अनोखा ‘नेचुरल ग्रीन हाउस’ खेती का ‘गेम चेंजर’

बस्तर, कोंडागांव के प्रयोगधर्मी किसान वैज्ञानिक डा. राजाराम त्रिपाठी को हाल ही में देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के हाथों देश का सर्वश्रेष्ठ किसान अवार्ड दिया गया. वैसे तो उन्हें अब तक सैकड़ों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं, किंतु यह प्रतिष्ठित सम्मान उन्हें इसी बहुचर्चित डेढ़ लाख रुपए में तैयार एक एकड़ के ‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ में आस्ट्रेलियन टीक (AT) के पेड़ों पर काली मिर्च (BP) की लताएं चढ़ा कर एक एकड़ से वर्टिकल फार्मिंग के जरीए 50 एकड़ तक का उत्पादन लेने के सफल प्रयोग हेतु प्रदान किया गया.

क्या फर्क है सस्ते “नेचुरल ग्रीनहाउस” और वर्तमान ‘हाईटैक पौलीहाउस’ में

पराबैंगनी किरणों से बचाव

पौलीहाउस : यह पराबैंगनी किरणों से ऊपर लगाई गई पौलीथीन शीट की क्षमता के अनुसार एक हद तक बचाव करता है.

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस की हरी छतरी भी इस में लगी फसलों का पराबैंगनी किरणों से प्रभावी और जरूरी बचाव करने में भलीभांति सक्षम है.

धूप से बचाव

पौलीहाउस : इस हाउस में लगाई गई फिल्म की क्षमता के अनुसार यह धूप से जरूरी 60 फीसदी या 70 फीसदी तक बचाव करता है, जिस से पौधों को प्रकाश संश्लेषण के लिए ज्यादा समय मिलता है, और इस से ज्यादा उत्पादन मिलता है.

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस में भी 60 से 70 फीसदी तक वृक्षों से नैसर्गिक छाया मिलती है. यह छाया सूर्य की गति के अनुसार चलायमान रहती है, जिस से प्रकाश संश्लेषण के लिए ज्यादा समय मिलता है और उत्पादन भी ज्यादा प्राप्त होता है.

गर्मी तथा सर्दी, ओला, बारिश से बचाव

पौलीहाउस : इस हाउस में ओलाबारिश से तो बचाव होता ही है, साथ ही एक सीमा तक तापमान को भी नियंत्रित रखा जा सकता है, पर इस काम में नियमित रूप से महंगी बिजली का खर्चा होता है, सोलर लगाने पर सोलर का भी एकमुश्त खर्चा भी बहुत ज्यादा बैठता है. तेज हवा या तूफान में इस के पूरी तरह नष्ट होने की सदैव आशंका बनी रहती है.

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस में भीतर के तापमान और बाह्य वातावरण से 4 डिगरी तक का अंतर रहता है यानी गरमी में ठंडा और ठंडी में उष्ण रहता है, जिस से लगभग सभी सामान्य फसलें गरमी और सर्दी, बरसात तीनों ऋतु में भलीभांति ली जा सकती है. तेज हवातूफान में भी इन में कभी भी 2 फीसदी से ज्यादा क्षति नहीं देखी गई है.

हानिकारक कीटपतंगों व बीमारियों से बचाव

पौलीहाउस : पौलीहाउस चारों ओर से बंद होने के कारण बाहर से आने वाली बीमारियों और कीटपतंगों से भीतर की फसल की रक्षा करता है, पर इस से पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता समाप्त हो जाती है और उत्पादन की गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है।

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस में ‘नैसर्गिक समेकित रक्षा प्रणाली‌’ का उपयोग होता है. इस से फसलें बीमारियोंऔर कीटपतंगों से अपना प्रभावी बचाव भलीभांति कर लेती है. नैसर्गिक प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होती है और मिलने वाले उत्पादन की गुणवत्ता की बेहतरीन होती है.

नमी की रक्षा

पौलीहाउस : पौलीहाउस में यांत्रिक विधि से नमी का प्रभावी नियंत्रण भलीभांति किया जा सकता है. किंतु कूलर, एग्जास्ट आदि उपकरणों में बिजली का नियमित व्यय होता है.

नेचुरल ग्रीनहाउस : इस में प्रति एकड़ लगे 700-800 पौधों से निकलने वाली नमी को पेड़ों की हरी दीवार के जरीए और ऊपर पेड़ों की पत्तियों की तनी कैनोपी के जरिए संरक्षित होती है. साथ ही, पेड़ों से नियमित गिरने वाली पत्तियों की परत भी भूमि की बहुमूल्य नमी को भी तेजी से विमुक्त होने से रोकती है.

सिंचाई :

पौलीहाउस : पौलीहाउस में ‘हाईटैक इरीगेशन’ पद्धतियां अपनाना अनिवार्यता होती है, जिस पर काफी खर्च आता है और इन के नियमित रखरखाव पर भी नियमित रूप से खर्चा होता है.

नेचुरल ग्रीन हाउस : इस में सिंचाई की परंपरागत पद्धतियां जैसे कि नाली विधि अथवा क्यारी विधि द्वारा या फिर ड्रिप सिस्टम, स्प्रिंकलर या माइक्रो स्प्रिंकलर आदि में से किसी का भी प्रयोग अपनी अंतर्वरती फसलों की आवश्यकता के आधार पर उपयोग कर सकते हैं और इस में लगने वाली परंपरागत सिंचाई पद्धतियों को विशेष तकनीकी देखभाल की आवश्यकता नहीं होती और कोई विशेष नियमित खर्च भी नहीं होता.

‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ से मिलने वाले कुछ अतिरिक्त विशिष्ट फायदे

– “नेचुरल ग्रीनहाउस” में लगाए गए विशेष प्रकार के पेड़ों की जड़ों में नियमित नाइट्रोजन फिक्सेशन के द्वारा और पेड़ों की गिरी हुई पत्तियों कंपोस्टीकरण के द्वारा जरूरी पर्याप्त मात्रा में बेहतरीन गुणवत्ता की जैविक खाद, किसी अतिरिक्त खर्च के हमें प्राप्त हो जाती है, जबकि “पौलीहाउस” हमें हर बार रासायनिक खाद अथवा जैविक खाद बाजार से खरीद कर डालना होता है.

– “नेचुरल ग्रीनहाउस” में पेड़ों पर बसेरा करने वाली चिड़ियों के जरीए कीटपतंगों पर सक्षम नियंत्रण तो होता ही है, साथ ही उन की बीट से बहुपयोगी माइक्रोन्यूट्रिएंट भी भूमि को नियमित रूप से प्राप्त होता है, जबकि पाली हाउस पर हमें कीटनाशक दवाओं एवं माइक्रोन्यूट्रिएंट्स खरीद कर डालने होते हैं.

– “नेचुरल ग्रीनहाउस” के पेड़ों के तने के जरीए बारिश का पानी धरती में धीरेधीरे समा जाता है और इस तरह नियमित रूप से वाटर हार्वेस्टिंग होती है और धरती का जलस्तर भी ऊपर आ जाता है, जबकि पौलीहाउस में स्वत: वाटर हार्वेस्टिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती.

– नेचुरल ग्रीनहाउस बहुत टिकाऊ होता है. गरमी, सर्दी, ओला, तेज बारिश से या अपनी रक्षा तो करता ही है, साथ ही फसल की भी रक्षा करता है. हर 10 साल में जरूरी कटाईछटाई के साथ 25-30 सालों तक इस का लाभ उठाया जा सकता है, जबकि पौलीहाउस की फिल्मों और फिक्सचर्स की अधिकतम आयु 7-8 साल ही होती है. कई बार तो तेज हवा, तूफान में पहले साल ही इस की पालीथीन फट जाती है और पूरा बहुमूल्य ढांचा तहसनहस हो जाता है.

– पौलीहाउस तकरीबन 10 साल बाद कबाड़ में बदल जाता है, जबकि नैसर्गिक ग्रीनहाउस 10 साल बाद भी करोड़ों रुपयों की बहुमूल्य लकड़ी देता है.

– पौलीहाउस में 10-12 फीट ऊंचाई तक ही वर्टिकल फार्मिंग के जरीए आमदनी बढ़ाई जा सकती है, जबकि नेचुरल ग्रीन हाउस आस्ट्रेलियन टीक के पेड़ों पर 70-80 फीट की ऊंचाई तक काली मिर्च के गुच्छे लदे रहते हैं.

इस तरह पौलीहाउस की तुलना में नेचुरल ग्रीनहाउस की आमदनी काफी ज्यादा बढ़ जाती है.

लागत : राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड के सरकारी मापदंडों के अनुसार, एक एकड़ में पौलीहाउस’ बनाने का खर्च लगभग 40 लाख रुपए होता है, जबकि नेचुरल ग्रीनहाउस में कुल एकमुश्त खर्च ज्यादा से ज्यादा एक से डेढ़ लाख रुपया ही बैठता है.

– यह पेड़ सालभर में लगभग 30 लाख रुपए की औक्सीजन देता है.

– इस के प्लांटेशन का कार्बन ट्रेडिंग का लाभ भी मिलता है.

– प्रतिवर्ष प्रति एकड़ लगभग 2 लाख रुपए की बेहतरीन जैविक खाद भी देता है.

“नेचुरल ग्रीनहाउस” मौडल को ले कर पूछे जाने वाले कुछ जरूरी सवालों के जवाब :

सवाल : इसे कैसी मिट्टी और कैसी जलवायु चाहिए? देश के किनकिन भागों में इस की खेती की जा सकती है?

जवाब : डा. राजाराम त्रिपाठी का मानना है कि केवल ऐसे क्षेत्र, जहां काफी बर्फबारी होती हो और ऐसे क्षेत्र, जो पूरी तरह से रेगिस्तान हों, वहां यह मौडल सफल नहीं हो पाएगा, बाकी भारत के शेष सभी हिस्सों में “नेचुरल ग्रीनहाउस” का यह मौडल पालीहाउस के सफल एवं सस्ते विकल्प के रूप में काम कर सकता है. यह कंकरीली, पथरीली और बंजर भूमि में भी सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है. इतना ही नहीं, यह बंजर भूमि को भी कुछ ही सालों में भरपूर उपजाऊ बना देता है.

उन का यह भी कहना है कि यह सफल मौडल इस समय कई राज्यों के प्रगतिशील किसानों द्वारा सफलतापूर्वक अपनाया जा चुका है.

सवाल : इस के लिए कितनी सिंचाई की जरूरत पड़ती है?

जवाब : वैसे तो यह प्लांटेशन बिना पानी के सूखी जमीन में भी वर्षा ऋतु की शुरुआत में लगाया जा सकता है, किंतु यदि थोड़ी सिंचाई की व्यवस्था रहे तो ज्यादा उत्पादन और अधिक फायदा लिया जा सकता है.

सवाल : यह आस्ट्रेलियन टीक (AT) क्या है? ‘एटीबीपी का कोंडागांव मौडल’ आखिर क्या है, और इस में काली मिर्च का क्या रोल है?

जवाब : मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म तथा रिसर्च सेंटर द्वारा विकसित व प्रवर्धित एकेशिया (Acacia) की विशेष प्रजाति है, जिसे विपणन की भाषा में प्रायः’ “आस्ट्रेलियन टीक'” कहा जाता है. इस के साथ आस्ट्रेलिया शब्द से जुड़ने का कारण शायद यह है कि आस्ट्रेलिया में इस का प्लांटेशन बड़ी मात्रा में किया जाता रहा है. दूसरा, इस की बहुमूल्य लकड़ी आस्ट्रेलिया से भारत आयात किए जाने के कारण भी हो सकता है.

बहरहाल, बेहतरीन लकड़ी देने वाली इस विशेष प्रजाति की कई विशेषताएं हैं, जैसे कि यह देश के सभी भागों में सभी तरह की जलवायु में बिना विशेष सिंचाई अथवा देखभाल के सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है. इस के बढ़ने की गति महोगनी, शीशम, टीक, मिलिया, डुबिया यहां तक कि नीलगिरी को भी पीछे छोड़ देती है. यह पेड़ 7 से 10 साल में ही काफी ऊंचा ही नहीं, बल्कि काफी मोटा भी हो जाता है. यह सागौन, महोगनी, शीशम जैसी बेहतरीन मजबूत, हलकी, खूबसूरत, टिकाऊ बहुमूल्य इमारती लकड़ी देता है. इस का एक फायदा यह भी है कि यह पेड़ वायुमंडल से नाइट्रोजन ले कर मिट्टी में स्थित राइजोबियम, जो कि मिट्टी का जीवाणु (बैक्टीरिया) है और नाइट्रोजन का योगिकीकरण कर मिट्टी में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करता है. इस प्रकार यह फसलों की नाइट्रोजन यानी ‘यूरिया’ की आवश्यकता को जैविक विधि से भलीभांति पूर्ति करता है. इसी आस्ट्रेलियन टीक और काली मिर्च की खेती को ही ‘एटीबीपी का कोंडागांव
मौडल’ कहा जाता है.

सवाल : इस के पौधे कहां मिलते हैं और इस की तकनीक कैसे मिलेगी, क्या तकनीक अथवा प्रशिक्षण का कोई चार्ज भी है?

जवाब : इस के पौधे “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म और रिसर्च सेंटर” से प्रशिक्षित “स्थानीय आदिवासी महिलाओं के समूह” के द्वारा किसानों के अग्रिम और्डर पर ही तैयार किया जाता है. इस मौडल को अपने खेतों में लगाने के लिए इच्छुक किसानों को पौधे देने के पूर्व खेतों पर विधिवत तकनीकी और व्यावहारिक जानकारी दी जाती है, जो कि पूरी तरह से निशुल्क होती है.

सवाल : इसे कम से कम कितने एरिया से शुरू किया जाना चाहिए?

जवाब : इस मौडल की खूबी यह है कि यह जितने बड़े क्षेत्रफल पर किया जाएगा, लागत उतनी ही कम होगी और लाभ भी अपेक्षाकृत ज्यादा होगा, क्योंकि एरिया बढ़ने से पेड़ों की संख्या भी बढ़ती है, और ज्यादा पेड़ों से और बेहतर माइक्रोक्लाइमेट तैयार होता है, जिस से उत्पादन में वृद्धि होती है. किंतु यदि जमीन अथवा लागत की कोई समस्या हो, तो न्यूनतम एक एकड़ पर भी किया जा सकता है.

सवाल : *इस एटीबीपी मौडल अथवा “नेचुरल ग्रीनहाउस” की प्रति एकड़ लागत कितनी है? और इस से सालाना आमदनी कितनी हो रही है? एक बार लगाने पर यह मौडल कितने सालों तक लाभ देगा?

जवाब : दरअसल “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सेंटर” कोंडागांव द्वारा विकसित विशेष तकनीक से आस्ट्रेलियन टीक और काली मिर्च का प्लांटेशन ही ‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ की तरह काम करता है.

वर्तमान तकनीक के पौलीथीन से कवर्ड और लोहे के फ्रेम वाले पौलीहाउस बनाने में एक एकड़ में तकरीबन 40 लाख रुपए का खर्च आता है, वहीं इस “प्राकृतिक ग्रीनहाउस” के बनाने में कुल मिला कर प्रति एकड़ केवल एक से डेढ़ लाख रुपए का ही खर्च आता है यानी डेढ़ लाख रुपए में पौलीहाउस से हर माने में बेहतर, ज्यादा टिकाऊ और शतप्रतिशत सफल ग्रीनहाउस तैयार हो जाता है.

सब से बड़ी बात यह है कि इस 40 लाख रुपए प्रति एकड़ में लोहे और प्लास्टिक से बनने वाले पौलीहाउस की आयु ज्यादा से ज्यादा 7 से 10 साल की होती है और फिर तो यह कबाड़ के भाव बिकता है, जबकि कोंडागांव मौडल के “नेचुरल ग्रीनहाउस” बिना किसी अतिरिक्त लागत के 10 साल में 2 करोड़ रुपए तक की बहुमूल्य इमारती लकड़ी मिल जाती है. साथ ही, प्रति एकड़ 5 लाख रुपए तक काली मिर्च से सालाना नियमित आमदनी भी मिलने लगती है. यह मौडल 25-30 सालों तक बड़े आराम से लाभ देता है.

इस मौडल से हर साल प्रति एकड़ लाखों रुपए की आमदनी के साथ ही अन्य महत्वपूर्ण फायदों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यही वजह है कि भारत जैसे देश के किसानों के लिए और देश के लिए भी एटीबीपी का यह ‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ मौडल आज “गेमचेंजर” माना जा रहा है.

किसान ‘नेचुरल ग्रीनहाउस’ मौडल को देखनेसमझने कोंडागांव आ सकते हैं. किसानों के लिए “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म और रिसर्च सेंटर” भ्रमण निशुल्क है.

डा. राजाराम त्रिपाठी अपने सफलता के गुर को अन्य किसानों के साथ बांटने को सदैव तत्पर रहते हैं और उन के फार्म पर प्रतिदिन देश के विभिन्न भागों से और विदेशों से भी किसानों का आना लगा रहता है.

जो लोग वहां आना चाहते हैं, वे आने से पहले फोन नंबर 0771-2263433 (सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे के बीच) अथवा +91-9425265105 पर संपर्क कर आने का समय तय कर के ही आएं, ताकि भ्रमण कार्यक्रम का समुचित समन्वय और आप के लिए जरूरी मार्गदर्शन की अग्रिम व्यवस्था की जा सके.

किसान और अधिक जानकारी के लिए वैबसाइट www.mdhherbals.com और ईमेल mdhorganic@gmail.com के जरीए भी इन से संपर्क कर सकते हैं.

(नोट : उपरोक्त सभी तथ्य और आंकड़े मा दंतेश्वरी हर्बल फार्म पर निगत दो दशकों में किए गए सफल जमीनी प्रयोगों पर आधारित हैं.)

पशुपालकों को अब घर बैठे मिलेगी पशु इलाज की सुविधा

मध्य प्रदेश में अब पशुओं के इलाज के लिए औन काल एंबुलेंस सेवा शुरू हो गई है. मतलब, अब घर बैठे ही पशुपालक इस एंबुलेंस को अपने घर बुला सकेंगे. इस के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश को 406 पशु एंबुलेंस का तोहफा दिया है. हर एंबुलेंस में एक पशु चिकित्सक और सहायक उपलब्ध होंगे. आपात स्थिति में पशुओं के इलाज के लिए टोल फ्री नंबर 1962 जारी किया गया है. यह एंबुलेंस सेवा प्रदेश के हर हिस्से में मिलेगी.

बीमार पशु को अस्पताल तक ले जाना ही अपनेआप में एक बड़ी समस्या थी. लेकिन, अब इन एंबुलेंसके आने से पशु चिकित्सालय स्वयं पशुपालक के दरवाजे पर होगा. पशुपालक को केवल दिए गए टोल फ्री नंबर 1962 पर बात करनी होगी.

राज्य स्तरीय काल सेंटर से जुड़ी रहेंगी एंबुलेंस

पशु चिकित्सा एंबुलेंस केंद्र और राज्य शासन की संयुक्त योजना है. इस पर तकरीबन 77 करोड़ रुपए हर साल खर्च होंगे. इस में केंद्र और राज्य सरकार क्रमश: 60 और 40 फीसदी खर्च करेंगी. एंबुलेंस में पशु उपचार, शल्य चिकित्सा, कृत्रिम गर्भाधान, रोग परीक्षण की सुविधा रहेगी.

जरूरत पड़ने पर काल सेंटर के टोल फ्री नंबर 1962 पर फोन कर के पशुपालक अपने घर पर ही पशु चिकित्सा का लाभ उठा सकेंगे. एंबुलेस राज्य स्तरीय काल सेंटर से जुड़ी रहेंगी. एंबुलेंस की मौनिटरिंग जीपीएस के जरीए की जाएगी.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि प्रदेश में गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध लगाया गया है. गोहत्या करने वाले को 7 साल और अवैध परिवहन पर कारावास का प्रावधान है. गोवंश के अवैध परिवहन में लिप्त वाहनों को जब्त किया जाएगा.

गाय पालने वालों को मिलेगा फायदा

प्राकृतिक खेती में पशुओं का खासा किरदार है. गोमूत्र और गोबर से ही घनामृत और जीवामृत बनते हैं. प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को गाय पालने के लिए 900 रुपए प्रतिमाह दिए जाएंगे. इस माह 22,000 किसानों को योजना की किस्त जारी की जाएगी. जनजातीय भाईबहनों को गाय
पालने के लिए गाय खरीदने पर 90 फीसदी सब्सिडी उपलब्ध कराई जाएगी. गोबर, गोमूत्र सहित अन्य उत्पादों के व्यवसाय को लाभकारी बनाने के लिए भी राज्य सरकार प्रयासरत है.

गाय के गोबर से सीएनजी बनाने के प्रोजैक्ट पर जबलपुर में काम जारी है. प्रदेश में अलगअलग स्थानों पर गोवर्धन प्लांट लगा कर गोबर खरीदने की व्यवस्था की जाएगी, इस से सीएनजी निर्मित होगी.

गोशालाओं में बने पेंट को मिलेगा बढ़ावा

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि गोशालाओं में बनाए जाने वाले प्राकृतिक पेंट का उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायत लेवल के शासकीय भवनों में करने की नीति बनाई जाएगी. इस से गोबर और गोमूत्र के व्यवसाय को प्रोत्साहन मिलेगा. प्रदेश में 8 गोसदन और दो गोवंश वन्य विहार विकसित किए जाएंगे.

एंबुलेस संचालन का जिम्मा गोसेवक संस्था को सौंपा जाएगा. पंजीकृत गोशालाओं को बिजली के बिल की समस्या न आए और इस से गाय की सेवा में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो, इस के लिए उपयुक्त नीति बनाए जाएगी. गोशालाओं में भूसे की पर्याप्त व्यवस्था के लिए राशि का पुनर्निर्धारण किया जाएगा.

जिलों में अपर कलक्टर करेंगे गोशालाओं का प्रबंधन

प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि प्रदेश में हर ग्राम पंचायत में गोशाला के बजाय बड़ी गोशालाएं विकसित करने पर भी राज्य शासन विचार कर रहा है. गोशालाओं के सुचारु प्रबंधन के उद्देश्य से 4-5 ग्राम पंचायतों के लिए एक बड़ी गोशाला विकसित की जाएगी. प्राथमिक तौर पर प्रदेश में कुछ स्थानों पर मौडल के रूप में ऐसी गोशाला विकसित की जाएगी. इन गोशालाओं की व्यवस्था की जिम्मेदारी कोई संस्था ले सकती हैऔर संस्था को राज्य शासन द्वारा वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाएगी. जिन गोशालाओं के साथ जमीनें संलग्न हैं और उन जमीनों पर यदि अतिक्रमण है, तो उन्हें तत्काल अतिक्रमण मुक्त कराया जाएगा.

गोशालाओं की समस्याओं के त्वरित समाधान और उन के बेहतर प्रबंधन के लिए जिला स्तर पर अपर कलक्टर स्तर के अधिकारी को जिम्मेदारी सौंपी जाएगी.

काले मोतियों की उजली कहानी, बस्तर के जंगलों की जबानी

काले मोतियों की खेती कोंडागांव में धीरेधीरे परवान चढ़ रही है. तकरीबन 25 साल पहले यहां के स्वप्नद्रष्टा किसान वैज्ञानिक डा. राजाराम त्रिपाठी ने अपने खेत में जैविक और हर्बल खेती के जो नएनए प्रयोग शुरू किए थे, उन में से उन का एक सब से प्रमुख सपना था, छत्तीसगढ़ के लिए काली मिर्च की नई प्रजाति का विकास करना और उसे छत्तीसगढ़ के किसानों के खेतों पर और बचेखुचे जंगलों में सफल कर के दिखाना.

मेहनत ने दिखाया अपना रंग

कामयाबी की एक नई इबारत बस्तर के जंगलों में भी लिखी जा रही है. दरअसल, कुछ समय पूर्व डा. राजाराम त्रिपाठी “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म और रिसर्च सेंटर” इन की सहयोगी समाजसेवी संस्था संपदा ने प्रशासन और वन विभाग के सहयोग से व मार्गदर्शन में आसपास की कुछेक वन क्षेत्रों में भी प्रायोगिक रूप से साल के पेड़ों और अन्य प्रजाति के पेड़ों पर भी मां दंतेश्वरी हर्बल समूह द्वारा विकसित काली मिर्च की नई प्रजाति के पौधे लगाए थे. आज काली मिर्च की उन लताओं में फल आने लगे हैं.

बच्चों की मेहनत का नतीजा

गरमी की छुट्टियों में घर में खाली बैठे बच्चों ने निकट के जंगलों में पड़े उस काली मिर्च को इकट्ठा किया और ला कर आगे विपणन के लिए ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ में जमा किया. बच्चों द्वारा जेबखर्च के लिए इकट्ठा किए गए इस काली मिर्च को उन्हें ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ से 4000 रुपए तत्काल मिल गए हैं. इतना ही नहीं, यह काली मिर्च ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ के अन्य सदस्यों की काली मिर्च के साथ आगे अगर ज्यादा कीमत पर बिकेगी, तो इन नन्हे संग्रहकर्ताओं को इस का अतिरिक्त लाभांश भी मिलेगा. इस के लिए इन लोगों का नाम, पता, फोन नंबर आदि दर्ज कर लिए गए हैं. इस से बच्चों और उन के परिवार वालों दोनों का उत्साह बढ़ा है.

बच्चों के खिले चेहरे

बच्चों के साथ आए उन के परिजनों का कहना था कि बच्चों के द्वारा खेलखेल में इकट्ठा किए गए इस काली मिर्च से बच्चों के आने वाले साल की पढ़ाई, किताबों और नए कपड़ों के खर्चे की व्यवस्था हो गई है, इस से बच्चे और उन के मांबाप सभी बहुत खुश हैं.

जाहिर है कि इस से बच्चों को और अधिक काली मिर्च इकट्ठा करने की प्रेरणा मिलेगी और अब गांव के लोग भी ये हर साल अतिरिक्त आमदनी देने वाली काली मिर्च की लताएं, जिन पेड़ों पर चढ़ी हैं, उन पेड़ों को काटने से परहेज करेंगे और शायद इस से बस्तर, छत्तीसगढ़ का जंगल भी बच जाए.

मोटे अनाज और जैविक खेती अपनाएं किसान- साभा कुंवर कुशवाहा

कृषि एवं ग्रामीण विकास ट्रस्ट, मल्हनी, भाटपार रानी के तत्त्वावधान में 10 मार्च, 2023 को कृषि एवं ग्रामीण विकास पर एक गोष्ठी का आयोजन ट्रस्ट प्रक्षेत्र कार्यालय, लक्षमणपुर रोड, महुआवारी मेला (मल्हना) में किया गया.

इस गोष्ठी का उद्घाटन भाटपार रानी विधानसभा क्षेत्र के विधायक साभा कुंवर कुशवाहा द्वारा किया गया. अपने उद्धघाटन भाषण में उन्होंने मोटे अनाजों की खेती पर अपना अनुभव साझा किया और बताया कि ‘श्रीअन्न योजना’ सरकार द्वारा लागू की गई है, जिस में मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, मड़ुवा, सावा, टागुन और चीना की खेती किसान करें, क्योंकि ये सभी अनाज सेहत के लिए फायदेमंद हैं.

इस मौके पर मुख्य अतिथि ने ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित वित्तीय कलैंडर 2023-24 और राइटिंग पैड का विमोचन भी किया.

इस ट्रस्ट के निदेशक प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने अतिथियों का स्वागत करते हुए बताया कि ट्रस्ट के एक साल पूरा होने के मौके पर पहली वर्षगांठ मनाई जा रही है. यह ट्रस्ट फरवरी, 2022 में बनी थी, जिस का मुख्य उद्देश्य कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए सकारात्मक पहल करना, शिक्षा, कृषि शिक्षा, शोध, प्रसार एवं सामुदायिक विकास के उत्थान के लिए कार्य करना, प्राकृतिक, जैविक एवं टिकाऊ खेती को बढ़ावा देना, कृषि एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में विशेष परामर्श सेवा प्रदान करना, आवश्यकता आधारित प्रशिक्षण, कार्यशाला, संगोष्ठी, प्रक्षेत्र दिवस, किसान मेला एवं प्रदर्शनी का आयोजन करना तथा कृषक उत्पादक संगठन को बढावा देना है.

इस ट्रस्ट में अपने उद्देश्यों को ध्यान में रख कर कृषि एवं ग्रामीण विकास गोष्ठी का आयोजन किया गया है.

आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या की अधिष्ठाता परास्नातक अध्ययन प्रोफैसर सुमन प्रसाद मौर्य ने महिलाओं के सशक्तीकरण पर प्रकाश डाला और बताया कि उत्तर प्रदेश कृषि सयुंक्त प्रवेश परीक्षा, का फार्म निकला है. उसे www.nduat.org या https://upcatetexam.net पर देखा जा सकता है. आवेदन करने की अंतिम तिथि 20 अप्रैल, 2023 है. इस की प्रवेश परीक्षा 30-31मई, 2023 को होगी. जो छात्र/छात्राएं कृषि, विज्ञान से इंटर की परीक्षा दे चुके हैं या इंटर पास हैं, वे कृषि, उद्यान, कृषि अभियंत्रण, पशुचिकित्सा, मत्स्यपालन आदि में प्रवेश हेतु आवेदन कर सकते हैं. साथ ही सामुदायिक विज्ञान में किसान अपनी बच्चियों को पठनपाठन हेतु प्रेरित करें.

फार्मर्स फेस के प्रबंध निदेशक मोहन मुरारी सिंह ने जैविक, प्राकृतिक एवं टिकाऊ खेती पर प्रकाश डाला. कृषि विज्ञान केंद्र, मल्हना के प्रभारी अधिकारी डा. रजनीश श्रीवास्तव ने कृषक उत्पादक संगठन के गठन से लाभ की जानकारी दी. डा. विकास मौर्य ने फिजियोथैरेपी की जानकारी दी.

नूतन बीज भंडार, तरकुलहा के प्रबंधक राजबल्लभ कुशवाहा ने बीज उत्पादन पर जानकारी दी. इस कार्यक्रम में देवरिया जनपद के साथसाथ सीवान, गोपालगंज (बिहार) के 250 से अधिक किसानों, प्रसार कार्यकर्ताओं, अधिकारियों ने भाग लिया.

वरिष्ठ समाज सेवी, अध्यापक कृषकों को माला पहना कर और अंगवस्त्र भेंट कर सम्मानित किया गया. सभी आए कृषकों, अधिकारियों को वर्ष 2023-24 कलैंडर बांटे गए. सभी ने फलफूल, सब्जियों की खेती और मशरूम उत्पादन प्रक्षेत्र का अवलोकन किया.

पोषण वाटिका में पूरे साल सब्जियां

सब्जियां न केवल हमारे पोषण मूल्यों को बढ़ाती हैं, बल्कि शरीर को शक्ति, स्फूर्ति, वृद्धि और अनेक प्रकार के रोगों से बचाने के लिए महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्व जैसे कार्बोहाइडे्रट, प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिजलवण इत्यादि प्रदान करती हैं. भारतीय मैडिकल अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के अनुसार, प्रतिदिन प्रति व्यक्ति निम्न मात्रा (300 ग्राम) में सब्जी की आवश्यकता पड़ती है:

हरी पत्तेदार सब्जी 115 ग्राम, जड़/कंद वर्गीय सब्जी 115 ग्राम, अन्य सब्जी 70 ग्राम की जरूरत होती है.

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक परिवार अपनी पोषण वाटिका में सब्जी का उत्पादन कर सकता है, जिस से उसे ताजा, सुरक्षित एवं पोषण से भरपूर सब्जियां मिल सकें. प्राय: एक परिवार को पूरे साल सब्जियां प्राप्त करने के लिए 200 से 250 वर्गमीटर का क्षेत्रफल प्रयाप्त होता है. इस में छोटीछोटी क्यारियां बना कर उस में महंगी एवं परिवार की पसंद की सब्जियों का फसलचक्र अपनाया जा सकता है.

अगर एक जगह पर इतनी भूमि नहीं हो, तो बिखरी हुई वाटिका का निर्माण किया जा सकता है. इस प्रकार पोषण वाटिका में सब्जियों के साथसाथ फलदार वृक्ष जैसे पपीता, नीबू, अनार व अमरूद आदि के अलावा दूसरे फूल वाले पौधे भी लगाए जा सकते हैं. पोषण वाटिका से उत्पादित सब्जियों स्वादिष्ठ, ताजा, कीट व बीमारियों से मुक्त होती है.

किसी एक सब्जी की उपलब्धता का समय बढ़ाने के लिए जल्दी, मध्य व देर से पकने वाली किस्मों को उगाना चाहिए. फलदार वृक्षों जैसे नीबू, अमरूद, केला व अनार को एक तरफ लगाना चाहिए, ताकि क्यारियों की जुताई में बाधा न हो सके. अधिक पानी चाहने वाली सब्जियां (पालक, चोलाई) मुख्य नाली के पास लगानी चाहिए. सब्जियों को हमेशा जगह बदलबदल कर लगाएं, ताकि अधिक उत्पादन के साथसाथ कीट एवं बीमारियों का प्रकोप कम हो सके.

स्थान का चयन

घर का पिछला हिस्सा जहां धूप पर्याप्त मात्रा एवं काफी समय तक रहती हो, उत्तम होता है. इस बात का ध्यान देना चाहिए कि बड़े पेड़ की छाया सब्जियों की पैदावार को प्रभावित न करने पाए. इस के लिए 1 या 2 कंपोस्ट के गड्ढे छाया या कम महत्त्व वाली जगह में बनाने चाहिए. यदि पर्याप्त जगह हो, तो पपीता, नीबू, अंगूर, केला इत्यादि को उत्तर दिशा में लगाया जा सकता है.

आवश्यक  कृषि क्रियाएं
* बीजों/पौधों को हमेशा किसी विश्वसनीय संस्थानों जैसे कृषि विज्ञान केंद्र व अन्य से ही खरीदना चाहिए.
* गोबर की सड़ी हुई अथवा कंपोस्ट खादों का ही ज्यादातर प्रयोग करना चाहिए.
* सिंचाई के लिए रसोईघर या घर के बेकार पानी का उपयोग करना चाहिए.

सब्जी फसल की सुरक्षा
* सब्जी फसल में जैविक कीट व व्याधिनाशियों का उपयोग करें.
* प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें.
* नीमयुक्त कीटनाशक के उपयोग को बढ़ावा दें.
* स्टिकी ट्रैप का उपयोग करें.
कुछ आवश्यक सुझाव
* पोषण वाटिका की कोई भी क्यारी खाली नहीं रखनी चाहिए.
* टमाटर, मटर, सेम, परवल आदि को सहारा दिया जाना चाहिए, ताकि ये फसलें कम से कम जगह घेरें एवं बेल/लत्तेदार सब्जियों जैसे लौकी, तुरई, केला, टिंडा इत्यादि को बाड़ के सहारे उगाना चाहिए.
* जल्दी तैयार होने वाली सब्जियों को देर से तैयार होने वाली सब्जियों के बीच कतारों में लगाते हैं.

पोषण वाटिका से लाभ
* परिवार के सभी सदस्यों के लिए मनोरंजन का एक उत्तम साधन है.
* घर के पास पड़ी खाली भूमि का समुचित उपयोग हो जाता है.
* हर समय ताजा, स्वादिष्ठ व विषरहित सब्जी मिल जाती है.
* पोषण वाटिका में सब्जियों को उगाने पर गृहिणी के बजट में अच्छी बचत हो जाती है.
* घर के फालतू पानी व कूड़ेकरकट का सदुपयोग हो जाता है.
* बच्चों में अच्छी आदतों का विकास होता है और वे श्रमजीवी बनते हैं.
* पोषण वाटिका देख कर आंखों को संतोष एवं आनंद मिलता है.
* खाली समय का सदुपयोग हो
जाता है.

सब्जी फसल और उन्नत प्रजातियां
* हरी मिर्च+सगिया मिर्च- एनपी46ए या पूसा ज्वाला भारत, कैलिफोर्निया वंडर
* प्याज- अर्ली ग्रेनो या वीएल प्याज-3
* प्याज- पूसा रैड
* भिंडी- पूसा सावनी या परभनी क्रांति
* बैगन (लंबा)- पूसा परपल लौंग या पंत सम्राट
* बैगन (गोल)- पूसा क्रांति या पंत ऋतुराज
* फूलगोभी- पूसा क्रांतिकी
* फूलगोभी- पूसा दीपाली
* फूलगोभी- स्नोवाल
* मूली लाल/सफेद- रैफ्ट रैड ह्वाइट, जैपनीज ह्वाइट, पूसा हिमानी, चायनीज पिंक
* आलू- कुफरी अलंकार, सिंदूरी, बहार, चंद्रमुखी
* लोबिया- पूसा फाल्गुनी या पूसा दोफसली
* पत्तागोभी- गोल्डन एंकर, रिया, वरुण, यस ड्रमहैड
* ग्वार- पूसा नवबहार
* फ्रैंचबींस- कंटैंडर या पूसा पार्वती
* गाजर, शलजम- उन्नत प्रबेध
* चुकंदर, गांठगोभी, लेट्यूस- ग्रेट लेकेस
* अरबी- अस्थानीय
* पालक (देशी)- अर्ली स्मूथ लीफ
* पालक (विलायती)- पूसा ज्योति
* चौलाई- कोई भी प्रजाति
* लौकी- पूसा मेघदूत या पूसा मंजरी
* कद्दू- लोकल प्रबेध
* स्पंज ग्राडसेनुआ- पूसा चिकनी
* ग्रिजगार्ड (तोरई)- पूसा नसदार
* खीरा- पौइंसैट, जैपनीज, लौंग ग्रीन
* मटर- अर्केल, पीयसयम-3
* सेम- लोकल प्रबेध
* टमाटर- पूसा-120, पूसा रूबी

प्रत्येक क्यारियों की सब्जियों के लिए फसलचक्र
* पत्तागोभी सहफसल लेट्यूस के साथ ग्वार एवं फ्रास्बीन- नवंबर से मार्च, मार्च से अक्तूबर
* फूलगोभी (पछेती) सहफसल गांठगोभी- सितंबर से फरवरी
* लोबिया (ग्रीष्म ऋतु)- मार्च से अगस्त
* लोबिया (वर्षा ऋतु), फूलगोभी (मध्य मौसमी किस्में)- जुलाई से नवंबर
* मूली- नवंबर से दिसंबर
* प्याज- दिसंबर से जून
* आलू- नवंबर से मार्च
* लोबिया- मार्च से जून
* फूलगोभी (अगेती)- जुलाई से अक्तूबर
* बैगन (लंबा) : फसल पालक के साथ- जुलाई से मार्च
* भिंडी सहफसल चौलाई के साथ- मार्च से जून
* बैगन (गोल) सहफसल पालक के साथ- अगस्त से अप्रैल
* भिंडी सहफसल चौलाई के साथ- मई से जुलाई
* मिर्च+सगिया मिर्च- सितंबर से मार्च
* भिंडी- जून से अगस्त
नोट : बोआई का समय जलवायु विशेष के अनुसार बदल सकता है.

प्राकृतिक खेती : कम लागत सुरक्षित उपज

प्राकृतिक खेती का मतलब बिना कैमिकल के प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए खेती करना है. मतलब, किसान जो भी फसल उगाए, उस में फर्टिलाइजर कीटनाशकों का इस्तेमाल न करे. इस में रासायनिक खाद के स्थान पर वह खुद जानवरों के सड़े गोबर से तैयार की हुई खाद का इस्तेमाल अपने खेतों में करे. यह खाद गाय और भैंस के गोबर या गोमूत्र, चने का बेसन, गुड़, मिट्टी व पानी से बनाए. इस से फसल में रोग नहीं लगता और पैदावार भी आसानी से बढ़ती है.

प्राकृतिक खेती में मिट्टी की सतह पर ही रोगाणुओं और केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के अपघटन को प्रोत्साहित किया जाता है. इस से धीरेधीरे मिट्टी में पोषक तत्त्वों की वृद्धि होती है.

रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करने से उत्पादन बढ़ता जरूर है, लेकिन एक समय के बाद जमीन धीरेधीरे बंजर होने लगती है और उत्पादकता घट जाती है, जिस को रोकने की जरूरत है.

सिक्किम पहला और्गैनिक राज्य

आज भारत के केवल कुछ राज्यों में ही प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिस में भारत का सिक्किम सब से पहला और्गैनिक राज्य होने का दर्जा प्राप्त किया है.

कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और केरल ने भी इस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं, लेकिन बाकी राज्य इस मामले में अभी भी काफी पिछड़े हुए हैं.

प्राकृतिक खेती की तरफ बढ़ता रुझान

हिमाचल प्रदेश में 3 साल पहले शुरू की गई प्राकृतिक खेती के सफल परिणाम नजर आने लगे हैं. रसायनों के प्रयोग को हतोत्साहित कर किसान की खेती की लागत और आय बढ़ाने के लिए शुरू की गई ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना’ को किसान समुदाय बड़ी तेजी से अपने खेतबगीचों में अपना रहा है.

इस योजना के शुरुआती साल में ही किसानों को यह विधि रास आ गई और तकरीबन 500 किसानों को जोड़ने के तय लक्ष्य से कहीं अधिक 2,669 किसानों ने इस विधि को अपनाया.

‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना’ को लागू करने वाली राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई के आंकड़ों के अनुसार, साल 2019-20 में भी 50,000 किसानों को योजना के अधीन लाने के लक्ष्य को पार करते हुए 54,914 किसान इस योजना से जुड़े.

सेब की बागबानी में बीमारियों के प्रकोप पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि प्राकृतिक खेती से सेब पर बीमारियों का प्रकोप अन्य तकनीकों की तुलना में कम रहा.

एक रिपोर्ट के अनुसार, आज देश की आबादी साल 1971 में 66 करोड़ से बढ़ कर 139 करोड़ के पार हो गई है, लेकिन अनाज का उत्पादन 1 किलोग्राम प्रति व्यक्ति से बढ़ कर 1.74 किलोग्राम तक ही हो पाया है.

ऐसी खेती को बढ़ावा देने के पीछे सरकार का मकसद है कि किसानों को फसल को उगाने के लिए किसी तरह का कर्ज न लेना पड़े. नैचुरल फार्मिंग से किसान कर्जमुक्त होगा और आत्मनिर्भर भारत का सपना भी सच होगा. साथ ही, देश की लोकल से ग्लोबल की अवधारणा साकार होने में मदद मिलेगी. किसानों के जीवनस्तर में सुधार होगा और सरकार की किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य आसानी से पूरा हो सकेगा.

प्राकृतिक व जैविक के बीच अंतर

जैविक खेती में जैविक उर्वरक और खाद जैसे कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट, गाय के गोबर की खाद आदि का उपयोग किया जाता है.

जैविक खेती के लिए अभी भी बुनियादी कृषि पद्धतियों, जैसे जुताई, गुड़ाई, खाद का मिश्रण, निराई आदि की जरूरत होती है. बड़े पैमाने पर खाद की जरूरत के चलते जैविक खेती अभी भी महंगी है और इस पर आसपास के वातावरण का प्रभाव पड़ता है, जबकि प्राकृतिक खेती एक अत्यंत कम लागत वाली कृषि पद्धति है, जो स्थानीय जैव विविधता के साथ पूरी तरह से अनुकूलित हो जाती है.

उत्तर प्रदेश में मसालों की खेती

अधिकतर सभी राज्य एक या 2 मसाले उगाते हैं. लेकिन मुख्य मसाला उत्पादक  राज्य आंध्र प्रदेश, केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु, ओडि़शा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश महत्त्वपूर्ण मसाला उत्पादक क्षेत्र है. यहां पर धनिया, अदरक, मेथी, हलदी प्रमुखता से उगाई जाती है.

पिछले कुछ सालों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मसालों की पैदावार और क्षेत्रफल में काफी बढ़ोतरी हुई है, जो कि क्रमश: 3.6 और 5.6 फीसदी है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मेरठ, आगरा, बरेली और मुरादाबाद मंडलों में हलदी, सूखी मिर्च, धनिया, अदरक, लहसुन, मेथी और सौंफ की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है.

इन सभी मसालों की इस क्षेत्र में काफी मांग होते हुए भी इन की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बहुत कम है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में वैसे तो मसाला फसलों को उगाने के लिए भौगोलिक संसाधन भरपूर हैं, पर उत्पादकता में गिरे हुए स्तर को सुधारने में ये बाधाएं सामने आती हैं :

* भौगोलिक अनुकूलता के अनुरूप उन्नतशील प्रजातियों की कमी.

* परिष्कृत उत्पादन तकनीकों का न होना.

* मसाला उत्पादन के लिए बड़े पैमाने पर प्रचारप्रसार न होना.

* मसाला उत्पादन के लिए सामाजिक कुरीतियों का होना.

भविष्य व विस्तार

उत्तर प्रदेश में मसाले की खेती की संभावनाएं हैं, क्योंकि यहां पर इस के उत्पादन के अनुकूल सभी कारक मौजूद हैं, जिस से इस का भविष्य उज्ज्वल है, जिन में मुख्य कारक निम्न हैं :

अच्छे किस्म केबीज उत्पादन

उत्तर प्रदेश की अनुकूलता के लिए मसाले वाली फसलों की अच्छी किस्मों का विकास किया जा चुका है, जिस से अधिक उत्पादन व अच्छी गुणवत्ता के बीज तैयार कर मसालों की औद्योगिक रूप से फसल पैदा की जा सकती है.

विशेष पैकिंग द्वारा

अधिकतर मसाले जल्दी खराब होने वाले होते हैं और उन की गुणवत्ता के लिए विशेष पैकिंग की आवश्यकता होती है. पैकिंग द्वारा हम अच्छा मूल्य प्राप्त कर सकते हैं. पैकिंग की आधुनिक तकनीक से मसाले और मसाले उत्पाद लंबे समय तक रखे जा सकते हैं, जिस से इन के क्षेत्रफल व विपणन को बढ़ाने की प्रबल संभावनाएं हैं.

जैविक खाद द्वारा मसालों की फसल तैयार करना

जैव पदार्थों द्वारा मसाला पैदा करने का भविष्य अत्यंत सुखद है. जहां एक ओर रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक पदार्थों, खरपतवारनाशकों का प्रयोग अंधाधुंध हो रहा है, वहीं दूसरी ओर जैव पदार्थों द्वारा फसल तैयार करने की मांग दिनप्रतिदिन बढ़ रही है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जैविक खाद द्वारा तैयार मसालों की 20 से 50 फीसदी कीमत अधिक मिल रही है.

मसालों के उद्योगों में कच्चे माल के रूप में प्रयोग

मसाला द्वारा उत्पाद उद्योगों में कच्चे माल के रूप में उपयोग किए जाते हैं जैसे वनिला का उपयोग- केक, आइसक्रीम बनाने में, अदरक का प्रयोग दवाओं में, हलदी का प्रयोग रंग करने में, मिर्च का प्रयोग मसाले के रूप में और ओलियोरेजिंग हलदी का उपयोग सौंदर्य प्रसाधन में किया जाता है, जिन की बहुत आवश्यकता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन का क्षेत्रफल बढ़ाने की प्रबल संभावनाएं हैं.

अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ती मांग

मसाला फसलों का क्षेत्रफल बढ़ा है, पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मसालों की मांग दिनप्रतिदिन बढ़ने से क्षेत्रफल एवं उत्पादन में वृद्धि करना आवश्यक हो गया है. उत्पादकता पर ध्यान देना होगा, जिस से अंतर्राष्ट्रीय मांग की पूर्ति की जा सके.

खाद्य पदार्थ की उद्योग में मांग

खाद्य उद्योग में बनावटी रंग पर प्रतिबंध लगने और स्वास्थ्य के प्रति सचेत होने से हलदी की मांग दिनप्रतिदिन बढ़ रही है, जिस से इस के उत्पादन को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है.

आयुर्वेदिक दवाओं में बढ़ती मांग

जिस तरह से हम जैविक खेती की ओर बढ़ रहे हैं, ठीक उसी प्रकार हम एलोपैथिक दवाओं से परहेज करने लगे हैं. अब औषधियों का प्रयोग करने लगे हैं, जो हलदी व अन्य मसालों वाली फसलों से तैयार होती है.

उद्योग के लिए पूरक कारक मसाले

पश्चिमी उत्तर की जलवायु मसालों की खेती के लिए बहुत उपयुक्त है. यही कारण है कि यहां पर मसालों की खेती बहुतायत से की जाती है. यहां पर बागों की अधिकता होने के कारण उन में मसालों की खेती अतिरिक्त रूप से की जाती है, जिस में धनिया, अदरक, हलदी और मिर्च मुख्य रूप से उगाए जाते हैं.

मृदा

जलवायु की तरह यहां की भूमि मसाला फसलों की खेती के लिए सही है, जिन में सभी फसलें आसानी से उगाई जाती हैं.

मजदूर

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मजदूर आसानी से मिल जाते हैं, जो मसालों को उगाने के लिए पूरक कारक का काम करते हैं, जैसे बोआई, कटाई, बीज की सफाई, परागण में मजदूरों की जरूरत होती है.

भारत में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के दूसरे देश में भी ऐसे पौधों से स्वास्थ्य लाभ उठा रहे हैं. घरेलू औषधि उपचार के लिए मसाले बनाए गए हैं. अगर मसालों को उपयुक्त मौसम में एकत्र किया जाए, उन्हें सही ढंग से रखा जाए और प्रयोग किया जाए, तो आज भी उन का अच्छा असर देखा जा सकता है.

पोषण वाटिका: कुपोषण दूर करने का उपाय

घर में लगी पोषण वाटिका या गृह वाटिका या फिर रसोईघर बाग पौष्टिक आाहार पाने का एक आसान साधन है, जिस में विविध प्रकार के मौसमी फल तथा विविध प्रकार की सब्जियों व फलों को एक सुनियोजित फसलचक्र और प्रबंधन विधि के द्वारा उगाया जाता है.

आमतौर पर पोषण वाटिका घर के आसपास बनाई गई एक ऐसी जगह होती है, जहां पारिवारिक श्रम से विविध प्रकार के मौसमी फल तथा विभिन्न सब्जियां उगाई जाती हैं, जिस से परिवार की वार्षिक पोषण आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके.

पोषण वाटिका का आकार

अलगअलग हालात, जैसे कि जगह, परिवार में सदस्यों की संख्या, रुचि व समय की उपलब्धता पर निर्भर करता है. लगातार फसलचक्र, सघन बागबानी और अंत:फसल खेती को अपनाते हुए एक औसत परिवार, जिस में कुल 5 सदस्य हों, के लिए औसतन 200 वर्गमीटर जमीन काफी है.

पोषण वाटिका के लिए उचित स्थान

* घर के निकट.

* सूरज की रोशनी अच्छी तरह से मिले.

* दोमट मिट्टी सही.

* पर्याप्त सिंचाई के लिए जल की उपलब्धता.

पोषण वाटिका की बनावट

आदर्श गृह वाटिका के लिए 200 वर्गमीटर क्षेत्र में बहुवर्षीय पौधों को वाटिका के उस तरफ लगाना चाहिए, जिस से उन पौधों की अन्य दूसरे पौधों पर छाया न पड़ सके. इस के साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ये पौधे एकवर्षीय सब्जियों के फसलचक्र और उन के पोषक तत्त्वों की मात्रा में बाधा न डालें.

जमीन की तैयारी व क्यारी बनाना

* फावड़ा या कस्सी से मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरा कर 4 से 5 फुट चौड़ी क्यारी बना लें. क्यारी पूरबपश्चिम दिशा में रखें.

* दोनों क्यारियों के बीच 1 फुट की दूरी रखें.

* प्रत्येक क्यारी में गोबर या केचुआं खाद डाल कर मिला लें.

* अतिरिक्त जल निकासी हेतु चारों तरफ से 1 फुट चौड़ी और 1 फुट गहरी नाली बना लें.

सब्जियों का चयन

सब्जियों का चयन करते समय फसलचक्र अपनाना चाहिए. सब्जियों की किस्मों का चुनाव करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वे उन्नत, स्वस्थ्य और प्रतिरोधी हों. किस्में अगर देशी हों तो हमें अगले मौसम में बीज खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी. मौसम के अनुसार सब्जियों को निम्न प्रकार बांटा जा सकता है :

खरीफ : लौकी, तोरई, कद्दू, टिंडा, खीरा, करेला, भिंडी, टमाटर, बैगन, मिर्च, पालक, धनिया आदि.

रबी : गोभी, ब्रोकली, पत्तागोभी, टमाटर, बैगन, मिर्च, पालक, मूली, मेथी, सोया, चौलाई, धनिया, सेम, मटर, राजमा, चुकंदर, गाजर, लहसुन, शलजम, प्याज आदि.

जायद : लौकी, तोरई, कद्दू, खीरा, ककड़ी, करेला, टिंडा, भिंड़ी, टमाटर, बैगन, मिर्च, पालक, धनिया, चौलाई आदि. सब्जियों के साथ आम, अमरूद, सहजन, किन्नू, संतरा, पपीता, करौंदा, अनार, नीबू, आंवला, चीकू, ड्रैगनफ्रूट आदि फलदार पौधे लगाए जा सकते हैं.

भूमि की तैयारी

* जिस स्थान पर पोषण वाटिका लगानी हो, वहां की मृदा में जल व वायु का प्रवाह अच्छा होना चाहिए.

* मृदा जितनी भुरभुरी, कार्बनिक खाद व जीवाश्म तत्त्वों से भरपूर होगी, पैदावार भी उतनी ही अच्छी मिलेगी.

* गमले तैयार करते समय भी कस्सी या खुरपी से मृदा अच्छी तरह भुरभुरी कर ले गोबर की खाद मिला कर गमले तैयार कर लेने चाहिए.

* जिन लोगों के पास घर पर खुला स्थान नहीं है, वे अपनी छत पर सब्जियां उगा सकते हैं.

* आजकल बाजार में अलगअलग आकार के प्लास्टिक बैग, गमले, ट्रे उपलब्ध हैं जो इस काम में प्रयोग किए जा सकते हैं. सीमेंट व प्लास्टिक के गमले, कबाड़ में अनुपयोगी चीजें जैसे बालटी, प्लास्टिक के कट्टे, ट्रे, मटकियां, बोतल आदि का भी उपयोग कर सकते हैं. इन में बराबर मात्रा में मिट्टी व कंपोस्ट का मिश्रण भर कर सब्जियों का रोपण व बिजाई कर सकते हैं.

वाटिका में पौधों की सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण एवं खाद और उर्वरक प्रबंधन

* आमतौर सब्जियों की बोआई 2 तरीकों से की जा सकती है, पौधशाला तैयार कर के (टमाटर, बैगन, मिर्च, प्याज, गोभीवर्गीय सब्जियां, सलाद) व सीधी बोआई से (खीरावर्गीय सब्जियां, मूली, मटर, भिंडी, सेम, पालक, इत्यादि).

* कीट एवं रोग प्रबंध पोषण वाटिका से अस्वस्थ पौधों को तुरंत निकाल कर नष्ट कर दें. फसलचक्र अपनाना लाभदायक होता है. बोआई के लिए प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करें. स्वस्थ पौधशाला तैयार करें.

* गार्डन को साफ रखें. खरपतवार निकालते रहें. जब भी पोषण वाटिका या गृह वाटिका में खरपतवार दिखें, तो हाथ से निकाल देना चाहिए. प्लास्टिक पलवार लगाने से भी खरपतवार की रोकथाम होती है और मृदा में नमी बराबर रहती है तथा अतिआवश्यक होने पर पौध संरक्षण रसायनों के स्थान पर जैविक कीटनाशकों जैसे जीवामृत का ही प्रयोग करें.

* खाद व उर्वरक का अच्छी पौदावार प्राप्त करने में अधिक महत्व है. इस के लिए आवश्यक है कि मृदा में कार्बनिक खाद का प्रयोग हो. यह खाद मृदा की दशा सुधारती है व पौधों को आवश्यक पोषक तत्त्वों की पूर्ति भी करती है. इस के लिए गृहवाटिका के एक कोने में कंपोस्ट खाद का भी निर्माण भी किया जा सकता है.

* खाद में पोषक तत्त्वों की वृद्धि के लिए, संभव हो तो, केंचुओं द्वारा तैयार वर्मीकंपोस्ट इकाई की स्थापना कर वर्मीकंपोस्ट का उपयोग कर सकते हैं.

सब्जियों कर तुड़ाई

तुड़ाई की अवस्था फसल के स्वभाव पर निर्भर करती है. उदाहरण के लिए लौकी, करेला, टिंडा, भिंडी, तोरई आदि को कच्ची अवस्था पर तरबूज, खरबूजा, टमाटर आदि को पकने पर तोड़ा जाता है

पोषण वाटिका के मुख्य लाभ

पोषण वाटिका से परिवार, पड़ोसियों व रिश्तेदारों को तरोताजा हवा, प्रोटीन, खनिज और विटामिन से युक्त फल, फूल व सब्जियां प्राप्त होती हैं. इस के साथ ही परिवार के हर सदस्य द्वारा बगिया में काम करने से शारीरिक व्यायाम भी होता है. इस से परिवार के सदस्य स्वस्थ्य व प्रसन्न रहते हैं.

स्वयं की मेहनत एवं पसीने से उपजी हरीभरी तरोताजा सब्जियों को देख कर सभी का तन मन प्रफुल्लित होगा. इस के अलावा सब्जियां खरीदने के लिए बाजार में जाने का बहुमूल्य समय भी बच जाता है.

वास्तव में स्वयं की देखरेख व मेहनत से पैदा की गई सब्जियों का स्वाद और मजा कुछ और ही होता है. इस प्रकार पोषण वाटिका स्थापित करना परिवार के स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए बुद्धिमत्तापूर्ण कदम साबित होगा.

औषधीय व सुगंधित पौधों की जैविक खेती

पौधों की जैविक विधि से खेती हमारी परंपरागत खेती रही है. आज भी ज्यादातर औषधियां जंगलों से उन के प्राकृतिक उत्पादन क्षेत्र से ही लाई जा रही हैं. इस का मुख्य कारण तो उन का आसानी से उपलब्ध होना है, पर इस से भी बड़ा कारण जंगल के प्राकृतिक वातावरण में उगने के चलते इन पौधों की अच्छी क्वालिटी का होना है.

वर्तमान में आयुर्वेदिक हर्बल दवाओं का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है, जिस से इन का जंगलों से दोहन और भी बढ़ रहा है और मांग को पूरा करने के लिए कई औषधीय व सुगंधीय पौधों की खेती भी की जा रही है. चूंकि औषधियां रोगों को ठीक करने के लिए व सुगंधीय फसलों में से सुगंधित पदार्थ निकालने में काम आते हैं, इसलिए उत्पादन ज्यादा करने के बजाय अच्छी क्वालिटी के लिए उत्पादन करना जरूरी व बाजार की मांग के मुताबिक है. अच्छी क्वालिटी हासिल करने के लिए जैविक या प्राकृतिक तरीके से उत्पादन ही एकमात्र तरीका है,

क्योंकि :

* प्राकृतिक या जैविक तरीके से उत्पादन करने पर औषधीय पौधों में क्रियाशील तत्व व सुगंधित पौधों में तेल की मात्रा में बढ़ोतरी होती है, जबकि रासायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी आदि के इस्तेमाल से उन की क्वालिटी घटती जाती है.

* रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से पौधे और उनके उत्पाद की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है जो रोग को ठीक करने के बजाय उसे और ज्यादा बढ़ा सकते हैं, इसलिए सिर्फ प्राकृतिक तरीकों से रोग, कीट नियंत्रण करना चाहिए.

* इस के अलावा कई दूसरी तरह की हानियां, जो रासायनिक खेती से जुड़ी हैं, वे सभी इन फसलों की खेती में भी होती हैं. जैसे लागत का बढ़ना, भूमि की उर्वरता का कम होना, कीटनाशकों में प्रतिरोधकता पैदा होना और गांवखेत में प्रदूषण का बढ़ना आदि. लिहाजा, उचित यही है कि औषधीय और सुगंधीय पौधों की जैविक खेती की जाए. जैविक खेती जरूरी भी और मजबूरी भी पर्यावरण व भूमि को बचाने के लिए और उपभोक्ता की सेहत के लिए जैविक खेती बेहद जरूरी है.

औषधीय व सुगंधीय पौधों की जैविक खेती के सुझाव:

* औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती सदैव जंगल जैसे वातावरण बना कर ही की जाए यानी खेत में कुछ पेड़, कुछ झाडि़यां, कुछ लताएं व कुछ शाकीय फसलें हों. इस में मृदा की उर्वरता, सूरज की रोशनी, मृदा में नमी में जो संतुलन होगा, उस से इन की क्वालिटी बढ़ेगी. दूसरे, कई फसलों के होने से बाजार में मांग व पूर्ति में संतुलन हो सकेगा, जिस से किसान को हानि होने की संभावना भी कम होगी.

* वर्मी कंपोस्ट या केंचुआ खाद का इस्तेमाल जरूर किया जाना चाहिए, जिस में ज्यादा मात्रा निराईगुड़ाई के समय दी जानी चाहिए. इस से न केवल अच्छा उत्पादन हासिल होगा, इस के साथ ही क्वालिटी भी बहुत अच्छी होगी, किंतु वर्मी कंपोस्ट खुद के खेत अथवा ग्राम स्तर पर बना कर नमीयुक्त अवस्था में छायादार स्थान पर भंडारण कर 15-20 दिन में इस्तेमाल कर लेना चाहिए. प्लास्टिक के बोरों में पैक सूखा या 15 दिन से ज्यादा पुराने वर्मी कंपोस्ट के गुण बहुत कम हो जाते हैं.

* रोग व कीट नियंत्रण के लिए नीम+गोमूत्र का छिड़काव 15-20 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए. * भूमि के रोग व कीटों को नष्ट करने के लिए नीम की खली या पिसी हुई निंबोली 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में 2 साल में एक बार जरूर देनी चाहिए.

* अग्निहोत्र, अमृत पानी, पंचगव्य आदि का प्रयोग मृदा में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ाने व जलवायुजनित कीट व रोग से बचाव करने के लिए किया जा सकता है.

* कुछ औषधीय फसलों की खेती सामान्य फसल चक्र या सहफसली खेती के रूप में भी की जा सकती है. जैसे सब्जियों की खेती के अंतराशस्य के रूप में सुगंधित घासों/मसालों की खेती से कई रोग व कीट कम लगते हैं.

* औषधीय पौधों में क्वालिटी सब से अहम है, इसलिए सही समय पर कटाईतुड़ाई और छाया में सुखा कर भंडारण/विक्रय करना चाहिए.

* थोड़े बीज या पौध को बाजार से ला कर उस का खुद के खेत में जैविक तरीके से उत्पादन करना चाहिए. इस से हासिल बीज को ही पूरे खेत में लगाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए.

* बीज से बाजार तक की पूरी जानकारी होने पर ही औषधीय पौधों की खेती बड़े पैमाने पर करनी चाहिए.

* अनाज वाली फसलों की मांग हमेशा रहेगी और औषधीय व सुगंधित फसलों की मांग व बाजार भाव से तेजी से ऊपरनीचे होते रहते हैं, इसलिए किसान अनाज वाली फसलों को न हटाएं, बल्कि औषधीय व सुगंधीय फसलों को फसल चक्र अंतराशस्य के रूप में स्थान दें. इस से बाजार के अनुसार तालमेल बिठाने में आसानी रहेगी.

जैविक खेती है कुदरत का एक मुफ्त उपहार

जैविक खेती के लिए इस्तेमाल की जाने वाली खाद खेती के अवशेष व पशु अपशिष्ट से बनती है, जिस में लागत के नाम पर सिर्फ मेहनत ही होती है. इन के इस्तेमाल से भूमि उपजाऊ और जल की बचत होती है. इसी प्रकार जैविक कीट नियंत्रण नीम व गोमूत्र से बनाए जाते हैं, जिन का कोई गलत असर नहीं होता है. जैविक उत्पाद, स्वादिष्ठ, अच्छी गंध व रूप वाले और ज्यादा समय तक भंडारण करने के लायक होते हैं और इन का बाजार भाव भी अधिक मिलता है.

अकसर किसान बीघा नाप को ही आधार मान कर खेती की सभी गणनाएं (नापतोल) आदि क्रियाएं करते हैं, इसलिए एक बीघा में जितनी खाद्य व जैविक कीट नियंत्रक की जरूरत होती है, उसी के हिसाब से गणना की जाए तो समझने में आसानी रहेगी.

एक गाय : सालभर में एक गाय तकरीबन 3-3.5 टन गोबर देती है. अगर सिर्फ गोबर से ही खाद बने, तो तकरीबन 2 टन खाद तो बनेगी ही, जो कि एक बीघा जमीन में अगर फसलें या सब्जियों की फसल भी लगाई जाए तो भी काफी रहता है. इसी तरह एक गाय तकरीबन 1,000 लिटर मूत्र पैदा करती है, जिस में से आधा तो खाद या सिंचाई के साथ दे देने के बाद भी 500 लिटर गोमूत्र व नीम की पत्ती से इतना कीट नियंत्रक बन सकता है कि एक बीघा जमीन में सालभर में हर 15 दिन बाद तकरीबन 20 छिड़काव किए जा सकते हैं.

एक नीम : नीम की पत्तियां तो गोमूत्र आधारित कीटनाशक व भूमि में हरी खाद के रूप में काम आ ही जाती हैं. साथ ही, एक नीम से हर साल कम से कम 50-60 किलोग्राम निंबोली मिलती है, जिस का तकरीबन 10-15 लिटर नीम तेल निकालने के बाद 40 किलोग्राम खल को जमीन में मिलाने से पोषक तत्त्व तो मिलते ही हैं, साथ ही साथ जमीन से पैदा होने वाली फसलों के कीड़े व रोग भी कम हो जाते हैं. जैविक खेती को आसान बनाने के लिए प्रति बीघा जमीन के हिसाब से एक गाय का पालन और एक नीम लगाएं, तो बाहर से शायद कुछ भी लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. साथ ही नीम की छाया और गाय का शुद्ध दूध मिलेगा.

पेड़ों का सहारा जरूरी है जैविक खेती में : औषधीय पौधों की खेती के लिए जंगल जैसा वातावरण बनाने के लिए खेत में पेड़ों को उचित संख्या का उचित प्रणाली का होना बहुत जरूरी हो जाता है. ये पेड़ औषधीय उपयोग के लिए भी हो सकते हैं. पेड़ों को फसलों के साथ लगाने का तरीका नया नहीं है और शस्य वानिकी या एग्रोफोरैस्ट्री के नाम से जाना जाता है.

इस में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :

* कुछ थोड़े से प्रयास से किसान खुद की पौधशाला में पौधे तैयार कर सकते हैं. खेत के पास पौधशाला में तैयार किए गए पौधे ज्यादा सेहतमंद, विकसित जड़ वाले और अच्छे से पनपते हैं.

* पेड़ की प्रजाति ऐसी होनी चाहिए, जिस से सालभर थोड़ीथोड़ी पत्तियां झड़ती रहें, जो भूमि पर गिर कर मल्च का काम करें (भूमि को ढक कर रखें) और बाद में खाद के रूप में पोषण दें.

* बड़े पेड़ों को खेत की बाड़ पर वायु अवरोधक के रूप में व छोटे वृक्षों या फलदार पौधों जैसे आंवला, बेल, किन्नू व बेर आदि को फसल की कतारों के बीच कम से कम 8 से 10 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए, ताकि फसलों से होड़ न हो. कुछ कांटेदार झाडि़यों जैसे कांटा-करंज (औषधीय पौधा) आदि को खेत की सुरक्षा के लिए बाढ़ के रूप में भी लगाया जा सकता है.

* खेत की मेंड़ या गौशाला या चौपाल में कम से कम 2 से 3 पेड़ नीम, बकायन, करंज, सहजन आदि जरूर लगाएं, जो औषधीय पौधे होने के साथसाथ रोग के नियंत्रण में भी सहयोगी होते हैं.

* पेड़ों की नियमित रूप से काटछांट करते रहना चाहिए, ताकि वे सीधे तने वाले बने रहें और खेती के काम में बाधक न बनते हों.

* सुबह की धूप सभी पौधों के लिए लाभकारी होती है, इसलिए पेड़ों को हमेशा ऐसी दिशा में लगाना चाहिए, ताकि फसल को सुबह सूरज की रोशनी जरूर मिलती रहे.

* सुरक्षा के लिए चारों ओर उन की छाया के बराबर थाला बना देना चाहिए, जिस में नियमित रूप से खाद व पानी देते रहना चाहिए. इस से फसल और पेड़ों में किसी भी तरह की होड़ नहीं होगी और दोनों का विकास अच्छा होगा. थालों में घासफूस की मल्च बिछाने से पानी का नुकसान कम होता है.

* दीमक से बचाव के लिए पौधे लगाने से पहले गड्ढा भरते समय सड़ी हुई गोबर की खाद में आंक, नीम के पत्तों व निंबोली का चूरा मिला कर भरना चाहिए और हर साल खाद के साथ ही नीम व आंक के पत्ते मिलाने चाहिए.