Oilseed Production : कैसे बढ़ेगा तिलहन उत्पादन

Oilseed Production :  पिछले दिनों 24 फरवरी,2025 को राष्ट्रीय खाद्य तेल-तिलहन मिशन नेशनल मिशन औन एडिबल औयल (एनएमइओ) योजानान्तर्गत दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस कार्यशाला में खेरवाड़ा, मावली, झाड़ोल, फलासिया और नयागांव पंचायत समितियों के चयनित 100 किसानों ने भाग लिया.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) के निदेशक अनुसंधान के नवीन सभाकक्ष में आयोजित कार्यशाला में किसानों को तिलहन उत्पादन बढ़ाने और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता संबंधी महत्वपूर्ण गुण सिखाए गए.

एमपीयूएटी के पादप रोग वैज्ञानिक डा. आरएस रत्नू ने तेल वाली फसलों यथा तिल, मूगंफली, सोयाबीन, अरण्डी, सूरजमुखी, सरसों, अलसी, कुसुम आदि में लगने वाली बीमारियों और उन के निदान के बारे में बताया, ताकि तिलहन की खेती करने वाले किसान समय रहते नुकसान से बच सकें.

कीट वैज्ञानिक डा. आर स्वामिनाथन ने तिलहन फसलों में लगने वाले प्रमुख कीट और उन का निदान, मित्र कीट की पहचान और उस का महत्व, फसल चक्र अपनाने के फायदे आदि के बारे में विस्तारपूर्वक बताया. पादप व अनुवांशिकी विभाग के डा. पीबी सिंह, अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा और डा. अभय दशोरा ने मूगंफली की उन्नत किस्मों व खरपतार नियंत्रण आदि की जानकारी दी.

आरंभ में संयुक्त निदेशक कृषि जिला उदयुपर सुधीर कुमार वर्मा ने कार्यशाला के लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए बताया कि तिलहन उत्पादन मिशन के अंतर्गत 2030-31 तक केंद्र ने 10 हजार 800 करोड़ रूपए की मंजूरी दी है. इस में 20 फीसदी राशि राज्य सरकार वहन करेगी.

फरवरी महीने में खेती के खास काम (Farming Tasks)

फरवरी का महीना खेतीबारी के लिए बहुत अहम है, क्योंकि यह मौसम फसल और पशुओं के लिए नाजुक होता है, इसलिए किसानों को कुछ एहतियात बरतने चाहिए:

* समय पर बोई गेहूं की फसल में इन दिनों फूल आने लगते हैं. इस दौरान फसल को सिंचाई की बहुत जरूरत होती है. झुलसा, गेरुई, करनाल बंट जैसी बीमारी का हमला फसल पर दिखाई दे, तो मैंकोजेब दवा के 2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

* गन्ने की बोआई 15 फरवरी के बाद कर सकते हैं. बोआई के लिए अपने इलाके की आबोहवा के मुताबिक गन्ने की किस्मों का चुनाव करें. बोआई में 3 आंख वाले सेहतमंद बीजों का इस्तेमाल करें. बोआई 75 सैंटीमीटर की दूरी पर कूंड़ों में करें. बीज को फफूंदनाशक दवा से उपचारित कर के ही बोएं.

* सूरजमुखी की बोआई 15 फरवरी के बाद कर सकते हैं. उन्नत बीजों की बोआई लाइन में 4-5 सैंटीमीटर की गहराई पर करें. बीज को कार्बंडाजिम से उपचारित कर के बोएं.

* मैंथा की बोआई करें. बोआई के लिए उन्नतशील किस्में जैसे हाईब्रिड एमएसएस का चुनाव करें. 1 हेक्टेयर खेत के लिए 400-500 किलोग्राम मैंथा जड़ों की जरूरत पड़ती है. बोआई के दौरान 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 75 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* आलू की फसल पर पछेता झुलसा बीमारी दिखाई दे, तो इंडोफिल दवा के 0.2 फीसदी वाले घोल का अच्छी तरह छिड़काव करें. फसल को कोहरे और पाले से बचाने का भी इंतजाम  करें.

* चना, मटर और मसूर की फसल में फलीछेदक कीट की रोकथाम के लिए कीटनाशी का इस्तेमाल करें. चने की फसल की सिंचाई करें. मटर की चूर्ण फफूंदी बीमारी की रोकथाम के लिए कैराथेन दवा का इस्तेमाल करें.

* टमाटर की गरमियों की फसल की रोपाई करें. रोपाई 60×45 सैंटीमीटर की दूरी पर करें. रोपाई से पहले खेत को अच्छी तरह तैयार कर लें.

* प्याज की रोपाई अभी तक नहीं की गई है, तो फौरन रोपाई करें. पिछले महीने रोपी गई फसल की निराईगुड़ाई करें. जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

* इस महीने धूप में चटकपन आ जाता है. धूप देख कर किसान पशुओं की देखरेख में लापरवाही बरतने लगते हैं. ऐसा न करें, पशुओं का ठंड से पूरा बचाव करें. जरा सी लापरवाही नुकसानदायक हो सकती है.

* अपने ऐसे पशु, जो जल्द ही ब्याने वाले हों, को दूसरे पशुओं से अलग कर दें और उन पर लगातार निगरानी रखें. गाभिन पशु का कमरा आदामदायक और कीटाणुरहित हो. इस में तूड़ी का सूखा डाल कर रखें.

* अगर बरसीम सही मात्रा में उपलब्ध हो, तो दाना मिश्रण में 5-7 फीसदी खल को कम कर के अनाज की मात्रा बढ़ा दें.

सरसों (Mustard) की खेती

सरसों रबी की मुख्य फसल है. देश के कई राज्यों राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में इस की खेती प्रमुखता से की जाती है. राजस्थान में भरतपुर, सवाई माधोपुर, अलवर, करौली, कोटा, जयपुर, धौलपुर आदि जिलों में सरसों की खेती ज्यादा की जाती है.

सरसों के बीज में 30 से 48 फीसदी  तेल पाया जाता है. तेल निकालने के बाद सरसों का  बचा हुआ भाग खली के रूप में पशुओं को खिलाने के काम आता है, जो काफी पौष्टिक होता है.

जलवायु और मिट्टी : सरसों की खेती सर्दी के मौसम में होती है. इस की अच्छी पैदावार के लिए 15 से 25 सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है. सरसों की खेती वैसे तो सभी तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्टी इस के लिए ज्यादा लाभकारी होती है. यह फसल हलकी लवणता को भी को सहन कर लेती है, लेकिन इस के लिए मिट्टी अम्लीय नहीं होनी चाहिए.

सरसों की उन्नत किस्में : हर साल आप को बीज खरीदने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इस के बीज काफी महंगे आते हैं. इसलिए जो बीज आप ने पिछले साल बोया था यदि उस की पैदावार बेहतरीन रही हो, तो आप उस बीज की सफाई और ग्रेडिंग कर के उस में से रोगमुक्त और मोटे दाने अलग कर लें और उन का बीजोपचार कर के बोआई करें. इन बीजों के काफी अच्छे परिणाम आएंगे. लेकिन जिन किसानों के पास बीज नहीं हैं, वे निम्न किस्मों के बीजों की बोआई कर सकते हैं:

आरएच 30 : सिंचाई व बिना सिंचाई दोनों ही हालत में गेहूं, चना और जौ के साथ खेती के लिए सही है.

टी 59 (वरुणा) : इस किस्म में तेल की मात्रा 36 फीसदी होती है.

पूसा बोल्ड : आशीर्वाद (आरके 01से 03) : इस किस्म की देरी से बोआई के लिए सही है. 25 अक्तूबर से 15 नवंबर तक का समय इस की बोआई के लिए एकदम सही है.

अरावली (आरएन 393) : सफेद रोली के लिए मध्यम प्रतिरोधी है.

गिर्राज : यह डीआरएमआर भरतपुर से विकसित किस्म है.

एनआरसी एचबी 101 : यह भरतपुर से विकसित उन्नत किस्म है.

एनआरसी डीआर 2 : इस की उपज काफी अच्छी है.

खेत की तैयारी : सरसों के लिए भुरभुरी मिट्टी की जरूरत पड़ती है. इस के लिए खरीफ की फसल की कटाई के बाद एक गहरी जुताई करनी चाहिए और इस के बाद 3-4 बार देशी हल से जुताई करना फायदेमंद रहता है. नमी के बचाव के लिए पाटा लगा देना चाहिए.

खेत में दीमक और अन्य कीटों का असर यदि ज्यादा हो तो रोकथाम के लिए आखिरी जुताई के समय क्यूनालफास 1.5 फीसदी चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाना चाहिए. साथ ही पैदावार बढ़ाने के लिए 2 से 3 किलोग्राम एजोटोबेक्टा और पीएबी कल्चर की 50 किलोग्राम मात्रा सड़ी गोबर की खाद या वर्मीकल्चर में मिला कर आखिरी जुताई से पहले खेत में मिला दें.

बोआई : सरसों की बोआई के लिए सही तापमान 25 से 26 डिगरी सेल्सियस तक सही रहता है. बारानी में सरसों की बोआई 15 सितंबर से 15 अक्तूबर तक कर देनी चाहिए. सिंचित क्षेत्रों में अक्तूबर के अंत तक बोआई की जा सकती है.

सरसों की बोआई कतारों में करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 45 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. सिंचित क्षेत्र में बीज की गहराई 5 सेंटीमीटर तक रखी जाती है.

बीजोपचार : बोआई के लिए सूखे इलाके में 4 से 5 किलोग्राम और सिंचित क्षेत्र में 3-4 किलेग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही रहते हैं. बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम मैंकोजेब और इमिडाक्लोरपीड 5एमआई प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

खाद व उर्वरक : सिंचित फसल के लिए 7 से 12 टन सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के 3 से 4 हफ्ते पहले खेत में डालें. बारानी इलाके में बारिश से पहले 4 से 5 टन सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत में डालें.

सिंचित क्षेत्रों में 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 से 40 किलोग्राम फास्फोरस और 375 किलोग्राम जिप्सम या 60 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. नाइट्रोजन की आधी व फास्फोरस की पूरी मात्रा बोआई के समय डालें. नाइट्रोजन की बाकी आधी मात्रा पहली सिंचाई के समय डालें.

सिंचाई : पहली सिंचाई बोआई के 30 से 40 दिनों बाद और दूसरी सिंचाई 70 से 80 दिनों बाद करें.

पैदावार : यदि जलवायु अच्छी हो और पूरी तरह वैज्ञानिक सलाह के साथ खेती की जाए तो 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार ली जा सकती है.

ज्यादा जानकारी के लिए नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र से संपर्क करें.

सरसों (Mustard) की खेती और पूसा की उन्नत किस्में

रबी सीजन में की जाने वाली तिलहनी खेती में सरसों (Mustard) का सब से अहम स्थान है. रबी सीजन की यह एक प्रमुख तिलहनी नकदी फसल है. देश में घरों में खाने के लिए सब से ज्यादा सरसों (Mustard) के तेल का ही इस्तेमाल होता है.

तिलहनी फसलों में सरसों (Mustard) एक ऐसी फसल है, जिस से कम सिंचाई व लागत में दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है. सरसों (Mustard) की खेती के मामले में राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, असम,    झारखंड, बिहार एवं पंजाब अग्रणी राज्यों में गिने जाते हैं.

सरसों (Mustard) एक ऐसी तिलहनी फसल है, जिसे एकल और मिश्रित दोनों तरीकों से आसानी से उगाया जा सकता है. सरसों (Mustard) के तेल का उपयोग खाने के अलावा साबुन और कास्मैटिक वस्तुओं के बनाने में भी किया जाता है. इस के खड़े दानों का उपयोग खाने के मसाले के रूप में भी होता है. साथ ही, इस की खली मवेशियों के खिलाने में भी काम आती है. सरसों (Mustard) के दानों में किस्मों के हिसाब से लगभग 38 से 50 फीसदी तेल का परता होता है.

खेती के लिए सही जलवायु

सरसों (Mustard) की खेती रबी सीजन यानी शरद ऋतु में की जाती है, क्योंकि इस सीजन में सरसों (Mustard) की खेती के लिए जरूरी तापमान 18 से 25 डिगरी के बीच पाया जाता है. सरसों (Mustard) की फसल में फूल आने के दौरान बारिश होने या बादल छाने के चलते कीट व बीमारियों का प्रकोप बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है. फूल आने के दौरान बारिश और बादल छाने की दशा में माहू कीट के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है.

मिट्टी एवं खेत की तैयारी

सरसों (Mustard) की खेती के लिए दोमट या बलुई मिट्टी, जिस में पानी की निकासी का अच्छा प्रबंध हो, अधिक उपयुक्त होती है. अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पीएच मान 7.0 होना चाहिए. अत्यधिक अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी इस की खेती के लिए ठीक नहीं होती है. यद्यपि, क्षारीय भूमि में उपयुक्त किस्म ले कर इस की खेती की जा सकती है. जहां जमीन क्षारीय है, वहां हर तीसरे साल जिप्सम/पायराइट 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए.

जिप्सम की आवश्यकता मिट्टी के पीएच मान के अनुसार अलग हो सकती है. जिप्सम/पायराइट को मईजून माह में जमीन में मिला देना चाहिए. सिंचित क्षेत्रों में खरीफ फसल के बाद पहली जुताई गहरी करनी चाहिए और उस के बाद 3-4 सामान्य जुताई करनी चाहिए.

सिंचित क्षेत्र में जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाना चाहिए, जिस से खेत में ढेले न बने. गरमी में गहरी जुताई करने से कीड़ेमकौड़े व खरपतवार नष्ट हो जाते हैं. बरसात के बाद हैरो से जुताई कर नमी को संरक्षित करने के लिए पाटा लगाना चाहिए, जिस से कि भूमि में नमी बनी रहे. अंतिम जुताई के समय 1.5 फीसदी क्विनालफास 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला दें, ताकि भूमिगत कीड़ों की रोकथाम की जा सके.

बीजशोधन

सरसों (Mustard) से भरपूर पैदावार लेने के लिए फसल को बीजजनित बीमारियों से बचाने के लिए बीजोपचार बहुत जरूरी है, इसलिए मेटालेक्जिल 6 ग्राम और कार्बंडाजिम 3 ग्राम या थिरम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार कर के ही बोआई करें.

बोने का समय और बीज की दर

सरसों (Mustard) के बीज की मात्रा उस की बोआई के समय पर निर्भर करती है. अगर सरसों (Mustard) की बोआई सितंबर के पहले सप्ताह से दूसरे सप्ताह के बीच की जा रही है, तो बीज की मात्रा 4 से 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए.

अगर बोआई का समय 15 सितंबर से 15 अक्तूबर के बीच का है, तो बीज की मात्रा 5-6 किलोग्राम रखनी चाहिए. 15 अक्तूबर से 15 दिसंबर के मध्य बोआई की दशा में 5-6 किलोग्राम बीज का उपयोग करना चाहिए.

ऐसे करें बोआई

सरसों (Mustard) की बोआई छिटकवां विधि या सीड ड्रिल से कतारों में की जाती है. सीड ड्रिल से बोआई की दशा में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सैंटीमीटर, पौधे से पौधे की दूरी 10-12 सैंटीमीटर एवं बीज को 2-3 सैंटीमीटर से अधिक गहराई में न बोएं, अधिक गहरा बोने पर बीज के अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. अगर बोआई छिटकवां विधि से की गई है, तो फसल के अधिक घना होने पर समय रहते पौधों का विरलीकरण कर लें.

खाद व उर्वरक का प्रयोग

सरसों (Mustard) की फसल से भरपूर उत्पादन लेने के लिए खाद व उर्वरक का प्रयोग संस्तुत मात्रा में  करना चाहिए. सरसों (Mustard) की फसल में रासायनिक खाद उर्वरकों के साथ गोबर की सड़ी हुई खाद या कंपोस्ट खाद उत्पादन को बढ़ा देता है.

गोबर या कंपोस्ट खाद 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से बोने से पहले खेत में डाल कर जुताई के समय अच्छी तरह मिला दें. राईसरसों से भरपूर पैदावार लेने के लिए रासायनिक उर्वरकों का संतुलित मात्रा में उपयोग करने से उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है.

उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी की जांच के आधार पर करना अधिक उपयोगी होगा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से नाइट्रोजन 60 किलोग्राम, पोटाश 20 किलोग्राम व गंधक 20 किलोग्राम की दर से उपयोग करना चाहिए.

खाद की इस मात्रा में से बोआई के समय ऊपर बताई गई नाइट्रोजन की आधी मात्रा और पोटाश व गंधक की पूरी मात्रा खेत में अच्छी तरह मिला दें, जबकि नाइट्रोजन की शेष बची मात्रा पहली सिंचाई के बाद खेत में खड़ी फसल में छिटक कर मिला दें.

सरसों (Mustard) की फसल पर सल्फर का उपयोग भी जरूरी है. इसलिए अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र से जानकारी ले कर संस्तुत मात्रा में सल्फर का उपयोग करें.

सरसों की खुटाई (टौपिंग)

जब सरसों (Mustard) तकरीबन 30-35 दिन की हो जाए या फूल आने की शुरुआती अवस्था पर हो, तो सरसों (Mustard) के पौधों को पतली लकड़ी से मुख्य तने के ऊपर से तुड़ाई कर देनी चाहिए. इस प्रक्रिया को करने से मुख्य तना की वृद्धि रुक जाती है और शाखाओं की संख्या में वृद्धि होती है. नतीजतन, उपज में 10 से 15 फीसदी तक की वृद्धि होती है.

सिंचाई

सरसों (Mustard) की बोआई अगर बिना पलेवा दिए की गई हो, तो पहली सिंचाई बोआई के 30-35 दिन पर करें. इस के बाद 60-70 दिन की अवस्था पर जिस समय फली का विकास या फली में दाना भर रहा हो, तब सिंचाई अवश्य करें.

द्विफसलीय क्षेत्र में, जहां पर सिंचित अवस्था में सरसों (Mustard) की फसल पलेवा दे कर बोआई की जाती है, वहां पर पहली सिंचाई फसल की बोआई के 40-45 दिन पर व दूसरी सिंचाई 75-80 दिन पर करें.

सरसों (Mustard)

सरसों की उन्नत किस्में

हाल के दशकों में सरसों (Mustard) की कई ऐसी उन्नत किस्में विकसित किए जाने में सफलता मिली है, जिस का उत्पादन पहले से प्रचलित किस्मों से न केवल ज्यादा है, बल्कि इन किस्मों में कीट और बीमारियों का प्रकोप भी कम देखा गया है. सरसों (Mustard) की नवीन विकसित किस्मों में तेल का परता भी प्रचलित किस्मों से अधिक है.

सरसों (Mustard) की बोआई सितंबर से दिसंबर महीने तक की जाती है. लेकिन सरसों (Mustard) की बोआई का सब से मुफीद समय सितंबर के अंतिम सप्ताह से ले कर अक्तूबर के दूसरे सप्ताह का ही होता है. फिर भी किसान अगेती और पछेती किस्मों का चयन कर इस की बोआई दिसंबर महीने तक कर सकते हैं. किसान नीचे दी गई कम अवधि वाली किस्मों का चयन कर सकते हैं :

पूसा अग्रणी : सरसों (Mustard) की कम अवधि में पकने वाली पहली प्रजाति है पूसा अग्रणी, जो 110 दिन की अवधि के अंदर पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत पैदावार 13.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

पूसा तारक एवं पूसा महक : पूसा तारक और पूसा महक लगभग 110-115 दिन के अंदर पक कर तैयार हो जाती हैं. इस की औसत पैदावार 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के बीच में रहती है.

पूसा सरसों 25 : यह किस्म 100 दिन में ही पक जाती है. इस की औसत पैदावार 14.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के बीच रहती है.

पूसा सरसों 27 : इस किस्म के पकने में 110-115 दिन का समय लगता है. इस की औसत पैदावार तकरीबन 15.5 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर के बीच रहती है.

पूसा सरसों 28 : इन सभी प्रजातियों में जो नवीनतम प्रजाति है, वह है पूसा सरसों-28. यह प्रजाति 105-110 दिन के अंदर पक जाती है. इस की औसत पैदावार 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

इन सभी प्रजातियों को हम 15 सितंबर के आसपास बो सकते हैं. ये किस्में लगभग जनवरी के पहले सप्ताह में पक जाती हैं. सरसों (Mustard) की अगेती किस्मों में माहू या चैंपा कीट का प्रकोप नहीं होता है. साथ ही, इन किस्मों में बीमारियों का प्रकोप भी कम देखा गया है. इस के अलावा मध्यम अवधि वाली किस्मों का विवरण नीचे दिया जा रहा है :

राज विजय सरसों : सरसों (Mustard) की यह किस्म मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के इलाकों में बड़े पैमाने पर उगाई जाती है. ये किस्म बोआई के 120 से 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. सरसों (Mustard) की इस किस्म में तेल की मात्रा 37 से 40 फीसदी के पास होती है. सरसों (Mustard) की इस किस्म को उत्पादन और अच्छी क्वालिटी के तेल प्रोडक्शन के लिए अहम माना जाता है. इस किस्म की औसत पैदावार 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है.

पूसा मस्टर्ड 21 : यह किस्म पंजाब, दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में ज्यादा उगाई जाती है. सरसों (Mustard) की यह किस्म 137 से 152 दिनों में पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती है. इस किस्म का 18 से 21 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन होता है. इस में तेल की मात्रा लगभग 37 से 40 फीसदी तक पाई जाती है.

पूसा मस्टर्ड-32 : सरसों (Mustard) की इस नई  किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान यानी आईएआरआई, पूसा ने विकसित किया है. यह सरसों (Mustard) की पहली एकल शून्य किस्म है. इस किस्म की खास बात यह है कि इस में सफेद रतुआ रोग लगने की संभावना बहुत कम है, क्योंकि यह किस्म सफेद रतुआ रोग के प्रति सहनशील है. यह किस्म अच्छी पैदावार देने में समक्ष है.

यह किस्म किसानों को सामान्य सरसों (Mustard) की तुलना में अधिक लाभ देगी. इस किस्म में तकरीबन 17 से 18 सरसों (Mustard) के दाने पाए जाते हैं. इस में तेल की मात्रा भी बेहतर है. यह किस्म प्रति हेक्टेयर 25 क्विंटल तक पैदावार दे सकती है.

इस किस्म में इरुसिक एसिड की मात्रा बहुत कम है, जिस से हृदय रोग का खतरा कम रहेगा. इस किस्म को बोने से पूसा सावनी की तुलना में 10 क्विंटल तक अधिक उत्पादन मिलेगा. यही नहीं, इस के बीज से निकलने वाले तेल में    झाग कम बनता है, जिस से बेहतर क्वालिटी का तेल प्राप्त होगा.

इस के अलावा पूसा मस्टर्ड-32 किस्म में ग्लूकोसिनोलेट की मात्रा 30 माइक्रोमोल से भी कम है, जबकि सामान्य सरसों (Mustard) में इस की मात्रा 120 माइक्रोमोल होती है. इस वजह से इस नई किस्म का उपयोग पशु चारे के लिए भी किया जा सकता है. सरसों (Mustard) की यह किस्म 100 दिन में तैयार हो जाती है.

पूसा बोल्ड किस्म : सरसों (Mustard) की पूसा बोल्ड किस्म की फलियां मोटी एवं इस के 1,000 दानों का वजन तकरीबन 6 ग्राम होता है. इस किस्म से 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार प्राप्त होती है. इस में तेल की मात्रा सब से अधिक 42 फीसदी तक होती है. यह किस्म राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, महाराष्ट्र क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है. यह किस्म 130 से 140 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा जय किसान (बायो-902) : सरसों (Mustard) की यह किस्म सिंचित क्षेत्रों में ज्यादा उगाई जाती है. यह किस्म विल्ट, तुलासिता और सफेद रोली रोग को सहने में सक्षम है. इस में इन रोगों का प्रकोप कम होता है.

सरसों (Mustard) की पूसा जय किसान (बायो-902) किस्म से 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार मिल सकती है. इस में तेल की मात्रा तकरीबन 38 से 40 फीसदी तक पाई जाती है. यह किस्म 130 से 135 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा विजय : यह प्रजाति सिंचित क्षेत्रों में समय से बोआई के लिए सर्वोत्तम है. इस की औसत पैदावार 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह उच्च तापमान, लवण्यता व गिरने के प्रति सहनशील है. इस के पौधों की ऊंचाई 170-180 सैंटीमीटर तक होती है. यह मोटे दाने वाली (6 ग्राम प्रति 1,000 दाने) प्रजाति है, जिन में तेल की औसत मात्रा 38.5 फीसदी है. यह किस्म बोआई के 140 दिन बाद पक कर तैयार हो जाती है. यह सफेद रतुआ, चूर्ण फफूंदी, मृदुरोमिल आसिता और स्क्लेरोटीनिया सड़न के प्रति सहिष्णु है.

पूसा सरसों-1-22 (एलईटी- 17) : यह प्रजाति साल 2008 में गुजरात व पश्चिमी महाराष्ट्र के सिंचित क्षेत्रों के लिए समय पर बोआई के लिए अनुमोदित की गई थी. यह कम इरुसिक एसिड (2 फीसदी से कम) वाली प्रजाति है. इस की पैदावार 20.7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 142 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस के 1,000 दानों का वजन 3.6 ग्राम होता है और इस की पैदावार क्षमता 27.50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा सरसों-24 (एलईटी-18) : यह प्रजाति साल 2008 में राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, जम्मूकश्मीर व हिमाचल प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सिंचित क्षेत्रों लिए जारी की गई थी. यह समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है और 20.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती है. यह बोआई के 140 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. इस के 1,000 दानों का वजन 4 ग्राम होता है. यह कम इरुसिक एसिड (2 फीसदी से कम) की प्रजाति है.

पूसा सरसों-26 (एनपीजे-113) :  बारीक दाने वाली यह अगेती प्रजाति है. इस के पौधों की ऊंचाई 110-125 सैंटीमीटर होती है. यह किस्म 126 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत पैदावार 17.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस प्रजाति को दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के सिंचित क्षेत्रों में मध्य सितंबर में बोआई कर के दिसंबर माह के अंत तक काट कर गेहूं, प्याज, मक्का आदि की फसल लेने के लिए अधिक उपयुक्त है.

पूसा सरसों-29 (एलईटी-36) : यह किस्म साल 2013 में पंजाब व हिमाचल प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों के लिए अनुमोदित की गई है. यह कम इरुसिक एसिड (2 फीसदी से कम) वाली प्रजाति है. यह सिंचित क्षेत्रों में 21.69 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती है. इस में तेल की मात्रा 37.2 फीसदी और बोआई के 143 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. यह अंकुरण एवं पकने के समय अधिक तापमान के प्रति सहनशील है.

पूसा सरसों-30 (एलईएस-43) : यह प्रजाति साल 2013 में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों और पूर्वी राजस्थान में समय से सिंचित क्षेत्रों में बोआई के लिए जारी की गई. इस के 1,000 दानों का वजन 5.38 ग्राम है और इस में इरुसिक एसिड (2 फीसदी से कम) होता है. इस में 37.7 फीसदी तेल होता है और यह बोआई के 137 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत पैदावार 18.24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा करिश्मा (एलईएस-39) : साल 2005 में अनुमोदित कम इरुसिक एसिड वाली प्रथम प्रजाति है. यह सिंचित क्षेत्रों में और समय पर बोने के लिए उपयुक्त है. यह 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार देती है. यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के लिए उपयुक्त है.

पूसा आदित्य एनपीसी-9 : इस की औसत पैदावार 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति बारानी अवस्थाओं में एवं कम उपजाऊ भूमि में अच्छी पैदावार देती है और डाउनी मिल्ड्यू व सफेद रतुआ रोग के प्रतिरोधी है. यह    झुलसा तना गलन, पाउडरी मिल्ड्यू के प्रति भी सहिष्णु और चैंपा के प्रति सहनशील है.

इस प्रजाति के दाने बहुत छोटे (4 ग्राम प्रति 1,000) आकार के हैं. इस में तेल की मात्रा 40 फीसदी होती है. इस प्रजाति के पौधों की औसत ऊंचाई 200-230 सैंटीमीटर होती है. यह विपरीत परिस्थितियों में अच्छी उपज देने वाली करण राई की महत्त्वपूर्ण प्रजाति है.

पूसा स्वर्णिम (आईजीसी-01) : यह प्रजाति राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और उत्तराखंड के लिए सिंचित और बारानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है. यह सिंचित अवस्था में 167 क्विंटल और बारानी क्षेत्रों में 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती है.

इस में तेल की मात्रा 40.43 फीसदी तक होती है. इस किस्म में उच्च दर्जे की सूखा सहिष्णुता है और सफेद रतुआ के प्रति उच्च प्रतिरोधकता है. यह लंबी अवधि की प्रजाति है.

पीआर-15 (क्रांति) : असिंचित क्षेत्रों में बोआई के लिए उपयुक्त इस किस्म के पौधे 155-200 सैंटीमीटर ऊंचे, पत्तियां रोएंदार, तना चिकना और फूल हलके पीले रंग के होते हैं. इस का दाना मोटा, कत्थई एवं इस में तेल की मात्रा 40 फीसदी होती है. यह किस्म 125 से 130 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. वरुणा की अपेक्षा अल्टरनेरिया रोग और पाले के प्रति अधिक सहनशील है. तुलासिता व सफेद रोली रोधक है.

आरआरएन 573 : समय से बोआई के लिए यह उपयुक्त किस्म है. पौधा 168 से ले कर 176 सैंटीमीटर तक ऊंचा व इस की पत्तियां चौड़ी, फलियों की नोक एक तरफ मुड़ी हुई होती है. फसल के पकने की अवधि 136 से 138 दिन है. इस के 1,000 दानों का औसत वजन 44 ग्राम है और तेल की मात्रा 41.4 फीसदी है. यह किस्म रोग व कीटों के प्रति मध्यम सहिष्णु है. इस की औसत उपज 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

सरसों (Mustard) के खास कीटों की रोकथाम

माहूं या चेंपा कीट : यह सरसों का खास कीट है. इस कीट के लगने से फसल उत्पादन में सब से ज्यादा नुकसान होता है. ये कीट झुंड में रहते हैं व तेज रफ्तार से बढ़ते हैं. इन के झुंड पत्तियों, फूलों व फलियों पर चिपके हुए पाए जाते हैं. ये धीरेधीरे पूरे पौधे को ढक लेते हैं. कीट लगी पत्तियां मुड़ी हुई दिखाई देती हैं. फलियों में दाने कमजोर पड़ कर सिकुड़ जाते हैं. ज्यादा कीट होने पर पौधों की बढ़वार रुक जाती है, फूल नहीं बनते और यदि बनते भी हैं तो फलियां नहीं बनती हैं या बिना दाने वाली फलियां बनती हैं.

रोकथाम : फसल की 15 अक्तूबर तक बोआई करें व ज्यादा मात्रा में उर्वरकों को न डालें. इस से कीटों का असर कम होता है. खेत में पीले ट्रैप लगाएं. माहूं के परभक्षी कीट कोक्सीनेला, इंद्रगोप क्राइसोपरला सिरफिड मक्खी वगैरह को फसल में बाहर से ला कर छोड़ें. जरूरत पड़ने पर डाइमैथोएट 30 पायस सांद्रण ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 0.5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर की दर से 600-800 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

लीफ माइनर मटर का पर्णखनक : इस कीट का आक्रमण बोआई से फसल के आखिर तक होता है. इस कीट की सूंडि़यां पत्तियों के अंदर सुरंग बनाती हुई अंदर से ऊतकों को खा कर पूरी पत्ती में सफेद गैलरी सी बना देती हैं.

रोकथाम : लीफ माइनर लगी पत्तियों को तोड़ कर जला दें. डाइमैथोएट 30 पायस सांद्रण ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर दवा को 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600-800 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

आरा मक्खी : इस मक्खी की सूंड़ी ही फसल को नुकसान पहुंचाती है. मादा पत्तियों के किनारे की कोशिकाओं में अंडे देती है. अंडों से 5-7 दिनों में मटमैली लटें निकलती हैं. लटें पत्तियों को तेजी से खाती हैं, जिस से पत्तियों में तमाम छेद हो जाते हैं.

तेजी से फैलने से पत्तियों के स्थान पर शिराओं का जाल ही बचा रह जाता है. सरसों की फसल जमते ही इन का हमला शुरू हो जाता है. इसलिए फसल की शुरुआत में इस से भारी नुकसान होता है.

रोकथाम : कटाई के बाद गहरी जुताई करें, जिस से प्यूपा जमीन के ऊपर आ जाते हैं और जो धूप से मर जाते हैं और चिडि़यों द्वारा खा लिए जाते हैं. कीट ज्यादा लगने की दशा में मेलाथियान 50 ईसी 500 मिलीलीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए. जरूरत पड़ने पर दोबारा छिड़काव करना चाहिए.

पेंटेंड बग या चितकबरा कीट : इस के प्रौढ़ व शिशु दोनों ही समूह में इकट्ठा हो कर पौधों से रस चूसते हैं, जिस से पौधे छोटी अवस्था में कमजोर व पीले पड़ कर सूख जाते हैं.

अंकुरण के 1 हफ्ते के अंदर अगर इन का आक्रमण होता है, तो पूरी फसल चौपट हो जाती है. दोबारा यह कीट फरवरी के आखिर में या मार्च के पहले हफ्ते में दिखाई देता है और पकती फसल की फलियों से रस चूसता है.

रोकथाम : गरमियों में खेत की गहरी जुताई करें. इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस, रसायन की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से नुकसान काफी कम होता है. इस कीट की रोकथाम के लिए 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 1.5 फीसदी क्यूनालफास चूर्ण का बुरकाव करें.

बिहार की रोएंदार सूंड़ी : इस कीट की सूंडि़यां ही फसल को नुकसान पहुंचाती हैं. छोटी सूंडि़यां समूह में रह कर नुकसान पहुंचाती हैं. इस कीट की सूंडि़यां झुंड में इकट्ठा हो कर पत्तियों के हरे हिस्से को खाती हैं. पत्तियां कागज जैसी व पारदर्शी हो जाती हैं. यह कीट फसल की शुरू की दशा यानी सितंबरनवंबर में ज्यादा आक्रमण करता है.

रोकथाम : सूंडि़यों को खत्म करने के लिए 1.5 फीसदी क्यूनालफास चूर्ण का खेत के चारों तरफ घेरा सा बना देना चाहिए ताकि दूसरे खेतों में सूंडि़यां न जा पाएं. ज्यादा हमला होने पर फसल पर मेलाथियान 50 ईसी की 1.0 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में डाल कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़कें.

बिहार को तिलहन (Oilseeds) के क्षेत्र में बनेगा आत्मनिर्भर

सबौर : निदेशक अनुसंधान, बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर के तत्वावधान में कुलपति सभागार, बिहार कृषि विश्वविद्यालय में कुलपति डा. डीआर सिंह की अध्यक्षता में तिलहन फसल को केंद्र में रख कर गहन विचार मंथन किया गया. इस बैठक में डा. आरके माथुर, निदेशक, भारतीय तिलहन शोध संस्थान, हैदराबाद मुख्य अतिथ के रूप में मौजूद थे.

इस विचार मंथन संगोष्ठी में बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर के निदेशक अनुसंधान डा. एके सिंह, उपनिदेशक अनुसंधान डा. शैलबाला डे, अध्यक्ष, पौधा प्रजनन एवं आनुवंशिकी विभाग डा. पीके सिंह एवं तिलहन अनुसंधान से जुड़े बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर के प्रमुख वैज्ञानिकों, जिस में डा. रामबालक प्रसाद निराला, डा. चंदन किशोर, मनोज कुमार, डा. खुशबू चंद्रा, डा. लोकेश्वर रेड्डी प्रत्यक्ष रूप से बैठक में तिलहनी फसलों से संबंधित अनुसंधान कार्यक्रमों में प्रस्तुत किया गया.

बैठक की शुरुआत निदेशक अनुसंधान डा. डीआर सिंह ने संक्षिप्त रूप से बिहार में तिलहन के सभी 9 फसलों जैसे राईसरसों, सोयाबिन, मूंगफली, तिल, तीसी, सूरजमुखी, कुसुम, अरंडी एवं रामतिल (नाइजर) के बिहार में वर्तमान स्थिति एवं भविष्य में इस की संभावनाओं पर प्रकाश डाला. तदोपरांत डा. रामबालक प्रसाद निराला ने समग्र एवं विस्तृत रूप से बिहार में हो रहे सभी तिलहन फसलों की एक रूपरेखा प्रस्तुत की.

विदित हो कि डा. रामबालक प्रसाद निराला तीसी के प्रमुख वैज्ञानिक हैं एवं तिलहन फसलों के अनुसंधान समन्वयक भी हैं.

उन्होंने अपने प्रस्तुति के दरम्यान तिलहन फसल के कृषि हेतु उन की शक्ति, कमजोरी, उपयोगिता एवं समस्या पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला. इसी क्रम में डा. चंदन किशोर, डा. अमरेंद्र ने भी राईसरसों से जुड़े अपने अनुसंधान कार्यक्रमों की प्रस्तुति की. वहीं मूंगफली एवं सोयाबीन से संबंधित कार्यक्रमों को डा. मनोज कुमार, तिल से संबंधित कार्यक्रमों को डा. खुशबू चंद्रा एवं अरंडी से संबंधी कार्यक्रमों को डा. लोकेश्वर रेड्डी ने प्रस्तुत किया.

कुलपति के निर्देश पर विश्वविद्यालय के तिलहन से जुड़े सभी केंद्रों के अनुसंधान वैज्ञानिक भी आभासी रूप से जुड़े हुए थे एवं भारतीय तिलहन शोध संस्थान, हैदराबाद के प्रमुख वैज्ञानिक डा. एएल रत्नाकुमार, डा. जी. सुरेश, डा. मणिमुर्गन एवं डा. लावण्या, डा. दिनेश कुमार, डा. विश्वकर्मा, डा. पुष्पा, डा. जीडी सतीष एवं डा. रमन्ना भी आभाषी रूप से इस बैठक में जुड़े रहे और अंत में उन्होंने अपनी विशिष्ट सलाह बैठक में दी.

डा. आरके माथुर ने अपने विशिष्ट सलाह में विश्वविद्यालय को भारतीय तिलहन शोध संस्थान, हैदराबाद को संयुक्त रूप से अनुसंधान कार्यक्रम चलाने की सलाह दी. साथ ही, बीज प्रतिस्थापन दर को बढ़ाने एवं सभी तिलहन फसलों के उत्पादन क्षेत्रों को बढ़ाने पर जोर दिया.

इसी बीच उन्होंने तिल अनुसंधान के लिए बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर को मुख्य केंद्र के रूप में अंगीकार एवं सूरजमुखी के अनुसंधान के लिए बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर को सहायक केंद्र के रूप में अंगीकार करने का आश्वासन दिया.

किसानों की मांग को देखते हुए डा. फिजा अहमद, निदेशक बीज एवं प्रक्षेत्र, बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर द्वारा तिल के सफेद बीज वाले प्रभेद को विकसित करने पर जोर दिया गया.

बैठक का समापन कुलपति डा. डीआर सिंह के समीक्षात्मक टिप्पणी के साथ संपन्न हुआ. कुलपति डा. डीआर सिंह, बिहार सरकार के चतुर्थ कृषि रोड मैप को ध्यान में रखते हुए तिलहन फसल के उत्पादन के महत्व को बताया.

उन्होंने वैज्ञानिकों को निर्देश दिया कि जिलेवार तिलहन फसल की खेती की योजना बनाई जाए और प्रत्येक कृषि विज्ञान केंद्र को तेल कर्षण इकाई को लगाने के लिए कहा. इसी कड़ी में विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा की जा रही अनुसंधान कार्यों की राष्ट्रीय स्तर प्रदान करने के लिए भारतीय तिलहन शोध संस्थान, हैदराबाद के साथ एमओयू पर काम करने को कहा गया.

सरसों (Mustard) की खेती से भरपूर लाभ

सरसों व तोरिया भारत में खास तेल वाली फसलें हैं.  ये मूंगफली के बाद रकबे व पैदावार के हिसाब से दूसरे नंबर पर हैं. भारत में सरसों का कुल रकबा 2013-14 में 6.70 मिलियन हेक्टेयर था, जिस से करीब 7.96 मिलियन टन उत्पादन हुआ और इस की उत्पादकता 1188 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है.  सरसों के तेल का इस्तेमाल आमतौर पर खाने में किया जाता है और इस की खली दुधारू पशुओं को खिलाई जाती है.

तमाम इलाकों में सरसों का तेल, कड़वा तेल कहलाता है. पीला और झन्नाटेदार कड़वा तेल खाने का जायका ही बदल देता है. इस तेल का इस्तेमाल सब्जी बनाने में तो किया ही जाता है, मगर अचारों में भी इस की काफी ज्यादा खपत होती है. सरसों के तेल की जबरदस्त मांग की वजह से सरसों की खेती की अहमियत बहुत ज्यादा है. इस की खेती किसानों के लिए भरपूर कमाई का जरीया है.

उद्योगों में भी तेल के कच्चे माल से साबुन, ग्रीस आयल, वार्निश वगैरह बनाई जाती है. सरसों के दानों से तेल निकालने के बाद जो खली बचती है, वह जानवरों के लिए प्रोटीन (40-45 फीसदी) का सब से बड़ा साधन है. सरसों की पैदावार और बढ़ाई जा सकती है. कुछ खास इलाकों में सरसों की उपज कम रहने के कुछ खास कारण हैं, जैसे सरसों की फसल में अच्छी किस्मों की बोआई न करना, सरसों की फसल को खराब मिट्टी या हलके खेतों में उगाना, कम उर्वरकों के साथसाथ जहां सिंचाई के साधन नहीं हैं उस मिट्टी में सरसों की खेती को किया जाना. किसानों का खास रुझान केवल गेहूं, धान व नकदी फसलों तक ही है.

सरसों की फसल में कीटपतंगों व बीमारियों की रोकथाम करना इस की कम पैदावार का खास कारण है. इसलिए ज्यादा पैदावार लेने के लिए कुछ अच्छे तरीके अपनाए जाएं तो ही ढेर सारी उपज ली जा सकती है.

खेत की तैयारी : सरसों का दाना बारीक होता है, इसलिए खेत को अच्छी तरह भुरभुरा बना लेना चाहिए व बोआई के समय भरपूर नमी अच्छे जमाव के लिए जरूरी है. खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें व 2-3 जुताइयां देशी हल से करें. ट्रैक्टर चालित रोटावेटर से 1 ही बार में अच्छी तैयारी हो जाती है. खेत में तैयारी के दौरान टाईकोडर्मा 2 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से गोबर की सड़ी खाद में मिला कर डालने के बाद जुताई करने से जमीन से लगने वाले रोगों पर काबू पाया जा सकता है.

बीज की मात्रा व बीजोपचार : सरसों की फसल के लिए 4-6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर व सहफसल बोने पर 2-3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज काफी होता है. फसल को जड़सड़न व स्कलेरोटिनिया से बचाने के लिए बीजों को 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या मैंकोजेब 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए. सफेद रोली व फफूंद से बचाने के लिए बीजों को बावस्टीन 3 ग्राम प्रति किलोग्राम व एग्रोन 6 ग्राम प्रति प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए. पेंटेड बग की रोकथाम के लिए एमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस की 4 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर बीजों को बोने  पहले उपचारित कर लें.

बोआई का समय और तरीका : सरसों बोने का सही समय बरानी इलाकों में सितंबर के दूसरे हफ्ते से अक्तूबर के पहले पखवाड़े तक व सिंचित इलाकों में 15-20 अक्तूबर तक होता है. असिंचित इलाकों में नमी के हिसाब से बोआई करनी चाहिए. बोआई देशी हल के पीछे उथले (4-5 सेंटीमीटर गहरे) कूंडों में 30-45 सेंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए. बोआई के बाद बीजों को ढकने के लिए हलका पाटा लगा देना चाहिए. देर से बोआई करने पर माहूं का आक्रमण व अन्य कीड़ों और बीमारियों की संभावना ज्यादा रहती है.

खाद व उर्वरक की मात्रा : सिंचाई वाले रकबों में नाइट्रोजन 120, फास्फोरस 60 व पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालने से अच्छी उपज मिलेगी. फास्फोरस का सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में इस्तेमाल बेहतर होता है, क्योंकि इस से सल्फर भी मिल जाता है. यदि डीएपी को डाला जाता है, तो इस के साथ बोआई के समय 200 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से डालना फसल के लिए फायदेमंद होता है.

अच्छी उपज हासिल करने के लिए 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद डालनी चाहिए. सिंचाई वाले रकबों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय कूंड़ों में बीज के 2-3 सेंटीमीटर नीचे नाई या चोगे से देनी चाहिए. नाइट्रोजन की बची मात्रा पहली सिंचाई (बोआई के 25-30 दिनों बाद) के बाद जमने पर डाली जाने पर उपज में फायदा होगा.

सिंचाई : सरसों में नमी की कमी फूल आने के समय और दाना भरने की दशाओं में ज्यादा होती है. इसलिए अच्छी उपज लेने के लिए सिंचाई जरूर करें. यदि उर्वरक भारी मात्रा में (120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फेट और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर) मिलाया गया हो और मिट्टी हलकी हो तो ज्यादा उपज लेने के लिए पहली सिंचाई बोआई के 30-35 दिनों बाद व फूल आने से पहले और दूसरी सिंचाई बारिश न होने पर 55-65 दिनों बाद फलियां बनने के समय करें.

निराईगुड़ाई व खरपतवारों की रोकथाम : बोआई के 15-20 दिनों के अंदर घने पौधों को निकाल कर उन के बीच की दूरी 15 सेंटीमीटर कर देना जरूरी है. खरपतवार खत्म करने के लिए पहली निराईगुड़ाई सिंचाई से पहले और दूसरी पहली सिंचाई के बाद करनी चाहिए.

सरसों (Mustard) के प्रमुख खरपतवारों का प्रबंधन

रबी तिलहन फसलों में सरसों का प्रमुख स्थान है. यह ब्रौसीकेसी कुल का पौधा है. इसे 4 समूहों में बांटा जाता है: चारा, वनस्पतियां, शाकभाजी और तिलहन.

सरसों की खेती व यूरोप के ऐसे शीतोष्ण व गरम शीतोष्ण इलाकों में की जाती है जहां ग्रीष्म और शीतकाल दोनों ही तरह की किस्में उगाई जाती हैं.

आमतौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के उपोष्ण कटिबंधीय इलाकों में इस की कारोबारी लैवल पर खेती की जाती है. इस समय दुनियाभर में तकरीबन 30 से ज्यादा देशों में इस की खेती की जाती है.

भारत में इसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा वगैरह राज्यों में उगाया जाता है. वैसे, केरल को छोड़ सभी राज्यों में सरसों की खेती की जाती है. सरसों के साथ तमाम तरह के खरपतवार उग आते हैं जो सरसों के उत्पादन और गुणवत्ता पर बुरा असर डालते हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, सरसों की फसल में खरपतवारों के उगने के चलते 20-70 फीसदी तक उपज में कमी आ जाती है. खरपतवार न केवल फसल को उपलब्ध होने वाले पोषक तत्त्वों को चट कर जाते हैं, बल्कि हमारी जमीन से पानी को भी सोख लेते हैं. इस वजह से फसल की बढ़वार और उत्पादन पर काफी बुरा असर डालते हैं.

खास खरपतवार

सरसों के साथ 2 तरह के खरपतवार उगते हैं. घास जाति के खरपतवार, जैसे जंगली जई, कनूकी, दूब वगैरह. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार, जैसे प्याजी, सेंजी, बथुआ, खातुआ, जंगली पालक, जंगली धनिया, चटरीमटरी, हिरणखुरी, कृष्णनील, कंडाई, सत्यानाशी वगैरह.

सरसों (Mustard)

खरपतवारों का एकीकृत प्रबंधन

सरसों में खरपतवार प्रबंधन बहुत ही कारगर साबित हुए हैं. सरसों के साथ उगे खरपतवारों के प्रबंधन के लिए अनेक विधियों का इस्तेमाल किया जाता है.

निवारण : इस विधि में वे सभी काम शामिल हैं जिन को समय पर अपनाने से खेत में खरपतवारों को पनपने से रोका जा सकता है. इन का इस्तेमाल कर के किसान अपनी फसल को खरपतवाररहित उगा सकते हैं.

इन कामों को अपनाने में मेहनत व पैसे की जरूरत नहीं होती है. वे प्रमुख काम हैं, जैसे प्रमाणित व खरपतवाररहित बीजों का इस्तेमाल, सड़ीगली गोबर की खाद या कंपोस्ट का इस्तेमाल, बोआई के समय इस्तेमाल किए जाने वाले खेती के औजारों के इस्तेमाल से पहले अच्छी तरह से साफसफाई, सिंचाई के जरीए नालियों में उगे खरपतवारों का नियंत्रण वगैरह.

यांत्रिक विधि : निराईगुड़ाई कर के खरपतवारों के नियंत्रण करने का सदियों पुराना तरीका है, जो आज भी कारगर है. खरपतवारों को सुगमता से नष्ट किया जा सकता है. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को कल्टीवेटर चला कर खत्म किया जा सकता है.

निराईगुड़ाई से न केवल खरपतवारों को नियंत्रित किया जाता है, बल्कि पौधों की जड़ों को हवापानी भी मिलता है. साथ ही, मिट्टी में नमी बनी रहती है जिस से ज्यादा उत्पादन मिलता है.

आमतौर पर सरसों में 2 बार निराईगुड़ाई सही होती है जो बोआई के 2 और 5 हफ्ते बाद करनी चाहिए लेकिन निराईगुड़ाई हर जगह संभव नहीं है. मिश्रित खेती में तो यह बिलकुल भी संभव नहीं है.

दूसरी ओर मजदूरों के न मिलने और ज्यादा मजदूरी भी इस काम में रुकावट माने जाते हैं. फसल के अंदर एक से ज्यादा बार उगने व अलगअलग खरपतवारों के चलते कई बार निराईगुड़ाई करनी पड़ती है. इस वजह से फसल उत्पादन की लागत में बढ़ोतरी हो जाती है. ऐसी अवस्था में खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल कर सुगमता से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

रासायनिक प्रबंधन : परीक्षणों से पता चला है कि घास प्रजाति वाले खरपतवारों को आईसोप्रोटुरौन, प्यूपा पावर या टोपिक खरपतवारनाशक का 30-35 दिन बाद छिड़काव कर नियंत्रित किया जा सकता है.

फसल बोआई के तुरंत बाद पेंडीमिथेलिन 30 ईसी की 1.25 से 1.50 लिटर मात्रा को इस्तेमाल करना चाहिए. इस का छिड़काव करने के समय खेत में सही नमी का होना बेहद जरूरी है.

ज्यादातर तिलहनी फसलें बारिश पर निर्भर होती हैं. ऐसी स्थिति में खेत की ऊपरी सतह सूखी रहती है इसलिए जमीन पर डाले जाने वाले खरपतवारनाशकों की सिफारिश नहीं की जाती है क्योंकि सूखी जमीन में ये खरपतवारनाशक प्रभावशाली नहीं पाए जाते हैं.

ऐसी अवस्था में पेंडीमिथेलिन 30 ईसी की 1.25 से 1.50 लिटर मात्रा को बोआई से 7-10 दिन पहले डाल कर मिट्टी में मिलाने से बहुत से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं.

जहां तक संभव हो, निराईगुड़ाई का तरीका ही अपनाएं. इन तरीकों को अपनाने से बीज की क्वालिटी बरकरार रहती है. साथ ही, फसल की पैदावार भी बढ़ जाती है.

मरगोजा परजीवी खरपतवार : लोकल भाषा में मरगोजा को रूखड़ी, खुंबी, गुल्ली वगैरह नामों से भी जाना जाता है. यह खरपतवार सरसों की खेती के लिए काफी नुकसानदायक है. इस खरपतवार की समस्या उन इलाकों में ज्यादा है, जहां पर सरसों की खेती हलकी रेतीली बालू जमीन में की जाती है.

मरगोजा खरपतवार एकवार्षिक पौधा है, जिस का फैलाव बीज द्वारा होता है. इस के बीज बहुत ही सूक्ष्म, अंडाकार, गहरे भूरेकाले रंग के होते हैं. इसे नंगी आंखों से देख पाना काफी मुश्किल है. इस की बीज उत्पादन और अंकुरण कूवत ज्यादा होती है.

इस बात का अनुमान इस से भी लगाया जा सकता है कि इस का एक पौधा 1-2 लाख बीज बनाने की कूवत रखता है. आमतौर पर जमीन में इस का बीज 10-15 साल तक पड़े रहने के बावजूद फिर से उग सकता है.

आमतौर पर यह देखा गया है कि खरपतवार जनवरी माह के आखिर तक जमीन के अंदर रह कर ही सरसों की फसल को नुकसान पहुंचाता है और फरवरी महीने में सही तापमान मिलने पर 7-10 दिन बाद फूल निकल आते हैं. फूल आने के 7-8 दिन बाद बीजों का बनना शुरू हो जाता है.

सरसों के पकने से पहले ही इस के बीज पक कर खेत में बिखर जाते हैं. कभीकभी सरसों की अगेती बोई गई फसल में 40-60 दिन बाद भी इस के पौधे दिखाई देते हैं.

दूसरे गैरपरजीवी खरपतवारों की अपेक्षा मरगोजा खरपतवार पर नियंत्रण पाने में काफी मुश्किल होती है इसलिए हमें ऐसे खरपतवारनाशक बिखेरने की जरूरत है जो सरसों की फसल को नुकसान पहुंचाए बिना इस से जुड़े परजीवी खरपतवारों को नियंत्रित कर सकें.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक इस से होने वाले नुकसान और रोकथाम के लिए पिछले 14 सालों से अनुसंधान का काम कर रहे हैं.

परीक्षणों के आधार पर यह पता चला है कि जिस खरपतवारनाशी से मरगोजा का नियंत्रण किया जा सकता है, यदि उस खरपतवारनाशी का सही समय और सही मात्रा में उपयोग न किया जाए तो इस से सरसों की फसल को काफी नुकसान होने की संभावना बनी रहती है.

कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध से यह नतीजा निकलता है कि ग्लाईफोसेट नामक खरपतवारनाशक की 25 मिलीलिटर मात्रा प्रति एकड़ बोआई के 30 दिन बाद व 50 मिलीलिटर मात्रा प्रति एकड़ बोआई के 55-60 दिन बाद डेढ़ सौ लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से मरगोजा का 60-90 फीसदी तक नियंत्रण होता है.

ध्यान रखें कि छिड़काव के समय या बाद में सही नमी का होना बेहद जरूरी है. इस के लिए छिड़काव से 2-3 दिन पहले या बाद में सिंचाई जरूर करें.

नोट : सुबह के समय जब पत्तों पर ओस या नमी हो, तब छिड़काव करें. दूसरा, छिड़काव करते समय ध्यान रखें कि स्प्रे फूलों पर न गिरे.

मरगोजा से बचाव के लिए सरसों के शुद्ध बीजों का इस्तेमाल करें. हमेशा प्रमाणित बीज ही बोएं. सरसों की फसल को हलकी रेतीली जमीन में न उगाएं, क्योंकि ऐसी जमीन में सरसों उगाने से मरगोजा का प्रकोप ज्यादा होता है.

सरसों (Mustard)

सरसों को सफेद रोली रोग से बचाएं

सरसों या राया में सफेद रोली रोग ‘एल्ब्यूगो’ नामक कवक से होता है. जड़ को छोड़ कर पौधे के सभी हिस्सों पर रोग के लक्षण दिखाई देते हैं. सब से पहले पत्तियों और तनों पर फफोले बनते हैं. ये फफोले उभरे हुए, चमकीले सफेद, गोल होते हैं. बड़े होने पर इन की बाहरी त्वचा फट जाती है, भीतर से कवक के बीजाणुओं का समूह पाउडर के रूप में निकलता है.

तनों और पुष्पक्रमों पर रोग का पूरा असर होता है. उत्तकों के ज्यादा बढ़ने से पुष्प अंग फूल जाते हैं. फलियों की जगह पर गुच्छे नजर आते हैं. सरसों की पैदावार में भारी कमी आती है.

रोकथाम

* फसल में ज्यादा सिंचाई न करें, जरूरत के मुताबिक ही सिंचाई करें.

* बारबार एक ही खेत में सरसों की फसल न उगाएं यानी फसल चक्र अपनाएं.

* साफ बीज का इस्तेमाल करें.

* बोआई से पहले बीजों को एपरौन 35 एसडी 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करें.

* फल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही रिडोमिल एमजेड 0.2 फीसदी या मेंकोजेब 0.2 फीसदी का छिड़काव. 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर करें.

सरसों (Mustard) में रोग प्रबंधन कर मिले ज्यादा पैदावार

सरसों को मुख्य रूप से खाद्य तेल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. सरसों की खेती उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार, ओडिशा वगैरह राज्यों में खासी मात्रा में की जाती है. छत्तीसगढ़ में भी सरसों की खेती की अपार संभावनाएं हैं.

सरसों की खेती मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्र बस्तर और सरगुजा व मैदानी भाग में दुर्ग, राजनांदगांव, बिलासपुर व कवर्धा जिलों में सफलतापूर्वक की जा सकती है. सरसों की खेती में रोग प्रबंधन का सही तरीका अपना कर ज्यादा उत्पादन ले सकते हैं.

सरसों के खास रोग

श्वेत गेरुआ या ह्वाइट रस्ट रोग : यह क्रुसीफेरी का प्रमुख रोग है. इस रोग के कारण सरसों की खेती में पैदावार में कमी आ जाती है.

लक्षण : यह रोग बोआई के 30 से 40 दिनों के बाद सब से पहले पत्तियों पर दिखाई देता है. इस रोग के लक्षण सब से पहले पत्तियों पर हलके हरे से चकत्तों के रूप में शुरू होते हैं और कुछ ही समय में ये चकत्ते दूध के समान सफेद फुंसियों जैसे बन जाते हैं, जिन का आकार 1-2 एमएम होता है जो बाद में आपस में मिल कर बड़े चकत्ते का रूप ले लेते हैं.

फुंसियां पत्तियों की निचली सतह पर बिखरी हुई होती हैं. ऊपरी सतह पर फुंसियों के ठीक विपरीत उसी आकार के पीले धब्बे बनते हैं, जिस के कारण रोग आसानी से पहचाना जा सकता है.

जब रोग का संक्रमण तने के सहारे पूर्ण अवस्था में होता है तब यह दैहिक होता है और इस के कारण तना मोटा और फूल जाता है. संक्रमित फूल गुच्छे के रूप में बदल जाता है. इस रोग के कारण 60 फीसदी तक नुकसान हो जाता है.

रोकथाम : बोआई के लिए स्वस्थ बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए.

सरसों की बोआई समय से पहले करनी चाहिए. 2-3 साल का फसल चक्र अपनाना चाहिए.

बीजों को मैटालैक्सिल एमजैड (रिडोमिल एमजैड 72 डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति किलो बीज) से उपचारित करना चाहिए.

इस रोग की रोकथाम के लिए कौपर औक्सिक्लोराइड 3 ग्राम या रिडोमिल 2 ग्राम प्रति 600-700 लिटर की दर से पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें.

सरसों, तोरिया पौधों का पट्टी धब्बा रोग : सरसों और इस कुल के पौधों पर अंगमारी या झुलसा का प्रकोप बहुत देखा जा रहा है. इस से 25 फीसदी तक उपज में कमी आ जाती है.

लक्षण : इस रोग के लक्षण 20 से 25 दिनों के बाद दिखाई देने लगते हैं. शुरू में पत्तियों पर भूरे रंग के छोटेछोटे धब्बे बनते हैं जो कुछ समय में गोलाकार हो जाते हैं और मौसम के अनुकूल होने पर ये धब्बे अधिक मात्रा में बनते हैं और आपस में मिल जाते हैं. पत्तियां बुरी तरह से झुलसी हुई दिखाई देती हैं. उग्र रूप धारण करने पर वे गिर जाती हैं.

रोकथाम : खड़ी फसल में रोग की रोकथाम के लिए एक छिड़काव घुलनशील गंधक या गंधक चूर्ण का भुरकाव करना चाहिए. जब फसल 50-52 दिनों की हो जाए, डाइथेन एम 45 0.2 फीसदी का छिड़काव भी सही पाया गया है.

पूर्ण झुलसन (अल्टरनेरिया ब्लाइट) रोग : इस रोग के लक्षण पत्तियों, तनों और फलियों पर दिखाई देते हैं. रोग का हमला फसल पर फूल आने की अवस्था में शुरू होता है. इस रोग का अधिकतर प्रकोप पत्तियों पर होता है.

सब से पहले पुरानी पत्तियों पर भूराकाला निशान होता है जो बाद में बड़ा हो कर साफ धब्बा बन जाता है. ये धब्बे पूरी पत्ती में फैल जाते हैं और पूरी पत्ती धब्बों से भरी दिखाई देती है.

ये धब्बे मध्य व ऊपर की पत्तियों पर दिखाई देते हैं. इस रोग के कारण 10-70 फीसदी तक नुकसान होता है.

रोकथाम : इस रोग से बचने के लिए सब से पहले बीजोपचार कर के बीजों की बोआई करना चाहिए. खड़ी फसल में डाइथेन एम 45 (0.3 फीसदी) का 2-3 बार छिड़काव 8-10 दिनों के अंतर पर करना चाहिए.

भभूतिया रोग (पाउडरी मिल्ड्यू) : इस रोग का संक्रमण शुरुआती अवस्था में ही हो जाता है. रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों, तनों और फलियों पर गोलाकार अनियमित छोटेछोटे सफेद चकत्ते पाए जाते हैं जो सही वातावरण मिलने पर आपस में मिल कर पूरी पत्तियों और तनों को ढक लेते हैं, जिस से पौधे की बढ़वार व उपज कम हो जाती है.

रोकथाम : इस रोग की रोकथाम के लिए केरथेन/केलीक्सीन (1 मिलीलिटर प्रति लिटर) कार्बंडाजिम या सल्फेक्स 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर फसल पर 600-700 लिटर का छिड़काव करें.

मृदुरोमिल रोग (डाउनी मिल्ड्यू) : इस रोग का प्रकोप पत्तियों और बनने वाले फूलों पर ज्यादा पाया जाता है. रोग का हमला ज्यादा होने पर पत्तियां सूख जाती हैं और सरसों के फूल मोटे हो जाते हैं. साथ ही, फूल के सभी भाग हरे और मोटे हो जाते हैं. पुष्पक्रम पर फलियां नहीं लगती हैं.

रोकथाम : इस रोग से बचाव के लिए बीजों को 3 ग्राम थाइरम या कैप्टान या रिडोमिल एसडी नामक फफूंदनाशक दवा 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए.

खड़ी फसल प्रकोप में रिडोमिल एमजैड 72 डब्ल्यूपी दवा का 0.2 ग्राम प्रति लिटर पानी मिला कर 10-15 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करें.

पर्णचित्ती या पर्ण दाग (लीफ स्पौट) : सरसों की फसलों पर आक्रमण करने वाला यह रोग विश्वव्यापी है जिस से उपज में काफी नुकसान होता है. इस रोग का हमला पौधों के तकरीबन सभी भागों पर होता है. सब से पहले बीज पत्तों पर छोटेछोटे हलके भूरे रंग के विक्षत या धब्बे बनते हैं जो जल्द ही बीजाणुओं के समूह बन जाने के कारण काले रंग के हो जाते हैं. निचली पत्तियों पर गहरे हरे या भूरे काले बिखरे हुए छोटे धब्बे बनते हैं जो आकार में बढ़ जाते हैं.

रोकथाम : रोगग्रस्त फसल अवशेषों को जला देना चाहिए. बीजों को थाइरम 3 ग्राम/ कार्बंडाजिम (वाविस्टिन 1 ग्राम) फफूंदनाशक दवाओं से प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोआई करनी चाहिए.

पत्ती छिड़काव के लिए क्लोरोथैलोनिल (कवच) या आइप्रोडीयोन (रोवराल) 2 ग्राम प्रति लिटर पानी, मेंकोजेब 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में किसी एक दवा का इस्तेमाल करना चाहिए.

सरसों (Mustard) उत्पादन में राजस्थान पहले नंबर पर

जयपुर: राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान, दुर्गापुरा में कर्ण नरेंद्र कृषि विश्वविद्यालय द्वारा 5वें ब्रासिका सम्मेलन का सरसों अनुसंधान समिति के सहयोग से आयोजन शुरू हुआ. तीनदिवसीय सम्मेलन का आरंभ कृषि मंत्री डा. किरोड़ी लाल मीणा ने किया.

कृषि मंत्री डा. किरोड़ी लाल मीणा ने कहा कि राजस्थान सरसों उत्पादन में प्रथम स्थान पर है और राजस्थान के पूर्वी जिलों में सर्वाधिक सरसों उत्पादन होता है. उन्होंने बताया कि राजस्थान उच्च गुणवत्ता की सरसों का उत्पादक राज्य है, फिर भी इतनी पैदावार होने के बाद भी सरसों का आयात करना पड़ता है, क्योंकि आईसीएआर के अनुसार, पहले तेल की प्रति व्यक्ति उपभोग दर 8 किलोग्राम थी और वर्तमान में उपभोग दर बढ़ कर 19 किलोग्राम हो गई है, इसलिए प्रति व्यक्ति उपभोग दर बढ़ने से कमी का सामना करना पड़ रहा है.

उन्होंने आगे कहा कि प्रधानमंत्री मोदी देश को आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दे रहे हैं, इसलिए हमें भी आत्मनिर्भर होने के लिए काम करने की जरूरत है. उन्होंने वैज्ञानिकों से विचारविमर्श करते हुए कहा कि हमें सरसों में प्राकृतिक आपदा और चेंपा जैसी समस्याओं के समाधान के लिए तकनीकी ईजाद करनी चाहिए.

विश्वविद्यालय के कुलपति डा. बलराज सिंह ने बताया कि राजस्थान सरसों उत्पादन का मुख्य राज्य है, जिस में पैदावार की अपार संभावनाएं हैं, जिस पर हमें काम करने की जरूरत है, वहीं एफिड की समस्या के अतिरिक्त वातावरण परिवर्तन की अनेक समस्याओं के साथसाथ बीमारियों की समस्याएं भी सरसों की पैदावार घटाने में अहम हैं, जिस पर हमें ध्यान देूने की जरूरत है. राजस्थान के कई जिले अन्य तिलहन फसलों के उत्पादक हैं. सरसों व तारामीरा तेल उत्पादन के साथसाथ शहद उत्पादन में भी मुख्य भूमिका निभाते हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि कृषि अनुसंधान संस्थान, दुर्गापुरा में अखिल भारतीय गेहूं सुधार परियोजना के तहत कई किस्में विकसित की गई हं,ै जिन में राज 3077 सब से पुरानी किस्म है और जौ में माल्टिंग प्रयोग, दोहरे प्रयोग की किस्में और चारे के लिए प्रयोग की किस्में विकसित की गई हैं. साथ ही, खाद्य प्रयोग के लिए प्रयुक्त जौ पर काम किया जा रहा है, जो मधुमेह के मरीजों के लिए लाभदायक होता है.

इस दौरान सारांश पुस्तिका एवं डा. मनोहर राम एवं अन्य वैज्ञानिकों द्वारा लिखी गई सरसों एवं तारामीरा के इतिहास पुस्तिका का विमोचन किया गया. सम्मेलन में देशभर से आए तकरीबन 176 वैज्ञानिकों ने शिरकत की. सम्मेलन के विशिष्ट अतिथि के तौर पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक डा. त्रिलोचन महापात्र भी उपस्थित रहे.