खरीफ में कैसे लें मक्का (Maize) फसल से अच्छी पैदावार

 

Maize : मक्का की खेती रबी, खरीफ व जायद तीनों मौसम में की जाती है. खरीफ मौसम में मक्का (Maize) की बोआई मानसून की शुरुआत के साथ मई के अंत से जून के महीने तक की जाती है. बसंत ऋतु की फसलें फरवरी के अंत से मार्च के अंत तक बोई जाती हैं. बेबी कौर्न मक्का की बोआई दिसंबर और जनवरी को छोड़ कर पूरे साल की जा सकती है. स्वीट कौर्न की बोआई के लिए खरीफ और रबी सीजन सब से अच्छा है. मक्का से पापकौर्न, कौर्नफ्लेक्स, स्टार्च, एल्कोहल, सतुआ, भूजा, रोटी, भात, दर्रा, घुघनी, आदि अनेक व्यंजन बनाए जाते हैं. इस के डंठल और तना पशुओं को चारे के रूप में खिलाने में उपयोग किया जाता है.

कब करें बोआई

खरीफ मक्का की खेती के लिए बरसात के मौसम की शुरुआत में की जाती है. खरीफ मक्का की 70 फीसदी से अधिक खेती बारिश आधारित स्थिति में उगाई जाती है.

भूमि की तैयारी- मक्का की खेती के लिए जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि सही रहती है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताई कल्टीवेटर या रोटावेटर द्वारा करनी चाहिए.

बोआई का समय – देर से पकने वाली प्रजाति की बोआई मई मध्य से मध्य जून तक पलेवा कर करनी चाहिए. जिस से बारिश होने से पहले खेत में पौधे भलीभांति जम जाएं. जल्दी पकने वाली मक्का की बोआई जून के अंत तक कर ली जानी चाहिए.

बीज की मात्रा और बोआई की विधि – देशी छोटे दाने वाली प्रजाति 16-18 किलोग्राम और संकर प्रजाति के लिए 20-22 किलोग्राम व संकुल के लिए 18-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है.

अगैती किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 20 सैंटीमीटर, मध्यम व देर से पकने वाली प्रजातियों में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 25 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज की 3.5 सैंटीमीटर गहराई रखनी चाहिए. मक्का की बोआई  मेंड़ों पर करें. विरलीकरण द्वारा पौधों की उचित दूरी का भी ध्यान रखें.

खास प्रजातियां – संकर प्रजाति: गंगा-2, गंगा-11, प्रकाश, जे.एच.3459, पूसा अगैती संकर मक्का-2, पूसा अगैती संकर मक्का-3 आदि. इन की उपज क्षमता 40-45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

संकुल प्रजाति: नवज्योति, नवीन, तरुण, श्वेता, आजाद उत्तम, गौरव, कंचन, सूर्या, शक्ति-11 आदि. इन की उपज क्षमता 35-40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

उर्वरकों का प्रयोग : खेत की मिट्टी जांच के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए. देर से पकने वाली संकर व संकुल प्रजातियों के लिए 120:60:60 जल्दी पकने वाली प्रजातियों के लिए 100:60:40 और देशी प्रजातियों के लिए 80:40:40 किलोग्राम नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग करना चाहिए. गोबर की खाद प्रयोग करने पर 25 फीसदी नाइट्रोजन की मात्रा कम कर देना चाहिए. बोआई के समय एक चौथाई नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा कूंड़ों में बीज के नीचे डालना चाहिए. नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा को तीन बार में बराबरबराबर मात्रा में टौपड्रेसिंग के रुप में दें.

पहली टौपड्रेसिंग बोआई के 25-30 दिन बाद (निराई के तुरंत बाद) दूसरी नर मंजरी से आधा पराग गिरने के बाद, तीसरी संकर मक्का में बोआई के 50-60 दिन के बाद और संकुल में 40-45 दिन बाद की जाती है.

जल प्रबंधन : पौधों को शुरुआती दौर और सिल्किंग (मोचा) से दाना पड़ने की अवस्था में पर्याप्त नमी आवश्यक है. सिल्किंग के समय पानी न मिलने पर दाने कम बनते हैं.

विशेषज्ञ ध्यान देने योग्य बातें – फसल में दाने बनते समय चिड़ियों और जानवरों से बचाव बहुत जरूरी है.

कटाई व मड़ाई – खरीफ मक्का की कटाई सितंबरअक्टूबर के महीने में की जाती है. कच्चे भुट्टे भी उपयोग में लाए जाते हैं, जिन का बाजार भाव भी अच्छा मिलता है. फसल पकने पर भुट्टों को ढकने वाली पत्तियां जब 75 फीसदी सूख जाए व पीली पड़ने लगे तब कटाई कर लेनी चाहिए. इस प्रकार की तकनीकी अपना कर मक्का की अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

(लेखक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक, निदेशक प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी भाटपार रानी देवरिया, उ.प्र.)

पशुओं के लिए बरसीम एक पौष्टिक दलहनी चारा (Pulse Fodder)

बरसीम हरे चारे की एक आदर्श फसल है. यह खेत को अधिक उपजाऊ बनाती है. इसे भूसे के साथ मिला कर खिलाने से पशु के निर्वाहक एवं उत्पादन दोनों प्रकार के आहारों में प्रयोग किया जा सकता है.

बरसीम शीतोष्ण जलवायु वाले भागों में उगाई जाने वाली फसल है. अधिक ठंड व पाले से इस के उत्पादन में कमी हो जाती है. बोआई के समय तापमान 25-30 डिगरी सैंटीग्रेड और वानस्पतिक बढ़ोतरी के लिए 15-25 डिगरी सैंटीग्रेड सही रहता है.

भूमि

बरसीम एक दलहनी फसल है, इसलिए इस की जड़ों में सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं. हर एक अवस्था में इन जड़ग्रंथियों में रह रहे जीवाणुओं का जिंदा रहना फसल की बढ़वार के लिए बेहद जरूरी है, इसलिए बरसीम की खेती के लिए भूमि में उचित जल निकासी और अच्छा मृदा वायु का संचार होना चाहिए.

इस की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन भारी दोमद मिट्टी, जिस में पानी सोखने की क्षमता अधिक होती है, इस फसल के लिए अधिक लाभदायक है. बरसीम की खेती सामान्य मिट्टी से ले कर क्षारीय मिट्टी तक में अच्छी तरह से उगाई जा सकती है, लेकिन अम्लीय मिट्टी इस की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है.

उन्नतशील प्रजातियां

बरसीम में गुणसूत्र के आधार पर 2 तरह की प्रजातियां द्विगुणित और चतुर्गुणित पाई जाती हैं. द्विगुणित प्रजातियां मिसकावी, वरदान, बरसीम लुधियाना-1 हैं, वहीं चतुर्गुणित प्रजातियों में पूसा जौइंट, टाइप-526, 678, 780 हैं.

खेत की तैयारी

एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 4-5 बार हैरो या देशी हल लगा कर पाटा से खेत को समतल कर लेना चाहिए. साथ ही, जरूरत के मुताबिक समान सिंचाई के लिए क्यारियां भी बना लेनी चाहिए.

बोआई की विधि

आमतौर पर बरसीम की बोआई की 2 प्रमुख विधियां हैं :

पानी भरे खेत में बोआई : पानी भरे खेत में पटेला चला कर पानी गंदला करने के बाद छिटकवां विधि से बोआई की जाती है. इस विधि में खेत की तैयारी धान में पौध रोपण करने की तरह से ही की जाती है.

गंदले पानी में बोआई करने से मिट्टी की एक हलकी परत बीजों के ऊपर चढ़ जाती है, जिस से वे ढंक जाते हैं और उन्हें चिडि़या या दूसरे पक्षी नहीं खा पाते और पर्याप्त नमी होने के कारण बीज का अंकुरण भी बहुत अच्छा होता है.

सूखे खेत में बोआई : इस विधि में अच्छी प्रकार की भुरभुरी मिट्टी तैयार कर समतल किए गए खेत में पहले ही सिंचाई के लिए क्यारियां बना कर बोआई छिटकवां विधि द्वारा या लाइन में देशी हल की सहायता से की जाती है.

लाइन में बोआई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 15-20 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और बीज की गहराई 15-20 सैंटीमीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. साथ ही, अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी बनाए रखने के लिए बोआई के तुरंत बाद खेत में पानी लगा दिया जाना चाहिए.

बीज दर

द्विगुणित किस्मों के बीजों की दर 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और चतुर्गुणित किस्मों के बीजों का आकार में बड़ा होने के कारण 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है.

बीजोपचार

बरसीम के बीज में आमतौर पर कासनी का बीज मिला रहता है. बीज को 5 फीसदी नमक के घोल में डुबो कर इसे अलग कर लें (कासनी का बीज पानी के ऊपर आ जाता है). बीज का उपचार दलहनी फसल होने के कारण राइजोबियम कल्चर से होना बहुत जरूरी है.

बरसीम में राइजोबियम ट्राईफोली नामक बैक्टीरिया का कल्चर में इस्तेमाल किया जाता है. इस के प्रयोग से पौधों में अच्छी प्रकार से जड़गांठों में मौजूद बैक्टीरिया हवा से नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं.

कल्चर प्रयोग के लिए सब से पहले 100 ग्राम गुड़ को 1 लिटर पानी में उबाल कर ठंडा कर लें. उस के बाद इस में राइजोबियम कल्चर को घोल कर फिर बीज के बराबर मात्रा में भुरभुरी मिट्टी ले कर धीरेधीरे छिड़क कर इस प्रकार मिलाएं कि मिट्टी के ढेले न बनें.

इस संवर्धित घोल से तैयार की गई कल्चरयुक्त मिट्टी को 24 घंटे भिगोए गए बीज के साथ मिला कर बोआई के लिए प्रयोग कर सकते हैं.

ध्यान रखने वाली बात यह है कि कल्चर बीज को 24 घंटे से अधिक नहीं रखना चाहिए, क्योंकि फिर बैक्टीरिया नष्ट होने लगते हैं.

उर्वरक

बरसीम दलहनी फसल होने के कारण इस की जड़ों में राइजोबियम बैक्टीरिया होते हैं, जो खुद हवा से नाइट्रोजन लेते हैं, इसलिए फसल को बाहर से कम नाइट्रोजन देने की जरूरत पड़ती है.

उन्नत फसल के उत्पादन के लिए 25-30 किलोग्राम नाइट्रोजन और 50-60 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है. अधिक उपज लेने के लिए हर एक कटाई के बाद पानी लगा कर 5-6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया का छिड़काव करना चाहिए. साथ ही, लक्षण दिखाई पड़ने पर सूक्ष्म तत्त्वों का प्रयोग करना लाभकारी होता है.

सिंचाई

बरसीम ठंडे मौसम में (मार्च माह तक) 15-20 दिन के अंतर पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. हर एक कटाई के बाद हलका पानी लगा देने से उत्पादन में बढ़ोतरी होती है.

फसल चक्र

खरीफ की फसल के बाद रबी के मौसम में बरसीम की खेती आसानी से की जा सकती है. बरसीम की खेती से अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए निम्न प्रकार से फसल चक्र अपनाने पर मिट्टी की गुणवत्ता में बढ़ोतरी के साथसाथ अधिक आय भी प्राप्त की जा सकती है.

फसल सुरक्षा

चारे की फसल होने के कारण चूंकि बारबार कटाई की जाती है, इसलिए रोग और कीड़ों का प्रकोप आमतौर पर दिखाई नहीं पड़ता है. इसलिए फसल सुरक्षा के उपायों की जरूरत पड़ती है.

परंतु रोग प्रतिरोधी किस्म की प्रजातियां बोने से जड़ गलन और गेरुई जैसे रोगों की संभावना नहीं रहती है, इसलिए बोआई के लिए उन्नतशील रोगरोधी प्रजातियों को बोएं.

कटाई

पहली कटाई बोआई के 50-60 दिन बाद करनी चाहिए. इस के बाद 30-35 दिन के अंतराल पर 5-6 कटाई की जाती है. कटाई हमेशा जमीन से 6-10 सैंटीमीटर की ऊंचाई से काटी जानी चाहिए, जिस से पौधे की दोबारा वृद्धि में भाग लेने वाली कलिकाओं को नुकसान न पहुंचे.

उपज

बरसीम से चारे की कुल उपज 1,000-1,200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिलती है. वहीं दूसरी ओर पशुपालकों को यह सलाह दी जाती है कि बरसीम अधिक खिलाने से पशुओं में अफरा रोग हो जाता है, इसलिए इसे सूखे चारे के साथ मिला कर खिलाएं.

बरसीम सर्दी के मौसम में पौष्टिक चारे का एक उत्तम स्रोत है. इस में रेशे की मात्रा कम और प्रोटीन की औसत मात्रा 20 से 22 फीसदी होती है. चारे की पाचनशीलता 70-75 फीसदी होती है.

इस के अलावा इस में कैल्शियम और फास्फोरस भी काफी मात्रा में पाए जाते हैं, जिस के कारण दुधारू पशुओं को अलग से खली या दाना आदि देने की जरूरत कम पड़ती है.

बरसीम पशुओं के लिए बहुत ही लोकप्रिय चारा है, क्योंकि यह बेहद पौष्टिक एवं स्वादिष्ठ होता है.

डेयरी की खास चारा कटर मशीन

खेती के साथ ही किए जाने वाले कामों में पशुपालन भी एक खास काम है. पशुपालन में चारे का अहम रोल है खासकर डेयरी फार्मिंग में.  बहुत से किसान दुधारू पशुओ को  पाल कर डेयरी रोजगार से अच्छाखासा मुनाफा कमाते हैं.

किसानों के पास खेती की जमीन भी होती है, जिस में वह चारा फसल ज्वार, बाजरा, लोबिया, ग्वार, बरसीम, जई आदि फसलें उगा कर पशु के लिए चारे का इंतजाम करते हैं. हालांकि, 1-2 पशु रखने वाले किसान कुट्टी या चारा काटने के लिए हाथ से चलने वाली मशीन लगा कर रखते हैं, जिसे आम बोलचाल में टोका मशीन यानी गंड़ासा कहा जाता है.

इसी मशीन से किसान चारे की कटाई कर पशुओं को चारा खिलाते हैं. कुछ हरे चारे जैसे बरसीम, जई आदि तो इस मशीन से सरलता से कट जाते हैं, लेकिन जब ज्वार बाजरा, गन्ना (अंगोला), मक्का जैसी फसल से चारा बनाना हो, तो उन की कटाई में काफी मेहनत लगती है.

तब हमें जरूरत महसूस होती है किसी शक्ति चालित चारा कटाई मशीन की, जिस से कम मेहनत और कम समय में अधिक चारे की कटाई हो सके.

पशुपालकों और किसानों की इस समस्या का समाधान करती हैं पावर चालित एवं ट्रैक्टर चालित चारा काटने वाली मशीनें.

यहां ट्रैक्टर से चलने वाली कुट्टी मशीन के बारे में जानकारी दी गई है. यह चारा कटाई मशीन किसी भी तरह के चारे को आसानी से काट सकती है. ट्रैक्टर या इंजन चालित और बिजली से चलने वाली इस मशीन को चाफ कटर भी कहा जाता है.

ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर चलाई जाने वाली यह मशीन कम समय में अधिक चारे की कटाई आसानी से करती है.

चाफ कटर मशीन

इस यंत्र की मदद से किसी भी तरह के चारे को छोटेछोटे साइज में कुट्टी करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. चारा काटने वाली मशीनों में इलैक्ट्रिक चाफ कटर और पोर्टेबल ट्रैक्टर से चलने वाली चारा काटने वाली मशीनें शामिल हैं, हम जिसे चाफ कटर मशीन कहते हैं.

fodder cutter machine

ट्रैक्टर से चलने वाली चारा कटाई मशीनें

ट्रैक्टर से चलने वाली कुट्टी मशीन को ट्रैक्टर के पीछे पीटीओ शाफ्ट से जोड़ कर चलाया जाता है. यह मशीन हर तरह के चारे को आसानी से काट सकती है. यह चाफ कटर मशीन एक आधुनिक हैवी ड्यूटी मशीन है. इस चाफ कटर मशीन का इस्तेमाल ज्यादातर डेयरी फार्मिंग करने वाले लोग भी करते हैं.

ट्रैक्टर से चलने वाली यह चारा कटर मशीन एक हैवी चेसिस फ्रेम के साथ जुड़ी रहती है, जिसे ट्रैक्टर में पीछे जोड़ कर एक जगह से दूसरी जगह आसानी से लाया और ले जाया जा सकता है. इस चाफ/चैफ कटर में एक बड़े ह्वील पर कई सारे हैवी ड्यूटी ब्लेड लगे होते हैं.

ट्रैक्टर से चलने वाली इस कुट्टी मशीन में 2, 3 और 4 ब्लेड लगे होते हैं. पशुपालक अपनी जरूरत के अनुसार ब्लेड की संख्या को कम या ज्यादा कर सकते हैं.

इस कटर मशीन में पीछे की ओर एक गियर भी होता है, जिस की मदद से आप चारे की मोटाई और बारीकी सैट कर सकते हैं. मशीन में गियर सिस्टम भी है. जरूरत पड़ने पर इसे रिवर्स भी घुमा सकते हैं. इस गियर से कटर की स्पीड भी एडजस्ट की जा सकती है.

चारा कटर मशीन से कटा हुआ चारा सीधे जमीन पर गिरता है. अगर आप चाहते हैं कि चारा जमीन पर न गिर कर एक जगह इकट्ठा हो, तो उस के लिए भी बंदोबस्त है. यह मशीन कटाई के बाद चारे को सीधे ही ट्रौली में भी गिरा सकती है.

यह चारा कटाई मशीन कई घंटों तक लगातार काम कर सकती है. इस के लिए किसी खास देखभाल की भी जरूरत नहीं है.

मिनी चारा कटर एग्रोमैक-1000 एम.

सम्यक एग्रो इंडस्ट्रीज के पास चारा काटने वाली मशीनों की कई सीरीज हैं, जिन की अपनी अलगअलग खूबियां हैं.

इस मिनी चारा कटर से ज्वार, बाजरा, गन्ना, बरसीम, सूखा व हरे अन्य चारे कड़वा आदि की कटाई की जाती है.

इस यंत्र में लगे ब्लेड एमएस स्टील के बने होते हैं. इलैक्ट्रिक मोटर के साथ वी वैल्ट पुली के साथ फिट की गई है.

मिनी चारा कटर एग्रोमैक 1000 एम. की खासीयतें

इस में 2 हौर्सपावर की मोटर लगी है और चारा कटाई के लिए 2 ब्लेड लगे हैं. चारे को आगे बढ़ाने के लिए 2 रोलर लगे हैं. इस मशीन के काम करने की कूवत 1000 किलोग्राम प्रति घंटा तक है. हरे व सूखे चारे में बदलाव हो सकता है.

कड़वा कुट्टी मशीन/रोका- एग्रोमैक-200 एचएम

बिजली व हाथ दोनों तरह से चारा काटने वाली इस मशीन को रोका मशीन भी कहते हैं. यह पुराने समय में इस्तेमाल होने वाली चारा मशीन का ही आधुनिकीकरण है. इस में काफी कम बिजली की खपत होती है. अगर बिजली नहीं है, तो काम चलाने लायक चारा हाथ से भी काटा जा सकता है.

यह पावर कम हैंड औपरेटिड चारा कटाई मशीन है, जो सस्ते दाम में बाजार में मिल जाती है. इस रोका (चारा कटाई) मशीन को खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में भी इस्तेमाल किया जाता है. यह मशीन ग्राहकों की जरूरत के अनुसार अनेक विशेषताओं में भी मिल जाती है.

डेयरी फार्म व वर्मी कंपोस्ट बनाने वाली इकाइयों में भी यह चारा कटाई मशीन काफी उपयोगी साबित हो रही है.

खासीयतें

इस मशीन को अगर हाथ से न चला कर पावर से चलाना है, तो इस के लिए 1.5 हौर्सपावर की मोटर या 2 हौर्सपावर का इंजन चाहिए.

इस में चारा काटने के लिए 2 ब्लेड लगे होते हैं. इस में चारा आधा इंच से ले कर पौना इंच तक के साइज में काटा जाता है और एक घंटे में लगभग 300 किलोग्राम चारा कट जाता है.

प्रकाश चारा कटर मशीन

यह ट्रैक्टर चालित चारा कटर मशीन है, जो 2, 3 और 4 ब्लेडों में उपलब्ध है. इस मशीन से हरा व सूखा चारा, जिस में ज्वार, बाजरा, मक्का का कड़वा भी काटा जाता है.

इस मशीन में मजबूत फ्रैक और हैवी ड्यूटी गियर होने के कारण मशीन लंबे समय तक काम करती है.

यह चारा कटर मशीन 2 टायरों वाले फ्रैम पर लगी होती है, इसलिए इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से ले जाया जा सकता है.

अधिक जानकारी के लिए फोन नंबर 0562-4042153 या फिर मोबाइल नंबर 09897591803 पर बात कर सकते हैं.

इन कृषि यंत्रों की खरीद पर सरकार की ओर से सब्सिडी का भी लाभ मिलता है.

केंद्र सरकार भी राष्ट्रीय पशुधन मिशन के तहत चारा काटने वाली मशीनों पर पशुपालकों और किसानों को अच्छीखासी सब्सिडी देती है. प्रदेश सरकारें भी अपने नियमानुसार छूट देती हैं. यह सब्सिडी 50 फीसदीतक भी हो सकती है या इस से अधिक भी हो सकती है.

राज मूंग (Red Bean) यानी मोठ की खेती

राज मूंग (रैडबीन) यानी मोठ की खेती छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग में की जाती है. आदिवासी इलाकों की यह एक दलहनी फसल है. यह फसल नेपाल में काफी प्रचलित है. यह अमान्य व अनुपजाऊ जमीन में मक्का और दूसरी दलहनी फसलों के साथ खेती करने के लिए काफी उपयोगी है.

अधिकतम पैदावार कूवत, पोषक तत्त्वों की मौजूदगी, कीटव्याधियों के प्रति सहनशील, हरी खाद, चारे वगैरह के रूप में इस का इस्तेमाल किया जाता है. यह खरीफ व ग्रीष्म में अकेले या मिश्रित खेती के रूप में उगाई जाती है.

राज मूंग की हर 100 ग्राम मात्रा में नमी 10.8 ग्राम, प्रोटीन 18.6 ग्राम, वसा 1.4 ग्राम, क्रूड फाइबर 1.0 ग्राम और ऊर्जा 332 किलोग्राम कैलोरी पाई जाती है. दाने के साथसाथ फसल की पत्तियों और तनों से सही मात्रा में भूसा मिलता है जो जानवरों के चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

पौधों की जड़ों में जो गं्रथियां पाई जाती हैं जिन में राइजोबियम फेसीओलाई नामक जीवाणु पाए जाते हैं, ये वायुमंडल की नाइट्रोजन को इकट्ठा करते हैं जिस का इस्तेमाल आगामी फसल में किया जाता है.

शुष्क खेती के लिए यह विकल्प के रूप में अच्छी दलहन है. राज मूंग की दाल और आटे से विभिन्न प्रकार के खाने जैसे सूप, दाल, सब्जी, खिचड़ी, इडली, डोसा, पापड़, स्नैक्स वगैरह बनाने में होता है.

क्षेत्रफल और जलवायु

यह फसल गरम, आर्द्र व उष्ण कटिबंधीय पहाड़ी और मैदानी इलाकों में उगाई जाती है. इस की खेती के लिए ज्यादा बारिश नुकसानदायक है. यह फसल 1000 से 1500 मिलीमीटर बारिश और 25-30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान और 2000 मीटर समुद्र तल से ऊंचाई वाले इलाकों में आसानी से ली जा सकती है.

जमीन : दोमट और हलकी दोमट मिट्टी राज मूंग की खेती के लिए अच्छी होती है. खेत में बोआई के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और 1-2 जुताइयां देशी हल से करनी चाहिए.

लवणीय जमीन राज मूंग की खेती के लिए सही नहीं होती है. जमीन का पीएच मान 6.5-7.5 अच्छा माना गया है. यह बारिश आधारित सूखे व पहाड़ी ढलानी इलाकों में इस की खेती की जा सकती है. इस की मिश्रित खेती मक्का फसल के साथ भी की जा सकती है.

बोआई का समय : जुलाई के पहले हफ्ते तक इस की बोआई कर देनी चाहिए. आमतौर पर किसान छिड़कवां विधि से बोते हैं. पंक्ति में सीड ड्रिल या हल के पीछे बोने से ज्यादा पैदावार मिलती है. लाइन से लाइन की दूरी 30 से 40 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8 से 10 सैंटीमीटर रखी जाती है.

बीज दर : प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है. इसे थाइरम 2-3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज द्वारा उपचारित करने के बाद राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल करना चाहिए. इस की बीज परत कठोर होती है इसलिए बोने से पहले रात में पानी में फुला कर अगले दिन इस की बोआई करनी चाहिए.

उर्वरक प्रबंधन : राज मूंग एक दलहनी फसल है. इस फसल में नाइट्रोजन की कम जरूरत पड़ती है, फिर भी 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम सुपर फास्फेट और 20 किलोग्राम पोटाश बोआई के समय इस्तेमाल करना चाहिए या डीएपी 1 क्विंटल प्रति हेक्टेयर काफी होगा.

खरपतवार पर नियंत्रण : पहली निराई बोआई के 20 से 25 दिन के अंदर कर देनी चाहिए और दूसरी निराई जरूरत पड़ने पर करनी चाहिए. पेंडीमिथेलीन 30 ईसी 3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 800-1000 लिटर पानी में घोल कर बोआई के 2 दिन के भीतर छिड़काव कर के खरतपवारों को खत्म किया जा सकता है.

सिंचाई सुरक्षा : बरसात के मौसम में लंबी अवधि तक पानी न बरसे तो बीच में 1-2 सिंचाई की जरूरत पड़ सकती है.

फसल सुरक्षा : फलीछेदक, सफेद मक्खी, एफिड, टिड्डा वगैरह फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं. फलीछेदक की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरोपिड 1 ग्राम प्रति लिटर पानी में और सफेद मक्खी व टिड्डा को मारने के लिए डाईमिथोएट 0.03 फीसदी का छिड़काव करना चाहिए.

इस फसल में बहुत से रोग लगते हैं, पर लीफ स्पौट, रस्ट, पाउडरी मिल्ड्यू और बैक्टीरियल ब्लाइट की संभावना पहाड़ी इलाकों में बनी रहती है.

रस्ट की रोकथाम के लिए इंडोफिल 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर, पाउडरी मिल्ड्यू की रोकथाम के लिए कार्बंडाजिम 0.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव कर सकते हैं. बैक्टीरियल ब्लाइट के लिए बाविस्टीन 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिला कर बोना चाहिए.

फलियों की तुड़ाई और कटाई : जब 50 फीसदी फलियां पक जाएं तब पहली तुड़ाई कर लेनी चाहिए. पूरी तरह से फलियों के पकने पर तोड़ लिया जाना चाहिए.

आमतौर पर फसल 120 से 150 दिन में पक कर कटने लायक हो जाती है. ज्यादा ऊंचाई वाले इलाकों में ज्यादा दिन का समय लग सकता है. फसल को काट कर जमीन में मिला दिया जाए ताकि पौध खाद का काम करे और जमीन में जीवांश को बढ़ाए.

फलियों को साफसुथरे खलिहान में मड़ाई कर के दाना निकाल लें. जब दानों में 10 फीसदी नमी रह जाए तब भंडारण करें.

भंडारण में कीटों की रोकथाम के लिए एल्युमिनियम फास्फाइड 3 गोली प्रति टन की दर से इस्तेमाल में लानी चाहिए.

उपज : राज मूंग की पैदावार तकरीबन 9-13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आंकी गई है.

वर्तमान में राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर में इस की विभिन्न किस्मों पर काम जारी है. इस केंद्र में अनेक इलाकों के लिए भी कुछ किस्में तैयार की जा रही हैं.

जून महीने में खेतीकिसानी के काम (Farming work)

खरीफ फसलों को बोने के साथसाथ जानवरों का खास खयाल रखना जरूरी हो जाता है. लू, धूप व तेज आंधियां जानवरों व किसानों को बेचैन कर देती हैं. इस  महीने के खेती संबंधी खास कामों पर एक निगाह:

* बैगन की नर्सरी डाल दें. बोआई के लिए अच्छी नस्ल के बीजों का इस्तेमाल करें.

* तेज धूप खेतों का पानी सुखाती रहती है, मगर किसी भी हालत में गन्ने के खेतों में पानी की कमी न होने दें. अच्छी तरह निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकाल कर जला दें.

गन्ने के खेतों में नाइट्रोजन की बाकी मात्रा अब तक न डाली हो तो फौरन डाल दें. कृषि माहिरों से सलाह ले कर कीटनाशकों का छिड़काव करें ताकि कीटों का डर न रहे.

* अगर धान की नर्सरी अभी तक नहीं डाली है तो इस माह नर्सरी डालने का काम निबटाएं. नर्सरी डालने के लिए धान की बेहतर किस्म चुनें.

* अगर पिछले महीने नर्सरी डाली हो तो उस के पौधे 20-25 दिन के होने पर उन की रोपाई करें. रोपाई 15-20 सैंटीमीटर के फासले पर सीधी लाइन में करें. ध्यान रखें कि एक जगह पर 2 या 3 पौधों की ही रोपाई करें.

* इसी माह सोयाबीन की बोआई करें. बोआई के लिए बीजों की मात्रा 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रखें. बोआई सीधी लाइन में 50 सैंटीमीटर के फासले पर करें और बीज को 3 सैंटीमीटर गहरा बोएं.

* कपास की फसल में जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें व खरपतवार निकाल दें. खेतों में नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा डाल दें और अच्छे कीटनाशक का फसल पर छिड़काव करें.

* बाजरे की बोआई करें. बोआई के लिए 5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. बोआई सीधी लाइन में 50 सैंटीमीटर का फासला रखते हुए करें.

* 15 जून के बाद बीज उपचारित कर सूरजमुखी की बोआई करें. बीज उपचारित होने से पौधे सेहतमंद होते हैं.

* अरहर की बोआई का काम भी इसी माह निबटा लें. बोने से पहले बीजों को कार्बंडाजिम से उपचारित करना न भूलें. 15 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोएं. बोआई लाइन में 50 सैंटीमीटर के फासले पर करें.

* महीने के आखिरी हफ्ते में ज्वार की बोआई करें. बोआई के लिए 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* मूंगफली की बोआई का काम भी जून में ही निबटा लें. 60-70 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें. बीजों को बोने से पहले कार्बंडाजिम से उपचारित करना न भूलें.

खेतीकिसानी के काम (Farming work)

* उड़द की फसल पूरी तरह पक गई हो तो उस की कटाई करें.

* मिर्च के खेतों में निराईगुड़ाई कर खरपतवार निकालें. पकी मिर्चें तोड़ लें व अगली फसल के लिए नर्सरी डाल दें. मिर्च की प्रति हेक्टेयर रोपाई के लिए डेढ़ किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

* लहसुन की फसल तैयार हो गई हो तो फौरन खुदाई करें. खुदाई के बाद 2-3 दिनों तक लहसुन को खेत में ही सूखने दें. सूखने के बाद गड्डियां बना कर सूखी जगह पर रखें.

* तुरई की पौध तैयार हो तो 100×50 सैंटीमीटर की दूरी पर खेत में उन की रोपाई करें.

* रामदाना की बोआई 15 जून तक करें. इस के लिए डेढ़ किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* अदरक की फसल की सिंचाई करें व 50 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

* हलदी की फसल में जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें व 50 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें.

* मूंग की पकी हुई फलियां तोड़ लें या अगर 80 फीसदी फलियां पक चुकी हों तो कटाई कर लें.

* दाने के लिहाज से मक्के की बोआई करें.

* चारे की फसलों की बोआई भी जून में की जा सकती है.

* गायभैंसों को गरमी से बचाने का पुख्ता बंदोबस्त करें. रात के वक्त उन्हें खुलें में बांधें.

* मुरगेमुरगियों को लू न लगने पाए, इस का पूरा इंतजाम करें.

* जानवरों की तबीयत बिगड़ने पर फौरन पशु डाक्टर से संपर्क करें व समुचित इलाज कराएं.

तिलहनी फसल तिल (Sesame) की खेती

हमारे यहां तिल की खेती किसानों के लिए बहुत ही फायदेमंद है. बलुई और दोमट मिट्टी में सही नमी होने से फसल अच्छी होती है. तिलहन की खेती में पानी की तो कम जरूरत पड़ती ही है, साथ ही इस से पशुओं के लिए चारा भी मिल जाता है.

फसल को आमतौर पर छिटक कर बोया जाता है. नतीजतन, निराईगुड़ाई करने में बाधा नहीं आती. फसल से ज्यादा उपज पाने के लिए कतारों में बोनी करनी चाहिए.

छिटकवां विधि से बोने पर 1.6-3.80 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत होती है. कतारों में बोने के लिए सीड ड्रिल का इस्तेमाल किया जाता है तो बीज दर घटा कर 1-1.20 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत होती है.

बोने के समय बीजों का समान रूप से वितरण करने के लिए बीज को रेत (बालू), सूखी मिट्टी या अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ 1:20 के अनुपात में मिला कर बोना चाहिए.

मिश्रित पद्धति में तिल के बीज की दर 1 किलोग्राम प्रति एकड़ होनी चाहिए. कतार से कतार और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30×10 सैंटीमीटर रखते हुए तकरीबन 3 सैंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए.

अच्छी तरह से फसल प्रबंधन होने पर तिल की सिंचित अवस्था में 400-480 किलोग्राम प्रति एकड़ और असिंचित अवस्था में ठीकठाक बारिश होने पर 200-250 किलोग्राम प्रति एकड़ उपज हासिल होती है.

जमीन की उत्पादकता बनाए रखने और अच्छी उपज पाने के लिए जमीन की तैयारी करते समय अंतिम बखरनी के पहले 4 टन प्रति एकड़ के हिसाब से अच्छी सड़ी गोबर की खाद को मिला देना चाहिए. फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा के साथ मिला कर बोआई के समय दी जानी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा पौधों में फूल निकलने के दौरान यानी बोने के 30 दिन बाद दी जा सकती है.

तिलहनी फसल होने के चलते मिट्टी में गंधक तत्त्व की उपलब्धता फसल के उत्पादन और दानों में तेल की फीसदी को प्रभावित करती है इसलिए फास्फोरस तत्त्व की पूर्ति सिंगल सुपर फास्फेट उर्वरक से करनी चाहिए.

जमीन परीक्षण में अगर जमीन में गंधक तत्त्व की कमी पाई जाती है तो वहां पर जिंक सल्फेट 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से डालें. जमीन में 3 साल में एक बार गंधक का जरूर इस्तेमाल करें.

तिल की पत्तियां जब पीली हो कर गिरने लगें और पत्तियां हरा रंग लिए हुए पीली हो जाएं तब समझना चाहिए कि फसल पक कर तैयार हो गई है. इस के बाद कटाई नीचे से करनी चाहिए. कटाई के बाद बंडल बना कर खेत में ही छोटेछोटे ढेर बना लेने चाहिए. जब अच्छी तरह से पौधे सूख जाएं तब डंडे या छड़ वगैरह की मदद से पौधों को पीट कर या हलका झाड़ कर बीज निकाल लेना चाहिए.

तिल के तेल की उपयोगिता

तिल का तेल 2 तरह का होता है. पहला, हलका तिल तेल जो कच्चे बीज से तैयार होता है. वहीं दूसरा, भारी तेल जो भुने हुए बीज से तैयार होता है और इस का स्वाद व सुगंध तेज होता है.

तिल के तेल का इस्तेमाल स्वादिष्ठ पकवान बनाने, औषधि यानी दवा के रूप में और सुगंधित तेल को बनाने में किया जाता है. तिल का तेल दक्षिण भारतीय राज्यों में सब से ज्यादा लोकप्रिय है जहां इस का व्यापक इस्तेमाल जैतून के तेल के इस्तेमाल के समान है. इस के तेल का इस्तेमाल अचार बनाने और कृत्रिम माखन बनाने के लिए रिफाइंड तिल के तेल का इस्तेमाल किया जाता है.

पशुओं का पसंदीदा चारा : बरसीम (Barseem)

सर्दियों में उगाई जाने वाली हरे चारे की यह खास फसल है. यह मुलायम, रसीला और पौष्टिक चारा है. देश में अनेक हिस्सों में इसे बोया जाता है. इस चारे को एक बार बो कर इस से 6 से 8 महीने तक चारा लिया जा सकता है.

जब चारा पकने लगे तब इस से बीज की पैदावार भी ली जा सकती है. इस बीज को आगे भी बोने के काम में लिया जा सकता है. सर्दी में उगाए जाने वाले चारे की बढ़वार भी ठंडे मौसम में अच्छी होती है.

जमीन और खेत की तैयारी : पानी सोखने वाली दोमट मिट्टी में बरसीम की अच्छी बढ़ोतरी होती है. खेत तैयार करने के लिए पहले खेत की जुताई करें, फिर पाटा लगा कर इकसार करें.

बोआई के लिए छोटीछोटी क्यारियां बनाएं जिस से पानी ठीक से लगाया जा सके. लंबे या बड़े इलाके में एकसाथ पानी देने पर कहींकहीं पानी ठहर सकता है.

यह बात सभी फसल के लिए लागू होती है कि पानी खेत में जगहजगह न भरे. जगहजगह पानी भर जाने से फसल को नुकसान होना तय है इसलिए इस तरह की सामान्य बातों का ध्यान रखें.

बरसीम बोने का समय : सितंबर के आखिरी हफ्ते से नवंबर महीने तक इसे बोया जा सकता है. देरी से बोआई करने पर चारे की कम कटाई मिलेगी.

किस्में : अच्छी पैदावार के लिए साफसुथरे व अच्छे किस्म का बीज लें. वरदान, जेबी 1, बीएल 1 भस्कावी वगैरह किस्में अच्छी पैदावार देती हैं.

बीजोपचार व बोआई : बोने से पहले बीजोपचार कर लें. बरसीम के बीज को कल्चर (बरसीम का टीका) से उपचारित करना चाहिए. यह टीका आप अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र से हासिल कर सकते हैं जो बहुत कम कीमत में मिलता है. 20 से 25 किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए 1 लिटर पानी में 100 से 125 ग्राम गुड़ घोल कर उसे ठंडा कर लें. ठंडे किए गए घोल और कल्चर (टीका) में मिला लें. इस के बाद इसे बरसीम बीज पर इस तरह से मिलाएं कि बीजों पर उस की परत चढ़ जाए. उस के बाद बीज को छाया में सुखा लें.

अगर आप कल्चर से बीज उपचारित नहीं कर पा रहे हैं तो जिस खेत में पिछली बार बरसीम बोया गया हो उस खेत की मिट्टी को बीज के साथ मिला कर बरसीम की बोआई की जा सकती है.

बरसीम बोना बहुत ही आसान है. इस के लिए तैयार किए गए खेत में पानी भर दें. उस के बाद उस पानी भरी क्यारियों या खेत में समान मात्रा में बरसीम बीज छिड़क दें. धीरेधीरे जब खेत का पानी जमीन सोख लेगा तो बीज भी वहीं पर जमने लगेगा.

बरसीम को कभी भी सूखे खेत में छिड़क कर न बोएं. पानी भरे खेत में ही छिड़कवां तरीके से बीज बोएं वरना सूखे खेत में बीज छिड़कने के बाद आप अगर खेत में पानी देंगे तो बीज पानी के साथ बह कर जगहजगह या एक जगह इकट्ठा हो जाएगा.

सिंचाई : तकरीबन 15-20 दिनों के अंतराल पर फसल में पानी देने की जरूरत होती है.

खाद व उर्वरक : यह काम खेत तैयार करते समय करना चाहिए. खेत की जुताई के दौरान ही सड़ी गोबर की खाद देनी चाहिए और आखिरी जुताई के समय 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देना चाहिए.

कटाई : बरसीम बोने के 40-45 दिनों बाद ही बरसीम काटने लायक हो जाती है और अपनी सुविधानुसार फसल की कटाई करते रहें. आमतौर पर चारे की 7-8 बार कटाई की जाती है. चारे की कटाई 25-30 दिनों के अंतराल पर करें.

बीज पैदावार : चारे की कटाई का समय खत्म होने के बाद फसल न काटें. मार्च में आप चारे की कटाई बंद कर दें और आखिरी कटाई के बाद उस में सिंचाई कर के छोड़ दें. उस समय गरमी का मौसम होता है. अगर जरूरत हो तो फिर सिंचाई कर दें लेकिन सिंचाई सीमित ही करें क्योंकि बीज पकते समय ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है.

बरसीम फसल पक कर मईजून तक बीज के लिए तैयार हो जाती है. इसे आप अगले सीजन में इस्तेमाल कर सकते हैं या बाजार में बेच भी सकते हैं.

चारा काटने की मशीन

हाथ से चारा काटते समय अकसर दुर्घटना हो जाती है. कई बार हाथ तक कट जाता है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए पूसा कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने अपनी मशीन में समयसमय पर तमाम सुधार किए हैं, जो दुर्घटनारहित हैं. इन में लगे चारा काटने वाले ब्लैडों से दुर्घटना को रोकने के लिए ब्लैड गार्ड लगाए गए हैं. इन गार्डों को ब्लैडों के आगे बोल्टों के जरीए जोड़ा गया है.

मशीन से जब काम न लेना हो तो उसे बोल्टों के जरीए ताला लगा कर बंद किया जाता है.

चारा लगाने वाली जगह पर एक खास रोलर भी लगाया गया है जिस से चारा लगाते समय हाथ असुरक्षित जगह पर न जाने पाए, इस का पता पहले ही लग जाता है.

पशुपालन व्यवसाय में तकनीक से तरक्की

पशुपालन के बारे में यह आम सोच है कि इसे व्यवसाय के रूप में चुनने के लिए किसी खास पढ़ाई या डिगरी की जरूरत नहीं होती. यह व्यवसाय पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है. अगर इस व्यवसाय को आधुनिक तकनीक के साथ मिला दिया जाए तो किसी भी क्षेत्र में नए आयाम बनाए जा सकते हैं.

पशुपालन के क्षेत्र में ऐसे ही कुछ सुनहरे पन्ने जोड़े हैं बीकानेर के एक नौजवान टैक्नोग्रेड नवीन सिंह तंवर ने. यूथ आईकौन के रूप में उभरने वाले नवीन सिंह तंवर ने नौजवानों के लिए उन्नत कृषि और पशुपालन व्यवसाय में संभावनाओं के नए दरवाजे खोले हैं.

आज हर ओर मिलावटी दूध की चर्चा देखनेसुनने और पढ़ने को मिलती है. यूरिया और डिटर्जैंट जैसे हानिकारक तत्त्व दूध के नमूनों में पाए जाते हैं. लेकिन नवीन सिंह ने साबित कर दिखाया है कि किस तरह आधुनिक तकनीक को अपना कर बिना सेहत से खिलवाड़ किए ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है.

इस सिलसिले में नवीन सिंह तंवर से बातचीत की गई. पेश हैं, उसी के खास अंश:

एक छोटी सी नौकरी पाने के लिए भी नौजवानों को कड़ी मेहनत करते हुए देखा जा सकता है. ऐसे में लाखों रुपए का पैकेज छोड़ कर दूध डेरी खोलने का विचार आप को कैसे आया?

मेरी 3 साल की बेटी के लिए घर में जो दूध आता था, एक दिन मैं ने उस का सैंपल टैस्ट करवाया तो मुझे पता चला कि इस में कितनी पेस्टीसाइड की मिलावट की जाती है.

मेरे एक डाक्टर दोस्त ने कहा कि इस रूप में हम एक तरह से धीमा जहर पी रहे हैं. बस… बच्चों और परिवार की सेहत को ध्यान में रखते हुए मैं होलस्टन नस्ल की 2 गाएं ले आया.

यहीं नहर के किनारे हमारा फार्म है. चूंकि हाथों से दूध निकालते समय भी दूध में कीटाणु जा सकते हैं इसलिए हम ने मशीन मिल्किंग को अपनाया. धीरेधीरे दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी शुद्ध दूध लेने की इच्छा जाहिर की तो फिर इसे एक व्यवसाय के रूप में अपनाने का विचार आया क्योंकि लोग अपनी सेहत को ले कर जागरूक हो गए हैं.

आज जहां आएदिन खानेपीने की चीजों में मिलावट की खबरों से अखबार भरे रहते हैं, वहीं लोग अतिरिक्त पैसा खर्च कर के भी शुद्ध खानपान अपनाना चाह रहे हैं.

इसी सोच ने मुझे डेरी खोलने की प्रेरणा दी. हम ने उत्तर भारत की बहुत सी डेरियां देखी हैं. होलेस्टन नस्ल की गायों के बारे में इंटरनैट से भी बहुत सी जानकारी इकट्ठा की. हम हर साल धीरेधीरे गायों की तादाद बढ़ाते गए. आज हमारे पास तकरीबन 200 गाएं हैं. यहां इस नस्ल को और बेहतर करने का काम भी किया जाता है ताकि गायों की ज्यादा दुधारू नस्ल विकसित की जा सके.

बीकानेर शहर को एशिया का डेनमार्क कहा जाता है. ऐसे में कड़ी होड़ में न केवल टिके रहना बल्कि मुनाफा कमाना भी एक चुनौती है. आप की क्या रणनीति रही?

आप ने बिलकुल सही कहा है कि एशिया में सब से ज्यादा डेरी फार्म बीकानेर में ही हैं, लेकिन फिर भी यहां तकरीबन 70 फीसदी दूध मिलावटी पाया जाता है. दूध में पानी की ही नहीं बल्कि यूरिया, डिटर्जैंट और दूसरे हानिकारक कैमिकल मिलाए जाते हैं.

ऐसा एक एनजीओ के सर्वे में सामने आया है. 1,200 घरों से दूध के सैंपल ले कर यह सर्वे किया गया था. तब हम ने अपने उत्पाद की शुद्धता और अच्छी क्वालिटी को पैमाना बना कर इस व्यवसाय में कदम रखा. साथ ही, हम ने अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए आधुनिक तकनीक का सहारा लिया.

मिल्क पार्लर में गायों का दूध निकालने के बाद पैक्ड कैन से पाइप के जरीए दूध को बल्क कूलर में सप्लाई किया जाता है. यहां इसे 4 डिगरी तक ठंडा किया जाता है. बल्क कूलर से दूध को पाइप के जरीए ही पैकेजिंग मशीन में लगे बरतन में सप्लाई किया जाता है. यहां से इस की एकएक लिटर की पैकिंग होती है.

हम ने ‘काऊबेस’ नाम से अपना ब्रांड बनाया और क्वालिटी के मानक तय किए.

पशुपालन (Animal Husbandry)

हम ने सोशल मीडिया सहित हर आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया. हम ने उपभोक्ता और उत्पादक के बीच से मिडिल की कड़ी को हटा दिया. दूध दुहने से ले कर उस की पैकिंग तक का काम पूरी तरह से मशीनी होता है.

हमारे यहां हर रोज 1500 लिटर दूध तकरीबन 650 घरों में सीधे ग्राहकों तक पहुंचाया जाता है. हम इसे विनायक परिवार कहते हैं. सभी ग्राहक ह्वाट्सऐप ग्रुप के जरीए हम से सीधे जुड़े हैं.

हमें खुशी है कि हम लोगों का भरोसा बना पाए. हमारी डेरी का सालाना टर्नओवर डेढ़ करोड़ रुपए है. यही हमारी कामयाबी का राज है.

गाय एक ऐसा पशु है जिसे जो कुछ भी खिलाया जाता है, उस का असर जैसे स्वाद, महक और गुण दूध में आ जाते हैं. ऐसे में आप दूध की शुद्धता कहां तक बना कर रखेंगे क्योंकि चारे और दाने में भी तो हानिकारक कैमिकलों की मिलावट हो सकती है?

बीकानेर की ज्यादातर डेरियों में पशुओं को मूंगफली का चारा खिलाया जाता है, जिस में पेस्टीसाइड भरपूर मात्रा में होते हैं. ऐसे में अगर दूध में कोई बाहरी मिलावट न भी की जाए तब भी पेस्टीसाइड का असर आ जाता है.

दूध में पोषक तत्त्वों को बनाए रखने के लिए हम गायों को पूरे साल अपने ही फार्म में उगा हरा चारा खिलाते हैं. गरमियों में ज्वार और सर्दियों में जई. फार्म में सिर्फ और्गेनिक खाद ही इस्तेमाल की जाती है.

गायों पर कभी भी औक्सीटोसिन का इस्तेमाल नहीं किया जाता. जरूरत होने पर होमियोपैथी दवाएं दी जाती हैं. यहां तक कि गायों में चिचड़ी होने पर भी किसी तरह की दवा नहीं दी जाती. इस के अलावा यहां मुरगीपालन किया गया है, क्योंकि वे चिचड़ी को खोजखोज कर खा जाती हैं. हाईजीन के साथ किसी तरह का समझौता नहीं किया जाता. पूरा फार्म सीसीटीवी कैमरों की निगरानी में है.

यह फार्म 3 भागों में बंटा हुआ है. पहले भाग में हरा चारा सूखी तूड़ी के साथ मिला कर भरपेट खिलाया जाता है. यह सभी के लिए समान है. वहीं दूसरे भाग में पेट से होने वाली गायों को रखा जाता है. यहां उन्हें उन की जरूरत के मुताबिक दाना यानी बांट खिलाया जाता है. दाने या बांट की मात्रा हरेक पशु के लिए उस की बौडी साइज, वजन और दूध देने की कूवत के मुताबिक तय की जाती है.

पेट से होने वाली गायों की खास देखभाल की जाती है. इन्हें बाईपास फैट खिलाया जाता है जो कि एक विशेष प्रकार का आहार है और न्यूट्रीशन का बहुत ही रिच सोर्स है. यह सीधा गायों की आंतों में घुलता है और उस का पूरा फायदा पशु को मिलता है. इस से ब्याने के बाद उस का दूध अच्छी क्वालिटी का होगा और उस की मात्रा भी ज्यादा होगी.

तीसरे भाग में नई ब्या चुकी गाएं हैं. नई ब्याई गायों को 2 महीने तक गुड़, अजवाइन और मेथी का बांट पका कर खिलाया जाता है ताकि दूध की मात्रा और पौष्टिकता बनी रहे यानी परंपरागत नुसखों को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ कर गायों की बेहतरीन देखभाल की जाती है.

गरमियों में राजस्थान का तापमान 45 से 50 डिगरी तक पहुंच जाता है. पशुओं का दूध भी कम हो जाता है. आप गायों की इन समस्याओं से कैसे निबटते हैं?

हमारी गाएं संकर नस्ल की हैं. ये गाएं 50 डिगरी के तापमान पर भी बेहतर काम करती हैं. साथ ही, यहां पर गायों को पूरी तरह कुदरती माहौल दिया जाता है यानी घने पेड़ों की छाया और और्गेनिक हरा चारा.

चूंकि गायों को पसीना नहीं आता इसलिए इन की डाइनिंग टेबल के आसपास पंखे और फौगर लगाए गए हैं ताकि उन के शरीर में ठंडक बनी रहे.

गायों को सैंधा नमक भी चारे के साथ चटाया जाता है. इस का सोडियम पशु को स्वस्थ रखता है. यहां बड़ेबड़े ब्रश भी लगाए गए हैं. यहां आ कर गाएं अपनेआप को खुजा कर जाती हैं. ये छोटेछोटे उपाय पशुओं को सेहतमंद रखने में कारगर साबित होते हैं.

हमारे यहां हरेक गाय के दूध का रिकौर्ड रखा जाता है. 1-2 किलोग्राम लिटर दूध का उतारचढ़ाव आते ही उसे डाक्टरी मदद मुहैया कराई जाती है. इस के लिए प्रतिदिन एक पशुचिकित्सक की विजिट होती है.

आप अपने भविष्य की योजनाएं हमारे युवा दोस्तों के साथ साझा कीजिए.

आने वाले समय में हम फार्म पर ही केंचुआ खाद बनाएंगे. बायोगैस से बिजली बनाने की भी योजना है. इस के अलावा दूसरे दूध उत्पाद जैसे दही, घी, मक्खन, पनीर वगैरह भी हम सहयोगी उत्पाद के रूप में बनाने पर विचार कर रहे हैं.

परंपरागत जानकारी के साथसाथ आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किसी भी व्यवसाय को ऊंचाइयों तक पहुंचा सकता है. इस क्षेत्र में भी काफी संभावनाएं हैं. सरकार भी खेती और पशुपालन को बढ़ावा दे रही है. बहुत सी आधुनिक तकनीक इस क्षेत्र में आ चुकी हैं. उन से अपडेट रहना समझदारी है. बस थोड़ा सा सब्र और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी रखी जाए तो यह नौजवानों के लिए एक बेहतर भविष्य वाला व्यवसाय है.

वैज्ञानिक तरीके से गायभैंस के नवजात बच्चों (Newborn Calves) की देखभाल

हमारे देश में पशुपालन खेती के मददगार रोजगार के रूप में पनप रहा है, लेकिन पिछले कुछ सालों से दूध की बढ़ती कीमतों से अच्छा मुनाफा होने पर बेरोजगार नौजवान भी इसे व्यवसाय के रूप में अपनाने लगे हैं. यह एक ऐसा काम है, जिस में अनुभवी, मेहनती और लगनशील व्यक्ति अच्छाखासा मुनाफा कमा सकता है.

गांवदेहात में कम कीमत पर कम उम्र के पशु मिल जाते हैं, जिन के पालनपोषण का यदि खास ध्यान रखा जाए तो वह अच्छे दुधारू पशु बन सकते हैं.

सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार गाय व भैंस के बच्चा जनने के पहले व बाद में देखभाल पर कुछ सुझाव दिए गए हैं, जिन पर पशुपालकों को ध्यान देना चाहिए:

* गाय या भैंस का औसत गाभिन काल 282 और 310 दिन होता है.

* गाभिन पशु को अपने शरीर की जरूरत और गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए पोषक तत्त्वों की जरूरत होती है. यदि पशुओं को पोषक तत्त्व सही खुराक में नहीं मिले तो बच्चा कमजोर होगा, साथ ही पशु अगले ब्यांत में भी दूध कम देगा.

* पशु के ब्याने के 2 माह पहले से पशु के ब्याने तक पोषक तत्त्वों की खुराक बढ़ानी चाहिए. इस जरूरत को पूरा करने के लिए पहले से खिलाई जा रही खुराक के अलावा या तो 1 किलोग्राम दाना मिश्रण या 10 से 15 किलोग्राम हरा या मुलायम रसदार चारे के साथ थोड़ी मात्रा में सूखा चारा मिला कर की जा सकती है.

* गाभिन पशु को चोट लगने और दूसरे पशुओं से सुरक्षित बचा कर रखना चाहिए. हो सके तो गाभिन पशुओं को दूसरे पशुओं से अलग रखना चाहिए.

* बच्चा जनने के समय पशु का अयन (थन का ऊपरी हिस्सा) फूल जाता है यानी पशु के बाहरी जननांग फूल जाते हैं और पूंछ के पास के अस्थि बंधक तंतु ढीले हो जाते हैं. इस दौरान पशु का खास ध्यान रखना चाहिए.

* बच्चा जनने में आमतौर पर 1 से 2 घंटे का समय लगता है. पशु का कमरा पूरी तरह से हवादार होने के साथसाथ साफ, छूत से होने वाली बीमारी रोकने वाले पदार्थ से छिड़का होना व बिछावनदार होना चाहिए.

* यदि पशु स्वस्थ है तो बच्चा जनने में किसी तरह की मदद की जरूरत नहीं पड़ती है. फिर भी बच्चा पैदा होने के समय इमर्जैंसी में कोई न कोई जरूर होना चाहिए.

* सब से पहले बच्चे के अगले पैर और उस के बाद नाक बाहर आती है. अगर कोई परेशानी लगे तो तुरंत पशु चिकित्सक को बुलाएं.

* बच्चा पैदा होने के बाद पशु के बाहरी जननांगों व आसपास के भाग और पूंछ को नीम के पत्तों के पानी से धो देना चाहिए. (नीम डाल कर उबाल कर पानी को ठंडा कर के रखें) या साफ पानी में पोटेशियम परमैगनेट डाल लें, उसे लाल दवा के घोल से धोना चाहिए. ऐसा करने से पशु पर लगी गंदगी साफ हो जाएगी. साथ ही, कीटाणुओं को पनपने का मौका नहीं मिलेगा.

* पशु को तकरीबन आधा किलोग्राम गुड़, 3 किलोग्राम चोकर, 50 ग्राम नमक और 40 ग्राम खनिज मिश्रण के साथ भरपूर चारा दिया जाए.

* पशु को ठंड से बचा कर रखना चाहिए. इस के लिए कुनकुना पानी या गुड़ का गरम शरबत देना चाहिए. ब्यांत के 2 दिन बाद चोकर की जगह जई का चोकर व अलसी का दलिया देना चाहिए.

* आमतौर पर पशु 2 से 4 घंटे में जेर डाल देता है. यदि वह 8-10 घंटे बाद भी जेर न डाले तो अरगट मिक्सचर दें. इस के बाद भी जेर न गिरे तो पशु चिकित्सक की मदद लेनी चाहिए.

* बच्चा जनने के तुरंत बाद अयन में दूध आ जाता है. इस वजह से वह फूल जाता है. इसलिए नाखून व घास के टुकड़ों से अयन को नुकसान न पहुंचे, इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए.

* ब्यांत के बाद पशु को कैल्शियम की कमी के कारण दुग्ध ज्वर हो सकता है. इस रोग से बचाव के लिए सब से अच्छा तरीका है कि बच्चा जनने के 1-2 दिन बाद तक अयन से पूरा दूध न निकाला जाए और कैल्शियम की भरपाई की जाए.

* पशु के ब्याने के बाद मैग्नीशियम की कमी के कारण मैगनीशियम टिटेनी हो सकता है. इस के लिए माइफैक्स का इंजेक्शन देना चाहिए. कैल्शियम की कमी पूरी करने के लिए कैल्शियम बोरोग्लूकोनेट का इंजैक्शन दिया जाता है. यह काम पशु चिकित्सक से करवाना चाहिए.

* ज्यादा दूध देने वाले पशुओं में थनेला रोग होने का भी खतरा रहता है. इस के लिए पशु चिकित्सक से इस की जांच भी जरूर करा लें.

पशु के बच्चे की देखभाल

* गाय और भैंस के नवजात बच्चों की मृत्युदर काफी ज्यादा होती है इसलिए उन की वैज्ञानिक तरीके से देखभाल करें. जैसे ही बच्चा पैदा हो, उस की नाक, आंख, कान और शरीर में लगी झिल्ली या चिपकी हुई गंदगी को अच्छी तरह से साफ कर देना चाहिए, ताकि वह अच्छी तरह सांस ले सके.

* आमतौर पर गाय या भैंस खुद ही अपने बच्चे को चाट कर साफ कर देती है. यदि वह बच्चे को चाटे न तो उस के शरीर पर थोड़ा नमक छिड़क दें. इस के बाद पशु अपने बच्चे को चाटने लगता है.

* यदि बच्चा सांस लेना शुरू न करे तो उस की छाती को बारबार दबा कर व छोड़ कर कृत्रिम सांस देने की कोशिश करनी चाहिए. यह प्रक्रिया बच्चे को साइड में लिटा कर करनी चाहिए.

* बच्चे की नाभि पर टिंचर आयोडीन लगाना चाहिए और उस के बाद बोरिक एसिड का पाउडर भरना चाहिए. अगर नेवल कौर्ड लंबा है तो उसे शरीर से 2 इंच नीचे से आयोडीन लगाने से पहले काट देना चाहिए ताकि शरीर में संक्रमण न फैले.

* ज्यादातर नवजात बच्चे जन्म के 1 घंटे बाद ही अपने पैरों पर खड़े हो कर दूध पीना शुरू कर देते हैं. फिर भी इस दौरान यदि बच्चा सही तरह से दूध न पी सके तो उसे सहारा दे कर दूध पिलाने में मदद करें. अयन के साथसाथ थनों को बच्चे के दूध पीने से पहले अच्छी तरह धो लें. ऐसा करने से बच्चे का बीमारी से बचाव होगा.

* बच्चे को जन्म के 48 घंटे तक शुरुआती दूध (जिसे कोलेस्ट्रम व आम भाषा में खीस कहते हैं) जरूर दिया जाए, इस दूध से बच्चे को कई तरह की बीमारियों से लड़ने की ताकत मिलती है व बच्चों का कई बीमारियों से बचाव होता है.

* स्वस्थ बच्चे को प्रतिदिन उस के वजन के 10 फीसदी भार के बराबर दूध देना चाहिए जो कि 5-6 लिटर प्रतिदिन से ज्यादा नहीं होना चाहिए. अगर पशु को कुछ समस्या हो तो पशु चिकित्सक से जरूर सलाह ली जानी चाहिए.

* जब बच्चा 15 दिन का हो जाए तो उसे एचएस का 30-40 मिलीलिटर सीरम का टीका देना चाहिए.

* 15 दिन बाद कास्टिक छड़ी द्वारा सींग रोधन कर देना चाहिए.

* 3 महीने की उम्र पर एंथ्रेक्स का टीका व इस के 15 दिन बाद बीक्यू का टीका जरूर लगवाना चाहिए.

हरा चारा ज्वार, पशुओं के लिए फायदेमंद

हमारे गांवों की लगभग 70 फीसदी आबादी पशुपालन से जुड़ी है. जिन किसानों के पास जोत कम है, वे भी चारे की फसलों की अपेक्षा नकदी फसलों की ओर ज्यादा ध्यान देते हैं.

हरा चारा खिलाने से पशुओं में भी काम करने की कूवत बढ़ती है वहीं दूध देने वाले पशुओं के दूध देने की कूवत बढ़ती है, इसलिए उत्तम चारे का उत्पादन जरूरी है, क्योंकि चारा पशुओं को मुनासिब प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और खनिज पदार्थों की भरपाई करते हैं.

हरा चारे का उत्पादन कुल जोत का तकरीबन 4.4 फीसदी जमीन पर ही किया जा रहा है. 60 के दशक में पशुओं की तादाद बढ़ने के बावजूद भी चारा उत्पादन रकबे में कोई खास फर्क नहीं हुआ है.

अच्छी क्वालिटी का हरा चारा हासिल करने के लिए ये तरीके अपनाए जाने चाहिए:

जमीन : ज्वार की खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट और हलकी व औसत दर्जे वाली काली मिट्टी जिस का पीएच मान 5.5 से 8.5 हो, बढि़या मानी गई है.

यदि मिट्टी ज्यादा अम्लीय या क्षारीय है तो ऐसी जगहों पर ज्वार की खेती नहीं करनी चाहिए.

खेत और बीज

पलेवा कर के पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें या हैरो से. उस के बाद 1-2 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से कर के पाटा जरूर लगा देना चाहिए.

एकल कटाई यानी एक कटाई वाली किस्मों के लिए 30-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर और बहुकटान यानी बहुत सी कटाई वाली प्रजातियों के लिए 25-30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डालना चाहिए.

उन्नतशील किस्में चुनें

हरे चारे के लिए ज्वार की ज्यादा पैदावार और अच्छी क्वालिटी लेने के लिए अच्छी प्रजातियों को ही चुनें.

बीजोपचार

बोने से पहले बीजों को 2.5 ग्राम एग्रोसन जीएन थीरम या 2.0 ग्राम कार्बंडाजिम प्रति किलोग्राम के हिसाब से बीज उपचारित करना काफी फायदेमंद रहता है. ऐसा करने से फसल में बीज और मिट्टी के रोगों को कम कर सकते  हैं.

ज्वार को फ्रूट मक्खी से बचाने के लिए इमिडाक्लोप्रिड 1 मिलीलिटर प्रति किलोग्राम के हिसाब से बीज उपचारित करना फायदेमंद रहेगा.

बोने का तरीका

हरे चारे के लिए जायद मौसम में बोआई का सही समय फरवरी से मार्च तक है. ज्यादातर किसान ज्वार को बिखेर कर बोते हैं, पर इस की बोआई हल के पीछे कूंड़ों में और लाइन से लाइन की दूरी 30 सैंटीमीटर पर करना ज्यादा फायदेमंद है.

खाद और उर्वरक

खाद और उर्वरक की मात्रा का इस्तेमाल जमीन के मुताबिक करना चाहिए. अगर किसान के पास गोबर की सड़ी खाद, खली या कंपोस्ट खाद है तो बोआई से 15-20 दिन पहले इन का इस्तेमाल खेत में करना चाहिए.

एकल कटान यानी एक कटाई वाली प्रजातियों में 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें और बची 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन फसल बोने के एक महीने बाद मुनासिब नमी होने पर खड़ी फसल पर इस्तेमाल करना चाहिए.

बहुकटान वाली किस्मों में 60-75 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस बोआई के समय और 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन हर कटाई के बाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण

आमतौर पर बारिश के मौसम में पानी देने की जरूरत नहीं होती. अगर बारिश न हो तो पहले फसल को हर 8-12 दिन के फासले पर सिंचाई की जरूरत होती है.

फसल की बोआई के तुरंत बाद खरपतवार को जमने से रोकने के लिए 1.5 किलोग्राम एट्राजिन 50 डब्ल्यूपी या सिमेजिन को 1000 लिटर पानी में घोल बना कर जमाव से पहले खेत में छिड़कना चाहिए.

ज्वार के कीट व रोग प्रबंधन

मधुमिता रोग : फूल आने से पहले 0.5 फीसदी जीरम का 5 दिन के फासले पर 2 छिड़काव करने से इस रोग से बचाव हो सकता है. बाली पर अगर रोग दिखाई दे रहा हो तो उसे बाहर निकाल कर जला दें.

दाने पर फफूंद : फूल आते समय या दाना बनते समय अगर बारिश होती है तो इस रोग का प्रकोप ज्यादा होता है. दाने काले व सफेद गुलाबी रंग के हो जाते हैं. क्वालिटी गिर जाती है. इसलिए अगर फसल में सिट्टे आने के बाद आसमान में बादल छाएं और आबोहवा में नमी ज्यादा हो तो मैंकोजेब 75 फीसदी 2 ग्राम या कार्बंडाजिम दवा 0.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 दिन के फासले पर 2 छिड़काव करें.

चारकोल राट : इस रोग का प्रकोप रबी ज्वार के सूखे रकबे में छिली मिट्टी में होता है. इस का फैलाव जमीन पर होता है. इस रोग की रोकथाम के लिए नाइट्रोजन खाद का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए और प्रति हेक्टेयर पौधों की तादाद कम रखनी चाहिए. बीज को बोआई के समय थाइरम 4.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए.

पत्ती पर धब्बे (लीफ स्पौट) : इस की रोकथाम के लिए डाईथेन जेड 78 0.2 फीसदी का 2 बार 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से बचाव हो जाता है.

मुख्य कीट

प्ररोह मक्खी : यह कीट ज्वार का घातक दुश्मन है. फसल की शुरुआती अवस्था में यह कीट बहुत नुकसान पहुंचाता है. जब फसल 30 दिन की होती है, तब तक कीट से फसल को 80 फीसदी तक नुकसान हो जाता है.

इस कीट की रोकथाम के लिए बीज को इमिडाक्लोप्रिड गोचो 14 मिलीलिटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए.

बोआई के समय बीज की मात्रा 10 से 12 फीसदी ज्यादा रखनी चाहिए. जरूरी हो तो अंकुरण के 10-12 दिन बाद इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. फसल काटने के बाद खेत में गहरी जुताई करें और फसल के अवशेषों को एकत्रित कर जला दें.

तनाभेदक कीट : इस कीट का हमला फसल लगने के 10-15 दिन से शुरू हो कर फसल पकने तक रहता है. इस के नियंत्रण के लिए फसल काटने के तुरंत बाद खेत में गहरी जुताई करें और बचे हुए फसल अवशेषों को जला दें.

खेत में बोआई के समय खाद के साथ 10 किलोग्राम की दर से फोरेट 10 जी या कार्बोफ्यूरान दवा खेत में अच्छी तरह मिला दें.

बोआई के 15-20 दिन बाद इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर या कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करना चाहिए.

सिट्टे की मक्खी : यह मक्खी सिट्टे निकलते समय फसल को नुकसान पहुंचाती है. इस की रोकथाम के लिए जब 50 फीसदी सिट्टे निकल आएं तब प्रोपेनफास 40 ईसी दवा 25 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर पानी में घोल बना कर 10 से 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करना चाहिए.

टिड्डा : यह कीट ज्वार की फसल को छोटी अवस्था से ले कर फसल पकने तक नुकसान पहुंचाता है और पत्तियों के किनारों को खा कर धीरेधीरे पूरी पत्तियां खा जाता है. बाद में फसल में मात्र मध्य शिराएं और पतला तना ही रह जाता है.

इस कीट के नियंत्रण के लिए फसल में कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 से 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करना चाहिए.

पक्षियों से बचाव : ज्वार पक्षियों का मुख्य भोजन है. फसल में जब दाने बनने लगते हैं, तो सुबहशाम पक्षियों से बचाना बहुत जरूरी है अन्यथा फसल को काफी नुकसान होता है.

कटाई : पशुओं को पौष्टिक चारा खिलाने के लिए फसल की कटाई 5 फीसदी फूल आने पर अथवा 60-70 दिन बाद करनी चाहिए. बहुकटान वाली प्रजातियों की पहली कटाई बोआई के 50-60 दिनों के बाद और बाद की कटाई 30-35 दिन के अंतर पर जमीन की सतह से 6-8 सैंटीमीटर की ऊंचाई पर या 4 अंगुल ऊपर से काटने पर कल्ले अच्छे निकलते हैं.

उपज : प्रजातियों के हरे चारे की उपज 250-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है, जबकि बहुकटान वाली किस्मों की उपज 750-800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है.