World Food Safety Day : 7 जून को ‘विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस’ ऐसे समय में आया है. जब यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा है कि क्या हम सचमुच खुद को और अपनी संतानों को सुरक्षित भोजन देने की स्थिति में हैं ?

आज दुनिया की आबादी तकरीबन 8 अरब के पार पहुंच चुकी है, और संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 2050 तक यह आबादी तकरीबन 10 अरब तक पहुंचने वाली है. परंतु इसी के समानांतर, खेती की जमीन घट रही है, उपजाऊ मिट्टी हर साल करोड़ों टन कटाव में बह रही है, खेतों पर लगातार सीमेंट के जंगल उग रहे हैं, और जो थोड़ी बची हुई है, वह भी रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से बंजर होने की कगार पर खड़ी है.

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, विश्व की 33 फीसदी  उपजाऊ भूमि की उत्पादकता या तो समाप्त हो चुकी है या समाप्ति की ओर है. भारत के कई  किसानों ने बिना जहरीली रासायनिक खाद और दवाइयों के रिकौर्ड उत्पादन ले कर सफलतापूर्वक यह सिद्ध कर दिखाया है इन सब के बिना भी सफल कृषि पर्यावरण हितैषी मौडल तैयार किया जा सकता है. यह कार्य असंभव नहीं है.

अब लगे हाथ “खाद्य सुरक्षा” के नाम पर किए जा रहे जैनेटिकली मोडिफाइड बीजों के महाअभियान की बात भी हो जाए. वैज्ञानिक बारंबार यह बता चुके हैं कि जीएम फसलों में प्रयुक्त ट्रांसजीन मानव डीएनए को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. इस के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक दुष्परिणाम अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं हुए हैं, परंतु शुरूआती अध्ययन कैंसर, बांझपन, हार्मोनल गड़बड़ियों और प्रतिरोधक क्षमता में कमी की ओर इशारा कर चुके हैं.

भारत में हर व्यक्ति के थाली में जो रोटी, चावल, सब्जी, दाल सज रही है, उस में औसतन 32 प्रकार के रसायनिक अवशेष  पाए गए हैं. यह भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के ही आंकड़े कहते हैं. ये अवशेष कीटनाशकों, रासायनिक खादों और भंडारण में इस्तेमाल कीटनाशकों से आते हैं. क्या ये वही “खाद्य सुरक्षा” है जिस का जश्न हम 7 जून को मनाने जा रहे हैं?

खेती अब धरती से जीवन उपजाने की प्रक्रिया नहीं रही, यह एक उद्योग है, और उद्योग का मतलब है उत्पादन, मुनाफा और प्रकृति की कीमत पर विकास.

अगर जलवायु परिवर्तन की बात करें तो इंटरनेशनल पैनल औन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी)  की रिपोर्ट साफ कहती है कि कृषि सेक्टर कुल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में लगभग 23 फीसदी का योगदान करता है. यह आंकड़ा केवल जलवायु को नहीं, बल्कि कृषि को भी नुकसान पहुंचा रहा है. बदलते तापमान, अनियमित बारिश, बाढ़ और सूखे की घटनाएं, फसलों की उत्पादकता में भारी गिरावट ला रही हैं.

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते साल 2030 तक विश्व में 1.22 करोड़ टन खाद्यान्न की कमी संभावित है. कभी कृषि आत्मनिर्भरता की मिसाल रहा भारत अब अमेरिका, कनाडा, ब्राजील जैसे देशों से दलहन, तिलहन और खाद्य तेल मंगाने पर मजबूर है. दूसरी ओर, “हरित क्रांति” के गर्व से लबरेज पंजाब और हरियाणा की मिट्टी की हालत इतनी बुरी हो चुकी है कि वहां के किसान खुद कह रहे हैं “अब मिट्टी में दम नहीं रहा”. भू जल का स्तर गिर रहा है, और नदियों का पानी दूषित हो रहा है. परंतु आज की कृषि नीति और वैज्ञानिक संस्थाएं ऐसी योजनाएं बना रही हैं जो विपत्ति को और भी जल्दी ला रही हैं.

World Food Day

“स्मार्ट एग्रीकल्चर”, “डिजिटल फार्मिंग”, “प्रिसिशन ड्रोन स्प्रेइंग”, “जीएम बीज”, “सिंथैटिक बायोफर्टिलाइजर” जैसे चमकदार शब्द असल में एक ऐसा कृत्रिम खाद्य तंत्र बना रहे हैं जो पोषण नहीं, केवल पेट भरने का भ्रम देता है और इस संकट का यही विकल्प है कि हमें प्रकृति की ओर जाना होगा.

हमें पारंपरिक जैविक कृषि, मिश्रित खेती, आदिवासी ज्ञान प्रणाली, फौरेस्ट फूड्स, स्थानीय बीजों का संरक्षण आदि करना होगा. ये सभी न केवल मिट्टी को पुनर्जीवित करते हैं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से लड़ने में भी सक्षम हैं.

बस्तर की एक बूढ़ी किसान से जब पूछा गया कि रासायनिक खाद क्यों नहीं डालतीं, तो उन्होंने बस इतना कहा “माटी माटे संग तो जीती है, जहर संग माटी मर जाती है.”
उस की बात में ‘पीएचडी’ नहीं है, पर धरती की पीड़ा की पीएच वैल्यू जरूर है.

अब सवाल यह उठता है कि क्या हम “खाद्य सुरक्षा” के नाम पर “जीवन की असुरक्षा” की इबारत लिख रहे हैं?

अगर हां, तो फिर यह दिवस, यह आंकड़े, यह घोषणाएं केवल भूख की राजनीति कर सत्ता पर काबिज रहने और कंपनियों के कभी ना भरने वाले पेट को भरने की कवायद के लिए हैं, धरती और इंसानियत के लिए नहीं.

अब समय आ गया है कि हम रसायनों की चकाचौंध से आंखें मूंदे खेतों से बाहर निकलें और फिर से परंपरागत बीज, मिट्टी, जल और जंगल से सच्चा रिश्ता जोड़ें और खेती मैं प्राकृतिक तौर तरीके अपनाएं. अन्यथा, यह “नीला ग्रह” हमारे लिए केवल ब्लैक एंड व्हाइट इतिहास बन जाएगा, जिसे पढ़ने और पढ़ाने वाला कोई नहीं होगा.

(लेखक ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ और राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ ‘आईफा’)

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