घरआँगन में सब्जियां

अच्छी सेहत के लिए खाने में रोजाना ताजा फलसब्जियां खानी चाहिए, पर तेजी से बढ़ती महंगाई की वजह से फल और सब्जियों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं. इस के चलते हमारी खुराक में रोज फलसब्जियों की कमी होती जा रही है. बाजार में मिलने वाली सब्जियों व फलों में खतरनाक कैमिकलों व रंगों के इस्तेमाल की कहानी भी हमें आएदिन सुनने को मिलती है.

वैज्ञानिकों के मुताबिक, हमें पर्याप्त पोषण के लिए रोजाना 300 ग्राम सब्जियां खानी चाहिए, जबकि अभी हम महज 50 ग्राम सब्जियां ही ले पा रहे हैं. इस से बचने का सब से अच्छा उपाय है कि हम अपनी जरूरतों के मुताबिक कुछ फलसब्जियां खुद उगाएं. इस से न केवल सेहत सुधरेगी, बल्कि हमें बाजार के मुकाबले अच्छी और साफसुथरी फलसब्जियां भी खाने को मिलेंगी. तजरबों से यह बात साबित हो चुकी है कि पौधों के उगाने व उन की देखभाल करने से हमारा तनाव कम होता है और खुशी मिलती है.

बढ़ती हुई आबादी ने खेती की जमीन को काफी कम किया है. शहरों में तेजी से आबादी बढ़ी  है, जिस से लोगों के रहने की जगह में भी कमी होने लगी है. बहुमंजिला इमारतों व शहरी आवासों में फलसब्जियों को उगाने के लिए जरा भी जगह नहीं मिल पा रही है.

अब हमें गमलों, बालकनी, आंगन, बरामदा, लटकने वाली टोकरियों या घरों की छतों पर, जहां कहीं भी खुली धूप और हवा मिल सकती हो और पानी की सहूलियत हो, पौधे उगाने की तकनीक का सहारा लेना चाहिए. अगर आप ने थोड़ी सी भी सावधानी बरती, तो आसानी से कम जगह में पौधे उगा कर किचन गार्डन का आनंद उठा सकते हैं.

कैसी हो जगह : आप अपने घर या आसपास की कोई भी खाली जगह, जो खुली हो, का चुनाव कर सकते हैं. पौधों के लिए सुबह की धूप बहुत जरूरी होती है. साथ ही, उस जगह पर पानी देने और ज्यादा पानी को निकालने की सहूलियत होनी चाहिए. ऐसी जगहों में घर के आंगन, छत, बालकनी, खिड़कियों के किनारे वगैरह शामिल हो सकते हैं.

पौधे लगाने की तैयारी : अगर पौधों को छत पर सीधे लगाना है, तो मिट्टी की परत 25-30 सैंटीमीटर मोटी होनी चाहिए.

छत पर मिट्टी डालने से पहले नीचे पौलीथिन की मोटी तह बना कर चारों ओर ईंटों से दबा दें, ताकि पानी और सीलन से छत महफूज रहे. उपजाऊ मिट्टी में सड़ी गोबर की खाद व बालू मिला कर अच्छी तरह तह बना दें.

Home Gardenगमलों में पौधे लगाने के लिए : पौधों के आकार व फसल के मुताबिक ही गमलों के आकार का चुनाव किया जाना चाहिए. पपीते जैसे बड़े पौधों के लिए कम से कम 75 सैंटीमीटर ऊंचे और 45 सैंटीमीटर चौड़े ड्रम को इस्तेमाल में लाना चाहिए. टमाटर, मिर्च जैसे पौधों के लिए 30×45 सैंटीमीटर आकार वाले मिट्टी के गमले अच्छे होते हैं.

सीमेंट या प्लास्टिक के गमलों से बचना चाहिए. गमलों के अलावा लकड़ी या स्टील के चौड़े बौक्स, ड्रम, प्लास्टिक के बड़े डब्बे या जूट की छोटी बोरियों में मिट्टी भर कर भी पौधों को लगाया जा सकता है.

मिट्टी डालने से पहले गमले या डब्बों में नीचे की सतह पर छेद बना कर पत्थर के टुकड़ों से ढक देना चाहिए. पौध लगाने से पहले हमें मिट्टी में सड़ी गोबर की खाद व बालू, मिट्टी के बराबर अनुपात में मिला कर भर लेना चाहिए. नीम की खली, पत्ती व जानवरों की खाद या वर्मी कंपोस्ट का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

पौधों का चुनाव : छत पर बगिया में पौधे लगाते समय मौसम, धूप व जगह वगैरह पर खासा ध्यान दिया जाना चाहिए. कम धूप वाली जगह या छायादार जगह पर पत्तीदार व जड़ वाली सब्जियां जैसे पालक, धनिया, पुदीना, मेथी, मूली वगैरह लगाई जा सकती है, जबकि फल देने वाले पौधे जैसे टमाटर, बैगन, मिर्च, शिमला मिर्च, सेम, स्ट्राबेरी, पपीता, केला, रसभरी और नीबू खुले व अच्छी धूप वाली जगह में लगाए जाने चाहिए. छत या गमलों के लिए फसलों की खास किस्मों का चुनाव करना चाहिए.

देखभाल : शुरू में पौधों को एकदूसरे के नजदीक लगाना चाहिए और बाद में घने पौधों में उचित दूरी बनाने के लिए बीच से कमजोर और बीमार पौधों को निकाल देना चाहिए.

बेल या फैलने वाले पौधों जैसे लौकी, तुरई, करेला, सेम वगैरह को सहारा दे कर ऊपर या दीवार पर चढ़ाना चाहिए. टमाटर, बैगन, मिर्च को भी सहारा दे कर ऊपर ले जाना चाहिए और पौधों को नीचे फैलने से रोकना चाहिए. समयसमय पर पौधों में हलका पानी देते रहना चाहिए.

छत पर व गमलों में पौधों का रंग पीला पड़ना एक आम समस्या है. अकसर धूप की कमी और पानी की अधिकता से पौधे पीले पड़ते हैं. अगर गमलों में उग रहे पौधों को पर्याप्त धूप न मिल रही हो, तो उन्हें दिन में खुली धूप में रखें. बाद में उन्हें अंदर करें.

पौधों की खुराक के लिए वर्मी कंपोस्ट, जैविक खाद, गोबर की खाद वगैरह को समयसमय पर पौधों में डालते रहें या फिर उसे मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें. अच्छे पोषण के लिए पानी में घुलने वाले एनपीके की उचित मात्रा भी दी जा सकती है.

मसूर की फसल को कीट व बीमारियों से बचाएं

माहू

मसूर में आमतौर पर माहू सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला कीड़ा है. यह कीट 45 से 50 दिन की अवस्था में पौधों का रस चूसता है, जिस से पौधे कमजोर हो जाते हैं. उपज में 25 से 30 फीसदी तक की कमी हो जाती है.

यह कीट पौधों का रस चूसने के साथसाथ अपने उदर से एक चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ता है, जिस से पत्तियों पर काले रंग की फफूंद पैदा हो जाती है. साथ ही, पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है.

प्रबंधन

* फसल की बोआई समय से करने से इस का प्रकोप कम होता है.

* फसल में नाइट्रोजन का ज्यादा इस्तेमाल न करें.

* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी कौक्सीनेलिड्स या सिरफिड या फिर क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000-10,0000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लिटर नीम का तेल 100 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* इंडोपथोरा व वरर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोगकारक कवक) का माहू का प्रकोप होने पर छिड़काव करें.

* जरूरी होने पर इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल/0.5 मिलीलिटर प्रति लिटर, थियोमेथोक्सम 25 डब्लूजी/1-1.5 ग्राम प्रति लिटर या मेटासिस्टौक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

कर्तन कीट (एग्रोटिस एप्सिलान)

यह कीट मसूर के अलावा सोलेनियसी परिवार के पौधों और कपास व दलहनी फसलों पर भी हमला करता है. यह रात के वातावरण में निकल कर नर व मादा संभोग कर के पत्तियों पर अंडे देते हैं. इन की जीवनचक्र क्रिया वातावरण के हिसाब से 1-2 महीने में पूरी होती है. इस की सूंड़ी जमीन में मसूर के पौधे के पास मिलती है और जमीन की सतह से पौधे और इस की शाखाओं के 30-35 दिन की फसल में काटती है.

प्रबंधन

* खेतों के पास प्रकाश प्रपंच 20 फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है, जिस की वजह से इस की संख्या को कम किया जा सकता है.

* खेतों के बीचबीच में घासफूस के छोटेछोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने को निकलती हैं, तो बाद में इन्हीं में छिपेंगी, जिन्हें घास हटाने पर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

सैमीलूपर (प्लूसिया ओरिचेल्सिया)

इस कीट की सूंडि़यां हरे रंग की होती हैं, जो पीठ को ऊपर उठा कर यानी अर्धलूप बनाती हुई चलती हैं, इसलिए इसे सैमीलूपर कहा जाता है. यह पत्तियों को कुतर कर खाती है.

एक मादा अपने जीवनकाल में 400-500 तक अंडे देती है. अंडों से 6-7 दिन में सूंडि़यां निकलती हैं जो 30-40 दिन तक सक्रिय रह कर पूर्ण विकसित हो जाती हैं.

पूर्ण विकसित सूंडि़यां पत्तियों को लपेट कर उन्हीं के अंदर प्यूपा बनाती हैं, जिन से 1-2 हफ्ते बाद सुनहरे रंग का पतंगा बाहर निकलता है.

प्रबंधन

* खेतों की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए और रोग व कीट प्रतिरोधी जातियों की बोआई करनी चाहिए.

* बीज को कीटनाशी व फफूंदनाशकों से उपचार कर लेना चाहिए.

* खेत में 20 फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने के लिए 10 ठिकाने प्रति हेक्टेयर के अनुसार लगाएं.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

बीमारियों की रोकथाम

उकठा

यह भूमिजनित बीमारी है. बोआई के 20 से 25 दिन के बाद इस बीमारी के प्रकोप से पौधे पीले पड़ने शुरू हो जाते हैं. पौधों का ऊपरी भाग एक तरफ  ?ाक जाता है और अंत में मुर?ा कर पौधा मर जाता है.

उकठा बीमारी से बचाने के लिए उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए. साथ ही, पुरानी फसलों के अवशेषों को मिट्टी में दबा देना चाहिए. खेतों के आसपास सफाई रखें.

रोकथाम

* उकठा बीमारी की रोकथाम के लिए सदैव रोगरोधी प्रजातियों की बोआई करनी चाहिए. जिन क्षेत्रों में यह बीमारी बारबार आती हो, वहां पर 3 से 4 वर्षा तक मसूर की फसल नहीं लेनी चाहिए.

* इस के अलावा बीजों को बोने से पहले थाइरम नामक फफूंदीनाशक से उपचारित करना लाभकारी पाया गया है.

* आजकल उकठा बीमारी के नियंत्रण के लिए पर्यावरण हितैषी ट्राइकोडर्मा नाम फफूंद का प्रयोग भी लाभकारी सिद्ध हो रहा है, जो नियंत्रण के रूप में विभिन्न मृदाजनित बीमारियों की रोकथाम के लिए उपयोगी है.

रतुआ

इस बीमारी में फरवरी या इस के बाद तनों व पत्तियों पर गुलाबी से भूरे रंग के धब्बे बनने लगते हैं, जो बाद में काले पड़ने लगते हैं.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्मों जैसे पंत एल-236, पंत एल-406 व नरेंद्र मसूर-1 का प्रयोग करना चाहिए.

* कटाई के उपरांत रोगग्रसित पौधों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए.

* इस के अतिरिक्त बीमारी का अधिक प्रकोप होने पर डाइथेन एम-45 का 0.2 फीसदी घोल का 12 से 15 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करें.

चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू)

आमतौर पर इस बीमारी के लक्षण फसल बोआई के 80 से 90 दिन बाद पत्तियों की निचली सतह पर छोटेछोटे सफेद धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में सफेद चूर्ण के रूप में पूरी पत्ती, तने और फलियों पर फैल जाते हैं. ज्यादा संक्रमण की हालत में पौधों में हरे रंग की कमी क्लोरोसिस हो जाती है.

रोकथाम

*  रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए.

* मसूर की रोगरोधी किस्मों को चुनें.

* गंधक 20 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से संक्रमित खेत में बिखेर कर इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है.

* कुछ सल्फरयुक्त पदार्थ जैसे सल्फेक्स या एक्सेसाल 0.3 फीसदी छिड़काव करने से भी बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है.

कटाई एवं मड़ाई

जब 70 से 80 फीसदी फलियां भूरे रंग की हो जाएं और पौधा पीला पड़ जाए, तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए.

हाइड्रोलिक रिवर्सिबल प्लाऊ आखिर है क्या?

यह जुताई का एक ऐसा खास उपकरण है जिस में ऊपर और नीचे की तरफ 2 या 3 हल जैसे नुकीले आकार की रौड लगी होती है जो जमीन में 1 से 1.5 फुट की गहराई तक जुताई कर मिट्टी को पलट देता है. यह हाइड्रोलक सिस्टम से नियंत्रित होता है.

रोटावेटर के लाभ

* इस में लगे हुए नुकीले हल मिट्टी की जुताई करते हैं और ब्लेडनुमा रौड मिट्टी को पलटने का काम करती है, जिस से कठोर परत टूट जाती है.

* मिट्टी नरम होने की वजह से फसलों और पौधों की जड़ों को बिना किसी रुकावट के प्रसार करने में मदद मिलती है और वे बेहतर विकास और उपज देती है.

* ऐसा करने से मिट्टी की जड़ों तक औक्सीजन आसानी से पहुंचती है, जो फसलों और पौधों के लिए बहुत जरूरी है. इस वजह से फसल की बढ़वार और पैदावार अच्छी होती है.

* जमीन में उगे खरपतवार और दूसरे वनस्पति को उखाड़ कर जमीन में मिला देता है जिस से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है और उपज अच्छी होती है.

* खेत में एक बार ही रिवर्सिबल प्लाऊ से जुताई करने से जमीन की पानी ग्रहण करने की कूवत बढ़ जाती है.

* मिट्टी पलटने से खरपतवारों के बीज जमीन की गहराई में दब जाते हैं, जिस से उन का अंकुरण कम होता है और खरपतवार नियंत्रण में कारगर है.

* यह मशीन पिछली फसल कटने के बाद जो अवशेष खेत में रह जाते हैं, उन्हें जड़ से खोद कर अच्छी तरह से मिट्टी में मिला देती है.

* ये खेत में नाली नहीं बनाता क्योंकि खुद ही ट्रैक्टर के साथ बदल जाता है और दूसरी तरफ से बनी हुई नाली में मिट्टी डाल देता है जिस से मिट्टी का कटाव नहीं होता.

इस का रखरखाव कैसे करें

* इस्तेमाल करने से पहले तय यह कर लें कि उपकरण पूरी तरह से सही है.

* इस्तेमाल के बाद उपकरण छायादार जगह पर रखें.

* बेरिंगों में ग्रीस या मौबिल औयल का इस्तेमाल करते रहें.

हाइड्रोलिक रिवर्सिबल प्लाऊ पर सरकार कितना अनुदान देगी : इस की अनुमानित कीमत 50,000 से 1,40,000 रुपए तक है. इस में सरकार आप को एनएफएसएम योजना के तहत अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति लघु सीमांत और महिला किसानों के लिए इकाई लागत का 50 फीसदी और सामान्य किसानों के लिए 40 (20 हौर्सपावर से कम ट्रैक्टर पर 20,000 और 16,000 रुपए) 20 से 35 हौर्सपावर तक के ट्रैक्टर पर 70,000 रुपए और 56,000 रुपए अधिकतम अनुदान देती है.

अनुदान के लिए कागजात

* आवेदन पात्र मय लाभार्थी के पासपोर्ट साइज का प्रमाणित फोटो.

* जमीन की जमाबंदी या पासबुक.

* मशीन का क्रय बिल या प्रोफार्मा इनवोइस और अधिकृत विक्रेता का प्रमाणपत्र.

* यंत्र का प्रमाणित फोटो लाभार्थी के साथ.

* शपथपत्र या अंडरटेकिंग.

* ट्रैक्टर के कागजातों की प्रतिलिपि.

अलगअलग राज्यों में अनुदान अलग हो सकता है. यह योजना ‘पहले आओ पहले पाओ’ के आधार पर है. योजना का फायदा लेने के लिए क्षेत्र के कृषि पर्यवेक्षक/सहायक कृषि अधिकारी/सहायक निदेशक, कृषि अधिकारी से संपर्क करें.

सेहत के लिए सहजन

सब्जी की दुकान पर आप ने लंबी हरी सहजन की फलियां तो देखी होंगी, सुरजने की फली या कुछ इलाकों में मुनगे की फली भी कहा जाता है. सहजन की यह फली केवल बढि़या स्वाद ही नहीं, बल्कि सेहत और सौंदर्य के बेहतरीन गुणों से भी भरपूर है.

सहजन में एंटीबैक्टीरियल गुण पाया जाता है, इसलिए त्वचा पर होने वाली कोई समस्या या त्वचा रोग में यह बेहद लाभदायक है. सहजन का सूप खून की सफाई करने में मददगार है. खून साफ होने की वजह से चेहरे पर भी निखार आता है. इस की कोमल पत्तियों और फूलों को सब्जी के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो आप को त्वचा की समस्याओं से दूर रख जवां बनाए रहने में मददगार है.

महिलाओं के लिए तो सहजन का सेवन बहुत फायदेमंद होता है. यह पीरियड्स संबंधी परेशानियों के अलावा गर्भाशय की समस्याओं से भी बचाए रखता है.

इस में जरा भी शक नहीं है कि सहजन आप की सैक्स पावर को बढ़ाने में मदद करता है. इस मामले में यह महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए फायदेमंद है. गर्भावस्था के दौरान इस का सेवन मां और बच्चा दोनों के लिए फायदेमंद होता है. गर्भावस्था में इस का सेवन करते रहने से शिशु के जन्म के समय आने वाली समस्याओं से भी बचा जा सकता है.

बचपन में नानीदादी सहजन की सब्जी, सूप वगैरह कितने चाव से बनातीखिलाती थीं. हम सहजन के टुकड़ों को दाल में, सांभर में, सब्जी या गोश्त के साथ कैसे मजे ले कर चूसचूस कर खाते थे.

दक्षिण भारतीय लोग तो अपने खाने में ज्यादातर सहजन का इस्तेमाल करते हैं, चाहे सांभर हो, रस्म हो या मिक्स वेज. दरअसल, हमारे बुजुर्ग जानते हैं कि सहजन में कई तरह के रोगों को दूर करने की कूवत है. सर्दीखांसी, गले की खराश और छाती में बलगम जम जाने पर सहजन खाना बहुत फायदेमंद होता है.

सर्दी लग जाने पर तो मां सहजन का सूप पिलाती थीं. सहजन में विटामिन सी, बीटा कैरोटीन, प्रोटीन और कई प्रकार के लवण पाए जाते हैं. ये सभी तत्त्व शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और शरीर के पूरे विकास के लिए बहुत जरूरी है.

सहजन में विटामिन सी का लैवल काफी उच्च होता है जो आप की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा कर कई बीमारियों से आप की हिफाजत करता है. बहुत ज्यादा सर्दी होने पर सहजन फायदेमंद है. इसे पानी में उबाल कर उस पानी की भांप लेना बंद नाक को खोलता है और सीने की जकड़न को कम करने में मदद करता है, वहीं अस्थमा की शिकायत होने पर सहजन का सूप पीना फायदेमंद होता है. सहजन का सूप पाचन तंत्र को मजबूत बनाने का काम करता है और इस में मौजूद फाइबर्स कब्ज की समस्या को होने नहीं देते हैं. कब्ज ही बवासीर की जड़ है.

सहजन का सेवन करते रहने से बवासीर और कब्जियत की समस्या नहीं होती है, वहीं पेट की दूसरी बीमारियों के लिए भी यह फायदेमंद है. डायबिटीज नियंत्रित करने के लिए भी सहजन का सेवन करने की सलाह दी जाती है. तो अगर बीमारियों को दूर रखना है तो सहजन से दूरी न बनाएं.

कैसे बनाएं सूप

जरूरी चीजें : 2 कप सहजन के पत्ते, 6 सफेद प्याज टुकड़ों में कटी हुई, 6 लहसुन की कलियां, 2 टमाटर टुकड़ों में कटे हुए, 1 छोटा चम्मच साबुत जीरा, 1 छोटा चम्मच साबुत काली मिर्च, 1 छोटा चम्मच धनिया पाउडर, एकचौथाई छोटा चम्मच हलदी, नमक स्वादानुसार.

बनाने की विधि : सब से पहले सहजन की पत्तियों को धो कर साफ कर लें और इस के मोटे डंठल को तोड़ कर निकाल दें.

धीमी आंच पर एक प्रैशर कुकर में सहजन की पत्तियों, नमक, प्याज, लहसुन, टमाटर, जीरा, साबुत काली मिर्च, हलदी, धनिया पाउडर और पानी डाल कर इसे 4 सीटी लगा कर पकाएं और चूल्हा बंद कर दें.

कुकर का प्रैशर खत्म हो जाने के बाद ढक्कन खोलें. एक बड़े बरतन में उबली हुई सब्जियों को एक चम्मच से दबाते हुए छलनी से छान कर इस का सूप निकाल लें. अब इसे सर्विंग बाउल में निकालें और काली मिर्च बुरक कर गरमागरम सूप सर्व करें और खुद भी पीएं.

रबी फसलों को पाले से बचाएं

आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या द्वारा  संचालित कृषि विज्ञान केंद्र, बेलीपार, गोरखपुर के पादप सुरक्षा वैज्ञानिक डा. शैलेंद्र सिंह ने किसानों को सलाह देते हुए बताया कि दिसंबर से जनवरी माह में पाला पड़ने की संभावना अधिक होती है, जिस से फसलों को काफी नुकसान होता है.

उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि जिस दिन ठंड अधिक हो, शाम को हवा का चलना रुक जाए, रात में आकाश साफ हो व आर्द्रता प्रतिशत अधिक हो, तो उस रात पाला पड़ने की संभावना सब से अधिक होती है. दिन के समय सूरज की गरमी से धरती गरम हो जाती है, जमीन से यह गरमी विकिरण के द्वारा वातावरण में स्थानांतरित हो जाती है, जिस के कारण जमीन को गरमी नहीं मिल पाती है और रात में आसपास के वातावरण का तापमान कई बार जीरो डिगरी सैंटीग्रेड या इस से नीचे चला जाता है.

ऐसी दशा में ओस की बूंदें/जल वाष्प बिना द्रव रूप में बदले सीधे ही सूक्ष्म हिमकणों में बदल जाती हैं. इसे ही ‘पाला’ कहते हैं.

पाला पड़ने से पौधों की कोशिकाओं के रिक्त स्थानों में उपलब्ध जलीय घोल ठोस बर्फ में बदल जाता है, जिस का घनत्व अधिक होने के कारण पौधों की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और रंध्रावकाश नष्ट हो जाते हैं. इस के कारण कार्बन डाईऔक्साइड, औक्सीजन, वाष्प उत्सर्जन व अन्य दैहिक क्रियाओं की विनिमय प्रक्रिया में बाधा पड़ती है, जिस से पौधा नष्ट हो जाता है.

उन्होंने यह भी कहा कि पाला पड़ने से पत्तियां व फूल मुरझा जाते हैं और झुलस कर बदरंग हो जाते हैं. दाने छोटे बनते हैं. फूल झड़  जाते हैं. उत्पादन अधिक प्रभावित होता है.

पाला पड़ने से आलू, टमाटर, मटर, मसूर, सरसों, बैगन, अलसी, जीरा, अरहर, धनिया, पपीता, आम व अन्य नवरोपित फसलें अधिक प्रभावित होती हैं. पाले की तीव्रता अधिक होने पर गेहूं, जौ, गन्ना आदि फसलें भी इस की चपेट में आ जाती हैं.

पाले से बचाव के तरीके

* खेतों की मेंड़ों पर घासफूस जला कर धुआं करें. ऐसा करने से फसलों के आसपास का वातावरण गरम हो जाता है. पाले के प्रभाव से फसलें बच जाती हैं.

* पाले से बचाव के लिए किसान फसलों में सिंचाई करें. सिंचाई करने से फसलों पर पाले का प्रभाव नहीं पड़ता है.

* पाले के समय 2 लोग सुबह के समय एक रस्सी के दोनों सिरों को पकड़ कर खेत के एक कोने से दूसरे कोने तक फसल को हिलाते रहें, जिस से फसल पर पड़ी हुई ओस गिर जाती है और फसल पाले से बच जाती है.

* यदि किसान नर्सरी तैयार कर रहे हैं, तो उस को घासफूस की टाटिया बना कर अथवा प्लास्टिक से ढकें. ध्यान रहे कि दक्षिणपूर्व भाग खुला रखें, ताकि सुबह और दोपहर में धूप मिलती रहे.

* पाले से दीर्घकालिक बचाव के लिए उत्तरपश्चिम मेंड़ पर और बीचबीच में उचित स्थान पर वायुरोधक पेड़ जैसे शीशम, बबूल, खेजड़ी, शहतूत, आम व जामुन आदि को लगाएं, तो सर्दियों में पाले से फसलों को बचाया जा सकता है.

* यदि किसान फसलों पर कुनकुने पानी का छिड़काव करते हैं, तो फसलें पाले से बच जाती हैं.

* पाले से बचाव के लिए किसानों को पाला पड़ने के दिनों में यूरिया की 20 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए अथवा थायोयूरिया की 500 ग्राम मात्रा को 1,000 लिटर पानी में घोल कर 15-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें अथवा 8 से 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें अथवा घुलनशील सल्फर 80 फीसदी डब्लूडीजी की 40 ग्राम मात्रा को प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव किया जा सकता है.

* ऐसा करने से पौधों की कोशिकाओं में उपस्थित जीवद्रव्य का तापमान बढ़ जाता है और वह जमने नहीं पाता है. इस तरह फसलें पाले से बच जाती हैं.

* फसलों को पाले से बचाव के लिए म्यूरेट औफ पोटाश की 15 ग्राम मात्रा प्रति 15 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर सकते हैं.

* फसलों को पाले से बचाने के लिए ग्लूकोज 25 ग्राम प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर किसान अपने खेतों में छिड़काव करें.

* फसलों को पाले से बचाव के लिए एनपीके 100 ग्राम व 25 ग्राम एग्रोमीन प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव किया जा सकता है.

अधिक जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र, बेलीपार, गोरखपुर के वैज्ञानिकों से संपर्क करें या पादप सुरक्षा वैज्ञानिक डा. शैलेंद्र सिंह के मोबाइल नंबर 9795160389 पर संपर्क करें.

जाड़े में अधिक वर्षा से खेती को नुकसान या फायदा

रबी की खेती किसानों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होती है. इसी से उस के सारे काम व विकास निर्धारित होते हैं. इन दिनों अच्छीखासी ठंड होती है और अगर बारिश हो जाए तो कहीं तो ये फायदेमंद होती है, लेकिन कई दफा ओला गिरने आदि से फसल को बहुत ज्यादा नुकसान होता है. किसानों की मेहनत और कीमत दोनों ही जाया हो जाती हैं.

जाड़े की वर्षा को महावट कहा जाता था. फसल के लिए इसे अमृत वर्षा कहा जाता है, परंतु जब ये जाड़े की वर्षा इतनी अधिक हो जाए, जो खेत को नमी देने के बजाय उस में जलभराव हो जाए या ओला पड़ जाए, तो यह किसानों की फसल के लिए नुकसानदेह साबित होती है.

जिस खेत में जितनी अधिक लागत की खेती की गई है, उस में उतने नुकसान की संभावना होती है.

ऐसी बरसात से दलहनी व तिलहनी फसलें पूरी तरह से बाधित हो जाती हैं और अब तो सारी फसलें यहां तक गेहूं को भी नुकसान होने की संभावना हो जाती है.

जब ऐसी प्राकृतिक आपदा आती है, वास्तव में किसानों की सारी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है. चना, मटर, मसूर, अरहर, सरसों, आलू आदि में अधिक नुकसान होता है. कई जगहों पर तो सरसों व अरहर की जो फसलें गिर जाती हैं, उन्हें भी खासा नुकसान होता है.

ऐसे समय में ढालू भूमि जैसे यमुना, गंगा व नदियों के किनारे की खेती में जलभराव से नहीं जल बहाव से नुकसान होता है.

फूलों की खेती करने वाले किसानों को भी खासा नुकसान होता है. फूल की अवस्था की समस्त फसलों में फूल गिरने व क्षतिग्रस्त होने से उत्पादन गिर जाता है.

मौसम नम होने व कोहरा होने से रोग व कीटों का प्रकोप भी बढ़ जाता है, जिस से फसल को नुकसान होना तय है.

वर्षा के बाद के उपाय

* खेतों में जो पानी भरा है, उसे निकालने की तुरंत कोशिश की जाए.

* खेत की निगरानी नियमित करते हुए रोग व कीट नियंत्रण के लिए दवाओं का छिड़काव करें.

* झुलसा रोग का उपचार करें.

* माहू कीट का नियंत्रण करें.

* चना, मटर में फली छेदक कीट का निदान करें.

* गन्ना की फसल को विभिन्न तना छेदक कीटों से बचाव के उपाय अपनाएं.

* आलू बीज उत्पादन वाली फसल की बेल को काट दें.

* देरी से बोई जाने वाली गेहूं की प्रजातियों हलना, उन्नत हलना नैना की बोआई कर सकते हैं.

खाली खेतों के लिए फसल योजना

* अधिक वर्षा से फसलें क्षतिग्रस्त होने पर खेत को तैयार कर तुरंत गेहूं की बोआई की जा सकती है.

* टमाटर की ग्रीष्म ऋतु की फसल और प्याज की रोपाई कर सकते हैं.

* जायद की भिंडी व मिर्च के लिए खेत की तैयारी कर के फरवरी माह में बोआई व रोपाई कर सकते हैं.

* गन्ने की 2 कतारों के बीच मूंग व उड़द की बोआई कर सकते हैं.

* सब्जी की बोआई के लिए खेत को तैयार कर सकते हैं.

* आलू के खेत में गरमी की मूंगफली की बोआई कर क्षति पूर्ति कर सकते हैं.

दिए गए सुझाव के साथ  यदि इस विपरीत परिस्थिति में खेती का प्रबंधन करें तो कुछ हद तक नुकसान की भरपाई हो सकती है.

आलू बोआई यंत्र पोटैटो प्लांटर

आलू की खेती में आजकल कृषि यंत्रों का अच्छाखासा इस्तेमाल होने लगा है. आलू बोआई के लिए पोटैटो प्लांटर है, तो आलू की खुदाई के लिए पोटैटो डिगर कृषि यंत्र है. यहां हम फिलहाल आलू बोआई यंत्र पोटैटो प्लांटर की बात कर रहे हैं.

पोटैटो प्लांटर आलू की बोआई करने के साथसाथ मेड़ भी बनाता है. इस यंत्र से आलू बोआई का काम बखूबी होता है.

मशीन द्वारा तय दूरी और उचित गहराई पर ही आलू बीज खेत में गिरता है, जिस से पैदावार भी अच्छी होती है. साथ ही, खरपतवार नियंत्रण भी आसान होता है. हालांकि आलू बोने का यंत्र सभी किसानों के पास नहीं है लेकिन आज के आधुनिक दौर में अनेक किसानों का रुख मशीनों की ओर होने लगा है.

आलू बोने के 2 तरह के यंत्र आजकल चलन में हैं, एक सैमीआटोमैटिक आलू प्लांटर. दूसरा पूरी तरह आटोमैटिक प्लांटर. दोनों ही तरह के यंत्र ट्रैक्टर में जोड़ कर चलाए जाते हैं.

सैमीआटोमैटिक प्लांटर में यंत्र की बनावट कुछ इस तरह होती है जिस में आलू बीज भरने के लिए एक बड़ा बौक्स लगा होता है. इस में आलू बीज भर लिया जाता है और उसी के साथ नीचे की ओर घूमने वाली डिस्क लगी होती है जो 2-3 या 4 भी हो सकती हैं.

इन डिस्क में आलू बीज निकलने के लिए होल बने होते हैं. बोआई के समय जब डिस्क घूमती है तो आलू बीज नीचे गिरते जाते हैं और उस के बाद यंत्र द्वारा मिट्टी से आलू दबते चले जाते हैं. इस यंत्र से आलू बोआई के साथसाथ मेंड़/कूंड़ भी बनते जाते हैं. आलू के लिए जितनी डिस्क लगी होगी, उतनी लाइन में ही आलू की बोआई होगी.

हर डिस्क के पीछे बैठने के लिए सीट लगी होती है जिस पर आलू डालने वाला एक शख्स बैठा होता है. जितनी डिस्क होंगी उतने ही आदमियों की जरूरत होगी क्योंकि जब ऊपर हौपर में से आलू नीचे आता है तो डिस्क में डालने का काम वहां बैठे आदमी द्वारा किया जाता है.

इस मशीन से 1 घंटे में तकरीबन 1 एकड़ खेत में आलू बोआई की जा सकती है.

पूरी तरह आटोमैटिक आलू प्लांटर में किसी शख्स की जरूरत नहीं होती, केवल ट्रैक्टर पर बैठा आदमी इसे नियंत्रित करता है. इस मशीन में भी वही सब काम होते हैं जो सैमीआटोमैटिक यंत्र में होते हैं. इस की खूबी यही है कि इस में आलू खुदबखुद बोआई के लिए गिरते चले जाते हैं और खेत में बोआई होती जाती है. साथ ही मेंड़ भी बनती जाती है लेकिन इस के लिए ट्रैक्टर चलाने वाले को यंत्र के इस्तेमाल करने की जानकारी होनी चाहिए.

यह यंत्र सैमीआटोमैटिक की तुलना में महंगा होता है.

2 लाइनों में बोआई करने वाले मैन्यूअल पोटैटो प्लांटर की कीमत तकरीबन 40,000 रुपए है, 3 लाइनों में बोआई करने वाले प्लांटर की कीमत तकरीबन 50,000 रुपए है.

4 लाइनों में बोआई करने वाले प्लांटर की कीमत तकरीबन 60,000 रुपए है. आटोमैटिक पोटैटो प्लांटर की कीमत तकरीबन 1 लाख, 20 हजार रुपए तक हो सकती है. यह अनुमानित कीमत है.

आजकल अनेक कृषि यंत्र निर्माता जैसे खालसा आटोमैटिक पोटैटो प्लांटर, मोगा इंजीनियरिंग वर्क्स, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा कंपनी के पोटैटो प्लांटर बाजार में मौजूद हैं. आप अपने नजदीकी कृषि यंत्र निर्माता या विक्रेता से बात कर अधिक जानकारी ले सकते हैं.

किसान अविनाश उगा रहे हैं काला आलू

अभी तक तो आप ने भूरे रंग का मटमैला आलू ही खाया होगा, पर दक्षिण अमेरिका के एंडिज पर्वतीय क्षेत्रों में काला आलू की खेती की जाती है. यह वैरायटी देखने में ही काली लगती है, पर है गुणों से भरपूर. और अब इस की खेती शबला सेवा संस्थान, गोरखपुर के सहयोग से गोरखपुर के पादरी बाजार निवासी अविनाश कुमार कर रहे हैं.

आम आलू की तरह इस काले आलू की खेती की जाती है और 3 महीने में फसल आ जाती है. इस आलू की ऊपरी सतह काली, तो भीतरी भाग गहरे बैगनी रंग का होता है.

यह आलू कई औषधीय गुण होने के कारण सफेद आलू की तुलना में अधिक स्वास्थ लाभ देता है. यह शुगर फ्री है. इस आलू में 40 फीसदी आयरन रहता है. इस में 15 फीसदी विटामिन बी-6 है और 4 फीसदी फ्लोरिक एसिड.

इस के अलावा काला आलू हीमोग्लोबिन बढ़ाने के साथसाथ नर्वस सिस्टम को मजबूत करता है. इस आलू का सर्वाधिक फायदा गर्भवती महिलाओं के लिए है. इस आलू से रक्तचाप और रक्तवाहिका स्वास्थ्य को बढ़ावा मिलता है. यह आंशिक रूप से उच्च पोटैशियम सामग्री पाए जाने के कारण होता है. यह आलू कैंसररोधी भी होता है.

शबला सेवा संस्थान के अध्यक्ष किरण यादव का कहना है कि काला आलू में आयरन होने के कारण गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत लाभदायक है. भविष्य में संस्थान महिला किसानों के साथ मिल कर काला आलू की खेती करने की योजना बना रहा है.

गन्ने की खेती में कीर्तिमान

भारत में ज्यादातर किसान खेती से परेशान हैं. ऐसे में वे मजबूरी में खेती कर रहे हैं. इस की मुख्य वजह कहीं न कहीं उन की उपज का सही दाम न मिल पाना है, जिस के चलते उन्हें लगातार घाटा हो रहा है. फिर भी कुछ ऐसे किसान हैं, जो जरा कर के खेतीबारी कर रहे हैं.

कृषि में नया प्रयोग एक सार्थक प्रयास सच साबित हो रहा है. ऐसे ही एक किसान हैं अचल मिश्रा. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के रहने वाले अचल मिश्रा ने कृषि में नया कीर्तिमान बनाया है.

देश की राजधानी से तकरीबन 450 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश का चीनी का कटोरा कहा जाने वाला जिला लखीमपुर खीरी के पलिया इलाके के मड़ई पुरवा के रहने वाले अचल मिश्रा तकरीबन 80 एकड़ भूमि पर गन्ने की खेती करते हैं. वे गन्ने में प्रति एकड़ गन्ना उत्पादन भी काफी अच्छा लेते हैं. नईनई विधियों को आजमा कर उपज बढ़ाने के लिए वे उत्तर प्रदेश में गन्ने की खेती में हमेशा प्रथम स्थान हासिल करते हैं.

लखनऊ विश्वविद्यालय से संबद्ध काल्विन डिगरी कालेज से बैरिस्टरी में स्नातक अचल मिश्रा अपने विश्वविद्यालय से गोल्ड मैडलिस्ट भी रह चुके हैं. पढ़ाई के बाद नौकरी करने के बजाय खेती को ही अपना व्यवसाय बनाया और अपने गांव लौट कर परंपरागत खेती को छोड़ कर आधुनिक विधि से करना शुरू किया.

Sugarcane
Sugarcane

पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ से बात करते हुए अचल मिश्रा बताते हैं, ‘‘हम ने साल 2006 से गन्ने की खेती को नईनई वैज्ञानिक विधि से करना शुरू किया. मौजदू समय में मेरे खेत में भी 18 से 20 फुट तक का गन्ना होता है. उपज की बात करें, तो 1,050 से 1,200 क्विंटल प्रति एकड़ होती है. गन्ने की खेती में पिछले 5 सालों से लगातार मुझे प्रथम पुरस्कार मिल रहा है.’’

साल 2018 में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी राज्यों से प्रगतिशील किसानों को प्रधानमंत्री कार्यालय, दिल्ली में आमंत्रित किया था. उस में गन्ने की खेती करने वाले वे अकेले किसान थे.

गन्ने के साथसाथ तैयार करते हैं गन्ने की नर्सरी

Sugarcane
Sugarcane

अचल मिश्रा बताते हैं कि एक एकड़ खेत में उच्च कोटि की गन्ने की नर्सरी भी तैयार की. उन्होंने बताया कि कोलख 14201 गन्ने के बीज की नर्सरी बटचिप विधि से तकरीबन एक लाख पौध तैयार कर के 12 लाख रुपए कमाए. इस बार वे गन्ने की नर्सरी का काम बड़े पैमाने पर करने जा रहे हैं.

 

 

फार्म को बनाया टूरिस्ट प्लेस

अचल मिश्रा ने अपने फार्म को ‘यूएस गन्ना आश्रम’ के नाम से शानदार फार्महाउस तैयार कर रखा है. आश्रम में आने वाले अतिथियों को शुद्ध जैविक विधि से तैयार सागसब्जियां, देशी मोटे अनाज की रोटियां खाने को मिलती हैं, जिस का स्वाद चखने के लिए बहुत दूरदूर से लोग आते हैं.

काले गेहूं की तकनीकी विधि से खेती

आजकल पूरी दुनिया में लोग अपनी सेहत के बारे में सोचने लगे हैं, जिस के बाद यह पता चला है कि इस से बचने के लिए सब से अहम है कि शरीर की इम्यूनिटी को बढ़ाया जाए, इसलिए ज्यादातर लोग विभिन्न प्रकार के हर्बल का इस्तेमाल कर रहे हैं.

इसी प्रकार हाल ही में काले गेहूं की नई प्रजाति विकसित की गई है, क्योंकि इस में आयरन, जिक और एंटीऔक्सिडैंट आदि तत्त्व भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं. इस गेहूं की मांग लगातार किसानों के बीच में बढ़ रही है. इस समय बाजार में इस का बीज 6,000-9,000 रुपए प्रति क्विंटल तक बेचा जा रहा है. इस की खेती गेहूं की सामान्य प्रजातियों की तरह ही होती है.

काले गेहूं की बोआई समय से और सही नमी पर करनी चाहिए. देर से बोआई करने पर उपज में कमी होती है. जैसेजैसे बोआई में देरी होती जाती है, गेहूं की पैदावार में गिरावट की दर बढ़ती चली जाती है. दिसंबर में बोआई करने पर गेहूं की पैदावार 3 से 4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व जनवरी में बोआई करने पर 4 से 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्रति हफ्ते की दर से घटती है.

गेहूं की बोआई सीडड्रिल से करने पर उर्वरक और बीज की बचत की जा सकती है. काले गेहूं का उत्पादन सामान्य गेहूं की तरह ही होता है. इस की उपज 10-12 क्टिंवल प्रति बीघा होती है. सामान्य गेहूं की भी औसत उपज एक बीघा में 10-12 क्विंटल होती है.

बीज दर और बीज शोधन

पंक्तियों में बोआई करने पर सामान्य दशा में 100 किलोग्राम और मोटा दाना 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और छिटकाव बोआई की दशा में सामान्य दाना 125 किलोग्राम और मोटा दाना 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए. बोआई से पहले जमाव फीसदी जरूर देख लें. राजकीय अनुसंधान केंद्रों पर यह सुविधा निशुल्क उपलब्ध है.

यदि बीज अंकुरण क्षमता कम हो, तो उसी के अनुसार बीज दर बढ़ा लें और यदि बीज प्रमाणित न हो, तो उस का शोधन अवश्य करें. बीजों को कार्बाक्सिन, एजेटोबेक्टर व पीएसवी से उपचारित कर बोआई करें. सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों में रेज्ड वेड विधि से बोआई करने पर सामान्य दशा में 75 किलोग्राम और मोटा दाना 100 किलोग्राम प्रति हेक्टयर की दर से प्रयोग करना चाहिए.

काले गेहूं के फायदे

आमतौर पर देश में शरबती गेहूं से बनी रोटी खाई जाती है, लेकिन क्या आप को पता है कि गेहूं की एक वैराइटी काले गेहूं के रूप में भी आती है. काले गेहूं के आटे से बनी चपाती का रंग भले ही देखने में काला व भूरा होने के कारण अलग लगता है, लेकिन यह गेहूं सेहत के लिए बहुत लाभकारी होता है. खासतौर पर सर्दियों में ये डायबिटीज, ब्लड प्रैशर और दिल के मरीजों के लिए बहुत लाभकारी होता है. सामान्य गेहूं के मुकाबले इस में एंटी ग्लूकोज तत्त्व ज्यादा होते हैं, जिस के कारण यह शुगर के मरीजों के लिए फायदेमंद होता है, वहीं ये ब्लड सरकुलेशन को भी सामान्य बनाए रखता है, जिस से दिल भी सही रहता है.

वैसे तो काले गेहूं का सेवन हर मौसम में किया जा सकता है, क्योंकि इस में एंटी औक्सिडेंट्स तत्त्व भरपूर मात्रा में होते हैं, जो आप को हर मौसम में फिट ऐंड हेल्दी रखता है. ऐसे में अगर आप दवाओं से बचे रह कर खुद को कई गंभीर और सामान्य बीमारियों से बचाए रखना चाहते हैं, तो नियमित रूप से काले गेहूं के आटे से बनी रोटी खा सकते हैं. तो आइए पहले जान लेते हैं क्या होता है काला गेहूं और क्या है इस के फायदे:

क्या है काला गेहूं

काला गेहूं, सामान्य दिखने वाले गेहूं की ही तरह एक अनाज होता है, जिस की चपाती खाई जाती है. पंजाब के नाबी नामक एक इंस्टीट्यूट ने अपने 7 साल के लंबे रिसर्च के बाद इस की खोज की है.

फायदेमंद काला गेहूं

काले गेहूं का सेवन करने से दिल की बीमारियों के होने का खतरा कम होता है, क्योंकि काले गेहूं में ट्राइग्लिसराइड तत्त्व मौजूद होता है. इस के अलावा काले गेहूं में मौजूद मैगनीशियम उच्च मात्रा में पाया जाता है, जिस से शरीर में कोलैस्ट्रौल का स्तर सामान्य बना रहता है.

काले गेहूं का नियमित सेवन करने से शरीर को सही मात्रा में फाइबर प्राप्त होता है, जिस से पेट के रोगों खासकर कब्ज में फायदा मिलता है.

काले गेहूं में मौजूद फाइबर से पाचन तंत्र मजबूत होता है और पाचन संबंधी समस्याओं के अलावा पेट के कैंसर से भी नजात मिलती है.

इस के नियमित सेवन से शरीर में हाई कोलैस्ट्रौल में उपयोगी होने के अलावा हाई ब्लडप्रैशर को नियंत्रित करने में कारगर होता है.

मधुमेह वाले लोगों के लिए सब से उपयोगी होता है, क्योंकि इस का सेवन करने से रक्तशर्करा यानी ब्लड शुगर को कम करने में मदद मिलती है.

आंतों का इंफैक्शन करे खत्म

रोजाना काले गेहूं का अलगअलग रूपों में सेवन करने से शरीर में फाइबर का स्तर बेहतर होता है और आंतों के इंफैक्शन को ठीक करने में मदद मिलती है.

नए ऊतकों को बनाने में कारगर

काले गेहूं में मौजूद जरूरी पोषक तत्त्वों में से एक फास्फोरस भी होता है, जो शरीर में नए ऊतकों को बनाने के साथ उन के रखरखाव में अहम भूमिका निभाता है, जिस से शरीर सुचारु रूप से काम कर सके.

एनीमिया

काले गेहूं में प्रोटीन, मैगनीशियम के अलावा आयरन भी भरपूर मात्रा में पाया जाता है. ऐसे में अगर आप रोजाना काले गेहूं का सेवन करते हैं, तो शरीर में रक्त की कमी यानी एनीमिया की बीमारी को दूर किया जा सकता है. इस से शरीर में औक्सीजन का स्तर सही रहता है.

शरीर के विकास में मदद

काले गेहूं यानी साबुत अनाज में मैंगनीज उच्च मात्रा में पाया जाता है. मैंगनीज स्वस्थ चयापचय, विकास और शरीर के एंटीऔक्सिडैंट सुरक्षा के लिए आवश्यक भूमिका निभाता है.

कोलैस्ट्रौल को कम करता है

काले गेहूं में असंतृप्त वसीय अम्ल और फाइबर उच्च मात्रा में पाया जाता है. नियमित रूप से काले गेहूं का सेवन तब उपयोगी

होता है, जब वे रक्त में कोलैस्ट्रौल और ट्राइग्लिसराइड्स के उच्च स्तर पर मौजूद होते हैं. एलडीएल कोलैस्ट्रौल और ट्राइग्लिसराइड्स को कम करने में प्रभावी साबित होता है.

काले गेहूं के पोषक तत्त्व

साबुत अनाज में मौजूद पोषण मूल्य कई पके अनाजों की तुलना में काफी अधिक है. कच्चे अनाज की 3.5 ओंस (100 ग्राम) में पोषण तत्त्व होते हैं:

कैलोरी : 343

पानी : 10 फीसदी

प्रोटीन : 13.3 ग्राम

कार्बन : 71.5 ग्राम

शर्करा : 0 ग्राम

फाइबर : 10 ग्राम

वसा : 3.4 ग्राम

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) लगातार किसानों की आय बढ़ाने के लिए प्रयासरत है. भारत में बहुत से कृषि विश्वविद्यालय और कृषि विज्ञान केंद्र में वैज्ञानिकों के द्वारा कड़ी मेहनत से किसानों के लिए कई किस्में तैयार की जा रही हैं, जिस से किसान कम लागत में अधिक आमदनी हासिल कर सकें. इसी क्रम में भाकृअनुप भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल ने गेहूं की एक किस्म विकसित की है, जिस का नाम है करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187).

करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187) किस्म क्यों खास

यह किस्म इसलिए खास है, क्योंकि मौजूदा किस्मों जैसे एचडी-2967, के-0307, एचडी-2733, के-1006 और डीबीडब्ल्यू-39 की तुलना में इस किस्म की पैदावार बहुत अधिक है. साथ ही, इस गेहूं की किस्म को अधिक सिंचाई की जरूरत नहीं है. 2-3 सिंचाई ही करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187) किस्म के लिए काफी है.

करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187) किस्म की विशेषता

यह किस्म पत्तों के झुलसने और उन के अस्वस्थ दशा जैसी महत्त्वपूर्ण बीमारियों के खिलाफ बेहतर प्रतिरोध करता है. बोआई के 77 दिनों के बाद करण वंदना किस्म फूल देती है और 120 दिनों के बाद परिपक्व होती है.

इस की औसत ऊंचाई 100 सैंटीमीटर है, जबकि क्षमता 64.70 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. 10 में 7.7 अंक और 43.1 लौह सामग्री के साथ इस किस्म की चपाती की गुणवत्ता बहुत बेहतर होती है.

इस किस्म के अच्छे उत्पादन के लिए खाद व उर्वरक की अनुशंसित खुराक तकरीबन 150:60:40 किलोग्राम एनपीके प्रति हेक्टेयर दें और 2 बार सिंचाई कर के अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है.