Brinjal: अब बैगन खाने से नहीं होगी एलर्जी

Vegetables : बैगन (Brinjal) एक ऐसी भारतीय सब्जी जो हमेशा अपने लाजवाब स्वाद के लिए जानी जाती है. किसी को बैगन (Brinjal) का भरता पसंद है, तो किसी को भरवां बैगन (Brinjal) पसंद है.खास कर बिहार में तो बैगन (Brinjal) की खासी मांग है, क्योंकि वहां का एक खास व्यंजन है, लिट्टी चोखा. जिस का स्वाद बैगन के बिना अधूरा है.

पिछले दोनों बिहार कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की टीम ने 7 साल के शोध के बाद इस नए किस्म के बैगन (Brinjal) की खोज की है, जिस का नाम ‘सबौर कृष्णकली’ रखा गया है. बैगन की इस प्रजाति का बड़ा ही सुंदर नाम है. जैसा नाम से ही पता चलता है कि यह कोई बड़ी ही गुणकारी और स्वादिष्ट चीज होगी. जी हां, यहां ऐसी ही है. बैगन (Brinjal) की इस ‘कृष्णकली’ वैरायटी में नुकसान पहुंचाने वाले बीटी के लक्षण नहीं हैं.

इस के अलावा बैगन (Brinjal) को सड़ाने वाली फिमोसिस बीमारी भी इस में कम होती है. इस की खास बात यह है कि बीजों की संख्या कम होने के कारण बैगन (Brinjal) से एलर्जी वाले व्यक्ति भी इस का सेवन कर सकते हैं. हम लोगों की ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा बीज वाले बैगन को अकसर बिजारे बैगन भी कह देते हैं, जिसे लोग कम पसंद करते हैं. लेकिन ये वैरायटी सभी को पसंद आएगी, क्योंकि इस में गुण ही ऐसे हैं.

‘सबौर कृष्णकली’ बैगन न सिर्फ स्वाद और गुणवत्ता में बेहतर है बल्कि, इस की उत्पादकता भी अब तक प्रचलित बैगन की प्रजातियों से काफी अधिक है.

मिलेगी अधिक उपज

अगर इस की खेती वैज्ञानिक तरीके से की जाए तो इस की उत्पादकता 430 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होगी. आमतौर पर सामान्य किस्म के बैगन की उत्पादकता 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर ही होती है. इस किस्म की खासियत यह है कि इस के 170 से 180 ग्राम साइज के फल में बीजों की अधिकतम संख्या 50 से 60 ही होती है. वहीं दूसरी प्रजाति के बैगनों में 200 से 500 की संख्या तक बीज होते हैं.

वैज्ञानिकों के अनुसार बैगन से आमतौर पर कई लोगों को एलर्जी होती है. क्योंकि कुछ लोगों को यह एलर्जी बैगन के बीजों के कारण ही होती है. ऐसे में यह कम बीज वाला बैगन उन के लिए भी उपयुक्त होगा, जिन को बैगन खाने से एलर्जी होती है.

इस की खेती सामान्य बैगन की तरह खरीफ से ठंड के मौसम तक यानी 8 महीने तक की जा सकती है. ‘कृष्णकली बैगन’ स्वाद में मजेदार और अधिक पैदावार देने वाली फसल के साथ ही गुणवत्ता के साथ एक बार लगाने पर लंबे समय तक उपज भी देती है.

Crop Diversification : फसल विविधीकरण खेती से ज्यादा मुनाफा

Crop Diversification : आज कल दिनोदिन खेती के तौरतरीकों में बदलाव आ रहा है. किसान कम समय में अधिक मुनाफा लेना चाहते हैं. फसल विविधीकरण ऐसी ही एक तकनीक है जो कम समय में अधिक मुनाफा दे सकती है. इन दिनों किसान परंपरागत खेती से अलग फसल विविधीकरण खेती की ओर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं. विशेषज्ञों का भी मानना है कि किसान फसल विविधीकरण खेती को अपना कर अपनी आय बढ़ा सकते हैं.

अब फसल विविधीकरण के फायदों को देखते हुए सरकार भी 2 हेक्टेयर या उस से कम जमीन वाले छोटे किसानों को इसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है. ताकि, कम रकबे वाले किसान भी कम जमीन में ही अलगअलग फसल लगा कर अधिक पैदावार ले कर अपनी आमदनी बढ़ा सकें.

क्या है फसल विविधीकरण?

फसल विविधीकरण खेती की एक ऐसी तकनीक है, जिस में विभिन्न तरह की फसल अथवा एक ही फसल की अनेक किस्में लगा कर खेती की जाती है. इस पद्धति में किसान कुछ अंतराल के बाद एक फसल को किसी अन्य फसल से बदल कर फसल विविधता के चक्र को बनाए रखने का काम करते हैं. सरल शब्दों में कहा जाए तो खेती की इस खास विधि से किसान एक ही खेत में अलगअलग फसलों की खेती कर सकते हैं.

फसल विविधीकरण से बढ़ेगी आमदनी

एक ही खेत में एक साथ कई फसलों को बोने से पानी, श्रम और पैसों की बचत तो होती ही है. साथ ही, एक ही खेत में कम जगह में ही अलगअलग फसलों से अच्छी पैदावार भी मिल जाती है.

फसल विविधीकरण से बढ़ती है मिट्टी की उर्वरता क्षमता

फसल विविधीकरण तकनीक से खेती करना किसानों के लिए मुनाफे का सौदा है. क्योंकि, यह तकनीक मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में भी कारगर है. एक ही खेत में लगातार हर साल एक ही फसल बोने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है. इसलिए फसल बदलबदल कर खेती करने से मिट्टी के उपजाऊपन में सुधार होता है. ऐसे में मिट्टी की सेहत को सुधारने के लिए फसल विविधीकरण अपना कर कम लागत में अधिक उत्पादन लिया जा सकता है. अगर मिट्टी की सेहत सुधरती है, तो इस से खेत जल्दी बंजर नहीं होंगे और उस भूमि पर लंबे समय तक खेती की जा सकेगी और फसल से पैदावार भी अधिक मिलेगी.

इस के साथ ही, फसल विविधीकरण खेती से पर्यावरण में सुधार के साथ पानी की भी बचत होती है. इसलिए कम जोत वाले किसानों के लिए यह एक मुनाफा देने वाली तकनीक है और किसान कम जगह में भी अच्छा मुनाफा ले सकते हैं.

Awards : उन्नत खेती करने वालों को मिला ‘फार्म एन फूड अवार्ड’

Awards : उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले के बांसी में 25 जून 2024 को किसान सम्मान समारोह का आयोजन किया गया, जिस में उन्नत खेती करने वाले किसानों को ‘फार्म एन फूड अवार्ड’ से सम्मानित किया गया.

इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जिला परियोजना निदेशक प्रदीप पांडेय व विशिष्ठ अतिथि उप कृषि निदेशक डा. राजीव कुमार थे.

समारोह के मुख्य अतिथि प्रदीप पांडेय ने कहा कि जिले में किसानों के प्रति ऐसा कार्यक्रम सुखद अनुभूति पैदा कर रहा है. आने वाले समय में इस तरह के आयोजन समयसमय पर होते रहने चाहिए. इन से किसानों में नया जोश और नई क्रांति का संचार होगा.

विशिष्ठ अतिथि डा. राजीव कुमार ने कहा कि किसान देश की सवा अरब आबादी के पेट भरने का जिम्मा अपने कंधे पर ले कर चल रहे हैं. ऐसे में उन का सम्मान करना बहुत जरूरी है. उन्होंने कृषि से संबंधित अनेक जानकारियां भी किसानों को दीं.

Awards

कार्यक्रम में कृषि वैज्ञानिक डा. एसके तोमर, डा. एके पांडेय, एसके मिश्रा और कार्यक्रम संयोजक मंगेश दुबे के अलावा पूर्व विधायक ईश्वर चंद्र शुक्ला, श्रीधर मिश्र, मृत्युंजय मिश्र व सचिंद्र शुक्ला आदि भी मौजूद थे.

दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन समूह की नामीगिरामी कृषि पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ एक लंबे अरसे से किसानों के हितों के लिए काम कर रही है. इस पत्रिका के जरीए देश के मशूहर कृषि वैज्ञानिक किसानों को खेती की नई से नई जानकारियां मुहैया कराते रहते हैं.

अपने जानकारी भरे लेखों के जरीए कृषि वैज्ञानिक किसानों की कदमकदम पर मदद करते हैं. इस के अलावा वे किसानों के तमाम सवालों के जवाब भी ‘फार्म एन फूड’ के जरीए देते हैं. पत्रिका द्वारा किसानों को दिए जाने वाले अवार्ड काफी मशहूर हो रहे हैं.

Onion : गरमी का कवच है प्याज

Onion : प्याज काटते वक्त अकसर आंखों में आंसू आ जाते हैं, मगर आंखें भर देने वाला प्याज गुणों से भी भरपूर होता है. इस में पाए जाने वाले औषधीय तत्त्व सेहत के लिहाज से लाजवाब होते हैं. गरमी के जालिम मौसम में कच्चे प्याज का असर किसी अमृत से कम नहीं होता.

प्याज को सही मानों में गरमी का कवच कहा जा सकता है. यह हमारे शरीर को गरमी के मौसम में ठंडक पहुंचाता है. इस की असरदार तासीर गरमी की तमाम तकलीफों को दूर करने की कूवत रखती है, खासतौर पर मईजून की भयंकर लू के खिलाफ प्याज का कवच बेहद कारगर साबित होता है. खाने में रोजाना कच्चा प्याज शामिल करने से लू लगने का खतरा जड़ से गायब हो जाता है.

वैसे तो तमाम लोग सलाद में कच्चा प्याज शौक से खाते हैं, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें कच्चा प्याज खाने से परहेज होता है. दरअसल, ऐसे लोग चाह कर भी कच्चा प्याज नहीं खा पाते. कच्चा प्याज खाने से ऐसे लोगों का जी कच्चाकच्चा सा होने लगता है.

ऐसे नाजुक मिजाज लोग कच्चे प्याज की महक को झेल नहीं पाते. इस में दिक्कत वाली कोई बात नहीं है. ऐसे लोगों के लिए प्याज का लाभ उठाने का दूसरा रास्ता हाजिर है. साबुत प्याज को छिलके सहित थोड़ा सा बेक कर लें. इस के बाद उसे छील कर सलाद के रूप में खाएं. बेक किए गए प्याज का स्वाद काफी अच्छा लगता है.

वैसे प्याज की गंध से हैरानपरेशान होने वाले लोग ज्यादा नहीं होते, लिहाजा यह मसला बहुत कम सामने आता है. आमतौर पर तो खूबियों से भरपूर प्याज को लोग बहुत ही शौक से खाते हैं. एक गोपाल मामा थे. उन का लंच और डिनर देख कर लोग दंग रह जाते थे, क्योंकि दोनों वक्त वे 5-5 प्याज 2-2 टुकड़ों में कर के अपनी प्लेट में रखते थे और दालचावल सब्जीरोटी के साथ सारा प्याज जायका लेले कर चट कर जाते थे. यकीनन गोपाल मामा की सेहत बहुत अच्छी थी और कभी किसी ने उन्हें बीमार पड़ते नहीं देखा.

हकीकत तो यह है कि बगैर प्याज के लजीज नमकीन पकवानों की कल्पना भी नहीं की जाती. मटनचिकन व फिश से जुड़े तमाम पकवानों में भरपूर मात्रा में प्याज का इस्तेमाल किया जाता है. उम्दा किस्म की सभी सब्जियों में प्याज डाला जाता है.

हर तरह के सलाद में जरूरी तौर पर प्याज शामिल रहता है. इसी तरह भीगे मौसम में बनने वाले पकौड़ों में भी प्याज अव्वल नंबर पर पसंद किया जाता है. जब प्याज 100 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है, तब भी प्याज के कायल उस के बगैर रह नहीं पाते और किसी नशेड़ची की तरह अपनी गाढ़ी कमाई महंगे प्याज पर लुटाते हैं.

झुग्गीझोंपड़ी में रहने वाले लोग भी और चाहे कुछ न खाएं पर मोटीमोटी रोटियों के साथ प्याज खाने से नहीं चूकते. भले ही उन्हें कच्चे प्याज के औषधीय गुणों की जानकारी नहीं होती, पर वे उसे जानेअनजाने में खाते छक कर हैं. अलबत्ता जब प्याज बहुत महंगा हो जाता है, तब उन्हें उसे न खा पाने का बहुत ही ज्यादा मलाल रहता है.

औषधीय गुण

लहसुन की तरह ही प्याज में औषधीय गुण बेहिसाब होते हैं. पुराने जमाने में प्याज का इस्तेमाल प्लेग और कालरा जैसी खतरनाक बीमारियों के इलाज में किया जाता था. यह इलाज खासा कारगर साबित होता था. इतिहास के मुताबिक रोमन सम्राट नेरो सर्दी के मौसम में ठंड से बचाव के लिए प्याज का सेवन करते थे. प्याज की अहमियत से जुड़े ऐसे और भी वाकए इतिहास में दर्ज हैं.

गांवों में आज भी प्याज का तरहतरह से इस्तेमाल किया जाता है. गांव के लोग आमतौर पर डाक्टरी इलाज कम पसंद करते हैं, लिहाजा प्याज जैसी चीजें उन्हें काफी रास आती हैं. खांसी व सर्दीजुकाम जैसी तकलीफों में प्याज को काफी कारगर माना जाता है. वैद्य लोग लू व अस्थमा जैसी तकलीफों के इलाज में भी प्याज का बाकायदा इस्तेमाल करते हैं. गांवों में प्याज को लू के खिलाफ बेहद कारगर माना जाता है. लू से बचने के लिए गांव के लोग अपनी जेब में साबुत प्याज ले कर घर से बाहर निकलते हैं. अगर लू लग जाती है, तो प्याज और पोदीने का अर्क बतौर दवा बेहद कारगर साबित होता है.

वैज्ञानिकों के मुताबिक कच्चा प्याज खाना ज्यादा फायदेमंद होता है. भले ही इस का जायका कुछ तीखा होता है, पर इस का असर कमाल का होता है. कच्चे प्याज में आर्गेनिक सल्फर कंपाउंड और एक किस्म का तेल होता है. ये चीजें सेहत के लिहाज से फायदेमंद होती हैं. ये खूबियां पके प्याज में खत्म हो जाती हैं.

न्यूट्रीशनिस्ट कविता देवगन के मुताबिक आंत की सेहत के लिए प्रोबायोटिक जरूरी है. मगर प्रोबायोटिक को पचाने के लिए प्रीबायोटिक की जरूरत होती है और प्रीबायोटिक का काम करते हैं प्याज, लहसुन, राई और जौ. इसीलिए प्याज की अहमियत और बढ़ जाती है. प्याज में क्रोमियम भी होता है, जो ब्लडशुगर को नियमित करता है और डायबिटीज से हिफाजत करता है. इस में पाया जाने वाला बायोटिन त्वचा, बाल, लीवर व नर्वस सिस्टम के लिए जरूरी होता है. बायोटिन आंखों के लिए भी जरूरी है. लिहाजा ज्यादा से ज्यादा कच्चा प्याज खाना चाहिए. अगर कच्चा प्याज खाना हो, तो उसे काटने के बाद फौरन खा लेना चाहिए, क्योंकि कुछ देर रखा रहने से उस का असर कम हो जाता है.

Sandwich :जम्मू का कल्हाड़ी कुल्चा: पनीर ब्रेड सैंडविच

Sandwich : जम्मू कश्मीर देश का सब से मशहूर पर्यटन क्षेत्र है. पूरी दुनिया के लोग यहां घूमने आते हैं. जम्मू में वैसे तो खाने की बहुत सी चीजें मिलती हैं, पर कल्हाड़ी कुल्चा यहां की सब से खास खाने की डिश है. इसे यहां का स्ट्रीट फूड भी कह सकते हैं. जम्मू से श्रीनगर और पटनी टौप जाने के रास्ते में पड़ने वाली खाने की दुकानों में सब से ज्यादा कल्हाड़ी कुल्चा बिकता है. जब ब्रेड और पाव का चलन कम था, तो यह 2 रोटियों यानी कुल्चों के बीच रख कर तैयार किया जाता था.

अब यह ब्रेड या पाव के साथ रख कर तैयार होता है. यह एक तरह से पनीर ब्रेड सैंडविच होता है. पनीर का इस्तेमाल होने से यह खाने में बहुत टेस्टी और पौष्टिक होता है. इसे खाने के बाद देर तक भूख नहीं लगती है. पर्यटकों द्वारा पसंद किए जाने की वजह से इस की बहुत सारी दुकानें यहां मिलती हैं. यह रोजगार का अच्छा साधन बन गया है.

कल्हाड़ी कुल्चा बनाने के लिए दूध, नीबू का रस, ब्रेड, चाट मसाला, मीठी चटनी और कटे हुए प्याज की जरूरत पड़ती है. इसे बनाने के लिए सब से पहले दूध को गरम कर के ठंडा होने के लिए रख दें. इस में नीबू का रस डाल दें, जिस से दूध पनीर की तरह जम जाएगा और उस का पानी अलग हो जाएगा. दूध को सफेद कपड़े में बांध लें और जब इस का पानी निकल जाए तो तैयार पनीर को नीबू के आकार में गोलगोल कई हिस्सों में बांट लें. इस के बाद हाथ से दबा कर रोटी जैसा बना लें. अब इसे ठंडा होने के लिए फ्रिज या बरफ में रख दें. जब यह पूरी तरह से ठंडा हो जाए तो इस का कल्हाड़ी कुल्चा तैयार किया जा सकता है. खाने के लिए देने से पहले ब्रेड या पाव के बीच में 1 पीस गोल आकार वाले पनीर को रखते हैं. इस के बाद ब्रेड या पाव को फ्राईपैन पर रख कर गरम करते हैं.

गरम होने से पनीर पिघल जाता है. अब ब्रेड के ऊपर चाट मसाला डाल दिया जाता है, जिस से ब्रेड का टेस्ट बढ़ जाता है. इस के साथ खाने के लिए कटे हुए प्याज को मीठी चटनी में डाल कर दिया जाता है. मीठी चटनी और प्याज के साथ कल्हाड़ी कुल्चा खाने में बहुत टेस्टी लगता है.

उधमपुर जिले के बंसा बाजार में कल्हाड़ी कुल्चा की दुकान चलाने वाले सोहनलाल शर्मा कहते हैं कि 4 लीटर दूध में पनीर के 16 पीस तैयार होते हैं. 2 ब्रेड स्लाइसों के बीच पनीर का 1 गोल पीस रख कर फ्राई किया जाता है. इस के ऊपर चटपटा नमक डाल कर खाने के लिए दिया जाता है. साथ में मीठी चटनी और कटे प्याज के टुकड़े कल्हाड़ी कुल्चा के स्वाद को और बढ़ा देते हैं. 1 प्लेट कल्हाड़ी कुल्चा का दाम 30 से 40 रुपए के बीच होता है. इसे स्नैक्स के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. कल्हाड़ी कुल्चा केवल जम्मू और आसपास के शहरों में ही मिलता है.

Agricultural Machinery : निराईगुड़ाई व जुताईबोआई कृषि यंत्र

Agricultural Machinery  : हमारे देश की खेती पशुओं पर निर्भर रही है, लेकिन अब किसान खेती के नएनए तौरतरीके अपना रहे हैं. पहले निराईगुड़ाई जैसे काम के लिए काफी मजदूर लगाने पड़ते थे. समय बदलने लगा और मजदूरों की जगह मशीनों ने ले ली. कृषि मशीन निर्माता व अनेक संस्थाएं खेती की मशीनें बनाने लगे, जिन से किसानों का काम आसान हुआ.

अभी हाल ही में हमारे अनेक पाठकों ने निराईगुड़ाई की मशीन के बारे में जानकारी मांगी. उसी के संदर्भ में कुछ खास जानकारी :

‘पूसा’ पहिए वाला हो वीडर

यह बहुत साधारण प्रकार का कम कीमत का यंत्र है. इस यंत्र में खड़े हो कर निराईगुड़ाई की जाती है. इस का वजन लगभग 8 किलोग्राम है व इसे आसानी से फोल्ड कर के कहीं भी ले जाया जा सकता है. इस यंत्र को खड़े हो कर आगेपीछे धकेल कर चलाया जाता है. निराईगुड़ाई के लिए लगे ब्लेड को गहराई के अनुसार ऊपरनीचे किया जा सकता है. पकड़ने में हैंडल को भी अपने हिसाब से एडजस्ट कर सकते हैं. यह कम खर्चीला यंत्र है.

‘पूसा’ चार पहिए वाला वीडर

एकसार खेत से कतार में बोई गई उस फसल से खरपतवार निकालने के लिए यह अच्छा यंत्र है, जिन पौधों की कतारों के बीच की दूरी 40 सेंटीमीटर से अधिक है, क्योंकि इस मशीन का फाल 30 सेंटीमीटर चौड़ा है. इस मशीन को पकड़ कर चलाने वाले हैंडल को भी अपनी सुविधा के हिसाब में एडजस्ट कर सकते हैं.

इस यंत्र का वजन लगभग 11-12 किलोग्राम है. इसे फोल्ड कर के आसानी से उठा कर कहीं भी ले जाया जा सकता है. यह भी पूसा कृषि संस्थान, नई दिल्ली द्वारा बनाया गया है.

उपरोक्त दोनों यंत्र कृषि अभियांत्रिकी संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा, नई दिल्ली द्वारा बनाए गए हैं. इन के लिए आप इस संस्थान से संपर्क कर सकते हैं.

पावर टिलर द्वारा चालित यंत्र

यह कतार में बोई गई सोयाबीन, चना, अरहर, ज्वार, मक्का, मूंग आदि फसलों में निराईगुड़ाई के लिए उपयोगी यंत्र है. इस यंत्र को 8-10 हार्सपावर के पावर टिलर में जोड़ कर चलाया जाता है. इस की अनुमानित कीमत 1800 रुपए है.

यह यंत्र केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल द्वारा निर्मित है. आप इन के फोन नं. 2521133, 0755-2521139 पर संपर्क कर सकते हैं.

छोटा पावर वीडर

पैट्रोल से चलने वाला यह छोटा पावर वीडर निराईगुड़ाई के लिए अच्छा यंत्र है. इस में 2 स्ट्रोक इंजन लगा होता है. इस से 3 से 4 इंच गहराई तक निराईगुड़ाई होती है. इस के लिए जमीन में ल गभग 25 फीसदी नमी होना जरूरी है. इस यंत्र की कीमत तकरीबन 16 हजार रुपए है.

इस के अलावा 5 हार्स पावर के डीजल इंजन के साथ लगा कर चलाने वाले कई और वीडर भी उपलब्ध हैं, जिन की शुरुआत 65 हजार रुपए से होती है और मशीन के कूवत के हिसाब से यह कीमत बढ़ती जाती है.

डीजल इंजन के साथ अनेक मशीनें जैसे लैवलर, स्प्रे पंप, रोटावेटर, सीड ड्रिल आदि को जोड़ कर खेती के काम किए जा सकते हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप राघवेंद्र कुमार से उन के मोबाइल नंबर 09670632555 पर बात कर सकते हैं.

इस के अलावा बीसीएस इंडिया प्रा. लि. लुधियाना, पंजाब की कंपनी भी वीडर मशीन बना रही है, जिस का कृषि यंत्र निर्माताओं में अच्छा नाम है.

आप इन से भी इन के फोन नं. 08427800753 पर बात कर के तफसील से पूरी जानकारी ले सकते हैं.

Farming Machine : मशीन से करें अरवी की धुलाई

Farming Machine : अरवी की खुदाई करने के बाद उस पर काफी मिट्टी लगी होती है, जिस की हाथों से धुलाई करना एक मुश्किल काम है और उस में समय भी ज्यादा लगता है. साथ ही मजदूरी भी ज्यादा लगती है. यही काम अगर मशीन से करें तो कम समय में ज्यादा काम निबटाया जा सकता है.

अरवी की धुलाई करने के लिए हरियाणा के महावीर जांगड़ा ने मशीन बनाई है, जो 2 साइजों में है. पहला साइज 12 फुट लंबाई में और दूसरा साइज 14 फुट लंबाई में है. इस मशीन में 10 हार्स पावर का डीजल इंजन भी लगा होता है.

इस मशीन से 1 घंटे में 40 से 50 क्विंटल तक अरवी की धुलाई की जा सकती है और इस मशीन में एक बार पानी भरने के बाद उस पानी को 4-5 दिनों तक इस्तेमाल में लिया जा सकता है, इसलिए पानी की भी खपत कम होती है.

अरवी के अलावा इस मशीन से गाजर, अदरक व हलदी जैसी अन्य फसलों की भी धुलाई की जाती है. यह मशीन अकसर अन्य मशीन निर्माताओं के पास उपलब्ध नहीं होती है, इसलिए यह मशीन अपनेआप में खास हो जाती है.

इस धुलाई मशीन से किसान अपने काम तो पूरे करता ही है, साथ ही आसपास के किसानों का भी काम कर के अच्छी कमाई कर सकता है. मशीन को किराए पर दे कर भी आमदनी बढ़ाई जा सकती है.

इस मशीन के बारे में यदि आप ज्यादा कुछ जानना चाहते हैं, तो अमन विश्वकर्मा इंजीनियरिंग वर्क्स के फोन नंबरों पर 09896822103, 09813048612, 01693-248612, 09813900312 पर बात कर सकते हैं.

Apple Farming : मैदानी इलाकों में सेब की बागबानी

Apple Farming : सेब की बागबानी आमतौर पर पहाड़ी इलाकों में ही की जाती है. इस वजह से सेब को पहाड़ी फल माना जाता है. भारत में सेब की बागबानी आमतौर पर हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और उत्तराखंड में की जाती है. पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड में भी अब सेब की बागबानी की जा रही है.

पहाड़ी इलाकों में ऊंचाई के मुताबिक सेब की अलगअलग प्रजातियां उगाई जाती हैं. इन प्रजातियों में फूल केवल उन्हीं दशाओं में होता है, जब उन को मौसम के मुताबिक 800 से 1500 घंटे की ठंडी इकाइयां यानी चिलिंग यूनिट्स मिल जाती हैं. ठंडी इकाइयों की गिनती तापमान के 7 डिगरी सैल्सियस से नीचे आने पर शुरू होती है. ठंड की उक्त परिस्थितियां केवल शीतोष्ण जलवायु में ही मुनासिब होती हैं इसलिए सेब की बागबानी को शीतोष्ण जलवायु के इलाके में किया जाता रहा है.

मैदानी इलाकों में सेब की बागबानी के लिए विदेशी शोध संस्थानों ने कुछ प्रजातियां ईजाद की थीं, पर उन का भारत की उपोष्ण जलवायु में जांच न होने के चलते इस के बारे में अभी तक जागरूकता नहीं थी.

सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पुराने परिसर पर डाक्टर अरविंद कुमार के मुताबिक, शोध अनुसंधान पर फलों पर आधारित कृषि प्रणाली विकसित करने के लिए अध्ययन किया गया. इस के तहत सेब की कम ठंडी वाली प्रजातियों जिन की फूल के लिए ठंडी इकाइयों की जरूरत केवल 250 से 300 घंटों की होती है, का परीक्षण उपोष्ण जलवायु में किया गया.

अध्ययन से हासिल नतीजों से यह भरम टूट गया कि सेब की बागबानी पहाड़ी इलाकों में ही की जा सकती है.

संस्थान में हुए अध्ययन के मुताबिक, अगर सही प्रजाति को चुन कर सेब की बागबानी उपोष्ण जलवायु इलाकों में की जाए तो कामयाबी मिल सकती है. यह अध्ययन उपोष्ण इलाकों में कृषि एवं बागबानी में विविधीकरण के एक नए विकल्प के तौर पर उभरा है.

मिट्टी व खेत की तैयारियां

बागबानी करने वाले किसानों को यह सलाह दी जाती है कि सेब लगाने से पहले मिट्टी जांच जरूर करानी चाहिए. इस से पोषक तत्त्वों की कमी को दूर करने के लिए जरूरी संशोधन का निर्धारण करने में मदद मिलेगी और मिट्टी का पीएच मान 6.0-7.0 हो, बेहतर है.

सेब के पौधों को अच्छी नमी और पोषक तत्त्वों की धारण क्षमता के साथ गहरी और अच्छी तरह से गीली बलुई मिट्टी की जरूरत होती है. पानी जमा नहीं होना चाहिए और उचित जल निकास वाली मिट्टी सेब की खेती के लिए मुनासिब होती है.

जाड़े के मौसम में इस प्रजाति को फूल के लिए जरूर 250-300 शीतलन इकाइयों यानी चिलिंग यूनिट्स चाहिए. इन्हें सूरज की रोशनी की कम से कम 6 घंटे की जरूरत होती है. इसलिए उत्तर या पूर्व दिशा से रोशनी की उपलब्धता में कोई व्यवधान नहीं होना चाहिए. उस जगह को चुनें.

मैदानी इलाकों में सेब की मुनासिब प्रजातियां

मैदानी इलाकों में बागबानी के लिए सेब की कई प्रजातियों के नाम हैं. इन प्रजातियों का प्रचारप्रसार और क्षेत्र विस्तार नहीं हो सका. इस की 2 मुख्य वजह थीं. पहली वजह यह कि इन प्रजातियों के मैदानी इलाकों में प्रक्षेत्र मूल्यांकन के आंकड़ों की अनुपलब्धता थी. इस अनुपलब्धता की वजह यह थी कि सेब व दूसरी शीतोष्ण फलों पर शोध करने वाले ज्यादातर संस्थान पर्वतीय इलाकों में सीमित हैं. दूसरी वजह यह कि इन की रोपण सामग्री की कमी.

कम ठंड की जरूरत वाली प्रजातियां : अन्ना, डौर्सेट गोल्डन, एचआरएमएन 99, इन भोमर, माइकल, बेवर्ली हिल्स, पार्लिंस ब्यूटी, ट्रौपिकल ब्यूटी, पेटिंगिल, तम्मा वगैरह. संस्थान में अन्ना, डौर्सेट गोल्डन व एचआरएमएन 99 प्रजाति के पौधों को लगाया गया है. उन पर हुए 3 सालों के अध्ययन से मिली जानकारी को बताया जा रहा है:

अन्ना : यह प्रजाति गरम जलवायु में अच्छी तरह से विकसित होती है और बहुत जल्दी पक कर तैयार होती है. पहाड़ी इलाकों में होने वाली सेब की प्रजातियों को फूल और फल के लिए कम से कम 500 घंटे की ठंडी इकाइयों की जरूरत होती है, जबकि इस प्रजाति को महज 250-300 घंटों की ठंडी इकाइयों की जरूरत होती है.

इस प्रजाति के पौधे प्रक्षेत्र रोपण के एक साल बाद फूल आना शुरू हो जाता है. फूल फरवरी माह के पहले हफ्ते से शुरू होता है जो तकरीबन एक माह तक चलता है. जून में ये फूल पक जाते हैं. फल देखने में गोल्डन डिलीशियस जैसे लगते हैं. यह जल्दी और अधिक फल वाली किस्म है. ताजा फलों के रूप में इन का इस्तेमाल सही रहता है. जून माह में सामान्य तापमान पर तकरीबन 7 दिनों तक इन का भंडारण किया जा सकता है.

डौर्सेट गोल्डन : यह सेब की गोल्डन डिलीशियस जैसी प्रजाति है जो गरम इलाकों के लिए विकसित की गई है. यहां ठंडे मौसम में 250 से 300 घंटों की ठंडी इकाइयां मिल सकें.

यह भी इजराइल द्वारा विकसित की गई प्रजाति है. दिखने में यह फूल बनने के समय में गुणों में और मैदानी मौसम के प्रति व्यवहार में अन्ना किस्म के समान है. इस का गोल्डन पीले सुनहरे रंग का है. हालांकि कभीकभी फलों की सतह पर गुलाबी रंग भी आता है जो उस के सौंदर्य को बढ़ाता है. यह खासतौर से ताजा खाने के लिए बहुत अच्छी और मीठी प्रजाति है. यह शुरुआती मौसम की फसल है. पेड़ का विस्तार मध्यम रहता है.

डौर्सेट गोल्डन किस्म को खासतौर से अन्ना सेब की बागबानी में परागणदाता किस्म के रूप में मान्यताप्राप्त है. इस में फूल आने का समय फरवरी माह के पहले हफ्ते से शुरू हो कर मार्च माह के पहले हफ्ते तक रहता है. इस वजह से यह अन्ना सेब के लिए अच्छी परागणदाता किस्म जानी जाती है.

अन्ना किस्म की सफल बागबानी में अगर उचित दूरी पर 20 फीसदी पौधे डौर्सेट गोल्डन प्रजाति के लगाए जाएं, जिस से पूरे बाग में उन के द्वारा पैदा परागकण मुहैया हो सकें तो नतीजे अच्छे आते हैं.

एचआरएमएन 99 : इस प्रजाति को हिमाचल प्रदेश के उन्नतशील किसान हरीमान शर्मा ने विकसित किया है. इसे शीतोष्ण, उपोष्ण व गरमी के 40 से 45 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान में भलीभांति किया जा सकता है. इस प्रजाति को ठंड की जरूरत नहीं होती है.

इस प्रजाति के फलों की क्वालिटी बढि़या है. इस को अनेक जलवायु और समुद्र तल से 1,800 फुट पर में भी उगाया जा सकता है. इस प्रजाति को अन्ना व डौर्सेट गोल्डन के मुकाबले कम ठंड की जरूरत होती है.

यह प्रजाति बहुत जल्दी पक कर तैयार होती है. पहाड़ी इलाकों में होने वाली सेब की प्रजातियों को फूल व फल के लिए कम से कम 500 घंटों की इकाइयों की जरूरत होती है, जबकि इस प्रजाति को कम घंटों की ठंडी इकाइयों की जरूरत होती है.

इस प्रजाति के पौधे प्रक्षेत्र रोपण के 3 साल बाद फल देना शुरू कर देते हैं. फूल फरवरी माह के पहले हफ्ते में शुरू होता है, जो तकरीबन एक माह तक चलता है. फल जून में पक जाते हैं. फलों के पकने पर रंग का विकास हलकी पीली सतह के साथ होता है. इस प्रजाति की उपज 3 साल के बाद पौधे 1 क्विंटल फल प्रति पौधा देता है.

फलों की क्वालिटी

* जून माह में गरम मौसम में तैयार होने के चलते फलों में टीएसएस अच्छा पाया गया है. तकरीबन 15 डिगरी ब्रिक्स, जो कि फलों की क्वालिटी का एक द्योतक है. फलों का औसत वजन 200 ग्राम है. पीली सतह पर लाल आभा लिए इस फल की मांग को बढ़ाने वाली वजह है.

* जून माह में इन के ताजा फलों की उपलब्धता इस प्रजाति का सकारात्मक पहलू है क्योंकि उस वक्त बाजार में केवल शीतगृह का एक साल पुराना और कैमिकलों से उपचारित व महंगा सेब ही मिलता है.

* मैदानी इलाकों में सेब के पौधों पर फूल से परिपक्वता के दौरान किसी भी हानिकारक कीट या रोग का प्रकोप नहीं होता है. इस वजह से इन पर किसी कीटनाशक या फफूंदीनाशक का छिड़काव नहीं करना पड़ता. नतीजतन, कीटनाशकों से मुक्त फल मिलता है.

पौध रोपण का समय और तरीका : सर्दियों में पौधशाला से रोपण सामग्री लेने के बाद जल्दी रोपण कर देना चाहिए. रोपण के समय 20 से 25 सैंटीमीटर की गहराई व व्यास का एक छोटा गड्ढा भरे हुए गड्ढे के मध्य में बनाते हैं और पौधे को उस जगह पर सीधा खड़ा रख कर जड़ों को मिट्टी से ढक कर दबा दें और 2 फुट व्यास का थाला बना कर उन में हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए.

पौधा रोपते समय यह ध्यान रखें कि जड़ व सांकुर के जोड़ का स्थान जो कि एक गांठ के रूप में आसानी से दिखाई देता है, कभी भी जमीन में दबने न पाए. यह जोड़ का स्थान भूमि की सतह से कम से कम 10-15 सैंटीमीटर ऊपर रहना चाहिए. रोपने के तुरंत बाद मल्चिंग करने से पौधों की अच्छी बढ़वार होती है और खरपतवार की समस्या नहीं आती है.

पौध रोपण : रोपण के लिए चयनित जगह का बराबर करना जरूरी रहता है क्योंकि ये पौधे जलभराव की स्थिति को सह नहीं सकते हैं. मैदानी इलाकों में सेब की चयनित प्रजातियों को वर्गाकार विधि से 5×5 या 6×6 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए.

पौध रोपण के कम से कम एक माह पहले वांछित जगह पर गड्ढों की खुदाई 2×2×2 फुट कर के 20-25 दिनों के लिए छोड़ देना चाहिए. पौध रोपण के 10 दिन पहले इन गड्ढों में गोबर की सड़ी खाद 15-20 किलो मिला कर इन्हें भर देना चाहिए.

ध्यान रहे कि मिट्टी व खाद मिला कर भरने की सतह से कम से कम 10 सैंटीमीटर ऊपर रहे.

पौधे की बढ़वार : नए रोपित पौधों में नई पत्तियां तापमान में बढ़ोतरी के साथ फरवरी माह के पहले हफ्ते में आना शुरू हो जाता है और उन की बढ़वार तेजी से होती है. कभीकभी रोपण के तुरंत बाद नई पत्तियों के साथ पुष्प कलिकाएं भी आ जाती हैं, लेकिन इन से फल की बढ़वार नहीं हो पाती है.

फरवरी माह से यह वानस्पतिक बढ़वार सितंबर तक चलती है. अक्तूबर माह से पौधों में सुषुप्तावस्था के लक्षण आने लगते हैं और बढ़वार रुक जाती है. नवंबर से जनवरी माह तक पौधों की तकरीबन 60 फीसदी पत्तियां गिर जाती हैं.

पत्तियों के गिरने पर बागबान भाइयों को चिंता नहीं करनी चाहिए. यह इन पौधों की शीत ऋतु के समय न्यूनतम तापमान को सहने व अगले मौसम में फूल लाने के लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.

प्रक्षेत्र में पौधों की रोपित आयु एक साल होने के बाद उन की ऊंचाई तकरीबन 4 फुट और छत्रक फैलाव तकरीबन 2.5 फुट हो जाता है. इन पौधों में फरवरी में पुष्पकलिकाएं बनती हैं जिन पर फलों की बढ़वार होती है.

फरवरी में यदि पुष्पन के समय तेज आंधीतूफान या बारिश होती है, तो फलन पर बुरा असर पड़ता है. ये फल जून माह में उपयोग के लिए तैयार हो जाते हैं. पहले साल में प्रति पौधा 4-5 फल ही हासिल होते हैं. दूसरे साल में पौधे के छत्रक कैनोपी विकास के साथ इन की तादाद 50 और तीसरे साल में 300 हो जाती है.

फलों को पक्षियों से होता नुकसान

उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में सेब की फसल जून माह में तैयार हो जाती है. इस दौरान दूसरी कोई फसल तैयार न होने के चलते पक्षियों के आकर्षण का केंद्र यह फल रहता है. किसी भी फल पर पक्षियों का हमला उस फल की क्वालिटी का द्योतक होता है.

इस समस्या से बचाव के लिए मई माह से बांस की संरचना प्लास्टिक की जाली द्वारा फलों से लदे पेड़ों को ढका जा सकता है.

पक्षियों को उड़ाने के लिए मजदूर रखना महंगा होता है इसलिए प्लास्टिक की जाली से पेड़ों को ढकना एक अच्छा विकल्प है. कई दूसरे फलों में भी यह प्रयोग किया जाता है. एक बार खरीदी गई यह जाली कई सालों तक इस्तेमाल में आ सकती है.

सेब में ऐसे करें रोगों पर नियंत्रण

पामा या स्कैब : शुरू में पत्तियों पर अनिश्चित परिधि वाले सूक्ष्म 3 से 6 मिलीमीटर व्यास के हलके से जैतूनी हरे धब्बे बनते हैं. बढ़ती अवस्था के साथ इन का रंग गहरा होता जाता है और अंत में ऊपरी सतह पर ये काले रंग के हो जाते हैं. उग्र संक्रमण होने पर पत्तियां कुंचित बैनी यानी सिकुड़ी हुई और बेआकार की हो जाती हैं. फलों पर भी हलके जैतूनी धब्बे बनते हैं जो बाद में गहरे भूरे, फिर काले हो जाते हैं. पुराने धब्बे में उन के किनारों पर त्वचा एक वलय के आकार में ऊपर उठ जाती है. शुरुआती अवस्था में ही भारी संक्रमण होने पर फल की पूरी सतह कार्क के समान हो जाती है और उस में गहरी दरारें पड़ जाती हैं.

रोकथाम : कवकनाशी रसायन जैसे कैप्टान 0.2 से 0.3 फीसदी, डोडीन 0.15 फीसदी या डोडीन+ ग्लोयोडीन 0.15 फीसदी +0.75 फीसदी या पोलीरान 0.15 फीसदी का कली खिलने पर या 7 से 10 दिन के अंतर पर 6 से 7 बार छिड़काव करें.

चूर्णिल आसिता :  पत्तियों पर वसंत मौसम में कवकजाल के छोटे धूसर या सफेद धब्बे दिखलाई पड़ते हैं. पत्तियों की निचली सतह पर धब्बे बनते हैं जिस से वे सिकुड़ कर मुड़ जाती हैं. पत्तियों से संक्रमण नई टहनियों पर फैलता है जिन पर पत्तियों के ही समान कवक बनते हैं. नए फलों पर संक्रमण होने से वे छोटे रह जाते हैं जबकि बाद की अवस्थाओं में संक्रमित फलों पर रुक्ष शल्क के लक्षण दिखलाई पड़ते हैं.

रोकथाम : बेनोमिल अथवा थायाबेंडेजोल के 0.1 फीसदी घोल से मृदा मज्जन अथवा कली निकलने के समय से जुलाई के पूर्वार्द्ध तक 10 से 14 दिनों के अंतर पर छिड़काव करें. बेनोमिल के छिड़काव से रोग नियंत्रण के साथसाथ पेड़ की वानस्पतिक बढ़वार पर भी अच्छा असर पड़ता है. कली निकलने के पहले 1:50 सांद्रता वाले गंधक चूना मिश्रण का छिड़काव भी रोग नियंत्रण में फायदेमंद है.

फाइटोफ्थेरा स्तंभ कैंकर : यह तने का रोग है जो 4-5 साल पुराने पेड़ों पर नीचे की शाखाओं पर पाया जाता है. छाल के मर जाने के चलते रोगग्रस्त इलाकों में नया रिसाव होता है जिस से छाल भलेठमी हो जाते हैं. कैंकर अंडाकार, पर कभीकभी अनियमित आकार के भी हो सकते हैं. संक्रमण के 1 से 2 साल के भीतर ही तना गल जाने के चलते पूरा पेड़ मर जाता है. कभीकभी फल विगलन रोग भी देखा जाता है.

रोकथाम : रोग प्रतिरोधी किस्मों के मूलवृंत्तों का इस्तेमाल करें. बाग से ढालों पर मेंड़ बनाएं ताकि बारिश का पानी रोगी से स्वस्थ पेड़ों में बह कर न जा सके.

Hybrid Tomato : संकर (हाइब्रिड) टमाटर की खेती

Hybrid Tomato : अति खूबसूरत चटक लाल रंग के गोलमटोल टमाटर देख कर सब्जी प्रेमियों की आंखों की चमक बढ़ जाती है. दैनिक जीवन में टमाटर की बहुत ज्यादा अहमियत होती है. हर सब्जी और सलाद में टमाटर का बढ़चढ़ कर योगदान होता है. बाजार में मिलने वाली टोमैटो सास या टोमैटो कैचप के दीवाने भी खूब होते हैं.

घर पर बनने वाली तरहतरह की टमाटर की चटनियां भी लाजवाब होती हैं. ज्यादातर तरकारियां बगैर टमाटर के फीकी महसूस होती हैं, इसीलिए मार्केट में टमाटर की प्यूरी भी खूब बिकती है. ताजे टमाटर मौजूद न होने की हालत में टमाटर की प्यूरी से काम चल जाता है.

टमाटर के इस्तेमालों को देखते हुए इस की खेती की अहमियत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. किसान लोग बड़े पैमाने पर टमाटर की खेती कर के खूब मुनाफा कमा सकते हैं, तो घरेलू तौर पर भी टमाटर के पौधे लगाना फायदेमंद रहता है. आजकल संकर टमाटरों का चलन काफी बढ़ गया है, लिहाजा संकर टमाटरों की खेती कामयाबी की कुंजी बन गई है.

माकूल आबोहवा

संकर टमाटर की खेती के लिए 21 डिगरी सेंटीग्रेड औसत तापमान सही रहता है. टमाटर की खेती के लिए पाला घातक होता है, लिहाजा इस के लिए पाले रहित मौसम होना जरूरी है. थोड़े गरम व हलकी धूप वाले मौसम में टमाटरों का सही विकास होता है. ऐसे मौसम में टमाटर सही तरीके से पक कर गहरे लाल हो जाते हैं और पैदावार भी अच्छी होती है.

नर्सरी की तैयारी और बोआई

टमाटर की नर्सरी के लिए 5-6 मीटर लंबी और 2 फुट चौड़ी क्यारियां ठीक होती हैं. क्यारियों की ऊंचाई भी करीब 20-25 सेंटीमीटर होनी चाहिए. क्यारी तैयार करते वक्त उस में से कंकड़पत्थर वगैरह निकाल देने चाहिए. क्यारी में पर्याप्त मात्रा में अच्छी तरह से सड़ी गोबर की खाद व बालू मिला कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए.

क्यारी को फाइटोलान, डायथेन एम 45 की 2 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर भिगोएं. इस के बाद क्यारी की पूरी लंबाई में 10-15 सेंटीमीटर के फासले पर लाइनें बनाएं, इन्हीं लाइनों में बीजों की बोआई करें.

बीजों को जमीन में जरा सा दबा कर बालू व भूसे से ढक दें और फुहारे से हलकी सिंचाई करें. अंकुरण होने तक रोजाना 2 बार क्यारी की सिंचाई करें. अंकुरण होने के बाद क्यारी से भूसा हटा दें. पौधों में 4-6 पत्तियां निकलने पर थाईमेट का इस्तेमाल करें. इस के बाद पौधों पर मेटासिस्टाक्स/ थायोडान की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें.

इस के अलावा डाइथेन एम 45 की 2 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर उस से भी छिड़काव करें.

बोआई का समय

उत्तरी भारत में जूनजुलाई में सर्दी के मौसम के लिए, नवंबर में गरमी की फसल के लिए और मार्च में बरसात की फसल के लिए  टमाटर की बोआई का माकूल समय होता है. महाराष्ट्र और मध्य भारत में मईजून, अगस्तसितंबर और दिसंबरजनवरी में टमाटर की बोआई की जाती है. पूर्व और दक्षिण भारत में पूरे साल टमाटर की खेती की जा सकती है.

बोआई का अंतर व बीज दर

टमाटर की खेती के लिए 100-120 ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए. बोआई करते वक्त लाइन से लाइन की दूरी 75 सेंटीमीटर रखनी चाहिए और पौधे से पौधे की दूरी 60 सेंटीमीटर होनी चाहिए.

खाद की मात्रा

खेत तैयार करते वक्त 15-20 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. पौधों की रोपाई से पहले 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 100 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं. रोपाई के 20 दिनों बाद 50 किलोग्राम नाइट्रोजन का इस्तेमाल करें. इसी क्रम में पहली तोड़ाई के बाद भी 50 किलोग्राम नाइट्रोजन का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

Hybrid Tomato

टमाटर के खास कीट

तेला/माहो/चुरदे : ये कीट टमाटर की फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं. बचाव के लिए 1 लीटर पानी में 2 मिलीलीटर आक्सीडेमेटान मिथाइल मिला कर छिड़काव करें.

सफेद मक्खी : यह भी टमाटर की फसल के लिए घातक होती है. इस से बचाव के लिए ट्रायजोफास की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें.

फलछेदक व तनाछेदक : कीड़े लगे फलों व डालियों को तोड़ कर नष्ट कर दें, क्योंकि ये कीड़े बहुत तेजी से बढ़ कर अन्य फलों और पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. इस के अलावा क्विनालफास/एंडोसल्फान की 3 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें. 3 ग्राम कार्बेराइल का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करने से भी फलछेदक व तनाछेदक कीटों पर काबू पाया जा सकता है.

अश विव्हील : यह कीड़ा भी टमाटर की फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है. इस का हमला होने पर बचाव के लिए बोआई के 15 दिनों बाद कार्बेफुरान 3 जी की 20 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

मकड़ी : मकड़ी भी टमाटर की फसल की दुश्मन होती है. बचाव के लिए 2.7 मिलीलीटर डायकोफाल का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें या सल्फर की 3 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें.

जड़गांठ की कृमियां : ये भी काफी घातक होती हैं. बचाव के लिए कार्बोफुरान 3जी की 20 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें या 12.5 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फोरेट 10 जी का इस्तेमाल करें.

टमाटर की खास बीमारियां

ब्लाइट : इस रोग से टमाटर की फसल को काफी नुकसान पहुंचता है. रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 3 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें.

फुजारियन मुरझान : यह भी एक घातक रोग है. रोकथाम के लिए फसलों को बदलबदल कर खेती करें.

वायरल विकार : इस से बचाव के लिए वायरस वाहक पर नियंत्रण करना चाहिए.

संकर टमाटर की खास प्रजातियां

माही 401 (एमएचटीएम 401) : इस प्रजाति का पौधा लंबा होता है. इस में रोपाई के 80-85 दिनों बाद तैयार फल मिलने लगते हैं. अंडाकार आकार के इस टमाटर का औसत वजन करीब 75-85 ग्राम तक होता है. इस प्रजाति के टमाटर ठोस व उम्दा दर्जे के होते हैं. इन्हें दूर के बाजारों में भी भेजा जा सकता है.

माही गोट्या (एस 41) : इस प्रजाति के पौधे बढ़ कर ढाई से 3 फुट तक ऊंचे हो जाते हैं. इस प्रजाति के पौधों से रोपाई के 70-75 दिनों बाद तैयार फल मिलने लगते हैं. इस के फल गहरे लाल रंग के और अंडाकार आकार के होते हैं. फलों का औसत वजन 75-80 ग्राम होता है. देश के सभी इलाकों में उगाया जाने वाला यह टमाटर बाजार के लिहाज से उम्दा होता है.

माही अरविंद (एमएचटीएम 207) : इस प्रजाति के पौधे 75 से 80 सेंटीमीटर तक ऊंचे होते हैं. इन पौधों से रोपाई के 75-80 दिनों बाद तैयार फल मिलने लगते हैं. इस प्रजाति का फल अंडाकार और कसा हुआ लाल रंग का होता है. फलों का औसत वजन 80 से 90 ग्राम तक होता है. इसे भी भारत के किसी भी इलाके में उगाया जा सकता है.

कुल मिला कर संकर टमाटर की खेती किसानों के लिए बेहद फायदेमंद साबित होती है. इन उम्दा टमाटरों को सभी जगहों पर अच्छे दामों पर बेच कर भरपूर कमाई की जा सकती है.

Sweet Potato : शकरकंद की खेती

Sweet Potato  : शकरकंद में स्टार्च की भरपूर मात्रा होती है, इसलिए इस का प्रयोग शरीर में ऊर्जा बढ़ाने के लिए किया जाता है. इसे भूख मिटाने के लिए सब से उपयोगी माना जाता है. शकरकंद की खेती वैसे तो पूरे भारत में की जाती है, लेकिन ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र में इस की खेती सब से अधिक होती है. शकरकंद की खेती में भारत दुनिया में छठे स्थान पर आता है.

इस की खेती के लिए 21 से 26 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान सब से सही माना जाता है. यह शीतोष्ण व समशीतोष्ण जलवायु में उगाई जाने वाली फसल है. इसे 75 से 150 सेंटीमीटर बारिश की हर साल जरूरत पड़ती है.

भूमि का चयन : शकरकंद की खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है, क्योंकि ऐसी मिट्टी में कंदों की बढ़वार अच्छी तरह से हो पाती है. शकरकंद की खेती के लिए जमीन से पानी के निकलने का अच्छा इंतजाम होना चाहिए.

इस की बोआई से पहले  खेत की 1 बार मिट्टी पलटने वाले हल या रोटावेटर से जुताई करनी चाहिए. उस के बाद 2 जुताई कल्टीवेटर से कर के खेत को छोटीछोटी समतल क्यारियों में बांट लेना चाहिए. उस के बाद मिट्टी को भुरभुरी बना कर उस में प्रति हेक्टेयर 150 से 200 क्विंटल गोबर की खाद मिला लेना फसल उत्पादन के लिए अच्छा होता है.

प्रजातियों का चयन : शकरकंद की प्रमुख प्रजातियों में पूसा लाल, पूसा सुनहरी, पूसा सफेद, सफेद सुनहरी लाल, श्री मद्र एस 10101, नरेंद्र शकरकंद 9, एच 41, केवी 4, सीओआईपी 1, राजेश शकरकंद 92, एच 42 (1) खास हैं.

शकरकंद की रोपाई : इस की रोपाई से पहले मई या जून महीने में इस की लताओं से नर्सरी तैयार की जाती है. अगस्त से सितंबर तक तैयार लताओं की कटिंग कर के मेंड़ों या समतल जगह पर रोपाई की जाती है. इस की कटिंग की रोपाई के लिए लाइन से लाइन की दूरी 60 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंटीमीटर रखी जाती है. जमीन में इस की कटिंग को 6-8 सेंटीमीटर की गहराई पर रोपा जाता है.

रोपाई के समय यह ध्यान देना चाहिए कि बेल की कटिंग 60-90 सेंटीमीटर से कम न हो. काटी गई बेल को मिट्टी में दबा दिया जाता है. 1 हेक्टेयर खेत के लिए शकरकंद की 6-7 क्विंटल बेल या 59000 टुकड़ों की जरूरत पड़ती है.

खाद की मात्रा : शकरकंद की खेती के लिए 1 हेक्टेयर खेत में 150 से 200 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद व 50-60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50-60 किलोग्राम फास्फोरस और 100-120 किलोग्राम पोटाश की जरूरत पड़ती है. नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा आखिरी जुताई के समय व शेष आधी मात्रा बोआई के 30 दिनों बाद देते हैं. इस के कंदों की बढ़त के लिए जैविक खाद ज्यादा अच्छी होती है.

सिंचाई : शकरकंद की बेलों की कटिंग की रोपाई के 4-5 दिनों बाद पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. इस के बाद बारिश की मात्रा को देखते हुए 10-15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए. शकरकंद के खेत की तब तक निराईगुड़ाई जरूरी है, जब तक कि इस की फसल खेत को ढक न ले.

कीट व बीमारियों की रोकथाम : कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक डा. प्रेमशंकर के अनुसार शकरकंद की फसल में सब से ज्यादा प्रकोप पत्ती खाने वाली सूंड़ी का होता है. यह कीट बरसात में फसल को नुकसान पहुंचाता है. ये शकरकंद की पत्तियों को खा कर छलनी कर देते हैं, जिस से पत्तियां भोजन नहीं बना पाती हैं और फसल की बढ़त रुक जाती है. इस कीट की रोकथाम के लिए नीम के काढ़े का 250 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए. इस के अलावा पीविल नाम का कीट इस के कंदों में घुस कर कंदों बेकार कर देता है. इस की रोकथाम के लिए सब से अच्छा उपाय बोआई के समय कंदशोधन होता है.

शकरकंद की फसल में 2 रोगों का हमला ज्यादातर देखा गया है, जिस में पहला तनासड़न है, जोकि फ्यूजेरियम आक्सीसपोरम नामक फफूंदी के कारण होता है. इस रोग की वजह से फसल के तने में सड़न आ जाने से फसल बेकार हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए रोग न लगने वाली फसल का चुनाव करना सही होता है. शकरकंद की फसल में दूसरा रोग कलीसड़न का है, जिस में कंदों की सतह पर धुंधले काले रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिस की वजह से पौधे मर जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए 250 मिलीलीटर नीम के काढ़े का प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए.

खुदाई व भंडारण : शकरकंद की खुदाई उस की रोपाई के समय पर निर्भर करती है. जुलाई महीने में रोपी गई फसल की खुदाई नवंबर महीने में की जा सकती है. जब पत्तियां पीली पड़ कर सूखने लगें, तो फावड़े या कुदाल से फसल की खुदाई कर के उस पर लगी मिट्टी को साफ करें. फिर किसी छायादार व हवादार जगह पर स्टोर करें.