प्राकृतिक खेती में नवाचार की जरूरत

उदयपुर : 30 जून, 2023 को महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के अनुसंधान निदेशालय में टिकाऊ कृषि के लिए प्राकृतिक खेती पर 2 दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम शुभारंभ हुआ.

इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में कुलपति, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर, डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए बताया कि पूरेे विश्व में रासायनिक उर्वरकों एवं हानिकारक कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग व एकल फसल प्रणाली से मिट्टी की गुणवत्ता में कमी, जैव विविधता का घटता स्तर, हवा की बिगड़ती गुणवत्ता और दूषित पर्यावरण के कारण हरित कृषि तकनीकों के प्रभाव टिकाऊ नहीं रहे हैं.

उन्होंने आगे बताया कि अत्यधिक उर्वरक के उपयोग से इनसान की सेहत, पशुओं की सेहत और बढ़ती लागत को प्रभावित कर रहे हैं और अब वैज्ञानिक तथ्यों से भी यह स्पष्ट है कि भूमि की जैव क्षमता से अधिक शोषण करने से एवं केवल रासायनिक तकनीकों से खाद्य सुरक्षा एवं पोषण सुरक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती है.

उन्होंने यह भी कहा कि जैव विविधता को संरक्षित करते हुए प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना चाहिए, जिस से कि लाभदायक कीट जैसे मधुमक्खीपालन को कृषि में बढ़ावा मिल सके.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने प्राकृतिक खेती के 4 मूल अवयव ‘बीजामृत, जीवामृत, आच्छादन, नमी संरक्षण’ एवं जैव विविधता के बारे में विस्तृत रूप से प्राकृतिक खेती के परिपेक्ष में चर्चा की.

डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन विकास, भारत कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने विशिष्ट अतिथि के रूप में संबोधन करते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने से कृषि उत्पादन में टिकाऊपन आ सकता है. प्राकृतिक खेती गांव आधारित समन्वित खेती है, प्रदूषणरहित खेती है, अतः स्वस्थ भोजन के लिए ग्राहकों में इस की मांग बढ़ रही है. बढ़ती मांग के मद्देनजर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो गांवों में रोजगार बढ़ाने में भी सहायक होगी.

उन्होंने इस बारे में जानकारी देते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती को देश को कृषि के पाठ्यक्रम में चलाने के साथसाथ नईनई तकनीकों को आम लोगों तक पहुंचाना समय की आवश्यकता है. इस के तहत आने वाले समय में देश के तकरीबन एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती की तरफ ले जाना है, जो कि वर्तमान में देश के कृषि वैज्ञानिकों के सामने एक मुख्य चुनौती है. प्राकृतिक खेती में देशज तकनीकी जानकारी और किसानों के अनुभवों को भी साझा किया.

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डा. चंद्रेश्वर तिवारी, पूर्व निदेशक प्रसार शिक्षा, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली, उत्तराखंड औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, भरसार, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड ने बताया कि प्रकृति और पारिस्थितिक कारकों के कृषि में समावेश कर के ही पूरे कृषि तंत्र का ‘शुद्ध कृषि’ की तरफ बढ़ाया जा सकता है.

उन्होंने बताया कि भारतीय परंपरागत कृषि पद्धति योजना के तहत राज्यों में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है. इस से कम लागत के साथसाथ खाद्य पोषण सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा. जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों के तहत खेती को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्राकृतिक खेती के घटकों को आधुनिक खेती में समावेश करना आवश्यक है.

डा. अरविंद वर्मा, अनुसंधान निदेशक ने कार्यक्रम की आवश्यकताओं एवं उद्देश्य के बारे में चर्चा करते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती की नवीनतम तकनीकों का विकास करना आवश्यक है. इस के लिए विद्यार्थियों को अभी से ही जागरूक होने की आवश्यकता है. साथ ही, किसानों एवं कृषि बाजार को जोड़ कर किसानों एवं पर्यावरण को फायदा पहुंचाना आज के समय की जरूरत है. प्राकृतिक खेती और जैविक पशुपालन को वर्तमान कृषि पद्धति के साथ जोड़ कर अपनी आय को बढ़ा सकते हैं.

डा. रोशन चौधरी, कार्यक्रम सहसंयोजक ने कार्यक्रम का संचाालन करते हुए बताया कि 2 दिवसीय प्रशिक्षण के दौरान प्राकृतिक खेती पर विशेषज्ञों द्वारा व्याख्यान हुए.

इस कार्यक्रम में डा. एसएस शर्मा, अधिष्ठाता, राजस्थान कृषि महाविद्यालय, डा. पीके सिंह, अधिष्ठाता, कृषि अभियांत्रिकी महाविद्यालय, डा. महेश कोठारी, निदेशक, आयोजना एवं परिवेक्षण निदेशालय, डा. मनोज कुमार महला, निदेशक, छात्र कल्याण अधिकारी, डा. बीके शर्मा, अधिष्ठाता, मात्स्यिकी महाविद्यालय, डा. विरेंद्र नेपालिया, विशेष अधिकारी, डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, कृषि अनुसंधान केंद्र, उदयपुर, डा. रविकांत शर्मा, उपनिदेशक अनुसंधान उपस्थित थे.

और्गेनिक फूड स्टोर  यों शुरू करें

अपनी सेहत के साथ दूसरों की सेहत को भी बेहतर बनाएं और हैल्दी धन कमाएं यानी ईमानदारी से आय अर्जित करें. ऐसा और्गेनिक फूड स्टोर शुरू  किया जा सकता है. आजकल लोगों में स्वस्थ बने रहने की जागरूकता बढ़ने के साथ किराना की दुकानों में और्गेनिक खाने का सामान मिलने लगा है. आने वाले वक्त में और्गेनिक फूड के बिजनैस में बहुत गुंजाइश है.

हां, और्गेनिक स्टोर शुरू करने से जुड़ी इन बातों का ध्यान जरूर रखें :

लाइसैंस और परमिट

बिजनैस को कानूनीतौर से मान्यता दिलाने के लिए दूसरे स्टोर्स की तरह इस में भी कुछ कानूनी कार्यवाही और खानापूरी होती हैं, जिन का पूरा होना जरूरी होता है. कुछ राष्ट्रीय और्गेनिक मापदंड हैं, जिन को इस बिजनैस के लिए क्वालीफाई करने के लिए पूरा करना जरूरी है :

* और्गेनिक ट्रेड एसोसिएशन से अपने स्टोर को सरकारी तौर पर और्गेनिक के रूप  में सर्टिफाइड (प्रमाणित) करवाएं.

* किसी भी राज्य में लागू होने वाले लाइसैंसेज और फूड परमिट के लिए स्वास्थ्य विभाग में अप्लाई करें.

* आईआरएस की वैबसाइट से एम्प्लायर आइडैंटिफिकेशन नंबर यानी ईआईएन के लिए अप्लाई करें.

* अपने बिजनैस के किसी भी एक मुख्य औपरेटिंग स्ट्रक्चर को चुनें, जैसे कि कारपोरेशन, सीमित लाइबिलिटी कंपनी (कंपनी की सीमित जिम्मेदारियां), पार्टनरशिप (सा झेदारी) या सोल प्रोपराइटरशिप (एकमात्र स्वामित्व).

* अपने बिजनैस के नाम से बैंक में खाता खोलें.

* बिजनैस  से संबंधित सभी खरीदारी के लिए बिजनैस एटीएम कार्ड काम में लें. यह आप के बिजनैस पर लोगों का भरोसा मजबूत करेगा.

स्टोर लोकेशन

स्टोर की लोकेशन बिजनैस की सफलता में अहम भूमिका निभाती है. हालांकि और्गेनिक फूड का बाजार हर तरफ है, फिर भी यह जानना जरूरी है कि हर कोई इस का भावी खरीदार नहीं हो सकता है. हालांकि एक बहुत अच्छी लोकेशन सफलता की गारंटी नहीं देती है, लेकिन एक बुरी लोकेशन लगभग हमेशा असफलता की गारंटी जरूर देती है.

सो, आप को ऐसी जगह चुननी चाहिए, जहां ग्राहकों के लिए सुरक्षा, सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट के साधन उचित मात्रा में हों. वहां पर पर्याप्त पार्किंग स्पेस भी होना चाहिए. उस जगह के अपने कंपीटिटर का भी ध्यान रखें. जितना कम कंपीटिशन, उतनी ही ज्यादा और आसानी से बिक्री होगी.

एक सब से अच्छी जगह वह है, जो सब की नगर में आए, आप के बजट में आए और जिस की शर्तें आप के लिए अनुकूल होंगी खासतौर से एक डिपार्टमैंटल स्टोर नए विकसित क्षेत्रों में अधिक सफल होता है.

एक जगह का किराया शहर, स्थान और डिपार्टमैंटल स्टोर के आकार के आधार पर 10,000 रुपए जैसी छोटी रकम से ले कर 10 लाख रुपए तक हो सकता है. एक स्टोर का किराया सुरक्षित तौर पर बिक्री का 4 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए.

स्टाफ का चयन

स्टोर चलाने के लिए आप को स्टाफ की  नियुक्ति करनी होगी. सेल्स एसोसिएट, कैशियर से ले कर बुककीपर तक. अगर आप बहुत सारा काम खुद कर सकते हैं, तो भी ग्राहकों को देखने के लिए स्टाफ की जरूरत जरूर होगी.

ग्राहक अनुभव

ग्राहकों का स्टोर के अंदर अच्छा अनुभव उन को वापस आप की दुकान पर ले कर आता है. हमें यह तभी हासिल होगा, जब हम अपने स्टाफ को प्राकृतिक और और्गेनिक खाद्य उत्पादों के बारे में सही जानकारी देंगे.

स्टाफ को ट्रेनिंग देना आप की मार्केटिंग रणनीति का एक जरूरी हिस्सा है. आप का स्टाफ हर दिन स्टोर में आप के उत्पादों के बारे में लोगों को बताएगा. अपने ग्राहकों को आप के द्वारा किए जा रहे प्रयासों पर भरोसा दिलवाने के लिए अपने स्टाफ को और्गेनिक्स और प्राकृतिक पर ट्रेनिंग दें.

अग्रिम निवेश

ऊंची  स्टार्टअप कीमतों  के लिए तैयार हो जाएं. और्गेनिक सामान नौनऔर्गेनिक सामान के बजाय अधिक महंगे होते हैं. पहली बार स्टोर को स्टौक से भरना जितना आप ने सोचा है उस से कहीं ज्यादा महंगी प्रक्रिया है.

उचित बिक्री मूल्य तय करें

और्गेनिक वस्तुओं की उच्च कीमत की वजह से यह उम्मीद करना आम बात है कि उन की कीमत नौनऔर्गेनिक दुकान में रखे हुए सामान से ज्यादा होगी. इस के बावजूद अगर आप के सामान की कीमत बहुत ज्यादा होगी, तो ग्राहक वह सामान किसी और से खरीद लेंगे.

* आसपास की और्गेनिक दुकानों द्वारा निर्धारित कीमतों को देख कर अपने सामान की कीमत निर्धारित करें.

* अगर कोई अन्य और्गेनिक स्टोर आसपास मौजूद नहीं है, तो यह जानें कि एक नौनऔर्गेनिक स्टोर अपने हर एक सामान पर कितना मुनाफा कमाता है. उस के आधार पर अपनी कीमत का मोटेतौर पर अंदाजा लगाएं और उसी अनुसार अपने सामान की कीमत निर्धारित करें.

* अपने सामान की बहुत कम कीमत निर्धारित करना आप को काफी नुकसान पहुंचा सकता है.

* बहुत ज्यादा मूल्य लगाना, मूल्यसंवेदनशील ग्राहकों का आना बंद करा सकता है.

* जब तक आप को अपने सामान की एकदम सही कीमत नहीं पता चलती है, तब तक आप को अपने सामान की कीमतों को कम और ज्यादा  करना पड़ सकता है.

और्गेनिक दुकान का औफलाइन विज्ञापन

इस बारे में सोचें कि आप अपने और्गेनिक और प्राकृतिक सामान का विज्ञापन कैसे करना चाहते हैं. लोगों द्वारा, स्थानीय विज्ञापन और प्रमोशन वे तरीके हैं, जिन से आप के स्टोर में लोगों का आना बढ़ सकता है.

और्गेनिक सामान खरीदने में रुचि रखने वाले लोगों का ध्यान खासतौर से अपनी ओर खींचें. विज्ञापनों को छपवाएं. समाचारपत्र में अपना विज्ञापन दें, शहर में चारों तरफ अपने फ्लायर/पैंफलेट बांटें. यदि संभव हो, तो भावी ग्राहकों को स्टोर तक लाने के लिए एक सीमित संख्या में कूपन बांटें.

असल में, आप एक फ्लायर या ब्रोशर पर पूरी तरह से अपने प्राकृतिक और और्गेनिक सामानों का प्रचार कर सकते हैं. ग्राहकों को अपने स्टोर में रखे प्राकृतिक और और्गेनिक्स सामानों के बारे में बताएं और यह भी बताएं कि वे कहां रखे हुए हैं.

उन्हें  सम झाएं कि आप का स्टोर प्राकृतिक और और्गेनिक सामान क्यों बेच रहा है. इस में नौनऔर्गेनिक फूड की तुलना में और्गेनिक फूड से क्याक्या फायदे हैं, ये भी शामिल करें.

औनलाइन विज्ञापन करें

यह जानना बहुत जरूरी है कि इस पीढ़ी के उपभोक्ताओं के पास भारी खरीद क्षमता है. वे  जानकारी के लिए इंटरनैट पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं.

सब से पहले अपनी और्गेनिक और प्राकृतिक खाद्य सामान की मार्केटिंग के लिए अपने स्टोर की वैबसाइट और सोशल मीडिया को काम में लें. दूसरा, गूगल  मैप पर अपने स्टोर को चिह्नित करें. साथ ही, बढ़ती औनलाइन उपभोक्ता आबादी तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया जैसे कि फेसबुक आदि को काम में लें.

मैनेज और ट्रैक करें

किसी भी बिजनैस को शुरू करना आसान काम है. उसे सफलतापूर्वक चलाना बहुत मुश्किल काम है. सब से पहले जानें कि आप अपनी दुकान में बिकने वाले सामानों की सूची को कैसे ट्रैक करें.

बिजनैस को अकेले या लोगों के साथ, बिना किसी असमंजस के संभालना, यह अगली सब से बड़ी चुनौती है. बिजनैस चलाने, इंवैंट्री को मैनेज करने और सामग्री की अकाउटिंग को आसान करने में ‘व्यापार’ जैसे बिजनैस सौफ्टवेयर को काम में लें. अधिकतर बिजनैसमैन अपने जीवन को आसान बनाने के लिए व्यापार जैसे बिजनैस अकाउंटिंग सौफ्टवेयर का उपयोग करते हैं.

सच बात तो यह है कि आर्गेनिक फूड उन कुछ श्रेणियों में से एक है, जो उच्चस्तरीय, उच्चमार्जिन अवसर ब्रैकेट में आता है. जैसेजैसे  प्राकृतिक और स्वस्थ खाद्य पदार्थों की तरफ ग्राहकों की जागरूकता बढ़ रही है, वे और्गेनिक खाद्य पदार्थों के लिए भुगतान करने को तैयार हैं. जब से लोग स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने लग गए हैं, तब से और्गेनिक सामान खरीदते समय एमआरपी पर ध्यान देना बंद कर दिया है.

इन सारी बातों का निचोड़ यह है कि ज्यादा खर्च करने की क्षमता और बढ़ती जागरूकता की वजह से ये उत्पाद न केवल लोकप्रिय हो रहे हैं, बल्कि लोग इन्हें खरीद भी रहे हैं.

फसलों के लिए लाभकारी ग्रीष्मकालीन जुताई

ग्रीष्मकालीन जुताई से खरपतवार और फसल अवशेष दब कर मिट्टी में मिल जाते हैं और नुकसानदायक कीड़ेमकोड़े व उन के अंडे, दूसरे परजीवी, खरपतवार के बीज वगैरह मिट्टी के ऊपर आने से खत्म हो जाते हैं, साथ ही जिन जगहों या खेतों में गेहूं व जौ की फसल में निमेटोड का इस्तेमाल होता है, वहां पर इस रोग की गांठें जो मिट्टी के अंदर होती हैं, जो जुताई करने से ऊपर आ कर कड़ी धूप में मर जाती हैं. इसलिए ऐसी जगहों पर गरमी की जुताई करना बहुत जरूरी होता है.

बारानी खेती वर्षा पर निर्भर करती है, इसलिए बारानी हालात में वर्षा के पानी का अधिकतम संचयन करने के लिए ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना बहुत जरूरी है.

अनुसंधानों से भी यह साबित हो चुका है कि ग्रीष्मकालीन जुताई करने से 31.3 फीसदी बरसात का पानी खेत में समा जाता है. मानसून की वर्षा के बाद हैरो, कल्टीवेटर या रोटावेटर से जुताई करने पर खेत भरपूर हो कर बोआई या रोपाई के लिए तैयार हो जाता है.

ग्रीष्मकालीन जुताई के फायदे

* ग्रीष्मकालीन जुताई करने से मिट्टी की ऊपरी कठोर परत टूट जाती है और गहरी जुताई से वर्षा जल की मिट्टी में प्रवेश क्षमता व पारगम्यता बढ़ जाने से खेत में ही वर्षा जल का संरक्षण हो जाता है. नतीजतन, पौधों की जड़ों को कम प्रयास में मृदा जल का संरक्षण हो जाता है. पौधों की जड़ों को कम प्रयास में मृदा जल की अधिक उपलब्धता प्राप्त होती है.

* मृदा वायु संचार में सुधार होने से मृदा सूक्ष्म जीवों का बहुगुणन तीव्र गति से होता है. नतीजतन, मृदा कार्बनिक पदार्थ का अपघटन तीव्र गति से होने से अगली फसल को पोषक तत्त्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है.

* रबी फसलों में इस्तेमाल किए गए कीटनाशकों व खरपतवारनाशकों का असर जमीन में गहराई तक हो जाता है. ग्रीष्मकालीन जुताई कर देने से तेज धूप से ये जहरीले रसायन विघटित हो जाते हैं, जिस से खेत में उन का प्रभाव खत्म हो जाता है.

* खेत में इस्तेमाल किए गए रासायनिक उर्वरकों का अधिकतम हिस्सा अघुलनशील हालत में खेत में पड़ा रह जाता है, जो धीरेधीरे खेत को बंजर बनाता है. गरमी की जुताई से सूरज की तेज धूप से ये रसायन विघटित हो कर घुलनशील उर्वरकों में बदल जाते हैं और अगली फसल को पोषण देते हैं.

* मिट्टी के पलट जाने से जलवायु का प्रभाव सुचारू रूप से मिट्टी में होने वाली प्रतिक्रियाओं पर पड़ता है और हवा व सूरज की रोशनी की सहायता से मिट्टी में विद्यमान खनिज अधिक सुगमता से पौधे के भोजन में बदल जाते हैं.

कीट और रोग नियंत्रण में सहायक

* ग्रीष्मकालीन जुताई कीट और रोग नियंत्रण में सहायक है. हानिकारक कीड़े व रोगों के रोगकारक भूमि की सतह पर आ जाते हैं और तेज धूप से नष्ट हो जाते हैं.

* पौधों के परजीवी निमेटोड बड़ेछोटे जीव हैं, जो सर्वव्यापी हैं और मिट्टी में रह कर हर आने वाली फसल को नुकसान पहुंचाते हैं और कभीकभी पूरी फसल नष्ट हो जाती है. गरमी की गहरी जुताई और फसल

चक्र इन के प्रबंधन की 2 मुख्य विधियां हैं.

* ग्रीष्मकालीन जुताई मिट्टी में जीवाणु की सक्रियता बढ़ाती है और यह दलहनी फसलों के लिए ज्यादा उपयोगी है.

* ग्रीष्मकालीन जुताई खरपतवार नियंत्रण में भी मददगार है. खरपतवारों के बीज गरमी और धूप से नष्ट हो जाते हैं.

* ग्रीष्मकालीन जुताई करने से बरसात के पानी द्वारा खेत की मिट्टी के कटाव में भारी कमी होती है यानी अनुसंधान के नतीजों में यह पाया गया है कि गरमी की जुताई करने से भूमि के कटाव में 66.5 फीसदी तक की कमी आती है.

* ग्रीष्मकालीन जुताई से गोबर की खाद और दूसरे कार्बनिक पदार्थ जमीन में अच्छी तरह मिल जाते हैं, जिस से पोषक तत्त्व शीघ्र ही फसलों को उपलब्ध हो जाते हैं.

* खेत में ढलान के आरपार जुताई करने से ढलान की निरंतरता में रुकावट आती है, जिस से वर्षा जल से मृदा कटाव नहीं होता. साथ ही, जुताई के बाद मिट्टी के मोटेमोटे ढेलों के रूप में होने से हवा द्वारा कटाव भी नहीं होता है.

इस का मतलब यह कि खरीफ फसलों के उत्पादन में गरमियों की जुताई सब से अहम होती है. जुताई का समय रबी फसल कटाई के फौरन बाद से ले कर मई महीने के आखिरी हफ्ते तक सही माना गया है. तय अवधि में जुताई करने पर फसलों की पैदावार बढ़ सकती है.

जैविक खेती से सुधरे जमीन की सेहत

हरित क्रांति के बाद उत्पादन बढ़ाने के लिए कैमिकल खादों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया गया. इस से उत्पादन तो बढ़ा, पर प्राकृतिक असंतुलन भी बढ़ता चला गया. पेड़पौधों के साथसाथ इनसानों में भी तरहतरह की बीमारियां पनपने लगी हैं, मिट्टी ऊसर होती जा रही है और खेती से उपजने वाली चीजों की क्वालिटी भी खराब हो रही है. ऐसी स्थिति में जैविक खेती का महत्त्व और भी बढ़ जाता है.

खेती की ऐसी प्रक्रिया जिस में उत्पादन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले निवेशों के आधार पर जीव अंश से उत्पादित हो और पशु, इनसान और जमीन की सेहत को टिकाऊ बनाते हुए स्वच्छता के साथ पर्यावरण को भी पोषित करे, जैविक खेती कही जाएगी.

यानी जैविक खेती एक ऐसा तरीका है, जिस में कैमिकल खादों, कीटनाशकों और खरपतवारनाशियों के बजाय जीवांश खाद पोषक तत्त्वों (गोबर की खाद, कंपोस्ट, हरी खाद, जीवाणु कल्चर, जैविक खाद वगैरह) जैवनाशियों (बायोपैस्टीसाइड) व बायोएजेंट जैसे क्राईसोपा वगैरह का इस्तेमाल किया जाता है, जिस से न केवल जमीन की उपजाऊ कूवत लंबे समय तक बनी रहती है, बल्कि पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होता. साथ ही, खेती की लागत घटने व उत्पाद की क्वालिटी बढ़ने से किसानों को ज्यादा फायदा भी मिलता है.

जैविक खेती को अपनाने के लिए पशुपालन को बढ़ावा देना होगा. अगर हमारा पशुधन अच्छा, स्वस्थ और अधिक नहीं है तो जैविक खेती संभव नहीं है. जैविक खेती में देशी खादें जैसे गोबर की खाद, नाडेप कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट व हरी खादों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए.

जैविक खेती की प्रक्रिया :

जैविक खेती के लिए हमेशा गरमी में जुताई करना, उस के बाद उस में हरी खाद की बोआई करना जरूरी रहता है. खेत की तैयारी पशुओं द्वारा पशुचालित यंत्रों से करनी चाहिए.

जैविक उर्वरक प्रयोग विधि

बीज का उपचार : 200 ग्राम नाइट्रोजन स्थरीकरण के लिए (एजोटोबैक्टर/ राइजोबियम) जैव उर्वरक और 200 ग्राम पीएसबी जैव उर्वरक 300 से 400 मिलीलिटर पानी में अच्छी तरह मिला लें. इस?घोल में 50 ग्राम गुड़ भी घोल लेते हैं, ताकि बीजों पर घोल अच्छी तरह से चिपक जाए.

इस घोल को 10-12 किलोग्राम बीज पर डाल कर हाथ से तब तक मिलाएं, जब तक कि सभी बीजों पर एकसमान परत न चढ़ जाए. अब इन बीजों को छायादार और हवादार जगह पर सूखने के लिए रख दें.

अम्लीय या क्षारीय मिट्टी वाली जमीन के लिए किसानों को यह सलाह दी जाती है कि जैव आधारित बीजों को 1 किलोग्राम बुझा चूना अम्लीय मिट्टी में या जिप्सम पाउडर क्षारीय मिट्टी द्वारा उपचारित करें.

जड़ का उपचार :

1 किलोग्राम से 2 किलोग्राम नाइट्रोजन स्थरीकरण जैव उर्वरक (एजोटोबैक्टर/एजोस्पाइरिलम) और पीएसबी जैव उर्वरक को सही पानी (5-10 लिटर या 1 एकड़ में लगाई जाने वाली पौध की मात्रानुसार) का घोल बनाएं. बाद में रोपाई की जाने वाली पौध की जड़ों को इस घोल में 20-30 मिनट तक रोपाई करने से पहले डुबो कर रखें.

धान की रोपाई के लिए खेत में एक क्यारी (2 मीटर×1.5 मीटर×0.15 मीटर) बनाएं. इस क्यारी को 5 सैंटीमीटर तक पानी से भर दें और इस में 2 किलोग्राम एजोस्पाइरिलम और 2 किलोग्राम पीएसबी डाल कर धीरेधीरे मिलाएं. इस के बाद रोपे जाने वाले पौधों की जड़ों को 8-10 घंटे के लिए डुबो कर रख दें और रोपाई करें.

मिट्टी का उपचार :

2-4 किलोग्राम एजोटोबैक्टर या एजोस्पाइरिलम और 2-4 किलोग्राम पीएसबी 1 एकड़ के लिए सही है. इन दोनों तरह के जैव उर्वरकों को 2-4 लिटर पानी में अलगअलग मिला कर 50-100 किलोग्राम कंपोस्ट के अलगअलग ढेर बना कर उन पर छिड़काव करें और दोनो ढेरों को अलगअलग मिला कर पूरी रात के लिए छोड़ दें. 12 घंटे बाद दोनों ढेरों को आपस में अच्छी तरह मिला लें.

अम्लीय मिट्टी के लिए 25 किलोग्राम बुझा चूना इस ढेर के साथ मिला लें. फल वृक्षों के लिए हर जड़ के पास खुरपी की मदद से इस मिश्रण को पेड़ के चारों ओर डाल दें. बोई जाने वाली फसलों के लिए पूरे खेत में बोआई से पहले इस मिश्रण को अच्छी तरह छिड़क दें और यह काम शाम के समय जब गरमी कम हो, तब करें.

बोआई के लिए यथासंभव जैविक बीज का इस्तेमाल करते हुए जैविक विधि या जैव उर्वरकों से बीज शोधन कर के बीज की बोआई पशुचालित यंत्र जैसे बैलचालित सीड ड्रिल या नाई चोंगा वगैरह से करना चाहिए. गोमूत्र, बीजामृत, दही वगैरह से भी बीज शोधन कर सकते हैं.

खाद :

जैविक खेती अपनाने के लिए गोबर की खाद का इस्तेमाल करना चाहिए. गोबर की खाद सड़ी होनी चाहिए. यदि खेत में कच्चा गोबर डाल देते हैं तो उस से फायदे की अपेक्षा नुकसान हो जाता है. इस से खेतों में दीमक का प्रकोप बढ़ जाता . गोबर की सड़ी खाद को फसल बोने से पहले आखिरी जुताई के समय मिट्टी में मिला देनी चाहिए.

पोषक तत्त्वों की पूर्ति के लिए जीवांशों से बनी खाद का इस्तेमाल करना चाहिए. जैसे मलमूत्र, खून, हड्डी, चमड़ा, सींग, फसल अवशेष, खरपतवार से बनने वाली खादें या वर्मी कंपोस्ट, नाडेप कंपोस्ट, काउपैट पिट कंपोस्ट वगैरह का इस्तेमाल करना चाहिए और जैव उर्वरकों से जमीन का शोधन जरूर करना चाहिए.

सिंचाई और खरपतवार नियंत्रण :

पशुचालित यंत्रों जैसे बैलचालित सैंट्रीफ्यूगल पंप, सोलर पंप, नहर वगैरह से सिंचाई करनी चाहिए. खरपतवार पर नियंत्रण हाथ से निराईगुड़ाई कर के या पशु या इनसान से चलने वाले यंत्रों का इस्तेमाल कर के करनी चाहिए.

कीटों से हिफाजत :

कीटों से हिफाजत के लिए गोमूत्र, नीम, धतूरा, लहसुन, मदार, मिर्च, अदरक वगैरह से बनने वाले कीटनाशकों या जैविक कीटनाशियों जैसे ट्राइकोग्राम कार्ड, बावेरिया बेसियाना, बीटी, एनपीवी वायरस, मित्र कीट, फैरोमौन ट्रैप व पक्षियों को बुलाने वगैरह एकीकृतनाशी जीव प्रबंधन की विधियां अपना कर करनी चाहिए.

रोगों से रक्षा :

रोगों से रक्षा के लिए ट्राइकोडर्मा द्वारा जैविक बीज शोधन करना चाहिए. जमीन शोधन के लिए माइकोराजा, वैसिलस, स्यूडोमोनास वगैरह जैविक रोग नियंत्रकों का इस्तेमाल करना चाहिए और नियमित निगरानी के साथ खेत की मेंड़ों को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए.

कटाई, मड़ाई और भंडारण :

फसल की कटाई, मड़ाई इनसान या बैलचालित यंत्रों का इस्तेमाल कर के करनी चाहिए और इन्हीं का इस्तेमाल कर के उत्पादों को खलिहान तक लाने व ले जाने के लिए और दूसरे परिवहन के लिए करना चाहिए.

भंडारण के लिए अनाज को खूब अच्छी तरह सुखा कर नीम की पत्ती या नमक या राख वगैरह मिला कर साफ जगह पर या भूसा वगैरह में भंडारित करना चाहिए.

फसलचक्र और बहुफसल प्रणाली :

फसल चक्र सिद्धांत का इस्तेमाल करने से फसलों में रोग व कीड़े कम लगते हैं और जमीन की उर्वरता बनी रहती है. साथ ही, पोषक तत्त्वों का सही प्रबंधन और उपयोग होता है.

जैसे उथली जड़ वाली फसलों के बाद गहरी जड़ वाली फसलें मटर, गेहूं के बाद अरहर, सरसों वगैरह.

अधिक खाद के बाद कम खाद लेने वाली फसलें जैसे आलू के बाद प्याज, गन्ना के बाद जौ वगैरह.

फलदार के बाद बिना फलीदार फसलें जैसे मूंग के बाद गेहूं, मटर के बाद धान वगैरह.

अधिक निराईगुड़ाई करने के बाद कम निराईगुड़ाई वाली फसलें जैसे मक्का के बाद जौ, चना वगैरह.

मिश्रित फसलोत्पादन जैविक खेती का मूल आधार है. इस में कई तरह की फसलों को एकसाथ मिश्रित रूप में या अलगअलग समय पर एक ही जमीन पर बोया जाता है.

हर मौसम में ध्यान रखना होगा कि दलहनी फसलें तकरीबन 40 फीसदी में बोई जाएं. मिश्रित फसलोत्पादन से न केवल बेहतर प्रकाश संश्लेषण होता है, बल्कि विभिन्न पौधों के बीच पोषक तत्त्वों के लिए होने वाली मांग को भी नियंत्रित किया जा सकता है.

नोट : उपरोक्त विधियां जैविक खेती की वास्तविक प्रक्रिया हैं, लेकिन किसान को तुरंत इस तरह से जैविक खेती करने में समस्या आ सकती है. इसलिए जुताई, बोआई, सिंचाई, परिवहन, कटाई, मड़ाई वगैरह में पशुचालित यंत्रों की जगह किसान डीजल से चलने वाले यंत्र या बिजली से चलने वाले यंत्रों का इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन किसी भी तरह कैमिकल दवा का सीधा इस्तेमाल फसल पर या उत्पादित उत्पाद पर नहीं करना चाहिए. जैविक खेती टिकाऊ खेती का आधार है, पर यह पशुपालन पर आश्रित है.

जैविक खेती से लाभ

*           जमीन की सेहत सुधरती है.

*           पशु, इनसान और लाभदायक सूक्ष्म जीवों की सेहत सुधरती है.

*           पर्यावरण प्रदूषण कम होता है.

*           पशुपालन को बढ़ावा मिलता है.

*           टिकाऊ खेती का आधार बनता है.

*           गांव, कृषि और किसान की पराधीनता कम होती है, जिस से वे स्वावलंबी बनते हैं.

*           उत्पादों का स्वाद और गुणवत्ता बढ़ती है

*           पानी की खपत कम होती है.

*           रोजगार में बढ़ोतरी होती है और पशु और इनसानी मेहनत का उपयोग बढ़ता है.

*           रसायनों का दुष्प्रभाव पशु, पक्षी, इनसान, जमीन, जल, हवा वगैरह पर कम होता है.

वैज्ञानिक तरीके से तैयार करें मिर्च की पौधशाला

मिर्च की खेती बरसात में जुलाई से अक्तूबर तक, सर्दी में सितंबर से जनवरी माह तक और जायद मौसम में फरवरी से जून माह तक की जाती है. मिर्च को सुखा कर बेचने के लिए सर्दी के मौसम की मिर्च का इस्तेमाल होता है.

मिर्च की खासीयत यह है कि यदि पौध अवस्था में ही इस की देखभाल ठीक से कर ली जाए तो अच्छा उत्पादन मिलने में कोई शंका नहीं होती है. भरपूर सिंचाई समयानुसार करने से ज्यादा फायदा लिया जा सकता है.

टपक सिंचाई अपनाने से मिर्च की फसल से दोगुनी उपज हासिल की जा सकती है. टपक सिंचाई से 50-60 फीसदी जल की बचत होती है और खरपतवार से नजात मिल जाती है.

पौधशाला के लिए जगह का चुनाव

* पौधशाला के आसपास बहुत बड़े पेड़ नहीं होने चाहिए.

* जमीन उपजाऊ, दोमट, खरपतवार से रहित व अच्छे जल निकास वाली हो, अम्लीय क्षारीय जमीन का चयन न करें.

* पौधशाला में लंबे समय तक धूप रहती हो.

* पौधशाला के पास सिंचाई की सुविधा मौजूद हो.

* चुना हुआ क्षेत्र ऊंचा हो ताकि वहां पानी न ठहरे.

* एक फसल के पौध लगाने के बाद दूसरी बार पौध उगाने की जगह बदल दें यानी फसलचक्र अपनाएं.

क्यारियों की तैयारी व उपचार

पौधशाला की मिट्टी की एक बार गहरी जुताई करें या फिर फावड़े की मदद से खुदाई करें. खुदाई करने के बाद ढेले फोड़ कर गुड़ाई कर के मिट्टी को भुरभुरी बना लें और उगे हुए सभी खरपतवार निकाल दें. फिर सही आकार की क्यारियां बनाएं. इन क्यारियों में प्रति वर्गमीटर की दर से 2 किलोग्राम गोबर या कंपोस्ट की सड़ी खाद मिलाएं.

मिट्टी का उपचार

जमीन में विभिन्न प्रकार के कीडे़ और रोगों के फफूंद जीवाणु वगैरह पहले से रहते हैं, जो मुनासिब वातावरण पा कर क्रियाशील हो जाते हैं व आगे चल कर फसल को विभिन्न अवस्थाओं में नुकसान पहुंचाते हैं. लिहाजा, नर्सरी की मिट्टी का उपचार करना जरूरी है.

सूर्यताप से उपचार

इस विधि में पौधशाला में क्यारी बना कर उस की जुताईगुड़ाई कर के हलकी सिंचाई कर दी जाती है, जिस से मिट्टी गीली हो जाए. अब इस मिट्टी को पारदर्शी 200-300 गेज मोटाई की पौलीथिन की चादर से ढक कर किनारों को मिट्टी या ईंट से दबा दें ताकि पौलीथिन के अंदर बाहरी हवा न पहुंचे और अंदर की हवा बाहर न निकल सके. ऐसा उपचार तकरीबन 4-5 हफ्ते तक करें. यह काम 15 अप्रैल से 15 जून तक किया जा सकता है.

उपचार के बाद पौलीथिन शीट हटा कर खेत तैयार कर के बीज बोएं. सूर्यताप उपचार से भूमिजनित रोग कारक जैसे फफूंदी, निमेटोड, कीट व खरपतवार वगैरह की संख्या में भारी कमी हो जाती है.

रसायनों द्वारा जमीन उपचार

बोआई के 4-5 दिन पहले ही क्यारी को फोरेट 10 जी 1 ग्राम या क्लोरोपायरीफास 5 मिलीलिटर पानी के हिसाब से या कार्बोफ्यूरान 5 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से जमीन में मिला कर उपचार करते हैं. कभीकभी फफूंदीनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिला कर भी जमीन को सही किया जा सकता है.

जैविक विधि द्वारा उपचार क्यारी की जमीन का जैविक विधि से उपचार करने के लिए ट्राइकोडर्मा विरडी की 8 से 10 ग्राम मात्रा को 10 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर क्यारी में बिखेर देते हैं. इस के बाद सिंचाई कर देते हैं. जब खेत का जैविक विधि से उपचार करें, तब अन्य किसी रसायन का इस्तेमाल न करें.

बीज खरीदने में बरतें सावधानी

* बीज अच्छी किस्म का शुद्ध व साफ होना चाहिए, अंकुरण कूवत 80-85 फीसदी हो.

* बीज किसी प्रमाणित संस्था, शासकीय बीज विक्रय केंद्र, अनुसंधान केंद्र या विश्वसनीय विक्रेता से ही लेना चाहिए. बीज प्रमाणिकता का टैग लगा पैकेट खरीदें.

* बीज खरीदते समय पैकेट पर लिखी किस्म, उत्पादन वर्ष, अंकुरण फीसदी, बीज उपचार वगैरह जरूर देख लें ताकि पुराने बीजों से बचा जा सके. बीज बोते समय ही पैकेट खोलें.

बीजों का उपचार : बीज हमेशा उपचारित कर के ही बोने चाहिए ताकि बीजजनित फफूंद से फैलने वाले रोगों को काबू किया जा सके. बीज उपचार के लिए 1.5 ग्राम थाइरम, 1.5 ग्राम कार्बंडाजिम या 2.5 ग्राम डाइथेन एम 45 या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी का प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए.

यदि क्यारी की जमीन का उपचार जैविक विधि (ट्राइकोडर्मा) से किया गया है, तो बीजोपचार भी ट्राइकोडर्मा विरडी से ही करें.

बीज बोने की विधि : क्यारियों में उस की चौड़ाई के समानांतर 7-10 सैंटीमीटर की दूरी पर 1 सैंटीमीटर गहरी लाइनें बना लें और उन्हीं लाइनों पर तकरीबन 1 सैंटीमीटर के अंतराल से बीज बोएं.

क्यारियों को पलवार से ढकना : बीज बोने के बाद क्यारी को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पुआल, सरकंडों, गन्ने के सूखे पत्तों या ज्वारमक्का के बने टटियों से ढक देते हैं ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे और सिंचाई करने पर पानी सीधे ढके हुए बीजों पर न पड़े, वरना मिश्रण बीज से हट जाएगा और बीज का अंकुरण प्रभावित होगा.

सिंचाई : क्यारियों में बीज बोने के बाद 5-6 दिनों तक हलकी सिंचाई करें ताकि बीज ज्यादा पानी से बैठ न जाए. बरसात में क्यारी की नालियों में मौजूद ज्यादा पानी को पौधशाला से बाहर निकालना चाहिए.

क्यारियों से घासफूस तब हटाएं, जब तकरीबन 50 फीसदी बीजों का अंकुरण हो चुका हो. बोआई के बाद यह अवस्था मिर्च में 7-8 दिनों बाद, टमाटर में 6-7 दिनों बाद व बैगन में 5-6 दिनों बाद आती है.

खरपतवार नियंत्रण : क्यारियों में उपचार के बाद भी यदि खरपतवार उगते?हैं, तो समयसमय पर उन्हें हाथ से निकालते रहना चाहिए. इस के लिए पतली और लंबी डंडियों की भी मदद ली जा सकती है.

बेहतर रहेगा, अगर पेंडीमिथेलिन की 3 मिलीलिटर मात्रा को प्रति लिटर पानी में घोल कर बोआई के 48 घंटे के भीतर क्यारियों में अच्छी तरह छिड़क दें.

पौध विगलन : अगर क्यारियों में पौधे अधिक घने उग आए हैं तो उन को 1-2 सैंटीमीटर की दूरी पर छोड़ते हुए दूसरे पौधों को छोटी उम्र में ही उखाड़ देना चाहिए, वरना पौधों के तने पतले व कमजोर बने रहते हैं.

वैसे, घने पौधे पदगलन रोग लगने की संभावना बढ़ाते हैं. उखाड़े गए पौधे खाली जगह पर रोपे जा सकते हैं.

पौध सुरक्षा: पौधशाला में रस चूसने वाले कीट जैसे माहू, जैसिड, सफेद मक्खी व थ्रिप्स से काफी नुकसान पहुंचता है. विषाणु अन्य बीमारियों को फैलाते?हैं, लिहाजा इन के नियंत्रण के लिए नीम का तेल 5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में या डाईमिथोएट (रोगोर) 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर बोआई के 8-10 दिनों बाद और 25-27 दिनों बाद दोबारा छिड़कना चाहिए.

क्यारी और बीजोपचार करने के बाद भी अगर पदगलन बीमारी लगती है (जिस में पौधे जमीन की सतह से गल कर गिरने लगते हैं और सूख जाते हैं), तो फसल पर मैंकोजेब या कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

पौधे उखाड़ना : क्यारी में तैयार पौधे जब 25-30 दिनों के हो जाएं और उन की ऊंचाई 10-12 सैंटीमीटर की हो जाए या उन में 5-6 पत्तियां आ जाएं, तब उन्हें पौधशाला से खेत में रोपने के लिए निकालना चाहिए.

क्यारी से पौध निकालने से पहले उन की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. सावधानी से पौधे निकालने के बाद 50 या 100 पौधों के बंडल बना लें.

पौधों का रोपाई से पहले उपचार : पौधशाला से निकाले गए पौध समूह या रोपी गई जड़ों को कार्बंडाजिम बाविस्टीन 10 ग्राम प्रति लिटर पानी में बने घोल में 10 मिनट तक डुबोना चाहिए, रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई जरूर करें.

गरमी के मौसम में कतार से कतार की दूरी 45 सैंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 30 सैंटीमीटर और बरसात में कतार से कतार की दूरी 60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 सैंटीमीटर रखें.

अनोखा ‘नेचुरल ग्रीन हाउस’ खेती का ‘गेम चेंजर’

बस्तर, कोंडागांव के प्रयोगधर्मी किसान वैज्ञानिक डा. राजाराम त्रिपाठी को हाल ही में देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के हाथों देश का सर्वश्रेष्ठ किसान अवार्ड दिया गया. वैसे तो उन्हें अब तक सैकड़ों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं, किंतु यह प्रतिष्ठित सम्मान उन्हें इसी बहुचर्चित डेढ़ लाख रुपए में तैयार एक एकड़ के ‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ में आस्ट्रेलियन टीक (AT) के पेड़ों पर काली मिर्च (BP) की लताएं चढ़ा कर एक एकड़ से वर्टिकल फार्मिंग के जरीए 50 एकड़ तक का उत्पादन लेने के सफल प्रयोग हेतु प्रदान किया गया.

क्या फर्क है सस्ते “नेचुरल ग्रीनहाउस” और वर्तमान ‘हाईटैक पौलीहाउस’ में

पराबैंगनी किरणों से बचाव

पौलीहाउस : यह पराबैंगनी किरणों से ऊपर लगाई गई पौलीथीन शीट की क्षमता के अनुसार एक हद तक बचाव करता है.

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस की हरी छतरी भी इस में लगी फसलों का पराबैंगनी किरणों से प्रभावी और जरूरी बचाव करने में भलीभांति सक्षम है.

धूप से बचाव

पौलीहाउस : इस हाउस में लगाई गई फिल्म की क्षमता के अनुसार यह धूप से जरूरी 60 फीसदी या 70 फीसदी तक बचाव करता है, जिस से पौधों को प्रकाश संश्लेषण के लिए ज्यादा समय मिलता है, और इस से ज्यादा उत्पादन मिलता है.

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस में भी 60 से 70 फीसदी तक वृक्षों से नैसर्गिक छाया मिलती है. यह छाया सूर्य की गति के अनुसार चलायमान रहती है, जिस से प्रकाश संश्लेषण के लिए ज्यादा समय मिलता है और उत्पादन भी ज्यादा प्राप्त होता है.

गर्मी तथा सर्दी, ओला, बारिश से बचाव

पौलीहाउस : इस हाउस में ओलाबारिश से तो बचाव होता ही है, साथ ही एक सीमा तक तापमान को भी नियंत्रित रखा जा सकता है, पर इस काम में नियमित रूप से महंगी बिजली का खर्चा होता है, सोलर लगाने पर सोलर का भी एकमुश्त खर्चा भी बहुत ज्यादा बैठता है. तेज हवा या तूफान में इस के पूरी तरह नष्ट होने की सदैव आशंका बनी रहती है.

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस में भीतर के तापमान और बाह्य वातावरण से 4 डिगरी तक का अंतर रहता है यानी गरमी में ठंडा और ठंडी में उष्ण रहता है, जिस से लगभग सभी सामान्य फसलें गरमी और सर्दी, बरसात तीनों ऋतु में भलीभांति ली जा सकती है. तेज हवातूफान में भी इन में कभी भी 2 फीसदी से ज्यादा क्षति नहीं देखी गई है.

हानिकारक कीटपतंगों व बीमारियों से बचाव

पौलीहाउस : पौलीहाउस चारों ओर से बंद होने के कारण बाहर से आने वाली बीमारियों और कीटपतंगों से भीतर की फसल की रक्षा करता है, पर इस से पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता समाप्त हो जाती है और उत्पादन की गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है।

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस में ‘नैसर्गिक समेकित रक्षा प्रणाली‌’ का उपयोग होता है. इस से फसलें बीमारियोंऔर कीटपतंगों से अपना प्रभावी बचाव भलीभांति कर लेती है. नैसर्गिक प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होती है और मिलने वाले उत्पादन की गुणवत्ता की बेहतरीन होती है.

नमी की रक्षा

पौलीहाउस : पौलीहाउस में यांत्रिक विधि से नमी का प्रभावी नियंत्रण भलीभांति किया जा सकता है. किंतु कूलर, एग्जास्ट आदि उपकरणों में बिजली का नियमित व्यय होता है.

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस में प्रति एकड़ लगे 700-800 पौधों से निकलने वाली नमी को पेड़ों की हरी दीवार के जरीए और ऊपर पेड़ों की पत्तियों की तनी कैनोपी के जरिए संरक्षित होती है. साथ ही, पेड़ों से नियमित गिरने वाली पत्तियों की परत भी भूमि की बहुमूल्य नमी को भी तेजी से विमुक्त होने से रोकती है.

सिंचाई :

पौलीहाउस : पौलीहाउस में ‘हाईटैक इरीगेशन’ पद्धतियां अपनाना अनिवार्यता होती है, जिस पर काफी खर्च आता है और इन के नियमित रखरखाव पर भी नियमित रूप से खर्चा होता है.

नेचुरल ग्रीन हाउस : इस में सिंचाई की परंपरागत पद्धतियां जैसे कि नाली विधि अथवा क्यारी विधि द्वारा या फिर ड्रिप सिस्टम, स्प्रिंकलर या माइक्रो स्प्रिंकलर आदि में से किसी का भी प्रयोग अपनी अंतर्वरती फसलों की आवश्यकता के आधार पर उपयोग कर सकते हैं और इस में लगने वाली परंपरागत सिंचाई पद्धतियों को विशेष तकनीकी देखभाल की आवश्यकता नहीं होती और कोई विशेष नियमित खर्च भी नहीं होता.

‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ से मिलने वाले कुछ अतिरिक्त विशिष्ट फायदे

– “नेचुरल ग्रीनहाउस” में लगाए गए विशेष प्रकार के पेड़ों की जड़ों में नियमित नाइट्रोजन फिक्सेशन के द्वारा और पेड़ों की गिरी हुई पत्तियों कंपोस्टीकरण के द्वारा जरूरी पर्याप्त मात्रा में बेहतरीन गुणवत्ता की जैविक खाद, किसी अतिरिक्त खर्च के हमें प्राप्त हो जाती है, जबकि “पौलीहाउस” हमें हर बार रासायनिक खाद अथवा जैविक खाद बाजार से खरीद कर डालना होता है.

– “नेचुरल ग्रीनहाउस” में पेड़ों पर बसेरा करने वाली चिड़ियों के जरीए कीटपतंगों पर सक्षम नियंत्रण तो होता ही है, साथ ही उन की बीट से बहुपयोगी माइक्रोन्यूट्रिएंट भी भूमि को नियमित रूप से प्राप्त होता है, जबकि पाली हाउस पर हमें कीटनाशक दवाओं एवं माइक्रोन्यूट्रिएंट्स खरीद कर डालने होते हैं.

– “नेचुरल ग्रीनहाउस” के पेड़ों के तने के जरीए बारिश का पानी धरती में धीरेधीरे समा जाता है और इस तरह नियमित रूप से वाटर हार्वेस्टिंग होती है और धरती का जलस्तर भी ऊपर आ जाता है, जबकि पौलीहाउस में स्वत: वाटर हार्वेस्टिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती.

– नेचुरल ग्रीनहाउस बहुत टिकाऊ होता है. गरमी, सर्दी, ओला, तेज बारिश से या अपनी रक्षा तो करता ही है, साथ ही फसल की भी रक्षा करता है. हर 10 साल में जरूरी कटाईछटाई के साथ 25-30 सालों तक इस का लाभ उठाया जा सकता है, जबकि पौलीहाउस की फिल्मों और फिक्सचर्स की अधिकतम आयु 7-8 साल ही होती है. कई बार तो तेज हवा, तूफान में पहले साल ही इस की पालीथीन फट जाती है और पूरा बहुमूल्य ढांचा तहसनहस हो जाता है.

– पौलीहाउस तकरीबन 10 साल बाद कबाड़ में बदल जाता है, जबकि नैसर्गिक ग्रीनहाउस 10 साल बाद भी करोड़ों रुपयों की बहुमूल्य लकड़ी देता है.

– पौलीहाउस में 10-12 फीट ऊंचाई तक ही वर्टिकल फार्मिंग के जरीए आमदनी बढ़ाई जा सकती है, जबकि नेचुरल ग्रीन हाउस आस्ट्रेलियन टीक के पेड़ों पर 70-80 फीट की ऊंचाई तक काली मिर्च के गुच्छे लदे रहते हैं.

इस तरह पौलीहाउस की तुलना में नेचुरल ग्रीनहाउस की आमदनी काफी ज्यादा बढ़ जाती है.

लागत : राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड के सरकारी मापदंडों के अनुसार, एक एकड़ में पौलीहाउस’ बनाने का खर्च लगभग 40 लाख रुपए होता है, जबकि नेचुरल ग्रीनहाउस में कुल एकमुश्त खर्च ज्यादा से ज्यादा एक से डेढ़ लाख रुपया ही बैठता है.

– यह पेड़ सालभर में लगभग 30 लाख रुपए की औक्सीजन देता है.

– इस के प्लांटेशन का कार्बन ट्रेडिंग का लाभ भी मिलता है.

– प्रतिवर्ष प्रति एकड़ लगभग 2 लाख रुपए की बेहतरीन जैविक खाद भी देता है.

“नेचुरल ग्रीनहाउस” मौडल को ले कर पूछे जाने वाले कुछ जरूरी सवालों के जवाब :

सवाल : इसे कैसी मिट्टी और कैसी जलवायु चाहिए? देश के किनकिन भागों में इस की खेती की जा सकती है?

जवाब : डा. राजाराम त्रिपाठी का मानना है कि केवल ऐसे क्षेत्र, जहां काफी बर्फबारी होती हो और ऐसे क्षेत्र, जो पूरी तरह से रेगिस्तान हों, वहां यह मौडल सफल नहीं हो पाएगा, बाकी भारत के शेष सभी हिस्सों में “नेचुरल ग्रीनहाउस” का यह मौडल पालीहाउस के सफल एवं सस्ते विकल्प के रूप में काम कर सकता है. यह कंकरीली, पथरीली और बंजर भूमि में भी सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है. इतना ही नहीं, यह बंजर भूमि को भी कुछ ही सालों में भरपूर उपजाऊ बना देता है.

उन का यह भी कहना है कि यह सफल मौडल इस समय कई राज्यों के प्रगतिशील किसानों द्वारा सफलतापूर्वक अपनाया जा चुका है.

सवाल : इस के लिए कितनी सिंचाई की जरूरत पड़ती है?

जवाब : वैसे तो यह प्लांटेशन बिना पानी के सूखी जमीन में भी वर्षा ऋतु की शुरुआत में लगाया जा सकता है, किंतु यदि थोड़ी सिंचाई की व्यवस्था रहे तो ज्यादा उत्पादन और अधिक फायदा लिया जा सकता है.

सवाल : यह आस्ट्रेलियन टीक (AT) क्या है? ‘एटीबीपी का कोंडागांव मौडल’ आखिर क्या है, और इस में काली मिर्च का क्या रोल है?

जवाब : मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म तथा रिसर्च सेंटर द्वारा विकसित व प्रवर्धित एकेशिया (Acacia) की विशेष प्रजाति है, जिसे विपणन की भाषा में प्रायः’ “आस्ट्रेलियन टीक'” कहा जाता है. इस के साथ आस्ट्रेलिया शब्द से जुड़ने का कारण शायद यह है कि आस्ट्रेलिया में इस का प्लांटेशन बड़ी मात्रा में किया जाता रहा है. दूसरा, इस की बहुमूल्य लकड़ी आस्ट्रेलिया से भारत आयात किए जाने के कारण भी हो सकता है.

बहरहाल, बेहतरीन लकड़ी देने वाली इस विशेष प्रजाति की कई विशेषताएं हैं, जैसे कि यह देश के सभी भागों में सभी तरह की जलवायु में बिना विशेष सिंचाई अथवा देखभाल के सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है. इस के बढ़ने की गति महोगनी, शीशम, टीक, मिलिया, डुबिया यहां तक कि नीलगिरी को भी पीछे छोड़ देती है. यह पेड़ 7 से 10 साल में ही काफी ऊंचा ही नहीं, बल्कि काफी मोटा भी हो जाता है. यह सागौन, महोगनी, शीशम जैसी बेहतरीन मजबूत, हलकी, खूबसूरत, टिकाऊ बहुमूल्य इमारती लकड़ी देता है. इस का एक फायदा यह भी है कि यह पेड़ वायुमंडल से नाइट्रोजन ले कर मिट्टी में स्थित राइजोबियम, जो कि मिट्टी का जीवाणु (बैक्टीरिया) है और नाइट्रोजन का योगिकीकरण कर मिट्टी में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करता है. इस प्रकार यह फसलों की नाइट्रोजन यानी ‘यूरिया’ की आवश्यकता को जैविक विधि से भलीभांति पूर्ति करता है. इसी आस्ट्रेलियन टीक और काली मिर्च की खेती को ही ‘एटीबीपी का कोंडागांव
मौडल’ कहा जाता है.

सवाल : इस के पौधे कहां मिलते हैं और इस की तकनीक कैसे मिलेगी, क्या तकनीक अथवा प्रशिक्षण का कोई चार्ज भी है?

जवाब : इस के पौधे “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म और रिसर्च सेंटर” से प्रशिक्षित “स्थानीय आदिवासी महिलाओं के समूह” के द्वारा किसानों के अग्रिम और्डर पर ही तैयार किया जाता है. इस मौडल को अपने खेतों में लगाने के लिए इच्छुक किसानों को पौधे देने के पूर्व खेतों पर विधिवत तकनीकी और व्यावहारिक जानकारी दी जाती है, जो कि पूरी तरह से निशुल्क होती है.

सवाल : इसे कम से कम कितने एरिया से शुरू किया जाना चाहिए?

जवाब : इस मौडल की खूबी यह है कि यह जितने बड़े क्षेत्रफल पर किया जाएगा, लागत उतनी ही कम होगी और लाभ भी अपेक्षाकृत ज्यादा होगा, क्योंकि एरिया बढ़ने से पेड़ों की संख्या भी बढ़ती है, और ज्यादा पेड़ों से और बेहतर माइक्रोक्लाइमेट तैयार होता है, जिस से उत्पादन में वृद्धि होती है. किंतु यदि जमीन अथवा लागत की कोई समस्या हो, तो न्यूनतम एक एकड़ पर भी किया जा सकता है.

सवाल : *इस एटीबीपी मौडल अथवा “नेचुरल ग्रीनहाउस” की प्रति एकड़ लागत कितनी है? और इस से सालाना आमदनी कितनी हो रही है? एक बार लगाने पर यह मौडल कितने सालों तक लाभ देगा?

जवाब : दरअसल “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सेंटर” कोंडागांव द्वारा विकसित विशेष तकनीक से आस्ट्रेलियन टीक और काली मिर्च का प्लांटेशन ही ‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ की तरह काम करता है.

वर्तमान तकनीक के पौलीथीन से कवर्ड और लोहे के फ्रेम वाले पौलीहाउस बनाने में एक एकड़ में तकरीबन 40 लाख रुपए का खर्च आता है, वहीं इस “प्राकृतिक ग्रीनहाउस” के बनाने में कुल मिला कर प्रति एकड़ केवल एक से डेढ़ लाख रुपए का ही खर्च आता है यानी डेढ़ लाख रुपए में पौलीहाउस से हर माने में बेहतर, ज्यादा टिकाऊ और शतप्रतिशत सफल ग्रीनहाउस तैयार हो जाता है.

सब से बड़ी बात यह है कि इस 40 लाख रुपए प्रति एकड़ में लोहे और प्लास्टिक से बनने वाले पौलीहाउस की आयु ज्यादा से ज्यादा 7 से 10 साल की होती है और फिर तो यह कबाड़ के भाव बिकता है, जबकि कोंडागांव मौडल के “नेचुरल ग्रीनहाउस” बिना किसी अतिरिक्त लागत के 10 साल में 2 करोड़ रुपए तक की बहुमूल्य इमारती लकड़ी मिल जाती है. साथ ही, प्रति एकड़ 5 लाख रुपए तक काली मिर्च से सालाना नियमित आमदनी भी मिलने लगती है. यह मौडल 25-30 सालों तक बड़े आराम से लाभ देता है.

इस मौडल से हर साल प्रति एकड़ लाखों रुपए की आमदनी के साथ ही अन्य महत्वपूर्ण फायदों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यही वजह है कि भारत जैसे देश के किसानों के लिए और देश के लिए भी एटीबीपी का यह ‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ मौडल आज “गेमचेंजर” माना जा रहा है.

किसान ‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ मौडल को देखनेसमझने कोंडागांव आ सकते हैं. किसानों के लिए “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म और रिसर्च सेंटर” भ्रमण निशुल्क है.

डा. राजाराम त्रिपाठी अपने सफलता के गुर को अन्य किसानों के साथ बांटने को सदैव तत्पर रहते हैं और उन के फार्म पर प्रतिदिन देश के विभिन्न भागों से और विदेशों से भी किसानों का आना लगा रहता है.

जो लोग वहां आना चाहते हैं, वे आने से पहले फोन नंबर 0771-2263433 (सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे के बीच) अथवा +91-9425265105 पर संपर्क कर आने का समय तय कर के ही आएं, ताकि भ्रमण कार्यक्रम का समुचित समन्वय और आप के लिए जरूरी मार्गदर्शन की अग्रिम व्यवस्था की जा सके.

किसान और अधिक जानकारी के लिए वैबसाइट www.mdhherbals.com और ईमेल mdhorganic@gmail.com के जरीए भी इन से संपर्क कर सकते हैं.

(नोट : उपरोक्त सभी तथ्य और आंकड़े मा दंतेश्वरी हर्बल फार्म पर निगत दो दशकों में किए गए सफल जमीनी प्रयोगों पर आधारित हैं.)

पशुपालकों को अब घर बैठे मिलेगी पशु इलाज की सुविधा

मध्य प्रदेश में अब पशुओं के इलाज के लिए औन काल एंबुलेंस सेवा शुरू हो गई है. मतलब, अब घर बैठे ही पशुपालक इस एंबुलेंस को अपने घर बुला सकेंगे. इस के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश को 406 पशु एंबुलेंस का तोहफा दिया है. हर एंबुलेंस में एक पशु चिकित्सक और सहायक उपलब्ध होंगे. आपात स्थिति में पशुओं के इलाज के लिए टोल फ्री नंबर 1962 जारी किया गया है. यह एंबुलेंस सेवा प्रदेश के हर हिस्से में मिलेगी.

बीमार पशु को अस्पताल तक ले जाना ही अपनेआप में एक बड़ी समस्या थी. लेकिन, अब इन एंबुलेंसके आने से पशु चिकित्सालय स्वयं पशुपालक के दरवाजे पर होगा. पशुपालक को केवल दिए गए टोल फ्री नंबर 1962 पर बात करनी होगी.

राज्य स्तरीय काल सेंटर से जुड़ी रहेंगी एंबुलेंस

पशु चिकित्सा एंबुलेंस केंद्र और राज्य शासन की संयुक्त योजना है. इस पर तकरीबन 77 करोड़ रुपए हर साल खर्च होंगे. इस में केंद्र और राज्य सरकार क्रमश: 60 और 40 फीसदी खर्च करेंगी. एंबुलेंस में पशु उपचार, शल्य चिकित्सा, कृत्रिम गर्भाधान, रोग परीक्षण की सुविधा रहेगी.

जरूरत पड़ने पर काल सेंटर के टोल फ्री नंबर 1962 पर फोन कर के पशुपालक अपने घर पर ही पशु चिकित्सा का लाभ उठा सकेंगे. एंबुलेस राज्य स्तरीय काल सेंटर से जुड़ी रहेंगी. एंबुलेंस की मौनिटरिंग जीपीएस के जरीए की जाएगी.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि प्रदेश में गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध लगाया गया है. गोहत्या करने वाले को 7 साल और अवैध परिवहन पर कारावास का प्रावधान है. गोवंश के अवैध परिवहन में लिप्त वाहनों को जब्त किया जाएगा.

गाय पालने वालों को मिलेगा फायदा

प्राकृतिक खेती में पशुओं का खासा किरदार है. गोमूत्र और गोबर से ही घनामृत और जीवामृत बनते हैं. प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को गाय पालने के लिए 900 रुपए प्रतिमाह दिए जाएंगे. इस माह 22,000 किसानों को योजना की किस्त जारी की जाएगी. जनजातीय भाईबहनों को गाय
पालने के लिए गाय खरीदने पर 90 फीसदी सब्सिडी उपलब्ध कराई जाएगी. गोबर, गोमूत्र सहित अन्य उत्पादों के व्यवसाय को लाभकारी बनाने के लिए भी राज्य सरकार प्रयासरत है.

गाय के गोबर से सीएनजी बनाने के प्रोजैक्ट पर जबलपुर में काम जारी है. प्रदेश में अलगअलग स्थानों पर गोवर्धन प्लांट लगा कर गोबर खरीदने की व्यवस्था की जाएगी, इस से सीएनजी निर्मित होगी.

गोशालाओं में बने पेंट को मिलेगा बढ़ावा

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि गोशालाओं में बनाए जाने वाले प्राकृतिक पेंट का उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायत लेवल के शासकीय भवनों में करने की नीति बनाई जाएगी. इस से गोबर और गोमूत्र के व्यवसाय को प्रोत्साहन मिलेगा. प्रदेश में 8 गोसदन और दो गोवंश वन्य विहार विकसित किए जाएंगे.

एंबुलेस संचालन का जिम्मा गोसेवक संस्था को सौंपा जाएगा. पंजीकृत गोशालाओं को बिजली के बिल की समस्या न आए और इस से गाय की सेवा में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो, इस के लिए उपयुक्त नीति बनाए जाएगी. गोशालाओं में भूसे की पर्याप्त व्यवस्था के लिए राशि का पुनर्निर्धारण किया जाएगा.

जिलों में अपर कलक्टर करेंगे गोशालाओं का प्रबंधन

प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि प्रदेश में हर ग्राम पंचायत में गोशाला के बजाय बड़ी गोशालाएं विकसित करने पर भी राज्य शासन विचार कर रहा है. गोशालाओं के सुचारु प्रबंधन के उद्देश्य से 4-5 ग्राम पंचायतों के लिए एक बड़ी गोशाला विकसित की जाएगी. प्राथमिक तौर पर प्रदेश में कुछ स्थानों पर मौडल के रूप में ऐसी गोशाला विकसित की जाएगी. इन गोशालाओं की व्यवस्था की जिम्मेदारी कोई संस्था ले सकती हैऔर संस्था को राज्य शासन द्वारा वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाएगी. जिन गोशालाओं के साथ जमीनें संलग्न हैं और उन जमीनों पर यदि अतिक्रमण है, तो उन्हें तत्काल अतिक्रमण मुक्त कराया जाएगा.

गोशालाओं की समस्याओं के त्वरित समाधान और उन के बेहतर प्रबंधन के लिए जिला स्तर पर अपर कलक्टर स्तर के अधिकारी को जिम्मेदारी सौंपी जाएगी.

काले मोतियों की उजली कहानी, बस्तर के जंगलों की जबानी

काले मोतियों की खेती कोंडागांव में धीरेधीरे परवान चढ़ रही है. तकरीबन 25 साल पहले यहां के स्वप्नद्रष्टा किसान वैज्ञानिक डा. राजाराम त्रिपाठी ने अपने खेत में जैविक और हर्बल खेती के जो नएनए प्रयोग शुरू किए थे, उन में से उन का एक सब से प्रमुख सपना था, छत्तीसगढ़ के लिए काली मिर्च की नई प्रजाति का विकास करना और उसे छत्तीसगढ़ के किसानों के खेतों पर और बचेखुचे जंगलों में सफल कर के दिखाना.

मेहनत ने दिखाया अपना रंग

कामयाबी की एक नई इबारत बस्तर के जंगलों में भी लिखी जा रही है. दरअसल, कुछ समय पूर्व डा. राजाराम त्रिपाठी “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म और रिसर्च सेंटर” इन की सहयोगी समाजसेवी संस्था संपदा ने प्रशासन और वन विभाग के सहयोग से व मार्गदर्शन में आसपास की कुछेक वन क्षेत्रों में भी प्रायोगिक रूप से साल के पेड़ों और अन्य प्रजाति के पेड़ों पर भी मां दंतेश्वरी हर्बल समूह द्वारा विकसित काली मिर्च की नई प्रजाति के पौधे लगाए थे. आज काली मिर्च की उन लताओं में फल आने लगे हैं.

बच्चों की मेहनत का नतीजा

गरमी की छुट्टियों में घर में खाली बैठे बच्चों ने निकट के जंगलों में पड़े उस काली मिर्च को इकट्ठा किया और ला कर आगे विपणन के लिए ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ में जमा किया. बच्चों द्वारा जेबखर्च के लिए इकट्ठा किए गए इस काली मिर्च को उन्हें ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ से 4000 रुपए तत्काल मिल गए हैं. इतना ही नहीं, यह काली मिर्च ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ के अन्य सदस्यों की काली मिर्च के साथ आगे अगर ज्यादा कीमत पर बिकेगी, तो इन नन्हे संग्रहकर्ताओं को इस का अतिरिक्त लाभांश भी मिलेगा. इस के लिए इन लोगों का नाम, पता, फोन नंबर आदि दर्ज कर लिए गए हैं. इस से बच्चों और उन के परिवार वालों दोनों का उत्साह बढ़ा है.

बच्चों के खिले चेहरे

बच्चों के साथ आए उन के परिजनों का कहना था कि बच्चों के द्वारा खेलखेल में इकट्ठा किए गए इस काली मिर्च से बच्चों के आने वाले साल की पढ़ाई, किताबों और नए कपड़ों के खर्चे की व्यवस्था हो गई है, इस से बच्चे और उन के मांबाप सभी बहुत खुश हैं.

जाहिर है कि इस से बच्चों को और अधिक काली मिर्च इकट्ठा करने की प्रेरणा मिलेगी और अब गांव के लोग भी ये हर साल अतिरिक्त आमदनी देने वाली काली मिर्च की लताएं, जिन पेड़ों पर चढ़ी हैं, उन पेड़ों को काटने से परहेज करेंगे और शायद इस से बस्तर, छत्तीसगढ़ का जंगल भी बच जाए.

मोटे अनाज और जैविक खेती अपनाएं किसान- साभा कुंवर कुशवाहा

कृषि एवं ग्रामीण विकास ट्रस्ट, मल्हनी, भाटपार रानी के तत्त्वावधान में 10 मार्च, 2023 को कृषि एवं ग्रामीण विकास पर एक गोष्ठी का आयोजन ट्रस्ट प्रक्षेत्र कार्यालय, लक्षमणपुर रोड, महुआवारी मेला (मल्हना) में किया गया.

इस गोष्ठी का उद्घाटन भाटपार रानी विधानसभा क्षेत्र के विधायक साभा कुंवर कुशवाहा द्वारा किया गया. अपने उद्धघाटन भाषण में उन्होंने मोटे अनाजों की खेती पर अपना अनुभव साझा किया और बताया कि ‘श्रीअन्न योजना’ सरकार द्वारा लागू की गई है, जिस में मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, मड़ुवा, सावा, टागुन और चीना की खेती किसान करें, क्योंकि ये सभी अनाज सेहत के लिए फायदेमंद हैं.

इस मौके पर मुख्य अतिथि ने ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित वित्तीय कलैंडर 2023-24 और राइटिंग पैड का विमोचन भी किया.

इस ट्रस्ट के निदेशक प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने अतिथियों का स्वागत करते हुए बताया कि ट्रस्ट के एक साल पूरा होने के मौके पर पहली वर्षगांठ मनाई जा रही है. यह ट्रस्ट फरवरी, 2022 में बनी थी, जिस का मुख्य उद्देश्य कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए सकारात्मक पहल करना, शिक्षा, कृषि शिक्षा, शोध, प्रसार एवं सामुदायिक विकास के उत्थान के लिए कार्य करना, प्राकृतिक, जैविक एवं टिकाऊ खेती को बढ़ावा देना, कृषि एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में विशेष परामर्श सेवा प्रदान करना, आवश्यकता आधारित प्रशिक्षण, कार्यशाला, संगोष्ठी, प्रक्षेत्र दिवस, किसान मेला एवं प्रदर्शनी का आयोजन करना तथा कृषक उत्पादक संगठन को बढावा देना है.

इस ट्रस्ट में अपने उद्देश्यों को ध्यान में रख कर कृषि एवं ग्रामीण विकास गोष्ठी का आयोजन किया गया है.

आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या की अधिष्ठाता परास्नातक अध्ययन प्रोफैसर सुमन प्रसाद मौर्य ने महिलाओं के सशक्तीकरण पर प्रकाश डाला और बताया कि उत्तर प्रदेश कृषि सयुंक्त प्रवेश परीक्षा, का फार्म निकला है. उसे www.nduat.org या https://upcatetexam.net पर देखा जा सकता है. आवेदन करने की अंतिम तिथि 20 अप्रैल, 2023 है. इस की प्रवेश परीक्षा 30-31मई, 2023 को होगी. जो छात्र/छात्राएं कृषि, विज्ञान से इंटर की परीक्षा दे चुके हैं या इंटर पास हैं, वे कृषि, उद्यान, कृषि अभियंत्रण, पशुचिकित्सा, मत्स्यपालन आदि में प्रवेश हेतु आवेदन कर सकते हैं. साथ ही सामुदायिक विज्ञान में किसान अपनी बच्चियों को पठनपाठन हेतु प्रेरित करें.

फार्मर्स फेस के प्रबंध निदेशक मोहन मुरारी सिंह ने जैविक, प्राकृतिक एवं टिकाऊ खेती पर प्रकाश डाला. कृषि विज्ञान केंद्र, मल्हना के प्रभारी अधिकारी डा. रजनीश श्रीवास्तव ने कृषक उत्पादक संगठन के गठन से लाभ की जानकारी दी. डा. विकास मौर्य ने फिजियोथैरेपी की जानकारी दी.

नूतन बीज भंडार, तरकुलहा के प्रबंधक राजबल्लभ कुशवाहा ने बीज उत्पादन पर जानकारी दी. इस कार्यक्रम में देवरिया जनपद के साथसाथ सीवान, गोपालगंज (बिहार) के 250 से अधिक किसानों, प्रसार कार्यकर्ताओं, अधिकारियों ने भाग लिया.

वरिष्ठ समाज सेवी, अध्यापक कृषकों को माला पहना कर और अंगवस्त्र भेंट कर सम्मानित किया गया. सभी आए कृषकों, अधिकारियों को वर्ष 2023-24 कलैंडर बांटे गए. सभी ने फलफूल, सब्जियों की खेती और मशरूम उत्पादन प्रक्षेत्र का अवलोकन किया.

पोषण वाटिका में पूरे साल सब्जियां

सब्जियां न केवल हमारे पोषण मूल्यों को बढ़ाती हैं, बल्कि शरीर को शक्ति, स्फूर्ति, वृद्धि और अनेक प्रकार के रोगों से बचाने के लिए महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्व जैसे कार्बोहाइडे्रट, प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिजलवण इत्यादि प्रदान करती हैं. भारतीय मैडिकल अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के अनुसार, प्रतिदिन प्रति व्यक्ति निम्न मात्रा (300 ग्राम) में सब्जी की आवश्यकता पड़ती है:

हरी पत्तेदार सब्जी 115 ग्राम, जड़/कंद वर्गीय सब्जी 115 ग्राम, अन्य सब्जी 70 ग्राम की जरूरत होती है.

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक परिवार अपनी पोषण वाटिका में सब्जी का उत्पादन कर सकता है, जिस से उसे ताजा, सुरक्षित एवं पोषण से भरपूर सब्जियां मिल सकें. प्राय: एक परिवार को पूरे साल सब्जियां प्राप्त करने के लिए 200 से 250 वर्गमीटर का क्षेत्रफल प्रयाप्त होता है. इस में छोटीछोटी क्यारियां बना कर उस में महंगी एवं परिवार की पसंद की सब्जियों का फसलचक्र अपनाया जा सकता है.

अगर एक जगह पर इतनी भूमि नहीं हो, तो बिखरी हुई वाटिका का निर्माण किया जा सकता है. इस प्रकार पोषण वाटिका में सब्जियों के साथसाथ फलदार वृक्ष जैसे पपीता, नीबू, अनार व अमरूद आदि के अलावा दूसरे फूल वाले पौधे भी लगाए जा सकते हैं. पोषण वाटिका से उत्पादित सब्जियों स्वादिष्ठ, ताजा, कीट व बीमारियों से मुक्त होती है.

किसी एक सब्जी की उपलब्धता का समय बढ़ाने के लिए जल्दी, मध्य व देर से पकने वाली किस्मों को उगाना चाहिए. फलदार वृक्षों जैसे नीबू, अमरूद, केला व अनार को एक तरफ लगाना चाहिए, ताकि क्यारियों की जुताई में बाधा न हो सके. अधिक पानी चाहने वाली सब्जियां (पालक, चोलाई) मुख्य नाली के पास लगानी चाहिए. सब्जियों को हमेशा जगह बदलबदल कर लगाएं, ताकि अधिक उत्पादन के साथसाथ कीट एवं बीमारियों का प्रकोप कम हो सके.

स्थान का चयन

घर का पिछला हिस्सा जहां धूप पर्याप्त मात्रा एवं काफी समय तक रहती हो, उत्तम होता है. इस बात का ध्यान देना चाहिए कि बड़े पेड़ की छाया सब्जियों की पैदावार को प्रभावित न करने पाए. इस के लिए 1 या 2 कंपोस्ट के गड्ढे छाया या कम महत्त्व वाली जगह में बनाने चाहिए. यदि पर्याप्त जगह हो, तो पपीता, नीबू, अंगूर, केला इत्यादि को उत्तर दिशा में लगाया जा सकता है.

आवश्यक  कृषि क्रियाएं
* बीजों/पौधों को हमेशा किसी विश्वसनीय संस्थानों जैसे कृषि विज्ञान केंद्र व अन्य से ही खरीदना चाहिए.
* गोबर की सड़ी हुई अथवा कंपोस्ट खादों का ही ज्यादातर प्रयोग करना चाहिए.
* सिंचाई के लिए रसोईघर या घर के बेकार पानी का उपयोग करना चाहिए.

सब्जी फसल की सुरक्षा
* सब्जी फसल में जैविक कीट व व्याधिनाशियों का उपयोग करें.
* प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें.
* नीमयुक्त कीटनाशक के उपयोग को बढ़ावा दें.
* स्टिकी ट्रैप का उपयोग करें.
कुछ आवश्यक सुझाव
* पोषण वाटिका की कोई भी क्यारी खाली नहीं रखनी चाहिए.
* टमाटर, मटर, सेम, परवल आदि को सहारा दिया जाना चाहिए, ताकि ये फसलें कम से कम जगह घेरें एवं बेल/लत्तेदार सब्जियों जैसे लौकी, तुरई, केला, टिंडा इत्यादि को बाड़ के सहारे उगाना चाहिए.
* जल्दी तैयार होने वाली सब्जियों को देर से तैयार होने वाली सब्जियों के बीच कतारों में लगाते हैं.

पोषण वाटिका से लाभ
* परिवार के सभी सदस्यों के लिए मनोरंजन का एक उत्तम साधन है.
* घर के पास पड़ी खाली भूमि का समुचित उपयोग हो जाता है.
* हर समय ताजा, स्वादिष्ठ व विषरहित सब्जी मिल जाती है.
* पोषण वाटिका में सब्जियों को उगाने पर गृहिणी के बजट में अच्छी बचत हो जाती है.
* घर के फालतू पानी व कूड़ेकरकट का सदुपयोग हो जाता है.
* बच्चों में अच्छी आदतों का विकास होता है और वे श्रमजीवी बनते हैं.
* पोषण वाटिका देख कर आंखों को संतोष एवं आनंद मिलता है.
* खाली समय का सदुपयोग हो
जाता है.

सब्जी फसल और उन्नत प्रजातियां
* हरी मिर्च+सगिया मिर्च- एनपी46ए या पूसा ज्वाला भारत, कैलिफोर्निया वंडर
* प्याज- अर्ली ग्रेनो या वीएल प्याज-3
* प्याज- पूसा रैड
* भिंडी- पूसा सावनी या परभनी क्रांति
* बैगन (लंबा)- पूसा परपल लौंग या पंत सम्राट
* बैगन (गोल)- पूसा क्रांति या पंत ऋतुराज
* फूलगोभी- पूसा क्रांतिकी
* फूलगोभी- पूसा दीपाली
* फूलगोभी- स्नोवाल
* मूली लाल/सफेद- रैफ्ट रैड ह्वाइट, जैपनीज ह्वाइट, पूसा हिमानी, चायनीज पिंक
* आलू- कुफरी अलंकार, सिंदूरी, बहार, चंद्रमुखी
* लोबिया- पूसा फाल्गुनी या पूसा दोफसली
* पत्तागोभी- गोल्डन एंकर, रिया, वरुण, यस ड्रमहैड
* ग्वार- पूसा नवबहार
* फ्रैंचबींस- कंटैंडर या पूसा पार्वती
* गाजर, शलजम- उन्नत प्रबेध
* चुकंदर, गांठगोभी, लेट्यूस- ग्रेट लेकेस
* अरबी- अस्थानीय
* पालक (देशी)- अर्ली स्मूथ लीफ
* पालक (विलायती)- पूसा ज्योति
* चौलाई- कोई भी प्रजाति
* लौकी- पूसा मेघदूत या पूसा मंजरी
* कद्दू- लोकल प्रबेध
* स्पंज ग्राडसेनुआ- पूसा चिकनी
* ग्रिजगार्ड (तोरई)- पूसा नसदार
* खीरा- पौइंसैट, जैपनीज, लौंग ग्रीन
* मटर- अर्केल, पीयसयम-3
* सेम- लोकल प्रबेध
* टमाटर- पूसा-120, पूसा रूबी

प्रत्येक क्यारियों की सब्जियों के लिए फसलचक्र
* पत्तागोभी सहफसल लेट्यूस के साथ ग्वार एवं फ्रास्बीन- नवंबर से मार्च, मार्च से अक्तूबर
* फूलगोभी (पछेती) सहफसल गांठगोभी- सितंबर से फरवरी
* लोबिया (ग्रीष्म ऋतु)- मार्च से अगस्त
* लोबिया (वर्षा ऋतु), फूलगोभी (मध्य मौसमी किस्में)- जुलाई से नवंबर
* मूली- नवंबर से दिसंबर
* प्याज- दिसंबर से जून
* आलू- नवंबर से मार्च
* लोबिया- मार्च से जून
* फूलगोभी (अगेती)- जुलाई से अक्तूबर
* बैगन (लंबा) : फसल पालक के साथ- जुलाई से मार्च
* भिंडी सहफसल चौलाई के साथ- मार्च से जून
* बैगन (गोल) सहफसल पालक के साथ- अगस्त से अप्रैल
* भिंडी सहफसल चौलाई के साथ- मई से जुलाई
* मिर्च+सगिया मिर्च- सितंबर से मार्च
* भिंडी- जून से अगस्त
नोट : बोआई का समय जलवायु विशेष के अनुसार बदल सकता है.