया गया एक मूल्यांकन है. जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग को ध्यान में रखते हुए सभी देशों ने जैविक खेती करने के कुछ मापदंड तैयार किए हैं.

भारत में एपीडा यानी कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादन निर्यात एवं विकास प्राधिकरण जैविक उत्पादों के मापदंड तय करती है. जैविक प्रमाणपत्र भूमि पर जैविक तरीके से की गई खेती की सत्यता को निर्धारित करते हुए उस भूमि के लिए निर्गत किया जाता है.

फलियों की तुड़ाई

मटर की जैविक फसल से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए फलियों को समय पर तोड़ना बहुत आवश्यक है, अन्यथा इन की क्वालिटी पर असर पड़ता है.

फलियां तब तोड़ें, जब वे पूरी तरह दानों से भर जाएं. इस के बाद फलियों का हरा रंग घटने लगता है. आमतौर पर फलियों की तुड़ाई सुबह या शाम के समय 7 से 10 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए.

मटर फसल की कुल 4-5 बार तुड़ाई होती है. दाल के लिए उगाई गई फसल की कटाई पूरी तरह पकने के बाद ही करनी चाहिए. दिन में तेज धूप पड़ने पर मटर की क्वालिटी पर असर पड़ता है.

पैदावार

मटर की जैविक फसल की पैदावार 70 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

भंडारण

हरी मटर की फलियों की ग्रेडिंग व पैकिंग बहुत ध्यान से करनी चाहिए. अकसर मटर को बोरियों, बांस की टोकरियों आदि में पैक किया जाता है और मंडियों में पहुंचाया जाता है. मटर की फलियों पर अधिक नमी नहीं होनी चाहिए, वरना इस पर फफूंद जैसे रोग लग सकते हैं.

सरकार ने बढ़ाई खरीद सीमा, किसानों को होगा जम कर मुनाफा

बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस) पीएम आशा योजना का ही एक घटक है. बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस) को राज्य/संघ राज्य क्षेत्र सरकार के अनुरोध पर अलगअलग तरह की जल्दी खराब होने वाली कृषि/बागबानी वस्तुओं जैसे टमाटर, प्याज और आलू आदि की खरीद के लिए लागू किया जाता है, जिन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लागू नहीं होता है.

जब राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में पिछले सामान्य मौसम की दरों की तुलना में बाजार में कीमतों में कम से कम 10 फीसदी  की कमी होती है, ऐसी स्थिति में किसानों को अपनी उपज को मजबूरी में कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर न होना पड़े, इसलिए बाजार हस्तक्षेप योजना लागू की जाती है, ताकि किसानों को उन की उपज का सही दाम मिले और वह घाटे में न रहे.

बाजार हस्तक्षेप योजना के कार्यान्वयन के लिए अधिक राज्यों को प्रोत्साहित करने के लिए, सरकार ने बाजार हस्तक्षेप योजना के दिशानिर्देशों के निम्नलिखित प्रावधानों में बदलाव किया है:

– बाजार हस्तक्षेप योजना को पीएम आशा की व्यापक योजना का एक घटक बनाया.

– पिछले सामान्य वर्ष की तुलना में प्रचलित बाजार मूल्य में न्यूनतम 10 फीसदी की कमी होने पर ही बाजार हस्तक्षेप योजना लागू की जाएगी.

– फसलों की उत्पादन मात्रा की खरीद/कवरेज सीमा को मौजूदा 20 फीसदी से बढ़ा कर 25 फीसदी कर दिया गया है.

– राज्य के पास भौतिक खरीद के स्थान पर सीधे किसानों के बैंक खाते में बाजार हस्तक्षेप मूल्य और बिक्री मूल्य के बीच के अंतर के भुगतान करने का विकल्प भी दिया गया है.

–  इस के अलावा जहां उत्पादन और उपभोक्ता राज्यों के बीच टौप फसलों (टमाटर, प्याज और आलू) की कीमत में अंतर है, वहां किसानों के हित में नाफेड ( NAFED) और एनसीसीएफ (NCCF) जैसी केंद्रीय नोडल एजंसियों द्वारा उत्पादक राज्य से अन्य उपभोक्ता राज्यों तक फसलों के भंडारण और परिवहन में होने वाली सभी परिचालन लागत की भरपाई की जाएगी. मध्य प्रदेश से दिल्ली तक 1,000 मीट्रिक टन तक खरीफ टमाटर के परिवहन के लिए परिवहन लागत की भरपाई के लिए एनसीसीएफ (NCCF)  को मंजूरी दे दी गई है.

बाजार हस्तक्षेप योजना के तहत शीर्ष फसलों की खरीद करने और कार्यान्वयन करने वाले राज्य के साथ समन्वय में उत्पादक राज्य और उपभोक्ता राज्य के बीच मूल्य अंतर की स्थिति में उत्पादक राज्य से उपभोक्ता राज्य तक भंडारण और परिवहन की व्यवस्था करने के लिए, NAFED और NCCF के अलावा किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ), किसान उत्पादक कंपनियों (एफपीसी), राज्य द्वारा नामित एजेंसियों और अन्य केंद्रीय नोडल एजेंसियों को शामिल करने का प्रस्ताव किया जा रहा है.

दलहन (Pulses) की सौ फीसदी खरीदी करेगी सरकार

भारत सरकार ने 15वें वित्त आयोग के तहत 2025-26 तक एकीकृत प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम आशा) योजना को जारी रखने की मंजूरी दी है. इस योजना में मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस), मूल्य कमी भुगतान योजना (पीडीपीएस), बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस) और मूल्य स्थिरीकरण निधि (पीएसएफ) जैसे कई घटक शामिल हैं.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि पीएम आशा योजना का उद्देश्य किसानों को उन की उपज के लिए लाभकारी मूल्य देने के साथसाथ उपभोक्ताओं को सस्ती कीमतों पर आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना है.

उन्होंने साल 2024-25 के खरीफ सीजन के लिए छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और तेलंगाना में सोयाबीन की खरीद को भी मंजूरी दे दी है. 9 फरवरी, 2025 तक 19.99 लाख मिलियन टन सोयाबीन की खरीद की गई है, जिस से 8,46,251 किसान लाभान्वित हुए हैं.

उन्होंने किसानों को फायदा पहुंचाने के लिए महाराष्ट्र में खरीद की 90 दिनों की सामान्य अवधि को 24 दिनों के लिए और तेलंगाना में 15 दिनों के लिए और अधिक बढ़ा दिया है, ताकि किसानों को अधिक समय मिले.

इसी तरह सरकार ने खरीफ 2024-25 के लिए आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में मूल्य समर्थन योजना के तहत मूंगफली की खरीद को मंजूरी दी है. इस के अलावा कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्य के किसानों के लिए गुजरात में मूंगफली की 90 दिनों की सामान्य खरीद अवधि को 6 दिन और कर्नाटक में 25 दिन के लिए और बढ़ा दिया है.

इस के साथ ही केंद्र सरकार ने दालों के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने में योगदान देने वाले किसानों को प्रोत्साहित करने और आयात पर निर्भरता कम करने के लिए खरीद साल 2024-25 के लिए राज्य के उत्पादन के सौ फीसदी के बराबर पीएसएस के तहत तुअर, उड़द और मसूर की खरीद की अनुमति दे दी है.

सरकार ने बजट 2025 में यह भी घोषणा की है कि देश में दालों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए केंद्रीय नोडल एजेंसियों के माध्यम से राज्य के उत्पादन के सौ फीसदी  तक तुअर, उड़द और मसूर की खरीद अगले 4 सालों तक जारी रहेगी, जिस से दालों के घरेलू उत्पादन में वृद्धि होगी, आयात पर निर्भरता कम होगी और भारत दालों में आत्मनिर्भर बनेगा.