Cowpea: पशुओं के लिए पौष्टिकता से भरपूर लोबिया

पशुओं के लिए लोबिया (Cowpea)  दलहन चारा है. अधिक पौष्टिक व पाचकता से भरपूर होने के कारण इसे घास के साथ मिला कर बोने से इस की पोषकता बढ़ जाती है.

इस की फसल उगाने से किसानों को कई फायदे होते हैं. पहला तो यह कि इस से पशुओं के लिए हरा चारा मिलता है, वहीं दूसरी ओर खेत के खरपतवार को खत्म कर के मिट्टी की उर्वरताशक्ति भी बढ़ाने का काम करती है.

लोबिया (Cowpea) की फसल को किसान खरीफ और जायद मौसम में उगा सकते हैं.

भूमि और खेत की तैयारी

लोबिया (Cowpea)  की खेती आमतौर पर अच्छे जल निकास वाली सभी तरह की जमीनों में की जा सकती है, लेकिन दोमट मिट्टी पैदावार के हिसाब से अच्छी मानी गई है. अच्छे उत्पादन के लिए खेत को हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताई करनी चाहिए, इस से बीज में अंकुरण जल्दी होता है और फसल अच्छी होती है.

बोआई का समय

लोबिया (Cowpea)  की फसल साल में 2 बार की जाती है. गरमियों की फसल के लिए बोआई का सही समय मार्च होता है, खरीफ मौसम में लोबिया (Cowpea) की बोआई बारिश शुरू होने के बाद जुलाई महीने में करनी चाहिए.

उन्नत किस्में

किसी भी फसल के ज्यादा उत्पादन के लिए कई कारक जिम्मेदार होते हैं, उन में से एक उन्नत किस्म का बीज भी है. अगर आप अच्छे किस्म का बीज बोएंगे तो अधिक पैदावार मिलेगी. इसलिए जब भी बोआई करें, अच्छे बीज ही इस्तेमाल करें. आप की जानकारी के लिए कुछ उन्नत बीजों के नाम इस प्रकार हैं:

कोहिनूर, बुंदेल लोबिया-2, बुंदेल लोबिया-3, यूपीसी-5287, आईएफसी-8503, ईसी- 4216, यूपीसी- 5286, 618 वगैरह.

बीज की मात्रा व बोआई

किसान पशुओं के चारे के लिए एक ही खेत में कई तरह के बीज मिला कर बोआई करते हैं. ऐसे में अगर सिर्फ लोबिया (Cowpea)  की फसल लेनी है, तब 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही होता है. अगर ज्वार या मक्का आदि के साथ बोना है तो 15 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर ठीक होता है.

सिंचाई

गरमियों के मौसम में 8-10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. पूरे सीजन में लगभग 6-7 सिंचाई करनी पड़ती है, जबकि खरीफ मौसम में आमतौर पर सिंचाई की जरूरत नहीं होती है, लेकिन लंबे समय तक बारिश न होने पर 10-12 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण

गरमी में ज्यादा खरपतवार की दिक्कत नहीं होती, लेकिन 20-25 दिनों में खुरपी या फावड़े से गुड़ाई कर के खरपतवार पर काबू पाया जा सकता है. बीज बोने से पहले ट्रीफ्लूरानिन (0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) का छिड़काव करने से खरपतवार की बढ़वार कम होती है.

फसल कटाई

खरीफ मौसम की फसल 50-60 दिनों में और गरमियों की फसल 70-75 दिनों में कटाई (50 प्रतिशत फूल आने पर) के लिए तैयार हो जाती है. लोबिया (Cowpea)  की फसल की कटाई तब भी शुरू की जा सकती है, जब पौधे बड़े हो जाएं और चारे के लिए इस्तेमाल किए जाने लगें.

सब्जी व दलहनी फसल लोबिया

देश के सभी प्रदेशों में लोबिया उगाया जाता है. यह एक बहुद्देशीय फसल है.

जलवायु : खरीफ में उगने वाली यह एक प्रमुख दलहन फसल है. यह गरम और नम जलवायु की फसल है.

जमीन : लोबिया की खेती भारी जमीन के बजाय हलकी जमीन पर दोमट या मटियार दोमट मिट्टी में की जा सकती है, जिस का पीएच मान 7.5 हो.

तापमान : 25-30 डिगरी तापमान की अच्छी पैदावार के लिए जरूरी है. वैसे, 40 डिगरी सैल्सियस तापमान भी इस के लिए नुकसानदायक नहीं है.

अंतरफसली चक्र : लोबियाज्वारगेहूं, लोबियाधानगेहूं, लोबियामक्कागेहूं, लोबियाबाजरागेहूं और लोबियागन्ना.

अच्छी किस्में : पूसा 2 फसली, पूसा ऋतुराज, पूसा फाल्गुनी, सी 152, पूरा कोमल, टाइप 2, स्वर्ण (बी 38), बी 940.

बोने का समय : खरीफ की फसल को बारिश के शुरू होते ही बो देना सही रहता है, ग्रीष्मकालीन फसल 15 फरवरी से 15 अप्रैल तक बोई जा सकती है.

बीज : खरीफ की फसल के लिए बीज 15-20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और ग्रीष्मकालीन फसल के लिए 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज काफी रहता है.

बीज का उपचार : लोबिया के बीज को बोआई से पहले राइजोबियम जीवाणु से उपचारित करना चाहिए. साथ ही, फफूंदीनाशक दवा जैसे कैप्टान या सीरम की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम की दर से बीज उपचारित करें.

बोआई की विधि : बोआई हमेशा लाइनों में ही करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 30-45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सैंटीमीटर रखें. यदि अंतरफसली के रूप में बोआई करनी है तो मक्का, ज्वार और बाजरा के साथ पंक्ति में बोआई की जा सकती है.

बीज की गहराई : बोआई हमेशा 3-5 सैंटीमीटर की गहराई पर ही करें. अधिक गहराई पर बोने से अंकुरण ठीक तरह से नहीं होता है.

खाद : लोबिया की फसल के लिए खाद उड़दमूंग की तरह ही देना लाभदायक है. यदि लोबिया को अंतरफसली चक्र में बोया गया है तो खाद की मात्रा का फासला फसली चक्र के अनुपात में देना चाहिए.

20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 55 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर अच्छी पैदावार के लिए सही रहता है.

खरपतवार की रोकथाम : लोबिया की फसल में खरपतवार की रोकथाम के लिए बसालिन 2 लिटर प्रति हेक्टेयर बोआई से पहले 600-700 लिटर पानी में घोल कर मिट्टी की ऊपरी सतह पर अच्छी तरह से छिड़काव करें. इस से खरपतवार नहीं पनप पाते.

सिंचाई : मिट्टी में 50 फीसदी नमी रहने पर सिंचाई जरूरी है. वसंतकालीन फसल में 15-20 दिन के अंतर पर सिंचाई करना जरूरी है. गरमी में फसल में 10-15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए.

रोग और रोकथाम

शुष्क मूल गलन : इस की रोकथाम के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मों और फसल चक्र का ही उपयोग करें.

चूर्णित आसिता रोग : इस की रोकथाम के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मों को बोएं. रोग दिखाई देने पर 3 किलोग्राम सल्फेक्स या इलसेन को 1000 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

मौजेक रोग : इस की रोकथाम के लिए रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें. फफूंदनाशक दवा थाइरम 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर जरूरत के मुताबिक छिड़काव करें.

हानिकारक कीट

फलीबीटल : इस की रोकथाम के लिए 20 किलोग्राम थिमेट प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल सही है.

ब्रुकिड : यह कीट भंडारगृह में लोबिया के बीज को नुकसान पहुंचाता है. इस की रोकथाम के लिए कीटनाशक दवा धुमुन (फ्यूमिगेशन) का छिड़काव करें और भंडारगृह की साफसफाई का ध्यान रखें.

50 फीसदी फलियों के पकते ही तोड़ लेना चाहिए या फलियों के पकने के लक्षण दिखाई देते ही हंसिया से काट लेना चाहिए.

उपज : वसंतकालीन फसल से 10-15 क्विंटल दाना प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है.

अरहर की उन्नत की खेती

खरीफ मौसम की फसल अरहर देश की खास उपयोगी दलहन फसल अरहर है. यह अलगअलग भौगोलिक हालात में भी उगाई जा सकती है.

जलवायु : अरहर उन दलहन फसलों में से एक है जो अलगअलग जलवायु और हालात में भी अच्छी पैदावार देती है, लेकिन ज्यादा और अच्छी पैदावार के लिए लगभग इसे 30 से 35 डिगरी सैल्सियस तापमान की जरूरत पड़ती है और इस के लिए 60 से 75 सैंटीमीटर सालाना बारिश जरूरी है.

जमीन : अरहर की पैदावार के लिए दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है. जलनिकासी व नमकरहित जमीन भी अच्छी मानी जाती है.

फसल चक्र : अरहर की खेती मिश्रित फसल प्रणाली में की जाती है. उन में से कुछ खास इस प्रकार हैं :

अरहरगेहूं, अरहरमक्काचरी, अरहरगेहूंमूंग.

अंतरफसल चक्र में भी अरहर की खेती की जा सकती है. जैसे, अरहरसोयाबीन, अरहरज्वार, अरहरबाजरा.

बोआई का समय : अरहर की बोआई देश के भौगोलिक हालात पर निर्भर करती है. इस की बोआई उत्तरपश्चिमी क्षेत्र जैसे दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कुछ इलाकों में जून के दूसरे हफ्ते में खेत में पलेवा कर, खेत की अच्छी तरह जुताई कर बोआई करें.

मानसून की पहली बारिश के बाद सही नमी में बोआई की जा सकती है. अरहर और मूंग की अंतरफसल की बोआई का सही समय अप्रैल का दूसरा हफ्ता है.

बीजों का उपचार : बोआई से पहले अरहर के बीज को राइजोबियम जीवाणु का टीका गुड़ के घोल में मिला कर अरहर के बीज में अच्छी तरह से मिलाना चाहिए. उसी घोल में कोई फफूंदीनाशक दवा जैसे बाविस्टिन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिलाना चाहिए.

बोआई की विधि : इसे जून में बोते समय लाइन से लाइन की दूरी 50-60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 15-20 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. मूंग या उड़द के अंतरफसली में अरहर की पंक्ति की दूरी 1 मीटर और 2 लाइनों के बीच में मूंग या उड़द की 2 या 3 लाइनें बोनी चाहिए.

बीज की मात्रा : 1 हेक्टेयर की बोआई के लिए 90 से 95 फीसदी अंकुरण कूवत वाला स्वस्थ प्रमाणित बीज 15-20 किलोग्राम सही रहता है. यदि इसे मूंग या उड़द के साथ बोते हैं तो इस की आधी मात्रा ही बोआई के लिए ठीक रहती है.

अच्छी किस्में : यूपीएएस 120, मानक, प्रभात पूसा अगेती, पूसा 33, आईसीपीएच 151, पूसा 855, पीवीएम 4, एएल 15, टा 21, पंत ए 1 व 2 उन्नत किस्में खास हैं.

खाद की मात्रा : अरहर की अच्छी पैदावार के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 50 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से दें. 100 किलोग्राम डीएपी प्रति हेक्टेयर की दर से हल के साथ पोश बांध कर बीज के नीचे देनी चाहिए.

यदि डीएपी न हो तो तकरीबन 40 किलोग्राम यूरिया और 300 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट बोआई के समय देना चाहिए.

निराईगुड़ाई : बोआई के 25-30 दिन बाद खुरपी या कसौले से निराई करें और जरूरत पड़ने पर खरपतवारनाशक दवा का छिड़काव करें. इस के लिए एलाक्लोर (लासो) 4 लिटर दवा 500-600 लिटर पानी में घोल बना कर बोआई के बाद और अंकुरण से पहले प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

इस के अलावा बीज की बोआई से पहले खरपतवारनाशक दवा बसालिन छिड़कने से भी खरपतवार की रोकथाम की जा सकती है.

सिंचाई : यदि काफी समय तक बारिश नहीं होती है तो सिंचाई करनी चाहिए.

ध्यान रहे कि अरहर की फसल में फूल आने के बाद सिंचाई नहीं करनी चाहिए, लेकिन फलियों में दाना बनते समय सिंचाई करना लाभदायक रहता है.

कीटों की रोकथाम : अरहर में फूल आते समय ब्लास्टर बीटल या मारुका टेसटुलेसिस नामक कीट का असर दिखाई देता है तो कीटनाशक दवा इंडोसल्फान 35 ईसी की 2 मिलीलिटर मात्रा को प्रति लिटर पानी में घोल बना कर या मोनोक्रोटोफास का घोल बना कर छिड़काव करें.

फली बनते समय फलीछेदक नामक कीट का ध्यान रखना चाहिए. यदि कीट का असर दिखता है तो पहला छिड़काव मोनोक्रोटोफास का 1 मिलीलिटर दवा को प्रति लिटर पानी में घोल कर जरूरत के मुताबिक छिड़काव करें.

दूसरा छिड़काव फेनवेनटेट 20 ईसी या साइपरमेथरिन 25 ईसी का 2 मिलीलिटर पानी में पहले छिड़काव के 15 दिन बाद दूसरा छिड़काव करें. यदि जरूरत पड़े तो तीसरा छिड़काव साइपरमेथरिन और मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करें. इस में दोनों दवाओं की पूरी मात्रा डालें.

उपज : अच्छी विधियां अपना कर 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की उपज हासिल की जा सके.

दलहनी फसलों (Pulse Crops) की उन्नत खेती

कृषि में दलहन फसलों का खास स्थान है, क्योंकि दलहन प्रोटीन का मुख्य स्रोत है. दुनिया में भारत दलहन फसलें पैदा करने वाला पहला देश है. यहां हर तरह की फसलें उगाई जाती हैं. देश की भौगोलिक स्थिति और मौसम के अनुसार दलहन फसलों को 2 समूहों में बांटा गया है.

पहला समूह : खरीफ के मौसम में उगाई जाने वाली फसलें जैसे अरहर, मूंग, उड़द, लोबिया आदि.

दूसरा समूह : रबी के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में चना, मटर, मसूर वगैरह हैं.

सोयाबीन भी एक दलहन फसल है. इस में सब से ज्यादा प्रोटीन होता है.

जमीन की उर्वराशक्ति बनाए रखने व सेहत के लिए भी दलहनी फसलों का खास योगदान है.

दलहन फसलों की खूबियां

* दलहन फसलों में प्रोटीन की मात्रा दूसरी फसलों के मुकाबले ज्यादा होती है.

* ये फसलें वायुमंडल में मौजूद नाइट्रोजन को अपनी जड़ों द्वारा जमीन में खड़ी फसलों को मुहैया कराती हैं.

* दलहन फसलें, फसल प्रणाली और अंतरफसल पद्धति में भी खास हैं. इन्हें कम पानी की जरूरत पड़ती है और बारिश पर आधारित खेती में भी ये बहुत उपयोगी साबित होती हैं.

* दलहन फसलें हरे चारे की अच्छी स्रोत हैं.

* ये फसलें पौष्टिक सब्जियों का जरीया बन सकती हैं.

* दलहन फसलों की पैदावार और प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाने में इन का खासा योगदान है.

दलहन फसलों की खेती लगभग 250 लाख हेक्टेयर जमीन में की जा रही है. इस के बाद भी इन की मौजूदगी जरूरत से कम है. जो लोग शुद्ध शाकाहारी हैं उन के लिए दलहन फसलों का काफी महत्त्व है, लेकिन इन फसलों को उगाने में किसानों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

खरीफ के मौसम में उगाई जाने वाली दलहन फसलें ज्यादातर बारिश पर ही निर्भर रहती हैं. धान, मक्का, तिलहन, मूंगफली, सोयाबीन जैसी कुछ फसलें और व्यापारिक फसलें जैसे गन्ने की तुलना में कई बार किसान दलहन फसलों पर कम ध्यान देते हैं इसीलिए इन की पैदावार भी कम होती है.

यदि किसान अच्छी तकनीक अपना कर दलहन फसलों की खेती करें तो इन फसलों की पैदावार प्रति हेक्टेयर बढ़ा सकते हैं.

प्रोटीन से भरपूर सोयाबीन की खेती (Soybean Cultivation)

खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली प्रमुख फसल सोयाबीन है. इस की खेती खासतौर से तिलहनी फसल के रूप में की जा रही है.

इस फसल को उगाने की उन्नत सस्य विधियां निम्न हैं:

जलवायु : यह नरम और गरम जलवायु की फसल है.

तापमान : इस के लिए 25-30 डिगरी सैल्सियस तापमान अच्छा रहता है.

बारिश : 65-70 सैंटीमीटर सालाना बारिश अच्छी पैदावार देने में सक्षम है.

जमीन : अच्छे जलनिकास वाली, नमकरहित, मध्यमभारी दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 6-7.5 हो, अच्छी मानी जाती है.

फसल चक्र : सोयाबीनमक्काचरी, सोयाबीनगेहूं,  सोयाबीनआलू, सोयाबीनसरसों या तुरई.

अंतरफसली फसल चक्र : सोयाबीनअरहर, सोयाबीनबाजरा और सोयाबीनमक्का.

उन्नत किस्में : डीएस 9814, पूसा 9712, पीके 416, पूसा 24 वगैरह खास हैं.

बोआई का समय : मानसून की पहली बारिश के बाद या जूनजुलाई का मौसम बोआई के लिए अच्छा माना जाता है.

बीज दर : अच्छी पैदावार के लिए 60-70 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही है.

बीज का उपचार : बीज बोने से पहले राइजोबियम जीवाणु का टीका या गुड़ का घोल बना कर उस में डाल कर खूब हिलाएं. इस के साथ ही फफूंदीनाशक दवा थाइरम या कैप्टान 3 ग्राम घोल में मिला कर बीज को उपचारित करें.

बोआई विधि : बोआई हमेशा लाइनों में ही करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 15-20 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और बीज को 3-5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोएं.

खाद : 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देने से सोयाबीन की अच्छी उपज मिलती है.

खरपतवार की रोकथाम

खरपतवारनाशक दवा बसालिन 2 लिटर 500-600 लिटर पानी में घोल बना कर बोआई से पहले मिट्टी की ऊपरी सतह में छिड़क दें. इस से खरपतवार उग नहीं पाते.

सिंचाई : अगर बारिश न हो तो सोयाबीन के लिए 2-3 सिंचाई काफी हैं.

कटाई : पत्तियों का रंग हलका पीला पड़ जाता है तो सिंचाई बंद कर दें, क्योंकि यह फसल पकने का समय होता है. हंसिया से कटाई करनी चाहिए.

उपज : 18-20 क्विंटल तक की पैदावार मिल जाती है.

कम समय में तैयारी होती मूंग (Moong) की खेती

देश में उगाई जाने वाली दलहन फसलों में से एक मूंग भी है. यह कम समय में पक कर तैयार हो जाती है. इस फसल को कई फसल प्रणाली में शामिल करने का मौका मिला है.

जलवायु : यह ठंडीगरम जलवायु की फसल है. इस के लिए 25-30 डिगरी सैल्सियस तापमान की जरूरत रहती है.

जमीन की तैयारी : मूंग की खेती के लिए बलुईदोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है, जिस का पीएच मान 7 हो. अच्छा जलनिकास व समतल जमीन मूंग की खेती के लिए अच्छी रहती है.

बोआई से पहले 2-3 जुताई कर के खेत में पाटा चला कर समतल कर लेना चाहिए और पिछली फसल का थोड़ा सा भाग मिट्टी में मिलाना चाहिए.

बोआई का समय : जून से जुलाई के आखिर तक मूंग की बोआई करने का सही समय होता है.

बीज की मात्रा : मूंग की बोआई के लिए 15-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर काफी रहता है.

बोने की विधि : मूंग की बोआई लाइन में करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 25-30 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सैंटीमीटर होनी चाहिए और बीज की गहराई 5-6 सैंटीमीटर से अधिक न हो.

अच्छी किस्में : मूंग की किस्में उन्नत की गई हैं. सस्य तकनीक अपना कर मूंग की अच्छी उपज हासिल की जा सकती है. इस की खास किस्में पूसा बैशाखी, पी 8, पी 9072, पीएस 105, पीएस 16, पीएस 10, पूसा विशाल, एमएल 337, पीडीएम 2, आशा वगैरह खास हैं.

खाद : इस के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर काफी है. 100 किलोग्राम डीएपी में नाइट्रोजन और फास्फोरस की जरूरी मात्रा मौजूद रहती है और जीवाणु टीका मूंग की उपज बढ़ाने में सहायक होता है.

खरपतवार की रोकथाम : मूंग की निराईगुड़ाई खुरपी या कसौला से करनी चाहिए. ज्यादा खरपतवार होने पर खरपतवारनाशक दवा का इस्तेमाल करें या बसालिन 1.5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी का घोल बना कर जरूरत के मुताबिक छिड़काव करें. इस का छिड़काव बोआई से पहले करना चाहिए और जमीन की ऊपरी सतह में मिला देना चाहिए.

सिंचाई : मूंग की सिंचाई गरमी और तापमान पर निर्भर करती है. यदि बारिश की कमी हो तो 1-2 सिंचाई हलका पानी दे कर करें.

ध्यान रहे कि जब 75-80 फीसदी फलियां बन जाएं तब सिंचाई नहीं करनी चाहिए.

रोगों से बचाव : मूंग की फसल में लगने वाले मुख्य रोग पत्ती मौजेक (लीफ कर्ल), मूलगलन (सरसीस्पोरा), पर्ण धब्बे इत्यादि हैं. पत्ती मौजेक वाइरस सफेद मक्खी से फैलता है. कीटनाशक दवा का छिड़काव कर के इसे रोका जा सकता है और प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए.

कीटों से बचाव : मूंग की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले मुख्य कीट थ्रिप्स, जैसिड और सफेद मक्खी हैं. इन कीटों की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें.

कटाई : मूंग की नई व अच्छी किस्में लगभग एकसाथ पकती हैं. पकने के बाद इन की कटाई हंसिया से की जा सकती है या फलियां जब पक जाती हैं तब 2-3 बार इन की तुड़ाई की जा सकती है. इस प्रकार मूंग की उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हासिल की.

चारा व सब्जी फसल बरबटी की खेती

बरबटी को लोबिया नाम से भी जाना जाता है. यह प्रोटीन का बहुत सस्ता और अच्छा जरीया है. इस को खाने से कब्ज नहीं होता और शरीर मजबूत बनता है. लोबिया की हरी नरम फलियों को सब्जी के तौर पर और दानों को दाल या चाट बना कर इस्तेमाल में लाया जाता है.

बरबटी की जड़ों में पाए जाने वाले राइजोबियम सिंबीआसिस क्रिया के चलते यह डेढ़ सौ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन को स्टोर करता है. इस को मिट्टी कटाव रोकने के लिए भी उगाते हैं. यह कुछ हद तक सूखे के प्रति प्रतिरोधी है और कम उपजाऊ खेतों में भी अच्छी पैदावार होने के चलते लोबिया को सभी तरह की आबोहवा में उगाया जा सकता है.

आबोहवा : यह गरम मौसम की फसल है. ठंडा मौसम इस की खेती के लिए अच्छा नहीं होता. ज्यादा बारिश व पानी का भराव इस के लिए नुकसानदायक होता है.

लोबिया की अलगअलग किस्मों को अलग तरह के तापमान की जरूरत पड़ने के चलते जायद व खरीफ दोनों सीजन में उगाने के लिए अलगअलग किस्में होती हैं.

लोबिया की खेती सभी तरह की मिट्टी में कर सकते हैं. मिट्टी का पीएच मान साढ़े 5 से साढ़े 6 के बीच होना चाहिए. खेत से फालतू पानी को निकालने का इंतजाम होना चाहिए. कारोबारी खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती है. खेत की पहली जुताई कल्टीवेटर से व दूसरी जुताई हैरो से करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरा व समतल बना लेते हैं.

किस्में

अर्का समृद्धि : इस किस्म को आईएचआर-16 के नाम से भी जानते हैं. यह जल्दी पकने वाली किस्म है. इस के पौधे सीधे,  झाड़ीनुमा व 70-75 सैंटीमीटर लंबे होते हैं. इस की फलियां हरी, औसत मोटाई, मुलायम, गूदेदार, 15-18 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. एक हेक्टेयर खेत से 180-190 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है.

अर्का गरिमा : यह किस्म गरमी व सूखे के प्रति सहनशील है. फलियां लंबी, मोटी, गोल व गूदेदार होती हैं. हरी फलियों की पैदावार 80-85 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और फसल 90 दिन में तैयार होती है. यह बरसात के मौसम की खेती के लिए ज्यादा कारगर है.

अर्का सुमन : इस के पौधे सीधे,  झाड़ीनुमा व लंबाई 70-75 सैंटीमीटर होती है. यह किस्म जल्दी पकने वाली है. इस की उत्पादन कूवत 140-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा बरसाती : यह अगेती किस्म है. इस में शाखाएं बहुत कम होती हैं. फलियां 25 से 27 सैंटीमीटर लंबी व हलके हरे रंग की होती हैं. फलियां बोआई के 45-50 दिन बाद तोड़ने लायक हो जाती हैं. हरी फलियों की पैदावार 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

Barbati

पूसा दो फसली : यह  झाड़ीनुमा किस्म है. गरमी व बरसात दोनों मौसमों के लिए माकूल है. हरी फलियों की पहली तुड़ाई बोआई के 50 दिन बाद की जाती है. इस की फलियां 18 सैंटीमीटर लंबी व हलके हरे रंग की होती हैं. हरी फलियों की पैदावार 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा कोमल : इस के पौधे  झाड़ीदार 60 सैंटीमीटर लंबे होते हैं. बोआई के बाद फलियों की पहली तुड़ाई के लिए फसल 60 दिन में तैयार हो जाती है. फलियां गहरे रंग की 20-25 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. गरमी व बरसात दोनों मौसमों के यह लिए माकूल किस्म है. यह किस्म  झुलसा बीमारी के प्रति सहनशील है. फलियों की पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

नरेंद्र लोबिया 2 : इसे एनडीसीपी-13 किस्म के नाम से भी जाना जाता है. इस के पौधे  झाड़ीनुमा, फलियां गहरी हरी, तकरीबन 27-28 सैंटीमीटर लंबी होती हैं.

फलियों की तुड़ाई 50 दिनों बाद की जा सकती है. यह खरीफ व गरमी दोनों मौसमों के लिए एक अच्छी किस्म है. इस की उत्पादन कूवत 75 से सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी उत्तम : इसे वीआरसीपी-3 के नाम से भी जानते हैं. यह एक अगेती किस्म है. पौधे सीमित बढ़वार वाले 40-45 सैंटीमीटर लंबे व सीधे होते हैं. हरी फलियां बोआई के 40-45 दिनों बाद मिलना शुरू हो जाती हैं. फलियां हरी, मुलायम, गूदेदार, 30-35 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. यह किस्म पीला वायरस, जड़ सड़न व पर्ण दाग बीमारी के प्रति रोगरोधी है. पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. फसल 120 से 130 दिनों में तैयार होती है.

काशी कंचन : इस की बोआई अक्तूबर से जनवरी महीने को छोड़ कर पूरे साल आसानी से की जाती है. पौधे सीमित बढ़वार वाले 45-50 सैंटीमीटर लंबे व सीधे होते हैं. फलियां बोआई के 50-55 दिन बाद मिलना शुरू हो जाती हैं. फलियां हरी, मुलायम, गूदेदार व 30 से 35 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. यह पीला वायरस, उकठा, जड़ सड़न व पर्णदाग बीमारी के प्रति रोगरोधी कूवत रखती है. पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. फसल 130 से 140 दिनों में पक कर तैयार होती है.

बीज की मात्रा : लोबिया का औसतन 12 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता है. गरमी की फसल में 20 किलो व बरसात की फसल के लिए 12 किलो बीज पर्याप्त रहता है.

गरमी की फसल के लिए फरवरीमार्च और बरसाती फसल के लिए जूनजुलाई का महीना बोआई के लिए माकूल है.

आमतौर पर तैयार खेत में इस के बीजों को छिटकवां तरीके से बोते हैं. अगर उन्हें लाइनों में बोया जाए तो निराईगुड़ाई वगैरह में आसानी रहती है.  झाड़ीदार व बौनी किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 40-50 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूर 10-15 सैंटीमीटर रखते हैं. इसी तरह फैलने या चढ़ने वाली किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 70-80 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूरी 20-25 सेंटीमीटर रखते हैं.

बोआई से पहले राइजोबियम बैक्टीरिया से बीज का उपचार कर लेना चाहिए. बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना बहुत ही जरूरी है. बीजों को 2-3 सैंटीमीटर गहरा बोते हैं. बोआई के तकरीबन 5-7 दिनों बाद बीज का जमाव हो जाता है. सघन पौधों को उखाड़ कर सही दूरी कर लेते हैं. बरसाती फसलों में बोआई मेड़ों पर की जाती है. इस से बीजों का जमाव व पानी का निकास अच्छा होता है, निराईगुड़ाई, कीट व फफूंदीनाशक दवाओं के छिड़काव में मदद मिलती है.

खाद : खेत की मिट्टी व फसल की जरूरत देखते हुए खाद की मात्रा तय करनी चाहिए. आमतौर पर 25- 30 क्विंटल गोबर की खाद, 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60-70 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए.

गोबर की खाद की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय और नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय मिट्टी में मिला देते हैं.

सिंचाई : लोबिया को कम सिंचाई की जरूरत होती है. इसलिए हलकी सिंचाई करनी चाहिए. आमतौर पर बरसात के मौसम में सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन गरमी मौसम में हफ्ते में एक बार सिंचाई करनी पड़ती है. फलियां बनते समय सिंचाई करना जरूरी होता है और फलियां लगने के बाद भी सिंचाई करनी चाहिए. पहली बार के फूलों से पैदा सभी हरी फलियों की तुड़ाई हो जाए, तब दोबारा सिंचाई करने से पौधों में दूसरी बार फूल पैदा होते हैं.

निराईगुड़ाई : खरपतवारों की रोकथाम व जड़ों में हवा के लिए बोआई के तकरीबन 4 हफ्ते बाद खुरपी या कुदाल से एक बार निराईगुड़ाई जरूर करनी चाहिए. कैमिकल के इस्तेमाल से खरपतवार की रोकथाम के लिए स्टांप 3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के 2 दिन के अंदर स्प्रे करना चाहिए या लासो 4 लिटर प्रति हेक्टेयर मात्रा को 750 से 800 लिटर पानी में मिला कर बोआई के फौरन बाद स्प्रे करें. ऐसा करने से 30-45 दिनों तक खरपतवारों का जमाव नहीं हो पाता है.

तुड़ाई व पैदावार : सब्जी के लिए फलियों को नरम अवस्था में यानी रेशा बनने के पहले तोड़ते हैं. देर से तुड़ाई करने पर फलियों में रेशे पड़ जाते हैं, जिस में बाजार में कम कीमत मिलती है. लोबिया में 3-4 बार फलत होती है और एक फलत में तकरीबन 4 बार तुड़ाई होती है. सहारा देने वाली किस्मों में 7-8 तुड़ाई की जाती हैं. अगेती किस्मों में बोआई के 45 दिन बाद व पछेती किस्मों में बोआई के सौ दिन बाद फलियों की तुड़ाई शुरू की जा सकती है.

हरे चारे की खेती

भारत के जो किसान खेती के साथ पशुपालन भी करते हैं, उन के लिए दुधारू पशुओं और पालतू पशुओं  के लिए हरे चारे की समस्या से दोचार होना पड़ता है. बारिश में तो हरा चारा खेतों की मेंड़ या खाली पड़े खेतों में आसानी से मिल जाता है, परंतु सर्दी या गरमी में पशुओं के लिए हरे चारे का इंतजाम करने में परेशानी होती है. ऐसे में किसानों को चाहिए कि  खेत के कुछ हिस्से में हरे चारे की बोवनी करें, जिस से अपने पालतू पशुओं को हरा चारा सालभर मिलता रहे.

पालतू पशुओं के लिए हरे चारे की बहुत कमी रहती है, जिस का दुधारू पशुओं की सेहत व दूध उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है. इस समस्या के समाधान के लिए जायद में बहु कटाई वाली ज्वार, लोबिया, मक्का और बाजरा वगैरह फसलों को चारे के लिए बोया जाता है.

हालांकि मक्का, ज्वार जैसी फसलों से केवल 4-5 माह ही हरा चारा मिल पाता है, इसलिए किसान कम पानी में 10 से 12 महीने हरा चारा देने वाली फसलों को चुन सकते हैं.

जानकार किसान बरसीम, नेपियर घास, रिजका वगैरह लगा कर हरे चारे की व्यवस्था सालभर बनाए रख सकते हैं.

बरसीम

पशुओं के लिए बरसीम बहुत ही लोकप्रिय चारा है, क्योंकि यह बहुत ही पौष्टिक व स्वादिष्ठ होता है. यह साल के पूरे शीतकालीन समय में और गरमी के शुरू तक हरा चारा मुहैया करवाती है.

पशुपालन व्यवसाय में पशुओं से बहुत ज्यादा दूध उत्पादन लेने के लिए हरे चारे का खास महत्त्व है. पशुओं के आहार पर तकरीबन 70 फीसदी खर्च होता है और हरा चारा उगा कर इस खर्च को कम कर के ज्यादा फायदा कमाया जा सकता है.

गाडरवारा तहसील के अनुविभागीय अधिकारी केएस रघुवंशी बताते हैं कि बरसीम सर्दी के मौसम में पौष्टिक चारे का एक उत्तम जरीया है. इस में रेशे की मात्रा कम और प्रोटीन की औसत मात्रा 20 से 22 फीसदी होती है. इस के चारे की पाचनशीलता 70 से 75 फीसदी होती है. इस के अलावा इस में कैल्शियम और फास्फोरस भी काफी मात्रा में पाए जाते हैं. इस के चलते दुधारू पशुओं को अलग से खली, दाना वगैरह देने की जरूरत कम पड़ती है.

Green fodderनेपियर घास

किसानों के बीच नेपियर घास तेजी से लोकप्रिय हो रही है. गन्ने की तरह दिखने वाली नेपियर घास लगाने के महज 50 दिनों में विकसित हो कर अगले 4 से 5 साल तक लगातार दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक आहार की जरूरत को पूरी कर सकती है.

पशुपालकों को एक बार नेपियर घास लगाने पर 4-5 साल तक हरा चारा मिल सकता है. इसे मेंड़ पर लगा कर खेत में दूसरी फसलें उगा सकते हैं. 50 दिनों में फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है और इस में सिंचाई की जरूरत भी नहीं पड़ती है.

पशुपालन विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि प्रोटीन और विटामिन से भरपूर नेपियर घास पशुओं के लिए एक उत्तम आहार की जरूरत को पूरा करता है. दुधारू पशुओं को लगातार यह घास खिलाने से दूध उत्पादन में भी वृद्धि के साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है. खेत की जुताई और समतलीकरण यानी एकसार करने के बाद नेपियर घास की जड़ों को 3-3 फुट की दूरी पर रोपा जाता है.

नेपियर घास का उत्पादन प्रति एकड़ तकरीबन 300 से 400 क्विंटल होता है. इस घास की खूबी यह है कि इसे कहीं भी लगाया जा सकता है. एक बार घास की कटाई करने के बाद उस की शाखाएं फिर से फैलने लगती हैं और 40 दिन में वह दोबारा पशुओं के खिलाने लायक हो जाता है. प्रत्येक कटाई के बाद घास की जड़ों के आसपास गोबर की सड़ी खाद या हलका यूरिया का छिड़काव करने से इस में तेजी से बढ़ोतरी होती है.

रिजका

यह किस्म चारे की एक अहम दलहनी फसल है, जो जून माह तक हरा चारा देती है. इसे बरसीम की अपेक्षा सिंचाई की जरूरत कम होती है. रिजका को 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 20 से 30 सैंटीमीटर के अंतर से लाइनों में बोआई करनी चाहिए.

अक्तूबर से नवंबर माह के मध्य का समय बोआई के लिए सब से अच्छा माना जाता है.

रिजका अगर पहली बार बोया गया है, तो रिजका कल्चर का प्रयोग करना चाहिए. यदि कल्चर उपलब्ध न हो तो जिस खेत में पहले रिजका बोया गया है, उस में से

ऊपरी परत से 30 से 40 किलोग्राम मिट्टी निकाल कर जिस में रिजका बोना है, उस में मिला देना चाहिए.

कम पानी में भी होगी जवाहर विसिया 1 

जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर के कृषि वैज्ञानिकों ने हरे चारे की एक नई किस्म खोजी है. कम पानी में उगने वाली हरे चारे की इस नई प्रजाति को जवाहर विसिया 1 नाम दिया गया है.

यह एक कटाई वाली दलहनी फसल है, जो 90 से 95 दिनों में चारे के लिए तैयार हो जाती है. एक हेक्टेयर जमीन में 240 से 260 क्विंटल हरे चारे के साथ 50 से 55 क्विंटल सूखे चारे का उत्पादन इस से होगा. इस चारे में 15 फीसदी तक प्रोटीन रहने के चलते यह पशुओं के लिए पौष्टिक है. दुधारू पशुओं में दूध की मात्रा बढ़ाने में यह चारा उपयोगी होगा.

जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर के वाइस चांसलर डाक्टर पीके विसेन ने बताया कि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों डाक्टर एके मेहता, डाक्टर एसबी दास, डाक्टर एसके बिलैया, डाक्टर पुष्पेंद्र यादव और डाक्टर अमित ?ा के सम्मिलित प्रयासों से एक लंबे अनुसंधान के बाद यह किस्म विकसित की गई है. कम पानी वाले या सूखाग्रस्त इलाकों के लिए चारे की यह किस्म वरदान साबित होगी.

अखिल भारतीय चारा अनुसंधान परियोजना की ओर से इंफाल, मणिपुर में आयोजित नैशनल सैमिनार में हरे चारे की इस किस्म को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के लिए अनुमोदित किया गया है.