Seeds : अच्छी किस्म के बीजों को छोटे किसानों तक जल्दी पहुंचाएं

Seeds: कृषि अनुसंधान देश के कृषि क्षेत्र का प्रमुख आधार है. इसे और अधिक सशक्त करने और कृषि शोध के क्षेत्र में नवाचार करने के साथ ही वर्तमान योजनाओं और कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन के उद्देश्य से केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के उपमहानिदेशकों के साथ 29 अप्रैल, 2025 को मैराथन बैठक की.

नई दिल्ली के एनएएससी कौम्प्लेक्स स्थित बोर्ड रूम में यह अहम बैठक हुई. इस बैठक में केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह ने आईसीएआर के विभिन्न प्रभागों द्वारा किए जा रहे शोध प्रयोगों की जानकारी लेने के साथ ही भावी रणनीतियों के बारे में विस्तार से मार्गदर्शन दिया.

किसानों की खुशहाली के लक्ष्य को फोकस रखते हुए केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बैठक की शुरुआत में कहा कि जब अंतिम पंक्ति का किसान समृद्ध बनेगा, तभी सही माने में विकसित भारत का संकल्प पूरा होगा.

इस चर्चा के दौरान केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केंद्र सरकार की बजट घोषणा (2025-26) की प्रमुख 4 घोषणाओं, जिस में दलहन में आत्मनिर्भरता, उच्च उपज वाले बीजों पर राष्ट्रीय मिशन, कपास उत्पादकता के लिए मिशन, फसलों के जर्म प्लाज्म के लिए जीन बैंक में तेजी से प्रगति के साथ काम करने को कहा.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अच्छी किस्म के बीज विकसित करने की दिशा में पूरी प्राथमिकता और समर्पण से काम करने का निर्देश दिया. दलहन में मेंड़ वाली किस्म विकसित करने पर भी जोर दिया. उन्होंने कहा कि दलहन को बढ़ावा देने के लिए क्या वैज्ञानिक अप्रोच हो सकती है, इस दिशा में काम होना चाहिए.

सोयाबीन की खेती को बढ़ावा देने पर विशेष जोर देते हुए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस दिशा में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों और कृषि मंत्रियों के साथ बात की. उन्होंने सोयाबीन की खेती को खरीफ फसल की बोआई के दौरान बढ़ावा देने के लिए भरपूर प्रयास करने के लिए कहा और किसानों में सोयाबीन की पैदावार के प्रति रुचि बढ़ाने के लिए बड़े स्तर पर जन जागरूकता अभियान चलाने की बात भी कही.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि बीजों की नई किस्मों का विकास हो और ये किसानों तक जल्दी पहुंचे, इस बात की कोशिश होनी चाहिए. देशभर के बीज केंद्र प्रभावी भूमिका निभाते हुए काम करें. विशेषकर यह सुनिश्चित हो कि छोटे और सीमांत किसानों तक प्रौद्योगिकी का फायदा ज्यादा से ज्यादा और जल्दी पहुंचे.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि गेहूं और चावल के साथ दलहन, तिलहन व मोटे अनाजों की उपज पर भी जोर देने की जरूरत है. उन्होंने कीटनाशकों के सही उपयोग पर भी बल दिया. उन्होंने कहा कि कीटनाशकों के संबंध में और अधिक अनुसंधान और शोध की जरूरत है. इस के साथ ही मिट्टी की जांच किसानों के अपने खेतों में ही करने के प्रयास होने चाहिए, ऐसा करने से किसानों में रुचिपूर्वक खेती करने की पहल में मदद मिलेगी.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ग्राम स्तर पर खेत से बाजार तक की श्रृंखला को व्यवस्थित करने की कोशिश पर भी बात की और कृषि समितियों की सक्रिय भूमिका को भी रेखांकित किया.

इस बैठक में फसल विज्ञान प्रभाग के बाद एनआरएम डिवीजन और कृषि विस्तार प्रभाग की प्रस्तुती भी हुई, जिस में विभिन्न विषयों पर विचारविमर्श किया गया. इस दौरान कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जलवायु परिवर्तन के अनुकूल खेती, छोटे किसानों के लिए मौडल फार्म विकसित करने, प्राकृतिक खेती के उत्पादों को राज्य सरकारों के साथ मिल कर प्रमाणित करने की व्यवस्था, छोटे किसानों को खेती के साथ ही पशुपालन, मत्स्यपालन, मधुमक्खीपालन से जोड़ने के प्रयास, चारा उत्पादन में वृद्धि के लिए संभावनाओं की तलाश, प्राकृतिक खेती के लिए विशेष किस्म के बीजों के उत्पादन पर भी जोर दिया.

इस के साथ ही शुष्क, बारानी कृषि प्रबंधन में ग्रामीण विकास मंत्रालय के समन्वय के साथ काम करने, मृदा स्वास्थ्य कार्ड और किसानों की आवश्यकताओं में जोड़ते हुए काम करने, बांस की खेती और जलवायु संरक्षण की दिशा में पेड़ उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने, मृदा टैस्टिंग किट (मृदा परीक्षण), प्रौद्योगिकी के प्रभाव का प्रमाणिक मूल्यांकन, किसानों के उचित प्रशिक्षण व कौशल विकास, गैरसरकारी संगठनों की सहभागिता सहित केवीके की भूमिका को प्रभावशाली बनाने जैसे विषयों पर विस्तार से विचार व्यक्त किए और जरूरी निर्देश दिए.

Agriculture : खेतीकिसानी की उन्नति में केवीके की खास भूमिका

नई दिल्ली : केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान बीते दिनों 28 अप्रैल को नई दिल्ली में देशभर के सभी 731 कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) से वर्चुअल संवाद किया. केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर आयोजित इस अभिनव संवाद कार्यक्रम में सभी केवीके के चल रहे प्रयासों, उन की भूमिका और भावी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन को ले कर चर्चा हुई. इस दौरान केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सभी केवीके से किसान उन्मुख प्रयासों में तेजी लाने की बात कही, साथ ही कहा कि खेतीकिसानी की उन्नति में केवीके सशक्त माध्यम के रूप में भूमिका निभाए.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि केवीके कृषि में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं. साथ ही, उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि खरीफ बोआई से पहले सभी केवीके और आईसीएआर, राज्य सरकारों के साथ मिल कर किसान जागरूकता अभियान चलाएं.

उन्होंने आगे प्राकृतिक खेती, जल संरक्षण और किसानों के हितों के मद्देनजर उत्पादकता बढ़ाने पर भी जोर दिया. साथ ही, उत्कृष्ट कार्य करने वाले केवीके को पुरस्कृत किए जाने के प्रस्ताव पर भी विचार हुआ.

इस चर्चा में देशभर के विभिन्न कृषि विज्ञान केंद्रों के प्रमुखों के साथ ही कृषि वैज्ञानिक शामिल हुए, जिन में से कुछ ने केवीके की उपलब्धियां बताईं, वहीं अपने सुझाव भी दिए. आईसीएआर कृषि प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग अनुसंधान संस्थान, अटारी, जोधपुर (राजस्थान), अटारी, हैदराबाद (आंध्र प्रदेश), अटारी, पटना (बिहार), अटारी, जबलपुर (मध्य प्रदेश) के अलावा मंडी (हिमाचल प्रदेश), नंदूरबार (महाराष्ट्र), खुर्दा (ओडिशा), मोरीगांव (असम) और लक्षद्वीप के केवीके प्रमुखों ने अपनेअपने क्षेत्र विशेष के अनुसार अपने कामकाज, उपलब्धियों और भावी कार्य योजनाओं के बारे में केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान को जानकारी दी. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डा. एमएल जाट और उपमहानिदेशक (प्रसार) डा. राजबीर सिंह ने प्रारंभ में केवीके के संबंध में रूपरेखा बताई.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि कृषि क्षेत्र के विकास के लिए अभियान स्वरूप कार्य करने की आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि कृषि व्यापक क्षेत्र है. प्रत्यक्ष रूप से लगभग 45 फीसदी आबादी कृषि से जुड़ी है और हमारी जीडीपी का लगभग 18 फीसदी हिस्सा कृषि क्षेत्र से ही आता है, इसलिए इस व्यापक भूमिका को और अधिक मजबूत करने के लिए हमें लगातार प्रभावशाली प्रयास करने होंगे.

केवीके प्रमुखों को संबोधित करते हुए उन्होंने किसानों के क्षमता निर्माण प्रशिक्षण के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि कृषि से जुड़े अच्छे प्रशिक्षण और जागरुकता के माध्यम से हम किसानों को आत्मनिर्भर और सशक्त बना सकते हैं. साथ ही, उन्होंने मृदा स्वास्थ्य कार्ड और किसान जागरूकता को जोड़ते हुए काम करने की नई पहल करने संबंधी विचार भी साझा किए और किसानों को मिट्टी गुणवत्ता बनाए रखने के लिए उवर्रक के संतुलित इस्तेमाल की मात्रा के अनुसार उचित सलाह देते हुए खेती करने की दिशा में आगे काम करने के लिए भी कहा.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कृषि के लिए 6 सूत्रीय रणनीति, जिस में उत्पादन बढ़ाना, लागत घटाना, फसलों के ठीक दाम, नुकसान की भरपाई, खेती का विविधीकरण और प्राकृतिक खेती पर भी मार्गदर्शन दिया. उन्होंने कहा कि प्राकृतिक खेती में हमें उच्च मापदंड स्थापित कर के दिखाना है.

उन्होंने आगे कहा कि खाद्यान उत्पादन के लिए बेहतर बीजों, नए शोध, नई तकनीकों के प्रयोग पर बल दिया और इसी क्रम में और अधिक मौडल फार्म बनाने और नए किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) के माध्यम से भी किसानों को फायदा पहुंचाने के लिए प्रयास करने को कहा.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जल संरक्षण के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि ‘प्रति बूंद अधिक फसल’ के लिए और अधिक प्रभावशाली रूप से भूमिका निभाने की जरूरत है. कम से कम पानी में अधिक से अधिक खेती की कोशिश होनी चाहिए.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि कृषि विज्ञान केंद्रों पर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है और सभी को कार्य प्रदर्शन के पायदान पर ऊपर बने रहने के लक्ष्य के साथ काम करना चाहिए. उन्होंने कहा कि अच्छा काम करने वाले केवीके को अगले साल से पुरस्कृत करने की व्यवस्था पर भी विचार की आवश्यकता है.

इस बैठक के अंत में केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केवीके प्रमुखों से काम को पूजा के रूप में स्वीकारते हुए परिणाम उन्मुख हो कर काम करने की बात कही. एक अभिनव पहल के रूप में इस साल 15 जून, 2025 को खरीफ फसल की बोआई से पहले किसानों की जागरुकता के लिए व्यापक जन अभियान चलाए जाने संबंधी प्रस्ताव पर भी विचार किया गया और विभिन्न कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से खरीफ बोआई संबंधित जानकारी देने के लिए सूचना प्रवाह माध्यम से अधिक से अधिक किसानों को जोड़ने संबंधी रूपरेखा पर चर्चा हुई.

कम पानी और कम लागत वाली प्रजातियां हों विकसित

मेरठ : सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. केके सिंह और द जिनोमिक फाउंडेशन, नई दिल्ली के अध्यक्ष प्रो. एनके सिंह ने शोध के क्षेत्र में काम करने के लिए एमओयू पर हस्ताक्षर किए. इस अवसर पर कुलपति प्रो. केके सिंह ने कहा कि जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए विज्ञान को शोध के काम करने होंगे.

उन्होंने आगे कहा कि अब समय आ गया है कि नईनई प्रजातियों को विकसित किया जाए, जिस से कम पानी और कम लागत में किसानों को अच्छी उपज प्राप्त हो सके. हमारा प्रयास है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों को जल्द से जल्द नई प्रजातियां एवं तकनीकियां विकसित कर के दी जाएं, जिस से किसानों को लाभ हो सके.

द जिनोमिक फाउंडेशन के अध्यक्ष डा. एनके सिंह ने कहा कि जिनोम एडिटिंग के द्वारा नई प्रजातियों में जल्द से जल्द सुधार किया जा सकता है. इस क्षेत्र में वह विश्वविद्यालय के साथ मिल कर काम करेंगे, जिस से प्रजातियों को सुधारने और विकसित करने में कम समय लगेगा. वहीं प्रो. आरएस सेंगर ने बताया कि जिनोमिक फाउंडेशन के अध्यक्ष डा. एनके सिंह का धान अनुसंधान के क्षेत्र में और अरहर, आम डालनी फसलों आदि प्रजातियों के सीक्वेंस करने में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योगदान दिया है.

अब इस का लाभ विश्वविद्यालय को भी मिल सकेगा, जिस का सीधा फायदा पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों का होगा. कुलपति प्रो. केके सिंह द्वारा उठाए गए इन कदमों से आने वाले समय में कृषि उत्पादन और अनुसंधान के क्षेत्र में एक नई दिशा मिल सकेगी. इस दौरान कुल सचिव डा. रामजी सिंह निदेशक शोध डा. कमल खिलाड़ी मौजूद रहे.

Sweets: बालूशाही (Balushahi) लाजवाब खस्ता स्वाद

Sweets : बरसात के दिनों में खोए, छेने और दूध से तैयार की गई मिठाइयां जल्द खराब होने लगती हैं, इसलिए इस मौसम में मिठाई के दुकानदार अनाजों से तैयार होने वाली मिठाइयां ज्यादा बनाते हैं. वैसे ये मिठाइयां कीमत में कम होने की वजह से ज्यादा पसंद की जाती हैं. इन का देशी स्वाद भी लोगों को खूब लुभाता है. इन मिठाइयों में एक काफी मशहूर नाम बालूशाही (Balushahi) का है. यह देशी मिठाइयों में सब से ज्यादा पसंद की जाती है.

बालूशाही (Balushahi) को बनाना बेहद आसान है. इसे करीबकरीब हर दुकानदार बनाता है. घरों में भी इसे तैयार किया जाता है. बरसात के त्योहारी मौसम में यह बहुत बिकती है. वैसे यह साल भर बिकती है. अब बडे़ मिठाई वालों ने इसे बहुत आकर्षक बना दिया है. पैकिंग से ले कर इस के साइज में भी बदलाव किया गया है. अलगअलग दुकानों में इस की कीमत अलगअलग होती है. यह 350 रुपए प्रति किलोग्राम से ले कर 600 रुपए प्रति किलोग्राम तक में बिकती है. मेवों और घी से तैयार बालूशाही (Balushahi ) ज्यादा महंगी हो जाती है.

बालूशाही (Balushahi) को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है. मैदे, घी और चीनी से बनी होने के कारण इस की कीमत भी कम होती है. आम लोगों से ले कर खास लोगों तक को बालूशाही बहुत पसंद आती है.

बालूशाही (Balushahi) को बनाना काफी आसान होता है. इसे कोई भी हलवाई बना सकता है. कई दिनों तक खराब न होने के कारण सफर में जाने वाले लोग इसे ले कर जाते हैं. बालूशाही का रसीला स्वाद खाने वालों को दीवाना बना देता है. कुछ बड़ी मिठाई की दुकानें देशी घी वाली बालूशाही बनाती हैं. ये कीमत में थोड़ी ज्यादा भले ही होती हैं, पर मुंह में खुशबू और जायका दोनों को घोल देती हैं.

बनाने की विधि

सब से पहले मैदे में बेकिंग पाउडर, दही और घी डाल कर मिलाया जाता है. कुनकुने पानी की सहायता से इसे नरमनरम आटे की तरह गूंध लिया जाता है. इसे ज्यादा मलने की जरूरत नहीं होती है. सेट होने के लिए तैयार मैदे को रख दें. 20-25 मिनट में यह सेट हो जाता है. बालूशाही बनाने से पहले मैदे को फिर से गूंध लें. फिर मैदे से छोटीछोटी नीबू के आकार की लोइयां बनाएं. लोइयों को अपने दोनों हाथों की मदद से गोलगोल तैयार कर लें. इस के बाद पेड़े की तरह दबा कर गड्ढा सा बना दें. सारे मैदे की इसी तरह बालूशाही बना लें. इन्हें सूती कपड़े से ढक कर एक जगह रखें.

बालूशाही (Balushahi) को तलने के लिए कढ़ाई में जरूरत के हिसाब से घी डाल कर गरम करें. जब घी गरम हो जाए तो बालूशाही हो कढ़ाई में डालें. धीमी और मध्यम आंच का इस्तेमाल करते हुए बालूशाही को ब्राउन होने दें. जब बालूशाही (Balushahi) दोनों तरफ से सही प्रकार से पक जाए तो उन्हें थाली या प्लेट में निकाल लें.

अब 600 ग्राम चीनी में 300 ग्राम पानी मिला कर गरम करते हुए 1 तार की चाशनी बना लें. हलकी गरम इस चाशनी में बालूशाही (Balushahi) डाल दीजिए. 5-7 मिनट तक बालूशाही को चाशनी में पड़ा रहने दें. चिमटे की मदद से 1-1 बालूशाही को बाहर निकाल कर प्लेट में ठंडा होने के लिए रखें. कुछ समय के बाद बालूशाही पर पड़ी चाशनी ठंडी हो कर सूख जाएगी.

बालूशाही (Balushahi) को सजाने के लिए कतरे हुए बादाम, खरबूजे के बीज और चांदी के वर्क का प्रयोग किया जाता है. गरम बालूशाही खाने का मजा अलग ही होता है. वैसे इसे 20 से 25 दिनों तक रखा जा सकता है. इस का स्वाद जल्दी खराब नहीं होता है.

अच्छी बालूशाही (Balushahi) वह होती है, जो ठंडी होने के बाद भी खाने में मजेदार लगे. बालूशाही के अंदर खाने पर कड़ापन नहीं लगना चाहिए. ऐसी बालूशाही बनाने के लिए जरूरी है कि मैदा, बेकिंग पाउडर, दही और घी को सही तरह से मिलाया जाए. बालूशाही को घी में तलने के समय सावधान रहने की जरूरत होती है.

बालूशाही (Balushahi) बनाने की सामग्री

500 ग्राम मैदे से बालूशाही बनाने के लिए 150 ग्राम घी मिलाने की जरूरत होती है और आधा चम्मच बेकिंग पाउडर, आधा कप दही और 600 ग्राम चीनी की भी जरूरत होती है. इस के अलावा बालूशाही को तलने के लिए जरूरत के अनुसार घी चाहिए होता है.

Beekeeping : मधुमक्खीपालन आमदनी बढ़ाने का जरीया

Beekeeping: भारत में कृषि के क्षेत्र में अनेक समस्याएं हैं. कई दफा किसानों को अपनी फसल पैदावार से खेती में लगाई गई लागत भी वापस नहीं मिलती है. ऐसे में कृषि से जुडे़ अनेक सहयोगी काम हैं, जिन्हें किया जा सकता है.

ऐसे ही कामों में से एक काम मधुमक्खीपालन (Beekeeping) है, जिसे अपनाया जा सकता है. जानकारों का मानना है कि मधुमक्खीपालन (Beekeeping) कम खर्च और कम समय में अच्छीखासी आमदनी देने वाला काम है.

इस विषय को ले कर केंद्रीय शुष्क बागबानी संस्थान, बीकानेर, राजस्थान के अध्यक्ष और प्रधान वैज्ञानिक डा. धुरेंद्र सिंह से हमारी बात हुई.

डा. धुरेंद्र सिंह ने बताया कि कृषि से जुडे़ युवा और वे लोग, जो कम लागत में अच्छा रोजगार करना चाहते हैं, उन के लिए मधुमक्खीपालन काफी फायदेमंद कारोबार साबित हो सकता है.

उन्होंने बातचीत में आगे कहा कि लोेगों की बढ़ती इच्छाओं के चलते आज औद्योगीकरण बढ़  रहा है. यातायात वाहन बढ़ रहे हैं, जिस के कारण पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है. प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है. कहीं अधिक बरसात है, तो कहीं सूखे जैसे हालात बन रहे हैं. मौसम का मिजाज बदल रहा है और मानसून चक्र बिगड़ रहा है. इस का असर खेतखलिहानों तक में हो रहा है.

परंपरागत रूप से पैदा होने वाली बागबानी की फसलों का नामोनिशान मिट गया है. कम पानी और बिना रासायनिक खादों से पैदा होने वाली कई फसलें काश्त से बाहर हो चुकी हैं. उन की जगह गन्ना व आलू जैसी फसलें पैदा की जा रही हैं.

इस का नतीजा सब के सामने है. किसान बेहाल हैं. खेती में लगाई लागत भी वापस नहीं मिल पा रही है और किसान औनेपौने दामों में फसलों की पैदावार को बेच रहे हैं या उसे ऐसे ही सड़कों पर फेंक रहे हैं.

ऐसी स्थिति में जरूरी हो जाता है कि आज के दौर में एक ऐसा सहयोगी रोजगार भी करें, जिसे कर के खेती के साथसाथ अतिरिक्त आमदनी भी हो सके.

बागबानी आधारित मधुमक्खीपालन इस इरादे में भरपूर मदद कर सकता है.

पिछले कुछ सालों से अनेक लोगों का रुझान इस की तरफ बढ़ा है. मधुमक्खीपालन एक छोटा व्यवसाय है, जिस से शहद और मोम प्राप्त होते हैं. यह एक ऐसा व्यवसाय है, जो गंवई इलाकों के विकास का पर्याय बनता जा रहा है.

डा. धुरेंद्र सिंह ने बताया कि इस व्यवसाय को यदि बागबानी फसलों के साथ किया जाए, तो 20 से 80 फीसदी तक फसल पैदावार में बढ़ोतरी संभव है. नीबू, किन्नू, आंवला, पपीता, अमरूद, आम, संतरा, मौसमी व अंगूर जैसे बागों में और विभिन्न सब्जियों के साथ भी मधुमक्खीपालन आसानी से किया जा सकता है.

इन तमाम फसलों के साथ मधुमक्खीपालन करने से इन फसलों की पैदावार तो बढे़गी ही, साथ ही साथ शहद का उत्पादन भी अच्छा होगा.

मधुमक्खीपालन के लिए सरकार बढ़ावा दे रही है. इस रोजगार को करने के लिए सरकार अनुदान भी देती है. इस रोजगार को शुरू करने से पहले मधुमक्खीपालन की ट्रेनिंग लेनी होती है. फिर अपना काम आप खुद शुरू कर सकते हैं.

मधुमक्खीपालन करने वाले लोगों की खादी ग्राम उद्योग भी मदद करता है. गांवों के लोग मधुमक्खी का धंधा अपना कर आगे बढ़ रहे हैं.

50 बौक्स से मधुमक्खीपालन की शुरुआत करने के लिए 1 से 2 लोगों की जरूरत पड़ती है. मधुमक्खीपालन के लिए दिसंबर से मार्च यानी 4 महीने का समय सब से अच्छा होता है.

बाकी महीनों में समयसमय पर मौसम के हिसाब से हम कई इलाकों में जा कर अपने मौन बौक्सों को लगाते हैं, इसलिए यह काम हमेशा रोजगार देने वाला है.

हां, जब कभी फूलों का मौसम न हो, तो मधुमक्खियों को पालने के लिए चीनी का इस्तेमाल करना पड़ता है, जिस पर बहुत मामूली खर्च होता है.

वैज्ञानिक तरीके से करें मधुमक्खीपालन

वैज्ञानिक ढंग से मधुमक्खीपालन करने के लिए मधुमक्खियों को आधुनिक ढंग से लकड़ी के बने हुए बौक्सों, जिन्हें आधुनिक मधुमक्षिकागृह या मौन बौक्स कहा जाता है, में पाला जाता है.

इस तरह से मधुमक्खियों को पालने से अंडे और बच्चे वाले छत्तों को नुकसान नहीं पहुंचता. शहद अलगअलग छत्तों में भरा जाता है और उसे बिना छत्तों को काटे मशीन द्वारा आसानी से निकाल लिया जाता है. शहद निकालने के बाद इन खाली छत्तों को वापस बक्सों में रख दिया जाता है, ताकि मधुमक्खियां इन पर बैठ कर फिर से मधु इकट्ठा करना शुरू कर दें.

जरूरी सामान

मधुमक्खियों के लिए लकड़ी का बौक्स, बौक्सफ्रेम, मुंह पर ढकने के लिए जालीदार कवर, दस्ताने, चाकू, शहद रिमूविंग मशीन व शहद इकट्ठा करने के लिए ड्रम वगैरह की जरूरत होती हैं. ये चीजें आसानी से मिल जाती हैं. वैसे तो आप जहां मधुमक्खीपालन की ट्रेनिंग ले रहे हैं, वहां से भी सामान खरीद सकते हैं.

सावधानियां

जहां मधुमक्खियां पाली जाएं, उस के आसपास की जमीन साफसुथरी होनी चाहिए. बड़े चींटे, मोमभझी कीड़े, छिपकली, चूहे, गिरगिट और भालू मधुमक्खियों के दुश्मन हैं, इन से बचाव के पूरे इंतजाम होने चाहिए.

कहां मिलेगा ज्यादा मुनाफा

फूलों की खेती के साथ मधुमक्खीपालन ज्यादा फायदेमंद साबित होता है. सूरजमुखी, गाजर, मिर्च, सोयाबीन, पापीलेनटिल्स ग्रैम, फलदार पेड़ (जैसे नीबू, किन्नू, आंवला, पपीता, अमरूद, आम, संतरा, मौसमी, अंगूर), यूकेलिप्टस और गुलमोहर जैसे पेड़ों वाले क्षेत्रों में मधुमक्खीपालन आसानी से किया जा सकता है.

शहद के अलावा भी मिलती हैं चीजें

मधुमक्खियों से शहद के अलावा मोम भी हासिल किया जाता है, उस से भी मुनाफा होता है. इस के अलावा मधुमक्खीपालन से पोलन सुपरफूड भी हासिल किया जा सकता है, जिस का आयुर्वेदिक दवाओं में इस्तेमाल किया जाता है.

क्या है पोलन सुपरफूड

मधुमक्खियां जब फूलों का रस चूसने जाती हैं, तब उन के पैरों में परागकण चिपक जाते हैं. ये परागकण एक फूल से दूसरे फूल में जाते रहते हैं.

इस प्रक्रिया के साथसाथ पैरों से चिपकी रज के साथ मधुमक्खी अपने निवास स्थान पर पहुंचती है, तब वह एक विशेष प्रकार की प्लेट से हो कर गुजरती है. इस से रज एक पात्र में जमा हो जाते हैं, इसे ही पोलन सुपरफूड कहते हैं.

मधुमक्खीपालन के लिए सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकों से लोन सुविधा मुहैया कराई है. इस की ज्यादा जानकारी के लिए आप अपने क्षेत्र के उद्यान विभाग से भी संपर्क कर सकते हैं. मधुमक्खीपालन की ट्रेनिंग के लिए खास पढ़ाईलिखाई की जरूरत नहीं होती. कम पढ़ालिखा व्यक्ति भी, जो इस व्यवसाय में दिलचस्पी रखता हो, प्रशिक्षण हासिल कर के अपना काम शुरू कर सकता है. कुछ मधुमक्खीपालन करने वाले फ्री में भी ट्रेनिंग देते हैं, क्योंकि इस से उन्हें भी फायदा होता है.

Beekeeping

मधुमक्खी के डंक से अब बन रही है दवा

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राणी विज्ञान विभाग में पैरासिटालाजी प्रयोगशाला विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक प्रो. संदीप कुमार मल्होत्रा का कहना है कि मधुमक्खी के डंक में मिलने वाले विष यानी जहर से अब दवा भी बनाई जा रही है, जिस की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 10000 रुपए प्रति ग्राम है.

उन्होंने बताया कि विष निकालने के लिए अब तक मधुमक्खियों को मारना पड़ता था. मरे हुए कीटों का डंक निकाला जाता था. लेकिन विभाग में तैयार यह विशेष वेनम एक्सट्रैक्टर मधुमक्खियों को बिना मारे ही विष निकाल कर जमा कर लेगा. इस नए यंत्र की सहायता से मधुमक्खियों को बिना नुकसान पहुंचाए विष निकाला जाता है. एक्सट्रैक्टर को सामान्य रूप से पाली जाने वाली मधुमक्खियों के बक्से के सामने लकड़ी के बक्सों के विशेष फ्रेम में रखा जाता है.

इस फ्रेम के किनारे कटी नाली में फिट बैठने वाले एक छोटे फ्रेम पर लगी कौपर की तार का सर्किट लगाया जाता है, जिस से विद्युत करंट एक छोर से दूसरे छोर की ओर प्रवाहित होता है. इस तार वाले फ्रेम के भीतरी किनारे पर कटी एक और नाली में फिट बैठता समुचित मोटाई का एक शीशा लगा होता है. मधुमक्खी जैसे ही विद्युत करंट वाले तारों के जाल में उलझती है, तो हलका करंट लगते ही वह शीशे पर डंक मार देती है. इसी डंक लगे स्थान पर लार को सूख जाने पर तेजधार ब्लेड से खुरच कर निकाला जाता है.

वे आगे बताते हैं कि मधुमक्खी का विष दर्जनों औषधियों में इस्तेमाल होता है, इस के अलावा इस से कई तरह की क्रीम और इंजेक्शन बनाए जाते हैं. इन का इस्तेमाल तंत्रिका से संबंधित बीमारियों, विभिन्न बीमारियों के दर्द, एलर्जी, दिल के रोग, कैंसर, त्वचा रोग, पीठ के दर्द, थकान वगैरह मिटाने में किया जाता है.

यह विष इनसान के प्रतिरक्षा तंत्र को भी बढ़ाता है, जिस से शरीर में बीमारियों से लड़ने की कूवत बढ़ती है. यह विष कई प्रकार के एंजाइम बनाने में मददगार है, जो मानव शरीर में बहुत जरूरी होते हैं.

भारत सरकार ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की इस परियोजना को पेटेंट कर दिया है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राणी विभाग की परजीवी प्रयोगशाला में बने इस ‘हनी बी वेनम एक्सट्रैक्टर’ को विभाग के इतिहास में प्रथम पेटेंट माना जा रहा है.

Prevention of Weeds : सब्जियों में खरपतवारों की रोकथाम

Prevention of Weeds : अन्य फसलों के मुकाबले सब्जियों की खेती में खरपतवारों की समस्या ज्यादा होती है, क्योंकि इन्हें अन्य फसलों की तुलना में ज्यादा दूरी पर लगाते हैं, जिस से खरपतवारों की बढ़वार के लिए सही माहौल मिल जाता है.

सब्जियों की फसलों को ज्यादा खादपानी की जरूरत होती है, जिस से खरपतवारों की बढ़ोतरी हो जाती है. इसी तरह सब्जियों में कम मात्रा में पर थोड़े समय बाद ही सिंचाई की जरूरत होती है, जिस से खरपतवारों के बीज आसानी से अंकुरित हो जाते हैं. अमूमन सब्जी के पौधों की बढ़वार धीरे होती है, जबकि खरपतवार तेजी से पनपते हैं. सब्जियों की खेती में किसान ज्यादा मात्रा में सड़ी गोबर की खाद का इस्तेमाल करते हैं. इस से भी खरपतवारों को बढ़ने का मौका मिलता है.

खरपतवारों की खासीयतें

* ये कुदरती रूप से स्थायी होते हैं.

* इन में दोबारा से पनपने की बहुत ज्यादा कूवत होती है.

* इन में खराब हालात में भी जिंदा रहने की कूवत पाई जाती है.

* इन में फूल, फल व बीज जल्दी और ज्यादा संख्या में बनते हैं.

* इन के बीज खराब हालात में भी काफी लंबे समय तक स्वस्थ हालत में जमीन में पड़े रहते हैं.

* ये लाखों की तादाद में बीज पैदा करते हैं.

* खरपतवार बीजों के अलावा अपने अन्य भागों से भी बढ़ोत्तरी करते हैं, जैसे दूब घास तने से, हिरनखुरी जड़ों से और कांस प्रकंदों द्वारा बढ़ती रहती है.

* कुछ खरपतवारों की जड़ें काफी गहरी जाती हैं और वे अपने राइजमों में काफी समय तक के लिए भोजन जमा कर लेती हैं.

* इन के बीजों की बनावट, रंग व आकार कई फसलों के समान होता है, जैसे प्याज व जंगली प्याज, सरसों व सत्यानाशी के बीज आकारप्रकार में काफी मिलतेजुलते हैं.

* प्रतिकूल हालात जैसे कम नमी में, बंजर जमीन में, कीटों व रोगों के आक्रमण के बावजूद ये सब्जियों की फसलों के मुकाबले अच्छी बढ़ोतरी करते हैं.

* इन के बीज खराब हालात में भी अंकुरण की कूवत रखते हैं.

खरपतवारों से होने वाले नुकसान

* खरपतवार पानी, हवा, धूप और जगह के लिए सब्जियों की फसलों के पौधों से मुकाबला करते हैं और बढ़वार को प्रभावित करते हैं.

* जमीन में मौजूद पोषक तत्त्वों व डाले गए उर्वरकों को खरपतवार ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, जिस से मुख्य फसल पोषक तत्त्वों का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाती है.

* खरपतवारों को काबू करने के लिए ज्यादा मजदूर, नए यंत्रों व रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है. ये न केवल उत्पादन लागत बढ़ाते हैं, बल्कि उत्पाद को भी प्रदूषित करते हैं.

* रासायनिक दवाओं के इस्तेमाल से उत्पाद की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

* खरपतवार हानिकारक कीटों को सहारा देते हैं, जिस से फसलों में बीमारियों व कीटों का हमला बढ़ जाता है और उत्पादन में कमी आती है.

* खरपतवारों वाली जमीन की कीमत घट जाती है.

* खरपतवार इनसानों की सेहत पर खराब असर डालते हैं.

* खरपतवारों में बड़े व ज्यादा संख्या में पत्ते निकलते हैं, जो सब्जियों के पौधों की धूप रोक लेते हैं, जिस से पौधों में प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होता है.

खरपतवारों की रोकथाम : यदि फसल में उगने वाले खरपतवारों की समय से रोकथाम नहीं की जाए, तो सारी पूंजी व मेहनत बेकार चली जाती है. लिहाजा खरपतवारों को समय पर नष्ट करते रहना चाहिए. निम्न तरीकों से खरपतवारों की रोकथाम की जा सकती है:

* शुद्ध बीजों का इस्तेमाल करें.

* सड़ी खाद का इस्तेमाल करें.

* खरपतवारों से प्रभावित क्षेत्रों में चरने वाले जानवरों को बगैर खरपतवार वाली फसल के?क्षेत्र में जाने से रोकना चाहिए.

* खरपतवारों से प्रभावित क्षेत्र की मिट्टी या बालू का इस्तेमाल न करें.

* सिंचाई की नालियों को खरपतवारों से बचा कर रखें.

* खेत की मेंड़ों को भी खरपतवारों से बचा कर रखें.

* खेतों में खरपतवारों से प्रतियोगिता करने वाली फसलें उगाएं.

* तेजी से बढ़ोतरी करने वाली किस्मों को लगाएं ताकि खरपतवारों की बढ़वार को रोका जा सके.

* कम बढ़ोतरी करने वाली सब्जियों के पौधों को आसपास लगाएं और बीजों की मात्रा प्रति एकड़ बढ़ा कर इस्तेमाल करें.

* साफसुथरे बीज बोएं, जिन में खरपतवारों के बीज न हों. फसलचक्र अपनाएं ताकि खरपतवारों को उगने में कठिनाई हो.

खरपतवारों की रोकथाम की जैविक विधि : प्राकृतिक शत्रुओं को प्रयोग में लाएं ताकि वे फसल के पौधों को नुकसान न पहुंचाएं. इस विधि में अमूमन कीटों का इस्तेमाल किया जाता है, जो खरपतवारों के फूलों, फलों व बीजों को खाते हैं और फसलों को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.

खरपतवारों की रोकथाम की रासायनिक विधि : खरपतवारों की बढ़ोतरी को रोकने व उन को खत्म करने के लिए आजकल रसायनों का इस्तेमाल काफी किया जाता है. न केवल फसल लगाने से पहले, बल्कि खड़ी फसल में भी इन का इस्तेमाल किया जाता है.

वैसे सब्जियों में रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल कम पैमाने पर करना चाहिए, क्योंकि यह सेहत के लिए घातक हो सकता है. खरपतवारों की रोकथाम की रासायनिक विधि अपनाने में निम्न बातों का खयाल रखें:

* दवा की बताई गई मात्रा का ही इस्तेमाल करना चाहिए.

* दवा का इस्तेमाल करने से पहले बोतल या डब्बे पर लिखे निर्देश को अच्छी तरह पढ़ लेना चाहिए.

* रसायनों के इस्तेमाल से पहले और बाद में छिड़काव यंत्र को अच्छी तरह धो कर साफ कर लेना चाहिए.

* रसायनों को आसपास के इलाकों में बह कर जाने से रोकना चाहिए.

* छिड़काव यंत्र के टैंक की तली में रसायन के घोल को बैठने से रोकने के लिए उसे बराबर हिलाते रहना चाहिए.

* किसी इनसान पर रसायन पड़ने की हालत में फौरन डाक्टर से संपर्क करना चाहिए.

* रसायनों का इस्तेमाल करते समय नाक व मुंह को अच्छी तरह ढक लेना चाहिए.

* रसायन का इस्तेमाल हवा की दिशा में व नोजल के जरीए करना चाहिए.

* रसायनों का इस्तेमाल सुबह या शाम के समय करना चाहिए.

* मिट्टी में इस्तेमाल होने वाले रसायनों को छिड़कने के बाद उस मिट्टी पर चलना नहीं चाहिए.

Prevention of Weeds

कुछ अन्य तरीके

हाथ से खरपतवार उखाड़ना : यह विधि बेहद आम है. इस से छोटे क्षेत्र में खरपतवारों की रोकथाम की जा सकती है. इस से ऐसे खरपतवारों को भी निकाला जाता है, जो कृषि यंत्रों की पहुंच से बाहर हों.

हैंड हो : लाइनों में लगाई गई सब्जियों में इस का इस्तेमाल प्रभावी ढंग से किया जा सकता है.

जुताई : पौधों को खेत में लगाने से पहले 2 या 3 बार खेत की गहरी जुताई कर के खरपतवारों की बढ़वार को काबू किया जा सकता है.

कटाई: खरपतवारों में बीज बनने से पहले या फूल आने की अवस्था में इस विधि का इस्तेमाल किया जा सकता है, ताकि खरपतवारों की संख्या को अगले मौसम में काबू किया जा सके.

जलमग्नता : पड़ती या खाली खेतों में पानी भर कर बहुवर्षीय खरपतवारों को रोका जा सकता है.

जलाना : बीजों या पौधों को लगाने से पहले खेतों में उगे खरपतवारों को जला कर नष्ट किया जाता है.

मल्चिंग का इस्तेमाल : ज्यादा दूरी पर लगाई जाने वाली सब्जियों में मल्च बिछा कर खरपतवारों को काबू किया जा सकता है.

कृषि विधि : इस विधि में ऐसे हालात पैदा किए जाते हैं, जिन से फसल के पौधे खरपतवारों की बढ़वार को दबाए रखें. इस के तहत निम्न तरीके अपनाए जाते हैं:

* सही फसलों का चयन.

* अच्छी बीज शैया बनाना.

* सही फसलचक्र का इस्तेमाल.

* गरमी में खेत को परती रखना.

* सब्जियों की ऐसी किस्मों का इस्तेमाल करें, जो ज्यादा बढ़वार व फैलाव के कारण खरपतवारों को ढक लें.

* फसल की तेज बढ़वार के लिए सही समय पर रोपाई का काम करना चाहिए.

कुछ अन्य खास बातें

* फसल उगने से पहले 2-3 बार खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए. हो सके तो मिट्टी पलटने वाले हल से भी 1 बार जुताई करें.

* साफसुथरे बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए, जिन में खरतपवारों के बीज न हों.

* गरमियों में खेतों की गहरी जुताई व साधारण जुताई करने से पहले खरपतवारों को जला देना चाहिए.

* अगेती किस्मों को उगाना चाहिए ताकि खरपतवारों को उगने का मौका न मिल सके.

* तेजी से बढ़वार करने वाली किस्मों का इस्तेमाल करना चाहिए.

* उर्वरकों का इस्तेमाल पौधों की जड़ों के पास ही करना चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा पोषक तत्त्व पौधों को मिल सकें.

* खरपतवारों की रोकथाम के लिए रसायनों का इस्तेमाल हालात को देखते हुए करें और सही समय पर ही करें, जिस से ज्यादा से ज्यादा लाभ हो सके.

* कार्बनिक मल्च (पलवार) का इस्तेमाल करें. आजकल काली पौलीथीन मल्च का भी इस्तेमाल खरपतवारों की रोकथाम के लिए किया जा रहा है.

Machines: किसान ने बनाई मल्टीपरपज ग्रेडिंग मशीन

Machine :    भरपूर मेहनत से उगाई गई फसल के भाव गुणवत्ता में थोड़ी सी गिरावट के चलते जब कम मिलने लगे, तो इब्राहीम अली जैसे मेहनतकश किसान ने अपने किसान साथियों को इस तकलीफ से नजात दिलाने के लिए ग्रेडिंग मशीन तैयार कर डाली.

राजस्थान के सिरोही जिले के काछौली गांव के सौंफ उत्पादक किसान द्वारा तैयार की गई यह मशीन (Machine) अरंडी जैसे बड़े बीजों से ले कर सौंफ जैसे छोटे और महीन बीजों तक की ग्रेडिंग करती है. गेहूं उत्पादक किसान इस मशीन से 1 ही बार में 3 श्रेणियों में गेहूं छांट कर अलग कर सकते हैं.

इब्राहीम अली ने इस मशीन को बहुद्देश्यीय बनाया है. इस मशीन के स्टैंड के नीचे पहिए होने के कारण इसे आसानी से इधरउधर खिसकाया जा सकता है. मशीन को लंबाई में इस तरह सैट किया गया है कि मिश्रित बीजों को 1 ही बार में 3 ग्रेडों में बांटा जा सकता है. ऊपर जहां से बीज डाला जाता है, वहां ‘गीयर गेज’ लगा हुआ है, जिसे जरूरत के हिसाब से एडजस्ट कर के डाले गए माल (जैसे अरंडी, गेहूं, सौंफ) के आकार के मुताबिक गैप छोटाबड़ा कर सकते हैं.

Machine

मशीन के साइड में भी हवा की मात्रा बढ़ाने के लिए ढक्कन लगा है. इस की मदद से अंदर किसी तरह से फंसे माल को हटाया या निकाला जा सकता है. मशीन के निचले हिस्से पर घिरनी, मोटर, बिजली या ट्रैक्टर की सहायता से चलने वाला फैनबेल्ट युक्त पंखा लगा होता है, जिसे किसी भी साइज के बीजों की ग्रेडिंग करने के लिए एडजस्ट किया जा सकता है. इसी के नीचे से होते हुए ढालू छलनीदार नाली होती है, जिस में से रेत, मिट्टी वगैरह के कण छनते हुए गिर जाते हैं और भारी व अच्छी गुणवत्ता के बीज सीधे ही बोरियों में भरे जा सकते हैं.

मशीन के दूसरे निचले हिस्से में पंखे की हवा से हलके व निम्न गुणवत्ता के बीज जमा हो जाते हैं, जिन्हें निकासी से बाहर निकाल लिया जाता है.

Indian Sweets : स्वाद से भरपूर राजस्थानी घेवर (Ghevar)

Indian Sweets : लाजवाब घेवर कभी राजस्थान के जयपुर और जोधपुर जैसे शहरों में ही बिकता था. राजस्थान के बाद यह दिल्ली के मिठाई बाजार में छा गया. दिल्ली और राजस्थान के बाद घेवर मुंबई, लखनऊ और आगरा सहित कई बाजारों में छा गया है. घेवर की सब से ज्यादा खपत जून से ले कर सितंबर तक होती है. इस दौरान यह रक्षाबंधन और दूसरे त्योहारों में खूब बिकता है. आज के समय में घेवर हर शहर की मिठाई की दुकानों में मिलने लगा है. यह छोटे और बडे़ हर आकार में मिलता है. इस की कीमत तोल के हिसाब से तय होती है. यह 300 रुपए से ले कर600 रुपए प्रति किलोग्राम तक में बिकता है. यह कई तरह के स्वाद वाला भी होता है.

जून से ले कर सितंबर के बीच इसे बना कर बेचना दुकानदारों के लिए बेहतर होता है. जुलाई से सितंबर के बीच इस की खपत बढ़ने से कई बार यह दुकानों पर कम पड़ जाता है. इस की लागत और बिक्री के बीच का अंतर काफी ज्यादा होता है, जिस से इसे बेचने में काफी मुनाफा होता है. दुकानदार कहते हैं कि घेवर में 20 से 30 फीसदी का मुनाफा हो जाता है.

लखनऊ में मधुरिमा स्वीट्स के हर्षल गुप्ता कहते हैं, ‘राजस्थानी घेवर मैदे से बनने वाली मिठाई है. यह देखने में मधुमक्खी के छत्ते जैसी लगती है. अब घेवर कई तरह से बनने लगा है. सादे घेवर के अलावा पनीर घेवर, केसरिया घेवर व मलाई घेवर भी बनने लगे हैं. घेवर का स्पंजी, क्रिस्प और मिठासभरा स्वाद लोगों को लुभाने लगा है. त्योहारों में लोग अपने नातेरिश्तेदारों को घेवर उपहार में देने लगे हैं. अब कोरियर से भी इसे भेजनेकी सुविधा है.

तरहतरह के घेवर

ट्रेडीशनल मिठाइयों को बनाने में खास चीजों का इस्तेमाल किया जाता है, जिस से वे स्वादिष्ठ बनती हैं. घेवर को बनाने के लिए कोयले की भट्ठी और लोहांडे का इस्तेमाल किया जाता है. लोहांडे घेवर बनाने की एक खास किस्म की कढ़ाई होती है. इस में बहुत ही कम आंच पर घेवर तैयार किया जाता है. घेवर बनाने के लिए मैदा, चीनी, दूध और देशी घी का इस्तेमाल किया जाता है. इस के अलावा पनीर घेवर, केसरिया घेवर व मलाई घेवर को तैयार करने के लिए पनीर, केसर और मलाई का इस्तेमाल किया जाता है.

घेवर को उपहार में देने के लिए उस की खास पैकिंग गोलगोल डब्बों में की जाती है. घेवर के लिए खास डब्बे तैयार किए जाते हैं. हम घेवर कहीं भी भेज सकते हैं. सादा घेवर 15 दिनों तक चल जाता है, इसलिए कोरियर से इसे भेजा जा सकता है. पनीर और मलाई घेवर को 24 घंटे के अंदर इस्तेमाल कर लेना चाहिए, इसी वजह से इन्हें कोरियर से भेजना मुश्किल हो जाता है.

ऐसे तैयार करें घेवर

सामग्री : 3 कप मैदा, 3-4 आइस क्यूब, आधा कप दूध, चौथाई चम्मच पीला रंग, 1 किलोग्राम घी, आधा कप चीनी, 1 कप पानी और सजाने के लिए 1 चम्मच इलायची पाउडर, 100 ग्राम बादाम पिसा हुआ, 4 चम्मच पिस्ता, आधा चम्मच दूध में भीगा हुआ केसर व सिल्वर वाइल.

बनाने की विधि: घेवर बनाने के लिए चीनी और पानी मिला कर उस का सीरप तैयार करें. फिर एक बड़े कटोरे में मैदा लें. उस में थोड़ा सा घी, दूध और आइसक्यूब डाल कर चिकना घोल बना लें. थोड़े पानी में पीला रंग डाल कर मैदे में मिलाएं. घेवर बनाने के लिए एक खास आकार के बरतन की जरूरत होती है. यह लोहे या स्टील का हो सकता है. इस बरतन का आकार सिलेंडर जैसा होता है. यह करीब 12 इंच ऊंचा और 5 इंच चौड़ा होता है. इस बरतन के आधे हिस्से तक घी डालें और उसे गरम करें. जब घी गरम हो जाए तो उस में करीब 50 मिलीलीटर मैदे वाला तैयार घोल डालें. इस के बीच में छेद बना लें.

घोल डालने के बाद थोड़ा समय लगता है. इस के बाद यह नीचे बैठ जाता है. फिर से गिलास भर कर घोल डालें. इसे पकने दें. मध्यम आंच में पक कर यह भूरा दिखने लगेगा. अब लोहे की कलछुल को घेवर के बीच वाले हिस्से में डाल कर बाहर निकाल लें. बचा हुआ घी बाहर निकल जाने दें. अब इस में चीनी का सीरप डाल दें. बचा हुआ सीरप निकल जाएगा. घेवर के ठंडा होने पर उस में केसर वाला दूध डालें. बादाम, पिस्ता और इलायची का पाउडर डाल कर इसे सजाएं. ऊपर से सिल्वर वाइल लगा दें. अब यह खाने के लिए तैयार है. पनीर, मलाई और दूसरी किस्मों का घेवर तैयार करते समय इन चीजों का इस्तेमाल किया जाता है.

Farmers Problems :किसानों की समस्याएं और उन के समाधान

Farmers Problems : भारत में किसानों की समस्याएं मौजूदा दौर का बड़ा मुद्दा हैं. उन्हें राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है, ताकि राजनीतिक दल किसानों की सहानुभूति हासिल क सकें. एक बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि किसानों की ये समस्याएं आज की नहीं, बल्कि काफी पुरानी हैं. अब सवाल यह है कि इन समस्याओं से किसानों को कैसे निकाला जाए? इस के लिए निम्न बिंदुओं पर गौर करना जरूरी है:

छोटी जोत

देश में छोटे किसानों की संख्या 80 फीसदी से ज्यादा है और वे खेती से सिर्फ अपना गुजरबसर कर पा रहे हैं, इतनी छोटी जोत पर वे उन्नत बीज, खाद, दवा, उपकरण आदि का खर्च वहन नहीं कर सकते और अगर करते भी हैं, तो कर्ज ले कर. यह कर्ज चुकाने में वे असमर्थ हो जाते हैं, तब आत्महत्या के अलावा उन के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता.

अब किसान भी सोचते हैं कि उन के बच्चे भी अच्छे स्कूलों में शिक्षा पा सकें और उन की बेटियों की शादियां भी धूमधाम से हो सकें, पर यह सब खेती से संभव नहीं है. तब वे कर्ज ले कर बच्चों को पढ़ाते हैं व बेटियों की शादियां करते हैं और कर्ज में डूब जाते हैं.

समाधान

तो अब सवाल यह उठता है कि इस का समाधान क्या है या फिर किसानों को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दिया जाए. हालात यह कहते हैं कि इन छोटी जोत वाले किसानों की करीब 20 फीसदी आबादी को खेती से दूसरे कामों में शिफ्ट कर दिया जाए. यह रातोंरात संभव नहीं, बल्कि दीर्घकालिक योजना के तहत किया जाए. मगर सवाल यह भी उठता है कि इतनी बड़ी आबादी को कौन सेक्टर समाहित करेगा, तो वह है सिर्फ और सिर्फ मैन्यूफैक्चरिंग उद्योग और यह काम सरकार को युद्ध स्तर पर करना होगा. जब हमारे किसानों को बेहतर अवसर मिलेंगे तो वे खेती छोड़ कर उन उद्योगों में बेहतर जिंदगी गुजार सकेंगे. बाकी बचे हुए किसान इन के खेतों को ले कर बड़ी जोत के साथ अच्छा लाभ हासिल कर सकेंगे.

सरकारी वजहें

उन्नत बीज : उन्नत बीजों को खरीदने के लिए सरकारी सब्सिडी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के तहत सीधे किसानों के खाते में दी जाए. अब यह योजना शुरू हो चुकी है. मतलब किसानों के खातों में सब्सिडी की रकम जा रही है. उन्नत किस्म के बीजों की उपलब्धता भी एक बुनियादी सवाल है, जिस की जिम्मेदारी नजदीकी शोध संस्थान जैसे कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विश्वविद्यालय या दूसरे संस्थानों को देनी होगी. साथ ही साथ कोई निगरानी संस्था भी हो जो यह जांच करे कि उस क्षेत्र की जरूरत के मुताबिक संस्थान बीज मुहैया करा पा रहे हैं या नहीं या फिर गुणवत्ता कैसी है.

खाद/उर्वरक : जब हम सब्सिडी की बात करते हैं, तो वह सिर्फ उर्वरकों तक ही सीमित होती है, जिस ने खेती की सेहत पर उलटा असर डाला है. किसानों ने सस्ती यूरिया के चक्कर में जैविक खादों का इस्तेमाल तकरीबन शून्य कर दिया है. अगर उर्वरकों की तरह सरकार जैविक खादों पर सब्सिडी सीधे किसानों को दे तो इन का चलन जोर पकड़ेगा और उर्वरकों का इस्तेमाल कम होगा. अगर किसानों को गोबर की खाद पर सब्सिडी मिले तो वे इस का इस्तेमाल बढ़ाएंगे, साथ ही साथ पशुपालन पर भी ध्यान लगाएंगे.

आधुनिक मशीनें : मशीनों पर तो सरकार पहले से ही सब्सिडी दे रही है, इसे आगे और भी बढ़ा दे तो बेहतर रहेगा, क्योंकि मनरेगा जैसी योजनाओं के कारण खेती के लिए मजदूर मिलना मुकिश्ल हो गया है.

Farmers Problems

ढांचागत बदलाव : आज खेती के साथ ही साथ ढांचागत बदलाव की भारी जरूरत है. आज अपने देश में किसान अगर अनाज व सब्जियों की ज्यादा पैदावार कर देते हैं, तो उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं होता. अकसर ही सरकारी एजेंसी किसानों के दबाव में आ कर अनाज ज्यादा खरीद लेती हैं, नतीजतन खुले में ही स्टोरेज करना पड़ता है, क्योंकि उन के पास सही गोदामों का अभाव है.

इसी तरह सब्जियों के मामले में 40 फीसदी सब्जियां सड़ जाती हैं, क्योंकि कोल्ड स्टोरेज का अभाव है. यह अभाव या तो सरकारी ढांचे में निवेश कर के या फिर कंपनियों को प्रोत्साहन दे कर दूर किया जा सकता है, जैसे बनने वाले गोदामों या फिर कोल्ड स्टोरेज की रकम पर कम से कम 5 सालों तक लगने वाले बैंक का ब्याज सरकार सब्सिडी के रूप में चुकाए और इन गोदामों व कोल्डस्टोरेजों की आमदनी कम से कम 5 सालों तक टैक्स फ्री हो. ऐसा करने पर सिर्फ 3 सालों के अंदर ही गोदामों व कोल्डस्टोरेजों की संख्या में काफी बढ़ोतरी होगी वह भी बिना सरकारी खर्च के. तब किसानों की आमदनी बढ़ने के साथ ही साथ इन ढांचों में लाखों की तादाद में रोजगार भी पैदा होंगे.

कानूनी/बाजारगत बदलाव : आज के दौर में किसानों की सब से बड़ी समस्या अगर कोई है, तो वह बाजार की ही है. किसान बहुत मेहनत के साथ अच्छी तकनीक उपना कर उत्पादन बढ़ा लेते हैं, तो बिचौलिए फसल को कौडि़यों के भाव खरीद लेते हैं और किसान मजबूर हो कर बेचने के लिए बाध्य हो जाते हैं.

महंगाई का आधार : महंगाई से लड़ाई या उसे कम करने के लिए हमेशा से किसानों की बलि दी जाती रही है. जब भी किसी सब्जी, दाल या अनाज के दाम बढ़ जाते हैं, तो पूरे देश में मीडिया के जरीए बड़ा रोना शुरू किया जाता है. ऐसा लगता है कि पूरा देश इन चीजों के बिना भूखा सो रहा है. जब इन्हीं चीजों के दाम 50 पैसे प्रति किलोग्राम हो जाते हैं, तो कोई भी किसानों से नहीं पूछता कि उन के घर में चूल्हा कैसे जल रहा होगा. अब वक्त आ गया है, जब दूसरे तबके भी इस महंगाई को कुछ ढोएं, सिर्फ किसान ही नहीं. जब उद्योग अपने माल के रेट बढ़ाते हैं, तो तर्क देते हैं कि उन की लागत बढ़ गई है, तो किसानों को भी लागत के मुताबिक रेट बढ़ाने के अधिकार मिलने ही चाहिए.

Medicinal Plant : खूबियों से भरपूर औषधीय पौधा सतावर (Asparagus)

Medicinal Plant: सतावर (Asparagus) लिलिएसी कुल का पौधा है, जिस का अंगरेजी नाम एस्परगस और वानस्पतिक नाम एस्परगस रेसीमोसम (वनीय) है. सतावर की खेती भारत के उष्ण कटिबंधी व उपोष्ण क्षेत्र में सफलतापूर्वक की जाती है.

सतावर (Asparagus) एक औषधीय पौधा (Medicinal Plant) है, जिस का इस्तेमाल होम्योपैथिक दवाओं में किया जाता है. भारत में तमाम दवाओं को बनाने के लिए हर साल 500 टन सतावर की जड़ों की जरूरत पड़ती है.

बोआई के लिए कैसी हो मिट्टी : इस फसल के लिए लैटेराइट, लाल दोमट मिट्टी जिस में सही जल निकासी सुविधा हो, मुफीद होती है.

20-30 सेंटीमीटर गहराई वाली मिट्टी में इसे आसानी से उगाया जा सकता है.

जलवायु : यह फसल विभिन्न कृषि मौसमों व हालात के तहत उग सकती है. इसे मामूली पर्वतीय क्षेत्रों और पश्चिमी घाट के मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है. यह सूखे के साथसाथ कम तापमान सह लेती है.

सतावर की प्रजातियां : सतावर की 2 ही किस्में होती हैं. पीली जड़ वाली सतावर और सफेद जड़ वाली सतावर.

सफेद जड़ वाली सतावर का उत्पादन ज्यादा होता है, मगर 1 किलोग्राम जड़ से महज 80 से 100 ग्राम चूर्ण हासिल होता है, जबकि पीली जड़ वाली सतावर का उत्पादन सफेद जड़ वाली सतावर से कम होता है, मगर 1 किलोग्राम जड़ से करीब 150 ग्राम चूर्ण हासिल होता है. सतावर की एक नामित विकसित की गई किस्म सिम शक्ति है, जिसे अधिक उत्पादन के लिए उगाया जा रहा है. इस की जड़ें हलकी पीले रंग की होती हैं.

खाद व उर्वरक : सतावर की फसल को प्रति हेक्टेयर 20 टन गोबर की सड़ी खाद की जरूरत होती है. 1 हेक्टेयर के लिए करीब 25000 पौधों की जरूरत होती है. मौजूदा समय में सतावर की फसल को ज्यादातर जैविक रूप में ही उगाया जा रहा है.

रोपाई : सतावर को जड़चूषकों या बीजों द्वारा ही लगाया जाता है. व्यावसायिक खेती के लिए बीजों की बजाय जड़चूषकों का ही इस्तेमाल किया जाता है.

सतावर लगाए जाने वाले खेत की मिट्टी को 15 सैंटीमीटर की गहराई तक अच्छी तरह खोदा जाता है और अपनी सुविधा के अनुसार खेत को क्यारियों में बांट दिया जाता है.

सतावर के अच्छी तरह विकसित जड़चूषकों को लाइनों में रोपा जाता है.

सिंचाई : पौधों की रोपाई के तुरंत बाद खेत की सिंचाई की जाती है. इसे 1 महीने तक नियमित रूप से 4-6 दिनों के अंतराल पर पानी दिया जाता है. इस के बाद 6 से 8 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जाती है.

पौधों को सहारा देना : सतावर की फसल लता वाली होने के कारण इस की सही बढ़वार के लिए इसे सहारे की जरूरत होती है. इस के लिए 4 से 6 फुट लंबी लकड़ी की स्टिक का इस्तेमाल किया जाता है.

खरपतवारों की रोकथाम : सतावर के पौधों की बढ़वार के शुरुआती समय के दौरान नियमित रूप से खरपतवार निकालने चाहिए.

खरपतवार निकालते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बढ़ने वाले पौधे को किसी तरह का नुकसान न पहुंचे. फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए करीब 6 से 8 बार हाथ या हैंड हो से खरपतवार निकालने की जरूरत होती है.

Medicinal Plants

पौध सुरक्षा : सतावर की फसल में कोई भी गंभीर नाशीजीव और रोग देखने में नहीं आया है. यानी सतावर की फसल रोग व कीट मुक्त होती है.

कटाई, प्रसंस्करण व उपज : रोपाई के 12 से 14 महीने बाद इस की जड़ें परिपक्व होने लगती हैं यानी पूरी तरह तैयार हो जाती हैं. 1 पौधे से ताजी जड़ों की करीब 500 से 600 ग्राम पैदावार हासिल की जा सकती है. वैसे प्रति हेक्टेयर क्षेत्र से 12000 से 14000 किलोग्राम ताजी जड़ें हासिल की जा सकती हैं, जो सूखने के बाद करीब 1000 से 1200 किलोग्राम रह जाती हैं.

सतावर के औषधीय इस्तेमाल

* सतावर की जड़ों का इस्तेमाल मुख्य रूप से ग्लैक्टागोज के लिए किया जाता है, जो स्तनों के दूध के स्राव को उत्तेजित करता है.

* इस का इस्तेमाल शरीर के कम होते वजन में सुधार के लिए किया जाता है और इसे कामोत्तेजक के रूप में भी जाना जाता है.

* इस की जड़ों का इस्तेमाल दस्त, क्षय रोग व मधुमेह के इलाज में भी किया जाता है.

* सामान्य तौर पर इसे स्वस्थ रहने और रोगों से बचाव के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

* इसे कमजोर शरीर प्रणाली में बेहतर शक्ति प्रदान करने वाला पाया गया है.