Apple Farming : सेब की बागबानी आमतौर पर पहाड़ी इलाकों में ही की जाती है. इस वजह से सेब को पहाड़ी फल माना जाता है. भारत में सेब की बागबानी आमतौर पर हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और उत्तराखंड में की जाती है. पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड में भी अब सेब की बागबानी की जा रही है.
पहाड़ी इलाकों में ऊंचाई के मुताबिक सेब की अलगअलग प्रजातियां उगाई जाती हैं. इन प्रजातियों में फूल केवल उन्हीं दशाओं में होता है, जब उन को मौसम के मुताबिक 800 से 1500 घंटे की ठंडी इकाइयां यानी चिलिंग यूनिट्स मिल जाती हैं. ठंडी इकाइयों की गिनती तापमान के 7 डिगरी सैल्सियस से नीचे आने पर शुरू होती है. ठंड की उक्त परिस्थितियां केवल शीतोष्ण जलवायु में ही मुनासिब होती हैं इसलिए सेब की बागबानी को शीतोष्ण जलवायु के इलाके में किया जाता रहा है.
मैदानी इलाकों में सेब की बागबानी के लिए विदेशी शोध संस्थानों ने कुछ प्रजातियां ईजाद की थीं, पर उन का भारत की उपोष्ण जलवायु में जांच न होने के चलते इस के बारे में अभी तक जागरूकता नहीं थी.
सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पुराने परिसर पर डाक्टर अरविंद कुमार के मुताबिक, शोध अनुसंधान पर फलों पर आधारित कृषि प्रणाली विकसित करने के लिए अध्ययन किया गया. इस के तहत सेब की कम ठंडी वाली प्रजातियों जिन की फूल के लिए ठंडी इकाइयों की जरूरत केवल 250 से 300 घंटों की होती है, का परीक्षण उपोष्ण जलवायु में किया गया.
अध्ययन से हासिल नतीजों से यह भरम टूट गया कि सेब की बागबानी पहाड़ी इलाकों में ही की जा सकती है.
संस्थान में हुए अध्ययन के मुताबिक, अगर सही प्रजाति को चुन कर सेब की बागबानी उपोष्ण जलवायु इलाकों में की जाए तो कामयाबी मिल सकती है. यह अध्ययन उपोष्ण इलाकों में कृषि एवं बागबानी में विविधीकरण के एक नए विकल्प के तौर पर उभरा है.
मिट्टी व खेत की तैयारियां
बागबानी करने वाले किसानों को यह सलाह दी जाती है कि सेब लगाने से पहले मिट्टी जांच जरूर करानी चाहिए. इस से पोषक तत्त्वों की कमी को दूर करने के लिए जरूरी संशोधन का निर्धारण करने में मदद मिलेगी और मिट्टी का पीएच मान 6.0-7.0 हो, बेहतर है.
सेब के पौधों को अच्छी नमी और पोषक तत्त्वों की धारण क्षमता के साथ गहरी और अच्छी तरह से गीली बलुई मिट्टी की जरूरत होती है. पानी जमा नहीं होना चाहिए और उचित जल निकास वाली मिट्टी सेब की खेती के लिए मुनासिब होती है.
जाड़े के मौसम में इस प्रजाति को फूल के लिए जरूर 250-300 शीतलन इकाइयों यानी चिलिंग यूनिट्स चाहिए. इन्हें सूरज की रोशनी की कम से कम 6 घंटे की जरूरत होती है. इसलिए उत्तर या पूर्व दिशा से रोशनी की उपलब्धता में कोई व्यवधान नहीं होना चाहिए. उस जगह को चुनें.
मैदानी इलाकों में सेब की मुनासिब प्रजातियां
मैदानी इलाकों में बागबानी के लिए सेब की कई प्रजातियों के नाम हैं. इन प्रजातियों का प्रचारप्रसार और क्षेत्र विस्तार नहीं हो सका. इस की 2 मुख्य वजह थीं. पहली वजह यह कि इन प्रजातियों के मैदानी इलाकों में प्रक्षेत्र मूल्यांकन के आंकड़ों की अनुपलब्धता थी. इस अनुपलब्धता की वजह यह थी कि सेब व दूसरी शीतोष्ण फलों पर शोध करने वाले ज्यादातर संस्थान पर्वतीय इलाकों में सीमित हैं. दूसरी वजह यह कि इन की रोपण सामग्री की कमी.
कम ठंड की जरूरत वाली प्रजातियां : अन्ना, डौर्सेट गोल्डन, एचआरएमएन 99, इन भोमर, माइकल, बेवर्ली हिल्स, पार्लिंस ब्यूटी, ट्रौपिकल ब्यूटी, पेटिंगिल, तम्मा वगैरह. संस्थान में अन्ना, डौर्सेट गोल्डन व एचआरएमएन 99 प्रजाति के पौधों को लगाया गया है. उन पर हुए 3 सालों के अध्ययन से मिली जानकारी को बताया जा रहा है:
अन्ना : यह प्रजाति गरम जलवायु में अच्छी तरह से विकसित होती है और बहुत जल्दी पक कर तैयार होती है. पहाड़ी इलाकों में होने वाली सेब की प्रजातियों को फूल और फल के लिए कम से कम 500 घंटे की ठंडी इकाइयों की जरूरत होती है, जबकि इस प्रजाति को महज 250-300 घंटों की ठंडी इकाइयों की जरूरत होती है.
इस प्रजाति के पौधे प्रक्षेत्र रोपण के एक साल बाद फूल आना शुरू हो जाता है. फूल फरवरी माह के पहले हफ्ते से शुरू होता है जो तकरीबन एक माह तक चलता है. जून में ये फूल पक जाते हैं. फल देखने में गोल्डन डिलीशियस जैसे लगते हैं. यह जल्दी और अधिक फल वाली किस्म है. ताजा फलों के रूप में इन का इस्तेमाल सही रहता है. जून माह में सामान्य तापमान पर तकरीबन 7 दिनों तक इन का भंडारण किया जा सकता है.
डौर्सेट गोल्डन : यह सेब की गोल्डन डिलीशियस जैसी प्रजाति है जो गरम इलाकों के लिए विकसित की गई है. यहां ठंडे मौसम में 250 से 300 घंटों की ठंडी इकाइयां मिल सकें.
यह भी इजराइल द्वारा विकसित की गई प्रजाति है. दिखने में यह फूल बनने के समय में गुणों में और मैदानी मौसम के प्रति व्यवहार में अन्ना किस्म के समान है. इस का गोल्डन पीले सुनहरे रंग का है. हालांकि कभीकभी फलों की सतह पर गुलाबी रंग भी आता है जो उस के सौंदर्य को बढ़ाता है. यह खासतौर से ताजा खाने के लिए बहुत अच्छी और मीठी प्रजाति है. यह शुरुआती मौसम की फसल है. पेड़ का विस्तार मध्यम रहता है.
डौर्सेट गोल्डन किस्म को खासतौर से अन्ना सेब की बागबानी में परागणदाता किस्म के रूप में मान्यताप्राप्त है. इस में फूल आने का समय फरवरी माह के पहले हफ्ते से शुरू हो कर मार्च माह के पहले हफ्ते तक रहता है. इस वजह से यह अन्ना सेब के लिए अच्छी परागणदाता किस्म जानी जाती है.
अन्ना किस्म की सफल बागबानी में अगर उचित दूरी पर 20 फीसदी पौधे डौर्सेट गोल्डन प्रजाति के लगाए जाएं, जिस से पूरे बाग में उन के द्वारा पैदा परागकण मुहैया हो सकें तो नतीजे अच्छे आते हैं.
एचआरएमएन 99 : इस प्रजाति को हिमाचल प्रदेश के उन्नतशील किसान हरीमान शर्मा ने विकसित किया है. इसे शीतोष्ण, उपोष्ण व गरमी के 40 से 45 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान में भलीभांति किया जा सकता है. इस प्रजाति को ठंड की जरूरत नहीं होती है.
इस प्रजाति के फलों की क्वालिटी बढि़या है. इस को अनेक जलवायु और समुद्र तल से 1,800 फुट पर में भी उगाया जा सकता है. इस प्रजाति को अन्ना व डौर्सेट गोल्डन के मुकाबले कम ठंड की जरूरत होती है.
यह प्रजाति बहुत जल्दी पक कर तैयार होती है. पहाड़ी इलाकों में होने वाली सेब की प्रजातियों को फूल व फल के लिए कम से कम 500 घंटों की इकाइयों की जरूरत होती है, जबकि इस प्रजाति को कम घंटों की ठंडी इकाइयों की जरूरत होती है.
इस प्रजाति के पौधे प्रक्षेत्र रोपण के 3 साल बाद फल देना शुरू कर देते हैं. फूल फरवरी माह के पहले हफ्ते में शुरू होता है, जो तकरीबन एक माह तक चलता है. फल जून में पक जाते हैं. फलों के पकने पर रंग का विकास हलकी पीली सतह के साथ होता है. इस प्रजाति की उपज 3 साल के बाद पौधे 1 क्विंटल फल प्रति पौधा देता है.
फलों की क्वालिटी
* जून माह में गरम मौसम में तैयार होने के चलते फलों में टीएसएस अच्छा पाया गया है. तकरीबन 15 डिगरी ब्रिक्स, जो कि फलों की क्वालिटी का एक द्योतक है. फलों का औसत वजन 200 ग्राम है. पीली सतह पर लाल आभा लिए इस फल की मांग को बढ़ाने वाली वजह है.
* जून माह में इन के ताजा फलों की उपलब्धता इस प्रजाति का सकारात्मक पहलू है क्योंकि उस वक्त बाजार में केवल शीतगृह का एक साल पुराना और कैमिकलों से उपचारित व महंगा सेब ही मिलता है.
* मैदानी इलाकों में सेब के पौधों पर फूल से परिपक्वता के दौरान किसी भी हानिकारक कीट या रोग का प्रकोप नहीं होता है. इस वजह से इन पर किसी कीटनाशक या फफूंदीनाशक का छिड़काव नहीं करना पड़ता. नतीजतन, कीटनाशकों से मुक्त फल मिलता है.
पौध रोपण का समय और तरीका : सर्दियों में पौधशाला से रोपण सामग्री लेने के बाद जल्दी रोपण कर देना चाहिए. रोपण के समय 20 से 25 सैंटीमीटर की गहराई व व्यास का एक छोटा गड्ढा भरे हुए गड्ढे के मध्य में बनाते हैं और पौधे को उस जगह पर सीधा खड़ा रख कर जड़ों को मिट्टी से ढक कर दबा दें और 2 फुट व्यास का थाला बना कर उन में हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए.
पौधा रोपते समय यह ध्यान रखें कि जड़ व सांकुर के जोड़ का स्थान जो कि एक गांठ के रूप में आसानी से दिखाई देता है, कभी भी जमीन में दबने न पाए. यह जोड़ का स्थान भूमि की सतह से कम से कम 10-15 सैंटीमीटर ऊपर रहना चाहिए. रोपने के तुरंत बाद मल्चिंग करने से पौधों की अच्छी बढ़वार होती है और खरपतवार की समस्या नहीं आती है.
पौध रोपण : रोपण के लिए चयनित जगह का बराबर करना जरूरी रहता है क्योंकि ये पौधे जलभराव की स्थिति को सह नहीं सकते हैं. मैदानी इलाकों में सेब की चयनित प्रजातियों को वर्गाकार विधि से 5×5 या 6×6 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए.
पौध रोपण के कम से कम एक माह पहले वांछित जगह पर गड्ढों की खुदाई 2×2×2 फुट कर के 20-25 दिनों के लिए छोड़ देना चाहिए. पौध रोपण के 10 दिन पहले इन गड्ढों में गोबर की सड़ी खाद 15-20 किलो मिला कर इन्हें भर देना चाहिए.
ध्यान रहे कि मिट्टी व खाद मिला कर भरने की सतह से कम से कम 10 सैंटीमीटर ऊपर रहे.
पौधे की बढ़वार : नए रोपित पौधों में नई पत्तियां तापमान में बढ़ोतरी के साथ फरवरी माह के पहले हफ्ते में आना शुरू हो जाता है और उन की बढ़वार तेजी से होती है. कभीकभी रोपण के तुरंत बाद नई पत्तियों के साथ पुष्प कलिकाएं भी आ जाती हैं, लेकिन इन से फल की बढ़वार नहीं हो पाती है.
फरवरी माह से यह वानस्पतिक बढ़वार सितंबर तक चलती है. अक्तूबर माह से पौधों में सुषुप्तावस्था के लक्षण आने लगते हैं और बढ़वार रुक जाती है. नवंबर से जनवरी माह तक पौधों की तकरीबन 60 फीसदी पत्तियां गिर जाती हैं.
पत्तियों के गिरने पर बागबान भाइयों को चिंता नहीं करनी चाहिए. यह इन पौधों की शीत ऋतु के समय न्यूनतम तापमान को सहने व अगले मौसम में फूल लाने के लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.
प्रक्षेत्र में पौधों की रोपित आयु एक साल होने के बाद उन की ऊंचाई तकरीबन 4 फुट और छत्रक फैलाव तकरीबन 2.5 फुट हो जाता है. इन पौधों में फरवरी में पुष्पकलिकाएं बनती हैं जिन पर फलों की बढ़वार होती है.
फरवरी में यदि पुष्पन के समय तेज आंधीतूफान या बारिश होती है, तो फलन पर बुरा असर पड़ता है. ये फल जून माह में उपयोग के लिए तैयार हो जाते हैं. पहले साल में प्रति पौधा 4-5 फल ही हासिल होते हैं. दूसरे साल में पौधे के छत्रक कैनोपी विकास के साथ इन की तादाद 50 और तीसरे साल में 300 हो जाती है.
फलों को पक्षियों से होता नुकसान
उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में सेब की फसल जून माह में तैयार हो जाती है. इस दौरान दूसरी कोई फसल तैयार न होने के चलते पक्षियों के आकर्षण का केंद्र यह फल रहता है. किसी भी फल पर पक्षियों का हमला उस फल की क्वालिटी का द्योतक होता है.
इस समस्या से बचाव के लिए मई माह से बांस की संरचना प्लास्टिक की जाली द्वारा फलों से लदे पेड़ों को ढका जा सकता है.
पक्षियों को उड़ाने के लिए मजदूर रखना महंगा होता है इसलिए प्लास्टिक की जाली से पेड़ों को ढकना एक अच्छा विकल्प है. कई दूसरे फलों में भी यह प्रयोग किया जाता है. एक बार खरीदी गई यह जाली कई सालों तक इस्तेमाल में आ सकती है.
सेब में ऐसे करें रोगों पर नियंत्रण
पामा या स्कैब : शुरू में पत्तियों पर अनिश्चित परिधि वाले सूक्ष्म 3 से 6 मिलीमीटर व्यास के हलके से जैतूनी हरे धब्बे बनते हैं. बढ़ती अवस्था के साथ इन का रंग गहरा होता जाता है और अंत में ऊपरी सतह पर ये काले रंग के हो जाते हैं. उग्र संक्रमण होने पर पत्तियां कुंचित बैनी यानी सिकुड़ी हुई और बेआकार की हो जाती हैं. फलों पर भी हलके जैतूनी धब्बे बनते हैं जो बाद में गहरे भूरे, फिर काले हो जाते हैं. पुराने धब्बे में उन के किनारों पर त्वचा एक वलय के आकार में ऊपर उठ जाती है. शुरुआती अवस्था में ही भारी संक्रमण होने पर फल की पूरी सतह कार्क के समान हो जाती है और उस में गहरी दरारें पड़ जाती हैं.
रोकथाम : कवकनाशी रसायन जैसे कैप्टान 0.2 से 0.3 फीसदी, डोडीन 0.15 फीसदी या डोडीन+ ग्लोयोडीन 0.15 फीसदी +0.75 फीसदी या पोलीरान 0.15 फीसदी का कली खिलने पर या 7 से 10 दिन के अंतर पर 6 से 7 बार छिड़काव करें.
चूर्णिल आसिता : पत्तियों पर वसंत मौसम में कवकजाल के छोटे धूसर या सफेद धब्बे दिखलाई पड़ते हैं. पत्तियों की निचली सतह पर धब्बे बनते हैं जिस से वे सिकुड़ कर मुड़ जाती हैं. पत्तियों से संक्रमण नई टहनियों पर फैलता है जिन पर पत्तियों के ही समान कवक बनते हैं. नए फलों पर संक्रमण होने से वे छोटे रह जाते हैं जबकि बाद की अवस्थाओं में संक्रमित फलों पर रुक्ष शल्क के लक्षण दिखलाई पड़ते हैं.
रोकथाम : बेनोमिल अथवा थायाबेंडेजोल के 0.1 फीसदी घोल से मृदा मज्जन अथवा कली निकलने के समय से जुलाई के पूर्वार्द्ध तक 10 से 14 दिनों के अंतर पर छिड़काव करें. बेनोमिल के छिड़काव से रोग नियंत्रण के साथसाथ पेड़ की वानस्पतिक बढ़वार पर भी अच्छा असर पड़ता है. कली निकलने के पहले 1:50 सांद्रता वाले गंधक चूना मिश्रण का छिड़काव भी रोग नियंत्रण में फायदेमंद है.
फाइटोफ्थेरा स्तंभ कैंकर : यह तने का रोग है जो 4-5 साल पुराने पेड़ों पर नीचे की शाखाओं पर पाया जाता है. छाल के मर जाने के चलते रोगग्रस्त इलाकों में नया रिसाव होता है जिस से छाल भलेठमी हो जाते हैं. कैंकर अंडाकार, पर कभीकभी अनियमित आकार के भी हो सकते हैं. संक्रमण के 1 से 2 साल के भीतर ही तना गल जाने के चलते पूरा पेड़ मर जाता है. कभीकभी फल विगलन रोग भी देखा जाता है.
रोकथाम : रोग प्रतिरोधी किस्मों के मूलवृंत्तों का इस्तेमाल करें. बाग से ढालों पर मेंड़ बनाएं ताकि बारिश का पानी रोगी से स्वस्थ पेड़ों में बह कर न जा सके.