प्रदेश के सभी कृषि विश्वविद्यालयों में टेस्टिंग लैब स्थापित की जाए

लखनऊ : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में उन के सरकारी आवास पर राज्य कृषि उत्पादन मंडी परिषद के संचालक मंडल की 168वीं बैठक आयोजित की गई.

इस मौके पर मुख्यमंत्री द्वारा किसानों के हितों के संरक्षण के लिए विभिन्न दिशानिर्देश दिए गए.
बैठक में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि राज्य कृषि उत्पादन मंडी परिषद द्वारा किसानों के हितों का ध्यान रखते हुए किए जा रहे प्रयास सराहनीय है. मंडी शुल्क को न्यूनतम करने के बाद भी राजस्व संग्रह में मंडियों का अच्छा योगदान है. वित्तीय वर्ष 2021-22 में जहां 614 करोड़ रुपए की आय हुई थी, वहीं वर्ष 2022-23 में 1520.95 करोड़ रुपए की आय हुई है. वर्तमान वित्तीय वर्ष के पहले 2 माह में अब तक 251.61 करोड़ रुपए का राजस्व संग्रहित हो चुका है.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि फसलों को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए गुणवत्तापूर्ण रोपण सामग्री, बागबानी फसलों के गुणवत्तापूर्ण रोपण एवं रोगमुक्त बनाने के लिए आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय किसानों की सुविधा के दृष्टिगत राज्य सरकार ने बड़ी संख्या में ग्रामीण हाटपैठ और आधुनिक किसान मंडियों का निर्माण कराया है, क्षेत्रीय जरूरतों के अनुसार नए हाटपैठ और किसान मंडियों का निर्माण कराया जाना चाहिए. इन का अच्छा मेंटीनेंस रखें. पटरी व्यवसायियों को यहां समायोजित किया जाना चाहिए. मंडियों में रोशनी की समुचित व्यवस्था हो, जलभराव की स्थिति न हो, किसानों की सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाए और कृषि फसल की सुरक्षा के अच्छे इंतजाम किए जाएं. शौचालय और पेयजल के पर्याप्त इंतजाम रखें.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह भी कहा कि यह सुखद है कि मंडी परिषद की सहायता से कृषि विश्वविद्यालयों में छात्रावासों का निर्माण कराया जा रहा है. इन छात्रावासों का निर्माण कार्य गुणवत्ता का पूरा ध्यान रखते हुए समयबद्ध ढंग से कराया जाए. कृषि मंत्री द्वारा इन निर्माणाधीन छात्रावासों का निरीक्षण किया जाए. विभिन्न जनपदों में कृषि उत्पादन मंडी परिषद की भूमि/भवन निष्प्रयोज्य हैं. इस भूमि/ भवन के व्यवस्थित इस्तेमाल के लिए ठोस कार्ययोजना बनाई जाए. इन के माध्यम से परिषद अपनी आय का एक नवीन विकल्प भी सृजित कर सकता है.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आगे कहा कि कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देने के लिए प्रदेश सरकार द्वारा अनेक नीतिगत प्रयास किए जा रहे हैं. प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए भी योजनाबद्ध रीति से काम किया जा रहा है. किसानों को उन की उपज की वाजिब कीमत मिले, उत्पाद की ब्रांडिंग हो, सही बाजार मिले, इस के लिए राजधानी लखनऊ में ‘एग्री मौल’ स्थापित किया जा रहा है. इस बारे में कार्यवाही तेजी से आगे बढाएं. एग्री मौल में किसान सीधे अपने फलसब्जियों की बिक्री कर सकेंगे. मंडी परिषद द्वारा नवी मुंबई में निर्यात प्रोत्साहन के लिए वर्ष 2006 में स्थापित किए गए औफिस ब्लौक को और उपयोगी बनाने के लिए इसे एमएसएमई विभाग से जोड़ा जाना चाहिए.

इस अवसर पर कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही और राज्य कृषि उत्पादन मंडी परिषद के संचालक मंडल के सदस्यगण उपस्थित थे.

आत्मनिर्भरता की मिसाल बन रहा है किसान विजय

देश के किसान खेत में जितनी मेहनत करते हैं, उतनी ही मेहनत अपने उत्पादन को बेचने के लिए नहीं करते. मेरे कहने का मतलब है कि वे सही से मार्केट नहीं तलाशते और जल्द निराश हो कर बैठ जाते हैं.

‘किसान भाइयों को अपने उत्पादन को सीधे ही उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का काम करना चाहिए. ऐसा करने पर निश्चित रूप से खेती में अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है.’

यह कहना है 24 साला किसान विजय गाडरी का, जो गांव बिलोदा, तहसील डुंगला, चित्तौड़गढ़, राजस्थान के रहने वाले हैं. उन का गांव उदयपुर से 70 किलोमीटर की दूरी पर है.

पैसिफिक कालेज औफ एग्रीकल्चर, उदयपुर से कृषि में बीएससी (द्वितीय वर्ष) की पढ़ाई करने वाले इस युवा किसान ने आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश की है.

बातचीत के दौरान विजय ने बताया, ‘सब्जियों की फसल में गोबर की सड़ी खाद, वर्मी कंपोस्ट, वेस्ट डी कंपोजर, गोकृपा अमृतम, माइकोराईजा और ह्यूमिक एसिड का प्रयोग किया. फसल को कीटों से बचाने के लिए गोमूत्र, आक, धतूरा, करंज, नीम की पत्तियों से मिला कर बनाए घोल का प्रयोग किया.’

विजय के पिता भेरूलाल बताते हैं, ‘जब  उन्होंने सब्जियों की पहली तुड़ाई की और सब्जी मंडी गए तो भिंडी के 4-5 रुपए किलो, ग्वारफली के 6 रुपए किलो और तुरई के 8 रुपए किलो के भाव बताए, जो मेहनत के मुकाबले बेहद कम थे.’

विजय ने कहा, ‘हम इन सब्जियों को इतने कम दामों में नहीं बेचेंगे. यहां बेचने से बेहतर है कि हम अपने आसपास के कसबों और गांवों में स्थानीय उपभोक्ताओं को ही सीधे इन की डिलीवरी दें. और हम ने ऐसा ही किया. इस सब के लिए हम ने सोशल मीडिया को प्रचार का माध्यम बनाया.

यूट्यूब चैनल भी हिट है…

बात फरवरी, 2018 की है, जब विजय ने अपने खेत में वेस्ट डी कंपोजर बनाया. इस काम का एक वीडियो उस ने यूट्यूब पर अपलोड कर दिया. बात आईगई हो गई.

2-3 महीनों बाद इसी वीडियो पर किसानों के सवालों की  झड़ी लग गई. उसे लगा कि आज भी भारत में ज्यादातर किसानों के पास तकनीकी जानकारी नहीं है. यदि वह वीडियो के माध्यम से ऐसी जानकारी देने का काम करे तो सीधे तौर पर वह किसान भाइयों की मदद कर सकता है.

इसी सोच को मूर्त रूप देते हुए उस ने ‘इनोवेटिव फार्मर्स’ नाम से अपना यूट्यूब वीडियो चैनल बनाया और किसानों की सेवा में जुट गया.

आलू की खेती

हमारे देश में गेहूंचावल के बाद आलू की अच्छीखासी पैदावार होती है. उत्तर प्रदेश में सब से ज्यादा आलू की खेती की जाती है.

कई बार आलू की खेती से किसान अच्छाखासा मुनाफा कमाते हैं, लेकिन कभीकभार यही ज्यादा पैदावार किसानों के लिए घाटे का सौदा भी बन जाती है, इसलिए सब से पहले हमें आलू की बोआई में अच्छी किस्मों का इस्तेमाल करना चाहिए जो रोगरहित हों.

केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला ने आलू की 3 नई किस्में तैयार की हैं. संस्थान द्वारा विकसित ये नई किस्में कुफरी गंगा, कुफरी नीलकंठ और कुफरी लीमा हैं. आलू की ये प्रजातियां मैदानी इलाकों में आसानी से पैदा होंगी. किसान आलू की नई किस्में लगा कर अच्छी पैदावार ले सकते  हैं.

ये आलू पकने में आसान हैं और इन का स्वाद भी अच्छा है. कम समय में अधिक पैदावार होगी. 70 से 135 दिन की अलगअलग कुफरी किस्म की फसल से प्रति हेक्टेयर 350 से 400 क्विंटल तक पैदावार ली जा सकती है.

देश के केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला ने विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के लिए अब तक 51 आलू की प्रजातियां विकसित की हैं. इन में से कुछ चुनिंदा किस्मों की जानकारी दी गई है. इन प्रजातियों को देश के अलगअलग इलाकों में लगाया जाता है.

देश की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के मुताबिक पूरे साल कहीं न कहीं आलू की खेती होती रहती है. उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब और हिमाचल प्रदेश आलू के उत्पादन में अग्रणी राज्य माने जाते हैं. देश में सब से ज्यादा आलू उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है. देश के कुल उत्पादन में 32 फीसदी हिस्सेदारी उत्तर प्रदेश की है.

किसानों को चाहिए कि वे आलू की खेती करने के लिए अपने इलाके के हिसाब से बेहतर बीज का चुनाव करें और समय पर फसल बोएं. आलू बीज का आकार भी आलू की पैदावार में खासा माने रखता है.

फसल से अच्छी पैदावार लेने के लिए जमीन समतल और पानी के अच्छे निकास की सुविधा होनी चाहिए. आलू की खेती अनेक तरह की मिट्टी में की जा सकती है परंतु अच्छी पैदावार के लिए अधिक उर्वरायुक्त बलुई दोमट व दोमट मिट्टी ठीक रहती है.

बोआई का उचित समय : आलू की अगेती बोआई के लिए 15 सितंबर से 15 अक्तूबर तक का समय ठीक होता है. सामान्य फसल की बोआई के लिए 15 अक्तूबर से 15 नवंबर तक का समय सही रहता है.  आलू की अनेक किस्म ऐसी हैं जो बोने के 70-80 दिनों बाद आलू खोदने लायक हो जाते हैं.

बोआई करने से पहले बीजोपचार जरूर करें. इस से जड़ वाली बीमारियों से छुटकारा मिलता है. इस के लिए बोरिक एसिड 3 फीसदी का घोल यानी 30 ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से घोल बनाएं.

उर्वरकों का इस्तेमाल :

आलू की अच्छी फसल के लिए 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 80 किलोग्राम पोटाश की जरूरत प्रति हेक्टेयर होती है. अच्छी पैदावार लेने के लिए गोबर की खाद भी डालें. यदि आप ने फसल बोने से पहले मिट्टी की जांच कराई हो और उस में जस्ता व लोहा जैसे सूक्ष्म तत्त्वों की कमी हो, तो 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट और 50 किलोग्राम फेरस सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से उर्वरकों के साथ बोआई से पहले खेत में डालें.

बीजों की मात्रा :

बोआई के लिए आलू के रोगरहित बीज भरोसे की जगह से खरीदें. वैसे, सरकारी संस्थानों, राज्य बीज निगमों या बीज उत्पादन एजेंसियों से ही बीज खरीदना चाहिए.

बोआई :

आलू की बोआई करने के लिए मेंड़ से मेंड़ की दूरी 50-60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 15 से 20 सैंटीमीटर रखें. कई बार आलू के आकार के हिसाब से यह दूरी कम या ज्यादा भी की जाती है.

आमतौर पर आलू को 8 से 10 सैंटीमीटर की गहराई पर खुरपी की सहायता से बोया जाता है, ताकि अंकुरण के लिए मिट्टी में सही नमी बनी रहे.

हाथ से बोई गई फसल में पौधों में अच्छे विकास और अच्छी पैदावार के लिए पेड़ों की जड़ों पर मिट्टी चढ़ाना भी जरूरी होता है. जब पौधे 15-20 सैंटीमीटर के हो जाएं तो ऊपर मिट्टी चढ़ाएं.

ये सामान्य बातें हैं जिन्हें सभी किसान जानते हैं. आजकल आलू की बोआई के लिए बाजार में आलू बोने के यंत्र भी मौजूद हैं, जिन्हें हम पोटैटो प्लांटर कहते हैं.

सिंचाई का रखें ध्यान

फसल की पहली सिंचाई बोआई के 15-20 दिनों के अंदर कर लेनी चाहिए. सिंचाई करते समय ध्यान रखें कि मेंड़ें पानी में आधे से अधिक नहीं डूबनी चाहिए.

इस के बाद तकरीबन 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा सिंचाई करें. आलू की फसल में तकरीबन 8 से 10 बार सिंचाई की जरूरत होती है. आलू तैयार होने पर जब उस की खुदाई करनी हो तो तकरीबन 10 दिन पहले ही उस की सिंचाई बंद कर दें जिस से आलू की खुदाई अच्छी तरह से हो सके.

फसल में कीट व रोगों से बचाव है जरूरी

आलू की फसल को अनेक रोग व कीटों से बचाने के लिए बीमारी के हिसाब से दवाओं का इस्तेमाल करें. आलू में अनेक तरह की बीमारियां जैसे अगेती झुलसा और पछेती झुलसा होने पर पौधे की पत्तियों पर गोल आकार के भूरे धब्बे बनने शुरू हो जाते हैं.

इन कीटों की रोकथाम के लिए 2 से ढाई किलोग्राम डाइथेन जेड 78 या डाइथेन एम 45 का 1000 लिटर पानी में घोल बना कर फसल पर छिड़काव करें. जरूरत पड़े तो 15 दिन बाद फिर से यह क्रिया अपनाएं.

आलू की दूसरी बीमारी है आलू का कोढ़ यानी कौमन स्कैब. इस रोग से फसल की पैदावार में तो कमी नहीं आती, लेकिन आलू भद्दे हो जाते हैं, जिस से बाजार में उन की सही कीमत नहीं मिल पाती है. आलू के कंदों के छिलकों पर लाल या भूरे रंग के छोटेछोटे धब्बे बन जाते हैं. इस बीमारी से बचाव के लिए बीजोपचार जरूरी है.

ऐसे करें कीट नियंत्रण

एपीलेक्ना बीटल : इस कीट की सूंड़ी व वयस्क दोनों ही पत्तियां खाते हैं, जिस से पत्तियों में केवल नसें बचती हैं. यह कीट पीले रंग के होते हैं. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी 1.25 लिटर या कार्बारिल 5 फीसदी घुलनशील चूर्ण की 2 किलोग्राम मात्रा 800 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

कटवर्म : यह जमीन के अंदर रहने वाला कीट है, इस की सूंड़ी रात के समय छोटेछोटे पौधों के तनों को काट देतीहै. इस की रोकथाम के लिए एल्ड्रिन 5 फीसदी चूर्ण आखिरी जुताई के समय मिट्टी में मिला दें.

आलू का माहू कीट : यह हरे रंग का कीट होता है, जो विषाणु फैलाता है. बचाव के लिए डाईमिथोएट 30 ईसी की 1 लिटर मात्रा 600 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

सफेद लट या गुबरेला : यह कीट जमीन के अंदर फसल को नष्ट कर देता है. फोरेट 10 जी या काबोफ्यूराल 3 जी 15 किलोग्राम बोआई से पहले इस्तेमाल करें.

जूट की उन्नत खेती से बढ़ाएं आमदनी

देश में खाद्यान्न भंडारण के लिए जूट के बोरों की कमी के चलते हर साल हजारों टन अनाज बरबाद हो जाता है, जबकि आज भी भारत दुनिया के सब से बड़े जूट उत्पादक देश के रूप में जाना जाता है. लेकिन हाल ही के वर्षों में देश में जूट की खेती में भारी कमी देखने को मिल रही है, जबकि जूट और उस से बने उत्पादों की मांग में लगातार बढ़ोतरी ही हुई है.

जूट के रेशे से न केवल बोरे बनाए जाते हैं, बल्कि इस से दरी, तंबू, तिरपाल, टाट, रस्सियां, निम्न कोटि के कपड़े और कागज, फैशनेबल वस्तुएं, बैग, कंबल, पैकिंग से जुड़े उत्पाद जैसी सैकड़ों वस्तुओं को बनाया जाता है.

भारत से आज भी कई देशों को जूट और उस से बनी वस्तुओं का निर्यात किया जाता है. ऐसे में किसान अगर जूट की खेती उन्नत तरीके से करें, तो अपनी आमदनी में इजाफा कर सकते हैं, क्योंकि जूट को नकदी फसलों में गिना जाता है.

उन्नत किस्में

जूट की फसल से अधिक उत्पादन लेने के लिए उस की उन्नत प्रजातियों का चयन किया जाना जरूरी हो जाता है.

जूट की 2 किस्में प्रचलित हैं, जिस में अलगअलग प्रजातियां बोए जाने के लिए उपयोग में लाई जाती हैं.

जूट की पहली किस्म को कैपसुलेरिस के नाम से जाना जाता है. इसे सफेद जूट या ककिया बंबई जूट के नाम से भी जाना जाता है. इस की पत्तियां चखने पर स्वाद में कड़वी होती हैं. इस किस्म की प्रजातियों को अगेती फसल के रूप में बोया जाता है. इस की जेआरसी-321 प्रजाति अधिक उत्पादन देने वाली मानी जाती है. इस प्रजाति की फसल जल्दी पक कर तैयार होती है. वहीं दूसरी प्रजाति जेआरसी-212 को देर से यानी बोआई मार्च से मई माह में बो कर के जुलाईअगस्त माह तक काटा जाता है.

जूट की जेआरसी-698 प्रजाति को उन्नत प्रजातियों में गिना जाता है. इसे मार्च माह से ले कर मई माह के दूसरे हफ्ते तक बोया जाता है. इस के अलावा कैपसुलेरिस की अंकित (एनडीसी) व एनडीसी- 9102 किस्में भी उत्पादन के नजरिए से अच्छी मानी जाती है.

जूट की दूसरी किस्म ओलीटोरियस को पछेती फसल के रूप बोआई के लिए सब से उपयुक्त माना जाता है. इस की बोआई अप्रैल के अंत से ले कर जून के अंत तक किया जाता है.

उन्नत किस्में जेआरओ- 632, जेआरओ-878, जेआरओ- 7835, जेआरओ-524,(नवीन), जेआरओ-66 हैं. इन किस्मों से अच्छी मात्रा में रेशा प्राप्त होता है.

भूमि का चयन व खेत की तैयारी

जूट की खेती भारत में पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़ कर सभी जगह आसानी से की जा सकती है. इस की खेती सब से अधिक पश्चिम बंगाल में की जाती है. इस के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिसा, असम में भी इस की खेती अच्छे लेवल पर की जाती है.

जूट की खेती के लिए भूमि का समतल होना जरूरी है, जिस में पानी का निकास अच्छे से हो. साथ ही, पानी रोकने की पर्याप्त क्षमता वाली दोमट और मटियार दोमट भूमि भी जूट की खेती के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है. इस की बोआई के पूर्व खेत की अच्छी तरह जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए.

मिट्टी को भुरभुरा बना लेना इसलिए जरूरी होता है, क्योंकि चूंकि जूट का बीज बहुत छोटा होता है. इस से बीज का जमाव अच्छा होता है. बोआई के समय मिट्टी में उपयुक्त नमी होना जरूरी है. इस से जमाव सही होता है.

बोआई का उचित समय

जूट की खेती अगर उन्नत तरीकों और समय से की जाए, तो इस से अच्छा उत्पादन प्राप्त होता है. इस की बोआई का सब से उचित समय मार्च महीने से ले कर जुलाई महीने तक का होता है. तराई क्षेत्र में इसे मार्च महीने से बोना शुरू कर दिया जाता है, लेकिन ऊंची भूमि पर यह जुलाई महीने तक बोई जाती है.

बीज शोधन व बोने की विधि

कृषि विज्ञान केंद्र, संतकबीर नगर में विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह ने बताया कि जूट के बीज को खेतों में बोने से पहले थीरम 3 ग्राम या कार्बेन्डाजिम 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित किया जाना चाहिए.

अगर इस की बोआई सीड ड्रिल से की जा रही है, तो 3-5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की मात्रा पर्याप्त होती है. लेकिन छिटकाव विधि से बोने पर बीज की मात्रा अधिक लगती है और इस में प्रति हेक्टेयर 5-6 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है.

जूट के बीज की लाइन से लाइन की दूरी 30 सैंटीमीटर व पौध से पौध की दूरी 7-8 सैंटीमीटर एवं गहराई 2-3 सैंटीमीटर से अधिक नहीं रखनी चाहिए. सीड ड्रिल के प्रयोग से एक व्यक्ति एक दिन में एक एकड़ की बोआई कर सकता है.

खाद एवं उर्वरक

जूट की खेती से अधिक उत्पादन के लिए खेत की जुताई के वक्त 25 से 30 टन सड़ी हुई गोबर की खाद को खेत में डाल कर मिट्टी में अच्छे से मिला लेना चाहिए. साथ ही, खेत में आखिरी जुताई के समय नाइट्रोजन 45 किलोग्राम, फास्फोरस 25 किलोग्राम व पोटाश 25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डाल कर मिट्टी में मिला दें. इस के बाद बोआई के समय उपयोग की गई नाइट्रोजन की आधी मात्रा को 2 बार पौधों की सिंचाई के साथ देना फसल के लिए लाभदायक होता है.

फसल की देखभाल व खरपतवार नियंत्रण

फसल की बोआई के पश्चात जब पौधे जमीन से बाहर आ जाते हैं, तो फसल की पहली गुड़ाई की जाती है, जिस से फसल से घास व खरपतवार निकल जाता है. इस से जूट के पौधों की जड़ें साफ और हलकी हो जाती हैं और पौधों को वातावरण से औक्सीजन और नाइट्रोजन आसानी से मिलने लगता है और पौधे तेजी से बढ़ते हैं. गुड़ाई का काम फसल बोआई के 21 दिनों के भीतर कर लिया जाना चाहिए.

जूट की फसल में खरपतवार का नियंत्रण किया जाना बहुत जरूरी है, क्योंकि फसल में खरपतवार होने से फसल की बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है. इसलिए फसल की बोआई के 20-25 दिन बाद खरपतवार को निराई कर के निकाल देना चाहिए और विरलीकरण कर के पौधे से पौधे की दूरी 6-8 सैंटीमीटर कर देना चाहिए.

गुड़ाई के 2-3 दिन बाद फसल की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. जब तक बारिश न हो, तब तक हर 15 दिन पर सिंचाई करते रहें. बारिश होने पर सिंचाई की जरूरत नहीं है.

फसल में अधिक खरपतवार की दशा में इस का नियंत्रण खरपतवारनाशी से किया जा सकता है. खड़ी फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए 30-35 दिन के भीतर क्विनालफास इथाइल 5 फीसदी की एक लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना प्रभावी होता है.

गुड़ाई के 2-3 दिन बाद फसल की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. जब तक वर्षा न हो, तब तक हर 15 दिन पर सिंचाई करते रहें. बारिश होने पर सिंचाई की जरूरत नहीं है.

फसल की सुरक्षा

जूट की फसल में 2 तरह की बीमारियों का प्रकोप ज्यादा देखा गया है, जिस से फसल की जड़ और तने में सड़न होने से कभीकभी फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है. इस से बचाव के लिए बीजों को शोधित कर के ही बोना चाहिए.

इन बीमारियों से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से और 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर प्रयोग करना चाहिए. वहीं जूट की फसल में सैमीलूपर एपियन स्टेम बीविल कीटों का प्रकोप देखा गया है. इन कीटों की रोकथाम के लिए 1.5 लिटर डाइकोफाल को 700-800 लिटर पानी में घोल कर फसल की 40-45, 60-65 और 100-105 दिन की अवस्थाओं पर छिड़काव किया जा सकता है.

इस के अलावा इन कीटों के नियंत्रण के लिए नीम उत्पादित रसायन अजादिरैक्टिन 0.03 फीसदी के 1.5 लिटर की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

फसल की कटाई व पौधों को गलाना

जूट की फसल से अच्छी मात्रा में रेशा प्राप्त करने के लिए फसल की कटाई 100 से 120 दिन बाद किया जाना उचित होता है, क्योंकि फसल की जल्दी कटाई करने पर रेशे की कम मात्रा प्राप्त होती है. जूट की फसल तैयार होने के बाद उस के डंठल को पानी में दबा कर गलाया जाता है, जिस से डंठल से रेशे को अलग किया जा सके.

फसल को गलाने के पहले पौधों को भूमि की सतह से ऊपर काट लिया जाता है. इस के बाद काटी गई फसल को 2 से 3 दिन तक के लिए जमीन पर छोड़ देते हैं. इस से पौधे से पत्तियां सूख कर अलग हो जाती हैं. जब पौधों से पत्तियां सूख कर अलग हो जाएं, तो इन्हें गठ्ठरों में बांध कर गड्ढे में पानी भर कर किसी वजनी चीज से ढक दिया जाता है.

इस दौरान यह ध्यान दें कि डंठल तालाब की मिट्टी में न दबने पाएं. पौधों से गल कर रेशों को अलग होने में एक हफ्ते से ले कर एक महीने तक का समय लग सकता है. पानी में दबाए गए जूट के डंठलों को बीचबीच में देखते रहें और जब डंठल से रेशे सरलता अलग होने लगें, तो दबाए गए डंठलों को पानी से निकाल कर रेशे अलग कर लेते हैं.

रेशे निकालना व सुखाना

जब जूट के पौधों से रेशों को निकाल कर अलग कर लें, तो रेशे को साफ पानी में अच्छी तरह धो कर किसी तार, बांस इत्यादि पर लटका कर कड़ी धूप में 3-4 दिन तक सुखा लेना चाहिए.

इस दौरान यह ध्यान दें कि सुखाने की अवधि में रेशे को उलटतेपलटते रहें. जूट की एक हेक्टेयर फसल से तकरीबन 14 से 20 क्विंटल तक शुद्ध रेशे का उत्पादन प्राप्त होता है.

ब्रोकली खेती कैसे करें

आर्थिक विकास व स्वास्थ्य के लिए ब्रोकली की खेती करना बहुत ही फायदेमंद है. इस की खेती फूलगोभी की तरह से ही की जाती है. इस के बीज व पौधे दोनों देखने में फूलगोभी की तरह ही होते हैं.

ब्रोकली का खाने वाला भाग छोटीछोटी अनेक पुष्प कलिकाओं का गुच्छा होता है जो फूल खिलने से पहले काट लिया जाता है.

फूलगोभी में जहां एक पौधे से एक फूल मिलता है, वहीं ब्रोकली के पौधे से एक मुख्य गुच्छा काटने के बाद भी कुछ शाखाएं निकलती हैं और इन शाखाओं से बाद में ब्रोकली के छोटे गुच्छे बेचने या खाने के लिए मिल जाते हैं. इस का वर्ण हरा होता है इसलिए इसे हरी गोभी भी कहा जाता है.

उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में सर्दियों में इस की खेती सुगमता से की जा सकती है, जबकि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मूकश्मीर में इस के बीज भी बनाए जा सकते हैं.

जलवायु :

ब्रोकली की अच्छी क्वालिटी की ज्यादा उपज लेने के लिए ठंडी व आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है. अगर दिन अपेक्षाकृत छोटे हों तो फूल की बढ़वार अधिक होती है.

फूल तैयार होने के समय तापमान अधिक होने पर फूल छितरे, पत्तेदार और पीले हो जाते हैं. इस वजह से उपज पर बुरा असर पड़ता है और उन की पौष्टिकता भी कम हो जाती है.

जमीन :

ब्रोकली को विभिन्न प्रकार की जमीनों में उगाया जा सकता है, पर इस की सफल खेती के लिए सही जल निकास वाली रेतीली दोमट, जिस में सही मात्रा में जैविक पदार्थ हो, अच्छी मानी गई है. हलकी जमीन में पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद डाल कर इस की खेती सुगमता से की जा सकती है.

किस्में:

ब्रोकली की 3 प्रकार की किस्में हैं जैसे श्वेत, हरी व बैगनी, लेकिन हरी ब्रोकली की खेती बड़े पैमाने पर की  जाती है.

हरी किस्में :

नाइन स्टार, पेरिनियल, इटेलियन ग्रीन स्प्राउटिंग, केलेब्रस, बाथम 29 और ग्रीन हेड खास हैं.

हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र कटराईन, हिमाचल प्रदेश द्वारा ब्रोकली की केटीएस 9 किस्म विकसित की गई है. इस के पौधे मध्यम ऊंचाई के, पत्तियां गहरी हरी, शीर्ष कठोर और छोटे तने वाले होते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने पूसा ब्रोकली 1 किस्म खेती के लिए जारी की है.

इस किस्म के बीज थोड़ी मात्रा में पूसा संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र, कटराईन, हिमाचल प्रदेश से हासिल किए जा सकते हैं.

संकर किस्में :

पाईरेट पेकमे प्रिमिय क्राप, क्लीपर, क्रुसेर, स्टिक व ग्रीन सर्फ खास हैं.

उगाने का उचित समय : उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में ब्रोकली उगाने का सही समय ठंड का मौसम होता है. इस के बीज के अंकुरण व पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए 20-25 डिगरी सैल्सियस तापमान होना चाहिए.

इस की नर्सरी तैयार करने का सही समय अक्तूबर माह का दूसरा पखवाड़ा होता है, जबकि पर्वतीय इलाकों में कम ऊंचाई वाले इलाकों में सितंबरअक्तूबर, मध्यम ऊंचाई वाले इलाकों में अगस्तसितंबर और ज्याद ऊंचाई वाले इलाकों में मार्चअप्रैल में नर्सरी तैयार की जाती है.

बीज दर :

फूलगोभी की तरह ब्रोकली के बीज भी बहुत छोटे होते हैं. एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए पौध तैयार करने के लिए तकरीबन 375-400 ग्राम बीज पर्याप्त होते हैं.

पौध तैयार करना :

बंदगोभी की तरह ब्रोकली की पहले नर्सरी में पौध तैयार की जाती है और बाद में रोपाई की जाती है. कम संख्या में पौधे उगाने के लिए 3 फुट लंबी और 1 फुट चौड़ी जमीन की सतह से 1.5 सैंटीमीटर ऊंची क्यारी में बीज की बोआई की जाती है. क्यारी को अच्छी तरह तैयार कर के और उस में गोबर की सड़ी खाद मिला कर बीजों को पंक्तियों में 4-5 सैंटीमीटर की दूरी पर तकरीबन 2.5 सैंटीमीटर की गहराई पर बो देते हैं.

बीज बोने के बाद क्यारी को घासफूस की पतली परत से ढक देते हैं और समयसमय पर सिंचाई करते रहते हैं. जैसे ही बीज अंकुरित होने लगें, ऊपर से घासफूस हटा दी जाती है.

नर्सरी में पौधों को कीटों से बचाने के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र का छिड़काव करें. नर्सरी में जब पौध 4 हफ्ते के हो जाएं, तब उन की रोपाई कर दें.

रोपाई :

तैयार पौध को खेत में लाइन से लाइन में 15-60 सैंटीमीटर का अंतर रख कर और पौधे से पौधे में 45 सैंटीमीटर के अंतर पर रोपाई कर देते हैं. रोपाई करते समय जमीन में सही नमी होनी चाहिए और रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करनी चाहिए.

खाद और उर्वरक :

आखिरी बार रोपाई की तैयारी करते समय प्रति 10 वर्गमीटर क्षेत्रफल में 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद, 1 किलोग्राम नीम की खली और 1 किलोग्राम अरंडी की खली. इन सब खादों को अच्छी तरह मिला कर रोपाई से पहले समान मात्रा में बिखेर दें. इस के बाद खुदाई कर के रोपाई कर दें. प्रति हेक्टेयर 50-60 टन गोबर की खाद डालनी चाहिए. उर्वरकों का उपयोग मिट्टी की जांच के बाद करना चाहिए. यदि किसी वजह से मिट्टी की जांच न हो सके तो निम्न मात्रा में प्रति हेक्टेयर उर्वरक डालना चाहिए:

नाइट्रोजन : 100-120 किलोग्राम.

फास्फोरस : 45-50 किलोग्राम.

गोबर की खाद और फास्फोरस वाले उर्वरक की मात्रा को खेत की तैयारी से पहले मिट्टी में भलीभांति मिला देना चाहिए. नाइट्रोजन की मात्रा को 3 भागों में बांट कर रोपाई के क्रमश: 25, 45 व 60 दिन बाद डालना चाहिए. नाइट्रोजन की दूसरी मात्रा डालने के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

पौध संरक्षण उपाय

खरपतवार नियंत्रण : ब्रोकली की जड़ और पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए खेत में उगे खरपतवारों को निकालना बहुत ही जरूरी काम है. ऐसा करने से पौधों का विकास व बढ़ोतरी तेजी से होती है. निराई के बाद पौधों के पास मिट्टी चढ़ाने से पानी देने पर पौधे नहीं गिरते हैं. निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में वायु संचार तेजी से होता है, जिस से जड़ों का विकास अच्छा होता है.

कीट नियंत्रण

तेला : यह कीट हरे रंग का होता है, जो पौधे के कोमल अंगों का रस चूसता है. इस वजह से पौधे की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर बुरा असर पड़ता है. इस कीट की रोकथाम के लिए मैलाथियान की 2 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

काला विगलन : यह रोग जैंथोमोनास कैंपस्ट्रिस नामक फफूंदी के चलते होता है. पत्तियों के किनारों पर कीटों द्वारा घाव बना दिए जाते हैं. इस वजह से वे मुरझा कर अंगरेजी के ‘वी’ आकार की तरह हो जाते हैं जो आधार से मध्य शिरा की ओर बढ़ते हैं. बाद में वे काले रंग के हो जाते हैं और अंत में सड़ जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए निम्न उपाय अपनाने चाहिए:

* बीज बोने से पहले 30 मिनट तक उसे पानी में भिगोना चाहिए. उस के बाद 5 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान वाले गरम पानी में 30 मिनट तक रखना चाहिए और बाद में ‘स्ट्रेप्टोमाइसिन’ की 1 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी के घोल में 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए, फिर उन्हें छाया में सुखाना चाहिए.

* जब फूलों का बनना शुरू हो जाए, तब ‘स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के घोल (10 ग्राम प्रति 100 लिटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए.

तना विगलन :

यह रोग ‘स्केलोरोटिया स्क्लेराटिओरस’ नामक फफूंदी के चलते होता है. रोगी पौधे मटमैले सफेद रंग के हो जाते हैं और अंत में पीले रंग के हो जाते हैं. तनों पर गहरे भूरे से काले रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बड़े हो कर तने को जमीनी स्तर तक ढक लेते हैं. इस वजह से तना सड़ जाता है. फूल अपनी सघनता छोड़ देते हैं. इस के बाद सफेद विगलन के लक्षण दिखाई देते हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए ये उपाय अपनाने चाहिए:

* प्रभावित भागों को अलग कर के उन्हें जला देना चाहिए.

* फूल निर्माण से फूल बनने तक 10-15 दिन के अंतराल पर ‘कार्बंडाजिम’ (0.03 फीसदी) और मैंकोजेब (0.25 फीसदी) के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

डाउनी मिल्ड्यू :

यह रोग ‘परनोस्पोरा एरोसिटिका’ नामक फफूंदी के कारण होता है. इस रोग के कारण तने पर गहरे भूरे रंग के दबे हुए चकत्ते बन जाते हैं, जिस में बाद में मृदु रोमिल की बढ़वार हो जाती है. पत्तियों की निचली सतह पर बैगनी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. इस रोग के कारण फूलों को अधिक नुकसान होता है और बुरा असर पड़ता है.

इस रोग पर नियंत्रण पाने के लिए निम्न उपचार करना चाहिए:

* बीजों को बोने से पहले गरम पानी से उपचारित करना चाहिए.

* फिर बीजों को 0.3 फीसदी थायरम से उपचारित करना चाहिए.

* प्रभावित फूलों को निकाल दें और 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड का छिड़काव करना चाहिए.

* फसल पर 10-15 दिन के अंतराल पर 0.2 फीसदी मैंकोजेब के घोल का छिड़काव करना चाहिए. पहला छिड़काव रोग का प्रकोप होते ही करें.

* खेत को खरपतवारों से मुक्त रखें.

* सही फसल चक्र अपनाएं.

सिंचाई :

मिट्टी, मौसम और पौधों की बढ़वार को ध्यान में रख कर फसल को 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए ताकि अच्छी उपज मिल सके.

फसल की कटाई

ब्रोकली की समय पर कटाई करें. कटाई तब करें, जब फसल में हरे रंग की कलियों का मुख्य गुच्छा बन कर तैयार हो जाए.

आमतौर पर रोपने के 65-70 दिन बाद शीर्ष तैयार हो जाते हैं तो इस को तेज चाकू या दरांती से कटाई कर लें.

ध्यान रखें कि कटाई के साथ गुच्छा खूब गुंथा हुआ हो और उस में कोई कली खिलने न पाए.

ब्रोकली की यदि तैयार होने के बाद देर से कटाई की जाएगी तो वह ढीली हो कर बिखर जाएगी और उस की कली खिल कर पीला रंग दिखाने लगेगी. ऐसी अवस्था में कटाई किए गए गुच्छे बाजार में बहुत कम कीमत पर बिकते हैं. मुख्य गुच्छा काटने के बाद ब्रोकली के छोटे गुच्छे बेचने के लिए सही होंगे.

उपज

ब्रोकली की उपज कई बातों पर निर्भर करती है, जिन में जमीन की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म और फसल की देखभाल प्रमुख है. ब्रोकली की अच्छी खेती से प्रति हेक्टेयर 12-15 टन तक उपज मिल जाती है.

गाजर की खेती में  कृषि मशीनों  का इस्तेमाल

हरियाणा के अमन विश्वकर्मा इंजीनियरिंग वर्क्स के मालिक महावीर प्रसाद जांगड़ा ने खेती में इस्तेमाल की जाने वाली तमाम मशीनें बनाई हैं, जिन में गाजर बोने के लिए गाजर बिजाई की मशीन भी शामिल है.

बिजाई की मशीन

बैड प्लांटर व मल्टीक्रौप बिजाई मशीन बोआई के साथसाथ मेंड़ भी बनाती है. इस मशीन से गाजर के अलावा मूली, पालक, धनिया, हरा प्याज, मूंग, अरहर, जीरा, गेहूं, लोबिया, भिंडी, मटर, मक्का, चना, कपास, टिंडा, तुरई, फ्रांसबीन, सोयाबीन, टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, सरसों, राई और शलगम जैसी तमाम फसलें बोई और काटी जा सकती हैं.

मशीन से धोएं गाजर

खेत से निकालने के बाद गाजरों की धुलाई का काम भी काफी मशक्कत वाला होता है, जिस के लिए मजदूरों के साथसाथ ज्यादा पानी की जरूरत भी होती है.

जिन किसानों के खेत किसी नहरपोखर वगैरह के किनारे होते हैं, उन्हें गाजर की धुलाई में आसानी हो जाती है. इस के लिए वे लोग नहर के किनारे मोटर पंप के जरीए पानी उठा कर गाजरों की धुलाई कर लेते हैं. लेकिन सभी को यह फायदा नहीं मिल पाता.

महावीर जांगड़ा ने जड़ वाली सब्जियों की धुलाई करने के लिए भी मशीन बनाई है. इस धुलाई मशीन से गाजर, अदरक व हलदी जैसी फसलों की धुलाई आसानी से की जाती है. इस मशीन से कम पानी में ज्यादा गाजरों की धुलाई की जा सकती है. इस मशीन को ट्रैक्टर से जोड़ कर आसानी से इधरउधर ले जाया जा सकता है.

इस मशीन के बारे में यदि आप ज्यादा जानकारी जानना चाहते हैं, तो आप अमन विश्वकर्मा इंजीनियरिंग वर्क्स के फोन नंबर 09896822103 और 09813048612 पर बात कर सकते हैं.

गाजर की खेती

यह सर्दियों के मौसम में पैदा की जाने वाली फसल है. इस फसल को तकरीबन हर तरह की मिट्टी में उपजाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए सब से सही बलुई दोमट मिट्टी होती है. इस फसल पर पाले का असर भी नहीं होता है.

खेत की तैयारी

खेत की जुताई कर के छोड़ दें, जिस से मिट्टी को तेज धूप लगे और कीड़ेमकोड़े खत्म हो जाएं. उस के बाद ट्रैक्टर हैरो या कल्टीवेटर से 3-4 बार जुताई करें. अच्छी तरह से पाटा चलाएं, जिस से मिट्टी भुरभुरी हो जाए. देशी गोबर वाली खाद मिला कर खेत को तैयार करें. इस के बाद गाजर के बीजों की बोआई करें. खेत में चाहें तो क्यारियां भी बना सकते हैं.

गाजर की मुख्य किस्में

पूसा केसर : यह एक उन्नतशील एशियाई किस्म है, जिस की जड़ें लालनारंगी सी होती हैं. जड़ें लंबीपतली व पत्तियां कम होती हैं. यह अगेती किस्म है, जिस में अधिक तापमान को सहन करने की कूवत होती है.

पूसा यमदिग्न: यह अधिक उपज देने वाली किस्म है. इस की जड़ों का रंग हलका नारंगी (बीच के हिस्से में हलका पीला) होता है. गूदा मुलायम व मीठा होता है.

पूसा मेघाली : यह किस्म अच्छी मानी जाती है. किसान अपने इलाके के हिसाब से कृषि जानकारों से राय ले कर इस के बीज बो सकते हैं. यह किस्म भी अच्छे गुण वाली है.

पूसा रुधिर : यह पूसा की खास किस्म है. आकर्षक लंबी लाल जड़ें, चमकता लाल रंग, समान आकार और ज्यादा मिठास इस प्रजाति की खासीयतें हैं. इस के अलावा हिसार गेरिक, हिसार रसीली, हिसार मधुर, पूसा अंकिता वगैरहहैं.

इन सब के अलावा यूरोपियन किस्मों की बोआई अक्तूबरनवंबर माह में करते हैं.

बीज की मात्रा और समय

अगेती किस्मों को अगस्त से सितंबर महीने तक ही बो दें. मध्यम व पछेती किस्मों को नवंबर महीने के आखिरी हफ्ते तक बोया जाता है. गाजर की बोआई के लिए 6-7 किलोग्राम बीजों की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. बोआई लाइनों में मेंड़ बना कर करें. इन मेंड़ों की आपस की दूरी 30-45 सैंटीमीटर और पौधे की दूरी 6 से 8 सैंटीमीटर रखें या छोटीछोटी क्यारियां बना कर बोएं.

खाद व उर्वरक

गाजर की अच्छी खेती लेने के लिए देशी गोबर की खाद 15 से 20 ट्रौली प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डालें. नाइट्रोजन 30 किलोग्राम, फास्फोरस 40 किलोग्राम और पोटाश 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से 15-20 दिन पहले मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएं. 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से नाइट्रोजन बोआई से 35-40 दिनों बाद छिड़कें, जिस से जड़ें अच्छी विकसित हो सकें.

सिंचाई : बोआई के लिए पलेवा करें या नमी होने पर बोएं. बोआई के 10-15 दिनों के बाद नमी न होने पर हलकी सिंचाई करें. सिंचाई अधिक पैदावार लेने के लिए जरूरी है, इसलिए हलकीहलकी सिंचाई करें. खेत में नमी रहना जरूरी है.

खरपतवार : खेत में खरपतवार न पनपने दें. समय रहते ही खरपतवार निकालते रहें. साथ ही, गाजर के पौधे ज्यादा घने महसूस हों तो उन्हें कम कर दें.

कीड़े व बीमारियां : गाजर में ज्यादातर पत्ती काटने वाला कीड़ा लगता है, जो पत्तियों को नुकसान पहुंचाता है. इस की रोकथाम के लिए जरूरी उपाय करें. फसल को अगेती बोएं. गाजर की फसल में एक पीलापन वाली बीमारी लगती है, जो पत्तियों को खराब करती है. बीजों को 0.1 फीसदी मरक्यूरिक क्लोराइड से उपचारित कर के बोने पर यह बीमारी नहीं लगती है.

खुदाई : जब गाजर की मोटाई व लंबाई ठीकठाक और बाजार भेजने लायक हो जाए, तो खुदाई करनी चाहिए. खुदाई के लिए खेत में नमी होनी चाहिए. खुदाई के समय ध्यान रखें कि जड़ों को नुकसान न पहुंचे. जड़ों के कटने से भाव घट जाता है.

उपज : गाजर की फसल का ठीक तरह से ध्यान रखा जाए, तो 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है. वैसे, उपज किस्मों पर अधिक निर्भर करती है.

वैज्ञानिक तरीके से तैयार करें मिर्च की पौधशाला

मिर्च की खेती बरसात में जुलाई से अक्तूबर तक, सर्दी में सितंबर से जनवरी माह तक और जायद मौसम में फरवरी से जून माह तक की जाती है. मिर्च को सुखा कर बेचने के लिए सर्दी के मौसम की मिर्च का इस्तेमाल होता है.

मिर्च की खासीयत यह है कि यदि पौध अवस्था में ही इस की देखभाल ठीक से कर ली जाए तो अच्छा उत्पादन मिलने में कोई शंका नहीं होती है. भरपूर सिंचाई समयानुसार करने से ज्यादा फायदा लिया जा सकता है.

टपक सिंचाई अपनाने से मिर्च की फसल से दोगुनी उपज हासिल की जा सकती है. टपक सिंचाई से 50-60 फीसदी जल की बचत होती है और खरपतवार से नजात मिल जाती है.

पौधशाला के लिए जगह का चुनाव

* पौधशाला के आसपास बहुत बड़े पेड़ नहीं होने चाहिए.

* जमीन उपजाऊ, दोमट, खरपतवार से रहित व अच्छे जल निकास वाली हो, अम्लीय क्षारीय जमीन का चयन न करें.

* पौधशाला में लंबे समय तक धूप रहती हो.

* पौधशाला के पास सिंचाई की सुविधा मौजूद हो.

* चुना हुआ क्षेत्र ऊंचा हो ताकि वहां पानी न ठहरे.

* एक फसल के पौध लगाने के बाद दूसरी बार पौध उगाने की जगह बदल दें यानी फसलचक्र अपनाएं.

क्यारियों की तैयारी व उपचार

पौधशाला की मिट्टी की एक बार गहरी जुताई करें या फिर फावड़े की मदद से खुदाई करें. खुदाई करने के बाद ढेले फोड़ कर गुड़ाई कर के मिट्टी को भुरभुरी बना लें और उगे हुए सभी खरपतवार निकाल दें. फिर सही आकार की क्यारियां बनाएं. इन क्यारियों में प्रति वर्गमीटर की दर से 2 किलोग्राम गोबर या कंपोस्ट की सड़ी खाद मिलाएं.

मिट्टी का उपचार

जमीन में विभिन्न प्रकार के कीडे़ और रोगों के फफूंद जीवाणु वगैरह पहले से रहते हैं, जो मुनासिब वातावरण पा कर क्रियाशील हो जाते हैं व आगे चल कर फसल को विभिन्न अवस्थाओं में नुकसान पहुंचाते हैं. लिहाजा, नर्सरी की मिट्टी का उपचार करना जरूरी है.

सूर्यताप से उपचार

इस विधि में पौधशाला में क्यारी बना कर उस की जुताईगुड़ाई कर के हलकी सिंचाई कर दी जाती है, जिस से मिट्टी गीली हो जाए. अब इस मिट्टी को पारदर्शी 200-300 गेज मोटाई की पौलीथिन की चादर से ढक कर किनारों को मिट्टी या ईंट से दबा दें ताकि पौलीथिन के अंदर बाहरी हवा न पहुंचे और अंदर की हवा बाहर न निकल सके. ऐसा उपचार तकरीबन 4-5 हफ्ते तक करें. यह काम 15 अप्रैल से 15 जून तक किया जा सकता है.

उपचार के बाद पौलीथिन शीट हटा कर खेत तैयार कर के बीज बोएं. सूर्यताप उपचार से भूमिजनित रोग कारक जैसे फफूंदी, निमेटोड, कीट व खरपतवार वगैरह की संख्या में भारी कमी हो जाती है.

रसायनों द्वारा जमीन उपचार

बोआई के 4-5 दिन पहले ही क्यारी को फोरेट 10 जी 1 ग्राम या क्लोरोपायरीफास 5 मिलीलिटर पानी के हिसाब से या कार्बोफ्यूरान 5 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से जमीन में मिला कर उपचार करते हैं. कभीकभी फफूंदीनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिला कर भी जमीन को सही किया जा सकता है.

जैविक विधि द्वारा उपचार क्यारी की जमीन का जैविक विधि से उपचार करने के लिए ट्राइकोडर्मा विरडी की 8 से 10 ग्राम मात्रा को 10 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर क्यारी में बिखेर देते हैं. इस के बाद सिंचाई कर देते हैं. जब खेत का जैविक विधि से उपचार करें, तब अन्य किसी रसायन का इस्तेमाल न करें.

बीज खरीदने में बरतें सावधानी

* बीज अच्छी किस्म का शुद्ध व साफ होना चाहिए, अंकुरण कूवत 80-85 फीसदी हो.

* बीज किसी प्रमाणित संस्था, शासकीय बीज विक्रय केंद्र, अनुसंधान केंद्र या विश्वसनीय विक्रेता से ही लेना चाहिए. बीज प्रमाणिकता का टैग लगा पैकेट खरीदें.

* बीज खरीदते समय पैकेट पर लिखी किस्म, उत्पादन वर्ष, अंकुरण फीसदी, बीज उपचार वगैरह जरूर देख लें ताकि पुराने बीजों से बचा जा सके. बीज बोते समय ही पैकेट खोलें.

बीजों का उपचार : बीज हमेशा उपचारित कर के ही बोने चाहिए ताकि बीजजनित फफूंद से फैलने वाले रोगों को काबू किया जा सके. बीज उपचार के लिए 1.5 ग्राम थाइरम, 1.5 ग्राम कार्बंडाजिम या 2.5 ग्राम डाइथेन एम 45 या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी का प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए.

यदि क्यारी की जमीन का उपचार जैविक विधि (ट्राइकोडर्मा) से किया गया है, तो बीजोपचार भी ट्राइकोडर्मा विरडी से ही करें.

बीज बोने की विधि : क्यारियों में उस की चौड़ाई के समानांतर 7-10 सैंटीमीटर की दूरी पर 1 सैंटीमीटर गहरी लाइनें बना लें और उन्हीं लाइनों पर तकरीबन 1 सैंटीमीटर के अंतराल से बीज बोएं.

क्यारियों को पलवार से ढकना : बीज बोने के बाद क्यारी को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पुआल, सरकंडों, गन्ने के सूखे पत्तों या ज्वारमक्का के बने टटियों से ढक देते हैं ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे और सिंचाई करने पर पानी सीधे ढके हुए बीजों पर न पड़े, वरना मिश्रण बीज से हट जाएगा और बीज का अंकुरण प्रभावित होगा.

सिंचाई : क्यारियों में बीज बोने के बाद 5-6 दिनों तक हलकी सिंचाई करें ताकि बीज ज्यादा पानी से बैठ न जाए. बरसात में क्यारी की नालियों में मौजूद ज्यादा पानी को पौधशाला से बाहर निकालना चाहिए.

क्यारियों से घासफूस तब हटाएं, जब तकरीबन 50 फीसदी बीजों का अंकुरण हो चुका हो. बोआई के बाद यह अवस्था मिर्च में 7-8 दिनों बाद, टमाटर में 6-7 दिनों बाद व बैगन में 5-6 दिनों बाद आती है.

खरपतवार नियंत्रण : क्यारियों में उपचार के बाद भी यदि खरपतवार उगते?हैं, तो समयसमय पर उन्हें हाथ से निकालते रहना चाहिए. इस के लिए पतली और लंबी डंडियों की भी मदद ली जा सकती है.

बेहतर रहेगा, अगर पेंडीमिथेलिन की 3 मिलीलिटर मात्रा को प्रति लिटर पानी में घोल कर बोआई के 48 घंटे के भीतर क्यारियों में अच्छी तरह छिड़क दें.

पौध विगलन : अगर क्यारियों में पौधे अधिक घने उग आए हैं तो उन को 1-2 सैंटीमीटर की दूरी पर छोड़ते हुए दूसरे पौधों को छोटी उम्र में ही उखाड़ देना चाहिए, वरना पौधों के तने पतले व कमजोर बने रहते हैं.

वैसे, घने पौधे पदगलन रोग लगने की संभावना बढ़ाते हैं. उखाड़े गए पौधे खाली जगह पर रोपे जा सकते हैं.

पौध सुरक्षा: पौधशाला में रस चूसने वाले कीट जैसे माहू, जैसिड, सफेद मक्खी व थ्रिप्स से काफी नुकसान पहुंचता है. विषाणु अन्य बीमारियों को फैलाते?हैं, लिहाजा इन के नियंत्रण के लिए नीम का तेल 5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में या डाईमिथोएट (रोगोर) 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर बोआई के 8-10 दिनों बाद और 25-27 दिनों बाद दोबारा छिड़कना चाहिए.

क्यारी और बीजोपचार करने के बाद भी अगर पदगलन बीमारी लगती है (जिस में पौधे जमीन की सतह से गल कर गिरने लगते हैं और सूख जाते हैं), तो फसल पर मैंकोजेब या कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

पौधे उखाड़ना : क्यारी में तैयार पौधे जब 25-30 दिनों के हो जाएं और उन की ऊंचाई 10-12 सैंटीमीटर की हो जाए या उन में 5-6 पत्तियां आ जाएं, तब उन्हें पौधशाला से खेत में रोपने के लिए निकालना चाहिए.

क्यारी से पौध निकालने से पहले उन की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. सावधानी से पौधे निकालने के बाद 50 या 100 पौधों के बंडल बना लें.

पौधों का रोपाई से पहले उपचार : पौधशाला से निकाले गए पौध समूह या रोपी गई जड़ों को कार्बंडाजिम बाविस्टीन 10 ग्राम प्रति लिटर पानी में बने घोल में 10 मिनट तक डुबोना चाहिए, रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई जरूर करें.

गरमी के मौसम में कतार से कतार की दूरी 45 सैंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 30 सैंटीमीटर और बरसात में कतार से कतार की दूरी 60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 सैंटीमीटर रखें.

खेती में जल निकासी का सही इंतजाम

कम पानी में जिस तरह से फसल की अच्छी पैदावार नहीं होती है, उसी तरह से ज्यादा पानी में भी अच्छी पैदावार नहीं होती है. ऐसे में जरूरी है कि फसल में पानी की मात्रा सही हो.

खेती के कामों में लगे किसानों द्वारा जल निकासी यानी पानी के निकलने पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है. जिन जगहों पर ज्यादा बारिश होती है, वहां पर जल निकासी का सही इंतजाम न होने से हर साल हजारों एकड़ फसल गल जाती है.

जल निकासी की जरूरत

कुछ जमीनें इस तरह की होती हैं, जिन में बरसात ज्यादा होने से पानी काफी दिनों तक के लिए भर जाता है. नतीजतन, वहां बोई गई फसल खराब हो जाती है और अगली फसल बोने के लिए भी समय पर खेत तैयार नहीं हो पाता है.

* कहींकहीं नहरों की सतह पास के खेत से ऊंची होती है, वहां बरसात में खेत में पानी भर जाता है. ऐसे खेतों से पानी के निकलने का पुख्ता इंतजाम करना पड़ता है.

* कुछ खेतों में पानी भरा होने से खेती की मशीनों का इस्तेमाल नहीं हो पाता. इन खेतों में जल निकासी का इंतजाम कर के ही खेती की मशीनों का इंतजाम किया जा सकता है.

लाभकारी है जल निकासी

* जमीन में मौजूद ज्यादा पानी निकल जाने से औक्सीजन पौधों की जड़ों तक पहुंच जाता है, जिस से फसल अच्छी हो जाती है. फसल की सेहत के लिए पौधों की जड़ों तक हवा का पहुंचना जरूरी होता है.

* जमीन के लाभदायक जीवाणु हवा में अपना काम ठीक तरह से करते हैं. हवा से उन के काम करने की रफ्तार भी तेज होती है. इस से फसल को जरूरी भोजन भी मिल जाता है.

* जल निकासी से जमीन फसल बोने के लिए जल्दी तैयार की जा सकती है.

* जल निकासी न होने से जमीन कम उपजाऊ हो जाती है. ज्यादा पानी रुकने से अकसर जमीन ऊसरीली हो जाती है.

* जल निकासी से मिट्टी में मिले हानिकारक लवण, जो फसल की बढ़वार में रुकावट होते हैं, वे पानी के साथ बह जाते हैं. नतीजतन, भूमि की उपजाऊ ताकत बढ़ जाती है.

जल भराव से नुकसान

* जिन इलाकों में ज्यादा पानी भर जाता है और वहां पर जल निकासी का सही इंतजाम नहीं होता है, उन इलाकों में फसलों को कई तरह से नुकसान हो सकता है.

* पौधे के लिए एक तय तापमान जरूरी होता है, उस से कम या ज्यादा तापमान होने से फसल पर बुरा असर पड़ता है. नमी ज्यादा होने से मिट्टी का तापमान गिर जाता है.

* जमीन में सही हवा और तापमान की सहायता से लाभदायक जीवाणु काम करते हैं. नमी ज्यादा होने पर जीवाणुओं पर उलटा असर पड़ता है.

* ज्यादा समय तक पानी भरा रहने से जमीन सामान्य फसलें पैदा करने की कूवत खो देती है. नमी ज्यादा होने से जुताई और बोआई समय पर नहीं हो पाती, जिस से फसल की उपज कम हो जाती है.

* बीज जमने के लिए भी सही तापमान की जरूरत होती है. ज्यादा नमी होने से तापमान कम हो जाता है, जिस से बीज देर से जमते हैं. इस का असर फसल के बढ़ने पर पड़ता है और फसल देर से पकती है.

* जड़ें पानी के लिए ही नीचे की ओर बढ़ती हैं. खेतों में ज्यादा पानी भरा रहने से जड़ों को पानी ऊपर ही मिल जाता है, जिस से वे ऊपर ही रह जाती हैं. इस से फसल कमजोर रह जाती है.

जूनमहीने में खेती से जुड़े जरूरी काम

जून की तपती धूप में खेतों में काम करना वैसे तो बड़ा भारी काम लगता है, पर किसान ऐसा सोच भी नहीं सकते हैं क्योंकि उन्हें तो गरमी की तपन को नजरअंदाज कर के खेतों में काम करते रहना पड़ता है. आइए डालते हैं एक नजर इन खास कामों पर:

* धान की नर्सरी डालने के लिए धान की उम्दा प्रजाति को ही चुनें. अच्छी किस्म का चुनाव करने से फायदा भी ज्यादा होगा. प्रजाति का चयन करने में कृषि वैज्ञानिक की भी मदद ले सकते हैं.

* अगर आप ने धान की नर्सरी पिछले महीने यानी मई में ही डाल रखी हो, तो उस के पौधे 3-4 हफ्ते के होते ही रोपाई का काम करें. धान के पौधों की रोपाई 15-20 सैंटीमीटर के अंतर पर सीधी लाइन में करें. रोपाई के दौरान खयाल रखें कि एक जगह पर 2 या 3 पौधों की रोपाई करना सही रहता है.

* गन्ने के खेतों को सूखने नहीं देना चाहिए. जरूरत के मुताबिक गन्ने के खेतों की सिंचाई करते रहें, क्योंकि अच्छी फसल के लिए खेतों में नमी बराबर बनी रहनी चाहिए.

* सिंचाई के अलावा गन्ने के खेतों की निराईगुड़ाई भी जरूरत के मुताबिक करते रहें, ताकि खेतों में खरपतवार न पनपने पाएं.

*अपने गन्ने के खेतों की बाकायदा चैकिंग करें और देखें कि उन में रोगों या कीटों का हमला तो नहीं हुआ है. अगर ऐसा नजर आए, तो कृषि विज्ञान केंद्र के माहिर वैज्ञानिकों से सलाह ले कर मुनासिब दवाओं का इस्तेमाल करें.

* जून के गरमागरम महीने में ही अरहर की भी बोआई की जाती है. अरहर की बोआई में इस बात का खयाल रखें कि उस के बीजों को बोने से पहले कार्बंडाजिम से उपचारित करना जरूरी है. उपचारित करने से बीज महफूज रहते हैं और सही तरीके से समय पर अंकुरित होते हैं.

* हर इलाका बाजरा की खेती के लिए सही नहीं होता. अगर आप का इलाका बाजरा की खेती के लिए मुनासिब हो तो मौसम की पहली बारिश होने पर उस की बोआई करें.

* बाजरा बोने के लिए 5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. 50 सैंटीमीटर का फासला रखते हुए बोआई सीधी लाइन में करें.

* अगर ज्वार की बोआई करने का इरादा हो तो जून के आखिरी हफ्ते में करें.

* मूंगफली की बोआई भी जून माह के दौरान ही की जाती है. मूंगफली की बोआई के लिए 60-70 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगते हैं. मूंगफली की बोआई भी तकरीबन 50 सैंटीमीटर के फासले पर सीधी लाइन में ही करनी चाहिए.

* अगर आप का एरिया सोयाबीन की खेती के लिए मुनासिब हो, तो उम्दा प्रजाति का चयन कर के जून में ही उस की बोआई करें.

* सोयाबीन की बोआई के लिए तकरीबन 80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से लगते हैं.

* सोयाबीन की बोआई भी तकरीबन 50 सैंटीमीटर के फासले पर सीधी लाइन में ही करनी चाहिए.

* अमूमन जून माह तक उड़द की फसल पक जाती है. अगर आप की उड़द की फसल पक कर तैयार हो, तो उस की कटाई का काम खत्म करें ताकि खेत को अगली फसल के लिए तैयार किया जा सके.

* अमूमन मूंग की फसल भी जून माह तक पक कर तैयार हो जाती है. मूंग की पकी हुई फलियां चुन कर तोड़ लें. यदि 80 फीसदी फसल पक चुकी हो तो बेहतर होगा कि उस की कटाई कर लें.

* जून का महीना सूरजमुखी की बोआई के लिए भी मुफीद रहता है. अगर सूरजमुखी बोने का मन हो, तो यह काम 15 तारीख तक निबटा दें. बोआई से पहले सूरजमुखी के बीजों को उपचारित करें, इस से फसल बेहतर होगी.

* आप ने अगर कपास लगा रखी हो, तो उस के खेतों का मुआयना करें. अगर जरूरत महसूस हो तो उस की सिंचाई करें. सिंचाई के बाद खेतों में नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा डालें.

* सिंचाई के अलावा कपास के खेतों की निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालें. जरूरत के मुताबिक कीटों व रोगों के इलाज के लिए दवाओं का इस्तेमाल करें.

* पहले डाली गई तुरई की नर्सरी में पौधे तैयार हो चुके होंगे, लिहाजा उन की रोपाई करें. तुरई के पौधों की रोपाई 100×50 सैंटीमीटर के फासले पर करें.

* इसी महीने शरदकालीन बैगन की नर्सरी डालें. बोआई के लिए उम्दा प्रजाति के बीजों का इस्तेमाल करें. अच्छी प्रजाति का चयन करने से फसल बेहतर होती है और फायदा ज्यादा होता है.

* मिर्च के खेत सूखे दिखाई दें, तो उन की हलकी सिंचाई करें. सिंचाई के अलावा निराईगुड़ाई कर के खरपतवारों को निकाल दें.

* अगली फसल के लिए मिर्च की नर्सरी डालें. मिर्च की खेती में प्रति हेक्टेयर रोपाई के लिए डेढ़ किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है.

* पकी मिर्चों की तोड़ाई कर के उन्हें मंडी भिजवाएं या सही तरीके से उन का भंडारण करें.

* आमतौर पर जून तक लहसुन की फसल तैयार हो जाती है. अगर आप के लहसुन की फसल भी तैयार हो चुकी हो, तो उस की खुदाई का काम खत्म करें.

* लहसुन की खुदाई के बाद फसल को 2-3 दिनों तक खेत में ही सूखने दें. सूखने के बाद लहसुन की गड्डियां बना कर उन्हें साफ व सूखी जगह पर स्टोर करें.

*अगर अदरक के खेत सूखे नजर आएं तो सिंचाई करें. इस के अलावा 50 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. यूरिया के इस्तेमाल से अदरक की फसल उम्दा होती है.

* हलदी के खेत भी अगर सूखे लगें, तो उन की भी सिंचाई करें. हलदी के खेतों में भी 50 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें, इस से फसल बेहतर होगी.

* जून महीने में ही रामदाना की भी बोआई की जाती है. इस फायदे वाली फसल की बोआई का काम 15 जून तक कर लेना चाहिए. इस की बोआई के लिए डेढ़ किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगते हैं.

* मक्का हर लिहाज से बेहद उपयोगी होता है. इनसानों के साथसाथ यह जानवरों का भी पसंदीदा भोजन होता है. लिहाजा, मवेशियों के दाने के लिहाज से इस महीने मक्के की भी बोआई करें.

* मवेशियों के चारे के लिहाज से तमाम चारा फसलों की बोआई जून महीने में ही कर देनी चाहिए. ऐसा करने से चारे का क्रम बना रहता है और पशुपालकों को हरे चारे के लिए परेशान नहीं होना पड़ता.

* अलबत्ता कौनकौन सी चारे की फसलें बोएं, इस का फैसला इलाके और आबोहवा के मुताबिक करना सही रहता है. इस में नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के पशु वैज्ञानिक की मदद ली जा सकती है.

* जून की आबोहवा इनसानों के लिए ही नहीं, बल्कि जानवरों के लिए भी खतरनाक होती है, लिहाजा इस महीने के दौरान अपने मवेशियों का खास खयाल रखें. उन्हें लू के कहर से बचा कर रखें.

* अपनी महंगी गायभैंसों को गरमी के कहर से बचाने का पूरा बंदोबस्त करें.

* पशुओं के लिए जरूरत के मुताबिक पंखों व कूलरों का इंतजाम करें.

* मवेशियों को दिन व दोपहर की कड़ी धूप से बचा कर रखें. रात के समय उन्हें खुले आसमान के नीचे बांधें.

* पशुओं को रात के दौरान खुले में बांधने से उन्हें ठंडीठंडी हवा का मजा तो जरूर मिलता है, मगर ऐसे में चोरों से सावधान रहना चाहिए. चोरों को रातोंरात मवेशियों को गायब करने में जरा भी दिक्कत नहीं होती.

* बेहतर यही होगा कि अपने पशुओं के आसपास आप खुद भी लाठी वगैरह ले कर सावधानीपूर्वक खुले में ही सोएं. हो सके तो पास में वफादार पालतू कुत्ता भी रखें.

* नाजुक परिंदों यानी मुरगेमुरगियों को भी गरमी व लू से बचाने के पूरे इंतजाम करें. जरूरत के मुताबिक पंखे या कूलर लगाएं.

* अपने तरीके से तमाम इंतजाम करने के बाद भी अगर मवेशी या मुरगामुरगी वगैरह बीमार व परेशान नजर आएं तो बगैर चूके जानवरों के डाक्टर की मदद लें यानी इलाज कराएं.