देश में खाद्यान्न भंडारण के लिए जूट के बोरों की कमी के चलते हर साल हजारों टन अनाज बरबाद हो जाता है, जबकि आज भी भारत दुनिया के सब से बड़े जूट उत्पादक देश के रूप में जाना जाता है. लेकिन हाल ही के वर्षों में देश में जूट की खेती में भारी कमी देखने को मिल रही है, जबकि जूट और उस से बने उत्पादों की मांग में लगातार बढ़ोतरी ही हुई है.

जूट के रेशे से न केवल बोरे बनाए जाते हैं, बल्कि इस से दरी, तंबू, तिरपाल, टाट, रस्सियां, निम्न कोटि के कपड़े और कागज, फैशनेबल वस्तुएं, बैग, कंबल, पैकिंग से जुड़े उत्पाद जैसी सैकड़ों वस्तुओं को बनाया जाता है.

भारत से आज भी कई देशों को जूट और उस से बनी वस्तुओं का निर्यात किया जाता है. ऐसे में किसान अगर जूट की खेती उन्नत तरीके से करें, तो अपनी आमदनी में इजाफा कर सकते हैं, क्योंकि जूट को नकदी फसलों में गिना जाता है.

उन्नत किस्में

जूट की फसल से अधिक उत्पादन लेने के लिए उस की उन्नत प्रजातियों का चयन किया जाना जरूरी हो जाता है.

जूट की 2 किस्में प्रचलित हैं, जिस में अलगअलग प्रजातियां बोए जाने के लिए उपयोग में लाई जाती हैं.

जूट की पहली किस्म को कैपसुलेरिस के नाम से जाना जाता है. इसे सफेद जूट या ककिया बंबई जूट के नाम से भी जाना जाता है. इस की पत्तियां चखने पर स्वाद में कड़वी होती हैं. इस किस्म की प्रजातियों को अगेती फसल के रूप में बोया जाता है. इस की जेआरसी-321 प्रजाति अधिक उत्पादन देने वाली मानी जाती है. इस प्रजाति की फसल जल्दी पक कर तैयार होती है. वहीं दूसरी प्रजाति जेआरसी-212 को देर से यानी बोआई मार्च से मई माह में बो कर के जुलाईअगस्त माह तक काटा जाता है.

जूट की जेआरसी-698 प्रजाति को उन्नत प्रजातियों में गिना जाता है. इसे मार्च माह से ले कर मई माह के दूसरे हफ्ते तक बोया जाता है. इस के अलावा कैपसुलेरिस की अंकित (एनडीसी) व एनडीसी- 9102 किस्में भी उत्पादन के नजरिए से अच्छी मानी जाती है.

जूट की दूसरी किस्म ओलीटोरियस को पछेती फसल के रूप बोआई के लिए सब से उपयुक्त माना जाता है. इस की बोआई अप्रैल के अंत से ले कर जून के अंत तक किया जाता है.

उन्नत किस्में जेआरओ- 632, जेआरओ-878, जेआरओ- 7835, जेआरओ-524,(नवीन), जेआरओ-66 हैं. इन किस्मों से अच्छी मात्रा में रेशा प्राप्त होता है.

भूमि का चयन व खेत की तैयारी

जूट की खेती भारत में पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़ कर सभी जगह आसानी से की जा सकती है. इस की खेती सब से अधिक पश्चिम बंगाल में की जाती है. इस के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिसा, असम में भी इस की खेती अच्छे लेवल पर की जाती है.

जूट की खेती के लिए भूमि का समतल होना जरूरी है, जिस में पानी का निकास अच्छे से हो. साथ ही, पानी रोकने की पर्याप्त क्षमता वाली दोमट और मटियार दोमट भूमि भी जूट की खेती के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है. इस की बोआई के पूर्व खेत की अच्छी तरह जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए.

मिट्टी को भुरभुरा बना लेना इसलिए जरूरी होता है, क्योंकि चूंकि जूट का बीज बहुत छोटा होता है. इस से बीज का जमाव अच्छा होता है. बोआई के समय मिट्टी में उपयुक्त नमी होना जरूरी है. इस से जमाव सही होता है.

बोआई का उचित समय

जूट की खेती अगर उन्नत तरीकों और समय से की जाए, तो इस से अच्छा उत्पादन प्राप्त होता है. इस की बोआई का सब से उचित समय मार्च महीने से ले कर जुलाई महीने तक का होता है. तराई क्षेत्र में इसे मार्च महीने से बोना शुरू कर दिया जाता है, लेकिन ऊंची भूमि पर यह जुलाई महीने तक बोई जाती है.

बीज शोधन व बोने की विधि

कृषि विज्ञान केंद्र, संतकबीर नगर में विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह ने बताया कि जूट के बीज को खेतों में बोने से पहले थीरम 3 ग्राम या कार्बेन्डाजिम 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित किया जाना चाहिए.

अगर इस की बोआई सीड ड्रिल से की जा रही है, तो 3-5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की मात्रा पर्याप्त होती है. लेकिन छिटकाव विधि से बोने पर बीज की मात्रा अधिक लगती है और इस में प्रति हेक्टेयर 5-6 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है.

जूट के बीज की लाइन से लाइन की दूरी 30 सैंटीमीटर व पौध से पौध की दूरी 7-8 सैंटीमीटर एवं गहराई 2-3 सैंटीमीटर से अधिक नहीं रखनी चाहिए. सीड ड्रिल के प्रयोग से एक व्यक्ति एक दिन में एक एकड़ की बोआई कर सकता है.

खाद एवं उर्वरक

जूट की खेती से अधिक उत्पादन के लिए खेत की जुताई के वक्त 25 से 30 टन सड़ी हुई गोबर की खाद को खेत में डाल कर मिट्टी में अच्छे से मिला लेना चाहिए. साथ ही, खेत में आखिरी जुताई के समय नाइट्रोजन 45 किलोग्राम, फास्फोरस 25 किलोग्राम व पोटाश 25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डाल कर मिट्टी में मिला दें. इस के बाद बोआई के समय उपयोग की गई नाइट्रोजन की आधी मात्रा को 2 बार पौधों की सिंचाई के साथ देना फसल के लिए लाभदायक होता है.

फसल की देखभाल व खरपतवार नियंत्रण

फसल की बोआई के पश्चात जब पौधे जमीन से बाहर आ जाते हैं, तो फसल की पहली गुड़ाई की जाती है, जिस से फसल से घास व खरपतवार निकल जाता है. इस से जूट के पौधों की जड़ें साफ और हलकी हो जाती हैं और पौधों को वातावरण से औक्सीजन और नाइट्रोजन आसानी से मिलने लगता है और पौधे तेजी से बढ़ते हैं. गुड़ाई का काम फसल बोआई के 21 दिनों के भीतर कर लिया जाना चाहिए.

जूट की फसल में खरपतवार का नियंत्रण किया जाना बहुत जरूरी है, क्योंकि फसल में खरपतवार होने से फसल की बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है. इसलिए फसल की बोआई के 20-25 दिन बाद खरपतवार को निराई कर के निकाल देना चाहिए और विरलीकरण कर के पौधे से पौधे की दूरी 6-8 सैंटीमीटर कर देना चाहिए.

गुड़ाई के 2-3 दिन बाद फसल की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. जब तक बारिश न हो, तब तक हर 15 दिन पर सिंचाई करते रहें. बारिश होने पर सिंचाई की जरूरत नहीं है.

फसल में अधिक खरपतवार की दशा में इस का नियंत्रण खरपतवारनाशी से किया जा सकता है. खड़ी फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए 30-35 दिन के भीतर क्विनालफास इथाइल 5 फीसदी की एक लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना प्रभावी होता है.

गुड़ाई के 2-3 दिन बाद फसल की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. जब तक वर्षा न हो, तब तक हर 15 दिन पर सिंचाई करते रहें. बारिश होने पर सिंचाई की जरूरत नहीं है.

फसल की सुरक्षा

जूट की फसल में 2 तरह की बीमारियों का प्रकोप ज्यादा देखा गया है, जिस से फसल की जड़ और तने में सड़न होने से कभीकभी फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है. इस से बचाव के लिए बीजों को शोधित कर के ही बोना चाहिए.

इन बीमारियों से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से और 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर प्रयोग करना चाहिए. वहीं जूट की फसल में सैमीलूपर एपियन स्टेम बीविल कीटों का प्रकोप देखा गया है. इन कीटों की रोकथाम के लिए 1.5 लिटर डाइकोफाल को 700-800 लिटर पानी में घोल कर फसल की 40-45, 60-65 और 100-105 दिन की अवस्थाओं पर छिड़काव किया जा सकता है.

इस के अलावा इन कीटों के नियंत्रण के लिए नीम उत्पादित रसायन अजादिरैक्टिन 0.03 फीसदी के 1.5 लिटर की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

फसल की कटाई व पौधों को गलाना

जूट की फसल से अच्छी मात्रा में रेशा प्राप्त करने के लिए फसल की कटाई 100 से 120 दिन बाद किया जाना उचित होता है, क्योंकि फसल की जल्दी कटाई करने पर रेशे की कम मात्रा प्राप्त होती है. जूट की फसल तैयार होने के बाद उस के डंठल को पानी में दबा कर गलाया जाता है, जिस से डंठल से रेशे को अलग किया जा सके.

फसल को गलाने के पहले पौधों को भूमि की सतह से ऊपर काट लिया जाता है. इस के बाद काटी गई फसल को 2 से 3 दिन तक के लिए जमीन पर छोड़ देते हैं. इस से पौधे से पत्तियां सूख कर अलग हो जाती हैं. जब पौधों से पत्तियां सूख कर अलग हो जाएं, तो इन्हें गठ्ठरों में बांध कर गड्ढे में पानी भर कर किसी वजनी चीज से ढक दिया जाता है.

इस दौरान यह ध्यान दें कि डंठल तालाब की मिट्टी में न दबने पाएं. पौधों से गल कर रेशों को अलग होने में एक हफ्ते से ले कर एक महीने तक का समय लग सकता है. पानी में दबाए गए जूट के डंठलों को बीचबीच में देखते रहें और जब डंठल से रेशे सरलता अलग होने लगें, तो दबाए गए डंठलों को पानी से निकाल कर रेशे अलग कर लेते हैं.

रेशे निकालना व सुखाना

जब जूट के पौधों से रेशों को निकाल कर अलग कर लें, तो रेशे को साफ पानी में अच्छी तरह धो कर किसी तार, बांस इत्यादि पर लटका कर कड़ी धूप में 3-4 दिन तक सुखा लेना चाहिए.

इस दौरान यह ध्यान दें कि सुखाने की अवधि में रेशे को उलटतेपलटते रहें. जूट की एक हेक्टेयर फसल से तकरीबन 14 से 20 क्विंटल तक शुद्ध रेशे का उत्पादन प्राप्त होता है.

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