Arvi crop :  अरवी (कोलोकेसिया) यानी घुइयां एक कंदीय पौधा है. इस की खेती खासकर कंदों के लिए की जाती है.

अरवी की पैदावार काफी अच्छी यानी 30-40 टन प्रति हेक्टेयर तक होती है. अरवी के मूल स्थान के बारे में लोगों की राय अलगअलग है.

भारत में इस की खेती कब और कहां शुरू हुई, इस का किसी को पक्का पता नहीं है. उत्तरी भारत में इसे खासतौर से उगाते हैं. अन्य प्रदेशों में भी इस का उत्पादन बढ़ रहा है.

इस में कार्बोहाइड्रेट की उच्च मात्रा के अलावा अन्य कंदों वाली सब्जियोें के मुकाबले ज्यादा मात्रा में प्रोटीन, खनिज लवण, फास्फोरस व लोहा पाया जाता है.

अरवी पर लगने वाले कीट व रोग इस की पैदावार को प्रभावित करते हैं. अन्य सब्जियों की तरह अरवी की फसल पर भी कीटों का हमला होता है, जिन में तंबाकू का इल्ली कीट और लाही खास हैं.

अरवी के खास हानिकारक कीड़े

तंबाकू की सूंड़ी : इस के पतंगे भूरे रंग के 15-18 मिलीमीटर लंबे होते हैं. इन का अगला पंख कत्थई रंग का होता है, जिस पर सफेद लहरदार धारियां होती हैं, जबकि पिछले पंख सफेद रंग के होते हैं. पूरी तरह विकसित पिल्लू 35-40 मिलीमीटर लंबा पीलापन लिए हुए हरा भूरा होता है. इस के निचले हिस्से में दोनों ओर पीली धारी होती है.

मादा कीड़ा पत्तियों की निचली सतह पर 200 से 300 अंडे झुंड में देती है, जो भूरे रंग के बालों से ढके रहते हैं. 3 से 5 दिनों में अंडों से पिल्लू निकल कर झुंड में पत्तियों को खाते हैं. 20 से 30 दिनों में पिल्लू पूरी तरह बड़े हो कर मिट्टी के अंदर प्यूपा में बदल जाते हैं. प्यूपा काल गरमी व जाड़ों में क्रमश: 7-9 और 25-30 दिनों का होता है. इस के बाद प्यूपा से बड़े कीट बन जाते हैं. अंडे से बड़े होने में इस कीट को 30 से 56 दिनों का समय लगता है. 1 साल में इस की 8 पीढि़यां होती हैं.

अरवी के पौधों पर इस कीट का हमला जून से सितंबर तक होता है.

इस कीड़े के पिल्लू ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. शुरू में अंडों से निकले पिल्लू अरवी की कोमल पत्तियों की निचली सतह पर झुंड में हमला कर के हरे भाग को खाते हैं. बाद में जवान पिल्लू अलगअलग पौधों पर हमला कर के पत्तियों को खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. बहुत ज्यादा प्रकोप होने पर ये पूरे पौधों की पत्तियों को खा जाते हैं, जिस से पौधे ठूंठ हो जाते हैं और कंद पर रोग लग जाता है. इस कीट का हमला रात के समय ज्यादा होता है.

रोकथाम

* फसल की कटाई के बाद खेत की अच्छी जुताई कर देनी चाहिए.

* अंडों के गुच्छों व पिल्लुओं को पत्तियों समेत तोड़ कर नष्ट कर दें.

* रोशनी द्वारा जवान कीड़ों को जमा कर के नष्ट कर दें.

* ज्यादा हमला होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या डायमिथोएट (30 ईसी) दवा का 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से पौधों पर 15 दिनों के अंतर पर 2 बार छिड़काव करना फायदेमंद होता है.

* मिश्रीकंद के बीज के घोल का 5 फीसदी की दर से छिड़काव करने पर इस कीड़े से बचा जा सकता है.

अरवी के लाही कीट : लाही कीट 2 से 3 मिलीमीटर लंबा हरेपीले रंग का होता है. जवान कीड़े पंखदार व बिना पंख दोनों प्रकार के होते हैं. लेकिन इस कीट के बच्चे बिना पंख के होते हैं.

मादा कीट अपने जीवन काल में 32 से 50 अंडे पैदा करती है. 7 से 8 दिनों में 3 से 4 निर्मोचन के बाद ये पूरी तरह जवान हो जाते हैं. इन का जीवनकाल 23 से 28 दिनों में पूरा हो जाता है.

इस कीट के जवान व बच्चे दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. ये झुंड में अरवी की पत्तियों की निचली सतह और नई निकलती पत्तियों के बीच में रह कर लगातार रस चूसते हैं. इसलिए पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं, जिस से पौधे बड़े नहीं हो पाते व कमजोर हो जाते हैं.

कंद अच्छी तरह बढ़ नहीं पाते जिस से पैदावार में भारी कमी आ जाती है.

रोकथाम

* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें ताकि माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000 से 10,0000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* यदि पौधे पर लाही कीट लगा हो तो किसी एक तरल कीटनाशी दवा जैसे डाइमिथोएट (30 ईसी) का 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से या मिश्रीकंद बीज के घोल के 5 फीसदी का छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर 2 बार करें.

अरवी के खास रोग

अरवी का झुलसा रोग : इस रोग का प्रकोप फाइटोफ्थोरा कोलोकेसियाई नाम के कवक से होता है. यदि रात का तापमान 20-22 डिगरी सेंटीग्रेड व दिन का तापमान 25-27 डिगरी सेंटीग्रेड के बीच हो, नमी दिन में 65 फीसदी और रात में 100 फीसदी हो व आकाश में बादल छाए हों और बीचबीच में बारिश होती रहे तो इस रोग का फैलाव और भी तेजी से होता है.

पूरी फसल 5-7 दिनों के अंदर इस रोग से झुलस जाती है. यदि तापमान 20 डिगरी सेंटीग्रेड से कम या 28 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा हो तो यह रोग ज्यादा नहीं बढ़ पाता है.

यह अरवी का एक भंयकर रोग है, जो पत्तियों पर छोटेछोटे हलके भूरे रंग के धब्बों के रूप में शुरू होता है. जल्दी ही ये छोटेछोटे धब्बे आकार में बड़े और भूरे रंग के हो जाते हैं व अगलबगल के पौधों को भी प्रभावित कर देते हैं. यदि समय पर रोकथाम नहीं की जाए तो 1 हफ्ते के अंदर पूरी की पूरी फसल झुलस कर बरबाद हो जाती है.

खोज से यह साबित हो गया है कि रोग की तेजी व पैदावार में होने वाली कमी का आपस में सीधा संबंध है.

बिहार में इस रोग का प्रकोप अगस्त व सितंबर महीनों में होता है. रोकथाम भारत में अरवी की कई रोग न लगने वाली किस्में मौजूद हैं, जिन में जाखड़ी, टोपी व मुक्ताकेशी कुछ खास किस्में हैं.

रोग न लगने वाली किस्मों में रोग लगने वाली किस्मों की तुलना में रोग की शुरुआत देर से होती है और उस का फैलाव भी धीमा होता है. लिहाजा जहां यह बीमारी हर साल होती है, वहां मुक्ताकेशी वगैरह रोग न लगने वाली किस्मों का लगाना ठीक रहता है.

कंदों की रोपाई के समय में इस तरह बदलाव करें, जिस से कंद को रोग न लगे. इस तरह इस से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है. लिहाजा जिस इलाके में इस बीमारी का असर ज्यादा या हमेशा होता है, वहां अरवी की रोपाई फरवरी से मार्च के बीच करें ताकि फसल पूरी तरह से बढ़ सके व उपज पर इस का कोई बुरा असर न पड़े.

रोपाई के बाद कंदों को शीशम की पत्तियों या काले पौलीथिन या सूखी घासफूस से ढक देने पर इस रोग का असर कम होता है व खेतों में नमी बनी रहती है. इस से खरपतवारों की संख्या में भी कमी होती है.

ताम्रयुक्त कवकनाशी दवा डाइथेन एम 45 (0.2 फीसदी) के 4-5 छिड़काव 1 हफ्ते के अंतर पर करने से रोग की काफी हद तक रोकथाम हो जाती है. मटलैक्सिल (0.05 फीसदी) का छिड़काव करने पर पैदावार 50 फीसदी तक बढ़ सकती है.

अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें...