उदयपुर : करनाल में जनमी ’प्रेमा’, ’मंजरी’, ’वैदेही’, ’वृंदा’ एवं ’वरुणा’ इस वर्ष से खेतों में नर्तन करेगी, तो बिलासपुर की ’विद्या’ भी किसानों के खेतों में इठलाएगी.

चौंकिए मत, ये नृत्यांगनाएं नहीं, बल्कि गेहूं की वे किस्में हैं, जौ कृषि वैज्ञानिकों के 8-10 वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद किसानों के खेतों तक पहुंचेगी. उन्नत किस्म के ये गेहूं के बीज मौजूदा बदलते जलवायु चक्र को ध्यान में रख कर तैयार किए गए हैं.

आप को जान कर हैरानी होगी कि किस्मों को तैयार करने में कृषि वैज्ञानिकों को 8 से 10 साल शोध करने पर सफलता हासिल होती है. कई मानकों पर खरा उतरने पर ही किस्म को सार्वजनिक किया जाता है.

उदयपुर में चल रही अखिल भारतीय गेहूं व जौ अनुसंधान कार्यशाला में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक व सचिव, कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग, नई दिल्ली डा. हिमांशु पाठक एवं महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने पिछले वर्ष तक की चिन्हित व अनुमोदित की जा चुकी गेहूं की इन किस्मों को जारी किया और इन्हें ईजाद करने वाले कृषि वैज्ञानिक को प्रतीक चिह्न व प्रमाणपत्र दे कर सम्मानित किया.

Wheatइंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, बिलासपुर, रायपुर, छत्तीसगढ़ में डा. अजय प्रकाश अग्रवाल ने सीजी 1036 (विद्या) गेहूं की किस्म तैयार की. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के भारतीय गेहूं व जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल ने डीबीडब्ल्यू 316 (करन प्रेमा), डीबीडब्ल्यू 55 (करन मंजरी), डीबीडब्ल्यू 370 (करन वैदेही), डीबीडब्ल्यू 371 (करन वृंदा), डीबी डब्ल्यू 372 (करन वरुणा) जैसी गेहूं की किस्में तैयार की. इन के ब्रीडर कृषि वैज्ञानिकों व उन की टीम को सम्मानित किया गया.

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