दुधारू पशुओं की प्रमुख बीमारियां और उन का उपचार

दुधारू पशुओं में अनेक कारणों से बहुत सी बीमारियां होती हैं. सूक्ष्म विषाणु, जीवाणु, फफूंदी, अंत: व बाह्य परजीवी, प्रोटोजोआ, कुपोषण और शरीर के अंदर की चयापचय (मैटाबोलिज्म) क्रिया में विकार आदि. इन बीमारियों में बहुत सी जानलेवा हैं और कई बीमारियां तो पशु के दूध देने की क्षमता पर बुरा असर डालती “हैं.

कुछ बीमारियां तो एक पशु से दूसरे पशु को लग जाती हैं, इसलिए सावधान रहने की जरूरत है जैसे मुंहपका व खुरपका की बीमारी, गलघोंटू आदि को ‘छूतदार बीमारी’ कहते हैं.

यहां तक कि कुछ बीमारियां पशुओं से इनसानों में भी आ जाती हैं जैसे रेबीज, क्षय यानी टीबी की बीमारी. इन्हें ‘जुनोटिक बीमारी’ कहते हैं.

ऐसे में पशुपालकों को इन प्रमुख बीमारियों के बारे में जानना बेहद जरूरी है, ताकि उचित समय पर सही कदम उठा कर अपना माली नुकसान होने से बचा जा सके और इनसान की सेहत को ठीक बनाए रखने में भी सहयोग कर सके.

विषाणुजनित बीमारी खुरपका व मुंहपका

यह सूक्ष्म विषाणु यानी वायरस से पैदा होने वाली बीमारी को विभिन्न जगहों पर विभिन्न स्थानीय नामों से जाना जाता है, जैसे खरेडू, मुंहपका, खुरपका, चपका, खुरपा वगैरह. यह बहुत तेजी से फैलने वाली ‘छूतदार बीमारी’ है, जो कि गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंट, सूअर आदि पशुओं में होती है.

विदेशी और संकर नस्ल की गायों में यह बीमारी अधिक गंभीर रूप से पाई जाती है. हमारे देश में यह बीमारी हर जगह होती है. इस बीमारी से ग्रसित पशु ठीक हो कर बहुत ही कमजोर हो जाते हैं. इस वजह से दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत ही कम हो जाता है. यहां तक कि बैल भी काफी समय तक काम करने योग्य नहीं रहते. पशु शरीर पर बालों का कवर खुरदरा और खुर कुरूप हो जाते हैं.

वजह

मुंहपका व खुरपका बीमारी एक अत्यंत सूक्ष्ण विषाणु, जिस के अनेक प्रकार और उपप्रकार हैं, से होती है. इन की प्रमुख किस्मों में ओ, ए, सी, एशिया-1, एशिया-2, एशिया-3, सैट-1, सैट-3 और इन की 14 उपकिस्में शामिल हैं.

हमारे देश में यह बीमारी मुख्यत: ओ, ए, सी और एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होती है. नम वातावरण, पशु की अंदरूनी कमजोरी, पशुओं और लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आनाजाना और नजदीकी क्षेत्र में बीमारी का प्रकोप ही इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक हैं.

संक्रमण से फैलती है बीमारी

यह बीमारी बीमार पशु के सीधे संपर्क में आने, पानी, घास, दाना, बरतन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा से और लोगों के आनेजाने से फैलती है.

इस के विषाणु बीमार पशु की लार, मुंह, खुर व थनों में पड़े फफोलों में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं. ये खुले में घास, चारा व फर्श पर 4 महीनों तक जीवित रह सकते हैं, लेकिन गरमी के मौसम में ये बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं.

ये विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों व घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के खून में पहुंचते हैं और तकरीबन 5 दिनों के अंदर उस में बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं.

लक्षण

इस बीमारी से ग्रसित पशु को 104-106 डिगरी फारेनहाइट तक बुखार हो जाता है. वह खानापीना व जुगाली करना बंद कर देता है. इस वजह से पशुओं का दूध देना कम हो जाता है, मुंह से लार गिरने लगती है और मुंह हिलाने पर चपचप की आवाज आती है. इसी कारण इसे ‘चपका बीमारी’ भी कहते हैं.

बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर, गालों, जीभ, होंठ, तालू व मसूड़ों के अंदर, खुरों के बीच और कभीकभी थनों पर छाले पड़ जाते हैं. ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं, जिस से पशु को बहुत दर्द होने लगता है. मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु खापी नहीं पाता है. इस के चलते वह बहुत कमजोर हो जाता है. खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा कर चलने लगता है. गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है.

नवजात बछड़े व बछिया बिना किसी प्रकार के लक्षण दिखाए मर जाते हैं. कई बार लापरवाही बरतने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं और कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं.

हालांकि व्यस्क पशु में मृत्युदर कम (तकरीबन 10 फीसदी) है, लेकिन इस बीमारी से पशुपालक को माली नुकसान बहुत ज्यादा उठाना पड़ता है. दूध देने वाले पशु बीमारी में कम दूध देते हैं. ठीक हुए पशुओं का शरीर खुरदरा और उन में कभीकभी हांफना शुरू हो जाता है. बैलों में भी भारी काम करने की क्षमता खत्म हो जाती है.

उपचार

इस बीमारी का कोई निश्चित उपचार नहीं है, लेकिन बीमारी की गंभीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है.

बीमार पशु में सैकंडरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं. मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी या पोटाश के पानी से धोते हैं. मुंह में बोरोग्लिसरीन व खुरों में किसी एंटीसैप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है.

बीमारी से बचाव

* बचाव के लिए पशुओं को पौलीवेलेंट वैक्सीन के साल में 2 बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए. बछड़े व बछिया में पहला टीका 1 माह की उम्र में, दूसरा टीका तीसरे माह की उम्र में और तीसरा 6 माह की उम्र में और उस के बाद नियमित सारिणी के अनुसार टीका लगाया जाना चाहिए.

* बीमार होने पर पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए.

* बीमार पशु की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए.

* बीमार पशु के आनेजाने पर रोक लगा देनी चाहिए.

* बीमारी से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए.

* पशुशाला को बहुत ही साफसुथरा रखना चाहिए.

* इस बीमारी से मरे पशु को खुला न छोड़ें और उसे जमीन में गाड़ देना चाहिए.

पशु प्लेग (रिंडरपेस्ट)

यह बीमारी भी एक विषाणु से पैदा होने वाली छूतदार बीमारी है, जो कि जुगाली करने वाले तकरीबन सभी पशुओं को होती है. इन में पशु को दस्त अथवा पेचिश लग जाती है.

यह बीमारी स्वस्थ पशु को बीमार पशु के सीधे संपर्क में आने से फैलती है. इस के अलावा बरतनों और देखभाल करने वाले व्यक्ति द्वारा भी यह बीमारी फैल सकती है.

इस में पशु को तेज बुखार हो जाता है और वह बेचैन हो जाता है. उस की आंखें सुर्ख लाल हो जाती हैं. पशु दूध देना कम कर देता है.

2-3 दिन बाद पशु के मुंह, होंठ, मसूड़े व जीभ के नीचे दाने निकल आते हैं, जो बाद में घाव का रूप ले लेते हैं. पशु के मुंह से लार निकलने लगती है और उसे पतले व बदबूदार दस्त लग जाते हैं, जिन में खून भी आने लगता है.

इस बीमारी में पशु के शरीर में पानी की बेहद कमी हो जाती है. इस वजह से वह बहुत कमजोर हो जाता है. यहां तक कि अगर समय रहते इलाज न मिले, तो पशु की 3-9 दिनों में मौत हो जाती है.

इस बीमारी के प्रकोप से दुनियाभर में लाखों की तादाद में पशु मरते हैं, लेकिन अब विश्वस्तर पर इस बीमारी के उन्मूलन की योजना के तहत भारत सरकार द्वारा लागू की गई रिंडरपेस्ट इरेडिकेशन परियोजना के तहत रोग निरोधक टीकों के लगातार प्रयोग से यह बीमारी प्रदेश और देश में तकरीबन खत्म सी हो चुकी है.

दुधारू पशु (dairy animal)पशुओं में पागलपन (रेबीज)

इस बीमारी को पैदा करने वाले सूक्ष्म विषाणु कुत्ते, बिल्ली, बंदर, गीदड़, लोमड़ी या नेवले के काटने से स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश करते हैं और नाडि़यों के द्वारा दिमाग में पहुंच कर उस में बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं.

बीमारी से ग्रसित पशु की लार में यह विषाणु बहुतायत में होते हैं. बीमार पशु द्वारा दूसरे पशु को काट लेने अथवा शरीर में पहले से मौजूद किसी घाव के ऊपर रोगी की लार लग जाने से यह बीमारी फैल सकती है.

यह बीमारी रोगग्रस्त पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है, इसलिए इस बीमारी के प्रति सावधान रहने की जरूरत है. एक बार पशु अथवा मनुष्य में इस बीमारी के लक्षण पैदा होने के बाद उस का फिर कोई इलाज नहीं है और उस की मृत्यु निश्चित है.

विषाणु के शरीर में घाव आदि के माध्यम से प्रवेश करने के बाद 10 दिन से 210 दिनों तक की अवधि में यह बीमारी हो सकती है. मस्तिष्क के जितना अधिक नजदीक घाव होता है, उतनी ही जल्दी बीमारी के लक्षण पशु में पैदा हो जाते हैं. जैसे सिर अथवा चेहरे पर काटे गए पशु में एक हफ्ते के बाद यह बीमारी पैदा हो सकती है.

लक्षण

रेबीज आमतौर पर 2 रूपों में देखी जाती है. पहला, जिस में बीमारी से ग्रसित पशु काफी भयानक हो जाता है और दूसरा, जिस में वह बिलकुल शांत रहता है. पहले अथवा उग्र रूप में पशु में बीमारी के सभी लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं, लेकिन शांत रूप में बीमारी के लक्षण बहुत कम अथवा नहीं के बराबर होते हैं.

कुत्तों में इस बीमारी की शुरुआती अवस्था में व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है और उस की आंखें अधिक तेज नजर आती हैं. कभीकभी शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है. 2-3 दिन के बाद उस की बेचैनी बढ़ जाती है और उस में बहुत ज्यादा चिड़चिड़ापन आ जाता है. वह काल्पनिक वस्तुओं की ओर अथवा बिना किसी प्रयोजन के इधरउधर काफी तेजी से दौड़ने लगता है और रास्ते में जो भी मिलता है, उसे काट लेता है.

अंतिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाने के कारण उस की आवाज बदल जाती है, शरीर में कंपकंपी, चाल में लड़खड़ाहट आ जाती है और वह लकवाग्रस्त हो कर अचेतन अवस्था में पड़ा रहता है. इसी अवस्था में उस की मौत हो जाती है.

गाय व भैंसों में इस बीमारी के गंभीर लक्षण दिखते हैं. पशु काफी उत्तेजित अवस्था में दिखता है और वह बहुत तेजी से भागने की कोशिश करता है. वह जोरजोर से रंभाने लगता है और बीचबीच में जम्हाइयां लेता हुआ दिखाई देता है. वह अपने सिर को किसी पेड़ अथवा दीवार के साथ टकराता है. कई पशुओं में पागलपन के लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं. बीमारी से ग्रसित पशु दुर्बल हो जाता है और उस की मौत हो जाती है.

मनुष्य में इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में उत्तेजित होना, पानी अथवा कोई खाने की चीज को निगलने में काफी तकलीफ महसूस करना और आखिर में लकवा होना आदि है.

उपचार व रोकथाम

एक बार लक्षण पैदा हो जाने के बाद इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है. जैसे ही किसी स्वस्थ पशु को इस बीमारी से ग्रसित पशु काट लेता है, उसे तुरंत नजदीकी पशु चिकित्सालय में ले जा कर इस बीमारी से बचाव का टीका लगवाएं. इस काम में लापरवाही बिलकुल नहीं बरतनी चाहिए, क्योंकि ये टीके तब तक ही प्रभावकारी हो सकते हैं, जब तक कि पशु में बीमारी के लक्षण पैदा नहीं होते.

पालतू कुत्तों को इस बीमारी से बचाने के लिए नियमित रूप से टीके लगवाने चाहिए. साथ ही, आवारा कुत्तों को समाप्त कर देना चाहिए. पालतू कुत्तों का पंजीकरण स्थानीय संस्थाओं द्वारा करवाना चाहिए और उन के नियमित टीकाकरण की जिम्मेदारी पशु मालिक को निभानी चाहिए.

जीवाणुजनित बीमारी गलघोंटू

गायभैंसों में होने वाली एक बहुत ही घातक और छूतदार बीमारी है, जो कि अधिकतर बरसात के मौसम में होती है. यह गायों की अपेक्षा भैंसों में अधिक पाई जाती है.

यह बीमारी तेजी से फैल कर बड़ी तादाद मे पशुओं को अपनी चपेट में ले कर उन की मौत का कारण बन जाती है. इस से पशुपालकों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है.

इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में तेज बुखार, गले में सूजन, सांस लेने में तकलीफ,  सांस लेते समय तेज आवाज होना आदि शामिल हैं. कई बार बिना किसी स्पष्ट लक्षणों के ही पशु की अचानक मौत हो जाती है.

उपचार व रोकथाम

इस बीमारी से ग्रसित हुए पशु को तुरंत ही पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए, अन्यथा पशु की मौत हो जाती है. सही समय पर उपचार दिए जाने पर इस बीमारी से ग्रसित पशु को बचाया जा सकता है.

इस बीमारी की रोकथाम करने के लिए रोगनिरोधक टीके लगाए जाते हैं. पहला टीका 3 माह की उम्र में, दूसरा टीका 9 माह की उम्र में और इस के बाद हर साल यह टीका लगाया जाता है. ये टीके पशु चिकित्सा संस्थानों में मुफ्त में लगाए जाते हैं.

लंगड़ा बुखार

जीवाणुओं से फैलने वाली यह बीमारी गायभैंसों दोनों को होती है, लेकिन गायों में यह बीमारी अधिक देखी जाती है. इस से अच्छे व स्वस्थ पशु ही ज्यादातर प्रभावित होते हैं.

इस बीमारी में पिछली अथवा अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है, जिस से पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है. पशु को तेज बुखार हो जाता है और सूजन वाली जगह को दबाने पर कड़कड़ की आवाज आती है.

उपचार व रोकथाम

बीमारी से ग्रसित पशु के उपचार के लिए तुरंत नजदीकी पशु चिकित्सालय में संपर्क करना चाहिए, ताकि पशु को शीघ्र उचित उपचार मिल सके. देर करने से पशु का बचना लगभग असंभव हो जाता है, क्योंकि जीवाणुओं द्वारा पैदा हुआ जहर शरीर में पूरी तरह से फैल जाता है और पशु मर जाता है.

उपचार के लिए पशु को ऊंची डोज में प्रोकेन पेनिसिलीन के टीके लगाए जाते हैं और सूजन वाली जगह पर भी इसी दवा को सूई द्वारा मांस में डाला जाता है.

इस बीमारी से बचाव के लिए पशु चिकित्सक संस्थाओं में रोग निरोधक टीके मुफ्त में लगाए जाते हैं, इसलिए पशुपालकों को इस सुविधा का अवश्य लाभ उठाना चाहिए.

दुधारू पशु (dairy animal)

पशुओं का छूतदार गर्भपात

जीवाणुजनित इस बीमारी में गायभैंसों में गर्भावस्था के अंतिम 3 माह में गर्भपात हो जाता है. यह बीमारी पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है. मनुष्यों में यह उतारचढ़ाव वाला बुखार ‘एजोलेंट फीवर’ नामक बीमारी पैदा करता है.

पशुओं में गर्भपात से पहले अंग से अपारदर्शी पदार्थ निकलता है और गर्भपात के बाद पशु की जेर रुक जाती है. इस के अलावा यह जोड़ों में सूजन यानी अर्थराइटिस पैदा कर सकता है.

उपचार व रोकथाम

अब तक इस बीमारी का कोई प्रभावी इलाज नहीं है. अगर इलाके में इस बीमारी के 5 फीसदी से अधिक पौजीटिव केस हों, तो बीमारी की रोकथाम करने के लिए बछियों में 3-6 माह की उम्र में ब्रूसेल्ला एबोर्ट्स स्ट्रेन-19 के टीके लगाए जा सकते हैं. पशुओं में प्रजनन की कृत्रिम गर्भाधान पद्धति अपना कर भी इस बीमारी से बचा जा सकता है.

पशुओं के पेशाब में खून आना

यह बीमारी पशुओं में एक कोशिकीय जीव, जिसे प्रोटोजोआ कहते हैं, से होती है. बबेसिया प्रजाति के प्रोटोजोआ पशुओं के रक्त में चिचडि़यों के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं और वे रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं में जा कर अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं, जिस के फलस्वरूप लाल रक्त कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं.

लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन पेशाब के द्वारा शरीर से बाहर निकलने लगता है, जिस से पेशाब का रंग कौफी के रंग जैसा हो जाता है. कभीकभी उसे खून वाले दस्त भी लग जाते हैं. इस में पशु खून की कमी हो जाने से बहुत कमजोर हो जाता है. पशु में पीलिया के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं और समय पर इलाज न कराया जाए, तो पशु की मौत हो जाती है.

उपचार व रोकथाम

यदि समय पर पशु का इलाज कराया जाए, तो पशु को इस बीमारी से बचाया जा सकता है. इस में बिरेनिल के टीके पशु के भार के अनुसार मांस में दिए जाते हैं और खून बढ़ाने वाली दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है.

इस बीमारी से पशुओं को बचाने के लिए उन्हें चिचडि़यों के प्रकोप से बचाना जरूरी है, क्योंकि यह बीमारी चिचडि़यों के द्वारा ही पशुओं में फैलती है.

पशुओं के शरीर पर जुएं,चिचड़ी व पिस्सू का प्रकोप

पशुओं के शरीर पर बाह्म परजीवी जैसे कि जुएं, पिस्सू या चिचड़ी आदि का प्रकोप होने पर वे पशुओं का खून चूसते हैं, जिस से पशु में खून की कमी हो जाती है और वे कमजोर हो जाते हैं. साथ ही, इन पशुओं की दूध देने की क्षमता भी घट जाती है और वे दूसरी बहुत सी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.

बहुत से परजीवी जैसे कि चिचडि़यों आदि पशुओं में कुछ अन्य बीमारी भी कर देते हैं. पशुओं में बाह्म परजीवी के प्रकोप को रोकने के लिए अनेक दवाएं हैं, जिन्हें पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार प्रयोग कर इन से बचा जा सकता है.

पशुओं में अंत:परजीवी प्रकोप

पशुओं की पाचन नली में भी अनेक प्रकार के परजीवी पाए जाते हैं, जिन्हें अंत:परजीवी कहते हैं. ये पशु के पेट, आंत, लिवर, उस के खून व खुराक पर निर्वाह करते हैं, जिस से पशु कमजोर हो जाता है और वह दूसरी बहुत सी बीमारियों का शिकार हो जाता है. इस से पशु की उत्पादन क्षमता में भी कमी आ जाती है.

पशुओं को उचित आहार देने के बावजूद अगर वे कमजोर दिखाई दें, तो इस के गोबर के नमूनों का पशु चिकित्सालय में परीक्षण करना चाहिए. परजीवी के अंडे गोबर के नमूनों में देख कर पशु को उचित दवा दी जाती है, जिस से परजीवी नष्ट हो जाते हैं.

कीटरक्षक फसलों (Insect Repellent Crops) को लगाने का तरीका

फसल कीटरक्षक वे फसलें होती हैं, जो खेत में एक खास अवधि के दौरान मुख्य फसल को कीटों से बचाती हैं. इस तकनीक में मुख्य फसल के साथसाथ कोई दूसरी फसल साथ में लगाई जाती है, जो मुख्य फसल में नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं.

इस के लिए हानिकारक कीटों के बारे में जानकारी होनी चाहिए. उस के लिए किस तरह के पौधों को लगाते हैं या उस के बीचबीच में कौन सी दूसरी फसल लगानी चाहिए, यह भी जानकारी होनी चाहिए.

खासकर निमेटोड जैसी बीमारी के लिए यह तकनीक बहुत अच्छी है. फसल को कीटों से बचाने का यह एक प्राकृतिक तरीका है, जिस में किसी भी तरह के कृषि रसायन का इस्तेमाल नहीं होता.

इसी के बारे में कुछ खास जानकारी यहां दी गई है :

* गोभी में हीरकपृष्ठ शलभ की रोकथाम के लिए बोल्ड सरसों को गोभी के प्रत्येक 25 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* कपास की इल्ली/छेदक की रोकथाम के लिए लोबिया को कपास के प्रत्येक 5 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना. कपास की इल्ली/छेदक की रोकथाम के लिए तंबाकू को कपास के प्रत्येक 20 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* टमाटर में फल छेदक/निमेटोड की रोकथाम के लिए अफ्रीकन गेंदे को टमाटर के प्रत्येक 14 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* बैगन में तना छेदक व फल छेदक की रोकथाम के लिए धनिया/मेथी को बैगन के प्रत्येक 2 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना.

* चने में इल्ली की रोकथाम के लिए धनिया/गेंदा को चना के प्रत्येक 4 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना.

* अरहर में चना की इल्ली की रोकथाम के लिए गेंदा को अरहर के चारों तरफ बौर्डर में लगाना.

* मक्का में तना छेदक की रोकथाम के लिए नेपियर/सूडान घास को मक्के के चारों तरफ बौर्डर में लगाना.

* सोयाबीन में तंबाकू की इल्ली की रोकथाम के लिए सूरजमुखी या अरंडी को सोयाबीन के चारों तरफ 1 कतार में लगाना. रक्षक फसलों की सफलता के कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय

* सब से पहले एक फार्म प्लान बनाना चाहिए, जो यह दर्शाए कि कब व कहां कीटरक्षक फसलों को उगाएं.

* फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की पहचान व जानकारी होना बहुत ही जरूरी है.

* कीट रक्षक फसलों के रूप में ऐसी फसलों का चुनाव करें, जो कीटों को अधिक आकर्षित कर के मुख्य फसलों की रक्षा करे. इस के लिए कृषि वैज्ञानिकों से सलाह लेनी चाहिए.

* फसलों की नियमित रूप से देखरेख होनी चाहिए.

* इन फसलों पर अगर कीट अधिक आकर्षित होते हैं एवं इन की संख्या बहुत अधिक हो जाती है या मुख्य फसल में कीट प्रकोप बढ़ने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, तो रक्षक फसलों को समयसमय पर काटछांट करते रहना चाहिए.

* अगर बहुत ही जरूरी हो, तो कीटनाशी/जैविक कीटनाशकों का भी छिड़काव करना चाहिए या इन्हें उखाड़ने या नष्ट करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए, ताकि समय पर रोकथाम की जा सके.

कृषि विविधीकरण (Agricultural diversification): आमदनी का मजबूत जरीया

लगातार बढ़ रही कृषि उत्पादन लागत एवं जलवायु परिवर्तन को देखते हुए किसानों को चाहिए कि वे कृषि में विविधीकरण अपनाएं, जिस से कि वे टिकाऊ खेती, औद्यानिकीकरण, पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, मधुमक्खीपालन, मुरगीपालन सहित अन्य लाभदायी उद्यम को करते हुए अपने परिवार की आय को बढ़ाने के साथसाथ स्वरोजगार भी कर सकें.

कृषि विविधीकरण का उद्देश्य

कृषि विविधीकरण का उद्देश्य कृषि के साथसाथ वे सभी कामों के करने से है, जिन से पर्यावरण सुरक्षित रहे और किसानों को लाभ  हो. हवा, जमीन, जानवर, जंगल, जो कि हमारी प्राकृतिक संपदाएं हैं, उन में गुणवत्ता बनी रहे और किसान इन से लगातार अच्छा उत्पादन लेते रहें. जैसे कि मिट्टी की सेहत को बनाए रखने के लिए मिट्टी जांच की संस्तुतियों के अनुसार जैविक विधियों से ज्यादा से ज्यादा आवश्यक पोषक तत्त्वों का भूमि में प्रयोग करें, जिस से कि मिट्टी में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ सके.

उचित फसल चक्र अपनाएं, कम दिनों की फसलें एवं उन की प्रजातियां उगाएं, आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में बौछारी एवं टपक विधि से फसलों की सिंचाई करें. बाजारोन्मुखी औद्यानिक फसलों एवं पौध को पौलीहाउस या शैडनैटहाउस द्वारा समय की मांग के अनुसार उत्पादन करें. साथ ही, उत्पादन में मूल्य संवर्धन कर के बेच कर अधिक लाभ लें.

वर्तमान समय की मांग को देखते हुए शीतकालीन गन्ने के साथसाथ मसूर, चना, दाल वाली मटर, सब्जी की मटर जैसी दलहनी और तिलहन में पीली सरसों का उत्पादन भी करें.

वसंतकालीन गन्ने में अंत:फसली के रूप में लोबिया, उड़द, मूंग भी ले सकते हैं. गन्ने से गुड़, शीरा, सिरका बना कर बेचने से निश्चित रूप से लाभ होता है.

कृषि विविधीकरण (Agricultural diversification)

प्रत्येक किसान के पास गृहवाटिका अवश्य होनी चाहिए, जिस से मौसम के अनुसार लहसुन, प्याज, धनिया, मेथी, मूली, भिंडी, कद्दू, लौकी, पालक, मिर्च, शिमला मिर्च, अदरक, बैगन, टमाटर, सब्जी मटर इत्यादि पैदा करें. फलस्वरूप, गुणवत्तायुक्त ताजी सब्जियों को खाएं, जिस से उन का स्वास्थ्य अच्छा रहे और पैसे की भी बचत हो. केले में धनिया, मेथी, बरसीम की अंत:फसल ले कर प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.

कृषि से संबंधित अन्य व्यवसाय

शहरीकरण के चलते पशुपालन को बढ़ावा देने की जरूरत है, क्योंकि समय की मांग है कि किसान दूध बेचने के बजाय उस का घी, मक्खन, दही, पनीर, छाछ इत्यादि बना कर बेचें, जिस से कि उन को अधिक लाभ हो व उन्नत नस्ल की भैंस मुर्रा, भदावरी, गाय हरियाणा, साहीवाल, थारपारकर, बकरियों में जमुनापारी एवं बरबरी को पालें.

मछलीपालन के लिए रोहू, कतला, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प और कौमन कार्प का प्रयोग करें. औद्योगिक फसलों में बटन मशरूम का उत्पादन करें, क्योंकि इस का बाजार उपलब्ध है.

आवागमन के अच्छे साधन होने की वजह से गेंदा, गुलाब, जरबेरा, ग्लैडिओलस, रजनीगंधा इत्यादि फूलों की खेती करें एवं इत्र के लिए पामारोजा, लैमनग्रास, गुलाब, खस जैसे सगंधीय पौधों की खेती भी कर सकते हैं.

बैकयार्ड मुरगीपालन भी एक कम लागत का लाभदायी घरेलू उद्यम है. वनराजा, कैरीप्रिया, ग्रामप्रिया, कड़कनाथ की उत्पादन क्षमता अधिक है. इन से तकरीबन 200 अंडे हर साल लिए जा सकते हैं. इन के ब्रायलर 40 दिन पर एक से डेढ़ किलो तक के हो जाते हैं.

मधुमक्खीपालन भी कम लागत का एक अच्छा उद्यम है. 50 बक्सों के साथ यह व्यवसाय शुरू किया जा सकता है, जिस से 5 क्विंटल तक शहद हर साल लिया जा सकता है.

इस के अतिरिक्त बटेरपालन भी एक अच्छा व्यवसाय है. किसान संबंधित विभागों से नियमित संपर्क करते रहें, जिस से कि योजनाओं की समय पर जानकारी ले कर उस का उपयोग कर सकें.

मटर की वैज्ञानिक खेती

मटर की खेती हरी फली, साबुत मटर व दाल के लिए की जाती है. मटर की हरी फलियां सब्जी के लिए और सूखे दानों का इस्तेमाल दाल और दूसरी खाने की चीजों को तैयार करने में किया जाता है. हरी मटर के दानों को सुखा कर या डब्बाबंद कर महफूज रखने के बाद भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

फलियां निकालने के बाद हरे व सूखे पौधों का इस्तेमाल पशुओं के चारे में इस्तेमाल किया जाता है. दलहनी फसल होने के चलते इस की खेती से उर्वराशक्ति बढ़ती है.

सब्जी वाली मटर की खेती हमारे देश के मैदानी इलाकों में सर्दियों में और पहाड़ी इलाकों में गरमियों में की जाती है. मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में बड़े पैमाने पर इस की खेती की जाती है.

खेत की तैयारी : मटर की खेती के लिए खेत में पाटा लगा कर पहले खेत को भुरभुरा व समतल कर लेना चाहिए. इस के बाद राइजोबियम कल्चर   (5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित करने से फायदा होता है.

बोआई का समय : मटर की अच्छी उपज के लिए मध्य अक्तूबर से मध्य नवंबर तक इस की बोआई कर देनी चाहिए. सिंचित अवस्था में 30 नवंबर तक बोआई की जा सकती है.

बोने की विधि : मटर की बोआई अधिकतर हल के पीछे कूंड़ों में की जाती है. अगेती किस्मों को 30 सैंटीमीटर और देर से पकने वाली किस्मों को 45 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में बोना चाहिए और बोआई में ’सीड ड्रिल’ का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सैंटीमीटर और बीज की बोआई 4-5 सैंटीमीटर की गहराई तक करनी चाहिए.

खाद एवं उर्वरक: मिट्टी जांच के आधार पर ही खाद और उर्वरक का इस्तेमाल फायदेमंद रहता है. अगर मिट्टी की जांच नहीं हुई है, तो निम्न मात्रा में खाद व उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए :

गोबर की खाद या कंपोस्ट 10-15 टन प्रति हेक्टेयर खेत की तैयारी के समय दें. नाइट्रोजन 20-25 किलोग्राम दें, क्योंकि फसल दलहनी है, इसलिए इस की जड़ नाइट्रोजन स्थिरीकरण का काम करती है.

फसल को कम नाइट्रोजन देने की जरूरत होती है. फास्फोरस 40-50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और पोटाश 46-50 किलोग्राम बीज बोने के समय कतारों में दी जानी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण : बोने के समय खरपतवार का रासायनिक विधि द्वारा नियंत्रण करना चाहिए. इस के लिए पेंडीमिथेलीन 30 ईसी की 3.3 लिटर मात्रा को 600-800 लिटर पानी में घोल कर बोने के 2 दिन बाद प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

बोआई के 25-30 दिनों बाद निराईगुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथसाथ जड़ों को हवा भी मिल जाती है.

सिंचाई : पहली सिंचाई फूल आते समय करें. अगर बरसात आ जाए तो न करें. दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय करें. सूखे इलाकों में बौछारी सिंचाई बेहतर होती है.

खास रोग व बचाव

चूर्णी आसिता : यह एक बीजजनित रोग है. यह रोग तना, पत्तियों व फलियों को प्रभावित करता है. इस रोग में पत्तियों पर हलके निशान बन जाते हैं, जो सफेद पाउडर (चूर्ण) से पत्तियों को ढक देते हैं और पत्तियां गिर जाती हैं.

इस रोग की उचित रोकथाम के लिए 2.3 किलोग्राम गंधक का चूर्ण 600-800 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

उकठा : यह फफूंद से होने वाला रोग है. इस से पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ जाती हैं और अंत में पूरा पौधा सूख जाता है.

यह रोग गरमी ज्यादा पड़ने पर बढ़ने लगता है. इस की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें.

रस्ट : यह रोग फफूंद द्वारा फैलता है. यह नम जगह पर ज्यादा फैलता है. इस रोग के बचाव के लिए रोगी वाले पौधों को मिट्टी में दबा देना चाहिए. उस के बाद हेक्साकोनाजोल की 1 मिलीलिटर मात्रा को 3 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

एंथ्रेक्नोज : यह भी बीजजनित रोग है. इस रोग के बचाव के लिए रोगरोधी किस्मों को बोएं और बीज को बोने से पहले 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें.

बैक्टीरियल ब्लाइट : यह रोग भी बीजजनित है, जो नमी वाली जगहों पर ज्यादा फैलता है. इस रोग में डंठल के नीचे की पत्तियों व तनों पर पीला धब्बा बन जाता है.

इस के बचाव के लिए रोगरहित बीज का इस्तेमाल करें. फसल प्रभावित होने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन दवा का छिड़काव करें.

कीट पर नियंत्रण

माहू : इस कीड़े का प्रकोप जनवरी माह में ज्यादा होता है. इस के बचाव के लिए मैलाथियान 50 ईसी की 1.5 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में घोल कर 10-10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

लीफ माइनर (पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीट) : यह कीट पौधे की पत्तियों से सफेद धागे की तरह बारीक सुरंग बनाता है. इस के प्रकोप से पत्तियां सूख जाती हैं.

बचाव के लिए सुरंग बनाने वाले कीड़ों से प्रभावित पत्तियों को सूंड़ी सहित तोड़ कर जमीन से कहीं दूर गाड़ देना चाहिए.

फली छेदक : यह कीट फलियों में छेद कर दानों को खाता है. इस के बचाव के लिए थायोडीन नामक दवा की 2 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

तुड़ाई : ज्यादा आमदनी लेने के लिए समय से मटर फसल की तुड़ाई करना जरूरी होता है. फलियां भरी हुईं व मुलायम ही तोड़नी चाहिए. तुड़ाई सुबह या शाम को 10 दिनों अंतर पर 3-4 बार करनी चाहिए.

भंडारण : बीज भंडारण के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए:

* बीज में नमी की मात्रा 9 फीसदी से कम होनी चाहिए, ताकि कीट इतनी कम नमी में प्रजनन नहीं कर पाते.

* नए बीजों को रखने से पहले अच्छी तरह साफ कर के कीटनाशी द्वारा कीटरहित कर लेना चाहिए.

* बीज भंडारण के लिए नए बैग का इस्तेमाल करना चाहिए.

मटर की किस्मों को 2 वर्गों में बांटा गया है, जिस से एक फील्ड मटर व दूसरा गार्डन मटर या सब्जी मटर है.

फील्ड मटर:  इस वर्ग की किस्मों का इस्तेमाल साबुत मटर दाल के अलावा दाने व चारे के लिए किया जाता है. इन किस्मों में रचना स्वर्णरेखा, अपर्णा हंस, जेपी 885, पारस वगैरह खास हैं.

गार्डन मटर:  इस वर्ग की किस्मों को सब्जियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इस की प्रमुख उन्नत किस्में इस प्रकार हैं:

अगेती किस्में (जल्दी तैयार होने वाली) : ये किस्में बोने के तकरीबन 64-65 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं. जैसे आर्केल, अलास्का, लिकोलन, काशी नंदिनी, पंजाब 88, अगेती मटर 3, हरभजन, पंत सब्जी मटर 3.5, पूसा प्रगति, उदय वगैरह.

मध्यम किस्में : ये किस्में बोने के तकरीबन 85-90 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं, जैसे बोनविले, काशी शक्ति, जवाहर मटर 1,4, जवाहर मटर 83, पंत उपहार, विवेक आजाद 1,4 वगैरह.

पछेती किस्में (देर से तैयार होने वाली) : ये किस्में बोने के तकरीबन 100-110 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं. जैसे आजाद मटर, जवाहर मटर 2 वगैरह.

बीज की मात्रा व बीजोपचार : अगेती किस्मों के लिए 100 किलोग्राम और मध्यम पछेती किस्मों के लिए 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है.

बीजों को बोने से पहले कार्बंडाजिम या बाविस्टिन (3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित कर लेना चाहिए, ताकि बीज व मृदाजनित रोगों से बचाव हो सके.

फसल बीमा योजना और नुकसान की भरपाई के लिए क्या है पैमाना

वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा उपज गारंटी योजना के रूप में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों के लिए चलाई जा रही है, जिस के अंतर्गत प्रतिकूल मौसमीय स्थितियों के कारण फसल की बोआई न कर पाने/असफल बोआई, फसल की बोआई से कटाई की अवधि में प्राकृतिक आपदाओं, रोगों व कीटों से फसल नष्ट होने की स्थिति एवं फसल कटाई के बाद खेत में कटी हुई फसलों को बेमौसम/चक्रवाती वर्षा, चक्रवात से फसल नुकसान की स्थिति में फसल पैदा करने वाले किसानों, जिन के द्वारा फसल का बीमा कराया गया है, को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है.

चयनित जनपदों में पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना को लागू किया गया है, जिस में प्रतिकूल मौसमीय स्थितियों कम व अधिक तापमान, कम व अधिक वर्षा आदि से फसल नष्ट होने की संभावना के आधार पर फसल के उत्पादक किसानों, जिन के द्वारा फसल का बीमा कराया गया है, को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता दी जाती है.

प्राकृतिक आपदा से बरबाद फसल की भरपाई के लिए क्या पैमाना है?

अधिसूचित फसलों पर मौसम के अंत में संपादित फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर फसल की क्षति का आकलन किया जाता है और संबंधित किसानों को उपज में कमी के अनुरूप क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है.

योजना के नियमों के अनुरूप क्षतिपूर्ति देय होने पर बीमा कंपनी द्वारा किसानों के बैंक खाते में क्षतिपूर्ति की धनराशि जमा करा दी जाती है, इसलिए क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए किसानों को व्यक्तिगत दावा प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं है.

ग्राम पंचायत में अधिसूचित फसल के अधिकांश किसानों द्वारा फसल की बोआई न कर पाने/असफल बोआई की स्थिति में क्षति का आकलन ग्राम पंचायत स्तर पर करते हुए प्राथमिकता पर क्षतिपूर्ति देय होती है.

crop insurance scheme

योजना में स्थानिक आपदाओं, ओला, भूस्खलन व जलभराव और फसल की कटाई के उपरांत आगामी 14 दिन की अवधि तक फसल नष्ट होने की स्थिति में फसल की क्षति का आकलन व्यक्तिगत बीमित किसान के स्तर पर करते हुए किसानों को प्राथमिकता पर आंशिक क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है, जिस को मौसम के अंत में फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर देय कुल क्षतिपूर्ति की धनराशि में समायोजित किया जाता है.

इसी प्रकार फसल की मध्य अवस्था तक ग्राम पंचायत में फसल की संभावित उपज सामान्य उपज से 50 फीसदी कम होने की स्थिति में भी किसानों को आपदा की स्थिति तक उत्पादन लागत में व्यय के अनुरूप तात्कालिक सहायता प्रदान की जाती है, जिसे मौसम के अंत में फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर देय कुल क्षतिपूर्ति की धनराशि में समायोजित किया जाता है.

पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना में फसल की क्षति का आकलन ब्लौक में स्थापित स्वचालित मौसम केेंद्र स्तर पर मौसम के प्रतिदिन के आंकड़ों के आधार पर किया जाता है.

फसल की बोआई से कटाई के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरणों में फसल की आवश्यकतानुसार निर्धारित मौसमीय स्थितियों एवं मौसम की वास्तविक स्थिति में अंतर के अनुरूप फसल की संभावित क्षति को दृष्टिगत रखते हुए किसानों को क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है.

पशुओं में गर्भाधान

गोवंशीय पशुओं का बारबार गरमी में आना और स्वस्थ व प्रजनन योग्य नर पशु से गर्भाधान या फिर कृत्रिम गर्भाधान सही समय पर कराने पर भी मादा पशु द्वारा गर्भधारण न करने की अवस्था को ‘रिपीट ब्रीडिंग’ कहते हैं.

ऐसे पशुओं का आमतौर पर नियमित मदचक्र 18-22 दिन होता है और अंग से कोई मवाद या गंदा स्राव आदि नहीं आता है, फिर भी पशु को 3 या इस से अधिक बार गर्भाधान कराने पर भी बच्चा नहीं ठहरता है.

पशुओं में ब्रीडिंग की दर 10-20 फीसदी है, जो कि खराब प्रबंधन व कुपोषण की स्थिति में और ज्यादा हो सकती है. अगर भू्रण की मृत्यु पुश के गाभिन होने के 8-16 दिनों के भीतर होती है, तो पशु के मदचक्र पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है, परंतु उस के बाद भ्रूण की मृत्यु होने की दशा में गरमी में आने का अंतराल बढ़ जाता है.

कारण

* निषेचन प्रक्रिया का न होना.

* अंडोत्सर्ग न होना या अंडोत्सर्ग के बिना गरमी में आना.

* अंडोत्सर्ग में देरी.

* अंडवाहिका मार्ग में अवरोध या फिर संक्रमण का होना.

* शुक्राणुओं और अंडाणुओं की बनावट व वंशानुगत/प्राप्त त्रुटियां या उन की अधिक उम्र.

* जननांगों में जन्मजात संरचनात्मक संबंधी त्रुटियां.

* भ्रूण की मृत्यु हो जाना.

* भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में मृत्यु.

* निषेचित अंडों के प्रत्यारोपण या फिर निषेचन में बाधा.

* विभिन्न प्रकार के हार्मोंस में कमी  जैसे प्रोजैस्ट्रोन में कमी व एस्ट्रोजन की अधिकता इत्यादि.

* अत्यधिक वातावरणीय ताप और आर्द्रता होना.

* गर्भाशय में संक्रमण, भू्रूणीय विसंगतियां और विभिन्न जननांगों का संक्रमण.

* प्रतिरक्षा संबंधित बीमारियां.

समाधान

* रिपीट ब्रीडिंग (बारबार गरमी में आना) वाले पशुओं को उचित मात्रा में संतुलित आहार और पर्याप्त हरा चारा यानी चारा मिश्रण अवश्य दें.

* विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं और विषाणुजनित बीमारियों के विरुद्ध टीकाकरण और परजीवी रोगों की रोकथाम के लिए प्रबंधन करना चाहिए.

* उचित आवास व्यवस्था का प्रबंध और नियमित साफसफाई रखनी चाहिए.

* स्वच्छ व पारदर्शी योनि स्राव होने पर गर्भाधान कराना चाहिए.

* पशु को सही समय से गाभिन करवाने की सफलता की दर अधिकतम रहती है.

* ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर पशु शाम को गरमी में आए, तो अगले दिन सुबह और यदि गरमी के लक्षण सुबह दिखाई पड़ें, तो उसी दिन शाम तक गाभिन कराने के लिए अवश्य ले जाना चाहिए.

* पशुओं में गरमी के लक्षण दिन में 2 बार (सुबह या शाम) अवश्य देखने चाहिए, जिस से गर्भाधान के उचित समय की जानकारी हासिल की जा सके.

* गर्भाधान से पहले वीर्य की जांच अवश्य करनी चाहिए. साथ ही, यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन में प्रयुक्त सांड़ में कोई संक्रमण न हो या वीर्य में अग्र दिशा में गतिशील शुक्राणुओं की उचित संख्या (5-10 मिलियन) होनी चाहिए. इस के अलावा हिमीकृत वीर्य का तरलीकरण प्रबंधन बहुत ही सावधानी से करना चाहिए.

* यह काम कृत्रिम गर्भाधान विशेषज्ञों द्वारा ही किया जाना चाहिए और वीर्य को गर्भाशय ग्रीवा से गर्भाधान की स्थिति में सांड़ों को समयसमय पर बदलते रहना चाहिए.

* समयसमय पर ऐसे पशुओं के अंगों की जांच पशु विशेषज्ञों द्वारा कराई जानी चाहिए.

* जननांगों की संक्रमित अवस्था में गर्भाधान नहीं कराना चाहिए.

* ब्याने के तुरंत बाद जननांगों का संक्रमण रोकने के लिए उचित उपचार व रोकथाम करनी चाहिए. साथ ही, माहिर पशु चिकित्सक की सलाह से उन की देखरेख में काम करना चाहिए.

अधिक जानकारी के लिए पशुपालक अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिकों से संपर्क करें.

औषधीय व खुशबूदार पौधों की जैविक खेती

शुरू से ही इनसान दूसरे जीवों की तरह पौधों का इस्तेमाल खाने व औषधि के रूप में करता चला आ रहा है. आज भी ज्यादातर औषधियां जंगलों से उन के प्राकृतिक उत्पादन क्षेत्र से ही लाई जा रही हैं. इस की एक मुख्य वजह तो उन का आसानी से मिलना है. वहीं दूसरी वजह यह है कि जंगल के प्राकृतिक वातावरण में उगने की वजह से इन पौधों की क्वालिटी अच्छी और गुणवत्ता वाली होती है.

वर्तमान में एलोपैथी की रासायनिक दवाओं के कई बुरे प्रभावों के चलते पौधों से उत्पादित आयुर्वेदिक हर्बल दवाओं का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है. इस वजह से इन का जंगलों से दोहन अधिक बढ़ रहा है और मांग को पूरा करने के लिए कई औषधीय एवं सुगंधीय पौधों की खेती की जा रही है.

चूंकि औषधियां रोगों को ठीक करने और सुगंधीय फसलों में से सुगंधित पदार्थ निकालने में काम आती हैं, इसलिए उत्पादन अधिक करने के बजाय अच्छी क्वालिटी के लिए उत्पादन बाजार की मांग के मुताबिक करना जरूरी है. अच्छी क्वालिटी हासिल करने के लिए जैविक या प्राकृतिक तरीके से उत्पादन ही एकमात्र तरीका है, क्योंकि :

* प्राकृतिक या जैविक तरीके से उत्पादन करने पर औषधीय पौधों में घुलनशील तत्त्व व खुशबूदार पौधों में तेल की मात्रा बढ़ जाती है, जबकि रसायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी आदि के प्रयोग से उन की क्वालिटी लगातार घटती जाती है.

* रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से औषधि विष बन जाती है अर्थात कीटनाशकों के अवशेष रोगी के रोग ठीक करने के बजाय रोग को और अधिक बढ़ा सकते हैं. इसलिए सिर्फ प्राकृतिक तरीकों से रोग, कीट नियंत्रण ही औषधीय पौधों की खेती में न केवल बाजार के लिए जरूरी है, बल्कि यह एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है.

* इस के अलावा कई अन्य प्रकार की हानियां हैं, जो रासायनिक खेती से जुड़ी हैं. ये सभी इन फसलों की खेती में भी होती हैं. जैसे लागत का बढ़ना, भूमि की कूवत का कम होना, कीटनाशकों में प्रतिरोधकता पैदा होना और गांवखेत में प्रदूषण का लैवल बढ़ना आदि. इसलिए सही यही है कि औषधीय और खुशबूदार पौधों की जैविक खेती की जाए.

जरूरी भी और मजबूरी भी

पर्यावरण व भूमि को बचाने के लिए और लोगों के स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती बहुत जरूरी है. कर्ज के बोझ को कम करने एवं कम होते भूजल से ही खेती करने के लिए जैविक खेती मजबूरी है.

भविष्य में पैट्रोलियम पदार्थों के लगातार बढ़ते दाम और घटती मांग से उवर्रक एवं कीटनाशकों की उपलब्धता (पैट्रोलियम से ही बनते हैं) अपनेआप खतरे में पड़ जाएगी, तब जैविक खेती ही संभव होगी, इसलिए वर्तमान या भविष्य की जरूरत को समझ कर जैविक खेती करना ही एकमात्र विकल्प है.

जैविक खेती के लिए सुझाव

औषधीय और खुशबूदार पौधों की खेती हमेशा जंगल जैसा वातावरण बना कर ही की जाए अर्थात खेत में कुछ पेड़, कुछ झाडि़यां, कुछ लताएं और कुछ शाकीय फसलें हों. इस में मिट्टी की उर्वरता, सूरज की रोशनी, मिट्टी में नमी से जो संतुलन होगा, उस से इन की क्वालिटी बढ़ेगी. दूसरे कई फसलों के होने से बाजार में मांगपूर्ति में संतुलन हो सकेगा, जिस से किसानों को नुकसान होने की संभावना कम होगी.

वर्मी कंपोस्ट या केंचुआ खाद का प्रयोग 10-12 टन प्रति हेक्टेयर हर साल अवश्य किया जाना चाहिए, जिस में अधिकांश मात्रा निराईगुड़ाई के समय दी जानी चाहिए. इस से न केवल अच्छा उत्पादन प्राप्त होगा, बल्कि क्वालिटी भी अच्छी होगी, किंतु वर्मी कंपोस्ट खुद के खेत अथवा ग्राम स्तर पर बना कर नमीयुक्त अवस्था में छायादार जगह पर भंडारण कर 15-20 दिन में उपयोग कर लेना चाहिए, क्योंकि प्लास्टिक के बोरों में पैक सूखा या 15 दिन से ज्यादा पुराने वर्मी कंपोस्ट के गुण बहुत कम हो जाते हैं.

रोग एवं कीट पर नियंत्रण पाने के लिए नीम+ गोमूत्र का छिड़काव 15-20 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए. भूमि के रोग एवं कीटों को खत्म करने के लिए नीम की खल या पिसी हुई निंबोली 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में 2 साल में एक बार अवश्य मिलानी चाहिए.

अग्निहोत्र, अमृतपानी, पंचगव्य आदि का प्रयोग मिट्टी में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ाने व जलवायुजनित कीट व रोग से बचाव करने के लिए किया जा सकता है.

कुछ औषधीय फसलों की खेती सामान्य फसल चक्र या अन्य के रूप में भी की जा सकती है. जैसे धान के साथ बच की खेती से धान के कई कीटों से छुटकारा मिलता है, इसी प्रकार सब्जियों की खेती के अंतराशस्य के रूप में खुशबूदार घासों/मसालों की खेती से कई रोग व कीट कम हो जाते हैं.

औषधीय पौधों में क्वालिटी सब से प्रमुख है, इसलिए सही समय पर कटाई, तुड़ाई और छाया में सुखा कर भंडारण/विक्रय करना चाहिए.

थोड़ा बीज या पौध को बाजार से ला कर उस का खुद के खेत में जैविक तरीके से उत्पादन करना चाहिए. इस से प्राप्त बीज को ही पूरे खेत में लगाने के लिए उपयोग करना चाहिए.

बीज से बाजार तक की सारी जानकारी होने पर ही औषधीय पौधे की खेती बड़े स्तर पर करनी चाहिए.

अन्न वाली फसलों की मांग हमेशा रहेगी और औषधीय एवं खुशबूदार फसलों की मांग व बाजार भाव तेजी से ऊपरनीचे होते रहते हैं, इसीलिए किसान अन्न वाली फसलों को पूरी तरह न हटाएं, बल्कि औषधीय एवं खुशबूदार फसलों को फसल चक्र अंतराशस्य के रूप में स्थान दें. इस से बाजार के अनुसार तालमेल बनाने में आसानी रहेगी.

Organic farming

प्रकृति का एक मुफ्त उपहार

जैविक खेती के लिए उपयोग की जाने वाली खाद खेती के अवशेष और पशु अपशिष्ट से बनती है, जिस में लागत के नाम पर सिर्फ मेहनत ही होती है. इन के उपयोग से भूमि उपजाऊ और पानी की बचत भी होती है. इसी प्रकार जैविक कीट नियंत्रण नीम व गोमूत्र के माध्यम से बनाए जाते हैं, जिन का कोई नुकसान नहीं होता.

जैविक उत्पाद स्वादिष्ठ, अच्छी गंध व रूप वाले और अधिक समय तक भंडारण करने के योग्य होते हैं और इन का बाजार मूल्य भी अधिक मिलता है.

इस प्रकार जैविक खेती प्रकृति का एक मुफ्त उपहार है, जिस के लिए केवल मेहनत और प्रकृति से तालमेल की आवश्यकता होती है.

एक बीघा जमीन सिर्फ एक गाय और एक नीम

एक हेक्टेयर (100 मीटर × 100 मीटर) भूमि में लगभग 6 बीघा होते हैं. अकसर किसान बीघा नाप को ही आधार मान कर खेती की सभी गणनाएं (नापतौल) आदि का काम करते हैं, इसलिए एक बीघा में जितनी खाद एवं जैविक कीट नियंत्रक की आवश्यकता होती है, उसी के हिसाब से गणना की जाए तो समझने में आसानी रहेगी.

एक गाय : सालभर में एक गाय लगभग 3-3.5 टन गोबर देती है. यदि सिर्फ गोबर से ही खाद बने तो लगभग 2 टन खाद तो बनेगी, जो कि एक  बीघा जमीन में यदि 3 फसल या सब्जियों की फसल भी लगाई जाए तो भी पर्याप्त रहेगी.

इसी प्रकार एक गाय लगभग 1,000 लिटर मूत्र पैदा करती है, जिस में से आधा खाद या सिंचाई के साथ मिला देने के बाद भी 500 लिटर गोमूत्र व नीम की पत्ती से इतना कीट नियंत्रक बन सकता है कि एक बीघा जमीन में साल में हर 15 दिन बाद लगभग 20 छिड़काव किए जा सकते हैं.

एक नीम : नीम की पत्तियां तो गोमूत्र आधारित कीटनाशक व भूमि में हरी खाद के रूप में काम आ ही जाती हैं. साथ ही, एक नीम से हर साल कम से कम 50-60 किलोग्राम निंबोली मिलती है, जिस का लगभग 10-15 लिटर नीम तेल निकालने के बाद 40 किलोग्राम खल को जमीन में मिलाने से पोषक तत्त्व तो मिलते ही हैं, साथ ही जमीन से पैदा होने वाली फसलों के कीड़े व रोग भी कम हो जाते हैं.

इसलिए जैविक खेती को आसान बनाने के लिए प्रति बीघा जमीन के हिसाब से एक गाय पालें और एक नीम का पेड़ लगाएं, तो बाहर से शायद कुछ भी लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. साथ ही, नीम की छाया और गाय का शुद्ध दूध मिलेगा.

पेड़ों का सहारा जरूरी

* औषधीय पौधों की खेती के लिए जंगल जैसा वातावरण बनाने के लिए खेत में पेड़ों की उचित संख्या का उचित प्रणाली में होना बहुत जरूरी हो जाता है. यह पेड़ औषधीय उपयोग के भी हो सकते हैं.

* पेड़ों को फसलों के साथ लगाने का तरीका नया नहीं है. यह शस्य वानिकी या एग्रो फोरैस्ट्री के नाम से जाना जाता है.

* खेत को जंगल बनाने का अर्थ एक उचित संख्या में पेड़ लगाने से है, जो कि एक हेक्टेयर में 10 से 20 तक संख्या हो सकती है. अधिक पेड़ लगाने पर वह फसल के साथ धूप, पानी और पोषक तत्त्व के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जिस से फसल की बढ़वार पर उलटा असर पड़ सकता है.

जैविक खेती के लिए औषधीय पेड़ों को लगाना ज्यादा सही रहता है. थोड़े से प्रयास से किसान स्वयं की पौधशाला में पौधे तैयार कर सकते हैं. खेत के पास पौधशाला में तैयार किए गए पौधे अधिक स्वस्थ, विकसित जड़ वाले और अच्छे से पनपते हैं.

पेड़/पौधों की प्रजाति ऐसी होनी चाहिए, जिस से साल में थोड़ीथोड़ी पत्तियां झड़ती रहें, जो जमीन पर गिर कर मल्च का काम करें (भूमि को ढक कर रखें) और बाद में खाद के रूप में पोषण भी दें.

कभी भी सफेदा (यूकेलिप्टिस) जैसे पेड़ को खेत में न लगाएं, क्योंकि इन की पत्तियां न तो सड़ती हैं, बल्कि भूमि के दूसरे कामों में बाधा पैदा करती हैं.

बड़े पौधों को खेत की बाड़ पर वायु अवरोधक के रूप में और छोटे पौधों या फलदार पौधों जैसे आंवला, बेल, किन्नू व बेर आदि को फसल की कतारों के बीच कम से कम 8 से 10 मीटर के गैप पर लगाना चाहिए, ताकि फसलों से प्रतिस्पर्धा न हो.

कुछ कांटेदार झाडि़यों जैसे कांटा-करंज (औषधीय पौधा) आदि को खेत की सुरक्षा के लिए बाढ़ के रूप में भी लगाया जा सकता है.

खेत की मेंड़ या गौशाला या चौपाल में कम से कम 2 से 3 पेड़ नीम, बकायन, करंज और सहजन आदि के जरूर लगाएं, जो कि औषधीय पौधे होने के साथसाथ रोग के नियंत्रण में भी सहायक होते हैं.

पेड़ों की नियमित रूप से काटछांट करते रहना चाहिए, ताकि वह सीधे तने वाले बने रहें और खेती के काम में बाधक न बनें.

सुबह की धूप सभी पौधों के लिए अच्छी होती है, इसलिए पेड़ों को हमेशा ऐसी दिशा में लगाना चाहिए, ताकि फसल को सुबह सूरज की रोशनी जरूर मिलती रहे.

सुरक्षा के लिहाज से चारों उन की छाया के बराबर थाला बना देना चाहिए, जिस से नियमित रूप से खादपानी देते रहना चाहिए. इस से फसल और पेड़ों में किसी भी प्रकार की होड़ नहीं होगी और दोनों का विकास अच्छा होगा. थालों में घासफूस की मल्च बिछाने से पानी का नुकसान कम होता है.

दीमक से बचाव : दीमक से बचाव के लिए पौधे लगाने से पहले गड्ढा भरते समय सड़ी गोबर की खाद में आंक, नीम के पत्तों व निंबोली का चूरा मिला कर गड्ढे को भरना चाहिए और हर साल खाद के साथ नीम एवं आंक के पत्ते भी मिलाने चाहिए.

भोपाल में लगे कृषि मेले में ‘फार्म एन फूड’ का जलवा

मध्य प्रदेश खेतीकिसानी पर निर्भर राज्य है, वहां कि सानों, बागबानों और कृषि से जुड़े उद्यमियों को कृषि, बागबानी, डेयरी व कृषि अभियांत्रिकी से जुड़ी नवीनतम और उन्नत जानकारियों से लैस करने के लिए भोपाल के केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान में पिछले दिनों 20 से ले कर 22 दिसंबर, 2024 को विशाल कृषि मेले का आयोजन हुआ.

यह आयोजन भारतीय मीडिया ऐंड इवैंट्स लिमिटेड व बीएसएल कौंफ्रैंस ऐंड ऐक्जीबिशन प्राइवेट लिमिटेड द्वारा भोज आत्मा समिति, भोपाल के सहयोग से किया गया, जिस  में मीडिया पार्टनर के रूप में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका की अहम भूमिका रही.

मंत्री लखन पटेल ने किया आह्वान

भोपाल के सीआईएई में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी में अतिथि के रूप में पहुंचे मध्य प्रदेश के पशुपालन एवं डेयरी विकास मंत्री लखन पटेल ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि किसानों को तकनीक का लाभ उठा कर स्वावलंबी बनने का प्रयास करना चाहिए.

उन्होंने यह भी कहा कि सरकार की योजनाओं और नई तकनीकों का मुख्य उद्देश्य किसानों को रोजगार और आत्मनिर्भरता प्रदान करना है. उन्होंने किसानों से सरकार की स्कीमों का लाभ ले कर आमदनी बढ़ाने का आह्वान किया. इस दौरान मंत्री लखन पटेल नें प्रदर्शनी में लगाए गए सभी स्टालों पर पहुंच कर जानकारी ली.

इस अवसर पर विधायक घनश्याम रघुवंशी ने प्रदेश सरकार की कृषि हितैषी नीतियों और खेती को लाभकारी बनाने के प्रयासों की जानकारी दी. उन्होंने कहा कि सरकार किसानों की समस्याओं का समाधान करने और उन की आय बढ़ाने के लिए लगातार प्रयासरत है.

 

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विशेषज्ञों ने साथ किए टिप्स

9वें इंटरनैशनल एग्री ऐंड हौर्टी टैक्नोलौजी ऐक्सपो में भारत सहित अन्य कई देशों के कृषि विशेषज्ञों की भागीदारी रही. इस दौरान मेले में भ्रमण पर आए किसानों और कृषि के छात्रों को विशेषज्ञों द्वारा खेतीबारी से जुड़ी जानकारी भी दी गई.

संगोष्ठी में वैज्ञानिकों में प्रमुख रूप से

डा. एसएस सिंधु, एमेरिट्स वैज्ञानिक, आईएआरआई, नई दिल्ली, डा. वाईसी गुप्ता, पूर्व डीन, एफएलए विभाग, डा. पीबी भदोरिया, आईआईटी खड़गपुर, प्रोफैसर डा. सीके गुप्ता, पूर्व डीन, डीवाईएस परमार विश्वविद्यालय, सोलन, डा. सीआर मेहता, डायरैक्टर, सीआईएई, डा. सुरेश कौशिक, पूर्व सीटीओ, आईएआरआई पूसा, नई दिल्ली, डा. प्रकाश, पूर्व अध्यक्ष, स्टूडैंट्स वर्ल्ड, नेपाल की भागीदारी रही.

वैज्ञानिकों ने किसानों की समस्याओं को सुना और उन के समाधान के लिए उपयोगी सुझाव  दिए. किसानों ने संगोष्ठी में अपनी जिज्ञासाओं को साथ किया और विशेषज्ञों से मार्गदर्शन प्राप्त किया.

इस दौरान मंच संचालन का जिम्मा संभाल रहे कृषि वैज्ञानिक विजी श्रीवास्तव ने खेतीबारी से जुड़ी उन्नत जानकारियों को प्रभावी ढंग से पेश करते हुए किसानों को कार्यक्रम के अंत तक बांधे रखा. उन्होंने कृषि स्टूडैंट्स के कैरियर से जुड़े सवालों का समाधान करते हुए उन्हें प्रोत्साहित भी किया.

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आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रदर्शन

कृषि, बागबानी, डेयरी एवं कृषि अभियांत्रिकी से जुड़े इस मेले में देश की नामी कृषि यंत्र और ट्रैक्टर निर्माता कंपनियों ने खेतीबारी के साथ ही हार्वेस्टिंग, प्रोसैसिंग और सिंचाई से जुड़े छोटेबड़े कृषि यंत्रों का प्रदर्शन और बिक्री की.

यंत्र निर्माता कंपनियों ने प्रदर्शनी में छोटे और मंझले किसानों का खास खयाल रखा था, जिस में कोनो वीडर, छोटी और बड़ी पावर के ट्रैक्टर, जायरोवेटर, रोटावेटर, बूम छिड़काव मशीन, मिनी हार्वेस्टर सहित सैकड़ों तरह के यंत्रों और कंबाइन का प्रदर्शन कर मौके पर बुकिंग कराने वालों को विशेष छूट का लाभ भी दिया गया.

इस प्रदर्शनी में खरपतवार नियंत्रण के लिए मैनुअल यंत्रों, फसल कटाई, निराईगुड़ाई सहित तमाम छोटे यंत्रों की रिकौर्डतोड़ बिक्री भी हुई. इस में सौ से अधिक कंपनियों ने आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रदर्शन किया. संगोष्ठी में प्रमुख वैज्ञानिकों ने किसानों को तकनीक और समस्याओं के समाधान पर मार्गदर्शन दिया.

ड्रिप इरिगेशन, रेनगन और सिंचाई प्रबंधन से जुड़े उत्पादों को बनाने वाली देश की जानीमानी कंपनी जैन इरिगेशन सिस्टम लिमिटेड ने भी सिंचाई प्रबंधन से जुड़ी जानकारियों और विधियों को साथ करते हुए अपने उत्पादों को प्रोत्साहित किया.

इस के अलावा ट्रैक्टर, कंबाइन और अन्य कृषि यंत्रों में उपयोग होने वाले टायर की प्रमुख कंपनियों में बालकृष्ण इंडस्ट्रीज लिमिटेड (बीकेटी) और जेके टायर्स ने भी अपनी विस्तृत रेंज पेश की.

इस के अलावा करतार ट्रैक्टर, कंबाइन, वंसुधरा कंपनी के छोटे और मंझले हार्वेस्टिंग से जुड़े कृषि यंत्र, रिपर, शक्तिमान कंपनी के जुताई और छिड़काव से जुड़े यंत्रों की भारी रेंज किसानों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल रही.

प्रदर्शनी में आने वाले किसानों को अपने उत्पादों से जोड़ने के लिए निर्माता कंपनियों ने जम कर गिफ्ट भी बांटे.

सरकारी महकमों के स्टाल पर रही भीड़

केंद्रीय कृषि अभियान अभियांत्रिकी संस्थान के प्रदर्शनी ग्राउंड में लगे अंतर्राष्ट्रीय मेले में मध्य प्रदेश सहित देश के तमाम राज्यों के कृषि और बागबानी के महकमों और आईसीएआर से जुड़ी संस्थाओं, डीआरडीओ, जल संसाधन विभाग आदि ने अपने स्टाल लगा कर किसानों को सरकारी योजनाओं सहित उन्नत खेती की जानकारियां साथ कीं, जिस में प्रमुख रूप से उद्यान विभाग, उत्तर प्रदेश, उद्यान विभाग, मध्य प्रदेश, उद्यान विभाग, तमिलनाडु, पंजाबहरियाणा और अन्य राज्यों के कृषि महकमों ने अपने स्टाल पर आने वाले किसानों को जानकारियां दीं.

रंगबिरंगी सब्जियां और फल रहे आकर्षण का केंद्र

मेले में विभिन्न राज्यों और केंद्र सरकार के महकमों के स्टाल पर प्रदर्शित की गई सब्जियों और फलों ने लोगों को अपनी तरफ खूब आकर्षित किया. इस में देशी और विदेशी दोनों तरह की सब्जियां और फल शामिल रहे.

इस मौके पर किसानों को रंगीन देशीविदेशी सब्जियों और फलों के व्यावसायिक उत्पादन व फायदे पर भी जानकारियां दी गईं, जिस में प्रमुख रूप से रंगीन पत्तागोभी, रंगीन फूलगोभी, रंगबिरंगी शिमला मिर्च की किस्में, चेरी, टमाटर की किस्में, रंगीन आम, स्ट्राबेरी, कमलम यानी ड्रैगन फू्रट सहित तमाम चीजें शामिल रहीं.

खूब बिके पौधे

भोपाल में लगे इस मेले में उन्नत किस्मों के फल और सब्जियों के पौधों की जम कर खरीदारी हुई, जिस में सब से ज्यादा, टमाटर, गोभी, बैगन, शिमला मिर्च सहित जैन इरिगेशन सिस्टम लिमिटेड द्वारा तैयार किए गए उन्नत किस्मों के आम, अमरूद, कटहल और केले की किस्मों की खरीदारी किसानों द्वारा की गई.

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‘फार्म एन फूड’ के स्टाल पर हुआ अवार्ड नौमिनेशन

इस कृषि मेले के मीडिया पार्टनर के रूप में दिल्ली प्रैस की पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ द्वारा भी स्टाल लगाया गया था, जिस में ‘फार्म एन फूड’ के अलावा दिल्ली प्रैस की अन्य पत्रिकाओं ‘सरस सलिल’, ‘सरिता’, ‘चंपक’, ‘गृहशोभा’, ‘सत्यकथा’, ‘मनोहर कहानियां’ सहित अन्य भाषाओं की पत्रिकाओं का प्रदर्शन भी किया गया.

इस दौरान ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका द्वारा फरवरी महीने में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लिए प्रस्तावित ‘फार्म एन फूड कृषि सम्मान अवार्ड’ के लिए मौके पर ही तमाम किसानों और वैज्ञानिकों द्वारा अपने नौमिनेशन पेश किए गए.

इस दौरान दिल्ली प्रैस में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका की जिम्मेदारी संभाल रहे भानु प्रकाश राणा और मध्य प्रदेश में दिल्ली प्रैस ब्रांच के इंचार्ज भारत भूषण श्रीवास्तव द्वारा प्रकाशन से जुड़ी जानकारियां भी दी गईं.

इस के अलावा कृषि की पढ़ाई और शोध कर रहे छात्रों द्वारा अपनी नवीनतम खोज और शोध का प्रस्तुतीकरण भी किया गया. इस दौरान कार्यक्रम के संचालक वीजी श्रीवास्तव ने छात्रों से सवालजवाब भी किए, जिस में सवालों के सही जवाब देने वाले छात्रों को इनाम के रूप में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका दी गई.

स्वास्थ्य के लिए खास है करेला

करेला में औषधीय गुण होने के कारण लोग इसे काफी पसंद करते है. करेले का रस शुगर और हाई ब्लडप्रेशर के मरीजों के लिए काफी फायदेमंद है. इस में मौजूद कड़वाहट वाला तत्त्व खून को साफ करता है. इन सब गुणों के चलते करेले का बाजार भाव भी अन्य सब्जियों की तुलना में काफी अच्छा रहता है. आज करेले की कई किस्में चलन में हैं. नीचे कुछ खास प्रजातियों की विस्तार से जानकारी दी गई है:

करेले की उन्नतशील प्रजातियां

पूसा (2 मौसमी) : नाम से ही मालूम है कि यह किस्म 2 मौसम (खरीफ व जायद) में बोई जाती है. फसल बोने के तकरीबन 55 दिन बाद करेला तोड़ाईर् लायक हो जाता है. इस प्रजाति के करेले का साइज तकरीबन 15 सेंटीमीटर के आसपास होता है. इस किस्म से औसत उपज 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

पूसा विशेष : इस प्रजाति के करेले हरे, पतले, मध्यम आकार के और 20 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. औसतन एक करेले का वजन 115 ग्राम होता है. इस की उपज 115-130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अर्का हरित : इस प्रजाति के करेले चमकीले हरे, चिकने, ज्यादा गूदेदार और मोटे छिलके वाले होते हैं. फलों की पहली तुड़ाई बोआई के 65 दिन बाद की जा सकती है. ऐसे करेले में बीज और कड़वापन भी कम होता है. फल की लंबाई 15 सेंटीमीटर और वजन 90 ग्राम होता है. इस की उपज 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

वीके 1 (प्रिया) : इस के फल 40 सेंटीमीटर तक लंबे और मोटे छिलके वाले होते हैं. बोआई के 60 दिन बाद फल तोड़ाई लायक हो जाते हैं. करेले का वजन औसतन 120 ग्राम होता है. इस की औसत उपज 140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

पंत करेला 1 : इस के फलों की पहली तोड़ाई बोआई के 55 दिनों बाद की जा सकती है. इस प्रजाति के करेले मोटे, 15 सेंटीमीटर लंबे, हरे और शुरू में पतले होते हैं. इन की औसत पैदावार कूवत लगभग 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह प्रजाति पहाड़ों के लिए अच्छी मानी गई है.

काशी हरित : फल चमकीले हरे, चिकने, गूदेदार होते हैं. एक फल का वजन 80-100 ग्राम होता है. पहली तोड़ाई 50 दिन बाद कर सकते हैं.

पूसा औषधि : हलके हरे, परचम लंबाई वाले और औसत, फल वजन 85 ग्राम, फसल तैयार होने का समय लगभग 48-52 दिन. यह अधिक उपज देने वाली प्रजाति है.

पूसा हाईब्रिड 1 : मध्यम लंबाई का फल, ज्यादा उपज. पहली तोड़ाई 55-60 दिनों में की जा सकती है. औसत उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा हाईब्रिड 2 : फल गहरा हरा मध्यम लंबाई का, फल का औसत वजन 85-90 ग्राम, पहली तोड़ाई 52 दिनों में, औसत उपज 180 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

कल्याणपुर बारहमासी :  यह किस्म चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई है.

हिसार सलैक्शन : यह किस्म पंजाब और हरियाणा में काफी पसंद की जाती है.

जमीन की तैयारी : खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2-3  जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी और खेत को समतल कर लेना चाहिए, जिस से पानी खेत में समान रूप से फैल सके.

बीज की मात्रा और बोआई :

1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए अच्छी अंकुरण कूवत वाले बीज की 5 किलोग्राम मात्रा की जरूरत पड़ती है.

एक जगह पर 2-3 बीज 3-4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए. बोने से पहले खराब बीज निकाल दें.

बोआई का समय : इस की बोआई गरमी के मौसम के लिए (जायद) में 15 फरवरी से 15 मार्च तक और बरसात के मौसम (खरीफ) के लिए 15 जून से 15 जुलाई तक करते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई अप्रैल के महीने में की जाती है.

बोआई की दूरी : करेले की बोआई जहां तक हो सके मेंड़ों पर करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 1.5 से 2.5 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 से 60 सेंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : आमतौर पर 20-22 टन सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद को खेत तैयार करते समय मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस के बाद 1 हेक्टेयर खेत के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए. नाइट्रोजन  की एकतिहाई मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय दें. बीज बोने के 30 व 45 दिन बाद जड़ के पास नाइट्रोजन टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए.

सिंचाई : खरीफ के मौसम में खेत की खास सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती और बारिश न होने पर सिंचाई की जरूरत 10-15 दिन बाद होती है. ज्यादा बारिश के समय पानी की निकासी ठीक होनी चाहिए. गरमियों में तापमान ज्यादा होने के कारण जल्दीजल्दी सिंचाई की जरूरत होती है.

खरपतवार : बारिश या गरमी के मौसम में सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं, उन्हें खुरपी से निकाल देना चाहिए. करेले में पौधे की बढ़ोतरी और विकास के लिए 2-3 बार गुड़ाई कर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. समय पर निराईगुड़ाई से अच्छी पैदावार मिलती है.

मचान बेहतर तरीका

करेले की बेहतर पैदावार लेने के लिए मचान खेती अच्छा तरीका है. करेले की बेलों को लकड़ी का सहारा देने से या मचान पर चढ़ा देने से फल जमीन के संपर्क से दूर रहते हैं. इस से फलों का आकार और गुणवत्ता अच्छी रहती है और पैदावार भी मिलती है.

मचान पर फल लगने से सड़ते नहीं हैं. इस के लिए पौधे जब 30 सेंटीमीटर के हो जाएं तो उन्हें नायलौन या जूट की रस्सी के सहारे मचान तक चढ़ाया जाता है.

इस के लिए लोहे या लकड़ी के खंभे गाड़ कर उन के सिरे पर तार बांध कर मचान बनाया जाता है. खंभों के आपस की दूरी 2 से 3 मीटर रख सकते हैं. सामान्यत: मचान की ऊंचाई 4.5 फुट तक रखते हैं.

फलों की तोड़ाई : जब फलों का रंग गहरे हरे से हलका हरा होना शुरू हो जाए और वे अपना सही आकार ले लें, तो यह समय फलों की तोड़ाई करने के लिए सही माना जा सकता है. फलों की तोड़ाई एक तय समय के दौरान करनी चाहिए ताकि फल कड़े न हों अन्यथा उन की बाजार में मांग कम हो जाती है.

सुखा कर भी रख सकते हैं करेला

करेले को काट कर छोटेछोटे टुकड़े कर के सुखा कर भी रखा जा सकता है और जब मन करे तब उस की सब्जी बनाई जा सकती है. करेले को सुखाने से पहले छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर उस में हलका सोडा या नमक छिड़क दें, जिस से करेले की कड़वाहट कम हो जाएगी. उस के बाद उन्हें धूप में अच्छी तरह सुखा कर किसी भी एयरटाइट डब्बे में रख लें और जब सब्जी बनानी हो तो कुछ समय पानी में भिगो कर रख दें, जिस से वह फूल जाएंगे फिर उन को निचोड़ कर सब्जी बना सकते हैं.

मिर्च में क्यों होता है तीखापन

भारत में ज्यादातर लोग ज्यादा मिर्चमसाले का इस्तेमाल करते हैं और महिलाएं तीखी मिर्च खरीदना ही पसंद करती हैं. मिर्च का नाम सुनते ही कई लोगों को पसीना आ जाता है, तो कई के मुंह में पानी आ जाता है. अकसर आप ने सुना होगा या महसूस किया होगा कि कुछ मिर्च काफी तीखी होती हैं, तो कुछ बिलकुल भी तीखी नहीं होतीं. आप के मन में सवाल उठता होगा कि आखिर ऐसा क्यों होता है. तो आइए, जानते हैं कि आखिर मिर्च तीखी क्यों होती है:

तमाम शोधों के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि कोई मिर्च ज्यादा तीखी तो कोई कम तीखी क्यों होती है? जीवविज्ञान की पत्रिका बायोलाजिकल साइंसेज के मुताबिक इस का खास कारण मिर्च के पौधे का जल के संपर्क में आने से है.

वैज्ञानिकों का मानना है कि मिर्च में कसैलापन कैपसाइपिनोइड नाम के पदार्थ की वजह से पाया जाता है. यह मिर्च को फफूंद से बचाता है. इंडियाना यूनिवर्सिटी के डेविड हाक के नेतृत्व में शोध करने वाले दल ने बोलिविया जा कर मिर्च के पौधे में कैपसाइपिनोइड तत्त्व की जांच की.

इस जांच में उन्होंने पाया कि उत्तरी क्षेत्र में मात्र 15-20 फीसदी मिर्चों में ही यह तीखा पदार्थ मौजूद था, जबकि दक्षिणी हिस्से में मिर्च के तीखेपन की स्थिति एकदम से अलग थी. इस इलाके में 100 फीसदी मिर्च के पौधों में इस तीखे पदार्थ कैपसाइपिनोइड के होने से मिर्च बहुत तीखी और कसैली थी.

आखिर शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि मिर्च का तीखापन फफूंद से बचने के लिए इस तत्त्व के विकास से पनपता है, जितना अधिक यह पदार्थ मिर्च में मौजूद रहेगा, उतनी ही मिर्च ज्यादा तीखी और कसैली होगी.