Ashwagandha : अश्वगंधा एक मध्यम आकार का बहुवर्षीय पौधा है. इस के फल 6 मिलीमीटर चौड़े गोल, चिकने व लाल रंग के होते हैं. इस पर नवंबर तक फूल आने लगते हैं और जुलाई तक फल लगते रहते हैं. अश्वगंधा (Ashwagandha) की जड़ों व पत्तियों का इस्तेमाल तमाम बीमारियों में किया जाता है.
भूमि व जलवायु : अश्वगंधा (Ashwagandha) की खेती अपेक्षाकृत कम उपजाऊ व असिंचित जमीन में ठीक रहती है, खासतौर पर वहां, जहां अन्य लाभदायक फसलें लेना कठिन होता है. इस के लिए जमीन का पीएच मान 7.5 से 8.0 के बीच सही होता है. हलकी लवणीय जमीन में भी इसे उगाया जा सकता है.
प्रजातियां : जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय केंद्र मंदसौर द्वारा इस की जवाहर असगंध 20 व 134 और जवाहर असगंध 22 नामक प्रजातियां विकसित की गई हैं. खराब व सूखे इलाकों के लिए सिमैप, लखनऊ द्वारा ‘पौशिता’ नामक प्रजाति निकाली गई है. सिमैप से ही डब्ल्यूएस 10 लाइन को विकसित कर के ‘रक्षिता’ नामक प्रजाति निकाली गई है. सूखी जड़ उपज 8-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस में 0.5 फीसदी ऐल्केलाइड पाए जाते हैं.
बोआई : अश्वगंधा (Ashwagandha) को सीधे खेत में बीज या नर्सरी द्वारा प्राप्त पौधों का रोपण कर के बोया जा सकता है. नर्सरी तैयार करने के लिए बीजों को जूनजुलाई में बोया जाता है और बोआई के तुरंत बाद फुहारे से पानी डाला जाता है.
1 हेक्टेयर जमीन में रोपाई के लिए 500 वर्गमीटर में 5 किलोग्राम बीज की नर्सरी डाल देनी चाहिए. बोने से पहले बीजों को थीरम, इंडोफिल या डाइथेन एम 45 से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए. ऐसा करने से अंकुर बीज जनित रोगों से सुरक्षित रहते हैं. जब नर्सरी में पौधे 35-40 दिनों के हो जाएं, तो खेत में उन की रोपाई कर देनी चाहिए. रोपाई में लाइन से लाइन की दूरी 20-30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5-10 सेंटीमीटर रखें. बोआई सीधे बीज छिटक कर भी की जा सकती है.
खाद व उर्वरक : अश्वगंधा (Ashwagandha) के लिए ज्यादा उर्वरकों की जरूरत नहीं होती है, लेकिन खेत की तैयारी के समय सड़ी गोबर की खाद डाली जा सकती है.
सिंचाई : नर्सरी से पौध को खेत में लगाने के तुरंत बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए. पहली सिंचाई के बाद 1 महीने के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए.
अश्वगंधा के खास कीट
पत्तीभक्षक : अश्वगंधा (Ashwagandha) पर पत्तीभक्षक कीटों का आक्रमण हो सकता है. इन की रोकथाम के लिए रोगोर या नुआन के 0.6 फीसदी घोल का छिड़काव 2-3 बार करें.
सफेद ग्रब : जड़ों में लगने वाले सफेद ग्रब जड़ों को काट देते हैं. इन की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास के घोल का प्रयोग करें.
रूटनाट निमैटोड : पौधों की जड़ों पर रूटनाट निमैटोड का प्रकोप हो सकता है, जिस से बढ़वार घट जाती है और जड़ों में गांठें बन जाती हैं. इन की रोकथाम के लिए वर्मी कंपोस्ट व ट्राइकोडर्मा हरजियानम को मिला कर इस्तेमाल करें.
अश्वगंधा के खास रोग
बिचज ब्रूम : यह बीमारी फाइटोप्लाज्मा द्वारा पैदा होती है. इस की रोकथाम के लिए टेडट्रासाइक्लिन हाइड्रोक्लोराइड का छिड़काव करें.
डैंपिग आफ : यह रोग आल्टरनेरिया आल्टरनेट रोगाणु द्वारा होता है. डैंपिग आफ रोग में पत्तियां चितकबरी हो कर मुड़ने लगती हैं. इस के नियंत्रण के लिए बीज को डाइथेन एम 45 से (3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) उपचारित करें.
लीफ ब्लाइट : यह रोग भी आल्टरनेरिया आल्टरनेट रोगाणु द्वारा फैलता है. शुरुआत में पत्तियों व फूलों पर हलके भूरे रंग के छोटे धब्बे बनते हैं, जो बाद में बड़े हो जाते हैं. रोग का प्रकोप होने पर डाइथेन एम 45 (0.3 फीसदी), सिलिट (0.2 फीसदी), मैंकोजेब (0.3 फीसदी) या रोवारल (0.2 फीसदी) का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर 3 बार करें.
लीफ कर्ल : इस रोग से पत्तियां मुड़ कर सिकुड़ जाती हैं. इस से बचाव के लिए रोगी पौधों को उखाड़ कर जला दें.
खुदाई : दिसंबर के बाद पौधों पर फूल व फल आने लगते हैं. बोआई के 150 से 180 दिनों बाद फसल खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. जड़ों के लिए पौधे जड़ सहित खोद लिए जाते हैं. खुदाई से 10-12 दिन पहले हलकी सिंचाई करने से जड़ें आसानी से निकाली जा सकती हैं. जड़ों को ग्रेडिंग कर के अलगअलग रखना चाहिए.
उपज : आमतौर पर 1 हेक्टेयर से 6.5 से 8 क्विंटल जड़ें प्राप्त होती हैं, जो सूखने पर 3 से 5 क्विंटल रह जाती हैं. उन्नतशील प्रजातियों व खेती की वैज्ञानिक विधियों के इस्तेमाल द्वारा 8-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज होती है. इस से 50 से 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की उपज भी होती है.




 
  
         
    




 
                
                
                
                
               