Solar Pump : सोलर पंप किसानों का हमदम

Solar Pump : यकीनन सोलर सिंचाई पंप किसानों और खेतों के लिए काफी मददगार साबित होने लगा है. सोलर प्लांट लगाने के लिए सरकारी लेबल पर कई तरह के अनुदान और मदद दी जा रही है. गांवों में बिजली की कमी और जबतब बारिश न होने से किसानों और खेती को हर साल करोड़ों रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है. सिंचाई के बगैर फसलें सूख जाती हैं और किसान सिर पीटते रह जाते हैं. महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि राज्यों में बड़े पैमाने पर सोलर बिजली से खेतों की सिंचाई होने लगी है, पर देश के ज्यादातर राज्यों में अभी भी किसान इस से मुंह फेरे बैठे हैं.

पटना के सोलर प्लांट सामानों के डीलर एसके दास कहते हैं कि आमतौर पर लोग मानते हैं कि सोलर बिजली प्लांट महंगा होता है या इस के लगाने से खास फायदा नहीं होता है, क्योंकि अगर आसमान पर बादल छा गए तो सोलर प्लांट काम नहीं करेगा. बारिश के मौसम में तो यह पूरी तरह से फेल हो जाता है.

मौसम विभाग की मानें तो साल के 365 दिनों में से 225 से 250 दिन अच्छी धूप वाले होते हैं, इस से सोलर बिजली प्लांट के सही तरीके से काम नहीं करने के आसार काफी कम होते हैं. धूप वाले दिनों में सोलर प्लांटों से काफी बिजली पैदा हो सकती है. सोलर प्लांटों की मदद से सोलर पंप आसानी से चलाए जा सकते हैं. धीरेधीरे ही सही पर अब किसानों को सोलर बिजली और सिंचाई पंप की अहमियत समझ में आने लगी है.

2 हार्स पावर का पंप 10 मीटर की गहराई से पानी खींच सकता है. इस से रोजाना डेढ़ लाख लीटर पानी खेतों में पहुंचाया जा सकता है. 4.6 हौर्स पावर का पंप 30 मीटर गहराई से पानी खींच सकता है और यह हर रोज सवा 2 लाख लीटर पानी से खेतों की सिंचाई कर सकता है.

कृषि वैज्ञानिक वेदनारायण सिंह कहते हैं कि गांवों में बिजली की भारी कमी की वजह से किसानों को खेती में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और सिंचाई के लिए भाड़े पर डीजल पंपिंग मशीन लेने से किसानों की खेती की लागत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. किसानों को सोलर पंप मुहैया कराने से उन की खेती की लागत में कमी आएगी.

सोलर प्लांट से जहां पर्यावरण का बचाव होता है, वहीं किसानों की बिजली पर निर्भरता कम होती है. हर साल सूखे की चपेट में आए जिलों को राहत पैकेज दिए जाते हैं. सूबे के जुमई, मुंगेर, शेखपुरा, लखीसराय, बेगूसराय, समस्तीपुर, नवादा, गोपालगंज, मधुबनी और भागलपुर जिलों में हर साल कम बारिश की वजह से सूखे के हालात पैदा होते हैं. सोलर बिजली और पंप से खेती और किसानों की दशा और दिशा में भारी बदलाव आ सकता है.

World Environment Day : केवल एक तारीख नहीं, एक गंभीर चेतावनी

World Environment Day : एक बार फिर 5 जून आ पहुंचा है यानी वह दिन जब हम ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के नाम पर बड़ी जोरशोर से एक बार फिर सारी घिसीपिटी औपचारिकताएँ निभाएंगे. कोई बरगद का बोनजाई गमले में लगाएगा, तो कोई नौतपा में पीपल, जामुन ,आम के पौधे लगाएगा. कोई हरेभरे गमले थामे हुए सैल्फी खिंचवाएगा. फेसबुक और इंस्टाग्राम की दीवारें ‘ग्रीन अर्थ, क्लीन अर्थ’ जैसे नारों से पट जाएंगी. अधिकारीगण भाषण देंगे, कुछ भाषण सुनने की रस्म निभाएंगे और अगले दिन सब अपनेअपने निर्धारित एजेंडे पर लौट जाएंगे यानी पर्यावरण विनाश की एकसूत्रीय योजना में दोबारा सक्रिय हो जाएंगे.

दरअसल, हम ने कभी पर्यावरण की चिंता की ही नहीं. हमारा विकास मौडल ही ऐसा है, जिस में प्रकृति के लिए कोई स्थान ही नहीं. विज्ञान से हम ने क्या सीखा? यही कि हर प्रगति अब प्रकृति पर एक और प्रहार है. हमने विज्ञान को विकास का औजार तो बना लिया, पर विवेक को कूड़ेदान में डाल दिया. परिणाम यह कि विकास और पर्यावरण अब एक वाक्य में दो तलवारों की तरह हो गए हैं, जो एक म्यान में साथ रह ही नहीं सकते.

आज जलवायु परिवर्तन केवल एक वैश्विक बहस नहीं, हमारे फेफड़ों में घुला जहर बन चुका है. कहीं तापमान 50 डिगरी पार कर गया है, तो कहीं जून में बर्फबारी हो रही है. लगता है, पृथ्वी अपने संतुलन को खो चुकी है—कभी आग बरसाती गरमी, तो कभी ‘आइस एज’ की आहट. भारत में इस वर्ष मई में राजस्थान के फालौदी में तापमान 50.5 डिगरी सेल्सियस दर्ज किया गया, जो भारत में अब तक का सर्वाधिक तापमान बन गया। इसी वर्ष दिल्ली में 29 मई का तापमान 49.9 डिगरी सेल्सियस रहा.

अब पर्यावरण संरक्षण के नाम पर हम बड़े गर्व से इलैक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा दे रहे हैं. उस बैटरी के निर्माण और निष्पादन की प्रक्रिया कितनी विषैली है, यह सोचा है? केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के अनुसार भारत में 2022-23 में लगभग 70,000 टन लिथियम-आयन बैटरियां आयात हुईं, जिन में से 95 फीसदी का कोई पर्यावरण सुरक्षित रीसाइक्लिंग सिस्टम नहीं है. उन की रीसाइक्लिंग की प्रक्रिया या तो अस्तित्व में नहीं है या बेहद सीमित है.

दूसरा सवाल, वह बिजली कहां से आ रही है जिस से यह पर्यावरण हितैषी का ठप्पा माथे पर चिपकाए हमारे ये ईवी चार्ज होते हैं? क्या कोयले से बिजली बनाना प्रदूषण मुक्त प्रक्रिया है? भारत की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता में 72 फीसदी से ज्यादा हिस्सा आज भी थर्मल पावर प्लांट्स का है. इन में से अधिकांश कोयले से चलने वाले हैं, जो कार्बन डाइऔक्साइड, सल्फर डाइऔक्साइड और फ्लाई ऐश का प्रमुख स्रोत हैं (स्रोत: CEA – Central Electricity Authority, 2024).

क्या सोलर प्लेट्स को हम 100 फीसदी रीसाइकल कर सकते हैं? फ्रैंच एनवायर्नमैंटल एजेंसी (ADEME) की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्तर पर सोलर पैनल का केवल 10-15 फीसदी ही प्रभावी रूप से रीसाइकल हो रहा है. भारत में यह प्रतिशत और भी कम है.

आज खेतों में करोड़ों टन रासायनिक खाद डाली जा रही है, जिस की गैसें जल, थल, नभ तीनों को बरबाद कर रही हैं. कीटनाशकों से न केवल मिट्टी मर रही है, बल्कि वह धीमा जहर धीरेधीरे हमारे शरीर में पहुंच रहा है. FAO (Food and Agriculture Organization) की रिपोर्ट (2022) के अनुसार, भारत की 30 फीसदी कृषि भूमि मध्यम से ले कर गंभीर रूप से मिट्टी प्रदूषण की शिकार है.

आप ने कभी सुना कि किसी बकरी, किसी शेर, किसी तेंदुए ने किसी वनस्पति या प्राणी प्रजाति को नष्ट कर दिया हो? नहीं. यह कारनामा केवल मनुष्य कर सकता है. वह विकास के नाम पर जंगलों की हत्या करता है, जैवविविधता का संहार करता है और फिर खुद को ‘सभ्य’ कहता है. यूनाइटेड नेशंस बायोडायवर्सिटी रिपोर्ट (2020) के अनुसार, मानव गतिविधियों के कारण प्रतिदिन लगभग 150 प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं.

यही कारण है कि हमें अब विकसित समाज के अहंकार से बाहर निकल कर आदिवासी समाज की ओर देखना होगा. वे, जो हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ सहजीवन में रह कर सिखाते आए हैं कि ‘विकास’ केवल ऊंची इमारतों का नाम नहीं, बल्कि धरती व प्रकृति के साथ संतुलित सहजीवन का नाम है. हम जिन्हें ‘पिछड़ा आदिवासी’ कहते हैं, वे हमें दिखाते हैं कि कैसे बिना प्लास्टिक के, बिना जहर के खेती की जा सकती है. कैसे जल का सम्मान किया जा सकता है, कैसे वनों के साथ जीते हुए भी वनों की रक्षा की जा सकती है. ‘मिश्रित खेती’, बचेखुचे ‘परंपरागत बीज’, ‘वनस्पतिजन्य दुर्लभ औषधियां’—इन सब का ज्ञान इन जनजातियों के पास है, जिन्हें हम ने विकास की दौड़ में छोड़ दिया है.

अंत में… ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ केवल एक तारीख नहीं, एक गंभीर चेतावनी है. यह हमें याद दिलाता है कि अगली पीढ़ी को केवल विरासत में मोबाइल और मैट्रो नहीं, पीने का पानी, सांस लेने की हवा और टिकाऊ जीवन प्रणाली भी चाहिए.

Conference : ‘विकसित कृषि संकल्प अभियान’ के अतंर्गत किसान सम्मेलन

Conference : कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के निर्देशानुसार, 29 मई से 12 जून, 2025 तक देशभर में विकसित कृषि संकल्प अभियान-2025 चल रहा है. इस अभियान का मकसद देश भर के गांवों में अनेक कार्यक्रमों के जरीए कृषि की नवीनतम तकनीकों एवं सरकारी योजनाओं की जानकारी को किसानों तक सीधा पहुंचाना है. साथ ही, आधुनिक तकनीकों से खरीफ फसल प्रबंधन और उत्पादकता वृद्धि के बारे में जागरूकता बढ़ाना है. इस के साथ ही, खेती व किसानों को समृद्ध करने के लिए “लैब टू लैंड” विजन के साथ विज्ञान एवं वैज्ञानिक किसानों के खेत में पहुंच रहे हैं.

इस अभियान के अंतर्गत कृषि विज्ञान केंद्र, दिल्ली, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली एवं कृषि इकाई, विकास विभाग, दिल्ली सरकार भी दिल्ली देहात में 29 मई से 12 जून, 2025 तक विशेष अभियान का आयोजन कर रही है.

दिल्ली क्षेत्र में विकसित कृषि संकल्प अभियान

इस कड़ी में, 02 जून, 2025 को कृषि विज्ञान केंद्र, दिल्ली भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली एवं कृषि इकाई, विकास विभाग, दिल्ली सरकार ने नजफगढ ब्लौक के जाफरपुर कलां, सुरेरहा एवं खेरा डाबर गांव में किसान सम्मेलन का आयोजन किया, जिस में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली के प्रधान वैज्ञानिक डा. हर्षवर्धन ने दिल्ली के आसपास क्षेत्र के लिए सब्जियों की विभिन्न प्रजातियां, जो दिल्ली क्षेत्र में अच्छा उत्पादन दे सके, साथ ही साथ पोषण से संबंधित जितनी भी तकनीकियां है जैसे किचन गार्डन की स्थापना करना और उस में लगने वाले मौसम के अनुसार सब्जियां और मानव पोषण के लिए संतुलित आहार आदि के साथ संरक्षित खेती की विस्तृत जानकारी दी.

डा. रामस्वरूप बाना, प्रधान वैज्ञानिक ने जल संरक्षण की तकनीकियों पर विशेष ध्यान देते हुए जानकारी साझा की. साथ ही, उन्होंने बताया कि जिन क्षेत्रों में पानी की कमी है उन क्षेत्र में किसान अपने खेत में एक छोटा सा तालाब बना कर बारिश के पानी को संरक्षित कर उस का सही इस्तेमाल कर सकते हैं.

इस के अलावा उन्होंने मल्चिंग, ड्रिप सिंचाई पद्धति, कम समय में अधिक आय के साथसाथ बाजरा एवं दलहनी फसलों के बारे में विस्तार से जानकारी दी. इसी क्रम में डा. इंदु चोपड़ा ने फसल उत्पादन के लिए मिट्टी एवं पानी एवं उर्वरकों के प्रबंधन एवं महत्व को समझाया और उन्होंने यह भी बताया कि हर फसल लेने के बाद मिट्टी और पानी की जांच करें और उस के अनुसार ही मिट्टी के पोषण के लिए खाद का प्रबंध करें.

डा. हेमलता ने संरक्षित खेती पर विशेष जोर दिया और उन्होंने बताया कि छोटे से छोटे जगह में भी आप हाईटेक नर्सरी बना कर अच्छा उत्पादन कर सकते और युवा किसान इस में अच्छी आय प्राप्त सकते हैं.

इसी क्रम में कृषि विज्ञान केंद्र, दिल्ली के वैज्ञानिकों ने आगामी खरीफ फसलों से जुड़ी आधुनिक तकनीकों की जानकारी के साथ मृदा स्वास्थ्य कार्ड के अनुसार विभिन्न फसलों के चयन और संतुलित खादों के प्रयोग, पशुओं का रखरखाव, बागबानी एवं फलों की खेती मृदा स्वास्थ्य कार्ड, धान की सीधी बोआई, हरि खाद का प्रयोग, पशुपालन के लिए आहार एवं रोग प्रबंधन आदि की विस्तृत जानकारी दी.

इस अभियान के तहत कृषि इकाई, दिल्ली सरकार के अधिकारियों ने दिल्ली में संचालित हो रही प्राकृतिक खेती, प्राकृतिक खेती के घटक, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की विस्तृत जानकारी किसानों के साथ साझा की. कार्यक्रम के शुरुआत में डा. डीके राणा, अध्यक्ष, कृषि विज्ञान केंद्र, दिल्ली ने बताया कि तकनीकों एवं अनुसंधान को किसानों के खेत में ले जाने में यह अभियान महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जिस में दिल्ली के किसान उत्साहित हो कर भागीदारी कर रहे हैं.

Brinjal: अब बैगन खाने से नहीं होगी एलर्जी

Vegetables : बैगन (Brinjal) एक ऐसी भारतीय सब्जी जो हमेशा अपने लाजवाब स्वाद के लिए जानी जाती है. किसी को बैगन (Brinjal) का भरता पसंद है, तो किसी को भरवां बैगन (Brinjal) पसंद है.खास कर बिहार में तो बैगन (Brinjal) की खासी मांग है, क्योंकि वहां का एक खास व्यंजन है, लिट्टी चोखा. जिस का स्वाद बैगन के बिना अधूरा है.

पिछले दोनों बिहार कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की टीम ने 7 साल के शोध के बाद इस नए किस्म के बैगन (Brinjal) की खोज की है, जिस का नाम ‘सबौर कृष्णकली’ रखा गया है. बैगन की इस प्रजाति का बड़ा ही सुंदर नाम है. जैसा नाम से ही पता चलता है कि यह कोई बड़ी ही गुणकारी और स्वादिष्ट चीज होगी. जी हां, यहां ऐसी ही है. बैगन (Brinjal) की इस ‘कृष्णकली’ वैरायटी में नुकसान पहुंचाने वाले बीटी के लक्षण नहीं हैं.

इस के अलावा बैगन (Brinjal) को सड़ाने वाली फिमोसिस बीमारी भी इस में कम होती है. इस की खास बात यह है कि बीजों की संख्या कम होने के कारण बैगन (Brinjal) से एलर्जी वाले व्यक्ति भी इस का सेवन कर सकते हैं. हम लोगों की ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा बीज वाले बैगन को अकसर बिजारे बैगन भी कह देते हैं, जिसे लोग कम पसंद करते हैं. लेकिन ये वैरायटी सभी को पसंद आएगी, क्योंकि इस में गुण ही ऐसे हैं.

‘सबौर कृष्णकली’ बैगन न सिर्फ स्वाद और गुणवत्ता में बेहतर है बल्कि, इस की उत्पादकता भी अब तक प्रचलित बैगन की प्रजातियों से काफी अधिक है.

मिलेगी अधिक उपज

अगर इस की खेती वैज्ञानिक तरीके से की जाए तो इस की उत्पादकता 430 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होगी. आमतौर पर सामान्य किस्म के बैगन की उत्पादकता 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर ही होती है. इस किस्म की खासियत यह है कि इस के 170 से 180 ग्राम साइज के फल में बीजों की अधिकतम संख्या 50 से 60 ही होती है. वहीं दूसरी प्रजाति के बैगनों में 200 से 500 की संख्या तक बीज होते हैं.

वैज्ञानिकों के अनुसार बैगन से आमतौर पर कई लोगों को एलर्जी होती है. क्योंकि कुछ लोगों को यह एलर्जी बैगन के बीजों के कारण ही होती है. ऐसे में यह कम बीज वाला बैगन उन के लिए भी उपयुक्त होगा, जिन को बैगन खाने से एलर्जी होती है.

इस की खेती सामान्य बैगन की तरह खरीफ से ठंड के मौसम तक यानी 8 महीने तक की जा सकती है. ‘कृष्णकली बैगन’ स्वाद में मजेदार और अधिक पैदावार देने वाली फसल के साथ ही गुणवत्ता के साथ एक बार लगाने पर लंबे समय तक उपज भी देती है.

Crop Diversification : फसल विविधीकरण खेती से ज्यादा मुनाफा

Crop Diversification : आज कल दिनोदिन खेती के तौरतरीकों में बदलाव आ रहा है. किसान कम समय में अधिक मुनाफा लेना चाहते हैं. फसल विविधीकरण ऐसी ही एक तकनीक है जो कम समय में अधिक मुनाफा दे सकती है. इन दिनों किसान परंपरागत खेती से अलग फसल विविधीकरण खेती की ओर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं. विशेषज्ञों का भी मानना है कि किसान फसल विविधीकरण खेती को अपना कर अपनी आय बढ़ा सकते हैं.

अब फसल विविधीकरण के फायदों को देखते हुए सरकार भी 2 हेक्टेयर या उस से कम जमीन वाले छोटे किसानों को इसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है. ताकि, कम रकबे वाले किसान भी कम जमीन में ही अलगअलग फसल लगा कर अधिक पैदावार ले कर अपनी आमदनी बढ़ा सकें.

क्या है फसल विविधीकरण?

फसल विविधीकरण खेती की एक ऐसी तकनीक है, जिस में विभिन्न तरह की फसल अथवा एक ही फसल की अनेक किस्में लगा कर खेती की जाती है. इस पद्धति में किसान कुछ अंतराल के बाद एक फसल को किसी अन्य फसल से बदल कर फसल विविधता के चक्र को बनाए रखने का काम करते हैं. सरल शब्दों में कहा जाए तो खेती की इस खास विधि से किसान एक ही खेत में अलगअलग फसलों की खेती कर सकते हैं.

फसल विविधीकरण से बढ़ेगी आमदनी

एक ही खेत में एक साथ कई फसलों को बोने से पानी, श्रम और पैसों की बचत तो होती ही है. साथ ही, एक ही खेत में कम जगह में ही अलगअलग फसलों से अच्छी पैदावार भी मिल जाती है.

फसल विविधीकरण से बढ़ती है मिट्टी की उर्वरता क्षमता

फसल विविधीकरण तकनीक से खेती करना किसानों के लिए मुनाफे का सौदा है. क्योंकि, यह तकनीक मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में भी कारगर है. एक ही खेत में लगातार हर साल एक ही फसल बोने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है. इसलिए फसल बदलबदल कर खेती करने से मिट्टी के उपजाऊपन में सुधार होता है. ऐसे में मिट्टी की सेहत को सुधारने के लिए फसल विविधीकरण अपना कर कम लागत में अधिक उत्पादन लिया जा सकता है. अगर मिट्टी की सेहत सुधरती है, तो इस से खेत जल्दी बंजर नहीं होंगे और उस भूमि पर लंबे समय तक खेती की जा सकेगी और फसल से पैदावार भी अधिक मिलेगी.

इस के साथ ही, फसल विविधीकरण खेती से पर्यावरण में सुधार के साथ पानी की भी बचत होती है. इसलिए कम जोत वाले किसानों के लिए यह एक मुनाफा देने वाली तकनीक है और किसान कम जगह में भी अच्छा मुनाफा ले सकते हैं.

Crop Management : फसल विविधीकरण खेती में फसल प्रबंधन?

Crop Management: फसल विविधीकरण से खेती करना, परंपरागत खेती करने की अपेक्षा बेहतर कृषि प्रणाली साबित हो रही है. आज बहुत से किसान इस तकनीक को अपना कर अच्छा मुनाफा ले रहे हैं. फसल विविधीकरण खेती में मौसमी सब्जियों की खेती करना ज्यादा मुनाफे का सौदा है.

लेकिन मौसमी सब्जियों की खेती करते समय कई बार फसल में कीट और बीमारी की वजह से फसल खराब भी हो जाती है. जिस से फसल पैदावार पर असर पड़ता है और किसानों को उपज की गुणवत्ता अच्छी नहीं होने पर उस के दाम भी कम मिलते हैं .

कुछ ऐसे तौरतरीके हैं जिन्हें अपना कर किसान अपने नुकसान को कम कर सकते हैं:

– अपने क्षेत्र की जलवायु के अनुसार फसलों का चयन करें.

– फसलों की उन्नत किस्मों का चयन करें और प्रमाणित सैंटर से ही बीज खरीदें.

– समय पर खेत की मिट्टी की जांच कराएं और जांच की गुणवत्ता के आधार पर फसलों का चयन करें.

– फसल विविधीकरण खेती करते समय ये जरूर ध्यान रखें कि एक फसल की समस्या साथ वाले खेत या फसल तक ना पहुंचे. इस के लिए खेती करते समय मेड़ या फेंसिंग के जरीए अलगअलग फसलों के बीच में विभाजन कर सकते हैं. ऐसा करने से एक फसल की समस्या हवा या पानी के जरीए दूसरी फसलों तक नहीं पहुंच पाएगी.

– फसल विविधीकरण विधि से खेती कर अधिक मुनाफा कमाने के लिए किसान कम मूल्य की अपेक्षा अधिक मूल्य वाली फसलों जैसे सब्जियां, फल, फूलों आदि की खेती कर अधिक मुनाफा ले सकते हैं.

इस के तहत किसान अधिक पानी वाली फसलों के स्थान पर कम पानी वाली फसलों की खास किस्मों को लगाएं. इस के अलावा फसल विविधीकरण तकनीक अपनाते समय किसान समयसमय पर कृषि वैज्ञानिकों से सलाह जरूर लेते रहें. जिस से फसल में कोई भी समस्या आने पर उस का समाधान समय रहते किया जा सके.

Agricultural Equipment : कोनो वीडर – निराईगुड़ाई का खास कृषि यंत्र

Agricultural Equment: ipफसल से अधिक उत्पादन लेने के लिए खरपतवारों पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी होता है. अगर समय रहते इन को खत्म नहीं किया गया तो ये मुख्य फसल को उपजने नहीं देते. नतीजा फसल की पैदावार में कमी आती है. खरपतवार रोकथाम के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई बहुत जरूरी है. इस के लिए किसानों को बहुत मेहनत करनी पड़ती है. अगर यही काम कृषि यंत्र से किया जाए तो किसानों को काफी सहूलियत हो जाती है.

इस के लिए कई अच्छे उपकरण आज बाजार में मौजूद हैं. इन्हीं उपकरणों में से एक कोनो वीडर कृषि यंत्र है, जो अत्यंत उपयोगी कृषि मशीन है. यह मशीन खेत में अच्छे से निराईगुड़ाई के साथ कई अन्य कार्यों को भी सरलता से कर लेती है. खास कर छोटे और मंझले किसानों के लिए कोनो वीडर यंत्र काफी अच्छा कृषि यंत्र है. इस यंत्र में दो रोटर, फ्लोट, फ्रेम और हैंडल दिए गए हैं, जिस की मदद से इसे चलाना काफी आसान हो जाता है.

यह कृषि यंत्र निश्चित गहराई तक निराईगुड़ाई का काम करता है. इसे चलाना बहुत ही आसान होता है. इसे महिला हो या पुरुष कोई भी आसानी से चला सकता हैं. क्योंकि, यह मशीन साइकिल की तरह हाथ से चलाई जाती है और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर सरलता से ले जाया जा सकता है. इस कोनो वीडर यंत्र की कीमत आम छोटे किसान की पहुंच में है. इस यंत्र को अनेक कृषि यंत्र निर्माता बना रहे हैं. लोकल स्तर पर भी यह यंत्र बहुत आसानी से मिल जाता है.

कोनो वीडर के फायदे

इस यंत्र के इस्तेमाल से फसलों के बीच में से खरपतवारों को निकालना आसान हो जाता है.

लाइनों में लगाई गई फसलों के लिए यह कृषि यंत्र बहुत ही सरलता से काम करता है. साथ ही, निराईगुड़ाई का काम कम समय में निपट जाता है. किसानों की मजदूरी भी कम लगती है और  कोनो वीडर का उपयोग खेत में करने से फसल की पैदावार भी बढ़ती है. कम कीमत में आने वाला यह कोनो वीडर यंत्र किसानों के लिए बड़े ही काम का कृषि यंत्र है. इस को चलाना आसान, रखरखाव आसान और कम दाम अच्छा काम इस के मुख्य गुण हैं.

Agricultural Work : जून माह के कृषि कार्य

Agricultural Work :  जून महीने में गरमी अपने चरम पर होती है. इस महीने किसानों को अपने खेतों की गहरी जुताई करनी चाहिए. जुताई से खेतों में नुकसान पहुंचाने वाले कीट और रोगाणु ऊपरी सतह पर आ जाते हैं, जो तपती धूप में नष्ट हो जाते हैं. इस से अगली फसल उगाने के लिए खेत संरक्षित हो जाता है और आने वाले समय में फसलों में कीट व रोग होने की संभावना कम हो जाती है.

इन दिनों बरसात का समय होता है. इसलिए जो किसान जल संरक्षण कर सकें तो अच्छा है. किसान द्वारा अधिक बारिश के पानी का संरक्षण कर उस का उपयोग जब पानी की कमी हो तो सिंचाई के लिए किया जा सकता है.

इस माह में खाली खेतों में खरीफ फसलों की बोआई के लिए तैयारी शुरू हो जाती है. जून माह में अधिक बारिश वाले क्षेत्रों के साथ सिंचाई की समुचित व्यवस्था वाले क्षेत्रों में धान की रोपाई के लिए पौध तैयार की जाती है और पौध तैयार होने पर धान की रोपाई भी खेतों में करने का समय होता है.

धान रोपाई के लिए मजदूरों द्वारा या कृषि यंत्र पैडी प्लांटर की सहायता से धान की रोपाई की जाती है. कुछ लोग धान की सीधी बोआई भी करते हैं. सीधी बोआई के लिए अंकुरित धान को ड्रम सीडर यंत्र से बोया जाता है.

बारानी क्षेत्रों में या कम पानी की खेती में ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी, मंडुआ के साथसाथ तिलहनी फसलें जैसे- मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, तिल, कुसुम व अरंडी, रेशेदार फसलें जैसे- कपास एवं जूट के साथसाथ चारा फसलें जैसे- ज्वार, बाजरा, मक्का, लोबिया और ग्वार आदि प्रमुख फसलों की बोआई के लिए प्रबंध किए जाते हैं.

मानसून आने के बाद तैयार पौध की रोपाई जुलाई में की जाती है. धान की नर्सरी एवं सस्य प्रबंधन में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा सुझाई गई उन्नत सस्य क्रियाओं को किसानों द्वारा अपनाना चाहिए. जिस से अधिक व गुणवत्ता से भरपूर उत्पादन मिल सके.

इस महीने में मौसम में होने वाले बदलाव, खास कर मानसून के समय में खरीफ फसलों में होने वाले नुकसान को कम करने के लिए जरुरी संसाधनों जैसे- बीज का प्रबंध आदि कर लेना चाहिए. प्राकृतिक आपदा से फसल खराब होने की स्थिति में फसल बीमा योजना का भी लाभ लिया जा सकता है.

मानसून के मौसम में पशुओं की भी खास देखभाल करनी चाहिए. खास कर दुधारू पशुओं का अधिक ध्यान रखना होता है. इन दिनों हरे चारे की भी कमी नहीं होती.

रबी फसल का काम समाप्त हो चुका होता है. इसलिए जिन किसानों के पास कृषि यंत्र जैसे- थ्रेशर आदि हैं, वो उन्हें साफ कर के सुरक्षित रखने का काम करें.

Animal Health : क्या आप का पशु बीमार है ?

Animal Health : आज के समय पशुपालन बड़े पैमाने पर किया जाता है और अनेक लोग डेयरी फार्मिंग के जरीए अपना रोजगार कर रहे हैं, बल्कि अन्य लोगों को भी रोजगार मुहैया करा रहे हैं. बड़े पैमाने पर पशुपालन करने वाले या डेयरी फार्मिंग से जुड़े लोग ज्यादातर पशु विशेषज्ञ के संपर्क में रह कर ये काम करते हैं परंतु, जो कम दुधारू पशुओं को ले कर अपना काम कर रहे हैं या कुछ नए लोग हैं, जिन्होंने पशुपालन का काम शुरू किया है, उन को कई बार पशुओं के बीमार होने का पता नहीं चलता और जब तक उन को अपने पशु की बीमारी का पता चलता है, तब तक देरी हो चुकी होती है और कई बार उसे अपने पशु से भी हाथ धोना पड़ता है. ऐसे में  पशुपालकों के लिए यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि उन के पशु सुरक्षित और स्वस्थ है या नहीं? कई बार पशुपालकों को पशुओं की बीमारी के बारे में बहुत देर से पता चलता है, जिस से पशुओं में बीमारी इतनी ज्यादा फैल जाती है कि पशुपालकों को नुकसान झेलना पड़ता है. ऐसे में पशुपालकों को अपने पशुओं के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी होनी चाहिए.

कैसे पहचाने कि पशु बीमार है?

आप अपने पशुओं पर नजर रखे अगर आप के पशु की दिनचर्या में उस के रहनसहन में कुछ बदलाव दिखे, आप का पशु ठीक से नहीं चल पा रहा है या चलते वक्त पूरे पैरों का इस्तेमाल नहीं कर रहा है, तो समझ जाइए कि वो स्वस्थ नहीं है. क्योंकि, स्वस्थ पशु पैरों से अच्छी तरह चलते हैं. स्वस्थ पशु की पहचान है कि अकसर वो अपनी जीभ से अपनी नाक को चाटा करते हैं, यह भी ध्यान देने वाली बात है.

इस के साथ ही, यदि आप पशु के पास से गुजरते हैं, जो बैठा हुआ है, लेकिन इस के बाद भी पशु में कोई हलचल नहीं होती वह सुस्त हो, तो समझ जाइए कि पशु को कोई स्वास्थ्य समस्या हो सकती है. पशु सुस्त दिखे तो पशुपालक को अपने पशु के तापमान की जांच करनी चाहिए. कहीं उसे बुखार तो नहीं है.

अगर आप के पशु का स्वास्थ बेहतर होगा, तो उस का खानपान सही रहेगा, और वो चारा भी खाएगा. स्वस्थ पशु को अच्छी भूख लगती है. अगर आप के पशु ने अचानक से कम खाना शुरु कर दिया है तो, ये उस के बीमार होने के लक्षण हैं. इस के साथ ही, पशुओं में इन बातों का भी ख्याल रखें कि पशु की नाक साफ होनी चाहिए. पशुओं का थूथन यानी मुंह सूखा नहीं होना चाहिए.

अगर पशु अच्छे से खाना चबा नहीं रहा या धीरे चबा रहा है, तो भी दिक्कत हो सकती है. इसलिए पशु बीमारी के ये कुछ सामान्य लक्षण हैं. इन्हें नजर अंदाज न करें.

अगर पशुपालक ऊपर दिए गए किसी भी लक्षण को अपने पशुओं में देखता है, तो उसे जल्द ही किसी पशु चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए. समय पर बीमारी का पता चलने पर पशु का इलाज आसान है. जिस से आप अपने पशुधन को बचा सकते हैं.

लोकतंत्र या राजतंत्र : किसान और मजदूर जनता की लाचारी

बस्तर : बस्तर में आए दिन किसी न किसी वीआईपी का दौरा लगा रहता है. एक बार फिर बस्तर में माननीय महामहिम का दौरा हुआ. शहर फिर से ठहर गया. मुख्य सड़कें खाली करवा दी गई. शहर की गलियों को मुख्य सड़क से जोड़ने वाले मुहानों पर शस्त्रधारी सुरक्षाकर्मी पहरे पर मुस्तैद, मजाल है कि कोई भी आम आदमी मुख्य सड़क पर पहुंच पाए. हर कोई अपने घरों में या ज्यादा से ज्यादा अपनेअपने मोहल्ले में कैद, काम धाम सब बंद. राष्ट्रीय राजमार्ग से गुजरने वाले वाहनों, यात्रियों से भरी बसों, ट्रकों की मीलों लंबी कतारें, शहर सीमा के बाहर दोनों ओर अड़ियल बैरिकेड्स के सामने सहमीसहमी सी ठहरी हुई आवाज से लोग एक दुसरे से पूछते हैं, महामहिम आए क्या? सड़क कब तक खुलने वाली है?

फिर कुछ घंटे बीतने के बाद लोग व्याकुल हो कर पूछने लगते हैं, क्या महामहिम अभी भी नहीं गए? बस्तर के लिए यह कोई नई बात नहीं है. अब तो यह बस्तर के लिए मानो ‘साप्ताहिक अनिवार्य कर्फ्यू’ जैसा हो गया है.

कभी राज्यपाल, कभी मुख्यमंत्री, कभी विभिन्न विभागों के मंत्री, प्रभारी मंत्री, अनगिनत बोर्ड्स, आयोगों के चेयरमैन, विभिन्न मंत्रालयों के मुख्यसचिव, संयुक्त सचिव, अवर सचिव वगैरावगैरा. सब के सब आदिवासियों के ‘कल्याण’ का झोला उठाए बस्तर आते हैं और बदले में यहां के जनजीवन को अघोषित कर्फ्यू की बेड़ियों में जकड़ कर लौट जाते हैं और पीछे छूट जाता है, बंद अस्पताल का गेट, रुकी हुई एंबुलेंस, स्कूल को जाती रोती बच्ची और आदिवासी युवक की गिरफ्तारी जो समय पर खेत पर या अपने काम पहुंचना चाहता था, या फिर अपने खेतों में उगाई सब्जियां शहर ला कर बेचने की कोशिश कर रहा था, पर उसे पता नहीं था कि उस के शहर में महामहिम पधारने वाले हैं.

बस्तर इन के लिए बस ‘दर्शनीय’ है, यहां रहने, जीने योग्य नहीं. यहां के बेल मेटल शिल्प, लकड़ी की मूर्तियां, कोसा सिल्क, झरने और भोलेभाले आदिवासी नृत्य इन सब का लुत्फ उठाने महामहिम, वीआईपीज आते हैं. उन्हें ये सब ‘एग्जौटिक’ लगता है. लेकिन यहां रहना, जीना, पढ़ाना, इलाज कराना, काम पाना ये सब उन के एजेंडे में नहीं होते.

अगर हर दौरे के बदले एक स्कूल या अस्पताल खुला होता, या किसानों के खेतों में पानी की व्यवस्था की गई होती, तो आज बस्तर जापान, अमेरिका से प्रतिस्पर्धा कर रहा होता. शहर में इन महामहिमों के आते ही ऐसा लगता है, जैसे नागरिकों का अपहरण कर लिया गया हो. सड़कें सील, रास्ते बंद, छावनी में बदले चौक चौराहे, पुलिस की सख्त घेराबंदी, और ऊपर से आदेश  “कोई मुख्य सड़कों पर दिखाई ना दे”. लगता है, जैसे बस्तर किसी गुप्त सैन्य परीक्षण का केंद्र बन गया है. “लोकतंत्र का वह कौन सा स्वरूप है भाई, जहां महामहिमों, मंत्रियों, वीआईपीज के आते ही संविधान मौन हो जाता है?”

असल में जनता को अपनी स्वतंत्रता त्यागने की आदत हो गई है.पिछले 70 सालों में इतनी बार इन महामहिमों की सवारी हमारे कंधों से गुजरी है कि अब उन कंधों पर छाले हैं, पर मन में सवाल नहीं. हमें अब वीआईपी तानाशाही का आदी बना दिया गया है.

अब जब कोई हाईवे बंद होता है तो दिहाड़ी कमाने निकले मजदूर को वापस खदेड़ दिया जाता है, स्कूल को निकले बच्चों को वापस लौटा दिया जाता है, रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले ठेलेरेहड़ी वालों को सड़कों से धकेल कर गलियों में मानों कैद कर दिया जाता है या किसी मरीज या किसी गर्भवती महिला को अस्पताल पहुंचने से रोका जाता है, तो लोग मन मसोसकर इसे स्वीकार कर लेते हैं. “प्रजा की यह सहनशीलता और उदासीनता ही असली विडंबना है, क्योंकि शोषण का पहला कदम होता है मौन.”

शाही सवारी, लाचार प्रजा : जब करोड़ों की गाड़ियों में दर्जनों हुंकारते वाहनों के काफिले के साथ महामहिम और वीआईपीज बस्तर दर्शन को निकलते हैं, तो उन के साथ स्पीडिंग सायरन, रेंगती गाडियां और सड़कों से गायब कर दी गई जनता होती है.

“जिस राज्य में आंगनबाड़ी की छत टपकती हो, वहां राजभवन, मंत्रियों, हुक्मरानों के वातानुकूलित राजसी ड्राइंग रूम शर्मसार ही करते हैं.”

दर्शनीय आदिवासी : एक लोकतांत्रिक तमाशा : महामहिमों के सामने ‘मौडल आदिवासी’ पेश किए जाते हैं. लंगोटी, बंडी, धोतीकुरता पहने, जबरिया मुस्कराते, नाचतेगाते,गेड़ी पर करतब दिखाते, पसीने से लथपथ जैसे कि उन्हें ‘राष्ट्रीय विरासत’ के रूप में प्रदर्शन के लिए प्रशिक्षित किया गया हो.

“आदिवासी का जीवन नहीं बदला, पर उस का ‘वेलकम डांस’ एचडी क्वालिटी में सोशल मीडिया के लिए रिकौर्ड हो रहे हैं.”

इन वीआईपीज दौरों का सब से बड़ा विडंबनात्मक सत्य यह है कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन के लिए कोई औपचारिक आदेशपत्र नहीं आता, कोई आधिकारिक धारा 144 लागू नहीं होती, कोई आधिकारिक ‘कर्फ्यू’ नहीं होता, पर हाईवे,चौक चौराहों सहित सब लाठी के जोर पर बंद करवा दिया जाता है.

राज्यपाल व चुने गए जन प्रतिनिधि संविधान के संरक्षक माने जाते हैं. जनप्रतिनिधि तो चुनाव के वक्त आप के दरवाजे पर हाथ जोड़ कर खड़े हो कर वोट की भीख मांगते हैं. लेकिन जब उन्हीं के आगमन पर जनता का मौलिक अधिकार बंद कमरे में लौक कर दिया जाए, तो क्या यह ‘राज्य का उत्सव’ है या ‘संविधान की शवयात्रा’? आखिर ये जनप्रतिनिधि आम आदमियों की तरह सड़क से क्यों नहीं गुजर सकते. जनता के सेवक को भला जनता से कैसा भय? प्रजातंत्र में अगर प्रजा मालिक है और जनप्रतिनिधि जनता के सेवक हैं तो सेवक के आगमन पर मालिक यानी आम नागरिक को सड़क से क्यों खदेड़ दिया जाता है. 

अमरीका में 254, भारत में 5,79,000 वीआईपीज : विश्व के सब से बड़े प्रजातंत्र और सब से ज्यादा धनी देश अमेरिका में मात्र 254 वीआईपीज हैं, जबकि हमारे भारत में 5,79,000 से ज्यादा वीआईपीज अर्थात ‘अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्यक्ति’  हैं. यानी कि हमारे यहां अमरीका से 2,300 गुना अधिक वीआईपीज हैं.

विभिन्न देशों में वीआईपीज की संख्या निम्नानुसार :

    1. फ्रांस – 109
    2. जापान – 125
    3. जर्मनी – 142
    4. आस्ट्रेलिया – 205
    5. अमेरिका – 254
    6. रूस – 312
    7. चीन – 435
    8. भारत – 5,79,092

अन्य मामलों में हमारा देश भले अव्वल ना हो पर वीआईपीज के मामले में हम निश्चित रूप से नंबर वन हैं. कुल दुनिया भर के सभी देशों में मिल कर जितने वीआइपी होंगे उस से ज्यादा तो अकेले हमारे देश में ही भरे पड़े हैं.

भारत जैसे गरीब लोकतांत्रिक देश, जहां आज भी लाखों बच्चे कुपोषण से मरते हैं, किसान आत्महत्या करते हैं, अस्पतालों में बेड नहीं, स्कूलों में शिक्षक नहीं; वहां यह ‘राज्यपाल प्रणाली’ केवल औपनिवेशिक नकल की मानसिक विकृति है. संविधान के ‘संरक्षण’ की जिम्मेदारी जिन के सिर पर है, वे स्वयं संविधान को सब से पहले रौंदते हैं.

अब समय आ गया है कि हम इस अनुपयोगी, अत्यंत खर्चीले, गैर लोकतांत्रिक ढांचे की पुनर्समीक्षा करें. क्योंकि यह न सिर्फ आर्थिक दृष्टि से दायित्वहीन है, बल्कि समाजशास्त्रीय और संवैधानिक दृष्टि से लोकतंत्र का अपमान है.

हमें यह भी तय करना पड़ेगा कि हम प्रजाजनों की तरह व्यवहार करते रहेंगे, या नागरिकों की तरह बोलना भी शुरू करेंगे. देश ने राजशाही अब बहुत देख भी लिया और झेल भी लिया.

अब “न ये बिना ताज के राजा चाहिए, न गरीब जनता के खून पसीने के पैसों से खरीदे गए गए उन के ये अशोभनीय भौंडे राजसी ठाटबाट. जनता को चाहिए, केवल एक उत्तरदायी शासन.”

अंत में राजा का सुख प्रजा के सुख में होना चाहिए, क्योंकि प्रजा का हित ही राजा का असली हित है.

(लेखक डा. राजाराम त्रिपाठी, ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ और राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ ‘आईफा’)