Mung Bean : ग्रीष्मकालीन मूंग की उन्नत खेती

Mung Bean  : दलहनी फसलों में मूंग का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस में 24 फीसदी प्रोटीन के साथसाथ रेशा एवं लौह तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. आज जल्दी पकने वाली किस्मों एवं उच्च तापमान को सहन करने वाली प्रजातियों की उपलब्धता के कारण यह फायदेमंद सिद्ध हो रही है.

वर्तमान में सघन खेती, अंधाधुंध कीटनाशियों एवं असंतुलित खादों के इस्तेमाल से जमीनों की उर्वराशक्ति घट रही है. साथ ही, सभी फसलों की उत्पादकता में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है.

इस स्थिति से निबटने के लिए हरी खादों व दलहनी फसलों को अपनाएं और अपनी जमीनों की उर्वराशक्ति को बरकरार रखने व देश की बढ़ती हुई खाद्यान्न समस्याओं से निबटने में अपना भरपूर योगदान दें.

ग्रीष्मकालीन मूंग (Mung Bean) उगाने के फायदे

* अतिरिक्त आय

* कम समय के कारण धान व गेहूं फसल चक्र में उपयोगी

* खाली पड़े खेतों का सही उपयोग

* भूमि की उपजाऊ शक्ति में सुधार

* उगाने में कम खर्च

* पानी का सदुपयोग

* बीमारी व कीटों का कम प्रकोप

* भूमि कटाव से बचाव

* दलहन उत्पादन में वृद्धि

* विदेशी पैसों की बचत

उन्नत किस्में : मूंग की बिजाई के लिए के-851 (70-75 दिन) मुसकान (65 दिन), एसएमएल-668 (60-65 दिन), एमएच-421 (60 दिन) व नई किस्म एमएच-1142 (63-70 दिन) की खेती की जा सकती है जो धान व गेहूं चक्र के लिए बहुपयोगी पाई गई है.

भूमि : अच्छी मूंग की फसल लेने के लिए दोमट या रेतली दोमट भूमि सही रहती है. समय पर बिजाई वाले गेहूं से खाली खेतों में ग्रीष्मकालीन मूंग ली जा सकती है.

इस के अलावा धानगेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में आलू, गन्ना व सरसों से खाली खेतों में भी मूंग की खेती की जा सकती है.

भूमि की तैयारी : गेहूं की कटाई के एक सप्ताह पहले रौनी/पलेवा करें और गेहूं की कटाई के तुरंत बाद 2-3 जुताई कर के खेत को अच्छी तरह तैयार करें.

इस बात का खास खयाल रखें कि खेत में बिजाई के समय समुचित नमी हो, ताकि समुचित जमाव हो सके.

बिजाई का सही समय : इस मौसम में वैसे तो मूंग की बिजाई फरवरी के दूसरे सप्ताह से मार्च तक की जाती है, लेकिन धानगेहूं बहुमूल्य क्षेत्रों में गेहूं की कटाई यदि 15 अप्रैल तक भी हो जाती है, तो इस के बाद भी मूंग की अच्छी पैदावार ली जा सकती है, क्योंकि ये किस्में 55-65 दिन में ही पक कर तैयार हो जाती हैं.

बीजोपचार : मृदाजनित रोगों से फसल को बचाने के लिए बोए जाने वाले बीजों को कैप्टान, थिरम या बाविस्टिन 3-4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से सुखा कर बीज तैयार करें.

दलहनी फसलें में राइजोबयिम (जीवाणु टीके) से बीज उपचार करने से बनने वाली गांठें अधिक मजबूत होती हैं, जो वायुमंडल में उपलब्ध नाइट्रोजन ले कर भूमि में जमा करती हैं. जीवाणु टीके से उपचार हेतु 50 ग्राम गुड़ को लगभग 250 मिलीलिटर पानी में घोल बना लें और छाया में पक्के फर्श पर बीज फैला कर हाथों से मिला दें, ताकि सभी बीजों पर गुड़ चिपक जाए.

बाद में इन बीजों पर जीवाणु टीके का पैकेट व घोल को गुड़ लगे बीजों पर डालें और हाथ से मिलाएं, जिस से सभी दानों पर कल्चर लग जाए. बीजों को छाया में सुखा कर बिजाई के काम में लाएं.

बीज की मात्रा : गरमी के मौसम में पौधों की बढ़वार पहले के मुकाबले कम हो जाती है, इसलिए अच्छी पैदावार लेने के लिए बीज अधिक डालें और फासला भी कम रखें.

पौधों की उचित संख्या के लिए बीज की मात्रा तकरीबन 10-12 किलो बीज प्रति एकड़ का प्रयोग करें.

खादों का प्रयोग : दलहनी फसलों को खाद की कम जरूरत होती है. बिजाई के समय तकरीबन 6-8 किलोग्राम शुद्ध नाइट्रोजन व 16 किलोग्राम फास्फोरस की जरूरत होती है जिसे 12-15 किलोग्राम यूरिया व 100 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट से पूरा किया जा सकता है.

अच्छी पैदावार लेने के लिए 10 किलो जिंक सल्फेट प्रति एकड़ का प्रयोग जरूर करें.

छंटाई : बिजाई के लगभग 2 सप्ताह बाद जब पौधे व्यवस्थित हो जाएं, तब पौधे से पौधे का फासला 8-10 सैंटीमीटर रख कर फालतू पौधे निकाल देने चाहिए. पौधों की सही बढ़वार के लिए छंटाई करना बहुत जरूरी है, ताकि हर एक पौधे को उचित हवा, नमी, सूर्य की रोशनी व पोषक तत्त्व पूरी मात्रा में मिल सकें.

मूंग (Mung Bean)

खरपतवार नियंत्रण : खरपतवार फसल के दुश्मन हैं, क्योंकि यह जमीन से नमी का शोषण करते है और फसल की बढ़वार में  बाधक साबित होते हैं. इसलिए पहली सिंचाई के बाद चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार उग आते हैं, जिन्हें कसोले से निकाल देना चाहिए.

पैंडीमेथिलीन नामक खरपतवारनाशी 1.25 किलोग्राम को 200 लिटर पानी में घोल बना कर बिजाई के तुरंत बाद छिड़काव करने से खरपतवारों पर काबू पाया जा सकता है.

सिंचाई : ग्रीष्मकालीन मूंग में सिर्फ 2 सिंचाई काफी रहती है. फसल में पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद की जाती है, जबकि दूसरी सिंचाई 15-20 दिन के बाद करनी चाहिए.

ज्यादा सिंचाई करने से पौधों की बढ़वार अत्यधिक हो जाती है और फलियां कम लगती हैं और एकसाथ भी नहीं पकती.

कीड़े व बीमारी

ग्रीष्मकालीन मूंग में खरीफ मूंग की तुलना में कीड़ों का प्रकोप कम होता है. कभीकभार बालों वाली सुंडी, पत्ती छेदक, फली छेदक, हरा तेला व सफेद मक्खी आदि कीड़ों का प्रकोप देखने में आता है.

बालों वाली सुंडी की रोकथाम के लिए 200 मिली मोनोक्रोटोफास 36 एसएल या 500 मिली क्विनालफास का 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

हरा तेला व सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए 400 मिली मैलाथियान या 250 से 300 मिली रोगोर या मेटासिस्टोक्स का प्रयोग 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

बीमारी

ज्यादातर ग्रीष्मकालीन मूंग में बीमारियों का प्रकोप नहीं होता. कभीकभार पत्ती धब्बा रोग व पीला मौजेक रोग का प्रकोप देखने में आता है.

पत्ती धब्बा रोग : पत्तियों पर कोणदार व भूरे लाल रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बीच में धूसर या भूरे रंग के और सिरों पर लालजामुनी रंग के होते हैं.

इन धब्बों को रोकने के लिए ब्लिटौक्स-50 या इंडोफिल एम-45 की 600-800 ग्राम दवा की मात्रा 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

पीला मौजेक रोग : मूंग में लगने वाला यह एक भयानक रोग है और इस रोग को सफेद मक्खी फैलाती है. इस रोग से प्रभावित पौधों के पत्ते दूर से ही पीले नजर आने शुरू हो जाते हैं. रोग अधिक फैलने से पूरा पौधा पीला पड़ जाता है.

इस रोग को रोकने के लिए जब भी खेत में पीले पौधे दिखाई पड़ें, तो उन्हें तुरंत उखाड़ देना चाहिए, क्योंकि यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है, इसलिए समयसमय पर इस के नियंत्रण के लिए रोगोर या मेटासिस्टोक्स कीटनाशी का 200 से 350 मिलीलिटर दवा का छिड़काव 100 से 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव कर देना चाहिए.

उपज व कटाई

ग्रीष्मकालीन मूंग में बिजाई के लगभग 50-55 दिन बाद फलियां पकनी शुरू हो जाती है. पकने पर फलियों का रंग गहरा भूरा हो जाता है. एक एकड़ से तकरीबन 4 से 6 क्विंटल पैदावार मिल जाती है.

मूंग की खेती (Moong Cultivation) जायद में भी

मूंग से कई तरह के मजेदार पकवान अकसर सभी घरों में बनते हैं. इन में मूंग का हलवा सब से खास है. मूंग की दाल से दही बड़ा, लड्डू, खिचड़ी, नमकीन, कचौड़ी, पकौड़े, सलाद, चाट, खीर, सूप और सैंडविच वगैरह बनाए जाते हैं. मूंग सेहत के लिए काफी फायदेमंद है, क्योंकि खाने के बाद यह जल्दी हजम हो जाती है. मूंग की खेती किसानों के लिए काफी लाभदायक है.

मूंग की खेती खासकर भारत में की जाती है. मूंग को अकसर छिलके या बिना छिलके के साथ अंकुरित या उबाल कर खाया जाता है. मूंग का इस्तेमाल सलाद, सूप, सब्जी और दूसरे स्वादिष्ठ पकवान बनाने के लिए किया जाता है.

मूंग से मिले स्टार्च को निकाल कर इस से जैली और नूडल्स बनाए जाते हैं. इन तमाम खूबियों की वजह से मूंग सभी को काफी पसंद आती है.

दलहनी फसलों में मूंग दूसरी दालों से ज्यादा उपयोगी है. यदि पेट में दर्द या दस्त हो रहे हों तो डाक्टर मरीज को मूंग की खिचड़ी खाने की सलाह देता है. इस में प्रोटीन भरपूर पाया जाता है, जोकि सेहत के लिए काफी खास है.

मूंग में 25 फीसदी प्रोटीन, 60 फीसदी कार्बोहाइड्रेट, 13 फीसदी वसा और कुछ मात्रा में विटामिन ‘सी’ पाया जाता है. मूंग की खासीयत यह है कि इस में वसा काफी कम है, लेकिन विटामिन ‘बी’ कौंप्लैक्स, कैल्शियम और पोटैशियम भरपूर होता है.

वातावरण और जमीन

मूंग की खेती खरीफ और जायद दोनों ही मौसमों में आसानी से की जा सकती है. इस की फसल को पकते समय शुष्क जलवायु की जरूरत पड़ती है.

मूंग की खेती के लिए अच्छी जलनिकासी की व्यवस्था होना काफी जरूरी है, साथ ही दोमट और बलुई दोमट जमीन इस की पैदावार के लिए काफी अच्छी मानी जाती है, जिस का पीएच मान 7-8 हो.

जिन खेतों में दीमक का अंदेशा हो, उन की सुरक्षा के लिए एल्ड्रिन 5 फीसदी चूर्ण 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से आखिरी जुताई से पहले खेत में बिखेर दें और उस के बाद जुताई कर उसे मिट्टी में मिला दें. मूंग की फसल में सिंचाई की जरूरत कम पड़ती है, लेकिन जायद की फसल में ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

खेत की पहली जुताई हैरो या मिट्टी पलटने वाले रिजर हल से करनी चाहिए. इस के बाद 2 से 3 जुताई कल्टीवेटर से कर के खेत की मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरा बना लें. जब आखिरी जुताई करनी हो तब लेवलर लगाना काफी जरूरी होता है, ताकि खेत में नमी ज्यादा समय तक बरकरार रह सके.

पहले किसान परंपरागत तरीके से खेतों की जुताई करते थे, लेकिन अब आधुनिक तकनीक आने से ट्रैक्टर, पावर टिलर और रोटावेटर जैसे यंत्रों से खेतों की तैयारी काफी जल्द हो जाती है.

बीज की मात्रा और बीजोपचार : खरीफ के मौसम में मूंग का बीज जायद की फसल के मुकाबले काफी कम लगता है. इस मौसम में 6 से 8 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत पड़ती है जबकि जायद की फसल में बीज की मात्रा 10-12 किलोग्राम प्रति एकड़ होनी चाहिए. 1 ग्राम कार्बंडाजिम, 2 से 3 ग्राम थायरम, फफूंदनाशक दवा से प्रति किलोग्राम बीज में मिला कर बोआई करने से बीज और जमीन की बीमारियों से फसल की सुरक्षा होती है. इस के बाद बीज को रायजोबियम कल्चर से उपचारित करें,

5 ग्राम रायजोबियम कल्चर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें और बीज को छाया में सुखा कर जल्दी बोआई करनी चाहिए. इस के उपचार से राइजोबियम की गांठें ज्यादा बनती हैं और अच्छी फसल होती है.

बोने का समय और तरीका

खरीफ और जायद दोनों फसलों में अलगअलग बोआई की जाती है. खरीफ के मौसम में जुलाई के आखिरी हफ्ते से अगस्त के तीसरे हफ्ते तक बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 30 से 35 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और जायद में 10 मार्च से 10 अप्रैल तक बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 25 से 30 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज की बोआई कूंड़ में 4 से 5 सैंटीमीटर की गहराई में करनी चाहिए, ताकि गरमी में जमाव अच्छा हो सके. जायद में या गरमी की फसल में बोआई के बाद लेवलर से खेत बराबर करना काफी जरूरी है, जिस से कि खेत की नमी न रहे.

खाद डालने का तरीका

किसानों की मुख्य समस्या यह है कि वह बिना मिट्टी जांच के अपने खेतों में ज्यादा पैदावार के लिए काफी ज्यादा उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से उन की लागत बढ़ जाती है और खेतों की पैदावार आने वाले साल में घटने लगती है.

अनुमान के मुताबिक, 10 से 15 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर में इस्तेमाल करना चाहिए.

यदि किसान फसल की पैदावार ज्यादा लेना चाहते हैं तो इन्हें बोआई के समय कूंड़ों में बीज से 2 से 3 सैंटीमीटर नीचे देना चाहिए, जिस से अच्छी पैदावार हो.

मूंग की खेती (Moong Cultivation)

मूंग की प्रजातियां

मूंग में खासतौर पर 2 तरह की उन्नतशील प्रजातियां पाई जाती हैं. खरीफ की फसल में बोआई के लिए टाइप 44, पंत मूंग 1, पंत मूंग 2, पंत मूंग 3, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय ज्योति, मालवीय जनचेतना, मालवीय जनप्रिया, सम्राट, मालवीय जाग्रति, मेहा, आशा और मालवीय जनकल्याणी ये सभी किस्में खरीफ की फसल के लिए हैं.

इसी तरह जायद की फसल के लिए पंत मूंग 2, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय जाग्रति, सम्राट मूंग, जनप्रिया, मेहा, मालवीय ज्योति प्रजातियां काफी लाभकारी हैं.

कुछ प्रजातियां ऐसी हैं जो खरीफ और जायद दोनों में बोई जाती हैं और उन की पैदावार भी अच्छी होती है, जैसे कि पंत मूंग 2, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय ज्योति, सम्राट, मेहा, मालवीय जाग्रति.

किसानों को इस बात का खासा ध्यान रखना चाहिए कि मूंग की खेती करते समय वह अपने राज्यों के हिसाब से मूंग की प्रजाति का चुनाव करें, जिस से ज्यादा उत्पादन हो सके.

सिंचाई : खरीफ की फसल में सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन जब फूल आ जाएं और सूखने लगें, ऐसी हालत में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है. खरीफ की फसल में बारिश कम होने पर फलियां बनते समय सिंचाई की जरूरत पड़ती है और जायद की फसल में पहली सिंचाई बोआई के 30 से 35 दिन बाद और बाद में हर 10 से 15 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए, जिस से अच्छी पैदावार मिल सके.

निराईगुड़ाई : पहली सिंचाई के 30 से 35 दिन बाद निराईगुड़ाई करनी चाहिए. इस से खरपतवार नष्ट होने के साथसाथ हवा भी बहती है, जिस से फसल की बढ़ोतरी तेजी से होती है.

खरपतवार की रोकथाम के लिए किसान पेंडीमेथिलीन 30 ईसी की 3.3 लिटर या एलाकोलोर 50 ईसी 3 लिटर को 600 से 700 लिटर पानी में घोल कर बोआई 2 से 3 दिन के भीतर जमाव से पहले प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. ऐसा करने से खेतों में खरपतवार का जमाव नहीं होता.

पौध का रखरखाव : हर फसल में कोई न कोई बीमारी जरूर लगती है, चाहे खरीफ की फसल हो या फिर रबी और जायद की. कीटों के प्रकोप से बचने के लिए किसान समयसमय पर कई तरह की कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिस से फसल की सुरक्षा की जा सके.

मूंग में पीला चित्रवर्ण मोजैक रोग लगता है. इस के विषाणु सफेद मक्खी के जरीए फैलते हैं. इस की रोकथाम के लिए समय पर बोआई करना काफी जरूरी है, दूसरा मोजेक अवरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल बोआई में करना चाहिए. तीसरा, मोजेक रोग वाले पौधे को सावधानी से उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

मूंग की फसल में थ्रिप्स हरे फुदके वाला कीट और फलीछेदक कीट लगता है. इन से बचने के लिए किसानों को क्विनालफास 25 ईसी 1.25 लिटर मात्रा 600 से 800 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए, जिस से कीटों का असर न हो और फसल बरबाद न हो.

फसल की शुरुआती अवस्था में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहू, जैसिड, थ्रिप्स आदि का हमला होता है. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी 400 से 500 मिलीलिटर क्विनालफास 25 ईसी 600 मिलीलिटर प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी, 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें. यदि दोबारा जरूरत पड़े तो 15 दिन बाद फिर छिड़काव करें.

जब पौधों में फूल लगने लगते हैं तो फलीछेदक, नीली तितली का ज्यादा असर होता है. क्विनालफास 25 ईसी का 600 मिलीलिटर या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी का 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से इन की रोकथाम हो सकती है.

कई क्षेत्रों में कंबल कीड़े का ज्यादा असर होता है. इस की रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण 2 फीसदी, 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

फसल की कटाईमड़ाई : जब फसल की फलियां पक कर सही तरीके से सूख जाएं, तब खेतों से फसल की कटाई करनी चाहिए. मूंग की फलियां पकने पर काली पड़ने लगती हैं. यदि थोड़ीबहुत नमी रहे तो फसल को खेतों में एकदो दिन के लिए छोड़ दें, ताकि सही तरह से सूख जाए. कटाई करने के बाद खलिहान में अच्छी तरह सुखा कर ही मड़ाई करें. इस के बाद ओसाई कर के बीज और भूसा अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज : यदि मूंग की फसल आधुनिक तकनीक से की जाए और सही वक्त पर फसल की सिंचाई और कीटनाशक दवा का छिड़काव किया जाए तो पैदावार ज्यादा होती है.

चूंकि मूंग की फसल साल में 2 मौसम में की जाती है, तो दोनों की पैदावार में भी थोड़ाबहुत फर्क रहता है. खरीफ की फसल में 4-5 क्विंटल प्रति एकड़ तक पैदावार होती है और जायद की फसल में तकरीबन 4 क्विंटल प्रति एकड़ तक की पैदावार हो जाती है.

भंडारण : किसी भी फसल का भंडारण करने से पहले कुछ सावधानियां बरतनी जरूरी हैं, तभी ज्यादा समय तक बीज सुरक्षित रहेगा, वरना उस में कीड़े पड़ जाते हैं. बीज भंडारण से पहले सही तरीके से सुखा लेना चाहिए. बीज में 8 से 10 फीसदी से ज्यादा नमी नहीं रहनी चाहिए.

मूंग के भंडारण में सूखी नीम की पत्ती का इस्तेमाल करने से कीड़ों से बचाव किया जा सकता है. कुछ किसान कीड़ों से अनाज बचाने के लिए सल्फास का इस्तेमाल करते हैं जो काफी नुकसानदायक है.

सल्फास काफी जहरीला होता है, इस के इस्तेमाल से सेहत पर बुरा असर पड़ता है. इसलिए किसानों को चाहिए कि वह अनाज की सुरक्षा के लिए परंपरागत तरीके अपनाएं, इस में सब से ज्यादा लाभदायक नीम की पत्तियां होती हैं, जिन से सालभर बीज सुरक्षित रहता है और सेहत के लिए किसी तरह का नुकसान भी नहीं होता.

राज मूंग (Red Bean) यानी मोठ की खेती

राज मूंग (रैडबीन) यानी मोठ की खेती छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग में की जाती है. आदिवासी इलाकों की यह एक दलहनी फसल है. यह फसल नेपाल में काफी प्रचलित है. यह अमान्य व अनुपजाऊ जमीन में मक्का और दूसरी दलहनी फसलों के साथ खेती करने के लिए काफी उपयोगी है.

अधिकतम पैदावार कूवत, पोषक तत्त्वों की मौजूदगी, कीटव्याधियों के प्रति सहनशील, हरी खाद, चारे वगैरह के रूप में इस का इस्तेमाल किया जाता है. यह खरीफ व ग्रीष्म में अकेले या मिश्रित खेती के रूप में उगाई जाती है.

राज मूंग की हर 100 ग्राम मात्रा में नमी 10.8 ग्राम, प्रोटीन 18.6 ग्राम, वसा 1.4 ग्राम, क्रूड फाइबर 1.0 ग्राम और ऊर्जा 332 किलोग्राम कैलोरी पाई जाती है. दाने के साथसाथ फसल की पत्तियों और तनों से सही मात्रा में भूसा मिलता है जो जानवरों के चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

पौधों की जड़ों में जो गं्रथियां पाई जाती हैं जिन में राइजोबियम फेसीओलाई नामक जीवाणु पाए जाते हैं, ये वायुमंडल की नाइट्रोजन को इकट्ठा करते हैं जिस का इस्तेमाल आगामी फसल में किया जाता है.

शुष्क खेती के लिए यह विकल्प के रूप में अच्छी दलहन है. राज मूंग की दाल और आटे से विभिन्न प्रकार के खाने जैसे सूप, दाल, सब्जी, खिचड़ी, इडली, डोसा, पापड़, स्नैक्स वगैरह बनाने में होता है.

क्षेत्रफल और जलवायु

यह फसल गरम, आर्द्र व उष्ण कटिबंधीय पहाड़ी और मैदानी इलाकों में उगाई जाती है. इस की खेती के लिए ज्यादा बारिश नुकसानदायक है. यह फसल 1000 से 1500 मिलीमीटर बारिश और 25-30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान और 2000 मीटर समुद्र तल से ऊंचाई वाले इलाकों में आसानी से ली जा सकती है.

जमीन : दोमट और हलकी दोमट मिट्टी राज मूंग की खेती के लिए अच्छी होती है. खेत में बोआई के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और 1-2 जुताइयां देशी हल से करनी चाहिए.

लवणीय जमीन राज मूंग की खेती के लिए सही नहीं होती है. जमीन का पीएच मान 6.5-7.5 अच्छा माना गया है. यह बारिश आधारित सूखे व पहाड़ी ढलानी इलाकों में इस की खेती की जा सकती है. इस की मिश्रित खेती मक्का फसल के साथ भी की जा सकती है.

बोआई का समय : जुलाई के पहले हफ्ते तक इस की बोआई कर देनी चाहिए. आमतौर पर किसान छिड़कवां विधि से बोते हैं. पंक्ति में सीड ड्रिल या हल के पीछे बोने से ज्यादा पैदावार मिलती है. लाइन से लाइन की दूरी 30 से 40 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8 से 10 सैंटीमीटर रखी जाती है.

बीज दर : प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है. इसे थाइरम 2-3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज द्वारा उपचारित करने के बाद राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल करना चाहिए. इस की बीज परत कठोर होती है इसलिए बोने से पहले रात में पानी में फुला कर अगले दिन इस की बोआई करनी चाहिए.

उर्वरक प्रबंधन : राज मूंग एक दलहनी फसल है. इस फसल में नाइट्रोजन की कम जरूरत पड़ती है, फिर भी 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम सुपर फास्फेट और 20 किलोग्राम पोटाश बोआई के समय इस्तेमाल करना चाहिए या डीएपी 1 क्विंटल प्रति हेक्टेयर काफी होगा.

खरपतवार पर नियंत्रण : पहली निराई बोआई के 20 से 25 दिन के अंदर कर देनी चाहिए और दूसरी निराई जरूरत पड़ने पर करनी चाहिए. पेंडीमिथेलीन 30 ईसी 3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 800-1000 लिटर पानी में घोल कर बोआई के 2 दिन के भीतर छिड़काव कर के खरतपवारों को खत्म किया जा सकता है.

सिंचाई सुरक्षा : बरसात के मौसम में लंबी अवधि तक पानी न बरसे तो बीच में 1-2 सिंचाई की जरूरत पड़ सकती है.

फसल सुरक्षा : फलीछेदक, सफेद मक्खी, एफिड, टिड्डा वगैरह फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं. फलीछेदक की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरोपिड 1 ग्राम प्रति लिटर पानी में और सफेद मक्खी व टिड्डा को मारने के लिए डाईमिथोएट 0.03 फीसदी का छिड़काव करना चाहिए.

इस फसल में बहुत से रोग लगते हैं, पर लीफ स्पौट, रस्ट, पाउडरी मिल्ड्यू और बैक्टीरियल ब्लाइट की संभावना पहाड़ी इलाकों में बनी रहती है.

रस्ट की रोकथाम के लिए इंडोफिल 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर, पाउडरी मिल्ड्यू की रोकथाम के लिए कार्बंडाजिम 0.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव कर सकते हैं. बैक्टीरियल ब्लाइट के लिए बाविस्टीन 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिला कर बोना चाहिए.

फलियों की तुड़ाई और कटाई : जब 50 फीसदी फलियां पक जाएं तब पहली तुड़ाई कर लेनी चाहिए. पूरी तरह से फलियों के पकने पर तोड़ लिया जाना चाहिए.

आमतौर पर फसल 120 से 150 दिन में पक कर कटने लायक हो जाती है. ज्यादा ऊंचाई वाले इलाकों में ज्यादा दिन का समय लग सकता है. फसल को काट कर जमीन में मिला दिया जाए ताकि पौध खाद का काम करे और जमीन में जीवांश को बढ़ाए.

फलियों को साफसुथरे खलिहान में मड़ाई कर के दाना निकाल लें. जब दानों में 10 फीसदी नमी रह जाए तब भंडारण करें.

भंडारण में कीटों की रोकथाम के लिए एल्युमिनियम फास्फाइड 3 गोली प्रति टन की दर से इस्तेमाल में लानी चाहिए.

उपज : राज मूंग की पैदावार तकरीबन 9-13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आंकी गई है.

वर्तमान में राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर में इस की विभिन्न किस्मों पर काम जारी है. इस केंद्र में अनेक इलाकों के लिए भी कुछ किस्में तैयार की जा रही हैं.

गरमी में मूंग की खेती (Moong Cultivation) में नई तकनीक

भारत की लोकप्रिय दलहन फसल मूंग है. चना और अरहर के बाद मूंग का तीसरा स्थान है. भारत में 3109 मिलियन हेक्टेयर जमीन में इस की खेती की जाती है, जिस से 0.946 मिलियन टन उपज हासिल होती है.

मूंग कम समय में तैयार होने वाली फसल है. इसे दाल, हरी खाद और चारे के रूप में उगाया जाता है. इस की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु पाए जाते हैं, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन को जमीन में इकट्ठा करने की कूवत रखते हैं. इस से जमीन की उर्वराशक्ति में बढ़ोतरी हो जाती है.

भारत में मूंग की खेती विशेष रूप से राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में की जाती है.

मूंग की खेती वैसे तो खरीफ मौसम में की जाती है, पर अब प्रकाश और तापमान असहिष्णु किस्मों के चलते विकास और सुनिश्चित सिंचाई साधनों के होने की वजह से इस की खेती उत्तरी भारत में संभव है, वहीं गरमी और सर्दी दोनों ही मौसमों में दक्षिण भारत में भी इस की खेती संभव है.

गरमी में मूंग की फसल पीला मोजेक और चितकबरा रोग अवरोधी किस्म बोएं. इस से दाल के उत्पादन में और जमीन की उर्वराशक्ति में तेजी से इजाफा होता है.

जलवायु : मूंग की फसल के लिए गरम जलवायु की जरूरत होती है. इस के लिए ज्यादा बारिश हानिकारक है, पर 100 सैंटीमीटर सालाना बारिश वाले इलाकों में मूंग की खेती आसानी से की जा सकती है.

फसल बोने के बाद बढ़वार के समय अधिक तापमान की जरूरत होती है. पौधों पर फलियां आते समय या उन की जरूरत के समय शुष्क मौसम और उच्च तापमान की जरूरत होती है.

जमीन और उस की तैयारी : मूंग की बढि़या उपज हासिल करने के लिए सही जल निकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 6-7 हो, जीवांश पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो, अच्छी मानी गई है. ज्यादा अम्लीय या ज्यादा क्षारीय मिट्टी इस के लिए ठीक नहीं है.

बोआई से पहले खेत में सही नमी का होना जरूरी है, इसलिए इसे बोने से पहले पलेवा कर लेना चाहिए. जब जमीन जुताई योग्य हो जाए, तब 3-4 बार हैरो या कल्टीवेटर से जुताई करनी चाहिए, फिर पाटा लगा कर जमीन को समतल कर लेना चाहिए.

खाद और उर्वरक : मूंग की फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिए जमीन में संतुलित मात्रा में खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करना जरूरी है, इसलिए मिट्टी जांच के बाद ही खाद और उर्वरक डालें. किसी कारणवश मिट्टी की जांच न हो सके, तो उस हालत में ये उपाय अपनाने चाहिए:

गोबर की खाद 5-10 टन.

नाइट्रोजन 20 किलोग्राम.

फास्फोरस 20 किलोग्राम.

पोटाश 25 किलोग्राम.

जिप्सम 25 किलोग्राम.

लेकिन ऐसे क्षेत्रों में जहां पर आलू या मटर के बाद मूंग उगानी हो, तो वहां पर केवल 40-60 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. क्योंकि ऐसे खेत में नाइट्रोजन और पोटाश सही मात्रा में होता है.

बोआई का समय : समय पर बोआई करें. गुजरात में मार्च के पहले हफ्ते में बोआई करने से सब से अधिक उपज मिलती है, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस की बोआई मार्च के आखिरी हफ्ते में करना ठीक रहता है.

हिसार, हरियाणा में इस की बोआई का सब से अच्छा समय अप्रैल के दूसरे पखवारे में है. इस के बाद बोआई करने से उपज पर उलटा असर पड़ता है.

बीज की मात्रा : गरमी में मूंग के लिए 30-37.5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही होता है, जबकि खरीफ में मूंग के लिए मात्र 15-20 किलोग्राम बीज सही होता है.

मूंग की खेती (Moong Cultivation)

बीजोपचार : बीजों को उपचारित करने के लिए अनेक राइजोबियम कल्चरों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिन में जीएमबीएस 1, एम 10, केएम 1, एमओ 5, एमओआर 1 खास हैं. इन में से किसी एक से बीजों को बोने से पहले उपचारित करना चाहिए.

विधि : 10 ग्राम गुड़ या चीनी को 1 लिटर पानी में डाल कर हलका गरम करें और घोल को ठंडा कर लें. 200-250 ग्राम का पैकेट मूंग का विशिष्ट राइजोबियम कल्चर डाल कर भलीभांति मिला लें.

अब इस घोल को 10 किलोग्राम बीजों के ऊपर डाल कर हलके हाथों से इस तरह मिलाएं कि उन पर कल्चर की हलकी परत जम जाए, फिर बीज को छाया में सुखा लें.

बीजों की बोआई शाम या सुबह करें, क्योंकि तेज धूप में कल्चर के जीवाणुओं के मरने का डर रहता है.

पीएसबी कल्चर से बीजोपचार : जमीन में जरूरत के मुताबिक फास्फोरस का उपयोग करें. इस दशा में बदलाव के लिए पीएसबी कल्चर मददगार होता है. इसलिए राइजोबियम कल्चर के साथ फास्फेट की मौजूदगी बढ़ाने के लिए पीएसबी कल्चर का भी इस्तेमाल करना चाहिए. इस के इस्तेमाल की विधि और मात्रा राइजोबियम कल्चर के समान ही है.

बोने की दूरी : मूंग की बोआई कितनी दूरी पर की जाए, यह किस्म, मौसम और बोआई प्रणाली पर निर्भर करता है. ज्यादातर छोटी अवधि वाली किस्मों को कम दूरी पर बोएं और लंबी अवधि वाली किस्मों को ज्यादा दूरी पर बोया जाता है.

गरमी में बोई गई मूंग में कम शाखाएं निकलती हैं और इस की वानस्पतिक बढ़वार ज्यादा तापमान की वजह से कम होती है, इसलिए इस के लिए कम दूरी पर बोआई की जाती है.

आमतौर पर मूंग की आपसी दूरी 25-30 सैंटीमीटर लंबी, 5 सैंटीमीटर चौड़ी रखी जाती है, जबकि हरियाणा में 20 सैंटीमीटर लंबी और 10 सैंटीमीटर चौड़ी दूरी रखी जाती है. 3.33-4.00 लाख पौधों की तादाद प्रति हेक्टेयर अच्छी मानी गई है. वर्गाकार बोआई की तुलना में आयताकार बोआई सही मानी गई है.

सिंचाई : गरमी के मौसम में मूंग की सिंचाई मिट्टी की किस्म और तापमान पर निर्भर करती है. पंतनगर, उत्तराखंड में सिल्ट चिकनी दोमट मिट्टी में 5 सिंचाई की जरूरत होती है. प्रत्येक सिंचाई में 6 सैंटीमीटर गहरी सिंचाई करनी पड़ती है. कुल सिंचाई में 30 सैंटीमीटर सिंचाई की जरूरत होती है. दूसरे इलाकों में 3-4 सिंचाई की जरूरत होती है.

पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद करें और बाकी सिंचाई 10-15 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए. फूल आने से पहले और दाना बनते समय नमी की कमी में सिंचाई जरूर करें.

फसल सुरक्षा

खरपतवार : गरमी के मौसम में मूंग की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो फसल के साथ नमी, पोषक तत्त्वों के साथसाथ जगह, धूप, हवा वगैरह के लिए होड़ करते हैं. उन के नियंत्रण के लिए 2 बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए. पहली निराईगुड़ाई फसल बोने के 10 दिन बाद और दूसरी 40 दिन बाद करनी चाहिए.

इन खरपतवारों की रोकथाम के लिए खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. अंकुरण से पहले पैंडीमिथेलिन 1.0 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व को प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. बोने के 20-30 दिन बाद एक बार निराईगुड़ाई भी करनी चाहिए.

कीट नियंत्रण

थ्रिप्स : ये कीट पौधे की कोशिकाओं के अंदर घुस जाते हैं और उन्हें खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. प्रभावित कोशिकाएं बेरंग हो जाती हैं और फिर भूरी हो कर मुरझा जाती हैं. प्रभावित फूल अकसर बदरंग हो जाते हैं और पकने से पहले ही गिर जाते हैं.

चैंपा : इस कीट के निम्फ और प्रौढ़ दोनों ही पौधों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं. इस से फलियां भी प्रभावित होती हैं.

सफेद मक्खी : यह मक्खी पौधों का रस चूस कर पौधे को नुकसान पहुंचाती है.

यह मक्खी विषाणु रोग भी फैलाती है. इन कीटों की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास को 0.04 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

पीला मोजेक : फसल में यह रोग सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. यह रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलता है. पौधा छोटा रह जाता है, फूल गिर जाते हैं और पत्तियां पीली पड़ कर मुरझा जाती हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए कुछ उपाय करने चाहिए:

* रोग प्रतिरोधी किस्में ही उगाएं.

* रोग फैलाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल करें.

* बोआई से पहले प्रति किलोग्राम बीज को 1 ग्राम क्रूजर इमिडाक्लोप्रिड से उपचारित करना चाहिए.

कटाई: मूंग की कटाई भी समय पर करना जरूरी है, क्योंकि इस की फलियों के चटकने और बीजों के झड़ने का डर रहता है.

मूंग की सभी फलियां एकसाथ नहीं पकती हैं, इसलिए समयसमय पर इस की फलियों की तुड़ाई करनी चाहिए.

इस के बाद पूरी फसल को काट लिया जाता है. कटी फसल को खलिहान में भलीभांति सुखा कर बैलों की दाय चला कर बीजों को अलग कर लिया जाता है.

55 दिनों में तैयार होगी जनकल्याणी मूंग 55

 

वाराणसी के प्रगतिशील किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी ने बताया कि उन की ‘कुदरत कृषि शोध संस्था’ द्वारा मूंग की नई प्रजाति ‘जनकल्याणी मूंग’ विकसित की गई है. यह फसल मात्र 55 दिनों में पक कर तैयार हो जाएगी.

इस मूंग की फलियां लंबी और गहरे हरे रंग की हैं, जो गुच्छे के आकार में लगती हैं. एक फली में 10-12 दाने होते हैं. दाने मोटे और वजनदार हैं. इस मूंग से 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ पैदावार मिलती है.

यह एक देशी प्रजाति है. इस का बीज बारबार बोआई के काम लिया जा सकता है. इस प्रजाति को 25 फरवरी से अप्रैल के अंतिम सप्ताह तक बो सकते हैं. बोआई में एक एकड़ के लिए तकरीबन 6-8 किलोग्राम तक बीज की जरूरत होगी.

Moongयह प्रजाति मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे अनेक राज्यों के लिए अनुकूल है.

किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी को कृषि में नवाचारों के लिए अनेक बार पुरस्कृत भी किया जा चुका है. वह राष्ट्रपति से सम्मानित भी हो चुके हैं. वे गेहं, चना, मूंग, अरहर व सब्जियों आदि की सैकड़ों प्रजातियां तैयार कर चुके हैं.

अधिक जानकारी के लिए प्रगतिशील किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी के मोबाइल नंबर : 9580246411 और 9839253974 पर संपर्क कर सकते हैं.

राजस्थान में मूंग और मूंगफली की ज्यादा खरीद करेगी सरकार

जयपुर: राज्य में अधिक से अधिक किसानों को समर्थन मूल्य पर खरीद का लाभ मिले, इस के लिए मूंग और मूंगफली की पंजीकरण क्षमता को 90 फीसदी से बढ़ाकर 100 फीसदी किया गया है.

प्रबंध निदेशक, राजफैड, संदेश नायक ने बताया कि जिन केंद्रों पर पंजीयन क्षमता पूरी हो चुकी है, वहां 20 फीसद अतिरिक्त पंजीयन सीमा बढ़ाई गई है. किसान बढ़ी हुई पंजीयन सीमा का लाभ प्राप्त कर सकेंगे.

उन्होंने आगे बताया कि किसान पंजीयन सीमा बढ़ाने पर मूंग के लिए 12,731 एवं मूंगफली के लिए 17,025 कुल 29,756 अतिरिक्त किसान पंजीयन करवा सकेंगे. दलहन व तिलहन खरीद की कुल सीमा भारत सरकार द्वारा स्वीकृत लक्ष्य तक सीमित रहेगी.

उन्होंने आगे यह भी बताया कि मूंग, उड़द, मूंगफली एवं सोयाबीन की समर्थन मूल्य पर जारी मूंगफली के लिए 9,443 किसानों द्वारा पंजीकरण करवाया गया है.

प्रबंध निदेशक संदेश नायक ने बताया कि अब तक 5,584 किसानों से 11,487 मीट्रिक टन मूंग और मूंगफली की खरीद की जा चुकी है, जिसकी राशि लगभग 98 करोड़ रुपए है. उड़द एवं सोयाबीन के बाजार भाव समर्थन मूल्य दर से अधिक होने के कारण किसानों द्वारा समर्थन मूल्य पर उक्त जिंस के विक्रय में रुचि नहीं ली जा रही है.

उन्होंने किसानों से आग्रह किया कि समर्थन मूल्य खरीद योजना का लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से ई-मित्र के माध्यम से आवश्यक दस्तावेज यथा गिरदावरी, बैंक की पासबुक, आधारकार्ड सहित शीघ्र पंजीयन करावें, ताकि किसानों को जिंस तुलाई हेतु पंजीयन की प्राथमिकता के क्रम में तुलाई दिनांक आवंटित की जा सके.

प्रबंध निदेशक संदेश नायक ने बताया कि किसान दलहन व तिलहन को सुखा कर और साफसुथरा कर अनुज्ञेय नमी की मात्रा के अनुरूप तुलाई केंद्रों पर लाएं. किसानों की समस्या के समाधान के लिए किसान हेल्पलाइन नंबर 18001806001 जारी किया है, जहां किसान अपनी समस्या का निराकरण कर सकते हैं.

एमपी चरी, सूडान घास का बिना उपचारित बीज कहां से मिलेगा?

सवाल : एमपी चरी, सूडान घास का बिना उपचारित बीज कहां से मिलेगा?

-राकेश दूबे, एसएमएस द्वारा

जवाब : भारतीय चारागाह अनुसंधान संस्थान, झांसी में एमपी चरी और सूडान घास का बिना उपचारित बीज मिलता है. वहां से आप यह बीज खरीद सकते हैं.


सवाल : गन्ने की अच्छी खेती करने के लिए गन्ने में पोटाश किस समय मिलाना चाहिए? खेत तैयार करते समय या गन्ना जमाव के बाद?

-सुनील, एसएमएस द्वारा

जवाब : पोटाश को गन्ने के खेत में बोआई के समय ही देना चाहिए और जमाव के बाद यूरिया अथवा पानी में घुलने वाला उर्वरक का पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए.


सवाल : गन्ने की फसल में बहुत ज्यादा खरपतवार हो गया है. इस वजह से गन्ना पूरी तरह बाहर नहीं निकल रहा है और न ही पनप रहा है. कृपया खरपतवार खत्म करने के लिए कोई सटीक तरीका बताएं?

-रोहित, एसएमएस द्वारा

जवाब : गन्ने के खेत से खरपतवार खत्म करने के लिए गन्ना बोआई के बाद एट्राजीन का इस्तमाल करें.


सवाल : मैं अकसर मूंग की खेती करता हूं. उस में झुलसा बीमारी लग जाती है और पत्ते भी सूख जाते हैं. साथ ही पौधों की बढ़वार भी नहीं होती. इस समस्या के लिए मैं क्या करूं?

-अमन, एसएमएस द्वारा

जवाब : मूंग की फसल में पीला पत्ता रोग का प्रकोप अकसर पाया जाता है. अगर पत्ते पीले पड़ रहे हैं तो यह येलो मौजेक वायरस जनित रोग है. यह रस चूसने वाले कीड़े से फैलता है. अत: इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मिलीलिटर दवा 1 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें.


सवाल : गाय को दस्त लग गए हैं. पतला गोबर कर रही है लेकिन ज्यादा पतला भी नहीं है. उपाय बताएं?

-एसएमएस द्वारा

जवाब : गाय को दस्त लगे हैं तो गाय के पेट में कीट मारने की दवा पिलानी चाहिए. गाय के पेट में कीडे़ होने के कारण गाय का गोबर पतला आता है और आहार में हरा चारे के साथ सूखा चारा खिलाएं.


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