कंपोस्ट खाद : वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

आज वर्मी कंपोस्ट खाद बहुत सस्ती, सरल व खेतों के लिए काफी उपयोगी है. गोबर की खाद के लिए जहां भरपूर गोबर उपलब्ध नहीं हो पाता, वहीं दूसरी ओर गड्ढे खोद कर खाद बनाने में भी 6 महीने का समय लगता है. कूड़ाकरकट से बनने वाली कंपोस्ट खाद भी 4 महीने से पहले नहीं बन पाती है, जबकि वर्मी कंपोस्ट खाद 40 से 45 दिन में बन कर तैयार हो जाती है.

खेती के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल काफी खास है. फसल पैदावार की नजर से मिट्टी एक सचेत और जीवंत माध्यम है. भूमि की उत्पादकता कूवत को ध्यान में रखते हुए उस का पालनपोषण अत्यंत जरूरी माना जाता है. अगर हमें रासायनिक खेती को छोड़ कर वर्मी खाद आधारित खेती में बदलना है तो मिट्टी के उपयोग को समझना जरूरी  है. जमीन हमें अनेक तरह के खाद्यान्न मुहैया करा कर हमारी मुफ्त सेवा करती है.

अत: जमीन भी हम से कुछ सेवा की अपेक्षा रखती है. खेतों में प्रति बीघा 100 या 250 मिलीलीटर की शीशी खाली करना ही भूमि की सेवा नहीं है. प्रति बीघा 2 से 3 टन जैविक खाद बना कर खेतों में डालना भूमि की सच्ची सेवा है. ऐसी ही एक जैविक खाद केंचुओं द्वारा निर्मित खाद है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में वर्मी कंपोस्ट के नाम से भी जाना जाता है.

सलाह

एक अच्छे खेत के लिए साल में कम  कम 2 बार 8 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से वर्मी कंपोस्ट का समान मात्रा में इस्तेमाल करना चाहिए. 2 से 3 साल के बाद जमीन की उर्वरता व संरचना देख कर वर्मी कंपोस्ट की मात्रा धीरेधीरे कुछ कम की जा सकती है.

कंपोस्ट खाद के इस्तेमाल से खेतों को सब से ज्यादा लाभ जैविक कार्बन से होता है. इस जैविक कार्बन को किसी भी औद्योगिक उत्पाद के रूप में तैयार नहीं किया जा सकता है. अत: गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट खाद के अलावा मिट्टी में इतनी ज्यादा मात्रा में जैविक कार्बन पहुंचाने का दूसरा कोई माध्यम नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं कि मिट्टी में कार्बन से पौधों को ऊर्जा मिलती है.

पौधों की जड़ों व मिट्टी में उपस्थित अनेक प्रकार के जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण और न घुलने वाले फास्फोरस को घुलनशील फास्फोरस में बदल कर पौधों को मुहैया कराते हैं.

लेकिन कार्बन की कमी के कारण ये जीवाणु ठीक तरह से काम नहीं कर पाते. इसलिए जैविक कार्बन कृषि योग्य मिट्टी के लिए काफी खास तत्त्व माना जाता है. मिट्टी में कार्बन की कमी से सूक्ष्मजीवी सही तरह से सक्रिय नहीं हो पाते, जिस से मिट्टी में ह्मूमस का निर्माण नहीं हो पाता और उस की जलधारण कूवत कम हो जाती है.

मिट्टी में जैविक कार्बन का कितना महत्त्व है, इसे हम इस तरह समझ सकते हैं. यदि घर में 100 वाट का बल्ब लगाया जाए, लेकिन करंट 40 वाट जितना भी न हो तो 100 वाट की रोशनी हमें मिल ही नहीं सकती.

ठीक इसी तरह यदि मिट्टी में कई तरह के सूक्ष्म व पोषक तत्त्व मौजूद रहते हैं, लेकिन कार्बन यदि सही मात्रा में न हो तो पौधे इन तत्त्वों को सही तरह हासिल नहीं कर पाते और उन्हें इन पोषक व सूक्ष्म तत्त्वों की पूर्ति रासायनिक उत्पादों से करनी पड़ती है.

नतीजतन, सब से पहले तो फसल की लागत बढ़ जाती है, इस के बाद मिट्टी में मौजूद रासायनिक उत्पादों का कुछ हिस्सा ही पौधे ले पाते हैं और ज्यादा रासायनिक उत्पादों से  जमीन की संरचना व उर्वरता भी बिगड़ जाती है. मिट्टी में पौधों की संतुलित बढ़ोतरी के लिए 16 तरह के पोषक तत्त्व जरूरी बताए गए हैं, जिन में सब से पहला स्थान जैविक कार्बन का ही है. देश में मिट्टी को सोना बनाने की जो बात कही जाती  है वह मुख्य रूप से मिट्टी में जैविक कार्बन की उपस्थिति पर ही निर्भर करती है.

जमीन को भी खुराक की जरूरत होती है. उसे भूखा रख कर हम कब तक अन्न हासिल कर सकेंगे. रासायनिक उर्वरक जमीन का भोजन नहीं है, कार्बनिक पदार्थों व 16 तरह के पोषक तत्त्वों से युक्त गोबर या कंपोस्ट खाद ही जमीन का  भोजन है.

रासायनिक उर्वरक जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं. गोबर या कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल किए बिना जमीन में रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करना हानिकारक होता है. अलगअलग फसलों में विभिन्न तरह की बीमारियों व कीटों के लिए कई तरह के रासायनिक उत्पाद बाजार में बिकते हैं. खड़ी फसल बचाने के लिए रासायनिक उत्पादों का इस्तेमाल कोई बुराई नहीं है, लेकिन रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी ज्यादा से ज्यादा अहमियत देनी चाहिए.

देश में इतने सालों तक केवल रासायनिक खेती करने के बाद भी यदि हम जमीन से अनाज हासिल करते हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों को जाता है, जिन्होंने युगों तक इस जमीन में जैविक खेती की वरना अमेरिका जैसा राष्ट्र केवल कुछ समय तक रासायनिक खेती कर के अपनी 12 करोड़ एकड़ कृषि लायक जमीन गंवा चुका है और अब अपने कृषि कार्यक्रम में रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी काफी महत्त्व दे रहा है. वहीं दूसरी ओर जैविक खेती का जनक भारत केवल रासायनिक खेती के कुचक्र में दिनोदिन फंसता जा रहा है. यदि यही हालात रहे तो आने वाली पीढि़यों को कृषि योग्य जमीन के नाम पर रासायनिक झील व दलदल के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.

वर्तमान हालात में किसानों का रासायनिक उत्पादों का उपयोग किए बिना अधिकतम उपज लेना आसान नहीं है, लेकिन किसानों को कंपोस्ट खाद व अन्य जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करने में किसी भी तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.

अपने कृषि कार्यक्रम में जैविक खेती अपनाने पर किसानों का आर्थिक पहलू किसी भी तरह से कमजोर नहीं होगा, क्योंकि स्वास्थ्यप्रद जैविक खाद्य सामग्री हमेशा दोगुने दामों पर बिकती है और जमीन, जल व हवा भी प्रदूषणमुक्त रहते हैं.

देश में करोड़ों रुपए का शुद्ध पानी मिनरल वाटर की बोतलों में बिक सकता  है, तो जैविक खेती से उत्पन्न स्वास्थ्यप्रद खाद्य सामग्री भी ऊंचे दामों पर आसानी से बाजार में बिक सकती है.

पौधों के पोषण के लिए किसानों ने खुद पहल की और गोबर व गौमूत्र आधारित खादें तैयार कर इस्तेमाल कीं, जैसे अमृपानी, मटा खाद, हरी पत्तियों की तरल खाद, बायोगैस संयंत्र की स्लेरी खाद, सींग खाद आदि तरल और त्वरित खाद ने भी कमाल का काम कर दिखाया. प्रयोगशील किसानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व कुछ कर्मठ देशप्रेमी वैज्ञानिकों ने इस जैविक खेती पद्धति को कृषि विज्ञान में बदलना शुरू किया और खुद इस्तेमाल कर अनुकूल परिणाम हासिल कर दिखाया कि यह एक चिरस्थायी पद्धति है.

गेहूं, चना, मक्का, ज्वार, अरहर, मूंग, तिल, मूंगफली, कपास, सोयाबीन, फल, सब्जी, चरीचारा, सभी फसलें जैविक पद्धति से उपजा कर दिखा दिया कि बिना बाजारू कृषि उत्पादों के भी अच्छी खेती की जा सकती है.

खेती में कीट और बीमारी भी कभीकभी आती है, लेकिन जैविक कृषि पद्धति अपनाएंगे तो यह भी कम हो जाती है. गोमूत्र, पुरानी छाछ, हींग, मिर्च, लहसुन का मिश्रण, नीम का तेल, नीम, करंज, शरीफा, आईपोमिया, गाजर घास आदि पानी में घोल कर 15-20 दिन के अंतर से छिड़काव करने से कीट और बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है.

टिकाऊ यानी जैविक खेती (Organic Farming)

आजादी से पहले जैविक खेती ही होती थी और तब देश कि खाद्यान्न में आत्मनिर्भर न होने के कारण विदेशों से अनाज मंगाया जाता था. देश की आजादी के बाद हरितक्रांति की शुरुआत हुई और तब  से लगातार रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से फसल की अच्छी पैदावार इस बात का सुबूत है कि 60 के दशक से पहले जैविक खेती से खाद्यान्न उत्पादन उतना नहीं होता था जितना कि आज रासायनिक खेती से हो रहा है. यदि यह तथ्य सही है तो किसान जैविक खेती क्यों करेगा?

आज खेती निश्चित तौर से किसान के आर्थिक पहलू से जुड़ी है, अत: किसान वही खेती करेगा जिस में उसे अच्छा लाभ मिलेगा. यदि जैविक खेती में रासायनिक खेती के मुकाबले कम खाद्यान्न उत्पादन होता हो और किसान को घाटे की भरपाई नहीं हो पा रही हो तो किसान के लिए जैविक खेती का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. लेकिन दूसरी तरफ जमीन की उर्वरता का संरक्षण किए बगैर इसी तरह अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते रहे तो एक दिन यह सब रेगिस्तान में बदल जाएगा.

अगर दोनों पक्ष अपनीअपनी जगह सही हैं तो किसान खेती का चुनाव कर ऊपर लिखे तथ्यों के आधार पर यह समझ लें कि जमीन के स्वास्थ्य की कीमत पर अधिक फसल का लालची प्रयास ज्यादा दिन नहीं टिक सकता है. रासायनिक उर्वरकों से नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की ही पूर्ति होती है. शेष 13 तरह के सूक्ष्म तत्त्वों की आवक नहीं होगी तो भूमि की उर्वरता व संरचना कब तक बनी रहेगी और ऐसी जमीन से पैदा होने वाला खोखला अनाज हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर डालेगा?

जैविक खेती (Organic Farming)

पौधों को पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने के लिए कृषि विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार उर्वरकों का उपयोग करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन गोबर की खाद का प्रयोग न करने और रासायनिक उर्वरकों पर ही पूरी तरह निर्भर रहने से जमीन की उर्वराशक्ति कमजोर हो जाती है.

दूसरी तरफ कीटनाशकों के जहरीले रसायनों के बुरे नतीजों से सारा विश्व चिंतित है. वैज्ञानिकों के अनुसार कीटनाशकों के इस्तेमाल से मित्र कीट लगातार मर रहे हैं और हानिकारक कीटों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है.

इन रसायनों के खराब नतीजों से साफ है कि रासायनिक खेती टिकाऊ विकल्प नहीं हो सकती. अत: 90 के दशक से ही दुनिया के अनेक देशों ने जैविक खेती की वकालत शुरू कर दी है.

जीवाणु खाद और उस से होने वाले लाभ के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि गोबर या कंपोस्ट खाद का कोई चारा नहीं है. गोबर या कंपोस्ट खाद के उपयोग से मिट्टी की उर्वरता और संरचना कायम रखने के लिए समस्त पोषक तत्त्वों की आपूर्ति हो जाती है, जबकि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में किसी न किसी रूप में पोषक तत्त्वों की कमी रहती ही है. यदि मिट्टी में जरूरी पोषक तत्त्व नहीं होंगे तो हाईब्रिड फसलों को कम उपज के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. गोबर या कंपोस्ट का उपयोग करते रहने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को काफी कम किया जा सकता है. खेतों में यदि पोषक तत्त्व उचित मात्रा में होंगे तो पौधे एकदम स्वस्थ होंगे तथा स्वस्थ पौधों पर बीमारी का असर भी कम होगा, क्योंकि सामान्यत: कमजोर पौधे ही ज्यादा रोग से पीडि़त होते हैं.

जैविक या कार्बनिक खाद में सभी तरह के पोषक तत्त्व अधिक या कम मात्रा में होते हैं, लेकिन पौधों को ये पोषक तत्त्व धीरेधीरे प्राप्त होते हैं. सामान्यत: खाद में पोषक तत्त्वों की कमी और कार्बनिक पदार्थों की अधिकता होती है. मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के बढ़ने से सूक्ष्म जीवियों की संख्या बढ़ जाती है और सूक्ष्मजीवी मिट्टी में मौजूद जहरीले पदार्थों को खत्म कर के उन्हें बेकार करते हैं और सड़ेगले कार्बनिक पदार्थों को ह्मूमस में बदल देते हैं.

खाद के इस्तेमाल से मिट्टी में हवा का आनाजाना और पानी सोखने की कूवत बढ़ जाती है. इस से मिट्टी में प्रत्यारोधन की कूवत का विकास होता है. खाद का ज्यादा इस्तेमाल करने पर भी मिट्टी या पेड़पौधों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है.

जैविक खेती (Organic Farming)

गोबर की खाद

पशुओं के भोजन का पूरा या आधाअधूरा पचा हुआ भाग, जो पशुओं द्वारा मल के रूप में निकाल दिया जाता है, गोबर कहलाता है. गोबर की खाद में भैंस, गाय, बैल, भेड़, मुरगी, घोड़ा आदि पशुओं के मल को भी शामिल किया जाता है.

गोबर की खाद में मौजूद पोषक तत्त्व पौधों के लिए धीरेधीरे अलग होते हैं, इस कारण खेतों में गोबर की खाद का प्रभाव लंबे समय तक बना रहता  है. यह खाद मिट्टी में विनिमेय कैल्शियम बढ़ाती है, जो उस की भौतिक दशा सुधारने के लिए काफी खास मानी जाती है. खेतों में गोबर की खाद का इस्तेमाल करने पर पानी धीरेधीरे छूटता है, जिस में पौधे लंबे समय तक फायदे में रहते हैं. गोबर की खाद से मिट्टी में सूक्ष्म जीवियों की सक्रियता बढ़ जाती है, जिस से उस में ह्मूमस की मात्रा बढ़ती है और ह्मूमस रेतीली मिट्टी में पानी सोखने की कूवत में सुधार होता है और चिकनी मिट्टी को स्पंजी बनाता है.

घर के कचरे से बनाएं केंचुआ खाद (Vermicompost)

घर के जैविक कचरे जैसे सब्जियों का कचरा, बगीचे की पत्तियों, घासफूस आदि सभी का व्यवस्थित रूप से नियोजन कर के जैविक खाद बनाई जा सकती है. घर के कचरे से बहुत अच्छी वर्मी कंपोस्ट बनती है. घर के कचरे से अच्छी जैविक खाद बनाने के लिए कुछ छोटेछोटे मौडल विकसित किए गए हैं.

ये मौडल औरंगाबाद की विवम एग्रोटेक संस्था द्वारा विकसित डिजाइन है. इस का आकार 2×2×1.5 है. यह तार की जालियों और लोहे के फ्रेम से बना मौडल है. यह भीतर से चारों तरफ से हरी शेड नेट से घिरा रहता है. इस में ढक्कन भी है, जिस से यह पूरी तरह ढका रहता है. इस का बाजार मूल्य केंचुए सहित 2,500 रुपए है.

इस मौडल में पहले 2-3 इंच मोटी कचरे व पुराने गोबर की परत डाल कर करीब 200 केंचुए छोड़ देते हैं. इस के बाद रोज 200 से 500 ग्राम घर की सब्जियों व फलों से निकलने वाला कचरा डाला जा सकता है. ज्यादा मात्रा में नीबू, टमाटर, प्याज, आदि न डालें. इस से अम्लता बढ़ने पर केंचुओं को नुकसान हो सकता है. रसोई घर के कचरे के साथ जूठन अधिक मात्रा में न डालें, इस में नमक होने से केंचुओं को नुकसान होता है. इस से चीटियां भी होती हैं, जो केंचुओं को नुकसान पहुंचाती हैं. किचन वैस्ट की परत के ऊपर 2 से 3 इंच मोटी घास अथवा सूखे कचरे की परत डालें.

किचन वैस्ट प्रतिदिन इकट्ठा होगा तो उस में मच्छर पनप सकते हैं, जो नुकसानदायक है. इसलिए उसे ढकना जरूरी है. इस तरह रोज करीब 2 माह तक घर का कचरा उस में डाला जा सकता है और उस पर हमेशा हलका पानी छिड़कें, ताकि नमी बनी रहे. 60-70 दिन के बाद ऊपर का ताजा किचन वैस्ट जो सड़ा नहीं है, वह थोड़ा हटा कर देखें, यदि नीचे खाद तैयार हो गई है तब पानी देना व अतिरिक्त कचरा डालना भी बंद कर दें. केंचुए एकदो दिन में नीचे की तरफ चले जाएंगे. ऊपर का आधा सड़ा कचरा धीरेधीरे हाथ से एक तरफ हटा कर नीचे की खाद निकाली जा सकती है.

इस मौडल को एक परिवार ने इस्तेमाल किया था. उन्होंने उपरोक्त विधि से इस का इस्तेमाल किया. उन्हें तकरीबन 3 महीने में रसोई के कचरे से साढ़े 7 किलोग्राम खाद हासिल हुई और केंचुओं की संख्या बढ़ कर 3,440 हो गई. ऐसे बहुमंजिले  घरों में जहां घर का आंगन यानी बगीचा नहीं है, वहां सिर्फ रसोई के कचरे से वर्मी कंपोस्ट बनाई जा सकती है, जो गमलों के लिए उपयोगी है. यदि कचरे के साथ बगीचे का कचरा भी हो तब 12 से 15 किलोग्राम खाद हर 3 महीने में हासिल की जा सकती है.

घर के कचरे का इस्तेमाल बागबानी में कर के हम बाग को तो सजाएंगे ही साथ ही पर्यावरण को भी दूषित होने से बचाएंगे, जिस का लाभ संसार के सभी जीवों को हासिल होगा.

निजी क्षेत्र को कृषि शोध में निगरानी के साथ बढ़ावा देना समय की मांग

हिसार : चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में ‘कृषि शोध में आवश्यक बदलाव लाने एवं निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने’ विषय पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तत्वावधान में औनलाइन मीटिंग का आयोजन किया गया. केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी इस अवसर पर मुख्यातिथि के रूप में उपस्थित रहे. इस बैठक में देश के विभिन्न विभागों के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों, वैज्ञानिकों, निजी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों एवं प्रगतिशील किसानों सहित सभी हितधारकों ने भाग लिया.

केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी ने अपने संबोधन में किसानों की माली हालत को सुदृढ़ करने एवं खेती की लागत को कम कर के उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि पहले हमारे देश में खाद्यान्न उत्पादन कम होने के कारण अनाज को विदेशों से मंगाना पड़ता था. खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी करने के लिए कृषि वैज्ञानिक देश में हरित क्रांति ले कर आए. अब हमारा देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर ही नहीं, बल्कि विदेशों में अनाज का निर्यात कर रहा है. लेकिन देश में छोटे एवं सीमांत किसानों की संख्या अधिक है, खेती की लागत बढ़ती जा रही है व गुणवत्तापूर्ण उत्पादकता में बढ़ोतरी कृषि क्षेत्र की मुख्य चुनौतियां हैं, जिन से निबटने के लिए कृषि वैज्ञानिकों को और अधिक शोध करने की आवश्यकता है.

यद्यपि, कृषि आदान जैसे बीज, उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवारनाशक आदि उपलब्ध करवाने में निजी क्षेत्र का 50 फीसदी से भी अधिक योगदान है, लेकिन मानकों के अनुसार इन आदानों की गुणवत्ता पर निगरानी रखना सरकार की अहम जिम्मेदारी है. फसल उत्पादन के साथ ही उत्पाद की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए समग्र सिफारिशें उपलब्ध करवाना कृषि विश्वविद्यालय की अहम भूमिका है, क्योंकि कृषि उत्पादों की गुणवत्ता के आधार पर ही किसान अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इन्हें बेच कर अच्छी आमदनी हासिल कर सकते हैं.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने कहा कि कई क्षेत्रों में खेती में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों आदि रसायनों का प्रयोग सिफारिश से अधिक होने के कारण आज यह भूमि, जल व पर्यावरण में घुलने के साथ खाद्य श्रंखला (फूड चेन) में प्रवेश कर गए हैं, जो मानव जाति में गंभीर बीमारियों का कारण बन रहे हैं.

उन्होंने किसानों से पारंपरिक पद्धति से हट कर प्राकृतिक खेती अपनाने पर जोर देते हुए कहा कि इस खेती पद्धति में कृषि अवशेषों का प्रयोग होने से लागत कम आएगी, जिस से किसानों की आमदनी बढ़ेगी और कृषि उत्पादन की गुणवत्ता में भी वृद्धि होगी. कृषि में प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध हो रहे दोहन पर चिंता जताई और किसानों को कृषि उत्पादन के साथ इन की गुणवत्ता सुधारने पर ध्यान देने को कहा. साथ ही, जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए ऐसी फसलों की उन्नत किस्में उगाने को बढ़ावा देना चाहिए, जो कम पानी में अधिक पैदावार दे सकें.

बैठक में उपस्थित विभिन्न किसानों ने कृषि एवं बागबानी के क्षेत्र में किए जा रहे अपने अनुभव भी साझा किए.

अनुसंधान निदेशक डा. राजबीर गर्ग ने बताया कि हितधारकों की इस बैठक में डीएएफडब्ल्यू के सचिव डा. देवेश चर्तुवेदी ने सभी का स्वागत किया. आईसीएआर के महानिदेशक डा. हिमांशु पाठक ने उपरोक्त विषय के संदर्भ पर प्रकाश डाला.

इस अवसर पर आईसीएआर के पूर्व डीजी डा. एस. अयप्पन व डा. त्रिलोचन महापात्रा, एनआरएए के सीईओ डा. अशोक डलवानी, जेएनयू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. सुधीर के. सोपोरी व डा. प्रवीण राव, डा. अरविंद कुमार पाधी, डा. राम कोनदनिया, प्रभाकर राव, कंवल सिंह चौहान, डा. एके सिंह, डा. केबी काथिरिया, डा. के. केशावुलू , डा. सुरेंद्र टिक्कु, डा. राजवीर सिंह राठी, मनोज भाई पुरुषोत्तम सोलंकी ने भी उपरोक्त विषय पर अपने विचार रखे.

इस अवसर पर प्रगतिशील किसान प्रीतम सिंह, पलविंदर सिंह, सुभाष चंद, सुल्तान सिंह, सुरेंद्र सिंह व सुरेंद्र सिंह स्याड़वा भी उपस्थित रहे.

पर्यावरण रक्षा (Environmental Protection) के नाम पर पेड़ लगाने का दिखावा

आजादी के बाद से अब तक हम ने देश में जितने भी पौधे रोपित किए, अगर उन में से  50 फीसदी भी जिंदा होते और जंगल बचाए जाते, तो हरित संपदा में हम  दुनिया में नंबर वन होते. यहां मनुष्य को खड़े होने के लिए जगह नहीं बचती.

डेढ़ 2 महीने की चुनावी कवायद के बाद देश की  सरकार बनने की आपाधापी के दरमियान 5 जून का ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ कब दबे पांव आया और निकल लिया, यह आम अवाम को तो पता भी न‌ चला. किंतु सोशल मीडिया व दूसरे दिन के समाचारपत्रों से पता चला कि देशभर में विभिन्न संस्थाओं, सरकारी कार्यालयों में हीट वेव में भी जबरदस्त वृक्षारोपण कार्य संपन्न हुआ है.

पिछले 30 वर्षों से हम खुद पेड़ लगा रहे हैं, पर आज तक यह नहीं समझ पाए कि हमारे देश के किस विद्वान के दिमाग की उपज थी कि यहां ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ 5 जून के दिन ही हो और इस दिन वृक्षारोपण किए जाएं, जबकि विशेषज्ञों का मत है कि असिंचित क्षेत्रों में वृक्षारोपण का आदर्श समय जुलाईअगस्त माह होना चाहिए.

अब चूंकि यह रिवाज बन गया है, इसलिए शासकीय कार्यालयों में, स्कूलों में, अधिकारी, नेता, शिक्षक, बच्चे सभी 5 जून को वृक्षारोपण कर रहे हैं, वन विभाग इस में सब से आगे है,  जबकि देश के ज्यादातर हिस्सों में अभी भी नौतपा का ताप उतरा नहीं है. कई जगहों पर लू चल रही है.

लू से बचने के तमाम तरीकों की जानकारी रखते हुए पढ़ेलिखे जानकार तमाम डाक्टर एवं दवाओं के रहते भी मौत के मुंह में समा रहे हैं. ऐसी हालत में 5 जून को लगाए गए ये नन्हे पौधे 48 घंटे भी जिंदा रह पाएंगे, यह कहना कठिन है.

यह भी सच है कि भारत में मानसून आमतौर पर  15 जून के बाद ही सक्रिय हो पाता है, पर ‘पर्यावरण दिवस’ के नाम पर सरकारी वृक्षारोपण की खानापूर्ति 5 जून को ही होना अनिवार्य है.

इस काम में हमारे वन विभाग हर साल सब को पीछे छोड़ देते हैं. स्वनाम धन्य वन विभाग को इस में सब से आगे होना भी चाहिए, क्योंकि देश के हजारों साल पुराने व जैव विविधता से समृद्ध लगभग सभी जंगलों को तो इन्होंने काट कर, कटवा कर, बेच कर फूंकताप लिया है. इन की सफाईपसंदगी का यह आलम है कि जंगलों में ठूंठ तक नहीं छोड़ा गया है. इधर कुछेक दशकों से वृक्षारोपण नामक नए चारागाह को जंगलों की रक्षा के नाम पर बनी ये बाड़ें निर्द्वंद्व भाव से चट करते जा रही हैं.

हर साल नए पेड़ लगाने, पुराने वनों का सुधार, परती भूमि संरक्षण आदि तरहतरह की योजनाएं बना कर सरकार से जनता के पैसे लो, वृक्षारोपण की नौटंकी करो, फिर उन की देखरेख भी मत करो, ताकि सारे पौधे मर जाएं. अगले साल फिर योजना बनाओ, फिर पैसे लो, फिर वृक्षारोपण की नौटंकी करो. यही इस साल भी हुआ.

वृक्षारोपण की फोटो खिंचवा कर सोशल मीडिया पर डालना एक रिवाज बन गया है, बस किसी तरह समाचारपत्र में यह छप जाए कि अमुक ने पौधा रोप कर देश के पर्यावरण पर एहसान कर दिया है, अब आगे पौधा पनपे या सूख जाए.

हमारे देश में सरकारी वृक्षारोपण की हालत यह है कि आजादी के बाद वृक्षारोपण कर जितने पौधे लगाए गए, उन में से 50 फीसदी भी अगर जिंदा रह जाते तो या देश विश्व का सब से हराभरा  देश होता.

5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के रूप में हम 1973 से लगातार इसे मना रहे हैं. हर साल पर्यावरण की रक्षा के लिए विभिन्न काम निर्धारित किए जाते हैं, जिस पर हर देश से पूरे वर्ष प्राथमिकता के आधार पर ठोस काम करने की अपेक्षा की जाती है.

सऊदी अरब ‘पर्यावरण दिवस समारोह 2024’ की मेजबानी कर रहा है. पर्यावरण की रक्षा के लिए इस वर्ष भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखे से निबटने पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य अपना ध्यान केंद्रित करते हुए बहुद्देशीय योजनाओं पर काम कर रहे हैं. हम इस में क्याक्या कर रहे हैं, यह सोचने का अलग विषय है. हमारे देश में पर्यावरण रक्षा के नाम पर केवल पेड़ लगाने की नौटंकी मात्र की जाती है. लगाने के बाद इन पेड़ों को इन के हाल पर छोड़ दिया जाता है. इन में से ज्यादातर पौधे मर जाते हैं.

पेड़ों के मामले में सब से धनी देश कनाडा में प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या 10,163 है, वहीं हमारे देश में पिछले 7 दशकों की सतत नौटंकी के बावजूद प्रति व्यक्ति महज 28  पेड़  बचे हैं. विश्व में सब से गरीब देशों में शुमार किए जाने वाला देश इथोपिया भी हरित संपदा के मामले में प्रति व्यक्ति 143 पेड़ों के साथ हम से 5 गुना ज्यादा समृद्ध है.

इस पर्यावरण दिवस की खानापूर्ति करने के लिए हम ने भी पीपल का पेड़ अपने “इथनो मैडिको हर्बल गार्डन” में लगाया है.

खैर, हम ने जो पीपल का पौधा रोपा है, वह तो हम  हर हाल में जिंदा रख लेंगे, पर क्या आप सभी, जिन्होंने इस दिन पौधों का रोपण किया है, क्या ईमानदारी से वादा करेंगे कि आप ने इस बार जितने पौधे रोपे हैं, उन्हें हर हाल में जिंदा रखेंगे?

एमपीयूएटी को प्रौद्योगिकी (Technology) पर 32 पेटेंट

उदयपुर : क्षेत्रीय अनुसंधान एवं प्रसार सलाहकार समिति संभाग चतुर्थ-अ की बैठक 2 मई, 2024 को कृषि अनुसंधान केंद्र, उदयपुर में आयोजित की गई. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने गत वर्षों में विभिन्न प्रौद्योगिकी पर 32 पेटेंट प्राप्त किए. साथ ही, राष्ट्रीय स्तर पर बकरी की 3 नस्लें एवं भैंस की एक नस्ल को रजिस्टर्ड कराया. गत वर्ष को विश्वविद्यालय ने मिलेट वर्ष के रूप में मनाया एवं एक पिक्टोरियल गाईड भी जारी की.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि पिछले वर्ष अफीम की चेतक किस्म, मक्का की पीएचएम-6 किस्म के साथ असालिया एवं मूंगफली की किस्में विकसित की. उन्होंने सभी वैज्ञानिकों से आग्रह किया कि सभी फसलों की नई किस्में विकसित की जाएं, ताकि किसानों को अधिक से अधिक लाभ मिल सके.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि आज कृषि में स्थायित्व लाने के लिए कीट, बीमारी प्रबंधन एवं जल प्रबंधन पर काम करना होगा. उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि विश्वविद्यालय ने जैविक/प्राकृतिक खेती में राष्ट्रीय पहचान बनाई है.

उन्होंने बताया कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक ने विश्वविद्यालय से कहा कि भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान के साथ मिल कर प्राकृतिक खेती की रूपरेखा तैयार की जाए.

अपने भाषण के दौरान उन्होंने कृत्रिम बुद्धिमत्ता व डिजिटल इंजीनियरिंग पर उत्कृष्टता केंद्र पर बल दिया. साथ ही, उन्होंने सभी वैज्ञानिकों को आह्वान किया कि विश्वविद्यालय की आय विभिन्न तकनीकियों द्वारा बढ़ाई जाए.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के निदेशक अनुसंधान डा. अरविंद वर्मा ने बैठक में अपने संबोधन में विश्वविद्यालय के द्वारा विभिन्न फसलों पर किए गए अनुसंधान द्वारा विकसित तकनीकियों के बारे में बताया. साथ ही, उन्होंने जैविक खेती पर विकसित पैकेज औफ प्रैक्टिस की जानकारी सदन को दी.

उन्होंने कहा कि गत वर्ष औषधीय एवं सुंगधित परियोजना को उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रथम स्थान मिला. विश्वविद्यालय ने गत वर्ष विभिन्न फसलों की 4 किस्में विकसित की.

डा. अरविंद वर्मा ने बताया कि हरित क्रांति के बाद कृषि तकनीकों के क्षेत्र में खासतौर पर बीज, मशीन और रिमोट संचालित तकनीकों में व्यापक बदलाव आया है. पिछले दशक में तकनीकी हस्तांतरण अंतराल ज्यादा था, लेकिन अब किसान ज्यादा जागरूक होने से तकनीकी हस्तांतरण ज्यादा गति से हो रहा है.

डा. पीके सिंह, अधिष्ठाता, अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी महाविद्यालय ने अपने उद्बोधन में सरकार द्वारा संचालित योजनाओं पर प्रकाश डाला. उन्होंने जल ग्रहण प्रबंधन की आवश्यकता पर बल दिया. उन्होंने अपने उद्बोधन में राजस्थान प्रतिवेदन में जल बजटिंग एवं विभिन्न फसलों में जल उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए सेंसर आधारित सिंचाई प्रणाली पर जोर दिया.

डा. लोकेश गुप्ता, राजस्थान कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता ने दूध की गुणवत्ता एवं उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया एवं उन्होंने पशुधन उत्पादकता बढ़ाने की तकनीकियों पर प्रकाश डाला.

बैठक के प्रारंभ में डा. राम अवतार शर्मा, अतिरिक्त निदेशक कृषि विभाग, भीलवाड़ा ने गत खरीफ में वर्षा का वितरण, बोई गई विभिन्न फसलों के क्षेत्र एवं उन की उत्पादकता के बारे में विस्तार से जानकारी दी.

किसानों को लुभा नहीं सकी ‘आंकड़ों की खेती’

हमारे देश में बड़े कोरोना संकट के दौरान जिन करोड़ों किसानों ने रातदिन मेहनत कर के अन्न भंडारों को भर दिया था, उन को मोदी सरकार के इस बार के आम बजट ने बेहद निराश किया. संसद में भी इसे ले कर काफी चर्चा हुई और किसानों में भी.

बजट सत्र का पहला चरण 29 जनवरी से 13 फरवरी के बीच चला. लेकिन अब संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति  22 और 23 फरवरी के दौरान कृषि एवं किसान कल्याण, कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग, मत्स्यपालन, डेरी एवं पशुपालन और खाद्य प्रसंस्करण के शीर्ष अधिकारियों को बजट की अनुदान मांगों पर तलब कर रही है. इस में भी बजट को ले कर काफी गंभीर चर्चा होगी और इस की रिपोर्ट बजट सत्र के दूसरे चरण में संसद में रखी जाएगी.

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसानों ने जो आंदोलन शुरू किया था, उस का दायरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान होते हुए देश के तमाम हिस्सों में फैल चुका है. सरकारी स्तर पर आंदोलन को खत्म करने की सारी कोशिशें नाकाम रहीं.

हालांकि आम बजट किसान असंतोष को दूर करने का बेहतरीन मौका था, लेकिन सरकार इस में भी सफल नहीं हो सकी. देश के सभी प्रमुख किसान संगठनों ने इस बजट को बेहद निराशाजनक माना है.

संसद के बजट सत्र के पहले चरण में किसान असंतोष के साथ खेती की अनदेखी और निराशाजनक खास चर्चा में रहा.

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव और बजट पर सामान्य चर्चा में कई सांसदों ने कृषि और ग्रामीण विकास मद में धन आवंटन को असंतोषजनक माना. चंद योजनाओं को छोड़ दें, तो कृषि और संबद्ध क्षेत्र का आवंटन निराशाजनक रहा. सब्सिडी में कमी के साथ सरकार ने कृषि ऋण का लक्ष्य 16.5 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया है.

घाटे की खेती कर रहे किसानों को इस से आंशिक राहत भले ही मिले, लेकिन कर्ज के दलदल से बाहर आने का कोई रास्ता उन को नहीं दिखता है. इस नाते कृषि और ग्रामीण भारत के कायाकल्प का दावा फिलहाल इस बजट से दूरदूर तक पूरा होता नहीं दिख रहा है.

साल 2014 के बाद मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय का नाम बदल कर कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय करने के साथ साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए लंबे लक्ष्य तय किए. पीएम किसान, किसान मानधन, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई परियोजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, जैविक खेती, मृदा स्वास्थ्य कार्ड से ले कर जैविक खेती जैसी कई पहल की.

दूसरी हरित क्रांति और प्रोटीन क्रांति के दावे के साथ वंचित क्षेत्रों के विकास और उचित भंडारण व्यवस्था से ले कर एमएसपी के बाबत स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने का भी दावा किया गया.

बीज से बाजार तक कई अहम घोषणाएं हुईं और किसानों की आय बढ़ाने के लिए बड़े निवेश और 10,000 नए किसान उत्पादक संगठन यानी एफपीओ की स्थापना का लक्ष्य रखा गया. लेकिन ये सारे काम आधेअधूरे मन से हुए. खुद कृषि संबंधी स्थायी समिति ने अहम योजनाओं में आवंटन और प्रगति को असंतोषजनक माना है.

आंकड़ों के लिहाज से देखें, तो साल 2009 से 2014 तक यूपीए ने कृषि बजट में 1,21,082 करोड़ रुपए खर्च किए, जबकि मोदी सरकार के पांच सालों में 2014-19 के दौरान 2,11,694 करोड़ रुपए हो गए. लेकिन कृषि संकट के दौर में जब और मदद की दरकार थी, तो कृषि और ग्रामीण विकास बजट कम हो गया.

कृषि और संबद्ध गतिविधियों के लिए बजट आवंटन 2021-22 में 1,48,301 करोड़ रुपए कर दिया गया, जबकि इस मद में 2020-21 में 1,54,775 करोड़ रुपए का प्रावधान था.

इसे संशोधित अनुमान में घटा कर 1,45,355 करोड़ रुपए कर दिया गया. ग्रामीण विकास मद में भी अहम योजनाओं में कटौती कर दी गई. सब से बड़ी योजना मनरेगा का संशोधित बजट अनुमान 2020-21 में 1,11,500 करोड़ रुपए था, जिसे 2021-22 के बजट में घटा कर 73,000 करोड़ रुपए कर दिया गया.

राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, जिस का संशोधित अनुमान वर्ष 2020-21 में 42,617 करोड़ रुपए था, उसे 2021-22 में घटा कर 9,200 करोड़ रुपए कर दिया गया.

मनरेगा योजना कोरोना संकट में वरदान बन कर उभरी थी, लेकिन सरकार ने जो आवंटन किया है, उस से लगता है कि गांव में रोजगार की अब दिक्कत नहीं रही.

खेती के उपयोग में आने वाली वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं. श्रम लागत, बीज, उर्वरक, कीटनाशकों, रसायनों से ले कर पेट्रोल और डीजल तक महंगे हुए हैं. ऐसे में खेती का बजट कम होने से इन की चुनौती और बढ़ी है.

किसानों की रासायनिक खाद मद में सब्सिडी घटा दी गई. इस मद में 2021-22 में 79,530 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जबकि 2020-21 का संशोधित अनुमान 1,33,947 करोड़ रुपए रहा. पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी का भी कम होने का असर कृषि क्षेत्र पर दिखेगा.

खुद खाद्य सब्सिडी मद में 2021-22 में 2,42,836 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया, जबकि इस मद में 2020-21 में 4,22,618 करोड़ रुपए का संशोधित अनुमान था. इस का असर गरीबों पर पड़ना तय है.

इस समय कृषि क्षेत्र में केवल प्रधानमंत्री किसान योजना ही ऐसी है, जिस को कहा जा सकता है कि यह एक मददगार योजना है. लेकिन सीमित मायनों में यह चुनावी लाभ के लिए आरंभ की गई थी. इस मद में 2019-20 में 48,714 करोड़ रुपए का बजट आवंटन था, जो जिस का संशोधित अनुमान 2020-21 में 65,000 करोड़ रहा. इतना ही आवंटन 2021-22 में किया गया है और अगर पश्चिम बंगाल भी इस योजना में शामिल हो जाता है, तो पैसा कम पड़ेगा.

राज्यसभा में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने माना कि आरंभ में योजना में 14.5 करोड़ किसानों का आकलन किया गया था, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद 10 करोड़, 75 हजार किसान ही रजिस्टर्ड हो सके हैं. ऐसे में 65 हजार करोड़ रुपए में काम चलेगा.

इस बजट में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का आवंटन बढ़ा कर 16,000 करोड़ रुपए किया गया. यह योजना अभी किसानों को रिझा नहीं पा रही है, वहीं किसानों को मिलने वाले छोटी अवधि के कर्जों की ब्याज सब्सिडी के लिए 19,468 करोड़ रुपए का प्रावधान है.

कृषि शिक्षा और अनुसंधान के लिए बजट 2021-22 में मामूली बढ़ा कर 8,514 करोड़ रुपए पर लाया गया है, वहीं खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए आरंभ की गई प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना का बजट 700 करोड़ रुपए तक सीमित है. इस पर 2019-20 में 819 करोड़ रुपए का वास्तविक खर्चा हुआ था.

Farming

इस बजट में 2018-19 में घोषित 22,000 ग्रामीण हाटों के विकास की कोई दिशा नहीं है, जो छोटे किसानों के लिए सब से मददगार बन सकती थी. 29 जनवरी, 2021 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने अभिभाषण में 10 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों पर ही अपने भाषण का फोकस रखा था.

सरकार की मंशा है कि आजादी के 75वें साल में किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाए. लेकिन आमदनी बढ़ाने के लिए नीति निर्माताओं को जिन रास्तों पर संसाधन देना था, वह नहीं दिया गया है.

प्रधानमंत्री की एक बहुप्रचारित योजना 10 हजार किसान उत्पादक संगठनों या एफपीओ के गठन की रही है. इस से छोटे किसानों के जीवन को बदलने के लिए काफी उम्मीद जताई गई थी. लेकिन इस मद में इस साल 700 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया है. 2020-21 में 500 करोड़ रुपए का प्रावधान हुआ था, जिसे घटा कर 250 करोड़ रुपए कर दिया गया.

हकीकत यह है कि उत्पादकता बढ़ाने और खेती की लागत घटाने के साथ कई पक्षों पर अभी बहुत काम करने की जरूरत है. किसानों ने रिकौर्ड अन्न उत्पादन कर पुराने कीर्तिमानों को तोड़ा है. लेकिन अगर हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के किसान सड़क पर हैं, तो इस हकीकत को समझना होगा कि खेती किस चुनौती से जूझ रही है. खुद भाजपा ने साल 2019 में अपने संकल्पपत्र में जो वायदा किया था, वह इस बजट में नजर नहीं आता.

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी सकल घरेलू उत्पाद के प्रथम अग्रिम अनुमान के मुताबिक, कोरोना संकट के बावजूद कृषि और संबद्ध क्षेत्र का जीवीए में हिस्सा 19.9 फीसदी तक पहुंच गया है. 2020-21 में इस क्षेत्र में वृद्धि का अनुमान 3.4 फीसदी है, वहीं 2011-12 के आधार मूल्य पर 2014-15 में यह 0.2 फीसदी, 2015-16 में 0.6 फीसदी, 2016-17 में 6.3 फीसदी, 2017-18 में 5 फीसदी, 2018-19 में 2.7 फीसदी रही थी.

इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता है कि कृषि, उद्योग और सेवाएं अर्थव्यवस्था के सब से अहम क्षेत्र हैं और आपस में जुड़े हैं. वे एकदूसरे को प्रभावित करते हैं. इस नाते केवल आंकड़ों की बाजीगरी से कृषि क्षेत्र की चुनौतियों से पार पाना आसान नहीं दिखता है.

संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति की हाल ही में एक रिपोर्ट में कई अहम मसलों को उठाया गया है. समिति ने माना है कि बजट में कटौती की गई और प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में अपेक्षित किसान जोड़े नहीं जा सके.

पूर्वोत्तर भारत में पंचायती और सरकारी भूमि पर खेती करने वाले और बंटाई पर खेती करने वालों को इस के दायरे में नहीं लाया जा सका, वहीं पूर्वोत्तर जैविक खेती मिशन के दायरे में 71,492 हेक्टेयर भूमि लाई जा सकी, जबकि लक्ष्य एक लाख हेक्टेयर का था.

प्रधानमंत्री किसान मानधन योजना के तहत वृद्ध किसानों को 3 हजार रुपए तक पेंशन योजना के दायरे में कुल 20.35 लाख किसान शामिल होने को समिति ने निराशाजनक माना.

17वा दीक्षांत समारोह : शिक्षा और कृषि पर विशेष ध्यान देना होगा

उदयपुर : 20 दिसंबर, 2023. प्रदेश के राज्यपाल कलराज मिश्र ने विवेकानंद सभागार में आयोजित महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के 17वें दीक्षांत समारोह को संबोधित किया. उन्होंने दीक्षांत समारोह में 864 स्नातक (बीएससी), 201 स्नातकोत्तर (एमएससी) व 74 विद्या वाचस्पति छात्रछात्राओं को दीक्षा प्रदान करने के साथ ही उपाधियां 42 स्वर्ण पदक से नवाजा.

राज्यपाल ने इस वर्ष का कुलाधिपति स्वर्ण पदक दीक्षा शर्मा, एमएससी, कृषि (सस्य विज्ञान) को प्रदान किया.

इस कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि शिक्षा और कृषि पर विशेष ध्यान दे कर ही हम सही माने में राष्ट्र को समृद्ध बना सकते हैं. राष्ट्र की प्रगति का मूल आधार खाद्य और पोषण सुरक्षा ही है. हरित क्रांति और दुग्ध क्रांति के बाद देश खाद्य व पोषण सुरक्षा में आज आत्मनिर्भर जरूर बन गया है, लेकिन यह अंत नहीं है. हमें अभी विकसित भारत के स्वप्न को साकार करना है. इस के लिए हमें कृषि निर्यात को बढ़ाना होगा. यह भी ध्यान रखना होगा कि भूमि की उर्वर शक्ति और जैव विविधता पर खतरा न मंडराए.

उन्होंने आगे कहा कि प्रति व्यक्ति खाद्य उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि के उपरांत भी आबादी का एक बड़ा तबका अभी भी अल्पपोषण व कुपोषण की विपदा झेल रहा है.

कृषि में महिलाओं की खास भूमिका

राज्यपाल कलराज मिश्र ने कहा कि कृषि में महिलाओं की भूमिका आज भी महत्वपूर्ण है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के शोध से पता चलता है कि प्रमुख फसलों के उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी 75 फीसदी, बागबानी में 79 फीसदी, फसल कटाई के उपरांत के कामों में 51 फीसदी और पशुपालन व मत्स्यपालन में 95 फीसदी है. इसी के मद्देनजर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने 15 अक्तूबर को महिला कृषक दिवस मनाने की पहल की है.

दुग्ध उत्पादन में अव्वल

कार्यक्रम में डा. आरसी अग्रवाल, उपमहानिदेशक, कृषि शिक्षा, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने कहा कि भारतीय कृषि विविधतापूर्ण है. इस में जलवायु, मृदा, भूगर्भीय पारिस्थितिकी व वनस्पति तंत्र सम्मिलित हैं, जो सहस्त्राब्दियों से विकसित प्राकृतिक आवास, फसलों व पशुधन की विविधता तय करता है. भारत फसली पौधों की उत्पत्ति के विश्व के 8 केंद्रों में से एक है. तकरीबन 166 फसल प्रजातियां व फसलों की 320 जंगली प्रजातियों की उत्पत्ति यहां हुई.

उन्होंने आगे कहा कि देश में इस समय कुल 76 विश्वविद्यालय और 732 केवीके हैं. 8 वर्ष पूर्व तक 23 फीसदी छात्राएं कृषि शिक्षा ग्रहण कर रही थीं, जो आज बढ़ कर 50 फीसदी हो चुकी है. कृषि में महिलाओं की भागीदारी के अच्छे संकेत हैं. वर्ष 2040 तक 9.50 लाख कृषि स्नातकों की आवश्यकता होगी, जो आज 50 फीसदी ही है.

Doctorateडा. आरसी अग्रवाल ने बताया कि पशुपालन भारतीय अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है. पशु आनुवांशिक संसाधन राष्ट्र की पारंपरिक शक्ति है. आज 221 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन के साथ हम विश्व पटल पर प्रथम पायदान पर है. दुग्ध उत्पादन में राजस्थान ने उत्तर प्रदेश को पीछे छोड़ते हुए सर्वाधिक दुग्ध उत्पादन वाले राज्य का गौरव पाया है.

उन्होंने खुशी जाहिर की कि एमपीयूएटी ने भी बकरी की 3 प्रजातियों के पंजीकरण में महती भूमिका निभाई है.

डा. आरसी अग्रवाल ने कहा कि वर्ष 1960 से आरंभ हुए कृषि विश्वविद्यालयों ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के साथ मिल कर कृषि को नई दिशा दी है. हम ने फसलों के क्षेत्र में हरित, दुग्ध में श्वेत, मत्स्य में नीली, तिलहन में पीली, उद्यानिकी व मधुमक्खीपालन में स्वर्णिम, अंडा उत्पादन में रजत, कौफी में भूरी व ऊन उत्पादन में स्लेटी क्रांतियों से एक इंद्रधनुषी परिक्रमण का निर्माण किया है. भारत की 1950-51 से अब तक की यात्रा उत्कृष्ट रही है. इस काल में हम ने उत्पादन की दृष्टि से खाद्यान्न में 6.46, उद्यानिकी में 14.36, दुग्ध में 13.06, अंडे में 76.87 व मत्स्य उत्पादन में 22 फीसदी की वृद्धि दर्ज की है. यही नहीं, वर्ष 2010 तक हम खाद्यान्न सुरक्षित राष्ट्र की श्रेणी में आ गए.

उन्होंने आगे कहा कि आज हमारी आबादी 142 करोड़ है. अनुमान के अनुसार, वर्ष 2023 तक भारत की आबादी 150 करोड़ और वर्ष 2040 तक 159 करोड़ पहुंचने की संभावना है. चिंता इस बात की है कि शहरीकरण औद्योगिकीकरण के कारण ग्रामीण श्रेत्रों में फसली क्षेत्रफल में कमी आ रही है. हम जल की दृष्टि से भी असमृद्ध देखा हैं. विश्व के ताजा पानी का मात्र 4 फीसदी हिस्सा ही हमारे पास है. ऐसे में चुनौतियों को ध्यान में रख कर योजनाएं बनानी होंगी.

उपलब्धियों में शीर्ष पर विश्वविद्यालय

Doctorateकुलपति अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि विगत एक वर्ष में विश्वविद्यालय ने अनुसंधान के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं. विराट परिसर, श्रेष्ठ अकादमिक स्तर व शैक्षणिक गुणवत्ता के कारण आज विश्वविद्यालय की भूमिका अद्वितीय है.

प्राकृतिक खेती पर डिगरी कोर्स होगा शुरू

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बताया कि प्राकृतिक खेती पर आगामी वर्ष से विश्ववि़द्यालय कृषि स्नातक कार्यक्रम का एक कोर्स चलाएगा. साथ ही, एक प्रथम डिगरी कार्यक्रम आरंभ करने का भी विचार चल रहा है.

12 भारतीय व विदेशी पेटेंट हासिल

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने प्रमुख उपलब्धियां गिनाते हुए कहा कि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पहली बार अभिन्न तकनीक विकसित कर विगत एक वर्ष में 12 भारतीय व विदेशी पेटेंट हासिल किए. इन में प्रमुख है, बायोचार निर्माण, सौर ऊर्जा चलित आइसक्रीम गाड़ी का निर्माण, कृषि अवशेषों से हाइड्रोजनयुक्त सिनगैस का निर्माण व स्वचालित सब्जी पौध रोपण तकनीक आदि.

ड्रोन के उपयोग में प्रथम विश्वविद्यालय

उन्होंने बताया कि भारतीय विश्वविद्यालय कृषि में ड्रोन के उपयोग में राज्य का प्रथम विश्वविद्यालय है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा उपलब्ध 2 ड्रोन खरीद कर किसानों के खेतों पर छिड़काव के लिए सब से पहले उपयोग में लाना शुरू किया.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद राष्ट्रीय पशु आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो करनाल में बकरी की 3 प्रजातियां सोजत, गूजरी व करौली का पंजीकरण कराया गया, जबकि चैथी प्रजाति नैनणा के पंजीकरण की कार्यवाही अंतिम चरण में है.

Milletsमिलेट्स वर्ष में भी पहचान बनाई

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष में भी विश्वविद्यालय ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है. मिलेट्स पर सचित्र मार्गदर्शन, जागरूकता, रैलियां व कार्यशालाएं आयोजित की गईं. छात्रों द्वारा मिलेट्स केक ने तो राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की. मिलेट्स को भोजन में शामिल करने व मिलेट्स पर किए गए कामों के संबंध में एक कौफी टेबल बुक भी तैयार की गई.

अनेक उन्नत बीज किस्में भी रिलीज

अनुसंधान के क्षेत्र में विश्वविद्यालय द्वारा विकसित मक्का की किस्म प्रताप संकर मक्का-6 को राष्ट्रीय स्तर पर चिन्हित व अनुमोदित किया गया. वर्ष 2022-23 में ज्वार, मूंगफली, चना, अश्वगंधा, असालिया, इसबगोल, एवं अफीम फसलों की 8 किस्में यथा प्रताप ज्वार-2510, प्रताप मूंगफली-4, प्रताप चना-2, प्रताप चना-3, प्रताप अश्वगंधा-1, प्रताप असालिया, प्रताप इसबगोल-1 एवं चेतक अफीम राज्य स्तरीय किस्म रिलीज समिति को अनुमोदन हेतु भेजी गई है. विभिन्न अनुसंधान परियोजनाओं द्वारा वर्ष 2023 में 76 तकनीकों का विकास कर किसानों के उपयोग के लिए सिफारिश की गई. वर्ष 2022-23 में हमारे प्रक्षेत्रों पर 4105.71 क्विंटल गुणवत्ता बीज का उत्पादन किया गया और 7.35 लाख पादप रोपण सामग्री तैयार की. साथ ही, मछली के 125 लाख स्पान, 3.20 लाख फ्राई और 1.95 लाख फिंगरलिंग का उत्पादन कर किसानों को वितरित किए गए.

किसानों को मिले उन की भाषा में जानकारी

साल 1967 में देश में पड़े भीषण अकाल में बड़ी मात्रा में खाद्यान्न आयात करना पड़ा था. इस वजह से सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में अनुसंधान के काम पर जोर दिया गया. इस से एक तरफ सिंचित जमीन का क्षेत्रफल बढ़ने लगा, तो वहीं दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में विविधता लाने की कोशिश की जाने लगी.

इस काम को संगठित रूप देने के लिए साल 1929 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का गठन हुआ. केंद्र सरकार से जुड़े सभी संस्थानों को इस के तहत लाया गया. धीरेधीरे खाद्यान्न, फलसब्जी के साथ ही जानवरों के लिए भी अनुसंधान संस्थान खोले गए. लगातार अनुसंधान द्वारा खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों की नई उपजाऊ किस्मों का विकास हुआ.

किसी काम को संगठित रूप देने से अधिक पैसा बनाने में कामयाबी मिली. परिषद की अगुआई में देश में हरित क्रांति आई. देश में खाद्यान्नों का रिकौर्ड उत्पादन शुरू हो गया, तेज गति से बढ़ती आबादी के बावजूद भी न सिर्फ खाद्यान्न, फलसब्जी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आई, बल्कि कुछ उत्पादों के निर्यात में भी हमें कामयाबी मिली.

इस समय देश की आबादी 135 करोड़ के पार हो चुकी है. इतनी विशाल आबादी को भी भोजन के लिए खाद्यान्न उपलब्ध है. ऐसी हालत तब है, जब खेती की जमीन धीरेधीरे घटती जा रही है.

शहरों का क्षेत्रफल आजादी के समय 7 फीसदी से बढ़ कर 35 फीसदी हो गया है. यह वृद्धि क्षेत्र में व्यापक काम के चलते हुई है.

देश में किसानों का अनुसंधान संस्थानों से सीधा जुड़ाव हुआ है. इन संस्थानों के वैज्ञानिक नियमित अंतराल पर इलाके और गांवों का दौरा करते रहते हैं और किसानों से रूबरू हो कर उन को तकनीकी जानकारी देते हैं.

इस तरह के अनुसंधान और प्रसार के काम में भाषा की अहम भूमिका होती है. तकरीबन 200 सालों के ब्रिटिश राज के होने की वजह से भाषा के रूप में अंगरेजी का बोलबाला देश के सभी क्षेत्रों में अभी तक गहराई से बना हुआ है. शिक्षा विशेष रूप से कृषि शिक्षा व अनुसंधान के क्षेत्र में आज भी अंगरेजी महत्त्वपूर्ण भाषा बनी हुई है.

अनुसंधान के काम और लेखनी में लगभग अंगरेजी का ही प्रयोग हो रहा है, जिस का साहित्यिक महत्त्व है, पर इस की जांच खेत में और किसानों के बीच में होती है.

ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाएं खासकर मान्याताप्राप्त भाषाओं का महत्त्व काफी बढ़ जाता है. अगर इन भाषाओं के जरीए बातचीत नहीं की जाएगी, तो किसानों को जो फायदा होना चाहिए, वह नहीं मिल सकेगा. यदि उन की भाषा में किसानों को जानकारी दी जाती है, तो वे अच्छी तरह से सम झ सकेंगे और तकनीक अपनाने में भी उन को कोई हिचक नहीं होगी.

भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में मान्यताप्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है. हिंदी देश के तकरीबन 57 फीसदी भूभाग में बोली व सम झी जाने वाली भाषा है.

भारत में हिंदीभाषी राज्यों का निर्धारण भाषा के आधार पर हुआ है और उन सभी राज्यों में राज सरकार के काम स्थानीय भाषा में ही होते हैं. इन सभी मान्यताप्राप्त भाषाओं का अपनाअपना प्रभाव क्षेत्र में है और इस में साहित्य का काम भी लगातार हो रहा है. इन में से ज्यादातर भाषाओं के अपने शब्दकोश हैं और फिल्में भी बनाई जा रही हैं, खासतौर पर तमिल, बंगला, मलयालम, मराठी व तेलुगु फिल्म उद्योग अपनेअपने क्षेत्र में बहुत ही लोकप्रिय है.

इस के अलावा उडि़या, असमी, पंजाबी भोजपुरी, नागपुरी वगैरह भाषाओं में भी फिल्में लगातार बन रही हैं और पसंद भी की जा रही हैं.

ऐसी हालत में कृषि अनुसंधान को स्थानीय भाषा से जोड़ना समय की जरूरत है, ताकि हम अपनी उपलब्धियों को किसानों तक आसानी से पहुंचा सकें. हालांकि मान्यताप्राप्त भाषाओं में कुछ भाषाएं ऐसी हैं, जिन का प्रभाव क्षेत्र बहुत ही सिमटा हुआ है, लेकिन ज्यादातर भाषाएं बड़े क्षेत्रों में फैली हैं और कार्यालय के काम से ले कर दिनभर के काम तक निरंतर प्रयोग की जा रही हैं.

अगर हमें अनुसंधान की उपलब्धियों से किसानों को जोड़ना है तो यह जरूरी है कि अपनी बातों को उन की भाषा और बोली में उन तक पहुंचाया जाए, यह बहुत कठिन नहीं है.

देश में सब से पहले हिंदी का नाम आता है और कृषि से जुड़े साहित्य भी हिंदी में लगातार तैयार हो रहे हैं. भारतीय किसान संघ परिषद के ज्यादातर संस्थानों में प्रशिक्षण सामग्री और संबंधित फसल से जुड़ी अनुसंधान संबंधी उपलब्धियां हिंदी में ही मौजूद हैं. इसे और भी बढ़ावा देने की जरूरत है. हमेशा यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि प्रस्तुतीकरण और भी सुगम भाषा में हो.

परिषद के सभी संस्थानों में राजभाषा प्रकोष्ठ की मदद से भी काम किया जा रहा है. हिंदी भाषी वैज्ञानिक शोध भी सराहनीय योगदान दे रहे हैं. इस के बावजूद हिंदी में छपने वाले शोध साहित्य कम हैं.

कुछ वैज्ञानिक संगठनों, संस्थानों द्वारा हिंदी में शोध पत्रिकाएं छप रही हैं और कुछ एक और काम करने के लिए लगातार संघर्षरत हैं और आगे बढ़ रही हैं.

इस क्षेत्र में प्रगति संतोषजनक है, पर हिंदी के प्रभाव क्षेत्र को देखने के बाद यह काफी कम प्रतीत होता है. इस के लिए कृषि वैज्ञानिकों को पहल करनी होगी. उन्हें मौलिक अनुसंधान में हिंदी व भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना होगा, तभी किसान उस का फायदा उठा सकेंगे.

इसी तरह कई अन्य मान्यताप्राप्त भारतीय भाषाएं ऐसी हैं, जिन का प्रभाव अपने क्षेत्र में तो बड़ा है ही, साथ ही, वे अपने क्षेत्र में लोगों की जिंदगी से सांस्कृतिक व भावनात्मक रूप से बहुत गहराई से जुड़ी हैं. जिस तरह से हिंदीभाषियों के पास हिंदी में अनुसंधान संबंधी किसी सामग्री के साथ अपनी बातें पहुंचाई जा सकती हैं, वैसे दूसरी भारतीय भाषाओं में भी धान की उपलब्धियों को रूपांतरित कर उसी प्रभाव क्षेत्र तक पहुंचाया जा सकता है.

कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में भी व्यापक रूप से अंगरेजी का ही प्रयोग हो रहा है, पर प्रशासन का मकसद किसान हैं और किसानों की आबादी कई गुना ज्यादा है. वे गंवई इलाके में रहते हैं. इसलिए कृषि अनुसंधान संगठनों को इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है. अगर मौलिक रूप से इन भाषाओं के काम करने में थोड़ी कठिनाई हो, तो अनुवाद एक बेहतर साधन है. इस के द्वारा हम उन भाषाओं में बेहतरीन साहित्य तैयार कर सकते हैं, जिन का फायदा किसानों को मिले.

कृषि वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे हिंदी भाषा के साथ सकारात्मक सोच से काम करें, जिस से हिंदी में साहित्य को आगे बढ़ने का मौका तो मिलेगा ही और अपनी बात को किसानों तक आसानी से पहुंचाया जा सकेगा. इस से प्रदेश व देश की उत्पादकता में काफी अंतर देखने को मिलेगा.

हमारा मानना है कि हिंदी साहित्य अभी भी किसानों के अंदर बहुत अच्छी पैठ बनाए हुए है, इसलिए वैज्ञानिकों को अपनी करनी और कथनी में अंतर करना होगा. किसानों तक आसान भाषा में साहित्य को पहुंचाने के लिए अपना समर्थन करना होगा. इस के लिए जरूरत केवल सामाजिक क्रांति के साथसाथ वैज्ञानिकों को वैचारिक क्रांति में बदलाव लाने की है. यदि हम अपनी वैचारिक क्रांति में बदलाव लाएंगे, तो हिंदी साहित्य को आसानी से किसानों में लोकप्रिय बना सकेंगे.

हरित क्रांति (श्वेत क्रांति) बनाम गुलाबी क्रांति

यदि हम आजादी के बाद कृषि इतिहास की ओर नजर घुमाएं तो इस हकीकत को मानना पड़ेगा कि नेहरू युग के अंतिम साल में खाद्यान्न को ले कर देश में संकट इसलिए बढ़ा, क्योंकि केंद्र की पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया था. इस वजह से राज्यों में दंगे शुरू हो गए थे. अमेरिकी नीति ‘फूड ऐंड पीस’ के हिस्से के तौर पर उस समय भारत में पीएल 480 अनाज का सहारा लिया गया था.

देश को खाद्यान्न संकट से उबारने के लिए जवाहरलाल नेहरू के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दे कर किसानों के साथ जवानों को भी हरित क्रांति के लिए तैयार किया.

60 के दशक का यह दौर उत्पादकता को बढ़ाने के मद्देनजर गेहूं  (बाद में धान पर भी) उत्पादन पर खास जोर दिया गया और 80 के दशक तक भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर ही नहीं हो गया, बल्कि निर्यात भी करने लगा.

इन में वैज्ञानिक डा. एमएस स्वामीनाथन के प्रयासों का भी हाथ था. इसे देश की पहली हरित क्रांति के रूप में जाना जाता है. यह (हरित क्रांति) 60 के दशक से ले कर 80 के दशक के मध्य तक पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ले कर भारत के दक्षिणी राज्यों तक फैल गई. लेकिन वक्त के साथ हरित क्रांति के व्यावसायीकरण करने की बात भी सामने आई. कृषि से जुड़े परंपरागत मूल्य एवं संस्कृति विलुप्त हुए. धरती से जल दोहन और रासायनिक जहरीले उर्वरकों के बेतहाशा इस्तेमाल की वजह से धरती और खाद्यान्न दोनों जहरीले हुए.

यदि उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण पर आधारित आर्थिक नीतियों के कारण भारत की पिछले 30 सालों में आर्थिक विकास की गति तेजी से बढ़ी है, तो साथ में इस हकीकत को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि तथाकथित आर्थिक विकास का फायदा भारत के उस अभिजात्य वर्ग को मिला, जो पहले से ही बेहतर जिंदगी जी रहा था.

गौरतलब है जो आर्थिक विकास उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को लागू करने के बाद हुआ, उस में ऐसी भी नीतियां हैं, जो कई तरह के सवाल खड़ा करती हैं. उन में कुछ ऐसे सवाल भी हैं, जो सीधे आम आदमी, पर्यावरण, पशुधन के खात्मे से ताल्लुक रखते हैं.

कृषि से ताल्लुक रखने वाली श्वेत क्रांति और हरित क्रांति को ले कर भी सवाल खड़े किए जाते रहे हैं. इस के पीछे केंद्र और राज्य सरकारों की गलत नीतियां रही हैं.

भापजा की सरकार ने साल 2014 में सत्ता संभालते ही नई हरित क्रांति की बात कही, वहीं पर मांस निर्यात को बढ़ावा देने के लिए एक बड़ी रकम बूचड़खानों को भी दी. यह भाजपा की उस नीति से मेल नहीं खाती, जो भारतीय परंपरा और संस्कृति को बढ़ावा देने वाली है.

Meat Exportयदि आंकड़ों पर जाएं तो साल 2014 में जब राजग सरकार सत्ता में आई उस ने मांस निर्यात और बूचड़खानों के लिए अपने पहले ही बजट में 15 करोड़ की सब्सिडी दी और टैक्स में छूट का विधिवत प्रावधान किया. इस से समझा जा सकता है कि भाजपा की नीतियां मांस निर्यात के मामले में जैसी कांग्रेस की थीं, वैसी ही हैं.

आंकड़ों की तह में जाएं, तो पता चलता है कि साल 2003-04 में भारत से 3.4 लाख टन गायभैंस के मांस का निर्यात हुआ, जो साल 2012-13 में बढ़ कर 18.9 लाख टन हो गया. यह बढ़ोतरी साल 2014-15 में 24 लाख टन पहुंच गई यानी 14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. वहीं साल 2019-20 में 1,030.41 मीट्रिक टन मांस का निर्यात किया गया, जिस की कीमत तकरीबन 16.32 करोड़ रुपए थी.

आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में जितना मांस का निर्यात होता है, उस में भारत अकेले ही तकरीबन 58.7 फीसदी निर्यात करता है. गौरतलब है की भारत 65 देशों को मांस का निर्यात करता है. इन में सऊदी अरब, कुवैत, मिस्र, मलयेशिया, फिलीपींस, म्यांमार, नेपाल, लाइबेरिया और वियतनाम प्रमुख हैं. विदेशों में बढ़ते मांस निर्यात की वजह से भारत में जो मांस कभी 30 रुपए प्रति किलोग्राम बिकता था, वह आज 300 रुपए प्रति किलोग्राम बिक रहा है.

मांस निर्यात से सब से ज्यादा असर दूध उत्पादन से ताल्लुक रखने वाली श्वेत क्रांति पर पड़ा है. जब 13 जनवरी, 1970 को श्वेत क्रांति की शुरुआत हुई, तब इसे आम आदमी के रोजगार, आर्थिक स्थिति में सुधार और बेहतर स्वास्थ्य से जोड़ कर देखा गया.

पिछले 40 सालों में जिस तरह से मांस निर्यात के जरीए विदेशी पैसा कमाने की होड़ लगी हुई है, उस ने श्वेत और हरित क्रांति को रोकने या खत्म करने का काम किया है.

गौरतलब है विदेशों में बढ़ते मांस के निर्यात का सीधा असर दूध उत्पादन और घटते पशुधन पर पड़ रहा है.

गौरतलब है कि पशुधन भारतीय कृषि का आधार रहा है. गैरकानूनी बूचड़खानों की वजह से पशुधन पर सीधे असर पड़ा है जिस से पशुपालन बहुत ही खर्चीला काम हो गया है.

घटते दुधारू जानवरों की वजह से पिछले 20 सालों में दूध का दाम तेजी से बढ़ा है. आम आदमी जो कोई दुधारू जानवर नहीं पाल सकता, वह महंगे दूध खरीदने की हालत में नहीं होता है.

Milkगौर करने वाली बात यह है कि बिना किसी सरकारी मदद के देश में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है. देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हुई हैं. 14 राज्यों में अपनी दुग्ध सहकारी संस्थाएं हैं. लेकिन मांस निर्यात की वजह से पशुधन के खात्मे का असर घटते दूध उत्पादन पर साफ दिखाई पड़ रहा है. इस असंगठित क्षेत्र (दूध उत्पादन) में 7 करोड़ से ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं, जिस में अशिक्षित कारोबारी ज्यादा हैं.

यदि मांस निर्यात पर सरकारी रोक न लगी या गैरकानूनी बूचड़खानों के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो संभव है कि कुछ सालों में ही इस असंगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों को किसी और क्षेत्र में कारोबार के लिए मजबूर हो कर आना पड़े.

मांस निर्यात के आईसीएआर के आंकड़े बताते हैं कि हर साल तकरीबन 9.12 लाख जो भैंसें बूचड़खानों में कत्ल कर दी जाती हैं, यदि वे भैंसें कत्लखाने में जाने से बच जाएं, तो 2,95,50,000 टन गोबर की खाद बनाई जा सकती है. इस से 39.40 हेक्टेयर कृषि भूमि को खाद मुहैया कराई जा सकती है. इस से जहां जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा, वहीं महंगी रासायनिक खादों से भी छुटकारा मिल जाएगा.

दूसरी तरफ  यदि देखा जाए तो इनसान और जानवर एकदूसरे के पूरक हैं. इनसान यदि एक जानवर को पालता है, तो वह जानवर उस के पूरे परिवार को पालता है. इतना ही नहीं, बंदर, रीछ, घोड़े, बैल, सांड़, भैंसा और गाय इनसान की जिंदगी के अहम हिस्से हैं.

आज भी लाखों लोगों की आजीविका इन जानवरों पर आधारित है. राजस्थान में एक कहावत है, कहने को तो भेड़ें पालते हैं, दरअसल भेड़ें ही इन को पालती हैं. इन के दूध, घी और ऊन आदि से हजारों परिवारों की जीविका चलती है. भेड़ों के दूध को वैज्ञानिकों ने फेफड़े के रोगियों के लिए बहुत ही फायदेमंद बताया है.

‘बांबे ह्यूमैनेटेरियन लीग’ के अनुसार, जानवरों से हर साल दूध, खाद, ऊर्जा और भार ढोने वाली सेवा द्वारा देश को अधिक आय होती है. इस के अलावा मरने के बाद इन की हड्डियों और चमड़े से जो आय होती है, वह भी करोड़ों रुपए में. यांत्रिक कत्लखानों को बंद कर दिया जाए, तो लाखों जानवरों का वध ही नहीं रुकेगा, बल्कि उस में इस्तेमाल होने वाला 70 करोड़ लिटर से अधिक पानी की बचत होगी, जो कत्लखानों की धुलाई में इस्तेमाल होता है.

ऐसे एकदो नहीं, बल्कि तमाम उदाहरण हैं, जिन से मांस निर्यात से होने वाले नुकसान का पता चलता है. आज जरूरत इस बात की है कि दुधारू जानवरों और भार ढोने वाले जानवरों को उन की उपयोगिता के मुताबिक उन का उपयोग किया जाए और उन्हें कत्लखाने भेजने की अपेक्षा उन को परंपरागत कामों में इस्तेमाल किया जाए. इस से जहां दुधारू जानवरों की संख्या बढ़ेगी, वहीं दूध और कंपोस्ट खाद की समस्या से भारत को नजात मिलेगी.

Meatयदि महज भेड़ों को ही बूचड़खानों में भेजने की जगह उन का परंपरागत इस्तेमाल (जब तक वे जीवित रहें) किया जाए, तो 600 करोड़़ रुपए का दूध मिलेगा, 450 करोड़ रुपए की खाद, 50 करोड़ रुपए की ऊन प्राप्त होगी. इसी तरह गाय के वध को रोक देने से सालभर में जो लाभ होगा, वह हैरानी में डालने वाला है.

आंकड़ों के अनुसार, एक गाय के गोबर से सालभर में तकरीबन 17,000 रुपयों की खाद प्राप्त होगी. रोजाना यांत्रिक कत्लखानों में 60,000 गाय कटती हैं जिन के गोबर मात्र से प्रतिवर्ष लगभग एक अरब रुपए की आमदनी हो सकती है. दूध, घी, मक्खन और मूत्र से होने वाले फायदे को जोड़ दिया जाए, तो अरबों रुपए की आय केवल गाय के वध को रोक देने से देश को हो सकती है.

ये आंकड़े और तथ्य यह बताते हैं कि देश की खुशहाली आम आदमी की बेहतरी के साथसाथ पर्यावरण की रक्षा के लिए गुलाबी क्रांति की नहीं, बल्कि निरापद श्वेत और हरित क्रांति की जरूरत है. इस से परंपरागत व्यवसायों को बढ़ावा मिलेगा और मांस निर्यात जैसे अहिंसा प्रधान देश में हिंसा वाले व्यवसाय से छुटकारा भी मिल सकेगा.