जैविक खेती में गोबर की खाद (Cow Dung Manure) है खास

सुगंधित धान और जैविक खेती के जरीए अपनी आय में इजाफा करने वाले किसान राममूर्ति मिश्र को खेती में उन के योगदान के लिए साल 2021 में भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान भारत सरकार द्वारा नवाचारी कृषक अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है. वे जैविक खेती के अपने अनुभवों को दूसरे किसानों में भी बांटने का काम कर रहे हैं. वे अकसर जिले के बाहर के किसानों को जैविक खेती का प्रशिक्षण देने जाते रहते हैं.

लोगों की यह शिकायत रहती है कि जैविक खेती के चलते अकसर उत्पादन घट जाता है, लेकिन राम मूर्ति मिश्र का कहना है कि जैविक खेती के दिशानिर्देशों का पालन करना जरूरी है तभी किसान जैविक खेती के जरीए अधिक उत्पादन ले पाने में सक्षम हो सकते हैं.

जैविक खेती में गोबर की खाद का सब से ज्यादा उपयोग किया जाता है. ऐसे में किसान गुणवत्तापूर्ण गोबर की खाद कैसे बनाएं और उस का खेती में क्या लाभ है, इस विषय पर राममूर्ति मिश्र से विस्तार से बातचीत की गई. पेश हैं, उन से हुई बातचीत के खास अंश :

खेती में गोबर की खाद मिट्टी की उत्पादन कूवत को कैसे बढ़ाती है?

भूमि में लाभकारी जीवों का मुख्य भोजन कार्बनिक पदार्थ होता है जो गोबर की खाद में उच्च अनुपात में पाया जाता है. गोबर की खाद से अल्प मात्रा में नाइट्रोजन सीधे पौधों को प्राप्त होता है और बड़ी मात्रा में खाद सड़ने के साथसाथ लंबी अवधि तक उपलब्ध होता रहता है.

फास्फोरस और पोटाश अकार्बनिक स्रोतों की भांति गोबर की खाद में औसतन प्रति टन 5-6 किलोग्राम नाइट्रोजन, 1.2-2 किलोग्राम फास्फोरस और 5-6 किलोग्राम पोटाश पाया जाता है.

हालांकि, गोबर की खाद भारत में एक आम जैविक खाद है पर किसान इस के बनाने की वैज्ञनिक विधि और कुशलतापूर्वक इस के उपयोग पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं, जबकि गोबर की सड़ी हुई खाद मिट्टी के भौतिक, जैविक व रासायनिक गुणों में सुधार कर उर्वरता बढ़ाती है. गोबर की खाद नाइट्रोजन व पोषक तत्त्वों का प्राकृतिक स्रोत होती है. यह मिट्टी में ह्यूमस और धीमी गति से रिलीज होने वाले पोषक तत्त्वों में बढ़ोतरी करती है, साथ ही भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ा कर पोषक तत्त्वों को बनाए रखने में मदद करती है. गोबर की सड़ी हुई खाद लाभकारी जीवाणुओं की संख्या बढ़ाती है.

गोबर की शुद्ध और गुणवत्तायुक्त खाद का निर्माण किसान कैसे करें?

वैसे तो देश के अधिकांश पशुपालकों द्वारा गोबर का एक बडा भाग उपले बनाने में प्रयोग किया जाता है, जबकि इस का उपयोग जैविक खाद बना कर फसल में जैव उर्वरक के रूप में किया जा सकता है. इस के अलावा पशुओं के लिए बिछी मिट्टी में मूत्र नष्ट हो जाता है, जबकि इस का उपयोग गोबर की खाद बनाने में किया जा सकता है. अकसर पशुपालक गोबर को सड़क किनारे या घरों के पास ढेर लगा कर खाद बनाने का करते हैं, जिस से धूप व वर्षा के कारण पोषक तत्त्वों का ह्रास हो जाता है, साथ ही पर्यावरण भी दूषित होता है.

इस लिए पशुपालक किसान गुणवत्तापूर्ण गोबर की खाद तैयार करने के लिए ऐसे उंचे स्थल का चयन करें जहां वर्षा का पानी एकत्र नहीं होता है. इसी के साथ गोबर की खाद बनाने के लिए तेज धूप व वर्षा से बचाने हेतु छायादार स्थान व छत की भी आवश्यकता होती है. इस विधि में 2 मीटर चौड़ा और 1 मीटर गहरा व सुविधानुसार लंबाई का गड्ढा खोदा जाता है. गड्ढे की गहराई एक तरफ 3 फुट और दूसरी तरफ साढ़े 3 फुट होनी चाहिए. वर्षा जल के भराव को रोकने के लिए गड्ढे के चारों तरफ मेंड़ बनाई जाती है. प्रत्येक किसान के पास 2-3 गड्ढे होने चाहिए जिस से क्रम चलता रहे.

पशुओं के गोबर को एकत्र करते समय सावधानी बरतनी चाहिए कि पशुओं का मूत्र नष्ट न होने पाए. इस के लिए पशुओं के नीचे खराब भूसा, बेकार चारा या फसलों के अवशेषों को फैला दिया जाता है, जो पशु मूत्र को सोख लेते हैं. इस के लिए धान की पुआल एवं गन्ने की पत्तियां, बाजरे का बबूला आदि उपयुक्त रहते हैं. फसल अवशेषों द्वारा मूत्र सोख लेने से कार्बन और नाइट्रोजन का अनुपात कम हो जाता है और अवशेष जल्दी सड़ जाता है. पक्के फर्श की स्थिति में एक तरफ ढाल बना कर गड्ढे में मूत्र को एकत्र किया जा सकता है. गढ्ढे में भरने के लिए पशुओं के गोबर को उन के मूत्र से भीगे बिछावन में मिला कर परत दर परत भरते हैं.

गोबर खाद के निर्माण के लिए पशुपालक गड्ढों की भराई कैसे करें?

किसानों द्वारा गोबर की खाद को कम गहरी तरफ से गढ्ढा भरना शुरू करना चाहिए. गड्ढे को मूत्र में भीगा बिछावन एवं गोबर की परतों से क्रमवार भरना चाहिए. इसी क्रम में गड्ढा भरते समय भूमि के स्तर से लगभग डेढ़ फुट उंचाई तक ढेर लगा सकते हैं. अंत में उस के उपर 2 इंच मोटी मिट्टी की परत बिछा देनी चाहिए. ऐसा करने से पोषक तत्त्वों का ह्रास नहीं होगा और खरपतवारों के बीज अच्छी तरह सड़ जाएंगें. गड्ढा भरते समय फसल अवषेष में नमी पर्याप्त होनी चाहिए.

किसान गोबर की तैयार खाद उपयोग खेती में कैसे लाएं?

किसान जब भी गोबर की खाद प्रयोग करें तो यह जरूर ध्यान रखें कि उपयोग के समय खेत में पर्याप्त नमी जरुर हो. किसान कभी भी गोबर की तैयार खाद को अपने खेत में ढेरी लगा कर न छोड़ें. उन्हें चाहिए कि फसल बोआई के 15-20 दिन पूर्व खाद को समान रूप से बिखेर कर नमी की दशा में मिट्टी में मिला दें. इस बात का ध्यान जरूर रखें कि खेत या फसल में बिना सड़ी खाद का प्रयोग कदापि न करें, क्योंकि बिना सड़ी खाद के उपयोग से दीमक का प्रकोप बढ़ जाता है.

गोबर की तैयार खाद को सामान्य फसलों में 2 से 5 टन/हेक्टेयर की दर से एवं सब्जी व गन्ने में 5-10 टन/हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए. गोबर की खाद के साथ सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग करना उत्तम रहता है.

प्राकृतिक खेती (Natural farming) है जैविक खेती से अलग

भिंड : कृषि विज्ञान केंद्र, लहार, भिंड द्वारा भिंड जिले में ग्राम मगदपुरा में 2 दिवसीय प्राकृतिक खेती पर प्रशिक्षण हुआ. कृषि विज्ञान केंद्र के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख डा. एसपी सिंह के निर्देशन में कार्यक्रम कराया गया, जिस में डा. एसपी सिंह ने बताया कि प्राकृतिक खेती जैविक खेती से भिन्न है, क्योकि जैविक खेती में खादों एवं जैविक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है, जबकि प्राकृतिक खेती में प्रकृति प्रदत्त उत्पादों एवं साधनों का उपयोग किया जाता है. इस में उत्पादन को प्रकृति की शक्ति माना जाता है और कृषि कर्षण क्रियाएं कम से कम की जाती है.

इसी कम में प्राकृतिक खेती के नोडल अधिकारी डा. बीपीएस रघुवंशी ने बताया कि इस पद्धति में रासायनिक खाद, गोबर खाद, जैविक खाद, केंचुआ खाद एवं जहरीले कीटनाशक, रासायनिक खरपतवारनाशक, रासायनिक फफूंदनाशक नहीं डालना है, केवल एक देशी गाय की सहायता से इस खेती को कर सकते है. किसानों की पैदावार का आधा हिस्सा उन के उर्वरक, खाद, कीट एवं रोगनाशकों में चला जाता है. यदि किसान खेती में अधिक मुनाफा या फायदा कमाना चाहता है, तो उसे प्राकृतिक खेती की तरफ आना चाहिए.
उन्होंने प्राकृतिक खेती के उत्पाद जीवामृत, बीजामृत, घनजीवामृत के बारे में विस्तार से चर्चा की. उन्होंने बताया कि बीजामृत से बीजोपचारित करने से बीजों की अंकुरण क्षमता एवं अंकुरण फीसदी बढ़ती है, बीजों में एकसमान अंकुरण, फंगस एवं वायरस को रोकता है. वहीं जीवामृत गाय के गोबर, गोमूत्र, गुड़, बेसन एवं पीपल एवं बरगद के पेड़ के नीचे की मिट्टी से बनाते हैं. यह जीवामृत जब सिंचाई के साथ खेत में प्रयोग किया जाता है, तो भूमि जीवाणुओं की संख्या तीव्र गति से बढ़ती है एवं भूमि के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में सुधार होता है.

इसी क्रम में केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक उद्यानिकी डा. कर्णवीर सिंह ने मल्चिंग के बारे में बताया कि इस में जुताई के स्थान पर फसल के अवशेषों को भूमि पर आच्छादित कर दिया जाता है.
कृषि वैज्ञानिक डा. एनएस भदौरिया ने बताया कि ब्रहारवा अग्निस्त्र और नीमास्त्र के बारे में बताया. डा. रूपेंद्र कुमार और डा. सुनील शाक्य ने अपने विषय से संबंधित किसानों से चर्चा किया. कार्यक्रम में पूर्व अध्यक्ष खनिज विकास निगम कोक सिंह नरवरिया ने भी चर्चा किया. किसानों के यहां जीवामृत, बीजामृत आदि उत्पाद को बना कर बताया.

पौधों में डालें ये खाद फसल नहीं होगी खराब

सर्दी का मौसम सब से ज्यादा मुश्किल भरा होता है. इस मौसम में पौधों की बढ़वार धीमी हो जाती है, इसलिए उन्हें अधिक पोषण की जरूरत होती है. ऐसे में पौधों को सही खाद देना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है.

पौधों को सर्दियों में मजबूत और स्वस्थ बनाए रखने के लिए कुछ खास तरह की खादें दी जाती हैं. ये खादें घर पर भी बनाई जा सकती हैं.

इस के लिए आप चाय की पत्ती, अंडे के छिलके, सब्जी और फलों के छिलके आदि का खाद बनाने में प्रयोग कर सकते हैं. कंपोस्ट बनाने के लिए आप एक गड्ढा खोद सकते हैं या किसी बरतन में भी. पौधों को खाद देने से पहले मिट्टी को अच्छी तरह से ढीला कर लें, फिर खाद को मिट्टी में मिला दें.

खाद को पौधे की जड़ों के पास न डालें. खाद देने के बाद मिट्टी को अच्छी तरह से पानी दें. पौधों को खाद देने का सब से अच्छा समय सुबह या शाम का होता है. जब मौसम ठंडा हो, तब खाद देनी चाहिए.

डीएपी खाद एक प्राकृतिक खाद है, जो पौधों को पोटैशियम, नाइट्रोजन और फास्फोरस देती है. यह खाद पौधों की बढ़वार में बहुत अच्छी है. डीएपी खाद पौधों को सर्दियों में देने से वे स्वस्थ और मजबूत होते हैं.

कंपोस्ट खाद एक कार्बनिक खाद है, जो पौधों को सभी पोषक तत्त्व देती है. यह खाद पौधों के आसपास की मिट्टी भी उपजाऊ बनाती है. कंपोस्ट खाद सर्दियों में पौधों को मजबूत और स्वस्थ बनाती है.

गोबर खाद एक प्राकृतिक खाद है, जो पौधों के आसपास की मिट्टी को भी उपजाऊ बनाती है. गोबर खाद सर्दियों में पौधों को स्वस्थ और मजबूत बनाती है.

मस्टर्ड केक खाद एक प्राकृतिक खाद है, जो पौधों को पोटैशियम, नाइट्रोजन और फास्फोरस देती है. पौधों की प्रतिरक्षा प्रणाली भी इस खाद से मजबूत होती है. सर्दियों में यह खाद देने से पौधे ठंड से बचते हैं और अच्छी तरह से विकसित होते हैं.

सर्दियों के समय पौधों में डालने के लिए वर्मी कंपोस्ट बहुत अच्छी खाद है. आप इस खाद को सभी प्रकार के पौधों में इस्तेमाल कर सकते हैं. हालांकि, फूलों, फलों और सब्जियों वाले पौधों के लिए यह खाद अधिक फायदेमंद है.

वर्मी कंपोस्ट, मिट्टीरहित माध्यम जैसे कोकोपिट आदि में उगाए जाने वाले पौधों के लिए भी अच्छी मानी जाती है. यह पौधों को अतिरिक्त पोषक तत्त्व देती है. इस के अलावा वर्मी कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल करने से मिट्टी की संरचना में भी सुधार होता है.

वर्मी कंपोस्ट का उपयोग नए पौधों को लगाने के दौरान पौटिंग मिक्स बनाने के लिए किया जाता है. वर्मी कंपोस्ट खाद का प्रयोग पौधों की बढ़वार अवस्था में भी किया जाता है. पौधे की बढ़वार अवस्था के दौरान हर 2-3 महीने में एक गमले में एक मुट्ठी वर्मी कंपोस्ट डाली जा सकती है.

सर्दियों में पौधों की बढ़वार के लिए एप्सम साल्ट एक सब से अच्छा उर्वरक है. इस का इस्तेमाल तकरीबन सभी प्रकार के पौधों में कर सकते हैं. एप्सम साल्ट का प्रयोग पौटिंग मिक्स बनाने के दौरान और पौधे की बढ़वार अवस्था में किया जा सकता है. पौधे की बढ़वार अवस्था के दौरान महीने में 1-2 बार 1 लिटर पानी में 1 चम्मच एप्सम साल्ट मिला कर पौधों की जड़ों में डाल दें या इस पानी का दिन के समय पौधों पर छिड़काव करें.

अगर सर्दी में होम गार्डन में लगी सब्जियों और फूलों वाले पौधे नहीं बढ़ रहे हैं या फिर उन में फूल और फल नहीं आ रहे हैं, तो इस के लिए किसान मस्टर्ड केक खाद का उपयोग पौधों में कर सकते हैं. यह उर्वरक पौधों की ग्रोथ को बढ़ाता है और साथ ही पौधों को कीड़ों और बीमारी से भी बचाता है.

पौधों में इस फर्टिलाइजर का इस्तेमाल घोल बना कर किया जाता है. सौल्यूशन बनाने के लिए मिट्टी के बरतन में थोड़ी मात्रा में मस्टर्ड केक खाद ले कर उस में 1 लिटर पानी डालें और फिर उसे कुछ समय के लिए ढक कर रख दें. इस के बाद इस घोल को कपड़े की मदद से अच्छे से छान लें. छानने के बाद तकरीबन 50 मिलीलिटर मस्टर्ड केक घोल को 1 लिटर पानी में मिलाएं और फिर उसे पौधों में डालें.

सर्दी के मौसम में पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए लकड़ी की राख, एक बैस्ट खाद का काम करती है. इस में पोटैशियम, कैल्शियम, फास्फोरस, मैंगनीज और जस्ता जैसे उपयोगी पोषक तत्त्व पाए जाते हैं. लकड़ी की राख का गार्डन में अनेक उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयोग किया जाता है: जैसे कि यह मिट्टी के पीएच स्तर को बढ़ा देती है, स्लग और घोंघे जैसे कीटों को गार्डन से दूर रखती है और पौधों को जरूरी पोषक तत्त्व प्रदान कर के पौधों की ग्रोथ को बढ़ाती है.

होम गार्डन में लकड़ी की राख का उपयोग करने का सब से अच्छा तरीका यह है कि इसे पौधों की मिट्टी के ऊपर फैला (टौप ड्रैसिंग) दिया जाए. सभी पौधों पर लकड़ी की राख का उपयोग न करें, केवल वे पौधे, जिन्हें पोटैशियम पोषक तत्त्व की जरूरत हो या मिट्टी के पीएच लैवल को बढ़ाना हो, तभी इस का प्रयोग थोड़ी मात्रा में करें.

केला खाने के बाद जो छिलका बचता है, उस का उपयोग जैविक खाद बनाने में किया जा सकता है. सर्दी के मौसम में यह खाद पौधों के लिए बहुत ही फायदेमंद होती है. इस में पोटैशियम, मैग्नीशियम और फास्फोरस पोषक तत्व की भरपूर मात्रा पाई जाती है.

केले के छिलकों को फर्टिलाइजर के रूप में इस्तेमाल करने के लिए सब से पहले एक बरतन लें और उस में 3-4 छिलकों को डाल कर पानी भर दें. कुछ (4-5) दिनों के बाद केले के छिलकों को पानी में से निकाल कर अलग कर दें और पानी को पौधों में फर्टिलाइजर के रूप में इस्तेमाल करें.

जैविक खेती (Organic farming) की जरूरत और अहमियत

कृषि में वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित फसल चक्रों का अपनाना फसल के अवशेष व कृषि प्रक्षेपण के अलावा पैदा होने वाले कूड़ेकचरे की बनी खाद, गोबर की खाद और हरी खाद का इस्तेमाल करना, दलहनी फसलों को उगाना, कीट, बीमारियों व खरपतवार का नियंत्रण शस्य क्रियाओं और जैविक विधि द्वारा करना, रोग व कीटरोधी प्रजातियों को उगाना, जीवाणुओं व दूसरे पादप स्रोतों से प्रमुख व सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की पूर्ति करना, ग्रीष्मकालीन जुताई करना आदि शामिल हैं. यह कृषि पद्धति सरल, सस्ती व प्रदूषण निवारक है.

यह सच है कि हरित क्रांति से अनाजों की पैदावार में आशातीत वृद्धि हुई है, लेकिन रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशी रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से अनेक पर्यावरणीय समस्या पैदा हो गई है. कीटनाशी व खरपतवारनाशी दवाओं (रसायन) के प्रयोग से न केवल फसल उत्पादन की लागत में बढ़ोतरी हुई है,  बल्कि इन के प्रयोग से अनाज, तिलहन, सब्जियां, फल आदि जहरीले होते चले जा रहे हैं, जिस से हमारी खाद्य सुरक्षा व भूमि की उत्पादन क्षमता के टिकाऊपन को खतरा पहुंच गया है.

इन सब रसायनों का निर्माण भूमिगत पैट्रो रसायन की मदद से किया जाता है, जिन का तेजी से दोहन हो रहा है. इस के कारण इन के निकट भविष्य में खत्म होने का डर है. जैविक खादों व फसल सुरक्षा की जैविक दवाओं के इस्तेमाल से ऐसी समस्याओं से बचा जा सकता है और कृषि उत्पादन लागत में भारी कमी लाई जा सकती है.

यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि विश्व के अनेक विकसित देशों में जैविक खेती का प्रचलन बढ़ता जा रहा है और जैविक विधि द्वारा तैयार खाद्य उत्पादों का 30 से 40 फीसदी ज्यादा कीमत पर अलग दुकानों से विपणन किया जा रहा है.

जैविक खेती के दूरगामी लाभ

* इस पद्धति से खेती करने से भूमि में जीवांश की पर्याप्त मात्रा बनी रहती है.

* भूमि में जैविक गतिविधियां बढ़ जाती हैं, जिस से पेड़पौधों की वृद्धि तीव्र गति से होती है.

* फसल चक्र में दलहनी फसलें, हरी खाद व अंतरशस्य फसलों के समावेश को प्रोत्साहन मिलता है, जिस से भूमि की उर्वरता में टिकाऊपन रहता है.

* भूमि में केंचुओं की ज्यादा से ज्यादा संख्या में वृद्धि होती है, जो फसल अवशेष को जैविक खाद में बदलने में मदद करते हैं.

* प्रक्षेत्र व बाग के चारों तरफ वायुरोधक वृक्षों के रोपण को प्रोत्साहन मिलता है, जिस से बाग व फसल की सुरक्षा तो होती ही है, बल्कि पर्यावरण शुद्ध होता है. इस के अलावा कीमती लकड़ी प्राप्त होती है. वायु व जल द्वारा क्षरण रोकने के लिए शस्य क्रियाओं के अपनाने को प्रोत्साहन मिलता है, जिस से भूसंरक्षण होता है.

जैविक खेती (Organic farming)

जैविक खेती की विधि

रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को कम करने का एकमात्र विकल्प गांव में ज्यादा से ज्यादा संख्या में पशुपालन करना और उन से प्राप्त गोबर को खाद के रूप में प्रयोग करना है. इस के अलावा कूड़ाकचरा, फसल के अवशेष, खरपतवार, मिट्टी व पानी को बायोडायनामिक विधि द्वारा खाद बना कर इस्तेमाल करने से भी रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कम किया जा सकता है.

कंपोस्ट बनाना

यह अंदाजा लगाया गया है कि देश में 60-70 टन कृषि से उत्पन्न अवशेष हर साल उपलब्ध होता है. लेकिन इस का शायद ही 10 फीसदी भाग जैविक खाद के बनाने के काम में लाया जाता है. अगर कृषि से पैदा संपूर्ण अवशेष को जैविक खाद में बदल दिया जाए, तो देश की 70 फीसदी वर्षा पर आधारित कृषि में बाहर से रासायनिक उर्वरकों की जरूरत नहीं पड़ेगी. इस के साथ ही साथ इस से प्रदूषण की समस्या का भी निदान हो सकेगा.

मक्का (Maize) की जैविक खेती

अपने पोषण के लिए मक्का (Maize) भूमि से बहुत ज्यादा तत्त्व लेती है. जैविक खेती के लिए खेत में जीवाणुओं के लिए खास हालात का होना बहुत जरूरी है. मुख्य फसल से पहले दाल वाली फसल या हरी खाद जैसे ढैंचा, मूंग आदि लेनी चाहिए और बाद में इन फसलों को खेत में अच्छी तरह मिला दें.

खेत तैयार करने के लिए 12 सैंटीमीटर से 15 सैंटीमीटर गहराई तक खूब जुताई करें, ताकि सतह के जीवांश, पहली फसल के अवशेष, पत्तियां आदि और हरी खाद कंपोस्ट नीचे दब जाएं.

इस के लिए मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करनी चाहिए. इस के बाद 4 जुताई कर के 2 बार सुहागा लगाना चाहिए. ऐसा करने से उस में घासफूस नष्ट हो जाते हैं और मिट्टी भुरभुरी हो जाती?है. आखिरी जुताई से पहले खेत में 100 किलोग्राम घन जीवामृत खाद डालें व अच्छी तरह से मिला दें.

बीज की मात्रा व बिजाई का तरीका

समतल भूमि पर बिजाई के बजाय मेंड़ों पर बिजाई करना फायदेमंद रहता है. मेंड़ों पर बिजाई करने से फसल का सर्दी से बचाव रहता?है व अंकुरण भी जल्दी होता है.

मेंड़ पूर्व से पश्चिम दिशा में बनाएं. बीज मेंड़ पर दक्षिण दिशा की ओर 5-6 सैंटीमीटर गहरा बोएं और समतल बिजाई में 3-4 सैंटीमीटर गहरा बोएं. ऐसा करने से जमाव ज्यादा और जल्दी होगा. आमतौर पर साधारण मक्का व उच्च गुणवत्ता मक्का के लिए 8 किलोग्राम, शिशु मक्का के लिए 12 किलोग्राम व मधु मक्का के लिए 3-5 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ काफी होता है. बिजाई के लिए प्लांटर का इस्तेमाल करना चाहिए.

बीजोपचार

जैविक प्रबंधन में केवल समस्याग्रस्त क्षेत्रों/अवस्था में बचाव के उपाय किए जाते हैं. रोगरहित बीज व प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग सब से बढि़या विकल्प हैं. बीजजनित रोगों से बचाव के लिए बीजामृत से बीजोपचार बहुत जरूरी हैं. शाम को 8 किलोग्राम बीज को किसी ड्रम में लें या तिरपाल पर बिछा कर उस में 800 मिलीलिटर बीजामृत मिलाएं. बीज को हथेलियों के बीच लें व अच्छी तरह दबा कर उपचारित करें. रातभर सूखने दें व सुबह बिजाई करें.

अगर बीजामृत न हो तो, ट्राइकोडर्मा विरीडी 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या स्यूडोमोनास 100 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज व जैव उर्वरक राइजोबियम/एजोटोबैक्टर/ पीएसबी से बीज उपचार कर सकते हैं.

बिरला करना

बैड प्लांटर से बीज की मात्रा ज्यादा होने से पौधों की संख्या सिफारिश की गई संख्या से ज्यादा हो सकती है, तो बिजाई के 15 दिन बाद गैरजरूरी पौधों को निकाल दें, ताकि पौधों की आपसी दूरी 20 सैंटीमीटर रह जाए.

बीजामृत उपचार  के फायदे

* बीज जल्दी व ज्यादा मात्रा में उगते हैं.

* बीजों की जड़ें शीघ्रता से बढ़ती हैं, जो पौधे के जल्दी जमने में मददगार होती?हैं. ऐसे पौधे जल्दी बढ़ते हैं.

* भूमिजनित रोगों का पौधों पर प्रकोप कम होता है. जीवामृत में मौजूद गोबर फफूंदीनाशक व गौमूत्र जंतुरोधक का काम करते हैं, जिस से बीज की सतह पर फफूंदी व दूसरे रोगाणुओं के बीजांडय कोश नष्ट हो जाते है. इस वजह से मक्का के बीज का अंकुरण बढ़ जाता है.

खाद

खेत में घन जीवामृत को आखिरी जुताई पर खेत में पूरी तरह मिलाएं. जैविक खेती के लिए देशी गाय की 100 किलोग्राम प्रति एकड़ अच्छी तरह से गलीसड़ी खाद लें व उसे समान रूप से जामन के रूप में 100 किलोग्राम जीवामृत अच्छी तरह मिलाएं. इसे 7 दिनों तक छाया में रखें व रोजाना फावड़े से अच्छी तरह मिलाएं.

बिजाई करते समय खेत में पिछली फसल के अवशेष शामिल करें. खेत तैयार करने से पूर्व हरी खाद के लिए ढैंचा की बिजाई करें व गुंफावस्था आने पर इसे खेत में ही मिला दें. इस से खेत की उर्वरता बढ़ती है.

जीवामृत का इस्तेमाल

200 लिटर जीवामृत प्रति एकड़ के हिसाब से सिंचाई पानी के साथ कीजिए. इस से मक्का फसल में खाद की पूर्ति होगी. जीवामृत वाले ड्रम में कटऔफ नोजल लगाएं. ड्रम को नाके पर रख नोजल से जीवामृत के वेग को इस तरह सैट करें कि इस की पूरी मात्रा सिंचाई के पानी के साथ पूरे खेत में चली जाएं.

हर सिंचाई के साथ जीवामृत का प्रयोग करें. खरीफकालीन मक्का में जीवामृत के केवल दो छिड़काव होंगे. पहला छिड़काव बिजाई के 21 दिन बाद 5 फीसदी घोल से व दूसरा 42 दिन बाद 7.5 फीसदी घोल से.

जीवामृत के 5 फीसदी घोल बनाने के लिए 5 लिटर जीवामृत को 100 लिटर पानी में मिलाएं व 7.5 फीसदी घोल के लिए 10 लिटर जीवामृत को 150 लिटर पानी में मिलाएं.

शरदकालीन मक्का की अवधि लंबी होने के चलते इस में जीवामृत के 4 छिड़काव होंगे. पहले 2 छिड़काव तो खरीफ मक्का की तरह ही होंगे. तीसरा व चौथा छिड़काव 10 फीसदी घोल से बिजाई के 93 व 114 दिन बाद करें, जिसे बनाने के लिए 20 लिटर जीवामृत को तकरीबन 200 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें.

Maizeखरपतवार पर नियंत्रण

अगर खेत से घासफूस न निकाला जाए, तो पैदावार में 50 फीसदी या इस से भी ज्यादा की कमी हो सकती है. घासफूस को चारा लेने की दृष्टि से भी खेत में खरपतवार न उगने दिया जाए. इन्हें कल्टीवेटर, ह्वील हैंड या खुरपे द्वारा निराई कर के या लाइनों के बीच में डाल कर कंट्रोल किया जा सकता है.

फसल के सूखे अवशेषों से मल्चिंग

उत्तरी भारत में धान की पराली एक बहुत ज्यादा गंभीर समस्या है. नासमझी के चलते किसान इन्हें जला देते हैं. इन्हें काट कर दोबारा भूमि में डालने से खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है.

फसल अवशेषों द्वारा मल्चिंग करने से न केवल पोषक तत्त्वों की पूर्ति होती है, बल्कि यह नमी संरक्षण के अतिरिक्त भूमि की उर्वराशक्ति व जैविक कार्बन को भी बढ़ाते हैं.

फसलों की कटाई व दाने निकालने के बाद बचे हुए अवशेषों को काट कर अगर मक्का फसल की लाइनों के बीच मल्चिंग की जाए, तो वे इस सूक्ष्म जलवायु को बनाने में बहुत कारगर सिद्ध होते हैं. इस के अलावा मल्चिंग के लिए किसी भी फसल के अवशेषों का इस्तेमाल किया जा सकता है.

मिट्टी चढ़ाना

यह काम फसल को खाद की दूसरी मात्रा डालने के बाद करना चाहिए.

सिंचाई और जल निकास

मक्का की अच्छी पैदावार लेने के लिए उसे समय पर पानी देना चाहिए. यह आमतौर पर पौधावस्था, फूल आने, दूधिया अवस्था व गुंफावस्था में करनी चाहिए.

शरदकालीन मक्का में सिंचाई 20-25 दिन के अंतराल पर करें, ताकि फसल को सर्दी व पाले से बचाया जा सके.

खूंड़ों में पानी केवल आधी डोल तक ही भरें. अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में, जहां जल के निकास का ठीक इतंजाम न हो, वहां नालियों से सिंचाई करनी चाहिए. इस से पानी की बचत तो होती ही है, साथ ही मानसून से ज्यादा वर्षा के चलते पानी खड़ा रहने पर भी फसल को नुकसान नहीं होता है.

केंचुआ खाद (Vermicompost) : उत्तम जैविक खाद

केंचुआ खाद (Vermicompost) अन्य विधियों से तैयार की जाने वाली जैविक खादों जैसे गोबर की खाद, नाडेप कंपोस्ट आदि की तुलना में 2-3 गुना अधिक नत्रजन, फास्फोरस व पोटैशियम और दूसरे पोषक तत्त्व प्रदान करती है. यह खाद ठंडी है, बल्कि गोबर की खाद, मींगनी की खाद, बींठ की खाद गरम खाद होती है.

केंचुआ खाद तैयार करने के लिए आवश्यक सामग्री

सामान्यतया सूखे चारे के टुकड़े, पेड़ों की पत्तियां, गोबर, मिट्टी व पानी आदि सामग्री की आवश्यकता होती है. केंचुए की कई प्रजातियों द्वारा ये खाद तैयार की जाती है, परंतु आईसीनिया फोईटिडा प्रजाति अधिक उपयोगी है, क्योंकि इस की गुणन क्षमता अधिक है, जिस से खाद जल्दी (45-50 दिन) में तैयार हो जाती है.

केंचुआ खाद तैयार करने का आसान तरीका

इस खाद को तैयार करने के लिए किसी विशेष वातावरण व स्थान की जरूरत नहीं होती है, बल्कि किसी भी किसान के द्वारा घर के पास या खेत में आसानी से तैयार की जा सकती है. सब से पहले ऐसे छायादार स्थान का चयन करें, जिस में जल भराव न होता हो.

* खाद तैयार करने के लिए छाया के नीचे 3 फुट चौड़ाई, 1.5-2 फुट ऊंचाई व 6-8 फुट लंबाई वाली क्यारी बनाई जाती है. ये क्यारियां पक्की बना सकते हैं और आजकल बाजार में प्लास्टिक की बनी क्यारियां भी उपलब्ध हैं.

* तैयार क्यारी में लगभग 9 इंच मोटाई में फसल अवशेष, पेड़ों की पत्तियां व अन्य अपशिष्ट पदार्थ डालते हैं. इस पर ताजा गोबर की एक परत डाली जाती है. इस के बाद पानी का छिड़काव किया जाता है.

* प्रति क्यारी 5-10 किलोग्राम केंचुए छोड़ दिए जाते हैं.

* केंचुए छोड़ने के बाद क्यारी को टाट की बोरी या पत्तों से अच्छी तरह से ढक दिया जाता है.

* क्यारी में नमी बनाए रखने के लिए पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए.

Vermicompost

* केंचुए फसल अवशेष व गोबर को खा कर मल ऊपरी सतह पर त्यागते हैं. लगभग एक महीने बाद इस क्यारी में खाद चायपत्ती के समान दिखाई देने लगती है.

* खाद एकत्र करने से 2-3 दिन पहले पानी का छिड़काव बंद कर देना चाहिए. जैसे ही पानी देना बंद कर देते हैं, तो केंचुए नीचे की सतह में चले जाते हैं और ऊपर की खाद को निकाल लिया जाता है.

* अंत में शेष रही 15-20 फीसदी मात्रा को क्यारी को दोबारा भरते समय काम में लिया जाता है. इस तरह यह चक्र लगातार चलता रहता है. हर 45 दिन बाद तैयार खाद निकाल कर क्यारियां दोबारा भर देते हैं.

केंचुआ खाद के लाभ

* पौधों व फसलों को मुख्य पोषक तत्त्वों के साथसाथ गौण पोषक तत्त्व भी उपलब्ध करवाती है.

* भूमि की उर्वरा क्षमता को लंबे समय तक बनाए रखती है और भौतिक दशा सुधारती है.

* सस्ती व आसानी से यह खाद तैयार की जा सकती है.

* विभिन्न फसलों में 25-40 फीसदी उपज में बढ़ोतरी करती है.

सावधानियां

* क्यारी का फर्श पक्का या कठोर होना चाहिए, जिस से केंचुए जमीन में न जा पाएं.

* गोबर 15-20 दिन पुराना काम में लेना चाहिए.

* फसल अवशेष, पेड़ों के पत्ते व अन्य जैविक पदार्थ में प्लास्टिक और कैमिकल नहीं होना चाहिए.

* 30-40 फीसदी नमी और 15-25 डिगरी सैल्सियस तापमान बनाए रखना चाहिए.

* फसलों में 5 टन प्रति हेक्टेयर, सब्जियों में 7-10 टन प्रति हेक्टेयर यह खाद उपयोग करें.

मिट्टी के लिए सेहतमंद हरी खाद

मिट्टी की उर्वरकता व उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है. बिना सड़ेगले हरे पौधे (दलहनी या अदलहनी या फिर उन के भाग) को जब मिट्टी की नाइट्रोजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिए खेत में दबाया जाता है, तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं.

सघन कृषि पद्धति के विकास और नकदी फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चित ही कमी आई है, लेकिन बढ़ते ऊर्जा उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि और गोबर की खाद व अन्य कंपोस्ट जैसे कार्बनिक स्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्त्व और बढ़ गया है.

रासायनिक उर्वरकों के पर्याय के रूप में हम जैविक खादों जैसे गोबर की खाद, कंपोस्ट हरी खाद आदि का उपयोग कर सकते हैं. इन में हरी खाद सब से सरल व अच्छा प्रयोग है. इस में पशु धन में आई कमी के कारण गोबर की उपलब्धता पर भी हमें निर्भर रहने की जरूरत नहीं है, इसलिए हमें हरी खाद के उपयोग पर गंभीरता से विचार कर क्रियान्वयन करना चाहिए.

हरी खाद केवल नाइट्रोजन व कार्बनिक पदार्थों का ही साधन नहीं है, बल्कि इस से मिट्टी में कई पोषक तत्त्व भी उपलब्ध होते हैं. एक अध्ययन के मुताबिक, एक टन ढैंचा के शुष्क पदार्थ द्वारा मिट्टी में जुटाए जाने वाले पोषक तत्त्व इस प्रकार हैं :

हरी खाद फसल के आवश्यक गुण

* फसल ऐसी हो, जिस में शीघ्र वृद्धि की क्षमता जिस से न्यूनतम समय में काम पूरा हो सके.

* चयन की गई दलहनी फसल में अधिकतम वायुमंडल नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करने की क्षमता होनी चाहिए, जिस से जमीन को अधिक से अधिक नाइट्रोजन उपलब्ध हो सके.

* फसल की वृद्धि होने पर अतिशीघ्र, अधिक से अधिक मात्रा में पत्तियां व कोमल शाखाएं निकल सकें, जिस से प्रति इकाई क्षेत्र से अत्यधिक हरा पदार्थ मिल सके और आसानी से सड़ सके.

* फसल गहरी जड़ वाली हो, जिस से वह जमीन में गहराई तक जा कर अधिक से अधिक पोषक तत्त्वों को खींच सके. हरी खाद की फसल को सड़ने पर उस में उपलब्ध सारे पोषक तत्त्व मिट्टी की ऊपरी सतह पर रह जाते हैं, जिन का उपयोग बाद में बोई जाने वाली मुख्य फसल के द्वारा किया जाता है.

* फसल के वानस्पतिक भाग मुलायम होने चाहिए.

* फसल की जल व पोषक तत्त्वों की मांग कम से कम होनी चाहिए.

* फसल जलवायु की विभिन्न परिस्थितियों जैसे अधिक तापमान, कम तापमान, कम या अधिक वर्षा सहन करने वाली हो.

* फसल के बीज सस्ती दरों पर उपलब्ध हों.

* फसल विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में पैदा होने में समर्थ हो.

हरी खाद बनाने की विधि

* अप्रैलमई महीने में गेहूं की कटाई के बाद जमीन की सिंचाई कर लें. खेत में खड़े पानी में 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से ढैंचा का बीज छितरा लें.

* जरूरत पड़ने पर 10 से 15 दिन में ढैंचा फसल की हलकी सिंचाई कर लें.

* 20 दिन की अवस्था पर 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया को खेत में छितराने से नोड्यूल बनने में सहायता मिलती है.

* 55 से 60 दिन की अवस्था में हल चला कर हरी खाद को दोबारा खेत में मिला दिया जाता है. इस तरह लगभग 10.15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हरी खाद उपलब्ध हो जाती है.

* इस से लगभग 60.80 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है. मिट्टी में ढैंचा के पौधों के गलनेसड़ने से बैक्टीरिया द्वारा नियत सभी नाइट्रोजन जैविक रूप में लंबे समय के लिए कार्बन के साथ मिट्टी को वापस मिल जाते हैं.

हरी खाद देने की विधियां

हरी खाद की स्थानीय विधि : इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है, जिस में हरी खाद का उपयोग करना होता है. यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है.

इस विधि में फूल आने से पूर्व वानस्पतिक वृद्धिकाल (45-60 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है. मिश्रित रूप से बोई गई हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दबा दिया जाता है.

 

Hari Khad

 

हरी पत्तियों की हरी खाद : जलवायु और मिट्टी की दशाओं के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना आवश्यक होता है. जलमग्न व क्षरीय और लवणीय मिट्टी में ढैंचा और सामान्य मिट्टियों में सनई व ढैंचा दोनों फसलों से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है.

हरी खाद के प्रयोग के बाद अगली फसल की बोआई या रोपाई का समय : जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है, वहां जलवायु नम और तापमान अधिक होने से अपघटन क्रिया तेज होती है, इसलिए खेत में हरी खाद की फसल की आयु 40-45 दिन से अधिक नहीं होनी चाहिए.

समुचित उर्वरक प्रबंधन : कम उर्वरता वाली मिट्टियों में नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का प्रयोग उपयोगी होता है. राइजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से नाइट्रोजन स्थिरीकरण सहजीवी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है.

हरी खाद की फसल के लाभ

हरी खाद की फसल का उद्देश्य प्रत्येक स्थिति के आधार पर भिन्नभिन्न होता है, लेकिन उन के द्वारा दिए जाने वाले कुछ लाभ इस प्रकार हैं :

* जैविक पदार्थ और मिट्टी में ह्यूमस का बढ़ना.

* नाइट्रोजन निर्धारण में वृद्धि.

* मिट्टी की सतह का संरक्षण.

* कटाव की रोकथाम.

* मिट्टी की संरचना को बनाए रखना या सुधारना.

* लीचिंग के लिए संवेदनशीलता कम हो जाती है.

* निम्न मिट्टी प्रोफाइल से अनुपलब्ध पोषक तत्त्वों तक पहुंच.

* अगली फसल को आसानी से उपलब्ध पोषक तत्त्व प्रदान करें.

चारा व सब्जी फसल बरबटी की खेती

बरबटी को लोबिया नाम से भी जाना जाता है. यह प्रोटीन का बहुत सस्ता और अच्छा जरीया है. इस को खाने से कब्ज नहीं होता और शरीर मजबूत बनता है. लोबिया की हरी नरम फलियों को सब्जी के तौर पर और दानों को दाल या चाट बना कर इस्तेमाल में लाया जाता है.

बरबटी की जड़ों में पाए जाने वाले राइजोबियम सिंबीआसिस क्रिया के चलते यह डेढ़ सौ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन को स्टोर करता है. इस को मिट्टी कटाव रोकने के लिए भी उगाते हैं. यह कुछ हद तक सूखे के प्रति प्रतिरोधी है और कम उपजाऊ खेतों में भी अच्छी पैदावार होने के चलते लोबिया को सभी तरह की आबोहवा में उगाया जा सकता है.

आबोहवा : यह गरम मौसम की फसल है. ठंडा मौसम इस की खेती के लिए अच्छा नहीं होता. ज्यादा बारिश व पानी का भराव इस के लिए नुकसानदायक होता है.

लोबिया की अलगअलग किस्मों को अलग तरह के तापमान की जरूरत पड़ने के चलते जायद व खरीफ दोनों सीजन में उगाने के लिए अलगअलग किस्में होती हैं.

लोबिया की खेती सभी तरह की मिट्टी में कर सकते हैं. मिट्टी का पीएच मान साढ़े 5 से साढ़े 6 के बीच होना चाहिए. खेत से फालतू पानी को निकालने का इंतजाम होना चाहिए. कारोबारी खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती है. खेत की पहली जुताई कल्टीवेटर से व दूसरी जुताई हैरो से करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरा व समतल बना लेते हैं.

किस्में

अर्का समृद्धि : इस किस्म को आईएचआर-16 के नाम से भी जानते हैं. यह जल्दी पकने वाली किस्म है. इस के पौधे सीधे,  झाड़ीनुमा व 70-75 सैंटीमीटर लंबे होते हैं. इस की फलियां हरी, औसत मोटाई, मुलायम, गूदेदार, 15-18 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. एक हेक्टेयर खेत से 180-190 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है.

अर्का गरिमा : यह किस्म गरमी व सूखे के प्रति सहनशील है. फलियां लंबी, मोटी, गोल व गूदेदार होती हैं. हरी फलियों की पैदावार 80-85 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और फसल 90 दिन में तैयार होती है. यह बरसात के मौसम की खेती के लिए ज्यादा कारगर है.

अर्का सुमन : इस के पौधे सीधे,  झाड़ीनुमा व लंबाई 70-75 सैंटीमीटर होती है. यह किस्म जल्दी पकने वाली है. इस की उत्पादन कूवत 140-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा बरसाती : यह अगेती किस्म है. इस में शाखाएं बहुत कम होती हैं. फलियां 25 से 27 सैंटीमीटर लंबी व हलके हरे रंग की होती हैं. फलियां बोआई के 45-50 दिन बाद तोड़ने लायक हो जाती हैं. हरी फलियों की पैदावार 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

Barbati

पूसा दो फसली : यह  झाड़ीनुमा किस्म है. गरमी व बरसात दोनों मौसमों के लिए माकूल है. हरी फलियों की पहली तुड़ाई बोआई के 50 दिन बाद की जाती है. इस की फलियां 18 सैंटीमीटर लंबी व हलके हरे रंग की होती हैं. हरी फलियों की पैदावार 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा कोमल : इस के पौधे  झाड़ीदार 60 सैंटीमीटर लंबे होते हैं. बोआई के बाद फलियों की पहली तुड़ाई के लिए फसल 60 दिन में तैयार हो जाती है. फलियां गहरे रंग की 20-25 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. गरमी व बरसात दोनों मौसमों के यह लिए माकूल किस्म है. यह किस्म  झुलसा बीमारी के प्रति सहनशील है. फलियों की पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

नरेंद्र लोबिया 2 : इसे एनडीसीपी-13 किस्म के नाम से भी जाना जाता है. इस के पौधे  झाड़ीनुमा, फलियां गहरी हरी, तकरीबन 27-28 सैंटीमीटर लंबी होती हैं.

फलियों की तुड़ाई 50 दिनों बाद की जा सकती है. यह खरीफ व गरमी दोनों मौसमों के लिए एक अच्छी किस्म है. इस की उत्पादन कूवत 75 से सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी उत्तम : इसे वीआरसीपी-3 के नाम से भी जानते हैं. यह एक अगेती किस्म है. पौधे सीमित बढ़वार वाले 40-45 सैंटीमीटर लंबे व सीधे होते हैं. हरी फलियां बोआई के 40-45 दिनों बाद मिलना शुरू हो जाती हैं. फलियां हरी, मुलायम, गूदेदार, 30-35 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. यह किस्म पीला वायरस, जड़ सड़न व पर्ण दाग बीमारी के प्रति रोगरोधी है. पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. फसल 120 से 130 दिनों में तैयार होती है.

काशी कंचन : इस की बोआई अक्तूबर से जनवरी महीने को छोड़ कर पूरे साल आसानी से की जाती है. पौधे सीमित बढ़वार वाले 45-50 सैंटीमीटर लंबे व सीधे होते हैं. फलियां बोआई के 50-55 दिन बाद मिलना शुरू हो जाती हैं. फलियां हरी, मुलायम, गूदेदार व 30 से 35 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. यह पीला वायरस, उकठा, जड़ सड़न व पर्णदाग बीमारी के प्रति रोगरोधी कूवत रखती है. पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. फसल 130 से 140 दिनों में पक कर तैयार होती है.

बीज की मात्रा : लोबिया का औसतन 12 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता है. गरमी की फसल में 20 किलो व बरसात की फसल के लिए 12 किलो बीज पर्याप्त रहता है.

गरमी की फसल के लिए फरवरीमार्च और बरसाती फसल के लिए जूनजुलाई का महीना बोआई के लिए माकूल है.

आमतौर पर तैयार खेत में इस के बीजों को छिटकवां तरीके से बोते हैं. अगर उन्हें लाइनों में बोया जाए तो निराईगुड़ाई वगैरह में आसानी रहती है.  झाड़ीदार व बौनी किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 40-50 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूर 10-15 सैंटीमीटर रखते हैं. इसी तरह फैलने या चढ़ने वाली किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 70-80 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूरी 20-25 सेंटीमीटर रखते हैं.

बोआई से पहले राइजोबियम बैक्टीरिया से बीज का उपचार कर लेना चाहिए. बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना बहुत ही जरूरी है. बीजों को 2-3 सैंटीमीटर गहरा बोते हैं. बोआई के तकरीबन 5-7 दिनों बाद बीज का जमाव हो जाता है. सघन पौधों को उखाड़ कर सही दूरी कर लेते हैं. बरसाती फसलों में बोआई मेड़ों पर की जाती है. इस से बीजों का जमाव व पानी का निकास अच्छा होता है, निराईगुड़ाई, कीट व फफूंदीनाशक दवाओं के छिड़काव में मदद मिलती है.

खाद : खेत की मिट्टी व फसल की जरूरत देखते हुए खाद की मात्रा तय करनी चाहिए. आमतौर पर 25- 30 क्विंटल गोबर की खाद, 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60-70 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए.

गोबर की खाद की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय और नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय मिट्टी में मिला देते हैं.

सिंचाई : लोबिया को कम सिंचाई की जरूरत होती है. इसलिए हलकी सिंचाई करनी चाहिए. आमतौर पर बरसात के मौसम में सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन गरमी मौसम में हफ्ते में एक बार सिंचाई करनी पड़ती है. फलियां बनते समय सिंचाई करना जरूरी होता है और फलियां लगने के बाद भी सिंचाई करनी चाहिए. पहली बार के फूलों से पैदा सभी हरी फलियों की तुड़ाई हो जाए, तब दोबारा सिंचाई करने से पौधों में दूसरी बार फूल पैदा होते हैं.

निराईगुड़ाई : खरपतवारों की रोकथाम व जड़ों में हवा के लिए बोआई के तकरीबन 4 हफ्ते बाद खुरपी या कुदाल से एक बार निराईगुड़ाई जरूर करनी चाहिए. कैमिकल के इस्तेमाल से खरपतवार की रोकथाम के लिए स्टांप 3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के 2 दिन के अंदर स्प्रे करना चाहिए या लासो 4 लिटर प्रति हेक्टेयर मात्रा को 750 से 800 लिटर पानी में मिला कर बोआई के फौरन बाद स्प्रे करें. ऐसा करने से 30-45 दिनों तक खरपतवारों का जमाव नहीं हो पाता है.

तुड़ाई व पैदावार : सब्जी के लिए फलियों को नरम अवस्था में यानी रेशा बनने के पहले तोड़ते हैं. देर से तुड़ाई करने पर फलियों में रेशे पड़ जाते हैं, जिस में बाजार में कम कीमत मिलती है. लोबिया में 3-4 बार फलत होती है और एक फलत में तकरीबन 4 बार तुड़ाई होती है. सहारा देने वाली किस्मों में 7-8 तुड़ाई की जाती हैं. अगेती किस्मों में बोआई के 45 दिन बाद व पछेती किस्मों में बोआई के सौ दिन बाद फलियों की तुड़ाई शुरू की जा सकती है.

जैविक खादें गुणवत्ता से भरपूर

अधिक से अधिक पैदावार लेने के चक्कर में ज्यादातर किसान जैविक खादों के इस्तेमाल में जरा भी दिलचस्पी नहीं लेते, जिस का नतीजा यह होता है कि खेतों की मिट्टी की सेहत खराब होती जा रही है. इस बात को ध्यान में रख कर हर किसान को अपने खेतों में ज्यादा से ज्यादा जैविक खादों का इस्तेमाल करना चाहिए.

जैविक खादों का खेती में बहुत ही अहम रोल है. जैविक खाद खेतों को लंबे समय तक उपजाऊ बनाए रखती है. साथ ही, उत्पाद की क्वालिटी भी अच्छी होती है. खेती में बढ़ते खर्चों को कम करने के लिए भी जैविक खादों का इस्तेमाल फायदे का सौदा साबित होता है.

आइए जानें, कुछ जैविक खाद बनाने के तरीके :

काऊ पैट पिट

दुधारू गाय के गोबर से एक तय आकार के गड्ढे में बनाई जाने वाली खाद काऊ पैट पिट यानी सीपीपी कहलाती है.

जरूरी चीजें : जमीन में 100 सैंटीमीटर लंबा, 60 सैंटीमीटर चौड़ा व 45 सैंटीमीटर गहरा ईंट का गड्ढा. दुधारू गाय का ताजा गोबर 25 किलोग्राम. लगभग 50-60 ईंट या लकड़ी का डेढ़ फुट चौड़ा व 3 फुट लंबा 2 पटरा व डेढ़ फुट चौड़ा व 2 फुट लंबा 2 पटरा. 200 बोर स्वायल या बेसाल्ट या बेनटोनाइट. बायोडायनेमिक प्रिप्रेशन 502-507. हर एक की एकएक ग्राम मात्रा. 250 ग्राम अंडे के छिलके. 100 ग्राम गुड़ का घोल. चटाई या लोहे की टिन. टाट या जूट का बोरा. एक बालटी पानी .

बनाने का तरीका : जमीन में 100 सैंटीमीटर लंबा, 60 सैंटीमीटर चौड़ा व 45 सैंटीमीटर गहरा गड्ढा खोद लें. गड्ढे की भीतरी दीवारों पर ईंटों से दीवार बना लें. तैयार गड्ढे की दीवारों व नीचे के हिस्से को गाय के गोबर से लीप दें. गाय के ताजा गोबर में अंडे के छिलके का पाउडर व बोर स्वायल या बेसाल्ट मिला कर अच्छी तरह पानी डाल कर तब तक फेंटें, जब तक मिश्रण में लस न आ जाए.

तैयार गोबर के मिश्रण को गड्ढे में 6 से 9 इंच मोटा भर दिया जाए. गोबर में अंगूठे की मदद से छेद कर के बीडी प्रिप्रेशन 502 से 506 को चारों कोनों और बीच में डाल कर बंद कर दिया जाए. बीडी प्रिप्रेशन 507 को 350 मिलीलिटर पानी में गुड़ के साथ अच्छी तरह मिला कर 10 मिनट तक घड़ी की दिशा व विपरीत दिशा में भंवर बनाते हुए डंडी से हिला कर गोबर की सतह और दीवारों पर छिड़क देना चाहिए.

जूट के बोरे को गीला कर गड्ढे को ढक दें. बारिश व धूप से बचाने के लिए फूस के छप्पर से गड्ढे को ढक दें. एक महीने बाद गड्ढे की खाद को ऊपरनीचे पलट दिया जाए. यदि नमी कम हो तो पानी का छिड़काव किया जाए. खाद 2-3 महीने में तैयार हो जाती है. अच्छी खाद में मीठी खुशबू होती है.

तैयार खाद स्टोर करना : मिट्टी के बरतन में भर कर इसे छायादार जगह पर स्टोर करें. बरतन के मुंह पर पतला कपड़ा बांधें. नमी कम होने पर बीचबीच में पानी के छींटों से नमी बनाए रखें.

पोषक तत्त्व की कूवत : नाइट्रोजन 1.3-1.55 फीसदी, फास्फोरस 0.3-0.5 फीसदी और पोटाश 0.5-0.65 फीसदी.

इस्तेमाल का तरीका : इस की एक किलोग्राम खाद प्रति एकड़ खेत के लिए काफी होती है. एक किलोग्राम खाद को 45 लिटर साफ पानी में रातभर भिगोएं. सुबह 10 मिनट तक घड़ी की दिशा व विपरीत दिशा में डंडी से भंवर बनाते हुए हिलाएं, तब मिश्रण का छिड़काव करें.

आखिरी जुताई के समय खेत की बोआई या रोपाई से पहले मिट्टी में कूची या ब्रश की मदद से छिड़काव करें. एक किलोग्राम खाद को 40 लिटर पानी में मिला कर ट्री पेस्ट के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इस का इस्तेमाल ग्राफ्टिंग, कलम बनाने व जड़ों को मजबूती देने वगैरह के लिए किया जा सकता है. फलों व सब्जियों के लिए 250 ग्राम खाद में 500 ग्राम प्रति एकड़ फफूंदीनाशक दवा को मिला कर इस्तेमाल किया जा सकता है.

मटका खाद

मटका खाद एक लिक्विड खाद है, जिसे छिड़काव के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. यह खाद मिट्टी के घड़े में दुधारू गाय के गोबर व पेशाब द्वारा तैयार की जाती है.

जरूरी चीजें : मिट्टी का घड़ा. दुधारू गाय का ताजा गोबर. दुधारू गाय का पेशाब. पानी, गुड़, कपड़ा या टाट का टुकड़ा वगैरह.

बनाने का तरीका : मिट्टी के घड़े में दुधारू गाय का 15 किलोग्राम ताजा गोबर, गाय का ताजा 15 लिटर पेशाब व 15 लिटर पानी डाल कर घोल लें. इस में आधा किलोग्राम गुड़ मिला दें. इस घोल को मिट्टी के बरतन में डाल कर ऊपर से कपड़ा या टाट का टुकड़ा व मिट्टी से पैक कर दें. 10-12 दिन बाद यह तैयार हो जाती है.

इस्तेमाल का तरीका : तैयार खाद में 200-250 लिटर पानी मिला कर एक एकड़ खेत में समान रूप से छिड़क दें. यह छिड़काव फसल बोने के 15 दिन बाद करें. फिर 7-7 दिन बाद दोहराते रहें.

मटका खाद के फायदे : यह सस्ता व जल्दी तैयार हो जाता है. बाहर से कोई सामान नहीं लाना पड़ता है. नाइट्रोजन की पूर्ति करता है.

अच्छी पैदावार के लिए कार्बनिक खादें

किसान के लिए मिट्टी उतनी ही जरूरी है, जितनी हमारे लिए हवा या पानी, लेकिन ज्यादा फसल लेने के चक्कर में ज्यादातर किसान कैमिकल खाद का अंधाधुंध इस्तेमाल कर के मिट्टी की ताकत को कमजोर कर देते हैं.

मिट्टी में कई तरह के खनिज तत्त्व पाए जाते हैं, जो जरूरी पोषक तत्त्वों का जरीया होते हैं. लेकिन लंबे समय तक मिट्टी पौधों के लिए पोषक तत्त्व नहीं दे सकती, क्योंकि लगातार फसल लेते रहने से मिट्टी में एक या कई पोषक तत्त्वों का भंडार कम होता जाता है.

एक समय ऐसा आता है कि मिट्टी में पोषक तत्त्वों की कमी का असर फसल पर दिखाई देने लगता है. ऐसी हालत से बचने के लिए जरूरी होता है कि जितनी मात्रा में पोषक तत्त्व व जमीन से पौधों द्वारा लिए जा रहे हैं, उतनी ही मात्रा में जमीन में वापस पहुंचें. जमीन में पोषक तत्त्वों को वापस पहुंचाने के लिए खाद सब से अच्छा जरीया है. खाद 2 तरह की होती हैं, कार्बनिक और अकार्बनिक.

अकार्बनिक खाद को कैमिकल खाद

भी कहा जाता है. यह सभी जानते हैं कि बढि़या बीज, कैमिकल खाद व सिंचाई का हमारे देश की खाद्यान्न हिफाजत में अहम भूमिका होती है.

हरित क्रांति से पहले भी हमारे देश में भुखमरी के हालात थे, लेकिन हरित क्रांति के बाद बढि़या बीज और कैमिकल खादों के इस्तेमाल से हमारी उत्पादकता साल 1990 तक खूब बढ़ी. लेकिन उस के बाद या तो उत्पादकता में ठहराव आ गया, या फिर उस में गिरावट आने लगी.

उत्पादकता में ठहराव या उस में गिरावट की खास वजह है कैमिकल खादों का लगातार असंतुलित यानी बेहिसाब और जरूरत से ज्यादा मात्रा में इस्तेमाल. मिट्टी में हो रहे बदलाव की पिछले 2 दशकों से लगातार चर्चा हो रही है. लगातार कैमिकल खादों के असंतुलित इस्तेमाल से मिट्टी बंजर हो रही है. मिट्टी का पीएच मान प्रभावित हो रहा है व फायदेमंद बैक्टीरिया की तादाद कम हो रही है.

मतलब, मिट्टी की भौतिक, कैमिकल व जैविक तीनों दशाएं प्रभावित हो रही हैं. अगर लगातार कैमिकल खादों का इस्तेमाल चलता रहा, तो एक समय ऐसा आएगा कि मिट्टी की उत्पादकता काफी घट जाएगी और हमारे देश की खाद्यान्न सुरक्षा और आत्मनिर्भरता पर सवालिया निशान लग जाएगा.

Compostअब सवाल यह उठता है कि क्या हम कैमिकल खादों के इस्तेमाल को कम कर अपनी उत्पादकता बनाए रख सकते हैं? इस का जवाब यह है कि हम उसी दशा में उत्पादकता बनाए रख सकते हैं, जब कैमिकल खादों की कमी के चलते होने वाले पोषक तत्त्वों की कमी की भरपाई दूसरे जरीए से करें यानी पौधों के लिए पोषक तत्त्वों की जरूरत में कोई बदलाव न हो, बदलाव जरीए में हो.

मौजूदा समय में कैमिकल खादों की जरूरत के कुछ भाग को कार्बनिक खादों का इस्तेमाल कर पूरा किया जा सकता है. लेकिन पूरी तरह कार्बनिक खादों के इस्तेमाल से परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. जैसे, इन परेशानियों में पहले कुछ सालों में पैदावार में गिरावट मुमकिन है. साथ ही, सौ फीसदी भरपाई के लिए कार्बनिक खादों की जरूरत बहुत होगी. इस वजह से लागत ज्यादा लगानी पड़ेगी.

जैसे, अगर 120 किलोग्राम नाइट्रोजन किसी फसल को देनी है, तो तकरीबन 260 किलोग्राम यूरिया की जरूरत पड़ेगी. लेकिन अगर कोई कार्बनिक खाद, जिस में नाइट्रोजन 1 फीसदी है, इस्तेमाल करनी है, तो उस की 12 टन की जरूरत होगी, जो बहुत बड़ी मात्रा है. ऐसे में कैमिकल खादों के कुछ भाग की भरपाई करना ही ठीक होगा.

कार्बनिक खादों का इस्तेमाल खेती के टिकाऊपन के लिए बहुत जरूरी है. मिट्टी में मौजूद जीवांश को मिट्टी का च्यवनप्राश माना जा सकता है. जैसे इनसानी शरीर के लिए च्यवनप्राश शरीर की सक्रियता के लिए अच्छा माना जाता है, उसी तरह मिट्टी की सेहत के लिए जीवांश की सही मात्रा में मौजूदगी जरूरी होती है.

आमतौर पर देखने में आ रहा है कि मिट्टी में लगातार जीवांश में कमी हो रही है, जिस का मिट्टी की सेहत पर बुरा असर दिख रहा है, इसलिए मिट्टी में जीवांश की मात्रा बनाए रखना बहुत ही जरूरी है.

मिट्टी में जीवांश की मात्रा को कार्बनिक खादों के इस्तेमाल से बनाए रखा जा सकता है या बढ़ाया जा सकता है. ये कार्बनिक खादें अलगअलग हो सकती हैं. जैसे, गोबर की सड़ी खाद, नाडेप कंपोस्ट या केंचुए की खाद.

इस के अलावा कई उत्पाद ऐसे हैं, जिन का कचरा पौधों की खुराक के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. जैसे, हरी खाद व फसल का कचरा जमीन में मिला कर भी मिट्टी में जीवांश की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है. हरी खाद के रूप में ढैंचा व सनई खास फसल हैं. ग्वार व लोबिया भी इस में लिया जा सकता है.

दलहनी फसलों के इस्तेमाल से जहां मिट्टी में जीवांश की मात्रा बढ़ाई जा सकती है, वहीं नाइट्रोजन व फास्फोरस की मौजूदगी को बढ़ाया जा सकता है.

जीवांश की मात्रा बढ़ने से मिट्टी की पानी लेने की कूवत बढ़ जाती है. जीवांश ही मिट्टी में मौजूद बैक्टीरिया की सक्रियता के लिए ऊर्जा का जरीया हैं. ये बैक्टीरिया जमीन में विभिन्न प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं, जिन से विभिन्न पोषक तत्त्वों की उपलब्धता पौधों के लिए सुनिश्चित होती है.

मिट्टी में होने वाले कैमिकल बदलाव का भी जीवांश विरोध करता है. पोषक तत्त्वों का जमीन से रिसाव भी जीवांश की पर्याप्तता से कम हो जाता है. इन सब गुणों के अलावा जीवांश का एक महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि यह विभिन्न पोषक तत्त्वों का जरीया है.