आदर्श पोषण वाटिका से स्वच्छ और संतुलित आहार

उस वाटिका को ‘पोषण वाटिका’ या ‘रसोईघर बाग’ या ‘गृहवाटिका’ कहा जाता है जो घर के अगलबगल में या घर के आंगन में ऐसी खुली जगह, जहां पारिवारिक श्रम से परिवार के इस्तेमाल के लिए विभिन्न मौसम में मौसमी फल और विभिन्न प्रकार की सब्जियां उगाई जाती हैं.

पोषण वाटिका का मुख्य मकसद ही रसोईघर का पानी व कूड़ाकरकट को पारिवारिक श्रम से उपयोग कर, घर की फल व सागसब्जियों की दैनिक जरूरतों की पूरा करने या आंशिक रूप से भरपाई करने की कोशिश करना व दैनिक आहार में उपयोग होने वाली सब्जी व फल शुद्ध, ताजा और जैविक उत्पाद रोजाना हासिल करना होता है.

आजकल बाजार में बिकने वाली ज्यादातर चमकदार फल और सागसब्जियों को रासायनिक उर्वरक का प्रयोग कर उगाया जाता है. इन फसल सुरक्षा पर तरहतरह के रसायनों का इस्तेमाल खरपतवार पर नियंत्रण, कीड़े और बीमारी को रोकने के लिए किया जाता है, परंतु इन रासायनिक दवाओं का कुछ अंश फल और सागसब्जी में बाद तक भी बना रहता है.

इस के चलते इन्हें इस्तेमाल करने वालों में बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जा रही है और आम आदमी तरहतरह की बीमारियों से ग्रसित होता जा रहा है.

इस के अलावा फल और सागसब्जियों के स्वाद में भी काफी अंतर देखने को मिल जाता है, इसलिए हमें अपने घर के आंगन या आसपास की खाली खुली जगह में छोटीछोटी क्यारियां बना कर जैविक खादों का इस्तेमाल कर के रसायनरहित फल और सागसब्जियों का उत्पादन करना चाहिए.

जगह का चुनाव

इस के लिए जगह चुनने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती, क्योंकि ज्यादातर यह जगह घर के पीछे या आसपास ही होती है. घर से मिले होने के कारण थोड़ा कम समय मिलने पर भी काम करने में सुविधा रहती है.

गृहवाटिका के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए, जहां पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके, जैसे नलकूप या कुएं का पानी, स्नान का पानी, रसोईघर का पानी आदि पोषण वाटिका तक पहुंच सके.

जगह खुली हो, जिस में सूरज की रोशनी मिल सके. ऐसी जगह, जो जानवरों से सुरक्षित हो और उस जगह की मिट्टी उपजाऊ हो, ऐसी जगह का चुनाव पोषण वाटिका के लिए करना चाहिए.

पोषण वाटिका का आकार

जहां तक पोषण वाटिका के आकार का संबंध है, वह जमीन की उपलब्धता, परिवार के सदस्यों की तादाद और समय की उपलब्धता पर निर्भर होता है.

लगातार फसल चक्र अपनाने, सघन बागबानी और अंत:फसल खेती को अपनाते हुए एक औसत परिवार, जिस में एक औरत, एक मर्द व 3 बच्चे यानी कुल 5 सदस्य हैं, ऐसे परिवार के लिए औसतन 25×10 वर्गमीटर जमीन काफी है. इसी से ज्यादा पैदावार ले कर पूरे साल अपने परिवार के लिए फल व सब्जियां हासिल की जा सकती हैं.

लेआउट करें तैयार

एक आदर्श पोषण वाटिका के लिए उत्तरी भारत खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध तकरीबन 250 वर्गमीटर क्षेत्र में बहुवर्षीय पौधों को वाटिका के किसी एक तरफ  लगाना चाहिए, जिस से कि इन पौधों की दूसरे पौधों पर छाया न पड़ सके और साथ ही, एकवर्षीय सब्जियों के फसल चक्र व उन के पोषक तत्त्वों की मात्रा में बाधा न डाल सके. पूरे क्षेत्र को 8-10 वर्गमीटर की 15 क्यारियों में बांट लें.

* वाटिका के चारों तरफ बाड़ का इस्तेमाल करना चाहिए, जिस में 3 तरफ  गरमी और बरसात के समय कद्दूवर्गीय पौधों को चढ़ाना चाहिए और बची हुई चौथी तरफ सेम लगानी चाहिए.

* फसल चक्र, सघन फसल पद्धति और अंत:सस्य फसलों के उगाने के सिद्धांत को अपनाना चाहिए.

* 2 क्यारियों के बीच की मेंड़ों पर जड़ों वाली सब्जियों को उगाना चाहिए.

* रास्ते के एक तरफ  टमाटर व दूसरी तरफ चौलाई या दूसरी पत्ती वाली सब्जी उगानी चाहिए.

* वाटिका के 2 कोनों पर खाद के गड्ढे होने चाहिए, जिन में से एक तरफ वर्मी कंपोस्ट यूनिट व दूसरी ओर कंपोस्ट खाद का गड्ढा हो, जिस में घर का कूड़ाकरकट और फसल अवशेष डाल कर खाद तैयार कर सकें.

* इन गड्ढ़ों के ऊपर छाया के लिए सेम आदि की बेल चढ़ा कर छाया बनाए रखें. इस से पोषक तत्त्वों का नुकसान भी कम होगा व गड्ढा भी छिपा रहेगा.

पोषण वाटिका के फायदे

* जैविक उत्पाद (रसायनरहित) होने के कारण फल और सब्जियों में पर्याप्त मात्रा में पौषक तत्व मौजूद रहते हैं.

* बाजार में फल और सब्जियों की कीमत ज्यादा होती है, जिसे न खरीदने से लगाई गई पूंजी में कमी होती है.

* परिवार के लिए ताजा फलसब्जियां मिलती रहती हैं.

* उपलब्ध सब्जियां बाजार के बजाय अच्छे गुणों वाली होती हैं.

* गृहवाटिका लगा कर औरतें परिवार की माली हालत को मजबूत बना सकती हैं.

* पोषण वाटिका से मिलने वाले मौसमी फल व सब्जियों को परिरक्षित कर सालभर तक उपयोग किया जा सकता है.

* यह मनोरंजन व कसरत का भी एक अच्छा साधन है.

* बच्चों के लिए ट्रेनिंग का यह एक अच्छा साधन भी है.

* मनोवैज्ञानिक नजरिए से खुद के द्वारा उगाई गई फलसब्जियां, बाजार के मुकाबले ज्यादा स्वादिष्ठ लगती हैं.

Home Gardenफसल की व्यवस्था

पोषण वाटिका में बोआई करने से पहले योजना बना लेनी चाहिए, ताकि पूरे साल फल व सब्जियां मिलती रहें. इस में निम्न बातों का उल्लेख होना चाहिए :

* क्यारियों की स्थिति.

* उगाई जाने वाली फसल का नाम और प्रजाति.

* बोआई का समय.

* अंत:फसल का नाम और प्रजाति.

* बोनसाई तकनीक का इस्तेमाल.

* इन के अलावा दूसरी सब्जियों को भी जरूरत के मुताबिक उगा सकते हैं.

* मेंड़ों पर मूली, गाजर, शलजम, चुकंदर, बाकला, धनिया, पोदीना, प्याज, हरा साग जैसी सब्जियां लगानी चाहिए.

* बेल वाली सब्जियां जैसे लौकी, तोरई, छप्पनकद्दू, परवल, करेला, सीताफल आदि को बाड़ के रूप में किनारों पर ही लगानी चाहिए.

* वाटिका में फल वाले पौधों जैसे पपीता, अनार, नीबू, करौंदा, केला, अंगूर, अमरूद आदि के पौधों को सघन विधि से इस तरह किनारे की तरफ  लगाएं, जिस से कि सब्जियों पर छाया या पोषक तत्त्वों के लिए होड़ न हो.

* इस फसल चक्र में कुछ यूरोपियन सब्जियां भी रखी गई हैं, जो अधिक पोषणयुक्त और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखती हैं.

* पोषण वाटिका को और ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए उस में कुछ सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं.

पोषण वाटिका में फसल चक्र अपनाने से ज्यादा फलसब्जियां

प्लाट नं. : सब्जियों व फल का नाम

प्लाट नं. 1 : आलू, लोबिया, अगेती फूलगोभी

प्लाट नं. 2 : पछेती फूलगोभी, लोबिया, लोबिया (वर्षा)

प्लाट नं. 3 : पत्तागोभी, ग्वार फ्रैंच बीन

प्लाट नं. 4 : मटर, भिंडी, टिंडा

प्लाट नं. 5 : फूलगोभी, गोठगोभी (मध्यवर्ती) मूली, प्याज

प्लाट नं. 6 : बैगन के साथ पालक, अंत: फसल के रूप में खीरा

प्लाट नं. 7 : गाजर, भिंडी, खीरा

प्लाट नं. 8 : मटर, टमाटर, अरवी

प्लाट नं. 9 : ब्रोकली, चौलाई, मूंगफली

प्लाट नं. 10 : स्प्राउट ब्रसेल्स बैंगन (लंबे वाले

प्लाट नं. 11 : लीक खीरा, प्याज

प्लाट नं. 12 : लहसुन, मिर्च, शिमला मिर्च

प्लाट नं. 13 : चाइनीज कैवेजलैट्रस-प्याज (खरीफ)

प्लाट नं. 14 : अश्वगंधा (सालभर) (शक्तिवर्धक व दर्द निवारक) अंत: फसल लहसुन

प्लाट नं. 15 : पौधशाला के लिए (सालभर)

जैविक खेती : किसानों की आय दोगुनी करने का माध्यम

बढ़ती जनसंख्या को अनाज उपलब्ध कराने के लिए घटती जोत के साथसाथ संसाधनों की कमी को देखते हुए कृषि वैज्ञानिक किसानों को सघन खेती पद्धति अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. इस आधुनिक ऊर्जा आधारित कृषि पद्धति ने, जिस में उन्नत किस्मों के साथसाथ रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों का प्रयोग मुख्य है, आज खेती को एक विवादास्पद मोरचे पर ला खड़ा किया है. इस में उत्पादन बनाम प्रदूषण, उत्पादकता बनाम टिकाऊपन, उत्पादन बनाम ऊर्जा आदि पर गहन विचारविमर्श चल रहा है.

असंतुलित कृषि गतिविधियों के परिणामस्वरूप पर्यावरण विघटन का खतरा पैदा हो गया है, जिस ने कृषि वैज्ञानिकों का ध्यान ऐसी कृषि पद्धति की तरफ खींचा है, जो पर्यावरण के अनुकूल हो और टिकाऊ भी.

इस समस्या से नजात पाने में कार्बनिक खेती एक अच्छा विकल्प साबित हो रही है, जो मिट्टी को स्वस्थ बनाए रखती है और पर्यावरण को हानिकारक प्रभावों से बचाती है.

कार्बनिक खेती आमतौर पर ‘प्रकृति की तरफ झुकाव’ आंदोलन के एक हिस्से के रूप में जानी जाती है. यह खेती की एक ऐसी पद्धति है, जिस में रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों के उपयोग के स्थान पर मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए फार्मवेस्ट, कंपोस्ट, सीवेज, पौधों के बचे भाग आदि का प्रयोग किया जाता है.

आधुनिक कार्बनिक खेती की शुरुआत ब्रिटेन में हुई, जहां एक प्रकार की कृषि पद्धति में मृदा उर्वरता बनाए रखने के लिए कंपोस्ट पर अधिक जोर दिया गया.

सर अलबर्ट होवार्ड (ब्रिटेन) को इस पद्धति का जनक माना जाता है. कार्बनिक किसान वे लोग थे, जो मिट्टी में पोषक तत्त्वों की आपूर्ति खेत अवशिष्ट और हरी खाद से करते थे. रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग बिलकुल भी नहीं करते थे.

जैविक खेती के लाभ

आज जैविक (कार्बनिक) खेती अपनाने के कई फायदे हैं और कार्बनिक उत्पादों का दाम भी अधिक मिल रहे है.

कम ऊर्जा : इस कार्बनिक खेती में ऊर्जा की आवश्यकता कम होती है, अत: लागत भी कम आती है.

अधिक मूल्य : कार्बनिक उत्पादों का दाम भी अधिक मिलता है. ये उत्पाद स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छे माने जाते हैं, अत: लोग इन्हें अधिक खरीदने लगे हैं.

कम मशीनीकरण : इस पद्धति में कृषि कियाएं अधिक नहीं की जाती हैं, अत: कम मशीनों के उपयोग से खेती संभव है और छोटे किसान भी इस को आसानी से अपना सकते हैं.

अच्छी गुणवत्ता : कार्बनिक उत्पाद में अधिक रसायनों का उपयोग नहीं किया जाता, अत: इस में ‘हैल्थ हेजार्ड’ की समस्या नहीं होती है.

कम अवशेष की समस्या : खेत से प्राप्त अवशेष को कंपोस्ट बना कर वापस काम में ले लिया जाता है.

कम प्रदूषण : चूंकि इस कृषि पद्धति में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता, अत: मृदा प्रदूषण एवं जल प्रदूषण कम होता है. अवशेष की समस्या भी कम होती है.

अवरोधक

अकार्बनिक खेती से कार्बनिक खेती अपनाने में शुरुआत में निम्न रुकावटें आ सकती हैं, जो किसानों को हतोत्साहित कर सकती हैं:

* आधुनिक अकार्बनिक खेती ने मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट कर दिया है. अत: उन के पुनर्निर्माण में 3-4 वर्ष लग सकते हैं.

* शुरुआती समय में फार्म उत्पाद में कुछ गिरावट आ सकती है, जो किसान सह नहीं सकते. अत: उन्हें कार्बनिक खेती अपनाने के लिए अलग से प्रोत्साहन देना जरूरी है.

* भूमि संसाधनों को कार्बनिक खेती से अकार्बनिक खेती की तरफ बदलने में अधिक समय नहीं लगता, लेकिन विपरीत दिशा जाने में समय लगता है.

* सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में किसान इस नए आयाम और बाजार में प्रवेश से भयभीत हैं.

अवयव

कार्बनिक खेती मुख्यत: फसलचक्र, उर्वरकों का उपयोग, कीट एवं बीमारियों के नियंत्रक विधियों के संदर्भ में अकार्बनिक खेती से भिन्न है. इस पद्धति के मुख्य अवयव निम्न प्रकार से हैं :

जैविक खाद (आर्गेनिक मैन्योर) : कार्बनिक पदार्थ जैसे फार्म यार्ड मैन्योर (गोबर की खाद), स्लरी, कंपोस्ट, भूसा एवं फसल अवशेष, अन्य फसल उत्पाद, जीवाणु खाद, हरी खाद, फसल अवशेष आदि के माध्यम से भूमि में पोषक तत्त्वों की पूर्ति की जाती है और रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग न के बराबर किया जाता है, जो पर्यावरण की गुणवत्ता बनाए रखने में सहायक होती है.

इन के अलावा कार्बनिक किसान समुद्री खरपतवार, जलीय खरपतवार, खली एवं मछली खादों का उपयोग करते हैं. जैविक खादों के उपयोग से भूमि में कार्बनिक तत्त्वों की मात्रा में वृद्धि होगी, जो इस की जलधारण क्षमता में भी वृद्धि करेगी.

मृदा क्षरण एवं वाष्पोत्सर्जन दर भी कार्बनिक तत्त्वों द्वारा नियंत्रित की जा सकती है. फसलचक्र में दालों वाली फसलों को शामिल करने से मृदा उर्वरता बनाए रखने में सहायता होती है.

जैविक कीट प्रबंधन : कृषि में कीट व बीमारियों का नियंत्रण किसानों व कृषि वैज्ञानिकों दोनों के लिए एक विकट समस्या है. यहां अरासायनिक जैविक कीट नियंत्रण को प्रोत्साहित किया जाता है.

कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं का संरक्षण रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. वानस्पतिक कीटनाशक (बायोपेस्टिसाइड्स) जैसे नीम आधारित उत्पादों के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए. कुछ चुने हुए जीवाणु कीटनाशक (बीटी आधारित स्ट्र्रेन) भी उपयोगी सिद्ध हुए हैं.

अरासायनिक खरपतवार नियंत्रण : अकार्बनिक खेती के बजाय कार्बनिक किसान खरपतवार नियंत्रण के लिए अधिक यांत्रिक विधियों का प्रयोग करते हैं. खरपतवारनाशियों का उपयोग कम से कम किया जाता है, क्योंकि ये पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण है.

शुरुआत कैसे करें

जैविक खेती अपनाने के लिए समुचित व्यवस्था और प्रबंधन के लिए रुके रहने की आवश्यकता नहीं है. इसे सभी किसान आसानी से अपना सकते हैं. इस के लिए जैविक खेती की विधियों का अपनी सुविधानुसार कहीं से भी अनुसरण शुरू करें. छोटे स्तर पर किए गए उपाय ही इस विधा को अपनाने में सहायक होते हैं.

अपनी जोत का कुछ हिस्सा जैविक विधियों द्वारा आधारित खेती के लिए निर्धारित करें और उस के लिए अलग से कार्य योजना अपनाएं. फसलों का चुनाव, कार्बनिक खादों की उपलब्धता और कीट एवं बीमारियों के जैविक नियंत्रण के बारे में जानकारी हासिल करें. उपलब्ध आदानों का समुचित प्रबंधन करें. शुरू में इस विधि को अकार्बनिक खेती के संदर्भ में जांच के लिए अपनाएं और अपने अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ें.

कार्य योजना

जैव स्रोतों से पौध पोषण

मिट्टी परीक्षण/भूमि का स्वास्थ्य

  • भूमि की सजीवता बनाए रखें.
  • फसलचक्र दलहन अनाज/तिलहन/नकदी फसलचक्र, भूमि की उर्वरता बनाए रखती है.
  • जीवाणु कल्चरों का प्रयोग लाभदायक है. द्य अंतर्वर्तीय, मिश्रित, बहुफसल, बहुस्तरीय फसल, प्रकृति के पूरक सिद्धांतों/सहअस्तित्व के सिद्धांत को प्रोत्साहित करती है.

जीवांश खाद/कंपोस्ट

उपलब्ध जीवांश को संवर्धित करें : (अ) जीवांश को कदापि न जलाएं. (ब) आवश्यक रूप से कंपोस्ट बनाने की कोई भी विधि अपनाएं. (स) नाडेप कंपोस्ट विधि एक वरदान है. इस विधि से उपलब्ध कंपोस्ट की मात्रा जीवांश में मिट्टी के सम्मिश्रण से दोगुनी करना संभव है. (द) बायोगैस अपनाएं. जीवांश बनाएं खेत के लिए. (ध) कंपोस्ट की गुणवत्ता की वृद्धि के लिए खनिज रौक फास्फेट व नाइट्रोजन स्थिर करने वाले व स्फुट घोलक जीवाणु का उपयोग करें.

वर्मी कंपोस्ट : केंचुए शीघ्रता से जैव पदार्थों को कंपोस्ट में बदल देते हैं.

रासायनिक पौध पोषण : (यदि बहुत ज्यादा जरूरी हो तो) : द्य जैव पौध पोषण की कमी की पूर्ति रासायनिक उर्वरकों से की जाए.

  • उर्वरक की उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए इसे विभाजित एवं उपयुक्त स्थान पर दिया जाए.

एकीकृत भूमि व जल प्रबंघन

भूमि प्रबंधन :

  • भूमि को शोषण, क्षरण, लवणीयता व जल जमाव से बचाएं.
  • खेत की मिट्टी खेत में ही रहे, इस के लिए खेत के चारों तरफ नाली व हलकी मेंड़ बनाएं.
  • अनावश्यक रूप से गहरी जुताई को निरुत्साहित करें.
  • न्यूनतम जुताई पद्धति अपनाएं. ऐसा करने से जमीन में आश्रय पा रहे कार्बनिक जीवांश, सूक्ष्म जीवाणु, केंचुए आदि संरक्षित रहते हैं.
  • भूमि पर किसी भी जीवांश इत्यादि को जलाएं नहीं, अन्यथा भूमि की जैव क्रिया विपरीत रूप से प्रभावित हो जाती है.
  • कटाई के उपरांत बचे हुए पौध अवशेष (गेहूं, धान आदि) को जमीन में रोटावेटर/कृषि कार्य कर मिला दें या उस का कंपोस्ट बनाएं.
  • जैव पदार्थ क्षारीय व लवणीय भूमि सुधार का सशक्त माध्यम है. उन का उपयोग भूमि को स्वस्थ बनाए रखने में करें.

जल प्रबंधन :

  • खेत का पानी खेत में रहे, इस के लिए खेत की हलकी मेंड़बंदी करें व जैव अवरोधक वनस्पति का उपयोग करें.
  • ड्रिप सिंचाई पद्धति अपनाएं.
  • भूमि जल की क्षमता के आधार पर दोहन करें.
  • वर्षा पर निर्भर कृषि में उपलब्ध जल का उपयोग सही बीज अंकुरण एवं जीवनरक्षक सिंचाई के लिए करें.

पारिस्थितिक संतुलन :

  • सूक्ष्म जीवाणुओं का उपयोग कीट व बीमारी नियंत्रण में करें.
  • एंटीफीडेंट, बायोपैस्टीसाइड्स एवं कम जहरीले रसायनों का उपयोग यदि आवश्यक हो, तो उचित समय एवं मात्रा में करें.
  • पक्षी, सर्पवर्ग एवं मेढक को संरक्षण प्रदान करें, क्योंकि ये कीटों को नियंत्रण में रखते हैं.
  • उपयुक्त परजीवियों एवं परभक्षियों का उपयोग कीट नियंत्रण में करें.
  • प्रकाश प्रपंच (फैरोमौन ट्रैप) का उपयोग करें. ये कीट तीव्रता का संकेत देते हैं.

जैविक खेती की नई अवधारणा को अब विश्वस्तर पर मान्यता मिलने लगी है. आज प्रत्येक पर्यावरण संरक्षक इस नई कृषि पद्धति को अपनाने की बात कर रहा है. असंतुलित कृषि प्रक्रियाओं एवं अनियंत्रित कृषि आदानों के उपयोग से आज पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है. इसलिए जैविक खेती दिशा बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी.

जैविक खेती पर्यावरण संरक्षण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इस के माध्यम से प्रदूषण फैलाने वाले कारक जैसे : रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवारनाशी आदि का उपयोग कम हो जाएगा, जो पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में सहायक होगा.

यदि सब्जी उत्पादक पादप पोषण तत्त्वों की आपूर्ति रासायनिक उर्वरकों के बजाय जैव उर्वरकों एवं बायोपैस्टीसाइड्स से करें, तो फसलोत्पादन की कीमत घटने के साथसाथ पर्यावरण भी सुधरेगा. बाजार में रसायनविहीन इन सब्जियों की कीमत भी बहुत अच्छी मिलती है.

आर्थिक एवं पोषण सुरक्षा प्रदान करने वाली फसलों के उत्पादन में सब से बड़ी समस्या है, फसलों की उच्च रासायनिक उर्वरक की मांग. जैव उर्वरक एक ऐसा उर्वरक है, जिस में नाइट्रोजन स्थिरीकरण अथवा फास्फोरस विलायक या फिर सल्फर जैसे अन्य पोषक तत्त्वों के रूपांतरित करने वाले सूक्ष्म जीवों के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व, विटामिन और हार्मोन की उपलब्धता बढ़ जाती है. फलस्वरूप, उत्पादन काफी बढ़ जाता है.

आज रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग से स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ने लगी हैं. इस के निवारण के लिए कार्बनिक खाद्य पदार्थ पैदा होने लगे हैं, जो बाजार में आर्गेनिक उत्पाद के लेबल के साथ मिलते हैं. एक तो इन की गुणवत्ता अच्छी होती है. दूसरे, ये स्वास्थ्य के लिए अच्छे साबित हो रहे हैं. इसलिए जैविक खेती की आवश्यकता एवं संभावनाएं अधिक प्रभावी होती जा रही हैं.

जैविक खेती का महत्त्व

हमारे देश में जैविक खाद आधारित कृषि पुराने समय से की जा रही है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हरित क्रांति के दौर में रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का शीघ्रता से प्रयोग हुआ जिस के परिणामस्वरूप खाद्य उत्पादन में वृद्धि हुईं परंतु अधिक मात्रा में रासायनिक खादों के प्रयोग से वातावरण दूषित हुआ जिस से मानव जीवन प्रभावित हुआ.

जैविक खेती के लिए किसान निम्नलिखित तकनीकी को प्रयोग में ला सकते हैं.

* मृदा संरक्षण के लिए पलवार प्रयोग.

* मिट्टी में पोषक तत्त्व संतुलन हेतु दलहनी फसलों की एकल, मिश्रित तथा अंतर्शस्ययन.

* मृदा में कृषि अवशेष, वर्मी कंपोस्ट, कंपोस्ट, जीवाणुखाद तथा बायोडायनामिक कंपोस्ट का प्रयोग.

* जैविक उवरकों के प्रयोग का महत्त्व है जिस में राइजोबियम, एजोटोबैकटर, पीएसबी एवं बीजीए प्रमुख हैं. जैविक उवरकों के प्रयोग का मुख्य आकर्षण है उन के उत्पादन और उपयोग की सफलता एवं न्यून लागत.

* पौध सुरक्षा हेतु खरपतवार की सफाई तथा जैविक कीटनाशियों का प्रयोग.

* फसल चक्र, हरित खाद, भूपरिष्करण तथा खाद प्रबंधन द्वारा फसलों में खरपतवार प्रबंधन.

* उपरोक्त तकनीकी द्वारा जैविक किसान अपने फसलों में पोषक तत्त्व तथा कीट एवं व्याधि प्रबंधन करते हैं.

* पोषक तत्त्व प्रबंधन हेतु देश के विभिन्न भागों में समाहित देशी तकनीक.

* देश के विभिन्न भागों में मृदा में पोषक तत्त्व प्रबंधन हेतु किसानों द्वारा अपनाई जा रही तकनीकियों का अवलोकन करें तो पता चलता है कि देश के अधिकतर हिस्से में किसान स्थानीय रूप से उपलब्ध पोषक तत्त्वों के जैविक श्रोतों का ही प्रयोग करते हैं.

* ऐसे स्थानीय खाद, जीवांश अथवा जैविक अवशिष्ट का प्रयोग किसानों के एक लंबे प्रयोग का परिणाम है.

* ये कृषि क्रियाएं क्षेत्र विशेष के किसानों के सामाजिक परंपराओं तथा मान्यताओं को भी अहमियत देते हैं.

वैकल्पिक उर्वरकों को प्रोत्साहन देने के लिए कदम

नई दिल्ली : कृषि में रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को कम करने के लिए भारत सरकार जैविक उर्वरक और जैव उर्वरकों के संयोजन के साथ मिट्टी जांच को ध्यान में रखते हुए उर्वरकों के संतुलित और विवेकपूर्ण उपयोग को बढ़ावा दे रही है. इस के अलावा परंपरागत कृषि विकास योजना यानी पीकेवीवाई, नमामि गंगे, भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति यानी बीपीकेपी, उत्तरपूर्वी क्षेत्र के लिए मिशन जैविक मूल्य श्रृंखला विकास यानी एमओवीसीडीएनईआर, राष्ट्रीय जैविक खेती परियोजना यानी एनपीओएफ आदि के तहत किसानों को जैविक और जैव उर्वरकों के उपयोग के लिए सहायता प्रदान की जाती है. इस के अलावा, राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र यानी एनसीओएफ जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता फैलाने और प्रशिक्षण गतिविधियों में शामिल है.

आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति यानी सीसीईए ने अपनी बैठक में “पीएम प्रोग्राम फौर रेस्टोरेशन, अवेयरनेस जनरेशन, नरिशमेंट एंड एमेलिओरेशन औफ मदर अर्थ (पीएम प्रणाम)” को मंजूरी दे दी है.

इस पहल का उद्देश्य उर्वरकों के टिकाऊ और संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने, वैकल्पिक उर्वरकों को अपनाने, जैविक खेती को बढ़ावा देने और संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियों को लागू कर के धरती के स्वास्थ्य को बचाने के लिए राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा शुरू किए गए जन आंदोलन का समर्थन करना है.

उक्त योजना के तहत पिछले 3 वर्षों की औसत खपत की तुलना में रासायनिक उर्वरकों यानी यूरिया, डीएपी, एनपीके, एमओपी आदि की खपत में कमी के माध्यम से एक विशेष वित्तीय वर्ष में राज्य/केंद्रशासित प्रदेश द्वारा उर्वरक सब्सिडी का जो 50 फीसदी बचाया जाएगा, उसे अनुदान के रूप में उस राज्य/संघ राज्य क्षेत्र को दे दिया जाएगा.

इस के अलावा सीसीई ने 28 जून, 2023 को आयोजित अपनी बैठक में 1,500 रुपए प्रति मीट्रिक टन की दर से बाजार विकास सहायता (एमडीए) को मंजूरी दे दी है, ताकि जैविक उर्वरकों को बढ़ावा दिया जा सके. इस का अर्थ है, गोबरधन पहल के तहत संयंत्रों द्वारा उत्पादित खाद को प्रोत्साहन देना.

इस पहल में विभिन्न बायोगैस/सीबीजी समर्थन योजनाएं/कार्यक्रम शामिल हैं. ये सभी हितधारक मंत्रालयों/विभागों से संबंधित हैं, जिन में पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय की किफायती परिवहन के लिए सतत विकल्प (एसएटीएटी) योजना, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय का अपशिष्ट से ऊर्जा कार्यक्रम, पेयजल एवं स्वच्छता विभाग का स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) को शामिल किया गया है. इन का कुल परिव्यय 1451.84 करोड़ रुपए (वित्त वर्ष 2023-24 से 2025-26) है, जिस में अनुसंधान संबंधी वित्त पोषण के लिए 360 करोड़ रुपए की निधि शामिल है.

यह जानकारी रसायन एवं उर्वरक राज्य मंत्री भगवंत खुबा ने लोकसभा में एक लिखित उत्तर में दी.

खेती को बनाएं फायदेमंद

गरमी में खेतों की गहरी जुताई करनी चाहिए. ऐसा करने से खेत की पानी सोखने की कूवत बढ़ेगी,साथ ही नुकसान पहुंचाने वाले कीटों का सफाया होगा और फायदेमंद कीटों को पनपने का मौका मिलेगा. इस से कीटनाशकों पर होने वाले गैरजरूरी खर्च में कमी आएगी.

* बरसात के पानी को सहेजने का इंतजाम करना चाहिए. खेत की उपजाऊ मिट्टी को बह कर जाने से रोकने के लिए मजबूत व ऊंची मेंड़ बनानी चाहिए. पानी रोकने के उपाय करने चाहिए. पहली बरसात का पानी खेत में जरूर रोकें.

* जिस फसल की बोआई करनी हो, उस की क्षेत्र के लिए स्वीकृत प्रजातियों के आधार पर या प्रमाणित बीज की ही बोआई करें.

* हमेशा खेत की मिट्टी की जांच के आधार पर खेत में खाद व उर्वरक का इस्तेमाल करें.

* धान और गेहूं फसल चक्र में हरी खाद का इस्तेमाल जरूर  करना चाहिए.

* मृदा स्वास्थ्य सुधार के लिए कार्बनिक खादों, जैविक खाद/जैविक उर्वरक, दलहनी फसलों का इस्तेमाल जरूर करें.

* फसलों की सिंचाई पलेवा या पारंपरिक तरीके से न करें. आधुनिक व सूक्ष्म सिंचाई के तरीकों जैसे टपक सिंचाई, फव्वारा सिंचाई, रेन गन सिंचाई वगैरह का प्रयोग करें. इस से समय, मेहनत और पानी की बचत होगी और फसल से अच्छा उत्पादन मिलेगा.

* खेती से ज्यादा आमदनी लेने के लिए फसल उत्पादन के साथ ही साथ पशुपालन, बागबानी, सब्जी उत्पादन, फलफूल, मत्स्यपालन, कुक्कुटपालन, मौनपालन वगैरह कामों को भी करें.

* कम समय में तैयार होने वाली नकदी फसलें, जैसे तोरिया, आलू, प्याज, उड़द, मूंग, लोबिया, ग्वार, मशरूम उत्पादन जरूर करें.

* कम लागत में टिकाऊ व ज्यादा उत्पादन के लिए समेकित पोषक तत्त्व प्रबंधन, समेकित कीट व रोग प्रबंधन अपनाएं.

* खेतों में कभी भी धान का पुआल, गेहूं के डंठल, भूसा वगैरह न जलाएं, उन्हें मिट्टी में ही मिला दें.

Farmingइन बातों को अपनाने से खेती फायदेमंद, टिकाऊ होगी, मिट्टी और खेत का स्वास्थ्य ठीक होगा, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण व समुचित उपयोग होगा और खेत की मिट्टी की पानी सोखने की कूवत बढ़ेगी. फसल में कीट व बीमारियां कम लगेगीं. साथ ही, फसल पैदावार में बढ़ोतरी होगी.

ऐसा होने से निश्चित रूप से गांव, जिला, प्रदेश व देश की तरक्की होगी, इसलिए किसानों से अनुरोध है कि इन बातों पर जरूर ध्यान दें और अपने खेतों में इन का इस्तेमाल करें.

सघन खेती प्रणाली में लाभकारी जैविक खेती

हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से देश की बेतहाशा बढ़ रही आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए खेतीबारी में उर्वरकों के इस्तेमाल को भारी बढ़ावा मिला है और हम ने अपने लक्ष्यों को पूरा किया है, खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल की है. लेकिन सघन खेती प्रणाली के खतरे बड़े चुनौती भरे हैं, क्योंकि इन से पारिस्थितिकीय संतुलन पर भारी असर पड़ता है.

इसी बात को ध्यान में रखते हुए और्गेनिक या जैविक खेती पर आधारित प्रणाली की बात सोची गई, जिस में रासायनिक उर्वरकों के बजाय कार्बनिक पदार्थों के सड़नेगलने से हासिल खाद का इस्तेमाल किया जाता है.

जैविक पदार्थों से बनी खाद के इस्तेमाल पर आधारित यह प्रणाली हमारे समाज में काफी समय से ही प्रचलित रही है. जैविक खेती में परंपरा और विज्ञान का समन्वय कर के फायदा उठाया जाता है. नतीजे के रूप में कहा जा सकता है कि जैविक खेती कृषि उत्पादन में स्थिरता बढ़ाने का एक सही उपाय है.

देश के 30 करोड़ किसान कर्जों के जाल में फंस कर बदहाली के शिकार हैं. तकरीबन 8 करोड़ किसान खेती छोड़ कर शहरों में मजदूरी कर रहे हैं. किसानों की इस हालत की वजहों में एक प्रमुख वजह है खेती में बढ़ती लागत और घटता मुनाफा. किसान अपने खेत में जो मेहनत अथवा पूंजी लगाता है, उतना उत्पादन उसे नहीं मिलता और जो मिलता है, उस का उसे उचित मूल्य नहीं मिलता.

FARMINGजहां कुछ जगहों पर ऐसे हालात हैं, वहीं कुछ जागरूक किसान विकल्प तलाशने में लगे हैं और यह महसूस कर रहे हैं कि खेती में आत्मनिर्भरता ही एक ऐसा रास्ता है, जो उन्हें ऐसी समस्याओं से बाहर ला कर भरपेट भोजन मुहैया करा सकता है.

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि 60 के दशक की हरित क्रांति ने यद्यपि देश को खाद्यान्न की दिशा में आत्मनिर्भर बनाया, लेकिन इस के दूसरे पहलू पर यदि गौर करें तो खेती में अंधाधुंध उर्वरकों के इस्तेमाल की हकीकत से पानी के लैवल में गिरावट के साथ मिट्टी की उर्वरता भी प्रभावित हुई है और एक समय बाद खाद्यान्न उत्पादन न केवल स्थिर हो गया, बल्कि प्रदूषण में भी बढ़ोतरी हुई है और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हुआ है, जिस से सोना उगलने वाली धरती मरुस्थल का रूप धारण करती नजर आ रही है.

मिट्टी में सैकड़ों किस्म के जीवजंतु व जीवाणु होते हैं, जो खेती के लिए हानिकारक कीटों को खा जाते हैं. नतीजतन, उत्पादन प्रभावित होता है, इसलिए खेती में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में सावधानी बरतते हुए जैविक खेती पर ध्यान देना चाहिए. जैविक खेती में हम कंपोस्ट खाद के अलावा नाडेयप, कंपोस्ट खाद, केंचुआ खाद, नीम खली, लेमनग्रास व फसल अवशेषों को शामिल करते हैं.

जैविक खाद के इस्तेमाल से न केवल मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है, बल्कि उस में नमी की वजह से काफी हद तक सूखे की समस्या से भी नजात मिलती है. जैविक खाद के इस्तेमाल से भूजल धारण क्षमता बढ़ती है. इस के साथ ही जैविक कीटनाशक से मित्र कीट भी संरक्षित होते हैं. इस प्रकार घटते भूजल स्तर के लिए जैविक खेती एक फायदेमंद साबित होगी.

एक अनुमान के अनुसार, किसान अपनी उत्पादित फसल का 25-40 प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं. भारत में हर साल 600 मिलियन टन कृषि अवशेष पैदा होता है. इस में ज्यादातर अवशेषों को किसान अगली फसल के लिए खेत को तैयार करने के लिए खेत में ही जला देते हैं, जबकि इस का उपयोग जैविक खाद को तैयार करने के लिए आसानी से किया जा सकता है.

पुराने समय में किसान परंपरागत रूप से खेती में स्थानीय तकनीकों व संसाधनों का इस्तेमाल करते थे, जिस में स्थानीय बीज, वर्षा आधारित खेती व जैविक खाद है, जिस से सड़ेगले पत्ते व घासों का उपयोग कर बनाने में भारतीय किसान माहिर थे.

पारंपरिक खाद के प्रयोग से फसल अधिक गुणवत्ता वाली होती थी. साथ ही, आसपास का वातावरण भी साफ रहता था. 1-2 दशक पहले तक आम काश्तकार खेती से इतना उत्पादन कर लेता था कि परिवार का गुजरबसर हो जाता था और अपनी आर्थिक जरूरतें भी पूरी हो जाती थीं, लेकिन आधुनिकता व बाजारवाद की आंधी ने किसानों का रुख जैविक खाद से रासायनिक खादों की तरफ मोड़ दिया. रासायनिक खाद, बीज व कीटनाशकों के इस्तेमाल से उत्पादन में बढ़ोतरी हुई, लेकिन एक सीमा के बाद उस पर बढ़ती लागत से किसानों पर आर्थिक दबाव पड़ने लगा.

आज यह बात पूरी तरह साबित हो चुकी है कि स्वयं पर निर्भर जैविक खेती से सालभर की खाद्य सुरक्षा तय की जा सकती है और अनेक प्राकृतिक प्रकोपों के बावजूद भुखमरी की हालत से बहुत हद तक बचा जा सकता है.

इन तथ्यों पर अमल कर के बहुत से किसानों ने आज अपने जीवन में क्रांतिकारी बदलाव किए हैं, जो पहले धान व गेहूं उगा कर जीवनयापन की दूसरी सभी जरूरतों के लिए बाजार पर निर्भर रहते थे, पर आज दलहन, तिलहन, मसाले, चारा, जलौनी, सागसब्जी, फल आदि अनेक जरूरी चीजें उगा कर भोजन के साथसाथ अच्छा पैसा भी कमा रहे हैं.

जैविक खेती से स्वस्थ आहार

जैविक खेती प्रणाली में दूसरे फायदों के अलावा स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त आहार के उत्पादन की गारंटी दी जाती है. पारंपरिक कृषि प्रणाली में खाद और पर्यावरण संबंधी मुद्दों को ले कर बढ़ती चिंता ने पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल तौरतरीकों वाली कृषि प्रणाली के विकास को बढ़ावा दिया है, जिसे आमतौर पर और्गेनिक फार्मिंग यानी जैविक खेती कहा

जाता है. इस में जैव खेती, प्राकृतिक खेती, पुनरोत्पादक खेती, क्रमिक खेती, परमाकल्चर, कम आधान वाली सतत खेती शामिल हैं.

जैविक खेती के घटक

फसल और मृदा प्रबंधन : इस प्रणाली का उद्देश्य मिट्टी के उपजाऊपन को दीर्घकालीन आधार पर बनाए रखने के लिए उस में जैविक पदार्थों के स्तर में वृद्धि करना है.

इस घटक के तहत फसल की विभिन्न किस्मों में से चयन, समय पर बोआई करने, फसलों की अदलाबदली कर के बोआई करने, हरी खाद के उपयोग और लैग्यूम जैसी फसलों को साथ बोने पर जोर दिया जाता है.

पौष्टिक तत्त्वों का प्रबंधन : इस में जैविक पदार्थों जैसे पशुओं के गोबर की खाद के उपयोग, कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट, फसल अपशिष्ट के उपयोग, हरी खाद और जमीन की उत्पादकता बढ़ाने के लिए कवर क्रौप को उगाया जाता है.

पोषक तत्त्वों के पुनर्चक्रण के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए फसलों की अदलाबदली कर के बोआई और जैव उर्वरकों को भी शामिल किया जाता है.

पादप संरक्षण : कीड़ेमकोड़ों, बीमारी फैलाने वाले पैथोजीनों और दूसरी महामारियों को नियंत्रित करने के लिए मुख्य रूप से फसलों की अदलाबदली कर के बोआई, प्राकृतिक कीट नियंत्रकों, स्थानीय किस्मों, विविधता और जमीन की जोत का सहारा लिया जाता है. इस के बाद वानस्पतिक, तापीय और रासायनिक विकल्पों का इस्तेमाल सीमित स्थितियों में अंतिम उपाय के तौर पर किया जाता है.

पशुधन प्रबंधन : मवेशियों को पालने के लिए उन के उद्विकास संबंधी अनुकूलन, व्यवहार संबंधी आवश्यकताओं और उन के कल्याण संबंधी मुद्दों जैसे पोषाहार, आश्रय, प्रजनन आदि पर पूरा ध्यान दिया जाता है.

मृदा और जल संरक्षण : बारिश के फालतू पानी से जमीन का कटाव होता है. इसे कंटूर खेती, कंटूर बांधों के निर्माण, सीढ़ीदार खेती, पानी के बहाव के मार्ग में घास उगाने जैसे उपायों से रोका जा सकता है.

शुष्क इलाकों में क्यारियों के बीच बारिश के पानी को जमा कर के, ब्राड बैड और फरो प्रणाली, भूखंडों के बीच वर्षा जलसंचय और स्कूपिंग जैसे उपाय अपना कर पानी का संरक्षण किया जा सकता है.

खेती में फसलों के चयन का बड़ा ही महत्त्व है, क्योंकि बहुत सी फसलें कई तरह से उपयोग में लाई जा सकती हैं. जैसे मोथबीन की फसलों में सूखे का प्रतिरोध करने की क्षमता होती है, वहीं इन्हें चारे के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में मोथबीन की फसलें उगा कर ज्यादा से ज्यादा फायदा लिया जा सकता है. इन की खेती से मिट्टी के कटाव को रोकने और जमीन में पोषक तत्त्वों के पुनर्चक्रण में भी मदद मिलती है.

फसलों के रोग प्रबंधन में रासायनिक जीवनाशियों के वानस्पतिक विकल्प

हमारे देश में कीटों और रोगों के प्रकोप से हर साल 18-30 फीसदी फसल खराब हो जाती है, जिस से देश को हर साल तकरीबन 100,000 करोड़ रुपयों का नुकसान होता है. रोगों और नाशीकीटों से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए हमें रासायनिक जीवनाशियों की जरूरत पड़ती है. इन रसायनों की खपत साल 1954 में 434 टन की तुलना में साल 1990 में 90,000 टन तक पहुंच गई थी, जो अब 55,000 टन के आसपास है.

इस में कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान में हम इन रोगों और नाशीकीटों को रोकने में तो सक्षम रहे हैं, पर नाशीकीटों की रासायनिक जीवनाशियों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता, जो साल 1954 में 7 नाशीकीटों में विद्यमान थी, आज वह 504 से अधिक नाशीकीटों में पाई गई है.

इसी तरह फफूंद की भी कई ऐसी प्रजातियां हैं, जिन में रासायनिक फफूंदनाशियों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता पाई गई है. इसलिए पौधों में रोगों की रोकथाम के लिए वैकल्पिक तरीकों की आवश्यकता है, ताकि हम रासायनिक जीवनाशियों के उपयोग में कमी ला सकें.

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की साल 1996 में जारी रिपोर्ट के अनुसार, बाजार में 51 फीसदी विभिन्न कृषि खाद्य पदार्थों के नमूनों में विषैले जीवनाशियों के अवशेष पाए गए, जिन में से 20 फीसदी खाद्य पदार्थों में ये मात्रा इन जीवनाशियों की न्यूनतम सुरक्षित मात्रा से अधिक थी.

कृषि में रासायनिक जीवनाशियों के प्रयोग से कृषि उत्पाद में इन रसायनों के अवशेषों से इन का सेवन करने वाले लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ता है.

दुनियाभर में हर साल रासायनिक फफूंदनाशियों और कीटनाशियों की तीव्र विषाक्तता से अनजाने में तकरीबन 385 मिलियन किसान और अन्य लोग प्रभावित होते हैं, जिन में से तकरीबन 11,000 लोगों की मौत हो जाती है.

यदि हम कीटनाशकों की विषाक्तता की सीमा का और विश्लेषण करें, तो हम पाते हैं कि वैश्विक कृषि भूमि का 64 फीसदी भूभाग एक से अधिक प्रकार के कीटनाशी अणुओं द्वारा प्रदूषण के खतरे में है और 31 फीसदी उच्च जोखिम की श्रेणी में आता है.

भारत में साल 2008-18 के दौरान फलसब्जियों सहित 2.1 फीसदी खाद्य नमूनों में कीटनाशकों के अवशेष न्यूनतम स्तर से ऊपर पाए गए.

विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार, कृषि में रासायनिक जीवनाशियों के जहर से विकासशील देशों में हर साल 30 लाख लोग प्रभावित होते हैं. वहीं भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार बाजार में उपलब्ध 18 फीसदी सब्जियों और 12 फीसदी फलों के नमूनों में रासायनिक जीवनाशियों के अवशेष पाए गए, जिन में प्रतिबंधित रसायन भी शामिल हैं.

कृषि उत्पाद में मौजूद इन हानिकारक रसायनों के सेवन से मनुष्य के शरीर में कई तरह के गंभीर रोग पनपते हैं, जिन में कैंसर, हृदय रोग, सिरदर्द, बांझपन और आंखों से जुड़े रोग शामिल हैं.

कृषि में प्रयोग होने वाली भूमि एक सजीव माध्यम है, जिस में फसलों के उपयोगी कई तरह के जीवाणु होते हैं, जो फसलों की बढ़ोतरी में बहुमूल्य योगदान करते हैं.

इन रासायनिक जीवनाशियों की फसलों में रोगों और नाशीकीटों के प्रबंधन में दीर्घकालीन उपयोगिता पर भी एक प्रश्न चिह्न है, क्योंकि रासायनिक जीवनाशियों का एक और बुरा असर हमारे पर्यावरण और भूमंडल पर मौजूद दूसरे जीवजंतुओं पर भी पड़ रहा है, जिन का जीवनचक्र भी इन रसायनों से प्रभावित हो रहा है. लिहाजा, इन रासायनिक जीवनाशियों से जलवायु परिवर्तन का खतरा भी बढ़ा है. ऐसे में हमें स्थानीय जैविक संसाधनों पर आधारित जैविक जीवनाशी विकसित करने की जरूरत है, जो पर्यावरण के अनुकूल हो और हमें दीर्घकालीन रोग प्रबंधन भी दे.

हमारा देश ऐसे वानस्पतिक और दूसरे जैविक संसाधनों से संपन्न है, जिन के उपयोग से हम जैविक जीवनाशी तैयार कर सकते हैं. हमारे देश में 2 करोड़ के आसपास नीम के पेड़ हैं, जिन से 30 लाख टन बीज का उत्पादन होता है, जिस से 7 लाख टन तेल और 20 लाख टन से अधिक खली निकलने की क्षमता है.

Farmingइस नीम के तेल और खली का उपयोग हम फसलों में रोग प्रबंधन के लिए कर सकते हैं. हमारे देश में रासायनिक जीवनाशियों की हर साल खपत 55,000 टन के आसपास है और अकेले नीम के पेड़ में ही ऐसी क्षमता है, जिस से सभी फसलों में हम सफलतापूर्वक रोग और नाशीकीट प्रबंधन कर सकते हैं.

शोधकर्ताओं के आंकड़े दर्शाते हैं कि हम नीम द्वारा तैयार जीवनाशी से फसलों के 200 से अधिक नाशीकीटों और 50 से अधिक रोगों की रोकथाम कर सकते हैं.

नीम के अलावा भी 200 से अधिक ऐसे स्थानीय पौधे हैं, जिन का उपयोग हम रोगों और नाशीकीटों के प्रबंधन में कर सकते हैं. इस के अलावा हम पौधों से प्राप्त जैविक जीवनाशियों के साथ गोमूत्र का भी प्रयोग कर सकते हैं.

प्राचीनकाल से पौध संरक्षण के लिए पौधों का उपयोग किया जा रहा है, जिस का वर्णन अथर्ववेद और ऋग्वेद में किया गया है. पौधों का चयन उन के जीवनाशी गुणों के आधार पर किया जाता है. पौधों के विभिन्न भागों से बने पदार्थ जैसे बीज और उस से निकलने वाला तेल, छाल या पत्तों का पाउडर, खली, गोंद और लेटेक्स इत्यादि का प्रयोग पौधों की विभिन्न बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए किया जा रहा है. यह पदार्थ ठंडे पानी, गरम पानी अथवा दूसरे रासायनिक घोलों में बनाए जाते हैं. पौधों और उन से बने पदार्थ बीमारी पैदा करने वाले रोगाणुओं की रोकथाम कई प्रकार से जैसे पौधों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर, रोगों के जीवाणुओं की पैदावार को रोक कर, जीवाणु विरोधी रसायन उत्पन्न कर के, जीवाणुओं में विकृति कर के या उन की भौतिक क्रियाओं को रोक कर इत्यादि करते हैं.

रोगकारक फफूंद और जीवाणुओं के विरुद्ध जीवनाशी क्षमता वाले कुछ प्रमुख पौधों में नीम (अजादीरेक्टा इंडिका), दरेक (मीलिया अजादीरैक), कड़व्या (रोयलिया एलेगंस), लहसुन (एलियम स्टाइवम), फूलबूटी (लेनटाना केमेरा), तुलसी (ओसिमम सेंकटम), अलो बारबाडैनसिस, बौगेनविलीया ग्लाबरा, यूकेलिप्टस ग्लोबूल्स, मैंथा लौंगीफोलिया, ओसिमम सैंकटम, रोयालिया ऐलिगैन्स, क्रिपटोलैप्सिस बुचानानी, मैंथा पिपरीटा, थूजा चाईनैनसिज, आर्टिका डाईवोसिया, विटैक्स निगुंडों, पोगौसटिमोन बैंघालैन्सिस, आर्टेमिसीया रौक्सबरघियाना, मीलिया अजादीरैक, धतूरा स्ट्रेमोनियम, लाउसिनिया इनरमिस, गैंदा (टेजेटस इरेक्टा), यूकेलिप्टस ग्लोब्स, विंसा रोसिए, निरियम ओडोरम इत्यादि मुख्य रूप से पौधों के रोगकारकों और नाशीकीटों के विरुद्ध प्रयोग किए जाते हैं. इन पौधों में नीम और दरेक के बीजों के साथ पत्तों का भी प्रयोग किया जाता है, जबकि अन्य पौधों के पत्तों का उपयोग किया जाता है.

हमारे देश में नीम के 2 करोड़ के लगभग पौधे हैं, जिन में से 4 लाख, 14 हजार टन के लगभग बीज निकलने की क्षमता है. इस बीज से 85,000 टन के लगभग तेल और 3 लाख, 30 हजार टन के लगभग खली निकल सकती है.

अगर हम चाहें तो देश में फसलों की रोगों और नाशीकीटों से सुरक्षा अकेले नीम से भी कर सकते हैं. भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की कुछ महत्त्वपूर्ण अनुसंधान परियोजनाओं में डा. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, सोलन के पादप रोग विज्ञान विभाग में पौधों की कुछ प्रजातियों और गाय के मूत्र से तैयार रासायनिक जीवनाशियों के ऐसे विकल्प बनाए गए हैं, जो फलों और सब्जियों के कई महत्वपूर्ण रोगों के विरुद्ध प्रभावी पाए गए हैं.

स्ट्राबेरी दुनियाभर में रासायनिक कीटनाशियों के छिड़काव से होने वाला सब से अधिक प्रदूषित फल है. ऐसा इस फल की बाहरी संरचना के कारण है, क्योंकि इस पौधे में फल बनने के बाद किए जाने वाले छिड़काव फल अपने अंदर सोख लेता है, जिस से उस में जीवनाशी रसायनों के अवशेष रह जाते हैं. इसी तरह टमाटर, सेब, शिमला मिर्च और गोभीवर्गीय फसलों में भी रोगों और नाशीकीटों का अधिक संक्रमण होने के कारण किसान इन फसलों में 5 से 12 तक विभिन्न फफूंदनाशियों और कीटनाशियों के छिड़काव करते हैं.

पौधों के रोगों के विरुद्ध मारक क्षमता रखने वाले पौध के मिश्रण से हम रासायनिक फफूंदनाशियों के प्रभावशाली विकल्प बना सकते हैं. रोगों के विरुद्ध मारक क्षमता रखने वाले ऐसे पौधों का विवरण दिया गया है, जिन में से अधिकतर हमारे देश के अलगअलग भागों में आसानी से हमारे खेतों के आसपास या फिर नजदीक के जगलों में पाए जाते हैं. इन पौधों से छिड़काव का घोल तैयार करने का भी बहुत आसान तरीका है. इन पौधों में से हमारे पास जितने भी प्रकार के पौधे हैं और उन के बीज व पत्तों की जितनी भी मात्रा मौजूद है लें और फिर बीजों को अच्छी तरह पीस लें और पत्तों और कोमल टहनियों को घास काटने वाली मशीन से छोटेछोटे टुकड़ों में काट लें. उस के बाद एक 200 लिटर प्लास्टिक के ड्रम में 100 लिटर गोमूत्र या फिर पानी लें और फिर उस में विभिन पौधों से इकट्ठा किए गए 50 किलोग्राम के लगभग पिसे हुए बीज और पत्तों को मिक्स कर दें.

इस मिश्रण को इसी तरह से एक महीने तक रहने दें, जिस से बीज और पत्ते पानी में अच्छी तरह से गल जाएं. फिर इस मिश्रण को अच्छी तरह घोल लें, ताकि बीजों और पत्तों से उन के तत्व और रस अच्छी तरह से बाहर निकल जाएं. फिर इस घोल को मलमल के कपड़े से छान लें, ताकि स्प्रे करते समय आसानी हो. पिसे हुए बीजों और पत्तों के मिश्रण को हम ग्राइंडर में पीस कर पानी में मिला सकते हैं, जिस से यह घोल तुरंत तैयार हो जाएगा. इस तरह से बनाए गए इस घोल की सघनता 50 फीसदी होगी.

विभिन्न फसलों में छिड़काव करने के लिए हमें 10 फीसदी सघनता वाले घोल का प्रयोग करना होगा. वानस्पतिक जीवनाशियों का प्रयोग हम विभिन्न फसलों में पौधों के ऊपरी किसी भी भाग में होने वाले रोगों के लिए छिड़काव कर सकते हैं.

दुनियाभर में शोधकर्ताओं ने वानस्पतिक जीवनाशियों की उपयोगिता कई फसलों के महत्वपूर्ण रोगों के विरुद्ध दर्शाई हैं. पौधों से बने रोगाणुओं के विरुद्ध इन जीवनाशियों के प्रयोग में कुछ सावधानी बरतनी चाहिए. इन जीवनाशियों का प्रयोग रोगों के शुरू के लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद शुरू कर दें. रोगों के लिए अनुकूल मौसम होने के समय छिड़काव एक सप्ताह के अंतराल पर करते रहें, अन्यथा छिड़काव 10 से 12 दिनों के अंतराल पर करें.

रासायनिक कीटनाशियों की तरह इन जीवनाशियों के छिड़काव के बाद फसल तोड़ने के लिए अधिक इंतजार करने की जरूरत नहीं है. वानस्पतिक जीवनाशियों का उपयोग हम जैविक खेती के लिए भी कर सकते हैं.

इस तरह हम इन जीवनाशियों के उपयोग से जहां लाभकारी सूक्ष्म जीवाणुओं और कीटों की हिफाजत करेंगे, उस के साथ हम अपने पर्यावरण की भी रक्षा करेंगे और इस तरह इस पृथ्वी पर विद्यमान दूसरे जीवों के लिए भी एक अच्छा वातावरण बनाएंगे.

अब दूध भी और्गेनिक

हैल्थ इज वैल्थ यानी स्वास्थ्य ही धन है. यह कहावत दुनिया मानती है. आज हर तरफ और्गेनिक का बोलबाला है. सब्जी, फल, मसाले, दालें, आटा सभी कुछ और्गेनिक मिल रहा है और लोग भी और्गेनिक चीजों को खासा पसंद कर रहे हैं. इसी बीच अब और्गेनिक दूध का भी प्रचलन बढ़ रहा है. कई कंपनियां तो लोगों को और्गेनिक दूध मुहैया करा भी रही हैं.

क्या है और्गेनिक दूध

और्गेनिक का मतलब होता है 100 फीसदी नैचुरल यानी जिस चीज के उत्पादन में किसी भी रासायनिक वस्तु का इस्तेमाल नहीं किया गया हो. दूध गाय और भैंस से निकाला जाता है, तो फिर इस में और्गेनिक क्या है, यह बड़ा सवाल है.

दरअसल, और्गेनिक दूध पाने के लिए पशुओं को ऐसा चारा खिलाया जाता है, जिस का उत्पादन जैविक खाद से किया जाता है. इस के साथ ही इन जानवरों को किसी भी तरह का एंटीबायोटिक भी नहीं दिया जाता है.

और्गेनिक डेरी फार्म में स्वच्छंद घूमती हैं गाय

बड़े स्तर पर और्गेनिक दूध का उत्पादन करने के लिए खास तरह के डेरी फार्म की जरूरत होती है. ये डेरी फार्म कई एकड़ में फैले होते हैं. यहां एक हिस्से में पशुओं को रखने का इंतजाम होता है, वहीं कई बड़े हिस्से में पशुओं के लिए और्गेनिक तरीके से चारे का उत्पादन किया जाता है.

इन डेरी फार्मों पर पशुओं को रेडीमेड चारा नहीं खिलाया जाता, बल्कि फार्म में ही पैदा किया गया पौष्टिक व जैविक चारा खिलाया जाता है. जैविक चारा इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसे उगाने में रासायनिक खादों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.

इतना ही नहीं, इन फार्मों में गायों को नैचुरल वातावरण में स्वच्छंद घूमने दिया जाता है और चरने दिया जाता है, इन्हें बांध कर नहीं रखा जाता है.

मशीन से दूध निकालना

और्गेनिक डेरी फार्म पर गायों का दूध निकालने में हाथ का इस्तेमाल नहीं किया जाता, बल्कि दूध दुहने के लिए मशीनों का इस्तेमाल होता है. मशीन के जरीए दूध निकाल कर सीधे उसे चिलर प्लांट में ले जाया जाता है और फिर वहां से पैकिंग के बाद उपभोक्ताओं तक सप्लाई किया जाता है.

Organic Milk
Organic Milk

सेहत के लिए फायदेमंद

और्गेनिक दूध सेहत के लिए काफी फायदेमंद होता है. शोध से पता चला है कि और्गेनिक चारा खाने वाली गाय का दूध पीने से शरीर में पौलीअनसैचुरेटिड फैट में इजाफा होता है. इस फैट का सेवन दिल के लिए फायदेमंद होता है.

इस दूध में कोलैस्ट्रौल की मात्रा सामान्य दूध से दोगुनी होती है. एक नई रिसर्च में यह भी सामने आया है कि और्गेनिक दूध में ओमैगा 3 होता है, जो दिल के लिए अच्छा होता है.

घर के बने कीटनाशक स्प्रे

घर के पिछवाड़े लहलहाती ताजा सब्जियां, टोकरियों में तैयार किया सलाद गार्डन, हर्बल क्यारी, पेड़ों से सटी लताओं पर लगी तोरई या लौकी, गुच्छों में लटकते टमाटर, तरहतरह के फूल किसी भी सुघड़ गृहिणी के बागबानी के शौक के परिचायक हैं.

बागबानी के शौकीन अपनी कड़ी मेहनत और लगन से किचन गार्डन को संभालने की हर संभव कोशिश में लगे रहते हैं. उन की कोशिशों के बावजूद सब्जियों की पत्तियों पर कीड़े व फफूंदी लग जाती है. इस के चलते पत्तियों का  झड़ना जारी रहता है.

आम धारणा है कि सब्जियों की पत्तियों पर बाजार में मौजूद कीटनाशकों का छिड़काव करने से कीड़े मर जाते हैं, पर कृषि वैज्ञानिक पौधों पर दवाओं के छिड़काव का समर्थन नहीं करते. ऐसे में आप अपने किचन में उपलब्ध सामान से कुछ ऐसे कीटनाशक स्प्रे झटपट तैयार कर सकते हैं जो पेड़ों के लिए हानिकारक नहीं होते.

एफिड, पाउडरी मिल्ड्यू, छोटी मकड़ी, फफूंदी आदि पौधों की फोटोसिंथेसिस प्रक्रिया को निष्क्रिय  बना सकें, इस के लिए प्राकृतिक तरीके से कीटनाशक स्प्रे बनाएं जो बनाने में आसान, ईकोफ्रैंडली, वातावरण का संतुलन बनाने में सहायक होने के साथसाथ झटपट व आसानी से तैयार हो जाते हैं.

पौधों की देखभाल के लिए कीटनाशक स्प्रे बनाने के लिए स्प्रे बोतल, लिक्विड सोप, लहसुन पाउडर या पेस्ट और मिनरल औयल या बेबी औयल की जरूरत होती है.

किसी भी साधारण से किचन गार्डन में कीटपतंगों से निबटने के लिए इन सामग्रियों से कई प्रकार के कीटनाशक स्प्रे बनाए जा सकते हैं.

सोप स्प्रे कीटनाशक

सामग्री : एक चम्मच लिक्विड सोप, 3 से 5 लिटर पानी.

विधि : इन दोनों को अच्छी प्रकार से मिला लें. स्प्रे बोतल में डाल कर पौधे के पत्तों के दोनों ओर हलकाहलका स्प्रे करें. कीट खुदबखुद मर जाएंगे. ऐसा करने से पहले इस बात पर ध्यान अवश्य दें, ऐसा तो नहीं कि आप बालटी भर साबुन का पानी सीधे गमले या क्यारी में डाल रही हैं.

बेकिंग सोडा स्प्रे

सामग्री : एक चम्मच डिश वाशिंग लिक्विड, 3 से 5 लिटर पानी, 3 चम्मच बेकिंग सोडा.

विधि : इन तीनों चीजों का मिश्रण बना लें. इस घोल को स्प्रे बोतल में डाल कर कीटों से ग्रसित पौधों के पत्तों के दोनों ओर स्प्रे करें.

यदि पौधे ज्यादा खराब हैं तो गलेसड़े पत्तों को निकाल कर फेंक दें. फफूंदी लगे पौधों के लिए यह स्प्रे बहुत कारगर होता है.

लहसुन स्प्रे

सामग्री : एक गांठ लहसुन, 3 से 5 लिटर पानी.

विधि : लहसुन छील कर इस की कलियों को मिक्सी में एक कप पानी में अच्छी तरह से पीस लें. स्प्रे बोतल में डाल कर फ्रिज में एक दिन के लिए रख दें. अगले दिन अच्छी प्रकार से छलनी से इसे छान लें. फिर पानी में इसे डालें. स्प्रे बोतल में भर कर कीटग्रसित पौधों पर इस का हफ्ते में 1 या 2 बार छिड़काव करें.

लहसुन और मिर्चीयुक्त स्प्रे

सामग्री : 7-8 कलियां लहसुन, एक चम्मच लाल पिसी मिर्च, एक कद्दूकस किया प्याज, एक चम्मच लिक्विड सोप, 3 से 5 लिटर गरम पानी.

विधि : सारी सामग्री को गरम पानी में घोल लें. 2 दिन रखा रहने दें. इस घोल का स्प्रे बोतल में डाल कर रखें और ग्रसित पौधों पर इस का छिड़काव करें. यह स्प्रे गोभी में लगने वाले कीड़ों जैसे रेंगते कैटरपिलर, एफिड और फ्ली बीटल को नष्ट करने में बहुत ही फायदेमंद होता है.

दूध का स्प्रे

सामग्री : कुछ मात्रा में दूध.

विधि : भगोने में जो दूध बच जाता है, कई गृहिणियां इसे सिंक में फेंक देती हैं. ऐसा न करें, बल्कि इस में कुछ पानी मिला दें. स्प्रे बोतल में भर कर इस का छिड़काव फफूंदीयुक्त पौधे या जिस पर पाउडरी मिल्ड्यू कीट रहता हो, सप्ताह में 3 बार करें. पौधा हराभरा हो जाएगा.

कृषि विज्ञान केंद्रों के 30वें वार्षिक कार्यशाला में सम्मानित हुए किसान राममूर्ति मिश्र

बस्ती : बस्ती जिले के सदर ब्लाक के गांव गौरा के निवासी नेशनल अवार्डी किसान राममूर्ति मिश्र को काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में आईसीएआर-कृषि प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग अनुसंधान संस्थान, कानपुर द्वारा आयोजित कृषि विज्ञान केंद्रों के 30वें वार्षिक कार्यशाला में मोटे अनाजों व काला नमक धान की खेती के लिए मुख्य अतिथि प्रो. पंजाब सिंह, कुलाधिपति, रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झांसी, पूर्व कुलपति, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी और पूर्व सचिव (डेयर) एवं महानिदेशक (आईसीएआर), नई दिल्ली, द्वारा प्रमाणपत्र प्रदान कर सम्मानित किया गया.

इस मौके पर डा. शांतनु कुमार दुबे, निदेशक, भाकृअनुप-अटारी, कानपुर, डा. रंजय कुमार सिंह, सहायक महानिदेशक (कृप्र), भाकृअनुप, नई दिल्ली, डा. केके सिंह, कुलपति, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेरठ, डा. एके सिंह, कुलपति, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर, डा. यूएस गौतम, उपमहानिदेशक (कृषि प्रसार), भाकृअनुप, नई दिल्ली, प्रो. वीके शुक्ला, कुलगुरु, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी व डा. यशवंत सिंह, निदेशक, कृषि विज्ञान संस्थान, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी भी उपस्थित रहे.

अतिथियों ने मोटे अनाजों का किया अवलोकन

कृषि विज्ञान केंद्रों के 30वें वार्षिक कार्यशाला काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा खुद द्वारा उपजाए मोटे अनाजों की को 3 दिनों तक स्टाल लगा कर प्रदर्शित किया जा रहा है.

इस मौके पर अतिथियों और विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने किसान राममूर्ति मिश्र के स्टाल पर पहुंच कर उन के द्वारा उगाए जा रहे मोटे अनाजों के बारे में जानकारी भी प्राप्त की.

किसान राममूर्ति मिश्र ने अतिथियों को जैविक तरीके से उगाए गए सांवा व कोदो के चावल को पारंपरिक तरीके से मटके में पैक करने के लाभ के बारे में बताया.

उन्होंने अपने स्टाल पर सांवा, कोदो, रागी, काकुन, ज्वार, बाजरा, सुगंधित चावल काला नमक के चावल और बीज का प्रदर्शन कर रखा है. इस मौके पर उन्होंने अतिथियों को मटका में सांवा व कोदो का चावल भेंट किया.

भारत सरकार द्वारा मिल चुका है नेशनल अवार्ड

किसान राममूर्ति मिश्र को जैविक खेती, काला नमक धान की खेती, मोटे अनाजों की खेती के लिए देशभर के 25 चुनिंदा किसानों में शामिल किया गया है, जिस के आधार पर उन्हें साल 2021 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान भारत सरकार द्वारा इनोवेटिव फार्मर का नेशनल अवार्ड प्रदान किया गया.

एफपीओ के जरीए मोटे अनाजों और काला नमक धान की खेती को दे रहे हैं बढ़ावा

किसान राममूर्ति मिश्र ने जनपद बस्ती में काला नमक धान की खेती को बढ़ावा देने में मुख्य भूमिका निभाई है, क्योंकि उन्होंने सिद्धार्थ फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के नाम से केवल किसानों वाली एक संस्था बनाई है, जिस के जरीए वह काला नमक धान के साथ साथ सांवा, कोदो, रागी, काकुन, ज्वार, बाजरा की खेती को बढ़ावा देने के साथसाथ अच्छी कीमत पर बिक्री में भी मदद कर रहे हैं.

कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती को दिया श्रेय

वाराणसी में सम्मानित होने पर इस का सारा श्रेय कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती को देते हुए किसान राममूर्ति मिश्र ने बताया कि केंद्र के अध्यक्ष प्रो. डा. एसएन सिंह द्वारा उन्हें खेतीबारी के न केवल टिप्स दिए जा रहे हैं, बल्कि बड़े मंचों पर खेती की उपलब्धियों को रखने का मौका भी उपलब्ध कराया जा रहा है.

उन्होंने बताया कि वाराणसी में अपने अनुभवों को साझा करने का मौका कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती ने ही उपलब्ध कराया है.

सम्मानित होने पर मिल रही बधाइयां

किसान राममूर्ति मिश्र के वाराणसी में सम्मानित होने पर कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती के अध्यक्ष प्रो. डा. एसएन सिंह, पशु विज्ञान विज्ञानी डा. डीके श्रीवास्तव, वैज्ञानिक डा. बीवी सिंह, डा. प्रेम शंकर, अंजलि वर्मा, राघवेंद्र विक्रम सिंह, हरिओम मिश्र, बनारसी, बिजेंद्र बहादुर पाल, वंदना चौधरी, शंकट हरण पांडेय, बृहस्पति कुमार पांडेय, हर्ष देव, धर्मेंद्र सहित तमाम लोगों ने प्रसन्नता व्यक्त की है.