Sunflower : सूरजमुखी से भरपूर आमदनी

सूरजमुखी (Sunflower) की खेती देश में पहली बार साल 1969 में उत्तराखंड के पंतनगर में की गई थी. यह एक ऐसी तिलहनी फसल है, जिस पर प्रकाश का कोई असर नहीं पड़ता. यानी यह फोटोइनसेंसिटिव है. हम इसे खरीफ, रबी और जायद तीनों मौसमों में उगा सकते हैं. इस के बीजों में 45-50 फीसदी तक तेल पाया जाता है. इस के तेल में एक खास तत्त्व लिनोलिइक अम्ल पाया जाता है. लिनोलिइक अम्ल शरीर में कोलेस्ट्राल को बढ़ने नहीं देता है. अपनी खूबियों की वजह से इस का तेल दिल के मरीजों के लिए दवा की तरह काम करता है.

प्रकाश का कोई असर न पड़ने की वजह से सूरजमुखी अचानक होने वाले मौसम के बदलावों को भी सह लेता है. इसीलिए सू्ररजमुखी की खेती किसानों को भरपूर आमदनी देती है. इसी वजह से देश के अलगअलग हिस्सों में इस की खेती का रकबा बढ़ता ही जा रहा है.

जमीन : इस की खेती अम्लीय और क्षारीय जमीनों को छोड़ कर हर तरह की जमीनों में की जा सकती है. वैसे ज्यादा पानी सोखने वाली भारी जमीन इस के लिए ज्यादा अच्छी होती है.

खेत की तैयारी : खेत में भरपूर नमी न होने पर पलेवा लगा कर जुताई करनी चाहिए. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद साधारण हल से 2-3 बार जुताई कर के खेत को भुरभुरा बना लेना चाहिए या रोटावेटर का इस्तेमाल करना चाहिए.

किस्में : सूरजमुखी की 2 तरह की किस्में होती हैं, एक कंपोजिट और दूसरी हाईब्रिड. कंपोजिट किस्मों में माडर्न व सूर्या खास हैं. हाईब्रिड किस्मों में केवीएसएच 1, एसएच 3222, एमएसएफएच 17 व वीएसएफ 1 वगैरह शामिल हैं.

बोआई का समय व विधि : जायद फसल की बोआई फरवरी के अंतिम हफ्ते से ले कर मध्य मार्च तक कर लेनी चाहिए, जबकि बसंतकालीन बोआई 15 जनवरी से 10 फरवरी तक कर लेनी चाहिए. लाइन से बोआई करना बेहतर होता है. बोआई हल के पीछे कूंड़ों में 4-5 सैंटीमीटर गहराई पर करें और लाइन से लाइन की दूरी 45 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंटीमीटर रखें.

Sunflower

बीजों की मात्रा : हाईब्रिड किस्म होने पर 5-6 किलोग्राम और कंपोजिट किस्म होने पर 12-15 किलोग्राम बीजों का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

खाद व उर्वरक : खाद व उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच कराने के बाद मिली शिफारिशों के आधार पर ही करना चाहिए. वैसे मोटे तौर पर 3-4 टन खूब सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना लाभप्रद होता है.

कंपोजिट किस्म में 80 किलोग्राम नाइट्रोजन और हाईब्रिड किस्म में 100 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. कंपोजिट व हाईब्रिड दोनों किस्मों के लिए 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश देना जरूरी होता है. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के वक्त कूंड़ों में देनी चाहिए.

नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा बोआई के 25-30 दिनों बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए. अगर आलू के बाद सूरजमुखी की बोआई की जा रही है, तो उर्वरकों की मात्रा 25 फीसदी घटा देनी चाहिए. तिलहनी फसलों की गुणवत्ता में सल्फर की खास भूमिका होती है, लिहाजा, 200 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से देना लाभदायी रहेगा.

खरपतवार नियंत्रण : खरपतवार निकालने के लिए रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल न कर के यांत्रिक विधि अपनाएं. अगर रासायनिक विधि ही अपनानी है, तो बोआई के 2-3 दिनों के अंदर पेंडीमेथलीन (50 फीसदी) दवा का इस्तेमाल करें.

सिंचाई : पहली सिंचाई बोआई के 20-25 दिनों बाद करना जरूरी होता है. भारी जमीन में 3-4 सिंचाई व हलकी जमीन में 4-5 सिंचाई करना ठीक होता है. फूल निकलते समय और दाना भरते समय खेत में नमी बनाए रखना बहुत ही जरूरी है. सिंचाई इस तरीके से करनी चाहिए कि पौधे गिरने न पाएं. स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई करना बेहतर होगा.

खास कीड़े

दीमक : दीमक फसल को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाती है. इस की रोकथाम बोआई से पहले ही कर लेनी चाहिए. इस के लिए खेत में पड़े फसल अवशेषों को खूब अच्छी तरह से सड़ा देना चाहिए. खूब अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद ही खेत में इस्तेमाल करनी चाहिए. दीमक की रोकथाम के लिए बिवेरिया बैसियाना या क्लोरपाइरीफास (20 ईसी) दवाओं का इस्तेमाल कृषि वैज्ञानिक से सलाह ले कर कर सकते हैं.

हरा फुदका : इस कीट के प्रौढ़ व बच्चे पत्तियों का रस चूसते हैं, जिस से पत्तियों पर धब्बे पड़ जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए डाईमेथोएट 30 फीसदी ईसी दवा की 1 लीटर मात्रा का 600-800 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. दवा का छिड़काव हमेशा दोपहर के बाद करना चहिए.

डस्की बग : ये कीड़े पत्तियों व डंठलों से रस चूस कर हानि पहुंचाते रहते हैं. जिन दवाआें से हरा फुदका की रोकथाम होती है, उन्हीं से इस की रोकथाम भी की जा सकती है.

फली बेधक : ये कीट फूल में बन रहे बीजों को खा कर काफी नुकसान पहुंचाते हैं. रोकथाम के लिए कृषि वैज्ञानिक से पूछ कर दवा का छिड़काव शाम के समय करें.

Sunflowerकटाईमड़ाई: जब सूरजमुखी के बीज पक कर कड़े हो जाएं तो मुंडकों यानी फूलों की कटाई कर लेनी चाहिए. पके हुए मुंडकों का पिछला भाग पीलेभूरे रंग का हो जाता है. मुंडकों को काट कर छाया में सुखा लेना चाहिए, मगर ढेर बना कर नहीं रखना चाहिए. सूखने के बाद इस की मड़ाई सूरजमुखी वाले थ्रैशर या डंडे से पीट कर करनी चाहिए.

उपज और भंडारण : सूरजमुखी की सामान्य प्रजतियों की पैदावार 12-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व हाईब्रिड प्रजातियों की पैदावार 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो जाती है. भंडारण के लिए इस के बीजों की नमी 8-10 फीसदी ही होनी चाहिए. 3 महीने के अंदर बीजों से तेल की पेराई कर लेनी चाहिए, वरना तेल में कड़वाहट आने लगती है.

कुछ अन्य ध्यान देने वाली बातें

*             बीज शोधन और बीज उपचार के बाद ही सूर्यमुखी के बीजों की खेत में बोआई करें.

*             सूरजमुखी का फूल काफी बड़ा और वजनदार होता है. लिहाजा, तेज हवा चलने पर पौधों के गिरने का खतरा रहता है. इस से बचने के लिए पहली सिंचाई करने के बाद पौधों पर 10-15 सेंटीमीटर मिट्टी जरूर चढ़ा देनी चाहिए.

*             15 दिनों के अंदर घने बोए गए पौधों को 15-20 सैंटीमीटर की दूरी पर कर देना चाहिए.

Plowing Machine : रोटावेटर- जमीन को दुरुस्त बनाते जुताई यंत्र

Plowing Machine: अच्छी पैदावार लेने के लिए जिस प्रकार से अच्छी प्रजाति के बीज व उर्वरक जरूरी हैं, उसी तरह से खेत की अच्छी जुताई होना भी जरूरी है. हम कितनी भी अच्छी क्वालिटी का खादबीज इस्तेमाल कर लें, लेकिन खेत की तैयारी ठीक नहीं हुई तो हमारी फसल पैदावार पर असर पड़ना लाजिम है.

जमीन की जुताई खेत तैयार करने का सब से पहला और बुनियादी काम भी है. गेहूं की फसल कटने के बाद गरमी के मौसम में तो जुताई का महत्त्व और भी बढ़ जाता है. गरमी के मौसम में खेत की जुताई कर के खेत खुला छोड़ देने पर तमाम तरह के कीटपतंगे मर जाते हैं और खरपतवार भी काफी हद तक खत्म हो जाते हैं. खेत की जुताई करने के लिए अनेक यंत्र आज बाजार में मौजूद हैं. खास तकनीक से बने ये जुताई यंत्र (Plowing Machine) खेत की अच्छी जुताई करने में सक्षम होते हैं, जिन के इस्तेमाल से कम समय में अच्छी जुताई की जाती है.

विराट रोटरी टिलर

माशियो कंपनी का बना यह यंत्र जमीन की जुताई करने के लिए एक मजबूत बहुपयोगी रोटरी टिलर है. यह रोटरी टिलर किसी भी फसल के लिए अच्छी क्यारी बनाने में भी सक्षम है. यह सूखी या गीली मिट्टी में किसी भी हालत में काम करने वाला यंत्र है. यह खेत के पिछली फसल के अवशेषों को जड़ से निकाल कर उन्हें खेत में मिलाने का काम भी करता है.

खास तकनीक से बने इस के मजबूत ब्लेड हर प्रकार की मिट्टी में अच्छी तरह से काम करते हैं और खेत की मिट्टी को भुरभुरा बना कर के उसे एकसार बनाने का काम बखूबी करते हैं. कंपनी का कहना है कि इस यंत्र के खास इटैलियन ब्लैड हैं, जो घिसते कम हैं और लंबे समय तक चलते हैं. इस यंत्र का खास रखरखाव भी नहीं है. विराट रोटरी टिलर के अनेक मौडल कई साइजों में मौजूद हैं, जिन्हें अपनी जरूरत के मुताबिक लिया जा सकता है. जिन्हें 30 एचपी से 60 एचपी तक के सभी ट्रैक्टरों के साथ जोड़ कर चलाया जा सकता है.

खासीयतें : इस में हैवी ड्यूटी पीटीओ शाफ्ट, अच्छी क्वालिटी वाले इटैलियन ब्लैड, टिकाऊ साइड गियर ड्राइव, अधिक ताकतवर मल्टी स्पीड गियर ताकत और मजबूत फ्रेम जैसी अनेक खासीयतें हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप कंपनी के मोबाइल नंबर 91-2138612500 पर संपर्क कर सकते हैं. या भारत एग्रो इंडस्ट्रीज के फोन नंबर 01692-230028 पर बात कर जानकारी ले सकते हैं.

फील्ड किंग रोटरी टिलर

बेरी उद्योग प्रा. लि. 4 प्रकार के मौडल फील्डकिंग रोटरी टिलर बना रही है.

Machine

टर्मीनेटर मौडल: अधिक ब्लेड वाला यह टिलर मिट्टी को 7 इंच की गहराई तक में खोदता है और इस यंत्र के खास तरीके से बने ब्लेड ट्रैक्टर पर कम लोड डालते हैं, जिस से ईंधन की बचत होती है. बोरोन स्टील के बने ब्लेड सामान्य ब्लेडों के मुकाबले ज्यादा चलते हैं. इस यंत्र को 35 हार्सपावर से 60 हार्सपावर के ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर चलाया जा सकता है.

दबंग मौडल: इस मौडल में वही सब खासीयतें है तो टर्मीनटर मौडल में है. पर इस को 35 हार्स पावर से 90 हार्स पावर तक के ट्र्रैक्टर से जोड़ कर चलाया जा सकता है. इस के अलावा 2 अन्य मौडल मिनी व रेगुलर भी हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप कंपनी के फोन नंबर 91-1842221571/72,73 पर संपर्क कर सकते हैं.

हिसार, हरियाणा की लक्ष्मी आटोमोबाइल पर भी ये यंत्र उपलब्ध हैं. चंदा पूनिया के मोबाइल नंबर 98121-49398 पर भी बात कर के यंत्र खरीद जा सकते हैं या कंपनी के ग्राहक सेवा केंद्र 0184-6656666 पर भी जानकारी ले सकते हैं.

प्रकाश रोटावेटर

नवभारत इंडस्ट्रीज का बना प्रकाश रोटावेटर भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त रोटावेटर है और एफएमटीटीआई, हिसार से रजिस्टर्ड है.

यह सूखी, गीली एवं हर तरह की जमीन में अच्छी तरह काम करता है. खेतों की पिछली फसल की जड़ों, खरपतवारों व घासफूस को जमीन में मिला देता है. जिस से खेती की जैविक कूवत बढ़ती है. यह रोटावेटर, गन्ना, केला, कपास, मक्का, धान, गेहूं, आलू से खाली हुए खेतों को बोआई लायक बनाने में कारगर है.

इस रोटावेटर की जानकारी के लिए आप कंपनी के मोबाइल नंबर 09897591803 व फोन नंबर 0562-4042153 पर संपर्क कर सकते हैं.

योद्धा रोटावेटर

साइको एग्रोटेक कंपनी योद्धा के नाम से रोटावेटर बना रही है. 6 अलगअलग साइजों में उपलब्ध रोटावेटरों को 30-35 हार्सपावर से ले कर 60-70 हार्स पावर के टैक्टरों के साथ जोड़ कर चलाया जा सकता है.

खास तकनीक से तैयार हैवी ड्यूटी गेयर बाक्स, सभी नटबोल्ट अच्छी क्वालिटी के स्टील से बने हैं. ट्रेलिंग बोर्ड को एडजैस्ट करने के लिए आटौमेटिक स्प्रिंग लगे हैं और बेयरिंग यंत्र को सील नमी और कीचड़ से बचाती है. पाउडर कोटिंग पेंट (भट्टी पेंट) इस यंत्र को जंग से बचाता है.

अधिक जानकारी के लिए फोन नंबर 01628-284188 या मोबाइल नंबरों 7087222688, 7087222788, 7087222588 पर संपर्क कर सकते हैं

Onion Processing : प्याज की प्रोसैसिंग से होगी ज्यादा कमाई

Onion Processing: प्याज काटने से अकसर आंखों में आंसू आ जाते हैं, लेकिन पिछले दिनों मंडियों में प्याज के दाम गिरने से किसान खून के आंसू रोते रहे. किसान मुनाफा तो दूर, उपज की लागत व मंडी में प्याज लाने का भाड़ा तक नहीं निकाल पाए. लिहाजा बहुत से किसानों ने इस बार प्याज की खेती से तोबा कर ली.

प्याज ही क्या आलू हो या गन्ना, मिर्च हो या टमाटर, जब जिस फसल की पैदावार ज्यादा हो जाती है, तो उस की कीमतें धड़ाम से नीचे गिर जाती हैं. इस से नुकसान किसानों का होता है. अकसर वे बरबाद हो जाते हैं. लिहाजा बेहद जरूरी है कि किसान इस मुसीबत से नजात पाने के लिए कारगर उपाय अपनाएं.

प्याज की प्रोसैसिंग (Onion Processing)

उपज की कीमत बढ़ाने व उसे बरबाद होने से बचाने के लिए उस की प्रोसेसिंग करना एक कारगर तरीका साबित हुआ है. प्याज की भी प्रोसेसिंग यानी डब्बाबंदी की जा सकती है. प्याज उत्पादक तकनीक सीख कर प्याज प्रोसेसिंग इकाई लगा सकते हैं और प्याज से कई तरह के उत्पाद बना सकते हैं.

बाजार में सिरके की प्याज, प्याज का पेस्ट व पाउडर आदि कई उत्पाद मिलते हैं. ज्यादातर किसान नहीं जानते कि अब देशविदेश में प्याज का पेस्ट, क्रीम, भुनी प्याज, करारी प्याज, प्याज के छल्ले, प्याज का तेल, प्याज का अचार, प्याज फ्लेक्स, सूखा प्याज, प्याज का सिरका, प्याज का सास, प्याज का सूप, प्याज का जूस, छिली प्याज व प्याज के बेवरेज पेय आदि की मांग दिनोंदिन तेजी से बढ़ रही है.

दरअसल, ताजे प्याज के मुकाबले प्याज के प्रोसेस्ड उत्पादों को इस्तेमाल करना ज्यादा आसान है. नई तकनीक से प्याज का इस्तेमाल रंग व एसेंस आदि बनाने में भी किया जा सकता है. साथ ही बचे प्याज का कचरा व सड़ी हुई प्याज भी बेकार नहीं जाती. उसे बायोगैस बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. लिहाजा सूझबूझ के साथ व चेन बना कर उत्पादन करने से उत्पादों की लागत घटती है, उपज खपती है व मुनाफा बढ़ता है.

भरपूर पैदावार

प्याज की पैदावार के मामले में भारत दुनिया भर में दूसरे नंबर पर है. देश में प्याज का कुल रकबा 11 लाख, 50 हजार हेक्टेयर है, जिस में 187 लाख, 36 हजार टन प्याज की पैदावार होती है. पड़ोसी देश चीन सिर्फ 9 लाख 30 हजार हेक्टेयर जमीन में भी हम से ज्यादा यानी 205 लाख टन प्याज पैदा करता है.

भारत में प्याज को महफूज रखने के लिए भंडारण के सही इंतजाम कम हैं, लिहाजा काफी प्याज हर साल गलसड़ कर खराब हो जाता है. बेहतर भंडारण से ही उसे बचाया जा सकता है. ज्यादातर भारतीय किसानों की माली हालत कमजोर है, लिहाजा अपना खर्च चलाने के लिए उन्हें उपज बेचने की जल्दी रहती है. बड़े व्यापारी प्याज का भंडारण कर के मौके का फायदा उठाते हैं और किसान बेचारे देखते रह जाते हैं.

जागरूकता जरूरी

कुल पैदा होने वाले प्याज के तकरीबन 7 फीसदी हिस्से की ही प्रोसैसिंग होती है, जबकि प्याज उत्पादों के बढ़ रहे निर्यात से इस काम में भारी इजाफा होने की उम्मीद है. बढ़ती मांग को देखते हुए प्याज की प्रोसैसिंग व उस के कारोबार की बड़ी गुंजाइश है. प्याज प्रोसैसिंग की तकनीक सीखना मुश्किल नहीं है.

जरूरत किसानों के जागरूक होने व पहल करने की है. प्याज की प्रोसैसिंग सीखने व उस का तजरबा करने की है. यदि किसान ठान लें, तो वे आपस में मिल कर प्याज प्रसंस्करण की बड़ी इकाई भी लगा सकते हैं. अपनी उपज को कच्चे माल की तरह न बेच कर खुद उसे प्रोसैस करने में इस्तेमाल कर सकते हैं. वे अपने बच्चों को बेहतर रोजगार का जरीया दे सकते हैं.

लागत घटाएं

किसानों के मुताबिक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्याज की उत्पादन लागत 12 रुपए प्रति किलोग्राम आ रही है, जबकि पिछले दिनों मेरठ की मंडी में प्याज के दाम घट कर 3-4 रुपए प्रति किलोग्राम तक रह गए थे. लिहाजा, प्याज की बोआई से कटाई तक नई तकनीक अपना कर लागत में कमी लाने की जरूरत है.

इस के अलावा कम जमीन में ज्यादा उपज लेना भी लाजिम है, ताकि प्रति हेक्टेयर औसत उपज बढ़े. साथ ही, किसान प्याज को महफूज रखने के लिए भंडारण की कूवत भी जरूर बढ़ाएं. प्याज की पैदावार में महाराष्ट्र सब से आगे है, दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश है व तीसरे पर कर्नाटक है. अब उत्तर प्रदेश में भी प्याज की खेती बहुत तेजी से बढ़ रही है.

प्याज की खेती में नई तकनीक अपना कर व नई किस्में उगा कर प्याज की पैदावार बढ़ाई जा सकती है, लेकिन सिर्फ पैदावार ही नहीं, उस से आमदनी बढ़ाने की भी जरूरत है. जब भी प्याज की पैदावार ज्यादा होती है, उस की कीमतें गिर जाती हैं और खेतों व गोदामों में प्याज सड़ जाता है.

प्याज की प्रोसेसिंग में हम आज भी बहुत पीछे हैं. प्याज की बड़ी मंडियां महाराष्ट्र के नासिक व लासलगांव में हैं. प्याज के जमाखोर किसानों व प्याज की मंडियों को आसानी से काबू कर लेते हैं. ऐसे में किसानों व उपभोक्ताओं को बचाने के लिए जमाखोरों का जाल तोड़ना बेहद जरूरी है.

कमजोर ढांचा

प्याज की मांग व खपत देश में सब से ज्यादा है, लिहाजा भारत सरकार के लघु कृषक कृषि व्यापार संघ ने निगरानी के लिए मार्केट इंटेलीजेंस सिस्टम बना रखा है, लेकिन इस के बावजूद प्याज उत्पादकों को उन की उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती, दूसरी ओर फुटकर ग्राहकों को प्याज खरीदने के लिए मुंहमांगी कीमत चुकानी पड़ती है.

प्याज की प्रोसैसिंग को बढ़ावा दे कर और प्याज की खरीद व बिक्री सहकारिता के जरीए कर के यह मसला काफी हद तक हल हो सकता है, लेकिन राष्ट्रीय सहकारी कृषि विपणन महासंघ, नैफेड जैसी संस्थाएं भी नाकाम हैं. लिहाजा किसान पिस रहे हैं और बिचौलिए चांदी काट रहे हैं.

पुरानी तकनीक

भारत में आज भी ऐसे कई इलाके हैं, जिन में प्याज की प्रति हेक्टेयर औसत उपज 10 टन से भी कम है. दरअसल किसान प्याज की खेती तो करते हैं, लेकिन ज्यादातर किसान प्याज की पुरानी किस्में उगाते हैं और खेती के पुराने तौरतरीके अपनाते हैं. लिहाजा प्याज की खेती में फायदा दूर, लागत भी मुश्किल से निकलती है. लिहाजा प्याज की खेती में सुधार व बदलाव लाना जरूरी है.

खोजबीन

Onion Processing

दरअसल, अभी तक नकदी फसलों पर ज्यादा जोर होने की वजह से प्याज जैसी फसलों पर खास ध्यान नहीं दिया गया. बहुत से किसान यह नहीं जानते कि प्याजलहसुन की खेती को बढ़ावा देने के लिए साल 1994 से पुणे में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक अनुसंधान निदेशालय चल रहा है. देशभर में उस के 28 सेंटर हैं.

प्याज निदेशालय के वैज्ञानिकों ने प्याज की पैदावार, क्वालिटी व निर्यात बढ़ाने के लिए काफी खोजबीन की है. उन्होंने प्याज की नई किस्में खोजने के साथसाथ प्याज महफूज रखने की तकनीक व उस की प्रोसैसिंग के तरीके भी निकाले हैं. वहां प्याज की उन्नत खेती करने के लिए किसानों को बीज, सलाह व ट्रेनिंग भी दी जाती है. यह बात अलग है कि तमाम किसानों को ऐसी बातों का पता ही नहीं चलता. लिहाजा, वे इन सहूलियतों का फायदा नहीं उठा पाते.

प्याज परियोजना निदेशालय में खेती व बागबानी महकमों के मुलाजिमों, कारोबारियों व किसानों को प्याज की ज्यादा पैदावार देने वाली नई संकर किस्मों, खेती की नई तकनीक, प्याज फसल का रोगोंकीटों से बचाव, प्याज का बेहतर भंडारण व उस की बिक्री जैसे पहलुओं पर ट्रेनिंग दी जाती है. लिहाजा, वहां के माहिरों से तालमेल बना कर उस का फायदा उठाया जा सकता है.

प्याज निदेशालय ने 5 व 10 टन कूवत के किफायती भंडारघरों के 2 डिजाइन निकाले हैं, जिन में तली व दीवारों से हवा जाने का इंतजाम है. साथ ही बड़ी, छोटी व मझली साइजों की प्याज को छांट कर अलग करने वाली ग्रेडर मशीन भी बनाई है. इस से हाथ से काम करने के मुकाबले 20 गुना ज्यादा व जल्दी प्याज की बेहतर छंटाई होती है.

उम्दा किस्में

देश के अलगअलग इलाकों में लाल प्याज की 45, सफेद प्याज की 10, पीली प्याज की 3 व भूरी प्याज की 1 किस्म सहित कुल 59 किस्में फिलहाल चलन में हैं. इन में से खासतौर पर एन 2-4-1, एन 53, एन 257-9-1, फुले सफेद, पूरा रैड, भीमा सुपर, भीमा रैड, भीमा शक्ति, भीमा शुभ्रा, भीमा श्वेता व भीमा डार्क रैड वगैरह किस्में ही ज्यादा बोई जाती हैं.

आमतौर पर ज्यादातर किसान जल्दी पक कर ज्यादा उपज देने वाली किस्मों की प्याज बोना पसंद करते हैं.

इस लिहाज से करीमनगर, तेलंगाना में डब्ल्यूएम 514 किस्म की 4-6 कंद वाली सफेद गुच्छेदार प्याज पहचानी गई है., जो सिर्फ 110 से 125 दिनों में पक कर 20 टन प्रति हेक्टेयर तक की पैदावार देती है. जरूरत उस का बीज मुहैया कराने की है.

हालांकि प्याज की नई किस्मों की खोजबीन करने पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने काफी काम किया है, लेकिन वह खोज बेकार है, जो गांवों तक न पहुंचे. पिछले दिनों असम व अरुणाचल प्रदेश से जंगली व बोई जा रही प्याज की 49 किस्में इकट्ठा की गई हैं. साथ ही, जल्दी पकने व ज्यादा उपज देने वाली अमेरिकन प्याज की 40 किस्मों को भी भारत की आबोहवा में बो कर आजमाया जा रहा है.

जल्द ही इस खोजबीन के नतीजे आने की उम्मीद है. जरूरत जागरूकता बढ़ाने व प्याज उत्पादकों को बाजार, बिक्री, वाजिब कीमत व प्रोसैसिंग आदि की सहूलियतें मुहैया कराने की है, ताकि प्याज पैदा करने वालों की आमदनी में इजाफा हो सके. सरकार के भरोसे रह कर कुछ होने वाला नहीं है, लिहाजा किसानों को खुद एकजुट हो कर कोशिशें करनी होगी. प्याज के बारे में और ज्यादा जानकारी के लिए किसान निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं:

निदेशक

प्याज और लहसुन अनुसंधान निदेशालय

राजगुरु नगर, पुणे, महाराष्ट्र. पिन : 410505 फोन : 02135-222026.

प्याज की प्रोसैसिंग से करें कमाई

बीते दिनों देश के कई हिस्सों में किसानों ने अपनी प्याज सड़क पर फेंक कर गुस्से का इजहार किया, लेकिन ओहदेदारों के कानों पर जूं नहीं रेंगी. दिल्ली आदि में प्याज की फुटकर कीमतें भले ही गिरें, लेकिन थोक मंडियों में प्याज की तबाही होने से किसान खून के आंसू रोते हैं. गिरती कीमतों से निबटने का उपाय भंडारण है, लेकिन शीत भंडारों की गिनती व कूवत कम है. किसानों को जरूरतों व कर्ज चुकाने को तुरंत पैसा चाहिए. वे कीमतें बढ़ने तक का इंतजार नहीं कर पाते. इसलिए कम दामों पर ही अपनी  प्याज बेच देते हैं.

प्याजलहसुन अनुसंधान निदेशालय, राजगुरु नगर, पुणे के मुताबिक प्याज को प्रोसैस कर के छिली, सूखी, पाउडर व पेस्ट बना कर बेच सकते हैं. उस का अचार, तेल, सिरका, पेय व सास वगैरह बना सकते हैं. प्याज के कचरे से रेशा, रंग व बायोगैस बनते हैं. लिहाजा निजी, सहकारी व सरकारी क्षेत्र की छोटी, मझोली व बड़ी प्रोसैसिंग इकाइयों को बढ़ाना होगा. इसलिए कृषि, खाद्य प्रसंस्करण महकमे व किसान पहल करें. प्याज उत्पादक प्रसंस्करण की तकनीक सीखें. ताकि प्याज की कीमतें गिरने की मुसीबत से नजात मिले व कमाई में इजाफा हो.

नैस्ले, पैप्सी व आईटीसी वगैरह बहुत सी कंपनियां सूखी प्याज खरीदती हैं. प्याज प्रोसैसिंग की 80 इकाइयों में से 65 अकेले गुजरात में व बाकी महाराष्ट्र वगैरह में हैं. कटाई के बाद की तकनीक का एक केंद्रीय संस्थान, सीफेट, लुधियाना में है, जो किसानों को प्याज सुखाने की ट्रेनिंग देता है. प्याज का पाउडर बनाने की मशीनों की जानकारी अलीबाबा डाट काम से कर सकते हैं. प्याज प्रोसैसिंग यूनिट की लागत, लाभ, मशीनरी, निर्यात, बाजार, नियमकानून व सरकारी स्कीमों वगैरह की जानकारी यहां से भी कर सकते हैं.

Goat Farming : बकरीपालन को कैसे दें प्रोफेशनल रंग

Goat Farming: भारत के गांवों में गरीब तबके के लाखों लोग पिछले कई दशकों से जैसेतैसे बकरीपालन (Goat Farming) कर के अपने परिवारों का पेट पालते रहे हैं. कई सालों तक बकरीपालन (Goat Farming) करने के बाद भी गरीबों की माली हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं हो पाता है.

आज बकरीपालन एक बड़ा कारोबार बन चुका है. अगर बकरीपालन करने वाले व्यावसायिक तरीके से गोट फार्मिंग (बकरीपालन) करें तो बकरियों की संख्या और आमदनी दोनों में लगातार इजाफा हो सकता है. इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर बकरीपालन शुरू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की बकरीपालन योजनाओं और अनुदान का लाभ भी लिया जा सकता है.

इस कारोबार को शुरू करने से पहले यह जानना और समझना जरूरी है कि व्यावसायिक बकरीपालन क्या है? इस में कितनी लागत आएगी? कितना मुनाफा होगा? सरकार की ओर से क्या मदद मिलती है? बकरीपालन में 100 से 1000 बकरियों को 1 ही बाड़े में रखा जा सकता है और बड़े नाद में सभी को एकसाथ खाना खिलाया जाता है. यह तरीका मुरगीपालन यानी पोल्ट्री फार्म की तरह ही होता है.

घर में 5-7 बकरियां पालने और बकरियों का व्यावसायिक रूप से पालन करने में फर्क है. अगर 1 परिवार कम से कम 100 बकरियों का पालन करे तो उस परिवार के 6-8 लोगों को काम मिलेगा और आमदनी भी बढ़ेगी.

गौरतलब है कि भारत में मांस की मांग करीब 80 लाख टन है, जबकि 60 लाख टन का ही उत्पादन हो पाता है. इस में बकरी के मांस की खपत 12 फीसदी ही है. इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि बकरीपालन का बाजार कितना खाली है.

पशु वैज्ञानिक डा. सुरेंद्र नाथ बताते हैं कि गोट फार्मिंग की छोटी यूनिट में 20 बकरियां और 1 बकरा होते हैं, जबकि बड़ी यूनिट में 40 बकरियां और 2 बकरे होते हैं. लोकल किस्म की बकरी 1 साल में 2 बार 2-2 बच्चे देती है. कुछ बकरियां 3-4 बच्चे भी देती हैं. इस हिसाब से 20 बकरियों वाली यूनिट से 1 साल में कम से कम 80 बच्चे मिल सकते हैं. 1 बकरे या बकरी की कीमत कम से 4000 रुप्ए होती है. इस लिहाज से 80 बकरेबकरियों की कीमत 320000 रुपए होगी. 1 यूनिट की बकरियों के चारे, दवा व टीकों आदि पर साल में करीब 1 लाख रुपए खर्च होते हैं. इस तरह 1 यूनिट से कम से कम ढाई लाख रुपए के करीब सालाना कमाई होती है.

पिछले 12 सालों से बकरीपालन कर के अच्छीखासी कमाई करने वाले पटना जिले के नौबतपुर गांव के मनोज बताते हैं कि इस व्यवसाय की सब से बड़ी खासीयत यह है कि बाढ़ या सूखा जैसी आपदा का इस पर खास असर नहीं पड़ता. इस के अलावा अचानक पैसों की जरूरत पड़ने पर बकरियों को बेचा जा सकता है. बकरों व बकरियों को कभी भी कहीं भी बेचा जा सकता है. कई मौकों पर तो बकरियों की मुंहमांगी कीमतें मिलती हैं.

प्रोफेशनल तरीके से बकरीपालन शुरू करने से पहले विशेषज्ञों से सलाह लेना जरूरी है. किसी की सुनीसुनाई बातों में फंस कर इस काम को शुरू नहीं करें. बकरियों की 1 छोटी यूनिट के लिए 300 वर्गमीटर जगह और करीब 1 लाख रुपए की जरूरत होती है. बकरियों को रखने के लिए जमीन से कुछ ऊंचाई पर बांस की जमीन बना ली जाती है. बकरीपालन वाली जगह पर पानी का जमाव नहीं होना चाहिए और जगह हवादार होनी चाहिए. इस कारोबार को समझने के बाद बजट और योजना बना कर ही काम शुरू करना बेहतर होगा.

Floriculture :फ्लोरीकल्चर- फूलों सा खिलता कारोबार

Floriculture: फूलों की मांग आज के समय में दिनबदिन बढ़ती ही जा रही है. खुशी के हर मौके पर फूलों का इस्तेमाल बहुत ही जरूरी हो गया है. यही वजह है कि सुबह सब से जल्दी और रात में देर तक फूलों की ही दुकानें खुली मिलती हैं. लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए फूलों का करोबार देश से ले कर विदेशों तक में फैला हुआ है.

फूलों के पौधे कम समय में ही तैयार हो जाते हैं, जिस से फूलों का कारोबार मुनाफे का जरीया बन गया है. आने वाले समय में भी फूलों के बढ़ते कारोबार से फूलों की खेती और इस से जुडे़ दूसरे काम बड़े कारोबार के रूप में निखरेंगे. भारत के अलावा कीनिया, इजराइल, कोलबिंया, फ्रांस, जापान और जर्मनी फूलों के सब से बड़े निर्यातक देश हैं.

भारत के कर्नाटक प्रदेश में फूलों की खेती सब से ज्यादा होती है. देश में फूलों की पैदावार का 75 फीसदी हिस्सा कर्नाटक में ही होता है. फूलों के कारोबार की मांग साल दर साल 25 से 30 फीसदी के हिसाब से बढ़ती जा रही है. फूलों के निर्यात में भारत का हिस्सा बहुत ही कम है. भारत में जमीन, जलवायु और कई तरह के फूलों की पैदावार के चलते फूलों के कारोबार की संभावना बहुत है. इसी वजह से फ्लोरीकल्चर नई विधा के रूप में उभर कर सामने आई है.

फ्लोरीकल्चर का संबंध फूलों की खेती से होता है. इस में फूल और फूलदार पेड़ों की खेती और उस के व्यावसायिक इस्तेमाल के बारे में जानकारी मिलती है. फूलों की खपत ताजे फूलों के साथसाथ परफ्यूम, फार्मा और सौंदर्य सामग्री बनाने वाली कंपनियों में होती है. फूलों के

बढ़ते कारोबार ने फ्लोरीकल्चर में कैरियर के नए रास्ते भी खोल दिए हैं. फ्लोरीकल्चर की जानकारी हासिल कर के स्वरोजगार को भी बढ़ाया जा सकता है. फ्लोरीकल्चर में फूलों के कारोबार से जुड़ी हुई हर तरह की जानकारी दी जाती है, जो फूलों से जुड़े हुए कारोबार को बढ़ाने में मदद करती है.

फूलों से रोजगार

Floricultureफूलों के कारोबार से कैरियर को नया आयाम दिया जा सकता है. फ्लोरीकल्चर से जानकारी हासिल करने के बाद अपना छोटा रोजगार चलाया जा सकता है. फूलों के कच्चे माल को बेचने का कारोबार हो सकता है. फ्लोरीकल्चर से डिगरी लेने के बाद सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में नौकरी मिलने की ढेर सारी संभावनाएं हो जाती हैं.

इस डिगरी को लेने के बाद लैंडस्कैप डिजाइनर, हार्टिकल्चर थेरेपिस्ट, ग्राउंड कीपर्स और फ्लोरल डिजाइनर के रूप में काम मिलने लगता है. इस के अलावा खेत बागान प्रबंधक, सुपरवाइजर और विशेषज्ञ के रूप में भी नौकरी की जा सकती है.

फूलों की सजावट अलगअलग समय पर अलगअलग तरह से होती है. जिन लोगों को इस की जानकारी होती है, उन की भी अच्छी डिमांड होती है. फूलों की नर्सरी लगाने, खुशबूदार पौधों और लैंडकेपिंग के बारे में जानकारियां देने का काम भी किया जा सकता है. फ्लोरीकल्चर  में फूलों और कलियों का उत्पादन, डिजाइनिंग, बुके बनाना, झालर वाले फूलदार पौधे उगाना जैसी तमाम जानकारियां दी जाती हैं.

इस में फूलों की खेती की पूरी जानकारी दी जाती है. फूलों की चुनाई की जानकारी भी फ्लोरीकल्चर में मिलती है.

बदलते समय में घर व आफिस में हरियाली को अच्छे इंटीरियर के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है. लोग बागबानी में भी रुचि रखने लगे हैं. इस से बागबानी, आफिस, घर, पार्क और कार्यालय वगैरह की सजावट करने के लिए सलाह देने का काम भी किया जा सकता है. कई बड़ी कंपनियां इस तरह के लोगों को नौकरी पर भी रखती हैं.

फ्लोरीकल्चर की पढ़ाई

Floriculture

फ्लोरीकल्चर के क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए ऐसे मेहनती लोगों की जरूरत होती है, जो नेचर के करीब होते हैं और खेती के काम करना चाहते हैं. फ्लोरीकल्चर विषय में डिगरी की उपलब्धता नहीं है. इस के लिए एग्रीकल्चर में गे्रजुएट या बीएससी इन एग्रीकल्चर का चुनाव किया जा सकता है.

बायोटेक्नोलाजी में भी एग्रीकल्चर का दखल बढ़ गया है. जीव विज्ञान से 12वीं कक्षा की परीक्षा पास करने के बाद बीएसएसी और उस के बाद एमएससी इन हार्टीकल्चर परीक्षा पास की जा सकती है. एमएससी हार्टीकल्चर में फूलों, फलों और सब्जियों के बारे में बताया जाता है. कम समय में जानकारी हासिल करने के लिए अलगअलग स्कूलकालेजों के द्वारा डिप्लोमा कोर्स भी किए जा सकते हैं.

इलाहाबाद एग्रीकल्चरल विश्वविद्यालय, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), चंद्रशेखर आजाद एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय कानपुर (उत्तर प्रदेश), चौधरी चरण सिंह एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय हिसार, इंडियन एग्रीकल्चर रिर्सच इंस्टीट्यूट कृषि अनुसंधान भवन नई दिल्ली, कालेज आफ एग्रीकल्चर पूना और फारेस्टी रिसर्च विश्वविद्यालय देहरादून जैसी तमाम जगहों से एग्रीकल्चर कोर्स कराए जाते

हैं. पालीटेकनिक स्कूल आफ हार्टीकल्चर जूनागढ़, एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय जूनागढ़ और डिपार्टमेंट आफ बाटनी हिसलाय कालेज नागपुर जैसी जगहों से डिप्लोमा कोर्स भी किए जा सकते हैं.

40फीसदी बढ़ रहा फूलों का कारोबार

Floricultureशादी का मंडप हो या किसी के स्वागत की तैयारी, फूलों की सजावट सब से जरूरी होती है. रोज के कामकाज में फूलों की सजावट का ज्यादा इस्तेमाल होने से तरहतरह के फूलों की मांग बढ़ गई है. अब सजवाट और लाइट के हिसाब से अलगअलग रंगों के फूलों की मांग बढ़ गई है. इसी वजह से तरहतरह के देशी और विदेशी फूलों की खेती करने वालों की तादाद बढ़ गई है. पहले किसान गेंदा और गुलाब की खेती तक ही अपने को सीमित रखते थे, मगर अब नएनए फूलों की मांग बढ़ने से रंगबिरंगे विदेशी फूलों की खेती भी लाभदायक हो गई है. जो फूल लोकल बाजार में नहीं मिलते हैं, वे बडे़ शहरों और विदेशों तक से मंगाए जाते हैं. अपने देश के भी बहुत सारे किसान विदेशों में फूलों को भेजते हैं.

जनवरी से ले कर दिसंबर तक हर महीने में कोई न कोई खास दिन जरूर होता है, जिस में बहुत सारे लोग एकदूसरे को बधाई देते हैं. बधाई देने के लिए फूलों के बुके से अच्छा दूसरा कुछ नहीं होता है. इस के अलावा जन्मदिन या अन्य मौकों पर शुभकामना संदेश देने के लिए भी फूलों के गुलदस्ते बहुत काम के होते हैं.

जिस तरह से फूलों की बाजार में मांग बढ़ी है,उसी के मुताबिक फूलों की खेती का दायरा भी बढ़ गया है. किसानों के लिए फूलों की खेती चमकते सोने के समान हो गई है. देशी फूलों के साथसाथ अब बहुत सारे विदेशी फूलों की खेती भी भारतीय किसानों ने करनी शुरू कर दी है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और आसपास के जिलों की बात करें, तो रायबरेली, हरदोई, कन्नौज, बाराबंकी और कानपुर में गुलाब, गलोडियस, रजनीगंधा और जरबेरा जैसे फूलों की खेती होती है. इस के अलावा उत्तराखंड से बहुत सारे फूल आते हैं. दिल्ली और बेंगलूरू की फूल मंडियों से बहुत सारे देशी और विदेशी फूल मंगवाए जाते हैं.

इन फूलों में तमाम तरह की किस्में होती हैं. फूलों की डिमांड का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शादीविवाह के सीजन में मंडी से फूल गायब हो जाते हैं. फूलों की खेती करने वाले तमाम किसान महसूस कर रहे हैं कि फूलों का बढ़ता कारोबार उन के लिए सुनहरा भविष्य ले कर आया है.

Thandai : गरमियों में पीजिए कूलकूल ठंडाई

Thandai: गरमी के मौसम में ठंडाई का अपना अलग ही मजा होता है. पहले के समय में शादी समारोहों में ठंडाई (Thandai) का इस्तेमाल होता था. अब बहुत सारे लोग कोल्ड ड्रिंक की जगह ठंडाई पीने लगे हैं. ठंडाई ज्यादातर बादाम के इस्तेमाल से बनती है. बादाम की तासीर गरम होती है, लेकिन उन को पानी में रात भर भिगो दें तो उन की तासीर बदल कर ठंडी हो जाती है. होली के अवसर पर भी लोग ठंडाई पी कर इस का आनंद लेते हैं.

ज्यादातर बनीबनाई ठंडाई को पानी या दूध में डाल कर इस्तेमाल किया जाता है. मिश्रांबू ठंडाई का बहुत मशहूर ब्रांड है. यह वाराणसी से बनाना शुरू हुआ था. साल 1924 में वाराणसी के रहने वाले सच्चिदानंद दुबे ने मिश्रांबू को तैयार किया. यह मेवों के मिश्रण से तैयार किया जाता है. अब पीढ़ी दर पीढ़ी यह कारोबार चल रहा है. अगर खुद ठंडाई बना कर पीना पसंद करें, तो यह काम काफी आसान होता है.

ठंडाई बनाने की सामग्री

बादाम 50 ग्राम, खसखस 30 ग्राम, तरबूज के छिले हुए बीज 20 ग्राम, खरबूजे के छिले हुए बीज 20 ग्राम, ककड़ी के छिले हुए बीज 20 ग्राम, सौंफ 50 ग्राम, काली मिर्च 10 ग्राम, देसी गुलाब की सूखी पंखुडि़यां 20 ग्राम, केसर 5-6 पत्तियां, हरी इलायची 5, बीज निकाले हुए मुनक्का 8, मिश्री 10 ग्राम, दूध 1 लिटर.

ठंडाई बनाने की विधि

बादाम, खसखस, तरबूज के बीज, खरबूजे के बीज, ककड़ी के बीज, सौंफ, गुलाब की पंखुडि़यां, काली मिर्च, इलायची और मुनक्का को पानी में भिगो दें. सभी सामग्री को रात भर (करीब 5-6 घंटे) पानी में भीगने दें. सुबह बादाम के छिलके हटा दें और सारी सामग्री पानी सहित अच्छी तरह बारीक पीस लें. सिलबट्टे पर पीस सकें तो बहुत अच्छा है या ग्राइंडर में जितना हो सके उतना बारीक पीस लें. इस का पानी कतई न फेंके. यह पानी बहुत फायदेमंद होता है. पिसा हुआ तैयार पेस्ट अलग रख लें.

दूध में मिश्री व केसर डाल कर उबालें और ठंडा कर लें. पिसी हुई सामग्री में 1 गिलास पानी डाल कर साफ कपड़े या बारीक छलनी से छान लें. थोड़ाथोड़ा कर के पानी डालते जाएं और छानते जाएं. ये करीब 2 गिलास होना चाहिए. छलनी से निकले पानी में तैयार किया दूध मिला दें. इस तरह आप के पास 6 गिलास स्वादिष्ठ ठंडाई तैयार हो जाएगी. इस स्वादिष्ठ और फायदेमंद ठंडाई का मजा परिवार वालों या दोस्तों के साथ लें.

ठंडाई के फायदे

ठंडाई पीने से गरमी की वजह से शरीर को होने वाले नुकसानों से बचाव होता है. आंखों में जलन व पेशाब में जलन जैसी तकलीफें इस से ठीक हो जाती हैं. ठंडाई पीने से लू से बचाव होता है. बादामों से भरपूर ठंडाई पीने से दिमाग की कूवत में इजाफा होता है. यह दिल के लिए भी फायदेमंद होती है. ठंडाई पीने से पेट साफ रहता है और कफ में आराम मिलता है. ठंडाई में मौजूद तरबूज, खरबूज व ककड़ी के बीज किडनी और पेशाब संबंधी तकलीफों में फायदा पहुंचाते हैं.

Machine : किसान ने बनाई कंपोस्ट टर्निंग मशीन

Machine : हरियाणा के पानीपत जिले के सींख गांव के किसान जितेंद्र मलिक की पढ़ाई के वक्त खेती के कामों में दिलचस्पी कम ही रही, लेकिन पढ़ाई में भी उन का मन ज्यादा नहीं लगा.

उन्होंने दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी. उन्होंने साल 1995 में गांव में सफेद बटन मशरूम की खेती शुरू की. साल 2005 तक तो जैसेतैसे मशरूम की उपज ली, मगर काम में उत्साह महसूस नहीं हो रहा था. रोजरोज मजदूरों की समस्या रहती थी.

उसी बीच उन्होंने ‘खुंबी कंपोस्ट मिक्सचर मशीन’ बना डाली. मशीन को ट्रैक्टर के पीछे जोड़ कर ट्रायल किया तो मनचाही सफलता हाथ नहीं लगी. फिर से वे अनमने मन से खेती में जुट गए, मगर कसक थी कामयाब होने की.

कुछ अरसे बाद रोजरोज की परेशानियों से पीछा छुड़ाने के लिए जितेंद्र ने फिर से मशरूम की मशीन बनाने की सोची. इस बार भाई ने हिम्मत बंधाई.

15 दिनों में मशीन बनाने से जुड़े सभी उपकरणों को जुटाया. मशीन तैयार की और ट्रायल किया. सब कुछ सही हुआ. अगले साल मशीन में कुछ मामूली से बदलाव किए, जो अब तक कायम हैं. तब मशीन बनाने में 2 लाख रुपए खर्च हुए थे.

कैसे काम करती है यह मशीन

जितेंद्र ने मशीन को ‘कंपोस्ट टर्निंग मशीन’ नाम दिया है. यह मशीन खाद डालने पर पड़ी हुई सभी गांठों को खोल देती है. इन गांठों को तोड़ने के लिए छत में एक जाली भी लगाई है, जिस के संपर्क में आने से कंपोस्ट की गांठें टूट जाती हैं. यह अंदरूनी परत को बाहर और बाहरी परत को अंदर की तरफ फेंकने का काम भी करती है, जिस से अमोनिया की निकासी में बहुत सहायता मिलती है.

इस मशीन से क्वालिटी कंपोस्ट तैयार होता है. मजदूरों की तादाद कम हुई है और उत्पादन बढ़ गया है. यह अकेली मशीन 50 मजदूरों के बराबर का काम 1 दिन में करती है. इस मशीन द्वारा मात्र 60 मिनट में 300 क्विंटल के करीब कंपोस्ट टर्न होता है.

शुरू में कंपोस्ट पूरी तरह भीगता नहीं था, अब पाइप चलाने पर फुहारे से पानी मिल जाता है. मशीन को चलाना भी काफी आसान है. यह बिजली और डीजल दोनों से चल सकती है.

उन्होंने हाल ही में एक नई मशीन भी बनाई है, जिस की लागत करीब सवा 3 लाख रुपए है. पहले वाली मशीन तैयार कंपोस्ट को सीधे एक ही लाइन में रखती जाती थी, अब यह नई मशीन कंपोस्ट को मनचाही जगह दाएंबाएं रखती है. यह कंपोस्ट को ट्राली में भी लोड कर सकती है, ताकि उसे दूसरी जगह ले जाया जा सके.

यह नई मशीन जेसीबी का काम भी कर लेती है. इस मशीन से न सिर्फ पैदावार बढ़ेगी, बल्कि खर्च भी कम होगा. जो काम पहले 40-50 मजदूरों से होता था, अब महज 10 मजदूरों से ही हो जाता है.

मानसम्मान

Machines

अपने नवाचारों के लिए जितेंद्र को कई मानसम्मान भी मिले हैं. उन्हें ‘राष्ट्रीय फार्म इन्नोवेटर मीट’ 2010 में आईसीएआर ने मैसूर के केवीके में सम्मान प्रदान किया.

हरियाणा के चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय ने उन्हें 3 बार सम्मानित किया. सोलन के मशरूम निदेशालय ने भी उन्हें सम्मान दिया. जितेंद्र को नेशनल इन्नोवेशन फाउंडेशन का 3 लाख रुपए का द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा राष्ट्रपति भवन में 7 मार्च, 2015 को ‘कंपोस्ट टर्निंग मशीन’ बनाने के लिए दिया गया.

बीकानेर के राजस्थान पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय में 9-10 मार्च को देशभर के कृषक वैज्ञानिकों, प्रगतिशील किसानों व विशेषज्ञों के राष्ट्रीय मंथन कार्यक्रम में उन्हें ‘खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान से नवाजा गया.

मशीन की ज्यादा जानकारी के लिए किसान निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं: गांवपोस्ट : सींख, तहसील : इसराना, जिला : पानीपत (हरियाणा). मोबाइल नंबर 09813718528.

DAP Bags : किसानों को डीएपी की बोरी 1350 रूपए में मिलेगी

DAP Bags : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फास्फेटिक और पोटासिक उर्वरकों पर खरीफ सीजन, 2025 (01.04.2025 से 30.09.2025 तक) के लिए पोषक तत्व आधारित सब्सिडी  दरें तय करने के लिए उर्वरक विभाग के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. खरीफ सीजन 2025 के लिए बजटीय आवश्यकता लगभग 37,216.15 करोड़ रुपए होगी. यह रबी सीजन 2024-25 के लिए बजटीय आवश्यकता से लगभग 13,000 करोड़ रुपए अधिक है.

कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस  फैसले पर कहा कि मोदी सरकार निरंतर किसानों की आय बढ़ाने के प्रयास में लगी है. किसानों की आय बढ़ाने के साथ उत्पादन बढ़ाना भी ज़रूरी है और उत्पादन बढ़ाने के लिए फर्टिलाइजर या खाद की आवश्यकता पर भी ध्यान देना होगा.

उन्होंने आगे कहा कि उत्पादन बढ़ने के साथ ही फर्टिलाइजर की कीमतें भी नियंत्रित रहे, यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता रही है. किसानों पर फर्टिलाइजर विशेषकर डीएपी की बढ़ी हुई लागत का बोझ न आए इसलिए सरकार बढ़ी हुई कीमतों का भार उठाने के लिए विशेष पैकेज देती है.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार किसान हितैषी सरकार है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 1350 रूपए प्रति बोरी कीमत तय की है, ताकि किसानों को अधिक कीमत न देनी पड़े इस के लिए भारी सब्सिडी किसानों को दी जा रही है.

उन्होंने बताया कि इस साल भी लगभग 1लाख 75 हजार करोड़ रूपए की सब्सिडी किसानों को सस्ती खाद उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने दी है. अब किसानों को डीएपी की बोरी 1350 रूपए में ही मिलेगी. खरीफ के सीजन में ही सस्ती डीएपी देने के लिए 37 हजार 216 करोड़ रूपए विशेष रूप से सब्सिडी दी जाएगी.

इस के साथ ही किसानों के पक्ष में आयातनिर्यात नीति में परिवर्तन किया गया है, चना उत्पादक किसानों के लिए चने पर 10  फीसदी आयात शुल्क लागू करने के फैसले की अधिसूचना कल केंद्र सरकार ने जारी कर दी है, जिस से चना  उत्पादक किसानों को लाभ होगा.

केंद्र सरकार के इस निर्णय पर कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि 10 फीसदी आयात शुल्क लगाने के कारण सस्ता चना विदेश से नहीं आएगा. इस से हमारे किसानों को उन की उपज का बाजार में सही दाम मिलेगा.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बताया कि इस साल चने का भी बंपर उत्पादन हुआ है. कृषि के 2024-25 के अग्रिम अनुमान के अनुसार चने का उत्पादन 115 लाख मीट्रिक टन से अधिक होगा जबकि पिछले साल 110 लाख मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था.

सरकार ने ऐसे अनेकों किसान हितैषी फैसले किए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मंत्र है, कि किसानों को उस के उत्पादन के ठीक दाम दें, इसलिए न केवल उत्पादन की लागत पर 50 फीसदी लाभ दे कर न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएसपी घोषित की जाती है बल्कि, खरीदने की भी उचित व्यवस्था की जाती है.

किसान के उत्पाद की कीमत घटने पर हम आयातनिर्यात नीति को भी किसान हितैषी बनाते हैं. उन्होंने बताया कि पिछले दिनों आयतित मसूर आई थी. जिस पर जीरो फीसदी आयात शुल्क था. जिस से कीमतें कम होती और किसान को घाटा होता. इसलिए, सरकार ने फैसला किया कि आयतित मसूर पर आयात शुल्क 11 फीसदी वसूली जाएगी.

Saffron Cultivation : अब केसर की खेती होगी पश्चिम उत्तर प्रदेश में भी

Saffron Cultivation :  सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केसर की खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक प्रोफैसर वैशाली को एक करोड़ 55 लाख रुपए की परियोजना उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्वीकृत की गई है.

इसी विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफैसर केके सिंह ने कहा कि उन का प्रयास है, कि कृषि विविधीकरण पर जोर दिया जाए जिस से किसान धान, गेहूं और गन्ना फसलों से हटकर सब्जी, फूल और फल उत्पादन की तरफ भी बड़े और अगर वे सहफसली खेती को बढ़ावा देंगे तो उन की आय में वृद्धि भी होगी.

उन्होंने बताया की किसान तक केसर उत्पादन की विधि को स्टैंडर्डाइज्ड करने के लिए पहले विश्वविद्यालय में प्रयोगशाला विकसित की जाएगी और शोध के बाद इस तकनीकी को किसानों  तक पहुंचाया जाएगा. इस के लिए किसानों को प्रशिक्षण भी दिया जाएगा.

इस परियोजना की अन्वेषक प्रोफैसर वैशाली ने बताया की वैसे केसर की खेती श्रीनगर और  हिमाचल प्रदेश में जहां पर तापमान काफी कम रहता है, वहां पर की जाती है, लेकिन अब इस परियोजना के माध्यम से कोल्ड चैंबर को तैयार कर के उस में केसर की फसल के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया जाएगा और उस में इस की खेती को बढ़ावा दिया जाएगा. किसानों को तकनीकी ज्ञान उपलब्ध कराने के लिए समयसमय पर प्रशिक्षण का आयोजन किया जाएगा. जिस से किसान भी इस तकनीक को अपना कर अपने यहां केसर का उत्पादन प्रारंभ कर सके.

निदेशक शोध डा. कमल खिलाड़ी ने बताया की इस तरह की परियोजनाओं से किसानो को लाभ होगा. यह परियोजना कृषि विश्वविद्यालय के कालेज औफ बायोटैक्नोलौजी महाविद्यालय के पादप जैव प्रौद्योगिकी संभाग को मिली है. इस परियोजना में मुख्य अन्वेषक प्रोफैसर शालिनी से अन्वेषक प्रोफैसर डा. आरएस सेंगर, डा. मनोज यादव, डा. मुकेश कुमार एवं डा. नीलेश कपूर है.

केसर की खेती

केसर की खेती यूरोप और एशियाई भागों में किया जाता है. ईरान और स्पेन जैसे देश पूरी दुनिया का 80 फीसदी केसर का उत्पादन करते हैं. केसर समुद्र तल से 1000 से 2500 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जाता है. केसर की खेती के लिए बर्फीले इलाके बेहतर माने जाते हैं. इस की खेती कर किसान भी अच्छी कमाई कर सकते हैं.

कैसर की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

केसर की खेती बलुई दोमट और दोमट मिट्टी में की जाती है. लेकिन बढ़ती तकनीक और उचित देखभाल की मदद से राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्रों में भी इस की खेती की जा सकती है. केसर की खेती के लिए जलभराव वाली जगह नहीं होनी चाहिए. क्योंकि केसर के बीज पानी में सड़ कर नष्ट हो जाते हैं. इस की खेती के लिए भूमि का पीएच  मान सामान्य होना चाहिए.

जलभराव वाले खेत केसर की खेती के लिए सही नहीं होते, क्योंकि जलभराव से कंद सड़ सकते हैं. केसर के पौधे को हल्की सिंचाई की जरूरत होती है और ठंडे मौसम में इसे विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है. इस के लिए दिन में 17 डिगरी सैल्सियस  और रात में 10 डिगरी सैल्सियस तापमान आदर्श माना जाता है.

केसर बोआई के लिए मिट्टी की तैयारी कैसे करें:

मिट्टी की अच्छी तैयारी के लिए गहरी जुताई करें और कुछ दिनों के लिए खेत को खुला छोड़ें ताकि धूप से हानिकारक जीवाणु नष्ट हो सके. जुताई के बाद, खेत में 20-25 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद मिलाकर मिट्टी की उर्वरकता और केसर की जड़ों को पोषक तत्व प्रदान करें. खेत को हल या लकड़ी के पटरे से समतल करें ताकि सिंचाई के समय पानी का समान वितरण हो और जलभराव न हो. खेत में 15-20 सैंटीमीटर ऊंची क्यारियां बनाएं. क्यारियों की चौड़ाई 1.1 मीटर और लंबाई आवश्यकता अनुसार रखें.

मुख्य उत्पादक क्षेत्र

भारत में, केसर की खेती मुख्य रूप से जम्मूकश्मीर और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में की जाती है. विशेष रूप से, कश्मीर का पांपोर क्षेत्र केसर उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है. यहां की मिट्टी और जलवायु केसर की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है.

केसर की उन्नत किस्में

रोपाई का समय : केसर की रोपाई का उचित समय अगस्त से सितंबर के बीच होता है, जब मौसम ठंडा और शुष्क होता है.

केसर की खेती के लिए प्रमुख किस्में : केसर की खेती से ज्यादा उत्पादन प्राप्त करने के लिए कुछ प्रमुख किस्में देखते हैं.
कश्मीरी केसर, ईरानी केसर, स्पैनिश केसर, अफगानी केसर, तुर्की केसर

कंद रोपाई का तरीका :

रोपाई के लिए 15-20 सैंटीमीटर की गहराई पर कंद को लगाएं।
कंदों के बीच की दूरी 10-15 सैंटीमीटर और कतारों के बीच की दूरी 20-25 सैंटीमीटर रखें.

कंद रोपने की विधि :
कंदों को हाथ से लगाएं या हल्के फावड़े का उपयोग करें.
कंदों को रोपने के बाद मिट्टी से ढक दें और हल्का सा दबा दें.

केसर के बीज बोने का सब से सही समय : केसर की फसल लगभग 6 माह में तैयार हो जाती है. केसर की अच्छी गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए केसर के बीजों को सही समय पर लगाना बहुत जरूरी है. केसर अच्छी क्वालिटी के आधार पर ही बिकता है. केसर के बीज जुलाई से सितंबर तक बरसात के मौसम की समाप्ति के बाद लगाए जाने चाहिए. इन बीजों को अगस्त के महीने में लगाना सब से अच्छा माना जाता है. अगस्त के मौसम में बीज देने के बाद इस की सूक्ष्म केसर शुरुआती सीजन में देने के लिए तैयार हो जाती है. अत्यधिक ठंड में केसर को खसरा होने का खतरा नहीं रहता है.

कीटः केसर के कंदों को सफेद सुंडिया मुख्य तौर पर नुकसान पहुंचाती हैं. इस की रोकथाम के लिए क्लोरपायरीफास धूल या 5 फीसदी दानेदार क्विनाल्फास, 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बिजाई के समय खेत में डालना उत्तम रहता है.

रोगः रोगों में कंद सड़न रोग केसर की मुख्य बीमारी है, जो कि फ्यूजेरियम सोलेनाइ नामक फफूंद के कारण होती है. इस की रोकथाम के लिए कंदों को बाविस्टिन के घोल से उपचारित करना चाहिए। अक्तूबर व अप्रैल में खड़ी फसल में बाविस्टिन से मृदा शोधित करने से भी रोगकारक बीजाणुओं की वृद्धि रूक जाती है.

उपज : शुद्ध केसर की औसतन उपज लगभग 2-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक ली जा सकती है.

भंडारण : केसर के फूल अक्तूबर के महीने में खिलने आंरभ होतें है और नवंबर और कम उंचाई वाले क्षेत्रों में दिसंबर के पहले सप्ताह तक फूल प्राप्त कर सकते हैं. केसर के फूल को प्रतिदिन सुबह ओस सुखने के उपरांत तोड़ना चाहिए. ऐसा न करने पर इस की गुणवत्ता व उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

फूलों का रस चूसने वाली मक्खियां भी इन्हें नुकसान पहुंचाती हैं. मादा भाग को फूल से अलग करने के बाद छांवदार जगह में तब तक सुखाया जाता है, जब तक कि इन में 7 से 8 फीसदी तक नमी हो. केसर का भंडारण वायुरोधक पात्रों में किया जाता है. इसे दो या तीन साल तक भंडारित किया जा सकता है, जिस के बाद स्वाद और संगुध नष्ट हो जाती है.

Agricultural training : पारंपरिक कलाओं के साथ महिलाओं को कृषि प्रशिक्षण

Agricultural training : राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, कृषि विभाग, जयपुर एवं अखिल भारतीय कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय उदयपुर के संयुक्त तत्वावधान में झाड़ोल व फलासिया के 10 स्वयं सहायता समूह की लगभग 150 महिला सदस्यों एवं गुडली व लोयरा की 75 महिला सदस्यों ने गत एक माह में राजस्थान की पारंपरिक कला के साथ कृषि के विभिन्न व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसे मशरूम की खेती, वर्मी कंपोस्ट, बकरी पालन व मुर्गी पालन पर पूर्णतया प्रायोगिक प्रशिक्षण प्राप्त किए.

परियोजना प्रभारी डा. विशाखा बंसल ने बताया कि राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत उन का लक्ष्य साल 2025 से 2027 तक झाड़ोल व फलासिया की 150 महिलाओं को स्वयं सहायता समूह में गठित कर विभिन्न रोजगारों के प्रशिक्षण उपलब्ध करवा कर स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना व स्वयं का रोजगार स्थापित करने में सहायता करना है.

योजना के अंतर्गत अब तक 10 स्वयं सहायता समूहों का गठन कर उन को बैंक से जोड़ दिया गया है और सभी सदस्यों को 5 विधाओं में दो दिवसीय प्राथमिक प्रशिक्षणों के माध्यम से प्रशिक्षित किया जा चुका है.

साल 2026 में इन सभी सदस्यों को स्वरोजगार करने के लिए निरंतर फालोअप प्रशिक्षणों एवं तकनीकी मार्गदर्शन द्वारा प्रेरित किया जाएगा. साथ ही, रोजगार प्रारंभ करने के लिए प्रतापधन किस्म के मुर्गी के चूजों की 20 यूनिट, सिरोही नस्ल के तीन बकरे, मशरूम की 30 यूनिट एवं वर्मी कंपोस्ट की 30 यूनिट प्रोत्साहन स्वरूप दिए जाएंगे. जिस से कि यह महिलाएं सीधे ही स्वरोजगार से जुड़ पाएंगी.

राजस्थान की बांधनी कला के बढ़ते आकर्षण के कारण इस कला का दो दिवसीय प्रायोगिक प्रशिक्षण पिछले दिनों 24 और 25 मार्च, 2025 को अनुसंधान निदेशालय में आयोजित किया गया. यह प्रशिक्षण ख्याति प्राप्त याकूब मोहम्मद मुल्तानी व अंजुम आरा, केंद्रीय सरकार से मान्यता प्राप्त (सीसीआरटी) द्वारा प्रदान किया गया.

प्रशिक्षण में अनुसूचित जनजाति बाहुल्य क्षेत्र झाड़ोल की 30 महिला सदस्यों ने बहुत ही उत्साहपूर्वक भाग लिया. प्रशिक्षण कार्यक्रम में कार्तिक सालवी, प्रमोद कुमार, डा. वंदना जोशी, डा. कुसुम शर्मा व अनुष्का तिवारी का विशेष सहयोग रहा.