Rice Diseases : यहां धान के कुछ प्रमुख रोगों (Rice Diseases) के बारे में जानकारी दी गई है, जिन के नियंत्रण के उपाय अपना कर आप अपनी फसल को स्वस्थ बनाते हुए अच्छा उत्पादन ले सकते हैं :

झौंका रोग

एक फफूंदजनित रोग है और इस का कारक मैग्नीपारथी गराइसिया है. इस रोग के लक्षण पौधे के सभी वायवीय भागों पर दिखाई देते हैं, परंतु सामान्य रूप से पत्तियां और पुष्पगुच्छ की ग्रीवा इस रोग से अधिक प्रभावित होती हैं. प्रारंभिक लक्षण नर्सरी में पौध की पत्तियों पर नाव जैसे या आंख जैसे धब्बे के रूप में प्रकट होते हैं.

ये धब्बे 0.5 सैंटीमीटर से ले कर कई सैंटीमीटर तक लंबे होते हैं. इन के किनारे भूरे लाल रंग के तथा मध्य वाला भाग श्वेत धूसर या राख जैसे रंग का होता है. पौध की रोपाई के पश्चात लक्षण खेत में पौधों पर कई स्थानों पर दिखाई देते हैं. ये कल्ले फूटने के समय पूरी फसल पर फैल जाते हैं. बाद में धब्बे आपस में मिल कर पौधे के सभी हरे भागों को ढक लेते हैं, जिस से फसल जली हुई प्रतीत होती है.

रोग के लक्षण

स्तंभ संधि/स्तंभ नोड और तुशनिपत्रा पर भी दिखाई देते हैं. इन पर भूरे से काले धब्बे बनते हैं. तने पर यह काला रंग 1 या 2 सैंटीमीटर तक दोनों ओर फैल सकता है. बाली के बाहर निकलने पर पुष्पगुच्छ ग्रीवा में संक्रमण होता है. ग्रीवा का रोगी भाग सिकुड़़ कर काला हो जाता है. इस भाग को धूसर कवक जाल ढक लेता है.

यह अवस्था ग्रीवा संक्रमण या ग्रीवा विगलन के नाम से जानी जाती है. यदि इस प्रकार का संक्रमण आरंभ में ही हो जाता है, तब बाली सीधी निकलती है. इस में दाने आंशिक या पूर्ण रूप से नहीं बनते हैं, परंतु जब यह संक्रमण बाली में दाने बनने के बाद होता है, तो ग्रीवा ऊतकों की मृत्यु के कारण बाली टूट कर नीचे लटक जाती है. ऐसी बालियों को खेत में दूर से देखा जा सकता है और रोग ((Rice Diseases)) की इस अवस्था में उत्पादन की अधिकतम हानि होती है.

रोग नियंत्रण के उपाय

बीज का चयन रोगरहित फसल से करना चाहिए. फसल की कटाई के बाद खेत में रोगी पौध ((Rice Diseases) अवशेषों और ठूंठों इत्यादि को एकत्र कर के नष्ट कर देना चाहिए.

उपचारित बीज ही बोना चाहिए. इस के लिए थीरम 75 फीसदी की 2.5 ग्राम या कार्बेंडाजिम 50 फीसदी डब्ल्यूपी की 2.0 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार करना चाहिए.

इस रोग के नियंत्रण के लिए निम्न में से किसी एक रसायन को प्रति हेक्टेयर 500-600 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए :

कार्बेंडाजिम 50 फीसदी डब्ल्यूपी-500 ग्राम, ट्राईसाईक्लाजोल 75 फीसदी डब्ल्यूपी-300 ग्राम, हैक्साकोनाजोल 5.0 फीसदी ईसी-1 लिटर, प्रोपिकोनाजोल 25 फीसदी ईसी-500 मिलीलिटर को प्रति हेक्टेयर 500-600 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

पर्ण झुलसा या शीथ झुलसा

यह फफूंदीजनित रोग है, जिस का कारक राइजोक्टोनिया ओराईजी है. पूर्व में इस रोग को अधिक महत्त्व का नहीं माना जाता था. अधिक पैदावार देने वाली और अधिक उर्वरक उपभोग करने वाली प्रजातियों के विकास के साथ अब यह रोग धान के रोगों में अपना प्रमुख स्थान रखता है, जो व्यापकतानुसार उपज में 50 फीसदी तक नुकसान करता है.

लक्षण

इस रोग का संक्रमण नर्सरी से ही दिखना आरंभ हो जाता है, जिस से पौधे नीचे से सड़ने लगते हैं. मुख्य खेत में ये लक्षण कल्ले बनने की अंतिम अवस्था में प्रकट होते हैं. लीफ शीथ पर जल सतह के ऊपर से धब्बे बनने शुरू होते हैं. इन धब्बों की आकृति अनियमित (वृत्ताकार से दीर्घ वृत्ताकार और आयताकार) और किनारा गहरा भूरा व बीच का भाग हलके रंग का होता है. पत्तियों पर घेरेदार धब्बे बनते हैं, जिन का आकार 3×1 सैंटीमीटर होता है. अनुकूल परिस्थितियों में कई छोटेछोटे धब्बे मिल कर बड़ा धब्बा बनाते हैं.

इसके कारण शीथ, तना, ध्वजा पत्ती पूर्ण रूप से ग्रसित हो जाती है. पौधे मर जाते हैं. खेतों में यह रोग अगस्त और सितंबर में अधिक तीव्र दिखता है. संक्रमित पौधों में बाली कम निकलती हैं और दाने भी नहीं बनते हैं. संक्रमण के एक सप्ताह बाद कवक (फफूंदी) तंतु पर स्केलेरोशिया दिखाई देता है, जो आसानी से अलग हो जाता है और ये भूमि में पड़े रहते हैं. अगली फसल में ये प्राथमिक संक्रमण कर देते हैं.

रोगचक्र

रोगकारक मृदा में स्केलेरोशिया के रूप में या पौधों के ठूंठ पर रहता है. यह कृषि क्रियाओं द्वारा एक से दूसरे स्थान पर पहुंचता है. यह फफूंदी विभिन्न प्रकार के खरपतवारों पर उगती है और प्राथमिक संक्रमण के लिए उत्तरदायी है. रोग के फैलाव के लिए सापेक्ष आर्द्रता वर्षा और तापमान मुख्य भूमिका निभाते हैं. रोग के क्षैतिज फैलाव का सापेक्ष आर्द्रता से जबकि ऊर्ध्वाधर फैलाव का वर्षा की मात्रा से धनात्मक संबंध पाया गया है. 23 से 34 डिगरी सैल्सियस तापमान संक्रमण के लिए अनुकूल होता है.

रोग प्रबंधन

धान के बीज को स्यूडोमोनास फ्लारेसेंस की 10 ग्राम या ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करें.

फसल का रासायनिक उपचार

रोग (Rice Diseases) के लक्षण खड़ी फसल में दिखाई देने पर निम्नलिखित किसी एक रसायन का प्रयोग करें. इन का 10 से 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना चाहिए. कार्बेंडजिम 1 किलोग्राम या प्रोपिकोनाजोल 500 मिलीलिटर या हेक्साकोनाजोल 1 लिटर मात्रा का 500-600 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

बचाव के उपाय

-खेतों से फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए.

-प्रक्षेत्रों पर फसल को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए. साथ ही साथ मेंड़ों की सफाई अवश्य करें.

-संतुलित उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए.

-नाइटोजन उर्वरकों को 2 या 3 बार में देना चाहिए.

-धान की रोगरोधी प्रजातियों का चयन करें.

-शुद्ध और असंक्रमित बीजों का ही प्रयोग करें.

-मुख्य खेत व मेंड़ों को खरपतवार से मुक्त रखें.

भूरा धब्बा रोग

मुख्य रूप से यह रोग पत्तियाें, पर्णच्छंद और दानों पर आक्रमण करता है. पत्तियाें पर गहरे कत्थई रंग के गोल या अंडाकार धब्बे बन जाते हैं. इन धब्बों के चारों तरफ पीला घेरा बन जाता है. मुख्य भाग पीलापन लिए हुए कत्थई रंग का होता है और पत्तियां झुलस जाती हैं. दानों पर भी भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. इस रोग का आक्रमण पौध अवस्था से दाने बनने की अवस्था तक होता है.

नियंत्रण के उपाय

इस रोग की रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 2.5 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करते हैं.

जीवाणुधारी झुलसा

इस रोग का रोगजनक जीवाणु है. इस का नाम जैन्थेमोनास ओराइजी पीवी ओराइजी है.

रोग का प्रमुख लक्षण

पौधे के ऊपरी हरे भागों पर दिखाई देता है, जिस में पत्तियों पर कत्थई रंग की लंबीलंबी (1 से 10 सैंटीमीटर तक) धारियां नसों के बीच बन जाती हैं. इस में पीले रंग का जीवाणु स्राव पत्ती पर दिखाई देता है. ये धारियां एकदूसरे से सट कर पूरी पत्ती पर दिखाई देती हैं. फलस्वरूप पत्ती सूख जाती है. तीव्र संक्रमण में शीथ और बीज भी प्रभावित होता है, परंतु ये लक्षण कम स्पष्ट होते हैं.

रोगचक्र

प्राथमिक संक्रमण बीज के अंदर और सतह पर चिपके जीवाणुओं द्वारा होता है. जीवाणु मृदा राेगी पाैधाें, खरपतवाराें, ठूंठ आदि पर भी कई महीनों तक रहते हैं. रोग का संक्रमण खेत में पौधे की रोगी पत्तियों से स्वस्थ पत्तियाें पर हो जाता है. ये जीवाणु कीट, वायु और स्पर्श द्वारा पूरे खेत में फैल जाते हैं. जीवाणु पत्तियाें के रंध्रों द्वारा या घावों द्वारा भीतर प्रवेश कर के रोग उत्पन्न कर देते हैं.

जीवाणु झुलसा

यह जीवाणुजनित रोग है, जिस के कारक जीवाणु का नाम जैन्थोमोनास ओराइजी पीवी ओराइजी है. इस रोग (Rice Diseases) के लक्षण धान के पौधे में 2 अवस्थाओं में दिखाई देते हैं, पर्ण झुलसा (लीफ ब्लाइट) और विल्ट, जिस में पर्ण झुलसा अधिक व्यापक है. इन के लक्षण धान में नर्सरी अवस्था से ले कर बालियां निकलते समय तक कभी भी दिखाई दे सकते हैं. सामान्यतः रोग के लक्षण पौधों में कल्ले बनने की अंतिम अवस्था से बाल निकलते समय अधिक स्पष्ट होते हैं और यह अधिक नुकसान भी पहुंचाता है.

इस रोग में पत्ती के एक या दोनों किनारों पर और मध्य शिरा के साथ जलासिक्त पारभासक धब्बे बनने आरंभ होते हैं. धीरेधीरे ये धब्बे बढ़ कर धारियों का रूप ले लेते हैं, जो पीले से सफेद रंग के दिखाई देते हैं. इन धारियों का किनारा लहरदार होता है. अनुकूल मौसम (अधिक नमी) में ये धब्बे बीच की तरफ तीव्र गति से बढ़ कर संपूर्ण पत्ती को प्रभावित करते हैं, जिस से पत्तियां मुड़ जाती हैं. ग्रसित भाग से जीवाणुयुक्त स्राव बूंदों के रूप में निकलता है. यह स्राव सूख कर कठोर हो जाता है और पीले कणों या पपड़ी के रूप में दिखाई देता है. पौधों के संवहनी बंडल जीवाणु द्वारा भर जाते हैं और पौधों की मृत्यु हो जाती है.

उत्तर भारत में इस रोग के लक्षण धान के खेत में अगस्त और सितंबर में दिखाई देते हैं. ग्रसित पौधों की बालियां और दाने कम बनते हैं. विल्ट या करेसेक अवस्था में ग्रसित पौधों की पत्तियां सिकुड़़ कर मुड़ जाती हैं, जिस के फलस्वरूप पूरी पत्ती मुरझा जाती है और कभीकभार तनाबेधक कीट द्वारा ग्रसित पौधे के समान लक्षण दिखाई देते हैं. ऊपर खींचने पर आसानी से शीथ बाहर नहीं निकलती है, जो विल्ट अवस्था संक्रमण का द्योतक है.

रोग प्रबंधन

धान के जीवाणजुनित रोगों (Rice Diseases) की रोकथाम निम्नलिखित विधियों द्वारा की जा सकती है :

Rice Diseases

बीज उपचार

बीजों में संक्रमण निम्न उपचारों से रोका जा सकता है :

-रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग करना चाहिए.

-बीजों को 12 घंटे तक 0.25 फीसदी एग्रीमाइसीन के जलीय घोल में और 0.05 फीसदी सेरेसान के घोल से उपचारित कर के फिर बीजों को 30 मिनट के लिए 520-540 सैल्सियस तापमान वाले जल में रखने से सभी जीवाणु मर जाते हैं.

-बीजों को 8 घंटे तक सेरेसान (0.1 फीसदी) और स्ट्रेप्टोसायक्लिन (0.3 ग्राम) के 2.5 लिटर जल से उपचारित करना चाहिए.

-बीजों को जैविक पदार्थों जैसे स्यडूामेानेास फ्रलोरेसेंस 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए.

पौध उपचार

रोपाई से पहले एक एकड़ क्षेत्रफल के लिए एक किलोग्राम स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस को आवश्यकतानुसार पानी के घोल में पौधे की जड़ को एक घंटे तक डुबो कर उपचारित कर के लगाएं. एक किलोग्राम स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस को 50 किलोग्राम रेत या गोबर की खाद में मिला कर एक एकड़ खेत में रोपाई से पूर्व फैला दें.

पौधों को रोपाई से पूर्व 0.5 फीसदी ब्लाइटौक्स-50 के घोल से उपचारित करना चाहिए. खेत में रोग दिखाई देने पर स्ट्रेप्टोसायक्लिन 15 ग्राम+500 ग्राम कौपर औक्सीक्लोराइड को 500 लिटर पानी में घोल कर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. आवश्यकतानुसार दूसरा छिड़काव 10-15 दिनों बाद करें.

मिथ्या कंडुआ/आभाषी कंडवा/ हल्दिया रोग

यह फफूंदजनित रोग है. पूर्व में इस रोग को ज्यादा महत्त्व का नहीं माना जाता था और इसे किसान के लिए अच्छा संकेत माना जाता था. अधिक पैदावार देने वाली और अधिक उर्वरक उपयोग करने वाली प्रजातियों के विकास व जलवायु परिवर्तन से अब यह रोग धान रोगों में अपना प्रमुख स्थान रखता है, जो व्यापकतानुसार उपज में 30-40 फीसदी तक नुकसान करता है.

रोग के लक्षण

इस रोग के लक्षण पौधों की बालियों में केवल दानों पर ही दिखाई देते हैं. रोगजनक के फलनकायों के विकसित हो जाने के कारण बाली में कहींकहीं बिखरे हुए दाने बड़़े मखमल के समान चिकने हरे समूह में बदल जाते हैं. ये हरे समूह वास्तव में कवक के स्क्लेरोशिपमी पिंड होते हैं, जो अनियमित रूप में गोल अंडाकार होते हैं. कभीकभार इन का व्यास सामान्य से दोगुने से भी अधिक हो जाता है और नाप में ये 0.8-1.0 सैंटीमीटर के होते हैं. इन का रंग बाहरी ओर नारंगी पीला और मध्य में लगभग सफेद होता है, बाली में कुछ ही दाने प्रभावित होते हैं.

नियंत्रण के उपाय

इस रोग (Rice Diseases) के नियंत्रण के लिए प्रोपिकोनाजोल 25 फीसदी ईसी-500 मिलीलिटर या नाटिबों 75 डब्ल्यूजी-300 मिलीलिटर 500 लिटर पानी में 50 फीसदी पीई अवस्था पर छिड़काव करना चाहिए.

धान का सफेदा रोग

यह लौह तत्त्व की कमी के कारण नर्सरी में अधिक लगता है. नई पत्ती कागज के समान सफेद रंग की निकलती है.

इस के नियंत्रण के लिए 5 किलोग्राम फेरस सल्फेट को 20 किलोग्राम यूरिया या 2.50 किलोग्राम बुझे हुए चूने को प्रति हेक्टेयर लगभग 1000 लिटर पानी में घोल का छिड़काव करना चाहिए.

खैरा रोग

यह रोग जिंक की कमी के कारण होता है. इस रोग में पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, जिस पर बाद में कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं.

इसके नियंत्रण के लिए जिंक सल्फेट 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई/रोपाई से पूर्व आखिरी जुताई पर मृदा में मिला कर देने से खैरा रोग का प्रकोप नहीं होता है. खड़ी फसल में लक्षण दिखाई पड़ने पर 5 किलोग्राम जिंक सल्फेट, 20 किलोग्राम यूरिया या 2.50 किलोग्राम बुझे हुए चूने को प्रति हेक्टेयर 1000 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर के खैरा रोग को नियंत्रित करते हैं.

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