Natural Farming: 1,500 क्लस्टर में लाखों किसानों तक प्राकृतिक खेती

Natural Farming : प्राकृतिक खेती के संदर्भ में केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम कई क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. मुझे यह कहते हुए गर्व है कि एक समय था, जब हम अपनी जनता का पेट भरने के लिए अमेरिका से निम्न स्तर का गेहूं लेने के लिए मजबूर थे, लेकिन आज देश में अन्न के भंडार भरे हुए हैं.

हमारा शरबती गेहूं आज दुनिया में धूम मचा रहा है. हमारे खाद्यान्न का उत्पादन लगातार बढ़ता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन के खतरों के बावजूद बढ़ते हुए तापमान और अनिश्चित मौसम के बावजूद भी हम ने देश के खाद्यान्न को ही नहीं बढ़ाया है, बल्कि अपनी जनता का पेट भी भरा है, साथ ही कई देशों को अन्न का निर्यात भी किया है.

हम गेहूं के साथसाथ दलहन और तिलहन का उत्पादन भी बढ़ा रहे हैं. कृषि के लिए हमारी 6 सूत्रीय रणनीति है, पहला उत्पादन बढ़ाना और उत्पादन बढ़ाने के लिए अच्छे बीज, कृषि पद्धतियां आदि, दूसरा उत्पादन की लागत घटाना, तीसरा फसलों के ठीक दाम, चौथा नुकसान की भरपाई, पांचवां खेती का विविधीकरण और छठा प्राकृतिक खेती.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बताया कि एक करोड़ किसानों को प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है. हमारा लक्ष्य है कि हम लगभग 15 सौ क्लस्टर में साढ़े 7 लाख किसानों तक प्राकृतिक खेती को ले जाना है, ताकि ये किसान अपने खेत के एक हिस्से में प्राकृतिक खेती को शुरू कर सकें. हम सभी को धरती भी कीटनाशकों से बचानी होगी. आज कीटनाशकों के कारण कई पक्षियों का नामोनिशान ही मिट गया है और नदियां भी प्रदूषित हो रही हैं.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आगे कहा कि शहरों के विकास से ही काम नहीं चलेगा, स्वावलंबी व विकसित गांव कैसे बने, सड़कों का नैटवर्क, गांव में बुनियादी सुविधाएं, पक्का मकान, साफ पीने का पानी, पंचायत भवन, सामुदायिक भवन, स्थानीय बाजार और गांव के लिए जरूरी चीजें गांव में ही कैसे उत्पादित कर पाएं, उस पर काम करने का प्रयास किया जाए.

उन्होंने आगे कहा कि यह सब हमें करना पड़ेगा, तभी गांव विकसित होगा. गांव का हर परिवार किसी न किसी रोजगार से जुड़ा हो, उस दृष्टि से भी प्रयास करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि मानवीय गुणों के साथ ही सब का विकास हो. उन्होंने जोर देते हुए कहा कि पर्यावरण की भी चिंता की जाए. प्रकृति का दोहन करें, न कि शोषण करें.

उन्होंने कहा कि आज भारत विकसित देशों की तुलना में केवल 7 फीसदी कार्बन उर्त्सजन करता है. हमें प्रकृति का संरक्षण करते हुए ही विकास करना है. भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की 5वीं सब से बड़ी अर्थव्यवस्था है और तीसरी जल्दी ही बनने वाली है. हम अपना विकास भी करेंगे और दुनिया को भी राह दिखाएंगे.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने संबोधन के अंत में कहा कि जिस दिशा में हम बढ़ रहे हैं, विश्व शांति का कोई दर्शन अगर कराएगा तो वह भारत ही कराएगा. ऐसे भारत के निर्माण में हम सब सहयोगी बनें.

प्राकृतिक खेती और जरूरी संसाधनों को सहजने पर रहेगा केवीके का फोकस

Natural Farming :  अनुसंधान निदेशक महाराणा प्रताप कृषि प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) डा. अरविंद वर्मा ने कहा कि आज भारत खाद्यान्न उत्पादन में 6.5 गुणा वृद्धि के साथ आत्मनिर्भर की श्रेणी में खड़ा है, लेकिन हमें  यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जनसंख्या के मामले में भी हम विश्व में अव्वल हैं. खाद्यान्न के साथसाथ दुधत्पादन , तिलहनदलहन उत्पादन में भी हम ने काफी वृद्धि की है, लेकिन यह काफी नहीं है. अब समय आ गया है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों को सहेजते हुए प्राकृतिक खेती की जड़ों को मजबूत करें.

डा. अरविंद वर्मा पिछले दिनों मंगलवार को एमपीयूएटी में प्रसार शिक्षा निदेशालय सभागार में कृषि विज्ञान केंद्रों की सालाना कार्य योजना 2025-26 की समीक्षा के लिए आयोजित कार्यशाला को बतौर मुख्य अतिथि संबोधित किया. डा. अरविंद वर्मा का कहना था कि प्राकृतिक खेती भारत सरकार की 2,481 करोड़ रुपए की एक महत्त्वपूर्ण परियोजना है. जिसे साल 2025-26 तक एक करोड़ किसानों तक पहुंचाने का लक्ष्य है. मिट्टी को जीवंत बनाए रखने के लिए कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ानी होगी. हमारे देश की भूमि पर आज 52 हजार 500 मैट्रिक टन रसायनों की खपत हो रही है, जो कि काफी चिंता की बात है. आज आलम यह है कि कई जीवजंतु विलुप्त हो चुके हैं, जो प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए बहुत आवश्यक है.

इस कार्यक्रम के अध्यक्ष अटारी जोधपुर के निदेशक डा. जेपी मिश्रा ने कहा कि प्रकृति ने हमें हवा, पानी, मिट्टी, पेड़पौधे, जीवजंतु की अनूठी सौगात दी है. हमारे पास जल काफी सीमित मात्रा में है. धरती माता को दुबारा वास्तविक स्वरूप में लाने के लिए कृषि विज्ञान केंद्रों को यह साल प्राकृतिक खेती को समर्पित करना होगा. साथ ही किसानों को भी प्रेरित करना होगा कि वे प्राकृतिक खेती को अपनाएं. रासायन मुक्त खेती या बहुत ही कम रासायन युक्त खेती ही आगे का लक्ष्य होना चाहिए. केवीके को मौका मिल रहा हैं तो वे लीक से हट कर सर्वोत्तम लक्ष्य का चयन करे और कड़ी मेहनत से काम करें तभी किसानों और इस देश का भला होगा. उन्होंने नेचर पौजिटिव, मार्केट पौजिटिव और जेंडर पौजिटिव एग्रीकल्चर पर जोर दिया.

इस कार्यक्रम के आरंभ में प्रसार शिक्षा निदेशक डा. आरएल सोनी ने अतिथियों का स्वागत करते हुए बताया कि साल 2025-26 केवीके के लिए चुनौतीपूर्ण है, लेकिन वरिष्ठ वैज्ञानिक व प्रभारी हर चुनौती पर खरे उतरेंगे. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद – कृषि तकनीकी अनुप्रयोग अनुसंधान संस्थान जोनद्वितीय जोधपुर (अटारी) एवं महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय उदयपुर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यशाला में संभाग में कार्य कर रहे 9 कृषि विज्ञान केंद्रों के वरिष्ठ वैज्ञानिकों व प्रभारियों ने प्रेजेंटेशन के माध्यम से किसानों के लिए चलाई जा रही गतिविधियों पर प्रकाश डाला. इस के साथ ही, साल 2025-26 में केवीके की क्या तैयारी है और  किसानों के लिए क्या नए कार्यक्रम व अनुसंधान शुरू किए जाएंगे, इस पर पूरा रोडमैप सामने रखा.

इस कार्यशाला में राजूवास बीकानेर में पशुपालन विभाग में प्रो. डा. आरके नागदा ने कहा कि कृषि और पशुपालन विकास की बैलगाड़ी के दो पहिए हैं. कृषि विज्ञान केंद्रों को पशुपालन से जुड़ी योजनाओं को भी बढ़ावा देना होगा तभी कृषि में हम बेहतर परिणाम दे पाएंगे.

Natural Farmingइस कार्यक्रम के तकनीकी सत्र में केवीके बांसवाड़ा के वैज्ञानिक व प्रभारी डा. बीएस भाटी, भीलवाड़ा प्रथम व द्वितीय- डा. सीएम यादव, केवीके चित्तौड़गढ़- डा. आरएल सौलंकी, डूंगरपुर- डा. सीएम बलाई, प्रतापगढ़- डा. योगेश कनोजिया, केवीके राजसमंद- डा. पीसी रेगर, केवीके उदयपुर डा. मणीराम ने साल 2025-26 की सालाना कार्य योजना प्रस्तुत की.

इस के बाद अटारी जोधपुर के निदेशक डा. जेपी मिश्रा ने प्रेजेंटेशन के माध्यम से आगामी साल 2025-26 में विभिन्न क्षेत्रो में अनुसंधान की आवश्यकता के बारे में बताते हुए कहा कि सभी कृषि विज्ञान केंद्रों को एकजुट हो कर कार्य करना होगा.

इस कार्यक्रम में अटारी जोघपुर के डा. पीपी रोहिला, डा. डीएल जांगिड़, डा. एमएस मीणा, डा. एचएच मीणा, प्रो. एसके इंटोदिया, डा. एसएस लखावत और डा. रमेश बाबू ने भी अपने विचार रखे. डा. राजीव बैराठी ने धन्यवाद ज्ञापित किया व कार्यक्रम का संचालन डा. लतिका व्यास ने किया.

प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के लिए प्राकृतिक बीज

Natural Farming: महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय में ‘प्राकृतिक खेती’ (Natural Farming) विषय पर पिछले दिनों एक प्रशिक्षण आयोजित किया गया. इस प्रशिक्षण में भारतीय बीज निगम के चंडीगढ़, अहमदाबाद, जैतसर और सूरतगढ़ के अधिकारियों ने भाग लिया.

प्रशिक्षण के दौरान कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि किसी भी खेती का आधार बीज होता है, ऐसे में प्राकृतिक खेती के लिए प्राकृतिक रूप से तैयार किए गए बीजों की उपलब्धता बहुत जरूरी है. इसीलिए यह विशेष प्रशिक्षण बीज उत्पादन करने वाली संस्थाओं के लिए आयोजित किया गया है.

उन्होंने आगे बताया कि हरित क्रांति से हम ने उत्पादन तो बढ़ाया, पर कैमिकलों के अंधाधुंध उपयोग के चलते प्रकृति एवं इनसानी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव का सामना भी किया है. अब समय है कि हम प्रकृति एवं इनसानी खाने पर कैमिकलों के प्रभाव को जितना हो सके उतना कम या फिर पूरी तरह से खत्म कर सकें.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि प्रकृति के अनुकूल कार्य करना ही हमारी संस्कृति है और  प्रकृति के प्रतिकूल काम करना ही विकृति है. प्राकृतिक खेती में कई नए आयाम को जोड़ कर इसे स्वीकार्य रूप प्रदान कर किसान भाइयों के लिए एक आसान पद्धति तैयार कर सकते हैं.

इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डा. शांति कुमार शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन प्रबंधन, नई दिल्ली ने बताया कि प्राकृतिक खेती के प्रति लोगों के मन में कई भ्रांतियां रहती हैं, जिस का अनुसंधान के आधार पर हल करना बहुत जरूरी है.

Natural Farmingउन्होंने आगे बताया कि प्राकृतिक खेती के विचार का उद्भव बहुत समय पहले ही हो चुका है. अब इस को समाज में प्रभावी रूप से प्रचारित करने एवं अपनाने का वक्त है. यदि अब भी रसायनमुक्त खेती के प्रयास नहीं किए गए, तो यह प्रकृति के लिए बहुत ही नुकसानदायक हो सकता है. साथ ही, डा. शांति कुमार शर्मा ने राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक खेती के लिए किए गए प्रयासों की विस्तृत जानकारी दी.

अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने प्रशिक्षण की जानकारी देते हुए कहा कि उदयपुर केंद्र पर जैविक एवं प्राकृतिक खेती पर किए गए वृहद अनुसंधान कार्य का ही परिणाम है कि उदयपुर केंद्र राष्ट्र में इस प्रकार के प्रशिक्षण के लिए प्रथम स्थान पर चुना गया है.

डा. अरविंद वर्मा ने जानकारी देते हुए बताया कि प्रशिक्षण में प्राकृतिक खेती पर व्याख्यान एवं प्रायोगिक रूप से प्रशिक्षण दिया जाएगा, जिस से प्राकृतिक बीज उत्पादन श्रृंखला को बल मिलेगा.

प्रशिक्षण प्रभारी डा. रविकांत शर्मा ने प्रशिक्षण का प्रारूप रखा और वहां पधारे अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया.

अब टीवी, रेडियो पर प्रसारित होंगे मेवाड़ मौडल आधारित कृषि कार्यक्रम

उदयपुर :  प्रसार भारती कृषि से जुड़े लोगों और खासकर किसानों के लिए ‘मेवाड़ मौडल’ को रेखांकित करते हुए ऐसे कार्यक्रम तैयार कर प्रसारण करेगा, ताकि किसान आत्महत्या के लिए मजबूर न हों. उन का जीवन और आजीविका दोनों सुरक्षित रहें. यही नहीं, झाबुआ (मध्य प्रदेश) में कड़कनाथ और एमपीयूएटी द्वारा विकसित प्रतापधन मुरगीपालन को भी देशभर में परिचित कराने संबंधी कार्यक्रम तैयार किए जाएंगे.

इस के अलावा संरक्षित खेती, जैविक खेती, प्राकृतिक खेती को भी देशभर में प्रचारित किए जाने की जरूरत है. कुलमिला कर प्रसार भारती से सबद्ध आकाशवाणी और दूरदर्शन एक सशक्त विस्तार कार्यकर्ता की भूमिका निभाते हुए देश के किसानों की भलाई के काम करेंगे.

प्रसार शिक्षा निदेशालय में ‘कृषि में संकट और तनाव’ विषयक पांचदिवसीय कार्यशाला में शिरकत करने वाले 12 राज्यों से रेडियो व दूरदर्शन के अधिकारियों ने अपने अनुभव साझा किए और इस नतीजे पर पहुंचे कि कृषि क्षेत्र में हो रहे शोध और शिक्षण पर भरपूर काम हो रहा है, लेकिन विस्तार कार्यकर्ताओं की कमी के कारण तकनीक सही माने में किसानों तक नहीं पहुंच रही है.

कार्यशाला में यह बात भी उभर कर सामने आई कि हर साल सरकार 500 करोड़ रुपए विस्तार पर खर्च कर रही है. 180 करोड़ रुपए कृषि दर्शन और कृषि वाणी पर, जब कि करोड़ों रुपए कृषि संबंधी लघु कार्यक्रमों व मास मीडिया पर खर्च कर रही है, लेकिन फील्ड में किसानों तक सीधी पहुंच रखने वाले विस्तार कार्यकर्ताओं की बेहद कमी है.

ऐसे में प्रसार भारती की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. कार्यशाला में इस बात पर भी सर्वसम्मति बनी कि राजस्थान खासकर मेवाड़ संभाग में जलवायु परिवर्तन या बाजार में उतारचढ़ाव के बावजूद यहां का किसान आत्महत्या नहीं करता, क्योंकि वह खेती के साथसाथ पशुपालन और एकाधिक फसलों की खेती करता है.

रेडियो व टैलीविजन के लिए ‘कृषि में संकट और तनाव’ विषयक कार्यक्रमों की अवधारणा और डिजाइन तैयार करने और प्रसारण के लिए पांचदिवसीय कार्यशाला पिछले दिनों 3 मार्च को संपन्न हो गई. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली (आईसीएआर) के अधीन कृषि तकनीकी अनुप्रयोग अनुसंधान संस्थान (अटारी) जोन द्वितीय, जोधपुर और राष्ट्रीय प्रसारण एवं मल्टीमीडिया प्रसार भारती, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस कार्यशाला की मेजबानी प्रसार शिक्षा निदेशालय, एमपीयूएटी ने की.

कार्यशाला के समापन समारोह के मुख्य अतिथि एमपीयूएटी के पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा ने कहा कि कृषि में संकट और तनाव को राजस्थान खासकर मेवाड़ और मारवाड़ का किसान बखूबी जानता है. मारवाड़ में कम वर्षा होने के बावजूद यहां का किसान हार नहीं मानता. यही नहीं, सीमावर्ती जिलों के युवा सेना में बड़ी संख्या में भरती होते हैं. ऐसे युवा देश के लिए जान तक न्योछावर कर देता है, लेकिन यहां का किसान ऐसे संकट और तनाव को भी सहन कर जाता है.

जलवायु परिवर्तन की बात करें, तो बांसवाड़ा में माही डेम बनने के बाद पाला कम पड़ने लगा है. ऐसे में बांसवाड़ा में किसान रबी में मक्का की फसल भी लेने लगे, जो एक हेक्टेयर में 80 क्विंटल तक उत्पादन देती है. इस के अलावा प्रतापधन मुरगीपालन भी किसानों को खूब संबल देती है. महज 2 महीने में ही इस में 6 किलोग्राम मांस हो जाता है. इस का अंडा भी 25 रुपए प्रति नग बिकता है.

प्रसार भारती की अतिरिक्त महानिदेशक अनुराधा अग्रवाल ने कहा कि आकाशवाणी व दूरदर्शन केंद्र रेतीली फसल एपीसोड तैयार करेंगे. कार्यशाला में कृषि उत्पादों में क्याकुछ नया हो रहा है, किसान को इस के बारे में विस्तार से सीखने को मिला. देश के दूसरे राज्यों में भी इस तरह के कार्यक्रमों के प्रसारण से किसानों के मार्गदर्शन का काम प्रसार भारती करेगा.

अटारी, जोधपुर के निदेशक डा. जेपी मिश्रा ने कहा कि संकट को संकट ही बना रहने देंगे, तो समाधान संभव नहीं है. बदलाव एकाएक किसी को रास नहीं आता है, लेकिन बदलाव जरूरी है, तभी संकट का समाधान हो पाएगा.

Natural farming : प्रकृति के साथ तालमेल ही प्राकृतिक खेती

उदयपुर : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के तत्वावधान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित जैविक खेती (Natural farming) पर अग्रिम संकाय प्रशिक्षण केंद्र के अंतर्गत 21 दिवसीय राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘‘प्रकृति के साथ सामंजस्यः प्राकृतिक खेती में अनुसंधान और नवाचार’’ पर अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर में पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा की अध्यक्षता में 19 फरवरी, 2025 को शुभारंभ हुआ.

इस अवसर पर पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा ने कहा कि प्राकृतिक खेती ही पर्यावरण के लिए अनुकूल है. प्राकृतिक खेती (Natural farming) द्वारा पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के साथसाथ मृदा स्वास्थ्य यानी मिट्टी की सेहत में भी बढ़ोतरी होगी. प्राकृतिक खेती (Natural farming) में प्रयोग कर रहे घटकों से मिट्टी में लाभदायक जीवाणुओं की बढ़ोतरी होगी, जिस से फसलों के उत्पादन में स्थायित्व आएगा.

Natural farmingडा. उमाशंकर शर्मा ने सभी प्रतिभागियों को 21 दिवसीय प्रशिक्षण के दौरान सभी वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि अपनेअपने क्षेत्र में जा कर ब्रांड अंबेसडर की भूमिका निभाएं. इस प्रशिक्षण में 5 राज्यों के 26 वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया. डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने बताया कि प्राकृतिक कृषि (Natural farming) एक तकनीक ही नहीं, अपितु पारिस्थितिकी दृष्टिकोण है, जिस के द्वारा प्रकृति के साथ तालमेल बिठाया जाता है.

डा. उमाशंकर शर्मा ने 5 राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे प्राकृतिक कृषि पर प्रशिक्षण ले रहे वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए कहा कि ज्ञान की सघनता एवं प्रशिक्षणों से दक्षता में वृद्धि द्वारा इस कृषि को बढ़ावा दिया जा सकता है. साथ ही, उन्होंने प्राकृतिक खेती (Natural farming) के घटक जीवामृत, बीजामृत, धनजीवामृत, आच्छादन एवं वाष्प के साथ जैविक कीटनाशियों पर जोर  दिया.

इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि डा. एसके शर्मा ने कहा कि प्राकृतिक खेती (Natural farming) के महत्व को देखते हुए स्नातक छात्रों के लिए विशेष पाठ्यक्रम पूरे देश में शुरू किया जा रहा है. इस के लिए सभी विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों, शिक्षकों, विषय विशेषज्ञों एवं विद्यार्थियों के लिए प्रशिक्षण आयोजित किए जा रहे हैं.

उन्होंने आगे बताया कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय का प्राकृतिक खेती में वृहद अनुसंधान कार्य एवं अनुभव होने के कारण यह विशेष दायित्व विश्वविद्यालय को दिया गया है. प्राकृतिक खेती (Natural farming) के विषय में पूरे विश्व की दृष्टि भारत की ओर है. ऐसे में पूरे विश्व भर से वैज्ञानिक एवं शिक्षक प्रशिक्षण लेने के लिए भारत आ रहे हैं. ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम उत्कृष्ट श्रेणी के प्रशिक्षण आयोजित करें.

Natural farming

डा. अरविंद वर्मा, निदेशक अनुसंधान एवं कोर्स डायरेक्टर ने अतिथियों का स्वागत किया एवं प्रशिक्षणार्थियों को दिए गए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के बारे में विस्तृत रूप से बताया. डा. अरविंद वर्मा ने बताया कि पूरे प्रशिक्षण में 49 सैद्धांतिक व्याख्यान, 9 प्रयोग प्रशिक्षण एवं 4 प्रशिक्षण भ्रमणों द्वारा प्रतिभागियों को प्रशिक्षित किया गया.

उन्होंने प्राकृतिक खेती पर सुदृढ़ साहित्य विकसित करने की आवश्यकता बताई. साथ ही, इस ट्रेनिंग के रिकौर्ड वीडियो यूट्यूब व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से प्रसारित करने की आवश्यकता पर भी बल दिया, जिस से कि वैज्ञानिक समुदाय एवं जनसामान्य में प्राकृतिक खेती के प्रति जागरूकता बढ़े एवं इस की जानकारी सुलभ हो सके.

कार्यक्रम में डा. आरएल सोनी, निदेशक, प्रसार शिक्षा निदेशालय, डा. सुनील जोशी, निदेशक, डीपीएम एवं अधिष्ठाता सीटीएआई, डा. मनोज महला, छात्र कल्याण अधिकारी, डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, उदयपुर, डा. रविकांत शर्मा, सहनिदेशक अनुसंधान एवं डा. एससी मीणा, आहरण वितरण अधिकारी एवं राजस्थान कृषि महाविद्यालय के सभी विभागाध्यक्ष और  तमाम वैज्ञानिक आदि उपस्थित थे. कार्यक्रम का संचालन डा. लतिका शर्मा, आचार्य ने किया.

जैविक खेती (Organic Farming) को बढ़ावा, मिलती है माली मदद

सरकार सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों (पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़ कर) में परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) के माध्यम से जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है. पूर्वोत्तर राज्यों के लिए सरकार पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए मिशन और्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट (एमओवीसीडीएनईआर) योजना लागू कर रही है. दोनों योजनाएं जैविक खेती में लगे किसानों को उत्पादन से ले कर प्रसंस्करण यानी प्रोसैसिंग, प्रमाणीकरण और विपणन और कटाई के बाद प्रबंधन प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण तक एंड-टू-एंड समर्थन पर जोर देती है.

पीकेवीवाई के अंतर्गत जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए 3 साल की अवधि के लिए प्रति हेक्टेयर 31,500 रुपए की सहायता प्रदान की जाती है. इस में से जैविक खेती अपनाने वाले किसानों को औन-फार्म/औफ-फार्म जैविक इनपुट के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के माध्यम से 3 साल की अवधि के लिए 15,000 रुपए प्रति हेक्टेयर की सहायता प्रदान की जाती है.

जैविक उत्पादों की गुणवत्ता नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए 2 प्रकार की जैविक प्रमाणन प्रणालियां विकसित की गई हैं, जो नीचे दी गई हैं:

  • निर्यात बाजार के विकास के लिए वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम (एनपीओपी) योजना के अंतर्गत मान्यताप्राप्त प्रमाणन एजेंसी द्वारा तृतीय पक्ष प्रमाणन. एनपीओपी प्रमाणन योजना के अंतर्गत जैविक उत्पादों के लिए उत्पादन, प्रसंस्करण, व्यापार और निर्यात आवश्यकताओं जैसे सभी चरणों में उत्पादन और संचालन गतिविधियों को कवर किया जाता है.
  • कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत भागीदारी गारंटी प्रणाली (पीजीएस-इंडिया) जिस में हितधारक (किसान/उत्पादक सहित) एकदूसरे के उत्पादन प्रथाओं का आकलन, निरीक्षण और सत्यापन कर के और सामूहिक रूप से उत्पाद को जैविक घोषित कर के पीजीएस-इंडिया प्रमाणन के संचालन के बारे में निर्णय लेने में शामिल होते हैं. पीजीएस-इंडिया प्रमाणन घरेलू बाजार की मांग को पूरा करने के लिए है.

पीकेवीवाई के अंतर्गत एनपीओपी प्रमाणीकरण और पीजीएस-इंडिया प्रमाणीकरण के अंतर्गत कवर किया गया कुल बढ़ता हुआ राज्यवार जैविक क्षेत्र 59.74 लाख हेक्टेयर है, जो अनुलंग्नक-I में दिया गया है.

पीकेवीवाई के अंतर्गत मूल्य संवर्धन, विपणन और प्रचार की सुविधा के लिए 3 वर्षों के लिए 4,500 रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से सहायता प्रदान की जाती है. किसानों के लिए पीकेवीवाई के अंतर्गत 3 वर्षों के लिए 3,000 रुपए प्रति हेक्टेयर और 7,500 रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से प्रमाणन और प्रशिक्षण व हैंडहोल्डिंग और क्षमता निर्माण के लिए सहायता प्रदान की जाती है, जबकि एमओवीसीडीएनईआर योजना के अंतर्गत प्रशिक्षण, क्षमता निर्माण और प्रमाणीकरण के लिए 3 वर्षों के लिए 10,000 रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से सहायता प्रदान की जाती है.

बाजार की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए राज्य अपने क्षेत्र या अन्य राज्यों के प्रमुख बाजारों में सेमिनार, सम्मेलन, कार्यशालाएं, क्रेताविक्रेता बैठकें, प्रदर्शनियां, व्यापार मेले और जैविक उत्सव आयोजित करते हैं. सरकार ने किसानों द्वारा उपभोक्ताओं को जैविक उत्पादों की सीधी बिक्री के लिए औनलाइन मार्केटिंग प्लेटफार्म के रूप में वैब पोर्टल- www.Jaivikkheti.in/ विकसित किया है, ताकि उन्हें बेहतर मूल्य प्राप्ति में मदद मिल सके. जैविक खेती पोर्टल के अंतर्गत कुल 6.22 लाख किसान पंजीकृत हैं.

औषधीय व खुशबूदार पौधों की जैविक खेती

शुरू से ही इनसान दूसरे जीवों की तरह पौधों का इस्तेमाल खाने व औषधि के रूप में करता चला आ रहा है. आज भी ज्यादातर औषधियां जंगलों से उन के प्राकृतिक उत्पादन क्षेत्र से ही लाई जा रही हैं. इस की एक मुख्य वजह तो उन का आसानी से मिलना है. वहीं दूसरी वजह यह है कि जंगल के प्राकृतिक वातावरण में उगने की वजह से इन पौधों की क्वालिटी अच्छी और गुणवत्ता वाली होती है.

वर्तमान में एलोपैथी की रासायनिक दवाओं के कई बुरे प्रभावों के चलते पौधों से उत्पादित आयुर्वेदिक हर्बल दवाओं का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है. इस वजह से इन का जंगलों से दोहन अधिक बढ़ रहा है और मांग को पूरा करने के लिए कई औषधीय एवं सुगंधीय पौधों की खेती की जा रही है.

चूंकि औषधियां रोगों को ठीक करने और सुगंधीय फसलों में से सुगंधित पदार्थ निकालने में काम आती हैं, इसलिए उत्पादन अधिक करने के बजाय अच्छी क्वालिटी के लिए उत्पादन बाजार की मांग के मुताबिक करना जरूरी है. अच्छी क्वालिटी हासिल करने के लिए जैविक या प्राकृतिक तरीके से उत्पादन ही एकमात्र तरीका है, क्योंकि :

* प्राकृतिक या जैविक तरीके से उत्पादन करने पर औषधीय पौधों में घुलनशील तत्त्व व खुशबूदार पौधों में तेल की मात्रा बढ़ जाती है, जबकि रसायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी आदि के प्रयोग से उन की क्वालिटी लगातार घटती जाती है.

* रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से औषधि विष बन जाती है अर्थात कीटनाशकों के अवशेष रोगी के रोग ठीक करने के बजाय रोग को और अधिक बढ़ा सकते हैं. इसलिए सिर्फ प्राकृतिक तरीकों से रोग, कीट नियंत्रण ही औषधीय पौधों की खेती में न केवल बाजार के लिए जरूरी है, बल्कि यह एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है.

* इस के अलावा कई अन्य प्रकार की हानियां हैं, जो रासायनिक खेती से जुड़ी हैं. ये सभी इन फसलों की खेती में भी होती हैं. जैसे लागत का बढ़ना, भूमि की कूवत का कम होना, कीटनाशकों में प्रतिरोधकता पैदा होना और गांवखेत में प्रदूषण का लैवल बढ़ना आदि. इसलिए सही यही है कि औषधीय और खुशबूदार पौधों की जैविक खेती की जाए.

जरूरी भी और मजबूरी भी

पर्यावरण व भूमि को बचाने के लिए और लोगों के स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती बहुत जरूरी है. कर्ज के बोझ को कम करने एवं कम होते भूजल से ही खेती करने के लिए जैविक खेती मजबूरी है.

भविष्य में पैट्रोलियम पदार्थों के लगातार बढ़ते दाम और घटती मांग से उवर्रक एवं कीटनाशकों की उपलब्धता (पैट्रोलियम से ही बनते हैं) अपनेआप खतरे में पड़ जाएगी, तब जैविक खेती ही संभव होगी, इसलिए वर्तमान या भविष्य की जरूरत को समझ कर जैविक खेती करना ही एकमात्र विकल्प है.

जैविक खेती के लिए सुझाव

औषधीय और खुशबूदार पौधों की खेती हमेशा जंगल जैसा वातावरण बना कर ही की जाए अर्थात खेत में कुछ पेड़, कुछ झाडि़यां, कुछ लताएं और कुछ शाकीय फसलें हों. इस में मिट्टी की उर्वरता, सूरज की रोशनी, मिट्टी में नमी से जो संतुलन होगा, उस से इन की क्वालिटी बढ़ेगी. दूसरे कई फसलों के होने से बाजार में मांगपूर्ति में संतुलन हो सकेगा, जिस से किसानों को नुकसान होने की संभावना कम होगी.

वर्मी कंपोस्ट या केंचुआ खाद का प्रयोग 10-12 टन प्रति हेक्टेयर हर साल अवश्य किया जाना चाहिए, जिस में अधिकांश मात्रा निराईगुड़ाई के समय दी जानी चाहिए. इस से न केवल अच्छा उत्पादन प्राप्त होगा, बल्कि क्वालिटी भी अच्छी होगी, किंतु वर्मी कंपोस्ट खुद के खेत अथवा ग्राम स्तर पर बना कर नमीयुक्त अवस्था में छायादार जगह पर भंडारण कर 15-20 दिन में उपयोग कर लेना चाहिए, क्योंकि प्लास्टिक के बोरों में पैक सूखा या 15 दिन से ज्यादा पुराने वर्मी कंपोस्ट के गुण बहुत कम हो जाते हैं.

रोग एवं कीट पर नियंत्रण पाने के लिए नीम+ गोमूत्र का छिड़काव 15-20 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए. भूमि के रोग एवं कीटों को खत्म करने के लिए नीम की खल या पिसी हुई निंबोली 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में 2 साल में एक बार अवश्य मिलानी चाहिए.

अग्निहोत्र, अमृतपानी, पंचगव्य आदि का प्रयोग मिट्टी में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ाने व जलवायुजनित कीट व रोग से बचाव करने के लिए किया जा सकता है.

कुछ औषधीय फसलों की खेती सामान्य फसल चक्र या अन्य के रूप में भी की जा सकती है. जैसे धान के साथ बच की खेती से धान के कई कीटों से छुटकारा मिलता है, इसी प्रकार सब्जियों की खेती के अंतराशस्य के रूप में खुशबूदार घासों/मसालों की खेती से कई रोग व कीट कम हो जाते हैं.

औषधीय पौधों में क्वालिटी सब से प्रमुख है, इसलिए सही समय पर कटाई, तुड़ाई और छाया में सुखा कर भंडारण/विक्रय करना चाहिए.

थोड़ा बीज या पौध को बाजार से ला कर उस का खुद के खेत में जैविक तरीके से उत्पादन करना चाहिए. इस से प्राप्त बीज को ही पूरे खेत में लगाने के लिए उपयोग करना चाहिए.

बीज से बाजार तक की सारी जानकारी होने पर ही औषधीय पौधे की खेती बड़े स्तर पर करनी चाहिए.

अन्न वाली फसलों की मांग हमेशा रहेगी और औषधीय एवं खुशबूदार फसलों की मांग व बाजार भाव तेजी से ऊपरनीचे होते रहते हैं, इसीलिए किसान अन्न वाली फसलों को पूरी तरह न हटाएं, बल्कि औषधीय एवं खुशबूदार फसलों को फसल चक्र अंतराशस्य के रूप में स्थान दें. इस से बाजार के अनुसार तालमेल बनाने में आसानी रहेगी.

Organic farming

प्रकृति का एक मुफ्त उपहार

जैविक खेती के लिए उपयोग की जाने वाली खाद खेती के अवशेष और पशु अपशिष्ट से बनती है, जिस में लागत के नाम पर सिर्फ मेहनत ही होती है. इन के उपयोग से भूमि उपजाऊ और पानी की बचत भी होती है. इसी प्रकार जैविक कीट नियंत्रण नीम व गोमूत्र के माध्यम से बनाए जाते हैं, जिन का कोई नुकसान नहीं होता.

जैविक उत्पाद स्वादिष्ठ, अच्छी गंध व रूप वाले और अधिक समय तक भंडारण करने के योग्य होते हैं और इन का बाजार मूल्य भी अधिक मिलता है.

इस प्रकार जैविक खेती प्रकृति का एक मुफ्त उपहार है, जिस के लिए केवल मेहनत और प्रकृति से तालमेल की आवश्यकता होती है.

एक बीघा जमीन सिर्फ एक गाय और एक नीम

एक हेक्टेयर (100 मीटर × 100 मीटर) भूमि में लगभग 6 बीघा होते हैं. अकसर किसान बीघा नाप को ही आधार मान कर खेती की सभी गणनाएं (नापतौल) आदि का काम करते हैं, इसलिए एक बीघा में जितनी खाद एवं जैविक कीट नियंत्रक की आवश्यकता होती है, उसी के हिसाब से गणना की जाए तो समझने में आसानी रहेगी.

एक गाय : सालभर में एक गाय लगभग 3-3.5 टन गोबर देती है. यदि सिर्फ गोबर से ही खाद बने तो लगभग 2 टन खाद तो बनेगी, जो कि एक  बीघा जमीन में यदि 3 फसल या सब्जियों की फसल भी लगाई जाए तो भी पर्याप्त रहेगी.

इसी प्रकार एक गाय लगभग 1,000 लिटर मूत्र पैदा करती है, जिस में से आधा खाद या सिंचाई के साथ मिला देने के बाद भी 500 लिटर गोमूत्र व नीम की पत्ती से इतना कीट नियंत्रक बन सकता है कि एक बीघा जमीन में साल में हर 15 दिन बाद लगभग 20 छिड़काव किए जा सकते हैं.

एक नीम : नीम की पत्तियां तो गोमूत्र आधारित कीटनाशक व भूमि में हरी खाद के रूप में काम आ ही जाती हैं. साथ ही, एक नीम से हर साल कम से कम 50-60 किलोग्राम निंबोली मिलती है, जिस का लगभग 10-15 लिटर नीम तेल निकालने के बाद 40 किलोग्राम खल को जमीन में मिलाने से पोषक तत्त्व तो मिलते ही हैं, साथ ही जमीन से पैदा होने वाली फसलों के कीड़े व रोग भी कम हो जाते हैं.

इसलिए जैविक खेती को आसान बनाने के लिए प्रति बीघा जमीन के हिसाब से एक गाय पालें और एक नीम का पेड़ लगाएं, तो बाहर से शायद कुछ भी लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. साथ ही, नीम की छाया और गाय का शुद्ध दूध मिलेगा.

पेड़ों का सहारा जरूरी

* औषधीय पौधों की खेती के लिए जंगल जैसा वातावरण बनाने के लिए खेत में पेड़ों की उचित संख्या का उचित प्रणाली में होना बहुत जरूरी हो जाता है. यह पेड़ औषधीय उपयोग के भी हो सकते हैं.

* पेड़ों को फसलों के साथ लगाने का तरीका नया नहीं है. यह शस्य वानिकी या एग्रो फोरैस्ट्री के नाम से जाना जाता है.

* खेत को जंगल बनाने का अर्थ एक उचित संख्या में पेड़ लगाने से है, जो कि एक हेक्टेयर में 10 से 20 तक संख्या हो सकती है. अधिक पेड़ लगाने पर वह फसल के साथ धूप, पानी और पोषक तत्त्व के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जिस से फसल की बढ़वार पर उलटा असर पड़ सकता है.

जैविक खेती के लिए औषधीय पेड़ों को लगाना ज्यादा सही रहता है. थोड़े से प्रयास से किसान स्वयं की पौधशाला में पौधे तैयार कर सकते हैं. खेत के पास पौधशाला में तैयार किए गए पौधे अधिक स्वस्थ, विकसित जड़ वाले और अच्छे से पनपते हैं.

पेड़/पौधों की प्रजाति ऐसी होनी चाहिए, जिस से साल में थोड़ीथोड़ी पत्तियां झड़ती रहें, जो जमीन पर गिर कर मल्च का काम करें (भूमि को ढक कर रखें) और बाद में खाद के रूप में पोषण भी दें.

कभी भी सफेदा (यूकेलिप्टिस) जैसे पेड़ को खेत में न लगाएं, क्योंकि इन की पत्तियां न तो सड़ती हैं, बल्कि भूमि के दूसरे कामों में बाधा पैदा करती हैं.

बड़े पौधों को खेत की बाड़ पर वायु अवरोधक के रूप में और छोटे पौधों या फलदार पौधों जैसे आंवला, बेल, किन्नू व बेर आदि को फसल की कतारों के बीच कम से कम 8 से 10 मीटर के गैप पर लगाना चाहिए, ताकि फसलों से प्रतिस्पर्धा न हो.

कुछ कांटेदार झाडि़यों जैसे कांटा-करंज (औषधीय पौधा) आदि को खेत की सुरक्षा के लिए बाढ़ के रूप में भी लगाया जा सकता है.

खेत की मेंड़ या गौशाला या चौपाल में कम से कम 2 से 3 पेड़ नीम, बकायन, करंज और सहजन आदि के जरूर लगाएं, जो कि औषधीय पौधे होने के साथसाथ रोग के नियंत्रण में भी सहायक होते हैं.

पेड़ों की नियमित रूप से काटछांट करते रहना चाहिए, ताकि वह सीधे तने वाले बने रहें और खेती के काम में बाधक न बनें.

सुबह की धूप सभी पौधों के लिए अच्छी होती है, इसलिए पेड़ों को हमेशा ऐसी दिशा में लगाना चाहिए, ताकि फसल को सुबह सूरज की रोशनी जरूर मिलती रहे.

सुरक्षा के लिहाज से चारों उन की छाया के बराबर थाला बना देना चाहिए, जिस से नियमित रूप से खादपानी देते रहना चाहिए. इस से फसल और पेड़ों में किसी भी प्रकार की होड़ नहीं होगी और दोनों का विकास अच्छा होगा. थालों में घासफूस की मल्च बिछाने से पानी का नुकसान कम होता है.

दीमक से बचाव : दीमक से बचाव के लिए पौधे लगाने से पहले गड्ढा भरते समय सड़ी गोबर की खाद में आंक, नीम के पत्तों व निंबोली का चूरा मिला कर गड्ढे को भरना चाहिए और हर साल खाद के साथ नीम एवं आंक के पत्ते भी मिलाने चाहिए.

स्वामी विवेकानंद जयंती पर किसानों के लिए नई सौगात

उदयपुर : 12 जनवरी, 2025. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, छात्र कल्याण निदेशालय द्वारा प्रशासनिक भवन पर स्वामी विवेकानंद की जयंती मनाई गई.

इस अवसर पर अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत चल रही राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत चल रही रही जैविक आदान उत्पादन एवं जैविक खेती तकनीकियों का विकास परियोजना द्वारा तैयार मोबाइल एप जैसे शीर्षक और्गेनिक फार्मिंग (Organic Farming)- जैविक खेती का विमोचन कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के डा. शांति कुमार शर्मा, सहायक महानिदेशक, (मानव संसाधान प्रबंधन), नई दिल्ली के सानिध्य में किया.

उन्होंने कहा कि ये मोबाइल एप किसानों के साथसाथ वैज्ञानिक, विद्यार्थियों और कृषि विभाग के अधिकारियों के लिए बहुपयोगी सिद्ध होगा. यह मोबाइल एप  और्गेनिक फार्मिंग (Organic Farming)- जैविक खेती  किसानों को आत्मनिर्भर बनाने और सतत कृषि विकास की दिशा में एक मजबूत कदम है, जो डिजिटल युग में कृषि क्षेत्र को उन्नति की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होगा.

कुलपति ने मोबाइल एप को तैयार करने के लिए प्रणेता डा. शांति कुमार शर्मा और परियोजना प्रभारी डा. रविकांत शर्मा और सहप्रभारी डा. अमित त्रिवेदी, डा. एसएस लखावत, डा. हरि सिंह, डा. देवेंद्र जैन, डा. श्रवण और डा. रवींद्र कुमार जैन के अथक प्रयासों की सराहना की.

डा. शांति कुमार शर्मा ने एप के बारे में बताते हुए कहा कि इस एप में विश्वविद्यालय में विगत 6 वर्षों से संचालित परियोजना में विकसित विभिन्न जैविक आदानों, उन्नत तकनीकियों और प्रभावी मौड्यूल्स को शामिल किया गया है, जिस से घरबैठे किसानों को समस्त बहुपयोगी जैविक खेती से संबंधित जानकारी उन के मोबाइल फोन पर उपलब्ध हो जाएगी, जिस से भारत में जैविक खेती के विस्तार को प्रभावी गति मिल पाएगी.

अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने कहा कि यह एप किसानों को जैविक खेती में उपयोग होने वाले सभी जैविक आदानों जैसे जैव उर्वरक, जैव कीटनाशक और जैव उत्पादों के बनाने की विधियों का सचित्र विवरण मुहैया करता है. इस से किसान खुद ही यह उत्पाद तैयार कर सकते हैं और अपनी खेती की लागत को कम कर सकते हैं.

वकालत का पेशा छोड़ जैविक खेती से तरक्की करता किसान

हाल के सालों में किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग कर धरती का खूब दोहन किया है. जमीन से अत्यधिक उत्पादन लेने की होड़ के चलते खेतों की उत्पादन कूवत लगातार घट रही है, क्योंकि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मिट्टी में कार्बांश की मात्र बेहद कम हो गई है, वहीं सेहत के नजरिए से भी रासायनिक उर्वरकों से पैदा किए जाने वाले अनाज और फलसब्जियां नुकसानदेह साबित हो रहे हैं.

कई देशों में कीटनाशकों से होने वाले नुकसान को देखते हुए उस पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई है, क्योंकि फसलों में प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशकों के चलते कैंसर और कई तरह की जानलेवा बीमारियां भी सामने आई हैं. ऐसे में जरूरत है कि जमीन की उत्पादकता को बचाए रखने और सेहत को ध्यान में रख कर खेतों में जैव उर्वरकों का प्रयोग किया जाए.

इसी चीज को ध्यान में रख कर उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के रहने वाले 65 साल के किसान राममूर्ति मिश्र ने 30 साल पहले हाईकोर्ट की वकालत का पेशा छोड़ कर अपने पुरखों की जमीन पर जैविक खेती का फैसला किया. वे बस्ती जनपद के एकमात्र किसान हैं, जो फसल में अलगअलग सूक्ष्म पोषक तत्त्वों को ध्यान में रख कर खाद और उर्वरक बनाते हैं.

बस्ती शहर से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गौरा गांव के रहने वाले राममूर्ति मिश्र ने एलएलबी तक की पढ़ाई की है, लेकिन उन्होंने नौकरी न कर खेती में ही किस्मत आजमाने की ठानी.

इस के लिए सब से पहले उन्होंने मार्केट को सम?ा तो पाया कि हर व्यक्ति रासायनिक उत्पादों से पैदा किए अनाज और सब्जियां नहीं खाना चाहता है, लेकिन जैविक उत्पादों की अनुपलब्धता लोगों की मजबूरी बन चुकी है.

ऐसे में उन्होंने जैविक खेती से जुड़ी कई जगहों पर जा कर जानकरी प्राप्त की, कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भी शामिल हुए. ऐसे किसानों के यहां भी गए, जो जैविक खेती के जरीए लाभ प्राप्त कर रहे थे.

जब राममूर्ति मिश्र को लग गया कि जैविक खेती को अगर पूरी तैयारी के साथ किया जाए, तो घाटे की संभावना कम होगी.

उन्होंने 30 साल पहले जैविक खेती की शुरुआत कर दी थी. उन्होंने जैविक खेती एक बार शुरू की, तो इस से मिले लाभ ने इन का हौसला दोगुना कर दिया.

घर पर ही तैयार करते हैं खाद और उर्वरक

किसान राममूर्ति मिश्र जगहजगह जा कर सीखे गए जैव उर्वरकों और जैव कीटनाशकों को घर पर ही तैयार करते हैं. वे अलगअलग तरीकों से जैविक खाद तैयार करते हैं.

उन के द्वारा जो जैव उर्वरक तैयार किए गए हैं, उस से उन्हें तमाम तरह के सूक्ष्म पोषक तत्त्व प्राप्त होते हैं, जिस में राख से फास्फोरस, सेंधा नमक से जिंक, मैग्नीज व लोहा गंधक से सल्फर, नीला थोथा से कौपर, सुहागा से बोरोन, सीप और अंडा से कैल्शियम, त्रिफला से लोहा एवं मैग्नीशियम, त्रिकूट से सल्फर और धान की भूसी से सिलिकौन मिलता है.

पहले से तैयार किए गए इन सभी जैव उर्वरकों को वे अलगअलग बोरियों में एकसाथ 20 किलोग्राम की बराबर मात्रा में मिला कर रखते हैं. इस 20 किलोग्राम की मात्रा को प्रति एकड़ की दर से खेत में प्रयोग किया जाता है. इस का प्रयोग जुताई व बोआई से पहले किया जाता है. साथ ही, खड़ी फसल में घोल बना कर स्प्रे करते हैं. इस के लिए 200 लिटर पानी में पहले से एकसाथ मिला कर रखे गए सभी तरह के 4 किलोग्राम जैव उर्वरक को प्रति एकड़ की दर से छिड़का जाता है.

इन जैव उर्वरकों को बनाने के लिए सभी के लिए अलगअलग एक फुट की चौड़ाई, लंबाई और गहराई में गड्ढे खोद लेते हैं. एकदूसरे से गड्ढे की दूरी 6 इंच रखी जाती है. जैव उर्वरक बनाने के लिए पहले से ही सेंधा नमक, नीला थोथा, चूना, सुहागा, नारियल का छिलका, गंधक, रौक फास्फेट और पत्थर के चूर्ण की खरीदारी कर लेनी उपयुक्त होती है. गड्ढों में इन्हें भरने के पहले इन सब को अच्छी तरह से पीस कर चूर्ण बना लेते हैं, फिर इन सभी चीजों को गाय के गोबर में मिला कर अलगअलग गड्ढों में भर लेते हैं.

गड्ढे में भरने के पूर्व ही इन सभी सामग्रियों को अच्छे से तैयार किया जाता है. इस के लिए सुहागा को गरम कर पूरी तरह फुला लेते हैं, फिर उसे पीस कर गड्ढे में गोबर के साथ भरा जाता है. गंधक को भी पीस कर गोबर में मिलाते हैं. त्रिफला को भी पीस कर 20 किलोग्राम गोबर में मिला कर गड्ढे में भरते हैं.

नारियल के छिलके को जला कर उपयोग में लाया जाता है और उसे पीस कर अलग गड्ढे में डालते हैं. यह ‘चारकोल पाउडर’ कहलाता है. धान के 4 किलोग्राम भूसी को लोहे की कड़ाही में गरम कर पूरा काला कर लेते हैं. औक्सीजन की अनुपस्थिति में गरम करने पर इस से सिलिकौन प्राप्त होता है. इसे ‘सिलिकौन भस्म’ भी कहते हैं. अंडे के चूर्ण से कैल्शियम प्राप्त होता है. इसे ‘कैल्शियम भस्म’ कहते हैं. पत्थर के चूर्ण का भी उपयोग उसी गड्ढे में किया जाता है.

इन सभी को गड्ढों में भरने के बाद उस के ऊपर गाय के गोबर के उपले रख देते हैं और फिर उस के ऊपर मिट्टी से लीप देते हैं. ध्यान रखते हैं कि जो गड्ढे बनाए जा रहे हैं, छाया में हों.

इन गड्ढों में दबाए गए उर्वरक 45 दिनों के बाद ऊपर लोहे की छड़ से छेद कर देते हैं. जब इन को दबाए 90 दिन का समय बीत जाता है, तो गड्ढों से इस तैयार उर्वरक को बाहर निकाल लेते हैं, जिन्हें हम अपनी फसल के उपयोग में ला सकते हैं.

पराली नियंत्रण के लिए वेस्ट डीकंपोजर का उपयोग

जहां देशभर के किसान पराली को ले कर हलकान दिखते हैं, वहीं किसान राममूर्ति मिश्र वेस्ट डी कंपोजर के जरीए पराली को नियंत्रित करते हैं. यह मात्र 20 रुपए की एक सीसी आती है, जिस में गुड़बेसन को एकसाथ मिला कर 500 लिटर पानी का घोल बनाते हैं.

20 दिनों के बाद इस तैयार घोल को अगर पराली या फसल के अवशेष पर छिड़का जाए, तो वह अवशेष पूरी तरह समाप्त हो जाता है. उन के द्वारा तैयार इस वेस्ट डीकंपोजर घोल को आसपास के किसान भी इन के जरीए अपने खेतों में प्रयोग करते हैं.

जैविक खेती (Organic Farming)

खेतों में लहलहा रही है फसल

पिछले 3 सालों में राममूर्ति मिश्र ने जैविक खेती के जरीए कई तरह की व्यावसायिक खेती करने में सफलता पाई है. वे मौसम के अनुसार तमाम तरह की सब्जियों की खेती करते हैं. उन के खेतों में उस समय भी फसल लहलहा रही होती है, जब बाजार में कई तरह की सब्जियों की आवक बहुत कम होती है.

वे कई तरह की सब्जियों की खेती करते हैं, जिस में लौकी, नेनुआ, पालक, सरपुतिया, सोया, टमाटर, करेला, मटर, गाजर, मूली, सहित दर्जनों तरह की फसलें शामिल हैं.

इस के अलावा वे अनाज वाली फसलों में भी खुद के द्वारा तैयार किए गए जैविक उत्पादों का ही प्रयोग करते हैं. इस के जरीए वे कालानमक, अलसी, गेहूं जैसी तमाम फसलें भी उगा रहे हैं.

खेतों से सीधे होती है मार्केटिंग

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा उगाई गई जैविक फसलों की मार्केटिंग की अगर बात की जाए, तो आढ़ती इन के खेतों से ही मंडी मूल्य से ज्यादा रेट पर खरीद कर ले जाते हैं, जिस के चलते उन्हें मार्केटिंग के लिए किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है.

‘हजार और्गैनिक फार्म’ के नाम से पौपुलर

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा शुरू की गई जैविक खेती को उन्होंने ‘हजार और्गैनिक फार्म’ का ब्रांड नाम दे रखा है. ‘हजार’ शब्द में उन के पुरखों का नाम छिपा है. इस मसले पर उन का कहना है कि जिन पुरखों की जमीन ने मुझे रोजगार दिया है, उन को सम्मान देने का इस से बढि़या तरीका और कुछ हो ही नहीं सकता है.

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा की जा रही जैविक खेती से मिली सफलता के मुद्दे पर कृषि विशेषज्ञ डा. प्रेम शंकर का कहना है कि जैविक खेती से भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि हो जाती है, साथ ही साथ सिंचाई के अंतराल में भी वृद्धि होती है.

उन का यह भी कहना है कि जैविक उर्वरकों के उपयोग से रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है और फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है.

जैविक खेती से मिट्टी को होने वाले लाभ के सवाल पर किसान राममूर्ति मिश्र का कहना है कि अगर मिट्टी की दृष्टि से देखें, तो जैविक खाद के उपयोग से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है और भूमि की जलधारण की क्षमता बढती है. भूमि से पानी का वाष्पीकरण भी कम होता है.

जैविक खेती की विधि रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है अर्थात जैविक खेती मिट्टी की उर्वरता एवं किसानों की उत्पादकता बढ़ाने में पूरी तरह सहायक है.

जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती ही है, साथ ही किसानों को अधिक आय प्राप्त होती है और अंतर्राष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं. नतीजतन, सामान्य उत्पादन की अपेक्षा किसान अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं.

वैज्ञानिक तरीके से सिंचाई एवं खाद प्रबंधन से फसल उत्पादन में वृद्धि

बड़वानी : कृषि विज्ञान केंद्र, बड़वानी द्वारा कृषि आदान विक्रेताओं के एकवर्षीय डिप्लोमा कार्यक्रम (देसी) के अंतर्गत प्रशिक्षण कार्यक्रम के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख डा. एसके बड़ोदिया के मार्गदर्शन में केंद्र के सभागार में आयोजित किया गया. इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि एवं प्रमुख वक्ता के रूप में अधिष्ठाता बीएम कृषि महाविद्यालय खंडवा के डा. डीएच रानाडे द्वारा भागीदारी की गई.

सर्वप्रथम अधिष्ठाता डा. डीएच रानाडे ने कहा कि छोटीछोटी सावधानियां एवं प्रबंधन कार्य कर के फसल उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है जैसे अपने खेत की मिट्टी के अनुसार फसल का चयन, उपयुक्त प्रजाति का चुनाव, सिंचाई एवं उर्वरक का समुचित प्रबंधन कर 30-40 फीसदी तक उत्पादन में वृद्धि लाई जा सकती है.

अगर फसल में ड्रिप सिचांई पद्धति से सिंचाई की जाए व उचित उर्वरक प्रबंधन किया जाए, तो फसल में अच्छा उत्पादन देखा गया है. इस अवसर पर उन्होंने कहा कि हमें जल प्रबंधन की शुरुआत कृषि क्षेत्र से करनी चाहिए, क्योंकि सर्वाधिक मात्रा में कृषि कार्यों में ही जल का उपयोग किया जाता है और सिंचाई में जल का दुरुपयोग एक गंभीर समस्या है, जनमानस में धारणा है कि अधिक पानी, अधिक उपज, जो कि गलत है, क्योंकि फसलों के उत्पादन में सिंचाई का योगदान 15-16 फीसदी होता है. फसल के लिए भरपूर पानी का मतलब मात्र मिट्टी में पर्याप्त नमी ही होती है, परंतु वर्तमान कृषि पद्धति में सिंचाई का अंधाधुंध इस्तेमाल किया जा रहा है. धरती के गर्भ से पानी की आखिरी बूंद भी खींचने की कवायद की जा रही है.

देश में हरित क्रांति के बाद से कृषि के जरीए जल संकट का मार्ग प्रशस्त हुआ है. बूंदबूंद सिंचाई यानी बौछार (फव्वारा तकनीकी) और खेतों के समतलीकरण से सिंचाई में जल का दुरुपयोग रोका जा सकता है. फसलों के जीवनरक्षक या पूरक सिंचाई दे कर उपज को दोगुना किया जा सकता है.

जल उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए पौधों को संतुलित पोषक तत्वों को प्रबंध करने की आवश्यकता है, जल की सतत आपूर्ति के लिए आवश्यक है कि भूमिगत जल का पुनर्भरण किया जाए, खेतों के किनारे फलदार पेड़ लगाने चाहिए, छोटेबड़े सभी कृषि क्षेत्रों पर क्षेत्रफल के हिसाब से तालाब बनाने जरूरी हैं. रासायनिक खेती की बजाय जैविक खेती पद्धति अपना कर कृषि में जल का अपव्यय रोका जा सकता है. ऊंचे स्थानों, बांधों इत्यादि के पास गहरे गड्ढ़े खोदे जाने चाहिए, जिस से उन में वर्षा का जल एकत्रित हो जाए और बह कर जाने वाली मिट्टी को अन्यत्र जाने से रोका जा सके.

कृषि भूमि में मिट्टी की नमी को बनाए रखने के लिए हरित खाद और उचित फसल चक्र अपनाया जाना चाहिए. कार्बनिक अवशिष्टों को प्रयोग कर इस नमी को बचाया जा सकता है. वर्षा जल को संरक्षित करने के लिए शहरी मकानों में आवश्यक रूप से वाटर टैंक लगाए जाने चाहिए. इस जल का उपयोग अन्य घरेलू जरूरतों में किया जाना चाहिए. जल का संरक्षण करना वर्तमान समय की जरूरत है.

इस अवसर पर डा. रानाडे द्वारा केंद्र की प्रदर्शन इकाइयों बकरीपालन, मुरगीपालन, केंचुआ खाद इकाई, अजोला इकाई, डेयरी आदि का अवलोकन कर प्रशंसा व्यक्त की.