World Environment Day : एक बार फिर 5 जून आ पहुंचा है यानी वह दिन जब हम ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के नाम पर बड़ी जोरशोर से एक बार फिर सारी घिसीपिटी औपचारिकताएँ निभाएंगे. कोई बरगद का बोनजाई गमले में लगाएगा, तो कोई नौतपा में पीपल, जामुन ,आम के पौधे लगाएगा. कोई हरेभरे गमले थामे हुए सैल्फी खिंचवाएगा. फेसबुक और इंस्टाग्राम की दीवारें ‘ग्रीन अर्थ, क्लीन अर्थ’ जैसे नारों से पट जाएंगी. अधिकारीगण भाषण देंगे, कुछ भाषण सुनने की रस्म निभाएंगे और अगले दिन सब अपनेअपने निर्धारित एजेंडे पर लौट जाएंगे यानी पर्यावरण विनाश की एकसूत्रीय योजना में दोबारा सक्रिय हो जाएंगे.
दरअसल, हम ने कभी पर्यावरण की चिंता की ही नहीं. हमारा विकास मौडल ही ऐसा है, जिस में प्रकृति के लिए कोई स्थान ही नहीं. विज्ञान से हम ने क्या सीखा? यही कि हर प्रगति अब प्रकृति पर एक और प्रहार है. हमने विज्ञान को विकास का औजार तो बना लिया, पर विवेक को कूड़ेदान में डाल दिया. परिणाम यह कि विकास और पर्यावरण अब एक वाक्य में दो तलवारों की तरह हो गए हैं, जो एक म्यान में साथ रह ही नहीं सकते.
आज जलवायु परिवर्तन केवल एक वैश्विक बहस नहीं, हमारे फेफड़ों में घुला जहर बन चुका है. कहीं तापमान 50 डिगरी पार कर गया है, तो कहीं जून में बर्फबारी हो रही है. लगता है, पृथ्वी अपने संतुलन को खो चुकी है—कभी आग बरसाती गरमी, तो कभी ‘आइस एज’ की आहट. भारत में इस वर्ष मई में राजस्थान के फालौदी में तापमान 50.5 डिगरी सेल्सियस दर्ज किया गया, जो भारत में अब तक का सर्वाधिक तापमान बन गया। इसी वर्ष दिल्ली में 29 मई का तापमान 49.9 डिगरी सेल्सियस रहा.
अब पर्यावरण संरक्षण के नाम पर हम बड़े गर्व से इलैक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा दे रहे हैं. उस बैटरी के निर्माण और निष्पादन की प्रक्रिया कितनी विषैली है, यह सोचा है? केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के अनुसार भारत में 2022-23 में लगभग 70,000 टन लिथियम-आयन बैटरियां आयात हुईं, जिन में से 95 फीसदी का कोई पर्यावरण सुरक्षित रीसाइक्लिंग सिस्टम नहीं है. उन की रीसाइक्लिंग की प्रक्रिया या तो अस्तित्व में नहीं है या बेहद सीमित है.
दूसरा सवाल, वह बिजली कहां से आ रही है जिस से यह पर्यावरण हितैषी का ठप्पा माथे पर चिपकाए हमारे ये ईवी चार्ज होते हैं? क्या कोयले से बिजली बनाना प्रदूषण मुक्त प्रक्रिया है? भारत की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता में 72 फीसदी से ज्यादा हिस्सा आज भी थर्मल पावर प्लांट्स का है. इन में से अधिकांश कोयले से चलने वाले हैं, जो कार्बन डाइऔक्साइड, सल्फर डाइऔक्साइड और फ्लाई ऐश का प्रमुख स्रोत हैं (स्रोत: CEA – Central Electricity Authority, 2024).
क्या सोलर प्लेट्स को हम 100 फीसदी रीसाइकल कर सकते हैं? फ्रैंच एनवायर्नमैंटल एजेंसी (ADEME) की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्तर पर सोलर पैनल का केवल 10-15 फीसदी ही प्रभावी रूप से रीसाइकल हो रहा है. भारत में यह प्रतिशत और भी कम है.
आज खेतों में करोड़ों टन रासायनिक खाद डाली जा रही है, जिस की गैसें जल, थल, नभ तीनों को बरबाद कर रही हैं. कीटनाशकों से न केवल मिट्टी मर रही है, बल्कि वह धीमा जहर धीरेधीरे हमारे शरीर में पहुंच रहा है. FAO (Food and Agriculture Organization) की रिपोर्ट (2022) के अनुसार, भारत की 30 फीसदी कृषि भूमि मध्यम से ले कर गंभीर रूप से मिट्टी प्रदूषण की शिकार है.
आप ने कभी सुना कि किसी बकरी, किसी शेर, किसी तेंदुए ने किसी वनस्पति या प्राणी प्रजाति को नष्ट कर दिया हो? नहीं. यह कारनामा केवल मनुष्य कर सकता है. वह विकास के नाम पर जंगलों की हत्या करता है, जैवविविधता का संहार करता है और फिर खुद को ‘सभ्य’ कहता है. यूनाइटेड नेशंस बायोडायवर्सिटी रिपोर्ट (2020) के अनुसार, मानव गतिविधियों के कारण प्रतिदिन लगभग 150 प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं.
यही कारण है कि हमें अब विकसित समाज के अहंकार से बाहर निकल कर आदिवासी समाज की ओर देखना होगा. वे, जो हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ सहजीवन में रह कर सिखाते आए हैं कि ‘विकास’ केवल ऊंची इमारतों का नाम नहीं, बल्कि धरती व प्रकृति के साथ संतुलित सहजीवन का नाम है. हम जिन्हें ‘पिछड़ा आदिवासी’ कहते हैं, वे हमें दिखाते हैं कि कैसे बिना प्लास्टिक के, बिना जहर के खेती की जा सकती है. कैसे जल का सम्मान किया जा सकता है, कैसे वनों के साथ जीते हुए भी वनों की रक्षा की जा सकती है. ‘मिश्रित खेती’, बचेखुचे ‘परंपरागत बीज’, ‘वनस्पतिजन्य दुर्लभ औषधियां’—इन सब का ज्ञान इन जनजातियों के पास है, जिन्हें हम ने विकास की दौड़ में छोड़ दिया है.
अंत में… ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ केवल एक तारीख नहीं, एक गंभीर चेतावनी है. यह हमें याद दिलाता है कि अगली पीढ़ी को केवल विरासत में मोबाइल और मैट्रो नहीं, पीने का पानी, सांस लेने की हवा और टिकाऊ जीवन प्रणाली भी चाहिए.